रविवार, 11 अगस्त 2013

आखिर आ ही गए रलावता की छतरी के नीचे

हाल ही शहर जिला कांग्रेस कमेटी में जिस तरह से अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट के धुर विरोधी गुट के नेताओं को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया गया है, ये सवाल उठ खड़ा हुआ है कि क्या ऐसा सचिन से पूछे बिना ही किया जा रहा है? इतना तो तय है कि यह ताजा कवायद कमजोर शहर कांग्रेस कमेटी को मजबूत करने और नाराज नेताओं को राजी करने के लिए की जा रही है, मगर नियुक्ति पाने वाले इसकी क्रेडिट जिस तरह सचिन को देने को तैयार नहीं हैं, उससे प्रतीत होता है इन नियुक्तियों के बारे में सचिन को जानकारी तक नहीं दी जा रही। ज्ञातव्य है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने हाल ही कमेटी में सचिन के प्रति नाराजगी रखने वाले दिनेश शर्मा व विजय यादव को महामंत्री और कुलदीप कपूर व फकरे मोईन को उपाध्यक्ष बनाया है। इनमें यादव, कपूर व मोईन तो पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल खेमे के हैं। यहां रखांकित करने वाली बात ये है कि इससे पहले अजमेर के मामले में प्रदेश स्तर का कोई भी नेता सचिन की वजह से बोलने को तैयार नहीं होता था। इसी कारण कांग्रेसियों में अजमेर को केन्द्र शासित अर्थात सचिन शासित कहा जाता था।
ताजा बदलाव को लेकर सचिन विरोधियों को भले ही यह कहने का मौका मिल गया हो कि वे अपने दम पर नियुक्ति पत्र ले कर आए हैं और इस बहाने यह संदेश देने की कोशिश की जा रही है कि सचिन अब कमजोर हो गए हैं, मगर जानकार लोगों का मानना है कि ऐसा सचिन की जानकारी में ला कर ही किया जा रहा है। अपुन ने तो कुछ दिन पहले ही इसी कॉलम में लिख दिया था कि बीते एक माह में स्थानीय कांग्रेस के बदले समीकरणों के चलते पायलट नए सिरे चौसर बिछाने जा रहे हैं। वजह साफ है। पिछले काफी समय से शहर कांग्रेस कमेटी के प्रति शहर के कांग्रेसियों के एक बड़े धड़े की नाराजगी चल रही है। और सचिन भी जान गए हैं कि चुनावी साल में डेमेज कंट्रोल करना जरूरी है। विशेष रूप से पिछले दिनों लैपटॉप वितरण के सिलसिले में गहलोत के अजमेर आने पर शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता के ऐन मौके पर भीड़ जुटाने में असमर्थता जताने और पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल, पार्षदों व मंडल अध्यक्षों के अतिरिक्त शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अखतर इंसाफ के प्रयासों सभा को सफल बनाने के बाद यह साफ दिखने लगा था कि पायलट नए सिरे से चौसर बिछाएंगे। इसके चलते वे नाराज गुटों को भी सामंजस्य बैठा कर चलने की कोशिश में जुट गए हैं। ताजा नियुक्तियां इसी का नतीजा हैं। इन नियुक्तियों से जयपाल मजबूत हो कर उभरे हैं।
जहां तक नियुक्ति पाने वालों का सवाल है तो वे भले ही इसे अपनी जीत समझें मगर एक अर्थ में यह हार ही है। वो इसलिए कि पूरे चार साल तक तो वे निर्वासित जीवन बिता रहे थे और अब जा कर उनको तवज्जो मिली है, मगर वह भी रलावता की छतरी के नीचे। सवाल उठता है कि क्या शुरुआत में रलावता उन्हें इन्हीं पदों से नवाजते तो वे उसे स्वीकार कर लेते? बेशक, इसका जवाब ना में ही होगा। वजह ये है कि तब उन्हें जसराज जयपाल का हटना इतना नागवार गुजरा था कि वे रलावता को अध्यक्ष मानने को ही राजी नहीं थे। भले ही अब ये कहा जाए कि रलावता अब मनमानी नहीं कर पाएंगे, मगर यह क्या कम बात है कि वे रलावता को अध्यक्ष मानने को तो राजी हुए हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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