किंग एडवर्ड मेमोरियल के मालिकाना हक को लेकर वर्षों से चल रहा विवाद थमता नजर नहीं आ रहा है। इस पर अभी जिला प्रशासन का कब्जा है, जबकि नगर निगम का कहना रहा है कि यह उसकी संपत्ति है। इसके पीछे उसका तर्क ये है कि उसने यह संपत्ति सराय के लिए लीज पर दी थी, जिसकी अवधि समाप्त हो गई है, इस कारण उसे लौटा दिया जाए। जब वह अपने इस तर्क को रिकार्ड के आधार पर साबित नहीं कर पाया तो सरकार ने यह तय किया कि इसे पुरामहत्व का घोषित कर दिया जाए। इसके लिए बाकायदा कला, साहित्य, संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग जिला प्रशासन की पहल पर अधिसूचना जारी की गई और उस पर आपत्तियां मांगी गईं।
हालांकि इसके साथ ही निगम की सारी कवायद समाप्त हो गई, मगर उसने अपने कब्जे की उम्मीद नहीं छोड़ी और अधिसूचना पर आपत्ति करते हुए कहा कि भवन को पुरामहत्व का घोषित करने पर सौ मीटर दायरे में किसी प्रकार के विकास कार्य नहीं हो पाएंगे। सौ मीटर के दायरे में रेलवे स्टेशन, मदार गेट, पड़ाव सहित अन्य क्षेत्र आते हैं। हाल ही में मेमोरियल के पास दुकानों की नीलामी की गई हैं। ऐसे में यदि इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया जाता है तो भारी परेशानी होगी। निगम के तर्कों में दम तो है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि यह संपत्ति है तो पुरामहत्व की। उसकी वजह ये है कि भले ही यह संपत्ति निगम ने कभी लीज पर दी हो मगर संपत्ति पर भवन का निर्माण इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम की याद में वर्ष 1912-1913 में करवाया गया था। दो मंजिला भवन की नींव का पत्थर लार्ड होर्डिग्स द्वारा वर्ष 1912 में रखा गया था। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह पुरामहत्व का हो गया।
हांलाकि निगम के सीईओ सी आर मीणा ने कहा है कि वह अपने हक को लेकर रहेगा, मगर इसमें तनिक संदेह नजर आता है।
इस मसले का एक पहलु ये भी है कि संपदा अधिकारी ने निगम को मेमोरियल सौंपने का फैसला किया है, जो कि न्यायिक फैसले की श्रेणी में आता है, जबकि सरकार ने जो फैसला किया है, वह प्रशासनिक है। संपदा अधिकारी के फैसले पर जिला सत्र न्यायालय में ही अपील की जा सकती है। निगम चाहे तो संपदा अधिकारी के फैसले के आधार कब्जा ले सकता है, लेकिन अधिकारी सरकार के फैसले के खिलाफ जाने से परहेज कर रहे हैं।
परहेज की जो भी वजह हो, मगर मोटे तौर पर यही माना जाता है कि निगम में मौजूद अधिकारी जिला प्रशासन से टकराव मोल नहीं लेना चाहते। ज्ञातव्य है कि इस सराय पर प्रशासन का कब्जा होने के कारण उसके अधिकारियों को आसानी से ऑब्लाइज किया जा सकता है, जबकि निगम को सौंपने के बाद ऐसा नहीं हो पाएगा।
हालांकि इसके साथ ही निगम की सारी कवायद समाप्त हो गई, मगर उसने अपने कब्जे की उम्मीद नहीं छोड़ी और अधिसूचना पर आपत्ति करते हुए कहा कि भवन को पुरामहत्व का घोषित करने पर सौ मीटर दायरे में किसी प्रकार के विकास कार्य नहीं हो पाएंगे। सौ मीटर के दायरे में रेलवे स्टेशन, मदार गेट, पड़ाव सहित अन्य क्षेत्र आते हैं। हाल ही में मेमोरियल के पास दुकानों की नीलामी की गई हैं। ऐसे में यदि इसे संरक्षित स्मारक घोषित किया जाता है तो भारी परेशानी होगी। निगम के तर्कों में दम तो है, मगर वस्तुस्थिति ये है कि यह संपत्ति है तो पुरामहत्व की। उसकी वजह ये है कि भले ही यह संपत्ति निगम ने कभी लीज पर दी हो मगर संपत्ति पर भवन का निर्माण इंग्लैंड के राजा एडवर्ड सप्तम की याद में वर्ष 1912-1913 में करवाया गया था। दो मंजिला भवन की नींव का पत्थर लार्ड होर्डिग्स द्वारा वर्ष 1912 में रखा गया था। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यह पुरामहत्व का हो गया।
हांलाकि निगम के सीईओ सी आर मीणा ने कहा है कि वह अपने हक को लेकर रहेगा, मगर इसमें तनिक संदेह नजर आता है।
इस मसले का एक पहलु ये भी है कि संपदा अधिकारी ने निगम को मेमोरियल सौंपने का फैसला किया है, जो कि न्यायिक फैसले की श्रेणी में आता है, जबकि सरकार ने जो फैसला किया है, वह प्रशासनिक है। संपदा अधिकारी के फैसले पर जिला सत्र न्यायालय में ही अपील की जा सकती है। निगम चाहे तो संपदा अधिकारी के फैसले के आधार कब्जा ले सकता है, लेकिन अधिकारी सरकार के फैसले के खिलाफ जाने से परहेज कर रहे हैं।
परहेज की जो भी वजह हो, मगर मोटे तौर पर यही माना जाता है कि निगम में मौजूद अधिकारी जिला प्रशासन से टकराव मोल नहीं लेना चाहते। ज्ञातव्य है कि इस सराय पर प्रशासन का कब्जा होने के कारण उसके अधिकारियों को आसानी से ऑब्लाइज किया जा सकता है, जबकि निगम को सौंपने के बाद ऐसा नहीं हो पाएगा।
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