रविवार, 31 अगस्त 2014

जनप्रतिनिधि की नियुक्ति के बिना एडीए से ज्यादा उम्मीद बेमानी

जब अजमेर नगर सुधार न्यास को अजमेर विकास प्राधिकरण के रूप में तब्दील किया गया था और इस कार्यक्षेत्र अजमेर के अतिरिक्त पुष्कर व किशनगढ़ किया गया तो यहां के निवासियों में खुशी की लहर थी कि अब इस इलाके का तेजी से विकास होगा, मगर चूंकि इसके अध्यक्ष पद पर अब तक किसी राजनीतिक नेता की नियुक्ति नहीं की गई है, इस कारण विकास को जो गति मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है। सीधी-सीधी बात है कि सरकारी अधिकारी की विशेष रुचि लेकर विकास करने की कभी मंशा नहीं होती, जबकि राजनीतिक नेता वाहवाही के लिए ही सही, कुछ न कुछ नया करने के लिए पूरी ताकत झोंक देता है। मगर अफसोस कि राज्य में नई सरकार बने आठ माह हो गए हैं, मगर इसका जिम्मा सरकारी अधिकारी ही संभाले हुए हैं, जो कि केवल रूटीन का काम करने तक सीमित रहते हैं।
आपको याद होगा कि पिछली सरकार ने बजट में अजमेर प्राधिकरण की घोषणा की थी, तब न्यास अध्यक्ष पद पर नरेन शाहनी भगत थे। कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें प्राधिकरण बनने से पहले ही अध्यक्ष पद की अग्रिम बधाई दे दी थी, लेकिन भूमि के बदले भूमि प्रकरण में नाम आने और एसीबी की कार्रवाई के बाद शाहनी को इस्तीफा देना पड़ा था। दो माह बाद विधानसभा चुनाव होने थे, ऐसे में अध्यक्ष पद सरकार प्राधिकरण के पहले अध्यक्ष पद का दायित्व कलेक्टर वैभव गालरिया को सौंपा गया। जाहिर तौर पर चुनाव होने तक उनसे कोई विशेष अपेक्षा थी भी नहीं, क्योंकि उन पर चुनाव कार्य शांतिपूर्वक कराने का जिम्मा था।
नई सरकार बनी तो फिर उम्मीद जगी कि अब कोई स्थाई नियुक्ति होगी, मगर सरकार ने सीनियर आईएएस देवेंद्र भूषण गुप्ता को अध्यक्ष पद का अतिरिक्त पदभार संभलवा दिया और मनीष चौहान को आयुक्त बनाया गया। यहां उल्लेखनीय है कि प्राधिकरण के नए अध्यक्ष गुप्ता अजमेर के कलेक्टर रह चुके थे, इस कारण उन्हें अजमेर के हालात की पूरी जानकारी थी और यहां की आवश्यकताओं व अपेक्षाओं के अनुरूप विकास को गति दे सकते थे। आयुक्त मनीष चौहान ने भी जता दिया कि वे प्राधिकरण में बिचौलियों पर नकेल कसेंगे, जिससे आम जनता को राहत मिलेगी। उन्होंने कहा कि अच्छा प्रशासन उनकी प्राथमिकता होगी। अजमेर शहर का विकास योजनाबद्ध तरीके से किया जाएगा। विकास कार्यों में तेजी लाई जाएगी एवं प्राधिकरण के कार्यों में आय के स्रोत बढ़ाए जाएंगे। वे अपने मत्नव्य में कितने कामयाब हुए, ये सबके सामने हैं। पिछले दिनों सरकार ने एक आदेश जारी कर जिला कलेक्टर भवानी सिंह देथा को प्राधिकरण का जिम्मा सौंप दिया।  ऐसे में अध्यक्ष पद हासिल करने के दावेदार तो निराश हुए ही, जनता की आशाएं भी ठंडी पड़ी हैं।
लोगों को अब भी उम्मीद है कि नई सरकार जल्द ही अध्यक्ष पद पर कोई राजनीतिक नियुक्ति करेगी, मगर आठ माह बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कुछ हरकत होती नजर नहीं आ रही। वजह चाहे इस दरम्यान लोकसभा चुनाव होने की रही हो या फिर कोई और मगर मामला जस का तस है। हालत ये है कि सरकार अभी तक पूरा मंत्रीमंडल ही गठित नहीं कर पाई है। सरकार की सुस्त चाल के पीछे कुछ तार्किक कारण समझ में आते हैं, मगर यह अजमेर पर तो भारी ही पड़ रहा है। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि अध्यक्ष और सदस्यों के रूप में मनोनयन से भाजपाई अब तक वंचित हैं, बल्कि महत्वपूर्ण ये है कि शहर के विकास में अहम भूमिका अदा कर सकने वाली इस विशेष संस्था की निष्क्रियता से शहर का विकास अवरुद्ध हो रहा है। ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि भाजपाई दावेदारों की अपेक्षा पूरी हो, बल्कि जरूरी ये है कि अजमेर वासियों की अपेक्षाएं पूरी हों।
असल में इस बात के प्रमाण हैं कि जब भी न्यास के अध्यक्ष पद पर कोई राजनीतिक प्रतिनिधि बैठा है, शहर का विकास हुआ है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की। हर न्यास अध्यक्ष ने चाहे शहर के विकास के लिए चाहे अपनी वाहवाही के लिए, काम जरूर करवाया है। पृथ्वीराज चौहान स्मारक, महाराजा दाहरसेन स्मारक, विवेकानंद स्मारक, अशोक उद्यान, राजीव उद्यान सहित अनेक आवासीय योजनाएं उसका साक्षात प्रमाण हैं। जब भी सरकारी अधिकारियों ने न्यास का कामकाज संभाला है, उन्होंने महज नौकरी की बजाई है, विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया है। ऐसे में विकास तो दूर रोजमर्रा के कामों की हालत भी ये है कि जरूरतमंद लोग चक्कर लगा रहे हैं और किसी को कोई चिंता नहीं। नियमन और नक्शों के सैंकड़ों काम अटके पड़े हैं। पिछले सात साल से लोग न्यास के चक्कर लगा रहे हैं, मगर नियमन के मामले नहीं निपटाए जा रहे। असल में न्यास के पदेन अध्यक्ष जिला कलैक्टर को तो प्राधिकरण की ओर झांकने की ही फुरसत नहीं है। वे वीआईपी विजिट, जरूरी बैठकों आदि में व्यस्त रहते हैं। कभी उर्स मेले में तो कभी पुष्कर मेले की व्यवस्था में खो जाते हैं। प्राधिकरण से जुड़ी अनेक योजनाएं जस की तस पड़ी हैं। कुल मिला कर जब तक न्यास के सदर पद पर किसी राजनीतिक व्यक्ति की नियुक्ति नहीं होती, तब तक अजमेर का विकास यूं ही ठप पड़ा रहेगा।
प्राधिकरण बनने पर ये जगी थीं उम्मीदें
प्राधिकरण गठित होने की वजह से भविष्य में विकास की रफ्तार तेज होने की आशा बलवती हुई थी। वजह ये कि प्राधिकरण का क्षेत्र काफी बड़ा हो गया था। इसके तहत किशनगढ़ और पुष्कर शहर के अतिरिक्त 119 गांव भी इसका हिस्सा बन गए। यानि कि प्राधिकरण यूआईटी की तुलना में एक उच्च शक्ति वाली संस्था बन गई। इसमें सरकार की ओर से घोषित एक चेयरमैन के अलावा एक सचिव और 19 सदस्य का प्रावधान है। 19 सदस्यों में से 12 सदस्य आधिकारिक और 7 सदस्य राजनीतिक नियुक्तियों के रखने का प्रावधान है। जैसे ही प्राधिकरण का गठन हुआ तो सभी समाचार पत्रों में यह शीर्षक सुर्खियां पा रहा था कि अब लगेंगे अजमेर के विकास को पंख। उम्मीद स्वाभाविक भी थी। उम्मीद जताई गई थी कि सही योजनाएं बनीं और तय समय में काम पूरे हुए तो एक दशक में ही अजमेर महानगर में तब्दील हो सकता है। इसके ठोस आधार भी हैं। प्राधिकरण की सीमाएं किशनगढ़ औद्योगिक क्षेत्र तक हैं, यानि केंद्रीय विद्यालय तक हमारी पहुंच हो गई है। बाड़ी घाटी अब प्राधिकरण का हिस्सा है, यानि विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद बने पुष्कर तीर्थ को हम विकास की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय सुविधाएं दे सकते हैं। ब्यावर रोड पर सराधना और नारेली तीर्थ हमारी सीमा में आ जाने से हम कई दृष्टि से विकसित हो जाएंगे। हवाई अड्डा तो गेगल निकलते ही हम छू लेंगे। कुल मिला कर अजमेर विकास प्राधिकरण का गठन अजमेर के विकास में मील का पत्थर साबित होगा। इसके अतिरिक्त प्राधिकरण बनने से किसानों को भू-उपयोग परिवर्तन कराने के लिए उपखंड अधिकारी व कलेक्ट्रेट के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। टाउन शिप पॉलिसी के तहत अब प्राधिकरण में होगा यह काम। इससे किसानों के एक ही स्थान पर हो जाएंगे काम। प्राधिकरण के सभी गांवों में यात्री सेवाओं की पहुंच होगी। इससे टेम्पो, सिटी बस व यात्री वाहन का परिवहन बढ़ेगा तथा आम लोग को इस क्षेत्र में कारोबार व रोजगार का लाभ मिलेगा। गांवों के लोगों को सड़क नाली, बिजली के विधायकों व जन प्रतिनिधियों के चक्कर लगाने पड़ते थे लेकिन अब ये काम प्राधिकरण स्तर पर हो जाएंगे। पुष्कर व किशनगढ़ में अब तक आवासन मंडल द्वारा ही मकान बनाए जाते रहे, लेकिन प्राधिकरण भी इन स्थानों पर आवासीय भूखंड करेगा, जिसकी कीमत मंडल से काफी कम होगी। न्यास अध्यक्ष को 25 लाख रुपए और सचिव को दस लाख रुपए के वित्तीय अधिकार थे, मगर अध्यक्ष और कमिश्नर (सचिव) दोनों के वित्तीय अधिकार एक-एक करोड़ रुपए हो गए हैं।
-तेजवानी गिरधर

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें