-तेजवानी गिरधर-
अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में भाजपा से बगावत करने के बाद हार जाने से सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना का लंबा राजनीतिक जीवन दाव पर लग गया है। उन्हें भाजपा से बाहर निकाला दिया गया है। अब हर एक अजमेर वासी की जुबान पर ये सवाल है कि उनका अगला कदम क्या होगा। क्या वे कांग्रेस ज्वाइन करेंगे या फिर भाजपा में लौटने की जुगत बैठाएंगे अथवा सामान्य वर्ग के हितों के लिए कोई लंबी मुहिम चलाएंगे।
जहां तक सामान्य तबके के लोगों का सवाल है, वे उनके भाजपा से बगावत को इस लिहाज से उचित मानते हैं कि आखिर उन्होंने हिम्मत तो दिखाई, सामान्य तबके के हितों की रक्षा करने की। उनके कदम को कितना समर्थन था, इसका अंदाजा मेयर के चुनाव के वक्त नगर निगम भवन के बाहर उठ रहे ज्वार से लगाया जा सकता है। असल में ये गुस्सा अजमेर की एक सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने व दूसरी अघोषित रूप से सिंधियों के लिए आरक्षित होने के बाद भी मेयर के सामान्य सीट पर ओबीसी को बैठाने को लेकर था। इसमें वे लोग भी षामिल थे, जो भाजपा मानसिकता के होने के बाद भी लंबे अरसे से षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी के खिलाफ हैं। एक बात और। अगर लाला बन्ना की जगह कोई और होता तो कदाचित इतना जनसमर्थन नजर नहीं आता। कारण की उनकी खुद की अच्छी खासी फेन फॉलोइंग है।
जाहिर तौर पर उनके हार जाने का सबको दुख है। और गुस्सा भी कि सत्ता का गलत उपयोग किया गया। सारा ठीकरा खुद पर फूटता देख निर्वाचन अधिकारी हरफूल सिंह यादव को बाकायदा बयान जारी कर सफाई देनी पडी कि उन्होंने कोई पक्षपात नहीं किया, मगर उस पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। वजह ये है कि घोषणा से पहले ही टीवी व सोषल मीडिया पर आ गया कि लाला बन्ना विजयी हो गए।
रहा सवाल कि क्या लाला बन्ना से सही किया। कुछ तो ऐसे हैं जो कि लाला बन्ना के इस कदम को पार्टी से बगावत ही नहीं मानते। वे कहते हैं कि अगर पार्टी सामान्य सीट पर किसी सामान्य को ही उतारती और तब भी वे चुनाव मैदान में उतरते तो वह बगावत कहलाई जा सकती थी। उन्होंने सामान्य जन के हित की खातिर खुद का राजनीतिक कैरियर दाव पर लगा दिया; ऐसे नेता को दगाबाज या बागी कहना गलत है। अगर ऐसा ही होता रहा तो फिर आगे कभी कोई सामान्य वर्ग के लिए आगे आने को तैयार नहीं होगा। यहां उल्लेखनीय है कि खुद बन्ना ने भी यही कहा था कि वे केवल सामान्य जन के हितों के कुठाराघात होने के कारण निर्दलीय रूप से मैदान में उतरे हैं। यदि पार्टी किसी सामान्य को टिकट देती तो वे उसका समर्थन करते।
बेषक ताजा हालात तो ये ही हैं कि हर किसी की लाला के प्रति हमदर्दी है और सभी षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी को ही दोषी मान रहे हैं। मगर ऐसे भी हैं, जो पूरे मामले को अलग नजरिये से देखते हैं। उनका कहना है कि सामान्य सीट का मतलब ये नहीं होता कि उस पर केवल सामान्य ही खडा हो सकता है। सामान्य का मतलब होता है कि अनारक्षित अथवा ओपन फोर ऑल। ऐसे में अगर धर्मेन्द्र गहलोत को इस सीट पर उतारा गया तो उसमें गलत क्या है। यह उनका कानूनी अधिकार भी तो है। दूसरा ये कि लोकतंत्र में सही और गलत का पैमाना केवल संख्या बल ही होता है और वह धर्मेन्द्र गहलोत के साथ था। ऐसे में उनके निर्वाचन को सामान्य वर्ग के अहित के रूप में कैसे देखा जा सकता है। एक तर्क ये भी है कि लाला बन्ना को मेयर सीट का दावा करना ही नहीं चाहिए था क्योंकि वे अपने दक्षिण इलाके से पर्याप्त पार्षद नहीं जितवा पाए। ऐसे में मेयर बनने की जिद पकड़ कर, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के निर्णय को अस्वीकार करते हुए पूरे शहर की जनता को पूरे दिन परेशान कर और अंत में अपनी ही पार्टी की किरकिरी करवा कर कौनसी नैतिकता का परिचय दिया था? जब अजमेर में पार्टी की इज्जत देवनानी ने बचाई तो उन्हें ही अधिकार था कि उनकी पसंद के पार्षद को टिकट दिया जाए। उसमें भी यह अहम है कि उन्होंने उसी को टिकट दिलवाया जो इसका पात्र था, जिसने पार्टी को जितवाने में अहम भूमिका निभाई। उनके योगदान को भुला कर ऐसे किसी भी सामान्य को टिकट देना क्या उचित होता जो केवल खुद की सीट जीत पाया हो। पार्टी हाईकमान को बेहतर पता है कि उसे क्या करना है। फिर जब पार्टी ने एक प्रत्याषी तय कर दिया तो उसे स्वीकार न करना बगावत ही तो कहलाएगी। ऐसे में बन्ना ने जो किया वह भले ही सामान्य वर्ग के हित की लडाई करार दी जाए, मगर इससे पार्टी की जो किरकिरी हुई है, उसकी भरपाई करना कठिन है।
बहरहाल, सभी के अपने अपने तर्क हैं, मगर असल नुकसान तो बन्ना हो ही हुआ है। उनका वर्षों से बनाया गया राजनीतिक कैरियर चौपट हो गया। भाजपा अब उन्हें वापस लेगी नहीं, लेना भी चाहेगी तो देवनानी आडे आएंगे। उधर यदि वे कांग्रेस में षामिल होते हैं तो कांग्रेस उन्हें क्या देने वाली है। अभी कांग्रेस के पास कुछ देने को है भी नहीं। आगे भी उन्हें अजमेर उत्तर से टिकट नहीं दिया जा सकेगा, क्योंकि दो बार गैर सिंधी के रूप में डॉ श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दे कर हार का मुंह देख चुकी पार्टी अब ये दुस्साहस नहीं करेगी। ऐसे में बन्ना के लिए एक मात्र चारा ये बचा है कि वे तीन साल इंतजार करें और सामान्य वर्ग के हितों की लडाई को जारी रखते हुए निर्दलीय के रूप में चुनाव लडें और कांग्रेस व भाजपा के सिंधी प्रत्याषियों को हरा कर जीतें। हालांकि यह प्रयोग पहले सतीष बंसल कर चुके हैं, मगर तब सामान्य वर्ग उतना संगठित नहीं हो पाया था। अब सामान्य वर्ग का मिजाज उफान पर है, लाला बन्ना की लोकप्रियता भी है और उनका बलिदान भी सबके सामने है, जिसे कि आगामी चुनाव में भुनाया जा सकता है।
कुछ लोगों का मानना है कि लाला बन्ना के लिए चूंकि कांग्रेस में कुछ नहीं रखा है, इस कारण वापस मुख्य धारा में आने की कोषिष करेंगे, जिसमें उनके आका दिग्गज भाजपा नेता ओम प्रकाष माथुर कर सकते हैं।
चंद सवाल कुछ और छूट गए हैं। आखिर क्या वजह रही कि भारी जनसमर्थन के बाद भी लाला बन्ना ने अजमेर बंद का संभावित कदम पीछे लिया, कहीं उन्हें सत्ता की ओर से कोई धमकी तो नहीं मिली। क्या वजह रही कि ओबीसी का मेयर बनने पर जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वह डिप्टी मेयर भी ओबीसी का बनने पर काफूर हो गया।
अजमेर नगर निगम के मेयर पद के चुनाव में भाजपा से बगावत करने के बाद हार जाने से सुरेन्द्र सिंह शेखावत उर्फ लाला बन्ना का लंबा राजनीतिक जीवन दाव पर लग गया है। उन्हें भाजपा से बाहर निकाला दिया गया है। अब हर एक अजमेर वासी की जुबान पर ये सवाल है कि उनका अगला कदम क्या होगा। क्या वे कांग्रेस ज्वाइन करेंगे या फिर भाजपा में लौटने की जुगत बैठाएंगे अथवा सामान्य वर्ग के हितों के लिए कोई लंबी मुहिम चलाएंगे।
जहां तक सामान्य तबके के लोगों का सवाल है, वे उनके भाजपा से बगावत को इस लिहाज से उचित मानते हैं कि आखिर उन्होंने हिम्मत तो दिखाई, सामान्य तबके के हितों की रक्षा करने की। उनके कदम को कितना समर्थन था, इसका अंदाजा मेयर के चुनाव के वक्त नगर निगम भवन के बाहर उठ रहे ज्वार से लगाया जा सकता है। असल में ये गुस्सा अजमेर की एक सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित होने व दूसरी अघोषित रूप से सिंधियों के लिए आरक्षित होने के बाद भी मेयर के सामान्य सीट पर ओबीसी को बैठाने को लेकर था। इसमें वे लोग भी षामिल थे, जो भाजपा मानसिकता के होने के बाद भी लंबे अरसे से षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी के खिलाफ हैं। एक बात और। अगर लाला बन्ना की जगह कोई और होता तो कदाचित इतना जनसमर्थन नजर नहीं आता। कारण की उनकी खुद की अच्छी खासी फेन फॉलोइंग है।
जाहिर तौर पर उनके हार जाने का सबको दुख है। और गुस्सा भी कि सत्ता का गलत उपयोग किया गया। सारा ठीकरा खुद पर फूटता देख निर्वाचन अधिकारी हरफूल सिंह यादव को बाकायदा बयान जारी कर सफाई देनी पडी कि उन्होंने कोई पक्षपात नहीं किया, मगर उस पर कोई यकीन करने को तैयार नहीं है। वजह ये है कि घोषणा से पहले ही टीवी व सोषल मीडिया पर आ गया कि लाला बन्ना विजयी हो गए।
रहा सवाल कि क्या लाला बन्ना से सही किया। कुछ तो ऐसे हैं जो कि लाला बन्ना के इस कदम को पार्टी से बगावत ही नहीं मानते। वे कहते हैं कि अगर पार्टी सामान्य सीट पर किसी सामान्य को ही उतारती और तब भी वे चुनाव मैदान में उतरते तो वह बगावत कहलाई जा सकती थी। उन्होंने सामान्य जन के हित की खातिर खुद का राजनीतिक कैरियर दाव पर लगा दिया; ऐसे नेता को दगाबाज या बागी कहना गलत है। अगर ऐसा ही होता रहा तो फिर आगे कभी कोई सामान्य वर्ग के लिए आगे आने को तैयार नहीं होगा। यहां उल्लेखनीय है कि खुद बन्ना ने भी यही कहा था कि वे केवल सामान्य जन के हितों के कुठाराघात होने के कारण निर्दलीय रूप से मैदान में उतरे हैं। यदि पार्टी किसी सामान्य को टिकट देती तो वे उसका समर्थन करते।
बेषक ताजा हालात तो ये ही हैं कि हर किसी की लाला के प्रति हमदर्दी है और सभी षिक्षा राज्य मंत्री प्रो वासुदेव देवनानी को ही दोषी मान रहे हैं। मगर ऐसे भी हैं, जो पूरे मामले को अलग नजरिये से देखते हैं। उनका कहना है कि सामान्य सीट का मतलब ये नहीं होता कि उस पर केवल सामान्य ही खडा हो सकता है। सामान्य का मतलब होता है कि अनारक्षित अथवा ओपन फोर ऑल। ऐसे में अगर धर्मेन्द्र गहलोत को इस सीट पर उतारा गया तो उसमें गलत क्या है। यह उनका कानूनी अधिकार भी तो है। दूसरा ये कि लोकतंत्र में सही और गलत का पैमाना केवल संख्या बल ही होता है और वह धर्मेन्द्र गहलोत के साथ था। ऐसे में उनके निर्वाचन को सामान्य वर्ग के अहित के रूप में कैसे देखा जा सकता है। एक तर्क ये भी है कि लाला बन्ना को मेयर सीट का दावा करना ही नहीं चाहिए था क्योंकि वे अपने दक्षिण इलाके से पर्याप्त पार्षद नहीं जितवा पाए। ऐसे में मेयर बनने की जिद पकड़ कर, पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के निर्णय को अस्वीकार करते हुए पूरे शहर की जनता को पूरे दिन परेशान कर और अंत में अपनी ही पार्टी की किरकिरी करवा कर कौनसी नैतिकता का परिचय दिया था? जब अजमेर में पार्टी की इज्जत देवनानी ने बचाई तो उन्हें ही अधिकार था कि उनकी पसंद के पार्षद को टिकट दिया जाए। उसमें भी यह अहम है कि उन्होंने उसी को टिकट दिलवाया जो इसका पात्र था, जिसने पार्टी को जितवाने में अहम भूमिका निभाई। उनके योगदान को भुला कर ऐसे किसी भी सामान्य को टिकट देना क्या उचित होता जो केवल खुद की सीट जीत पाया हो। पार्टी हाईकमान को बेहतर पता है कि उसे क्या करना है। फिर जब पार्टी ने एक प्रत्याषी तय कर दिया तो उसे स्वीकार न करना बगावत ही तो कहलाएगी। ऐसे में बन्ना ने जो किया वह भले ही सामान्य वर्ग के हित की लडाई करार दी जाए, मगर इससे पार्टी की जो किरकिरी हुई है, उसकी भरपाई करना कठिन है।
बहरहाल, सभी के अपने अपने तर्क हैं, मगर असल नुकसान तो बन्ना हो ही हुआ है। उनका वर्षों से बनाया गया राजनीतिक कैरियर चौपट हो गया। भाजपा अब उन्हें वापस लेगी नहीं, लेना भी चाहेगी तो देवनानी आडे आएंगे। उधर यदि वे कांग्रेस में षामिल होते हैं तो कांग्रेस उन्हें क्या देने वाली है। अभी कांग्रेस के पास कुछ देने को है भी नहीं। आगे भी उन्हें अजमेर उत्तर से टिकट नहीं दिया जा सकेगा, क्योंकि दो बार गैर सिंधी के रूप में डॉ श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दे कर हार का मुंह देख चुकी पार्टी अब ये दुस्साहस नहीं करेगी। ऐसे में बन्ना के लिए एक मात्र चारा ये बचा है कि वे तीन साल इंतजार करें और सामान्य वर्ग के हितों की लडाई को जारी रखते हुए निर्दलीय के रूप में चुनाव लडें और कांग्रेस व भाजपा के सिंधी प्रत्याषियों को हरा कर जीतें। हालांकि यह प्रयोग पहले सतीष बंसल कर चुके हैं, मगर तब सामान्य वर्ग उतना संगठित नहीं हो पाया था। अब सामान्य वर्ग का मिजाज उफान पर है, लाला बन्ना की लोकप्रियता भी है और उनका बलिदान भी सबके सामने है, जिसे कि आगामी चुनाव में भुनाया जा सकता है।
कुछ लोगों का मानना है कि लाला बन्ना के लिए चूंकि कांग्रेस में कुछ नहीं रखा है, इस कारण वापस मुख्य धारा में आने की कोषिष करेंगे, जिसमें उनके आका दिग्गज भाजपा नेता ओम प्रकाष माथुर कर सकते हैं।
चंद सवाल कुछ और छूट गए हैं। आखिर क्या वजह रही कि भारी जनसमर्थन के बाद भी लाला बन्ना ने अजमेर बंद का संभावित कदम पीछे लिया, कहीं उन्हें सत्ता की ओर से कोई धमकी तो नहीं मिली। क्या वजह रही कि ओबीसी का मेयर बनने पर जनता का गुस्सा सातवें आसमान पर था, वह डिप्टी मेयर भी ओबीसी का बनने पर काफूर हो गया।
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