शनिवार, 17 जून 2017

ऐसे शिविरों को रोक क्यों नहीं दिया जाता?

पिछले कितने दिनों से मीडिया में लगातार यह खबर सुर्खी में है कि मुख्यमंत्री शहरी जन कल्याण शिविर नाकामयाब हैं, मगर प्रशासन तो लकीर के फकीर की तरह कवायद किए जा रहा है और सरकार भी है कि ऐसे शिविरों को निरंतर जारी रखे हुए हैं, मानों डाक्टर ने कहा हो या किसी पंडित ने सलाह दी हो।
कितने अफसोस की बात है कि मीडिया यह तथ्य लिख लिख कर नहीं  थक रहा कि मुख्यमंत्री शहरी जन कल्याण शिविर पूरी तरह से फ्लॉप शो साबित हो रहे हैं, आम जनता भी इस खबर को पढ़ पढ़ का ऊब गई है, मगर सरकार व प्रशासन के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही।
असल में इन शिविरों की नामकामयाबी की मुख्य वजह कच्ची बस्ती में पट्टे नहीं दिए जाने और सरकारी भूमि का नियमन नहीं होना है। खुद सरकार ही इस मामले में असमंजस में रही। पहले कच्ची बस्ती पट्टे एवं सरकारी भूमि पर नियमन की बात कही गई, लेकिन जैसे ही शिविर शुरू हुए सरकार ने दोनों अहम मुद्दे हटा लिए। नतीजा ये रहा कि आम आदमी की रुचि इन शिविरों में समाप्त हो गई। असल में ऐसे शिविरों को इंतजार इसीलिए रहता है कि इनमें पट्टे व नियमन इनमें आसानी से हो जाते हैं। सबको पता है कि पट्टे जारी करने व नियमन के मामले इतने कॉम्प्लीकेटेड होते हैं कि फाइलों को एक सीट से दूसरी सीट तक खिसकने में कछुआ चाल की याद आ जाती है। लोगों की जूतियां दफ्तर के चक्कर लगाते लगाते घिस जाती हैं।  बरसों लग जाते हैं। शिविर में चूंकि संबंधित सभी अफसर व कर्मचारी मौजूद होते हैं और उन्हें पता होता है कि उन्हें यही काम करना है, इस कारण वहां ऐसे मामले निपट जाते हैं। बाकी के काम तो रुटीन में चलते ही हैं। उनके लिए शिविर की जरूरत ही नहीं होती। मगर सरकार को ये बात समझ में ही नहीं आई।
हालत ये है दिनभर अधिकारी एवं कर्मचारी लोगों के इंतजार में बैठे नजर आते हैं। जो कार्य आम दिनों में दफ्तरों में संपादित होते हैं, वही कार्य शिविर में हो रहे हैं, जिनमें से प्रमुख रूप से जन्म-मृत्यु प्रमाण पत्र, विवाह पंजीयन, भामाशाह कार्ड वितरण, एसबीएम के तहत व्यक्तिगत शौचालयों के लिए राशि का वितरण आदि हैं। शिविरों में आवक न होने की खबरें लगातार आ रही हैं, मगर प्रशासन व सरकार ढर्रे पर ही चल रहे हैं। अनुमान लगाइये कि जिन शिविरों से कोई लाभ नहीं हो रहा, उन पर टेंट, कुर्सियां, कूलर व अन्य इंतजामात पर कितना खर्च हो रहा है। इसके अतिरिक्त जो कर्मचारी दफ्तर में कुछ काम भी कर लेता, वह शिविर में आ कर निठल्ला बैठा है। इसका कितना नुकसान हो रहा है, इसको देखने वाला कोई नहीं है। ऐसा हो सकता है कि शिविर समापन पर प्रशासन व सरकार ऐसे आंकड़े देने की कोशिश करें कि देखो शिविर कितने कामयाब रहे, मगर जब बारीकी से देखा जाएगा तो यही सामने आएगा कि आम जन के वे काम ही हो पाए हैं, जो कि आम दिनों में आसानी से होते हैं। उनके लिए शिविर की जरूरत ही नहीं थी।
सबसे अफसोसनाक बात ये है कि सरकार को यह परवाह भी नहीं कि उसकी भद पिट रही है। उसकी छवि खराब हो रही है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आम जनता का भरोसा सरकार पर रह ही नहीं गया। मगर नीति निर्धारक हैं कि उनकी नींद ही नहीं खुल रही। कदाचित ऐसी स्थिति को ही किसी जमाने में पोपा बाई का राज की उपमा दी गई होगी, जो कि कहावत बन गई।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

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