मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

बिंदास कर्मचारी नेता थे श्री संतोष कुमार भावनानी

किसी जमाने में अजमेर नगर परिषद, जो कि अब नगर निगम है, में श्री संतोष कुमार भावनानी बहुत दमदार व बिंदास कर्मचारी नेता थे। हाल ही उनका देहावसान हो गया। उनका जन्म 2 नवंबर 1946 को सिंध-पाकिस्तान में श्री लाडिक दास भावनानी के घर हुआ। उन्होंने 1963 में आदर्श स्कूल से हायर सेकंडरी की परीक्षा पास की और नगर परिषद, अजमेर में लिपिक के पद पर नियुक्त हुए। तकरीबन 41 साल की सरकारी सेवाओं के बाद फरवरी 2002 में सेवानिवृत्त हुए। वे अजमेर जिला नगर पालिका फेडरेशन के संरक्षक व सेवानिवृत्त कर्मचारी फेडरेशन, अजमेर नगर निगम के अध्यक्ष थे। वे कर्मचारियों के हितों के लिए सतत संघर्षशील रहे और अनेक कार्य करवाए। कई सफल आंदोलन किए। अधिकारी भी उनकी संगठन क्षमता का लोहा मानते थे। 

समाजसेवा में भी उनकी गहरी दिलचस्पी थी। वे देहली गेट स्थित पूज्य लाल साहब मंदिर सेवा ट्रस्ट (झूलेलाल धाम) के उपाध्यक्ष थे। इसके अतिरिक्त अजमेर सिंधी पंचायत, सिंधु संगम, सिंधी संगम समिति से भी जुडे रहे। उन्होंने पंचायत की ओर से आयोजित प्रतिभावान विद्यार्थी सम्मान समारोह व इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका के लिए खूब काम किया। पिछले काफी समय से अस्वस्थ थे, इस कारण घर पर ही रहते थे। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2025

कोई वस्तु रखी है और पड़ी है, में फर्क है

दैनिक न्याय पत्रकारिता की प्राथमिक पाठशाला थी। गुरुकुल जैसी। यूनिवर्सिटी भी थी, मगर उनके लिए, जिन्होंने उसे गहरे से आत्मसात किया। बाद में वे बड़े से बड़े अखबार में भी मात नहीं खाए। प्राथमिक पाठशाला इस अर्थ में कि जिसने भी वहां काम किया, उसे पत्रकारिता के साथ-साथ मौलिक रूप से शुद्ध हिंदी भी सीखने को मिली। इसके प्रकाशक व संपादक स्वर्गीय बाबा श्री विश्वदेव शर्मा शुद्ध हिंदी के प्रति अत्यंत सजग थे। रोजाना सुबह अखबार की एक-एक लाइन पढ़ा करते थे। वर्तनी की छोटी से छोटी गलती पर गोला मार्क कर देते। यहां तक कि बिंदी व कोमा की गलती भी नहीं छोड़ते थे। प्रूफ रीडिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया करते थे। दो प्रूफ निकालने की तो हर अखबार में परंपरा थी, मगर वे तीसरा प्रूफ भी पढ़वाया करते थे, ताकि एक भी गलती न जाए। मुझे अच्छी तरह से याद है कि उनके एक पुत्र श्री सनत शर्मा तीसरा प्रूफ पढ़ा करते थे। वर्तनी व व्याकरण की त्रुटियों को लेकर इतने सख्त थे कि एक बिंदी की गलती पर भी प्रूफ रीडर की तनख्वाह में से पच्चीस पैसे काट लेते थे। शब्दों के ठीक-ठीक अर्थ की भी उनको गहरी समझ थी। उन्हें यह बर्दाश्त ही नहीं होता था कि कोई कर्मचारी गलत शब्द का इस्तेमाल करे। अपनी टेबल पर सदैव हिंदी शब्द कोष व अंग्रेजी-हिंदी डिक्शनरी रखा करते थे। किसी शब्द को लेकर कोई भी शंका हो तो शब्द कोष देख कर कन्फर्म करने को कहते थे। 

एक बार की बात है। उन्होंने एक क्लर्क को पूछा कि अमुक फाइल कहां पर है? क्लर्क ने जवाब दिया- अलमारी में  पड़ी है। बाबा ने दुबारा पूछा- अमुक फाइल कहां है? वही जवाब मिला- अलमारी में पड़ी है। इस पर उनको गुस्सा आ गया। तीसरी बार सख्ती से पूछा- अमुक फाइल कहां पर है? क्लर्क को समझ में नहीं आया कि तीसरी बार फिर वही सवाल क्यों किया जा रहा है। उसने जैसे ही कहा कि अलमारी में पड़ी है तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। उन्होंने क्लर्क को झन्नाटेदार थप्पड़ जड़ दिया। बोले कि ये मत कहो कि पड़ी है, ये कहो कि रखी है। पड़ी का मतलब तो ये होता है कि लावारिस पड़ी है, जबकि रखी का मतलब होता है कि सुरक्षित और ठिकाने पर रखी है। आम तौर पर हम पड़ी और रखी शब्दों में हम फर्क नहीं समझते, मगर गौर से देखें तो वाकई बहुत अंतर है। मामूली अंतर है, मगर बड़ा भारी अंतर है। तात्पर्य यही कि बाबा शुद्ध हिंदी के प्रति अत्यधिक कटिबद्ध थे। यही वजह थी कि दैनिक न्याय में जिन्होंने पकारिता सीखी, वे पारंगत हो गए। बाद में जब किसी बड़े अखबार में गए तो पत्रकारिता की स्कूलिंग उन्हें बहुत काम आई। अच्छे-अच्छे पत्रकारों को टक्कर देने की काबिलियत रही उनमे। दैनिक न्याय जैसी पाठशालाएं अब कहां?

केवल पत्रकारिता ही नहीं, अपितु अनुशासन भी गजब का था दैनिक न्याय में। एक ऑलपिन तक यदि फर्श पर गिर जाए तो जिम्मेदार कर्मचारी के वेतन में से पैसे काट लिया करते थे। अनुशासन के ऐसे माहौल का ही परिणाम था कि सभी कर्मचारी अनुशासित रहने के आदी हो गए थे। उन दिनों टेलीफोन हर घर में नहीं हुआ करता था। पर हर कॉल के पैसे लगा करते थे। व्यवस्था ये थी कि अगर किसी आगंतुक को कॉल करना होता था तो उससे एक रुपया लिया जाता था। बाबा के एक पुत्र वृहस्पति शर्मा उन दिनों जयपुर कार्यालय में थे। कभी कभार अजमेर आया करते थे, इस कारण कई कर्मचारी उन्हें नहीं जानते थे। एक बार वे आए और उन्हें फोन करने की जरूरत पड़ी तो वे सीधे गए टेलीफोन के पास और एक कॉल कर लिया। जैसे ही जाने लगे तो वहां मौजूद सहायक संपादक संजय भट ने उनके एक रुपया मांग लिया। वे तो भौंचक्क ही रह गए। अपने ही संस्थान में कोई कर्मचारी अगर एक फोन कॉल के पैसे मांग ले तो बुरा लगेगा ही। मगर संजय भट अड़ गए। वृहस्पति शर्मा ने अपना परिचय दिया कि वे बाबा के पुत्र हैं। इस पर संजय भट बोले कि मैं आपको नहीं जानता। आप बाबा के सुपुत्र हैं, मगर यहां तो यही नियम है कि कोई भी कॉल करेगा तो उसे एक रुपया देना ही होगा। आखिरकार वृहस्पति शर्मा को एक रुपया निकाल कर देना ही पड़ा, मगर वे इस अनुशासन को देख कर बहुत प्रसन्न हुए और संजय भट को शाबाशी दी।

https://youtu.be/SmwG40g3V_Q


गुरुवार, 24 अप्रैल 2025

करोड़ों लोगों की वंशावली बंद है बहियों में

तीर्थ यात्रा की दृष्टि से पुष्कर का विशेष महत्व है। चारों धामों की यात्रा के बाद भी तीर्थ यात्रा तभी पूरी मानी जाती है, जब पुष्कर सरोवर में डुबकी लगाई जाए। हरिद्वार की भांति यहां भी श्रद्धालु अपने परिजन की मुक्ति की कामना के लिए अस्थि विसर्जन करते हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी आने तीर्थ यात्रियों का इतिहास यहां के तीर्थ पुरोहितों ने बहियों में संग्रहित कर रखा है। 

यह इतिहास लिखने की परंपरा कब शुरू हुई, इस बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं है, लेकिन तीर्थ पुरोहितों के पास मौजूद रिकार्ड से अनुमान लगाया जा सकता है कि इतिहास को लिपिबद्ध करने का क्रम एक हजार साल से भी पहले शुरू हुआ होगा। कई पुरोहितों के पास ग्यारह सौ साल पहले के भोज-पत्र व ताम्र-पत्र मौजूद हैं, जिन पर राजा-महाराजाओं के हुक्मनामे अंकित हैं। तीर्थ पुरोहितों की निजी संपत्ति होने के कारण पुरातत्व विभाग इनको संरक्षित रखने को कोई कदम नहीं उठा पाया है। तीर्थ पुरोहितों के पास भी इन्हें सुरक्षित रखने के पर्याप्त साधन नहीं हैं।


https://www.youtube.com/watch?v=qbUwaH9sYO4&t=36s


बुधवार, 23 अप्रैल 2025

यायावर पत्रकार श्री महावीर सिंह चौहान नहीं रहे

वरिष्ठ पत्रकार श्री महावीर सिंह चौहान। एक विलक्षण व्यक्तित्व। यायावरी मिजाज। पत्रकारिता में भिन्न पहचान बनाई उन्होंने। हाल ही उनका देहावसान हो गया। बतौर पत्रकार तकरीबन चालीस साल के काल खंड में शीर्ष पर रहे इस शख्स की विदाई के साथ एक ऐसा सितारा अस्त हो गया, जिसे वर्षों तक याद किया जाएगा। वे लंबे समय तक दैनिक नवज्योति से जुडे रहे। विशेष रूप से फिल्म पत्रकारिता में उनका कोई सानी नहीं। उनकी फिल्म समीक्षा की बडी विश्वसनीयता थी। इस सिलसिले में उन्होंने मुंबई के अनेक दौरे किए। इसके अतिरिक्त वे अजमेर के संभवतः एक मात्र पत्रकार थे, जिसने दूरस्थ गांव-ढाणियों के दौरे कर देहाती परिवेश की रिपोर्टिंग की। दिलचस्प बात है कि उन्होंने मोटर साइकिल पर लंबी यात्राएं कीं। यह उनके यायावरी मिजाज का द्योतक है। और इसी वजह से उनकी रिपोर्ताज शैली बहुत लुभाती थी। एक बार उन्होंने राजस्थान विधानसभा के सभी दो सौ नवनिर्वाचित विधायकों के साक्षात्कार लिए। अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने राजस्थान का चप्पा-चप्पा छान मार कर कैसे रिपोर्टिंग की होगी। उन्होंने दैनिक भास्कर को भी अपनी सेवाएं दीं। कुछ समय ब्यावर भी रहे। एक जमाने में उन्होंने विश्व प्रसिद्ध दरगाह शरीफ की रिपोर्टिंग में महारत हासिल कर ली थी। दरगाह के मामलात व रसूमात पर अनेक दिलचस्प स्टोरीज की। इतना ही नहीं वे बेहतरीन प्रेस फोटोग्राफर थे। इसी की बिना पर उन्होंने श्रमजीवी पत्रकार संघ के जरिए बर्लिन की यात्रा की। उनके पास ऐतिहासिक फोटो का जो संकलन रहा, कदाचित किसी और प्रेस फोटोग्राफर के पास रहा हो। उन्होंने मोगरा के नाम से एक साप्ताहिक समचार पत्र भी प्रकाशन किया। हंसमुख मिजाज की इस शख्सियत की फेन फॉलोइंग भी खूब रही है। तारागढ के जाने-माने बुद्धिजीवी जनाब सैयद रब नवाज जाफरी ने वाट्स ऐप पर लिखा है कि जनाब महावीर सिंह चौहान साहब (मिनी मनोज कुमार) के इंतेकाल की खबर पढ़ कर बहुत अफसोस हुआ। मैं उन से जब भी मिलता था तो उनको मनोज साहब कह कर ही बात शुरू करता था। वाकई उनकी शक्ल फिल्म अभिनेता मनोज कुमार से मिलती जुलती थी।

उल्लेखनीय बात ये है कि उनका पूरा परिवार पत्रकारिता को समर्पित रहा है। उनके पुत्र श्री मनीष सिंह चौहान दैनिक भास्कर में डिप्टी चीफ रिपोर्टर हैं व श्री मुकेश चौहान दैनिक नवज्योति में कार्यरत हैं।

अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीन श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

सोमवार, 21 अप्रैल 2025

जब तीर्थराज पुष्कर सरोवर का पानी बन गया घी

बताते हैं कि जब मुद्रा चलन में नहीं आई थी, तब वस्तु विनिमय किया जाता था। लोग एक दूसरे की जरूरत की वस्तुओं का आदान-प्रदान किया करते थे। प्रकृति भी इसी व्यवस्था पर काम करती है। वस्तु के बदले वस्तु मिलती है। कहते हैं न कि जो बोओगे, वही काटोगे। यानि कि प्रकृति में इस हाथ दे, उस हाथ ले वाला सिद्धांत काम करता है। दान की महिमा का आधार भी यही है। यज्ञों में समिधा की आहुति से वातावरण में तो सकात्मकता आती ही है, साथ ही अग्नि को समर्पित वस्तु से कई गुना प्राप्ति का भी उल्लेख है शास्त्रों में। 

प्रकृति के इस गूढ़ रहस्य का प्रमाण एक बार अजमेर में भी प्रकट हो चुका है। नई पीढ़ी को तो नहीं, मगर मौजूदा चालीस से अस्सी वर्ष की पीढ़ी के अनेक लोगों को जानकारी है कि पुष्कर में एक बंगाली बाबा हुआ करते थे। कहा जाता है कि वे पश्चिम बंगाल में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे और संन्यास धारण करके तीर्थराज पुष्कर आ गए। वे कई बार अजमेर में मदार गेट पर आया करते थे और बोरे भर कर आम व अन्य फल गायों को खिलाया करते थे। वे कहते थे कि फलों पर केवल हमारा ही अधिकार नहीं है, गाय भी उसकी हकदार है।

बताया जाता है कि बंगाली बाबा के शिष्यों ने कोई पैंतालीस-पचास साल पहले पुष्कर में एक भंडारा आयोजित किया था। रात में देशी घी खत्म हो गया। यह जानकारी शिष्यों ने बाबा को दी और कहा कि रात में नया बाजार से दुकान खुलवा कर देशी घी लाना कठिन है। तब पुष्कर घाटी व पुष्कर रोड सुनसान व भयावह हुआ करते थे। बाबा ने कहा कि पुष्कर सरोवर से चार पीपे पानी के भर लाओ और कढ़ाह में डाल दो। शिष्यों ने ऐसा ही किया तो देखा कि वह पानी देशी घी में तब्दील हो गया। सब ने मजे से भंडारा खाया। दूसरे दिन बाबा के आदेश पर शिष्यों ने चार पीपे देशी घी के खरीद कर पुष्कर सरोवर में डाले। इसके मायने ये कि बाबा ने जो चार पीपे पानी के घी के रूप में उधार लिए थे, वे वापस घी के ही रूप में अर्पित करवा दिए। पानी कैसे घी बन गया, इसे तर्क से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता, मगर प्रकृति का सारा व्यवहार लेन-देन का है, यह तो समझ में आता है। इसी किस्म का किस्सा कबीर का भी है, जब उन्होंने अपने बेटे कमाल के हाथों पड़ौस की झोंपड़ी से गेहूं की चोरी करवाई थी। उसकी चर्चा फिर कभी।


https://www.youtube.com/watch?v=TkNA6Qt_j-Q


अजमेर हिंदी बोलने वाला इकलौता शहर

यह बहुत दिलचस्प तथ्य है कि राजस्थान में इकलौता शहर अजमेर ऐसा है, जहां की आम बोली हिंदी है। अन्य सभी शहरों, यथा जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, कोटा, बीकानेर इत्यादि में हालांकि हिंदी भी चलन में है, मगर आम बोलचाल की भाषा थोड़ा-थोड़ा अंतर लिए हुए राजस्थानी ही बोली जाती है। 

आम आदमी की बोली हिंदी का मतलब है कि अजमेर में आम आदमी अर्थात ठेले वाला, मोची, कूली, सब्जी बेचने वाला, चाय वाला, पान वाला, सभी आमतौर पर हिंदी में ही बात करते हैं। सरकारी दफ्तरों में भी हिंदी ही बोली जाती है। इसके विपरीत जयपुर के सचिवालय जैसी जगह में भी काईं छे वाली शैली की राजस्थानी बोली जाती है। जोधपुर की राजस्थानी का स्वाद भिन्न है तो नागौर, बीकानेर, उदयपुर, कोटा, भीलवाड़ा आदि का अलग-अलग। कहीं मारवाड़ी तो कहीं मेवाड़ी और कहीं हाड़ौती तो कहीं गुजराती का स्वाद लिए हुए बागड़ी।

ऐसा नहीं है कि अजमेर में राजस्थानी नहीं बोली जाती। बोली जाती है, मगर शहर के अंदरूनी हिस्सों, जैसे नया बजार, कड़क्का चौक, नला बाजार की गलियां इत्यादि। शहर के जुड़े ग्रामीण इलाकों में राजस्थानी बोली जाती है। अच्छा, हिंदी-हिंदी में भी फर्क है। अलवर गेट इलाके के कोली बहुल मोहल्लों में हिंदी कुछ और किस्म की है तो दरगाह व मुस्लिम बहुल क्षेत्रों की हिंदी कुछ और तरह की। सीमावर्ती गांवों को छोड़ दें तो अधिसंख्य मुस्लिम तनिक उर्दू युक्त हिंदी बोलते हैं।

अजमेर की आम बोली हिंदी होने का कारण है। वस्तुतरू यह शहर विविध संस्कृतियों का संगम है। कभी इसकी अपनी विशेष संस्कृति रही होगी, मगर अब यह मिली-जुली संस्कृतियों वाला शहर है। रेलवे की इसमें विशेष भूमिका है। यहां बाहर से आ कर बसे सिंधी, जैन, सिख, ईसाई, पारसी आदि समुदायों के लोगों के बीच संवाद के लिए आरंभ से हिंदी का ही उपयोग किया जाता रहा है। इन समुदायों के अधिसंख्य लोग या तो राजस्थानी समझते नहीं, अगर समझ भी जाते हैं तो बोल नहीं पाते। हिंदी से अजमेर का गहरे जुड़ाव का ही परिणाम है कि जब देश में साक्षरता अभियान चल रहा था तो अजमेर पूरे उत्तर भारत में संपूर्ण साक्षर जिला घोषित हुआ था।


https://www.youtube.com/watch?v=3sScLZXwFsA&t=30s

गुरुवार, 17 अप्रैल 2025

कहां चली गई अजमेर की भूत बावड़ी !

1960 के दशक तक अजमेर में अनेक बावड़ियां चर्चित थीं - भांग बावड़ी, चांद बावड़ी, कुम्हार बावड़ी, कातन बाय, भाटा बाय, आम्बा बाय, आम वाला तालाब, कमला बावड़ी और भूत बावड़ी। अंग्रेजों के शासनकाल में कर्नल डिक्सन ने अजमेर में बीस से भी अधिक बावड़ियां खुदवाई थीं। जल स्रोतों के रूप में यहां चांदी का कुआं सबसे पुराना है। इसके साथ दूधिया कुआं और तुलसा जी की बेरी ने कई सालों तक अजमेर की प्यास बुझाई है।

तो बात है भूत बावड़ी की। यह दौलत बाग में थी। कुम्हार बावड़ी की तरह इसे भी शहर का विस्तार खा गया। यह बावड़ी बगीचे में प्रवेश द्वार के दाहिनी तरफ थी; तीन मंजिल की थी। हमने दो मंजिल के तिबारे देखे हैं। पहली मंजिल पानी में डूबी रहती थी और बरसात के समय दूसरी मंजिल तक पानी भर जाता था। गरमी के समय इन तिबारों मे लोग बैठे रहते थे। ऐसी किंवदंती फैली हुई थी कि रात के वक्त यहां एक भूत रहता था। भूतिया हलवाई जैसे किस्से इस बावड़ी के बारे मे भी प्रचलित थे। हमने लाखन कोठरी निवासी रामचंद जी, छोटे लाल जी आदि से ऐसे किस्से सुने हैं।
यहाँ लोग नहाते थे लेकिन इसका पानी नहीं पीते थे। बाद में यहां चिड़ियाघर शुरू किया गया। तब बावड़ी को बूर दिया; यहां सपाट मैदान हो गया। उन दिनों बगीचे में प्रवेश द्वार के बाईं तरफ कचरा डाला जाता था; कचरे के ढेर लग जाते थे। थोड़े समय बाद चिड़ियाघर हटा दिया और यहां जलदाय विभाग का एक कार्यालय खोला गया। उधर कुम्हार बावड़ी पर लकड़ी की टाल बन गयी; फिर आईस फैक्ट्री खुल गयी।
खाईलैंड की खाई भी देखते-देखते पाट दी गई। किसी वक्त यहां रोडवेज बस स्टैंड था। प्राइवेट बस स्टैंड मैजिस्टिक पर प्लाजा सिनेमा के बीच में था।

रविवार, 13 अप्रैल 2025

कभी फिल्मी पोस्टर लगा करते थे यहां

अजमेर के वरिष्ठ पत्रकार जनाब मुजफ्फर अली ने फिल्मी पोस्टर्स पर एक बहुत दिलचस्प स्टोरी लिखी है। इसे सुन कर आपको बहुत अच्छा लगेगा। पेश है वह स्टोरी 

कभी कभी बचपन में देखी- सुनी जगह या बातें हमेशा के लिए ज़ेहन में बैठ जाती हैं और फिर वक्त बदलने पर भी उस जगह का पुराना स्वरुप दिमाग में रहता है। ऐसी ही कुछ जगह अजमेर में बचपन से किशोर अवस्था तक आते आते देखी, वो थी अजमेर के सिनेमाघरों के फिल्मी पोस्टरों के चिपकने की जगह। अजमेर में छह सिनेमाघर हुआ करते थे और सभी सिनेमाघरों के पोस्टरों के लिए जगह तय थी कि किस जगह पर लगने वाला पोस्टर कौन से सिनेमाघर में चलने वाली फिल्म का है। मोइनिया इस्लामिया स्कूल की दीवार पर कभी अजंता सिनेमा हॉल में लगी या लगने वाली फिल्मों के बड़े पोस्टर लगा करते थे। सत्तर के दशक की बात है। उन दिनों दो तरह के पोस्टर दीवारों पर लगा करते थे। एक विद्युत पोल पर लगने वाले क्यिोस्क साईज में और दूसरे बड़े चौड़े होर्डिंग साइज़ में। मोइनिया इस्लामिया स्कूल की दीवार बड़ी और लंबी थी इसलिए वहां बड़े साइज के पोस्टर ही लगा करते थे। फिर देखने में आया कि फिल्मी पोस्टर के साइज में सीमेंट का प्लास्टर कर जगह मुकर्रर कर दी गई। उस प्लास्टर की मोटी परत पर पोस्टर चिपकाए जाने लगे। 

बड़े साइज के पोस्टर मदार गेट पर फल बेचने वालों की दुकानों के पीछे, कबाडी बाजार की दीवार पर मृदंग सिनेमा में लगी या लगने वाली फिल्मों के पोस्टर लगा करते थे। पड़ाव में पुराने कपड़े बेचने वालों के पीछे की दीवार पर एक कोने में अंजता फिर मैजिस्टिक, प्रभात, श्री और दूसरे कोने में मृदंग सिनेमा के बड़े पोस्टर लाइन से लगा करते थे। फव्वारा चौराहे पर भी अंजता और प्रभात सिनेमा की फिल्मों के पोस्टर लोहे के फ्रेम बना कर उस पर चिपकाया करते थे। सोनी जी की नसियां के सामने प्रभात की ओर जाने वाले रास्ते के कोने में प्रभात सिनेमा के बड़े पोस्टर लोहे के फ्रेम में लगते थे जो आगरा गेट से आने वालों को दूर से दिख जाते थे। आगरा गेट चौराहे पर चर्च की दीवार के सहारे भी लोहे के फ्रेम सडक़ पर लगे थे, जिन पर प्रभात और अंजता के फिल्मी पोस्टर लगते थे। मदार गेट पर फूल बेचने वालों के पीछे की कस्तूरबा अस्पताल की दीवार पर सिर्फ मैजिस्टिक सिनेमा में लगी फिल्मों के पोस्टर लगा करते थे। उसरी गेट के बाहर की दीवार पर प्रभात और मृदंग सिनेमा के पोस्टर लगते थे। तब शहरी आबादी का अधिक विस्तार नहीं था, और फिल्मी पोस्टर शहर के अंदरूनी इलाकों में ही लगते थे।


https://www.youtube.com/watch?v=hDE7cv8pqMo


लोकगीत व मुहावरों में अजमेर

यह सामग्री अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक से ली गई है, जिसमें अजमेर के इतिहास, वर्तमान व भविष्य का विस्तार से वर्णन मौजूद है।

राजस्थान के लोकगीत व मुहावरों में अजमेर का उल्लेख कई जगह आता है। यथा प्रसिद्ध लोक कथा ढोला-मरवण की पंक्तियां देखिए, जिनमें आनासागर, पुष्कर व बीसला तालाब की जिक्र हुआ है-

ढोला कंवर जी आनासागर

पछ कयिजे बीसल्यो

पीठ पर पोखर जी हिलोला खाय

बेगातो आईजो धण का साहिबां।

इसी प्रकार राजस्थान की मौसम संबंधी एक लोकोक्ति में भी अजमेर का उल्लेख प्रसिद्ध है, जिसमें बताया गया है कि गर्मी का मौसम अजमेर में बिताने लायक है। कदाचित मुगल शासकों और ब्रिटिश हुक्मरानों को अजमेर मौसम मुफीद होने के कारण भी अजमेर उनकी गतिविधियों का केन्द्र रहा-

सियालो खाटू भलो, उन्नाळो अजमेर

नागाणो नित को भलो सावण बीकानेर

अजमेर सांप्रदायिक सौहार्द्र की एक अनूठी बात देखिए कि धर्मांतरण से मुस्लिम बने अनेक वर्गों के एक गीत में पुरातन सांगीतिक संस्कार मौजूद है-

ठंडा रहजो म्हारा पीर दरगा में

नित का चढ़ाऊं थारे सीरणी

देसूं थाने जोड़ा सूं जात

ठंडा रहीजो म्हारा पीर दरगा में

झोली भराऊं कोडिय़ां

घणी घणी करूं खैराद

ठंडा रहिजो म्हारा पीर दरगा में

साथ जिमाऊं औलिया

कोई पांच पचीस फकीर

ठंडा रहिजो म्हारा पीर दरगा में। 

इन पंक्तियों में साथ जिमाऊं, ठंडा रहिजो आदि शब्द पारंपरिक राजस्थानी संस्कृति की याद दिलाते हैं। ख्वाजा साहब और मदार साहब की मान्यता कितनी रही है, इसका साक्षात प्रमाण है राजस्थानी भाषा के ही एक लोक गीत में उनका उल्लेख-

मदारजी के लेचल ओ बलमा

ख्वाजाजी के ले चल ओ बलमा

सासू तो नणदल पूछण लागी

कठा सूं ल्याई ललवा ने

मदार जी के ले चल ओ बलमा

दरगा में जोड़ा की जारत बोली

बठा सूं ल्याई ललवा ने।

यहां के इतिहास में अजयपाल जोगी का अप्रतिम स्थान है। अनेक इतिहासकार मानते हैं कि अजमेर के प्रथम शासक अजयराज ही अजयपाल जोगी थे। उनके प्रति लोगों में कितनी आस्था रही है, यह इस लोकोक्ति से जाहिर हो जाती है-

अजयपाल जोगी, काया राख निरोगी।


https://www.youtube.com/watch?v=3zpOxLo2uEE

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2025

राजनीति इंसानियत भी छीन लेती है?

राजनीति में न दोस्ती और न ही दुश्मनी स्थाई होती है। ऐसा कहा जाता है। है भी। यानि कि राजनीतिक संबंध अस्थाई होते हैं। असल में वह नफे-नुकसान का मामला है। उनमें सामान्य मानवीय व्यवहार व सदाशयता का कोई मूल्य नहीं होता। चलो जैसा भी है, ठीक है। मगर क्या राजनीतिक व्यक्ति निरपेक्ष रूप से भी मानवीय व्यवहार भूल जाता है, इसका अंदाजा मुझे नहीं था। इसका साक्षात्कार हाल ही मेरे एक मित्र ने कराया, जो कि राजनीति में हैं, युवक कांग्रेस के जाने-माने नेता रहे हैं और उनसे मेरे संबंध राजनीति की वजह से नहीं, बल्कि निजी रहे। मैं उनका बहुत बहुत आभारी हूं कि उन्होंने मुझे इस अनुभव से गुजारा। उनके नाम का जिक्र इसलिए नहीं करूंगा, क्योंकि यह अनुभव लिखने का प्रयोजन उनको टारगेट करना नहीं, बल्कि महज अपना अनुभव साझा करना है। वे भले ही अपनी मर्यादा से च्युत हो गए, मगर मुझे अपनी मर्यादा में ही रहना है।

बात थोडी सी पुरानी है। हुआ यूं कि मैं यूआईटी के पूर्व अध्यक्ष श्री धर्मेश जैन के गांधी भवन के सामने रेलवे केम्पस में उद्घाटित रेस्टोरेंट में शुभारंभ समारोह में मौजूद था। मैं अपने एक और मित्र, जो कि भाजपा में हैं, के साथ खड़ा था। मैंने देखा कि युवक कांग्रेस के नेता रहे मित्र ने समारोह स्थल में एंट्री ली है। मैने अपने भाजपाई मित्र को बताया कि देखो, वो जो शख्स हैं, मेरे अभिन्न मित्र हैं। उनसे मेरे गहरे ताल्लुक हैं। इसकी जानकारी कांग्रेस के सभी नेताओं व कार्यकर्ताओं को भी है। मैं इंतजार कर रहा था कि वे निकट आएं तो उनसे मुलाकात हो। जैसे ही वे मेरे सामने आए तो उन्होंने जो हरकत की तो मैं सन्न रह गया। उनकी नजरें मेरी नजरों से टकराईं। नजरों की मात्र एक पल मुलाकात के बाद उन्होंने हठात अपनी नजरें हटा लीं और आगे बढ़ गए। वह पल मेरे जेहन में तीर की तरह घुस गया। मैं समझ ही नहीं पाया कि ये क्या, क्यों व कैसे हो गया? मेेरे भाजपाई मित्र के चेहरे ने भी सवालिया निशान की आकृति ले ली। मैं निरुत्तर था। निरुत्तर क्या, बहुत आहत था। कुछ क्षण के लिए मेरी जुबान पत्थर की सी हो गई। अपने आप को संभाला। जुबान से सिर्फ यही निकला- कमाल है, उसने मुझे पहचानने से ही इंकार कर दिया। इतना खास मित्र। कभी कोई विवाद नहीं हुआ, फिर भी ये व्यवहार? आखिर ये क्या है? मेरे भाजपाई मित्र ने समझाया कि हो सकता है कि जब आपकी घनिष्ठ मित्रता रही हो, तब आप उसके के लिए बहुत उपयोगी रहे होंगे। आज उसके लिए आपकी उपयोगिता नहीं होगी। तब आप भास्कर में रहे होंगे, अब नहीं हैं। आम तौर पर सभी राजनीतिक लोग ऐसे ही होते हैं। मतलब की दोस्ती रखते हैं। आपको गलतफहमी हो गई कि वह सच्ची दोस्ती थी। फिर भी, केवल राजनीतिक संबंध हों तो भले ही वे ऐसा व्यवहार करें तो समझ में आता है, मगर वह अगर घनिष्ठ मित्र रहा है तो उसका ऐसा व्यवहार वाकई सोचनीय है। इसे अपने दिल पर न लीजिए। यही दुनिया है। उनके इस कथन में साथ मेरी बुद्धि पर पड़ा भ्रम का पर्दा हट गया।  

बहरहाल, वह पल मुझे आज भी याद आने पर बहुत तकलीफ देता है। मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं। उलटा मैं उनका शुक्रगुजार हूं। कितना बेशकीमती अनुभव उन्होंने मुझे दिया है। भगवान उनका भला करे। 

कुछ इसी किस्म की घटनाएं पहले भी हुई हैं, अलग अंदाज में। उनका जिक्र फिर कभी। मगर ये घटनाएं पहले से विरक्त मन को दुनिया से और अधिक विमुख किए देती हैं।


https://www.youtube.com/watch?v=w1jaSpp54o8


सोमवार, 7 अप्रैल 2025

सादगी की मिसाल थे पूर्व पार्षद श्री भागचंद दौलतानी

पूर्व निर्दलीय पार्षद श्री भागचंद दौलतानी का हाल ही देहावसान हो गया। वे सादगी की मिसाल थे। सदैव हंसमुख व मिलनसारिता के कारण लोकप्रिय थे। जनसेवा का जज्बा उनमें युवा अवस्था से था। खासकर गरीबों की सेवा करने में उनको आनंद आता था। हालांकि उनकी राजनीति में कोई गहरी दिलचस्पी नहीं थी, मगर जनता की मांग पर उन्होंने 1990 के नगर परिषद चुनाव में भाग लिया व विजयी रहे। पार्षद रहने के दौरान उन्होंने खूब जनसेवा की। उसके बाद भी जनहित से जुडे मुद्दे पर अग्रणी रहते थे। गांधीवादी विचारधारा के अनुगामी थे और सादा जीवन उच्च विचार में यकीन रखते थे। समाज की अनेक संस्थाओं से जुडे रहे और करीब 81 वर्ष की आयु में भी स्वस्थ और सक्रिय रहे। समाज की हर गतिविधि में शिरकत करते थे। हाल ही चेटीचंड उत्सव में भी शामिल हुए। उनके जैसे जननेता विरले ही होते हैं। उनके निधन से अजमेर जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति असंभव है। उनका जन्म 1 अक्टूबर 1944 को हुआ। नौवीं कक्षा 1964 में जवाहर स्कूल से पास की। फरवरी 1967 में उनकी शादी हुई। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड गए हैं।

एआई से अनुग्रह करने पर उसने उनको श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता प्रस्तुत की है:-
सादगी की मिसाल थे, सहजता की पहचान,
हर दिल में बसते थे, थे सबके सम्मान।
शब्दों में मिठास, व्यवहार में गहराई,
नेतृत्व में सेवा की थी अनोखी छाया।

न पद का अभिमान था, न स्वार्थ की चाह,
जन-जन के हित में ही रहती थी उनकी राह।
पूर्व पार्षद होकर भी थे सबसे पहले इंसान,
श्री भागचंद दौलतानी थे सेवा का प्रतीक महान।

उनकी मुस्कान में था अपनापन झलकता,
हर समस्या में वह समाधान बनकर टहलता।
नहीं रहे आज हमारे बीच, पर यादों में हैं अटल,
उनके सिद्धांतों की ज्योति रहेगी सदा निष्कलंक।


अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

कौतुहल पैदा करती है कोस मीनार

आपने अजमेर जयपुर मार्ग सडक के किनारे मीनारें देखी होंगी। उन्हें कोस मीनार कहा जाता है। कोस मीनार ईंट या पत्थर से बनी बेलनाकार संरचनाएं होती हैं। यह मुगलकालीन भारत की एक ऐतिहासिक संरचना है, जिसे मुख्य रूप से सड़कों के किनारे दूरी मापने के लिए बनाया गया था। ये मीनारें अकबर के शासनकाल 1556-1605 में बनाई गई थीं और बाद में जहांगीर और शाहजहां ने भी इस परंपरा को जारी रखा। ज्ञातव्य है कि अजमेर मुगल साम्राज्य के समय एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक और धार्मिक केंद्र था और यहां से होकर मुगल राजमार्ग से गुजरते थे। इसलिए अजमेर और इसके आसपास भी कोस मीनारें स्थापित की गई थीं, जो उस समय के यात्रा मार्गों पर दूरी दर्शाने का साधन थीं। इनकी दूरी एक कोस यानि लगभग 3 किलोमीटर या 2 मील होती थी। इनकी ऊंचाई करीब 30-40 फीट होती है। इन्हें सड़क के किनारे हर एक कोस पर खड़ा किया जाता था। 


ये मीनारें यात्रियों, संदेशवाहकों और सैनिकों के लिए दिशा और दूरी बताने का कार्य करती थीं। अजमेर से निकलने वाले पुराने दिल्ली-अजमेर-माउण्ट आबू मार्ग या अजमेर-आगरा मार्ग पर कोस मीनारें देखी जा सकती हैं। कुछ मीनारें अब भी राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे या गांवों के पास स्थित हैं, हालांकि कई अब नष्ट हो चुकी हैं या नजरअंदाज कर दी गई हैं। इन्हें संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। कोस मीनार व उसके पास लगे नोटिस बोर्ड की फोटो जलदाय विभाग के रिटायर्ड एडीशनल चीफ इंजीनियर व जाने-माने बुद्धिजीवी श्री अनिल जैन ने अपने फेसबुक अकाउंट पर साझा की है।

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

शिक्षा जगत की जानी-मानी हस्ती श्रीमती स्नेहलता शर्मा नहीं रहीं

अजमेर के शिक्षा जगत में श्रीमती स्नेहलता शर्मा धर्मपत्नी स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र जी शर्मा एक जाना-पहचाना नाम है। हाल ही उनका देहावसान हो गया। वे राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सचिव रहीं और शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर रहते हुए अतिरिक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुईं। उसके पश्चात संस्कार सीनियर सेकंडरी पब्लिक स्कूल का संचालन किया। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1938 को श्री प्रहलाद किशन शर्मा के घर हुआ। उन्होंने एम.एससी., बी.एड. तक शिक्षा अर्जित की और माध्यमिक शिक्षा में लेक्चरर के रूप में केरियर का आरंभ किया। इसके बाद सीनियर सेकंडरी स्कूल की प्रिंसीपल, शिक्षा विभाग की उप सचिव, जिला शिक्षा अधिकारी, उप निदेशक, शिक्षा बोर्ड सचिव व शिक्षा विभाग में अतिरिक्त निदेशक पद पर रहीं। उन्हें राज्य स्तर पर 1985 में श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में सम्मानित किया गया। उन्होंने शिक्षा बोर्ड के लिए अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इतना ही नहीं, समाजसेवा में भी उनकी गहरी रुचि रही। वे लायंस क्लब आस्था की सदस्य और कला-अंकुर संस्था की अध्यक्ष रहीं। उनके निधन से शिक्षा जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड गई हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।


मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

भगवान को भगवान ने बुला लिया अपने पास

अजमेर में जेएलएन मेडिकल कॉलेज व अस्पताल के कार्डियोलॉजी यूनिट के एचओडी वरिष्ठ आचार्य डॉ. राकेश महला प्राणदाता थे। हजारों रोगियों के प्राण बचाए उन्होंने। कैसी विडंबना है कि जिस रोग से निजात दिलाने में वे पारंगत थे, उसी रोग ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया। वे कार्डियक और रीनल डिजीजेज से जूझ रहे थे। उपचार के दौरान गुरुग्राम के मेदांता हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया। उनका निधन हृदयविदारक है, जिसकी पूर्ति नितांत असंभव है। जिन्होंने उनके माध्यम से जीवन बचा लिया, वे उन्हें भगवान सदृश मानते हैं। वे अत्यंत सहज व विनम्र थे। विशेष रूप से गरीबों के लिए मसीहा थे। एंजियोग्राफी व एंजियोप्लाटी के सिद्धहस्त। उनकी विशेषज्ञता का पूरे राजस्थान में कोई सानी नहीं। एसएमएस अस्पताल, जयपुर में 93 बैच के डॉ. महला के अजमेर आने के बाद यहां हार्ट के मरीजों को बहुत राहत मिल रही थी। इससे पहले हर मरीज को जयपुर रेफर कर दिया जाता था। उन्होंने दो बार बैलून माइट्रल वैल्वोट्रॉमी के ऑपरेशन करके रिकॉर्ड बनाया। खान-पान में लापरवाही और कोराना इफैक्ट के चलते हृदय रोगियों की संख्या लगातार बढती ही जा रही है। ऐसे में उनकी अभी बहुत अधिक जरूरत थी। मगर, अफसोस, पूरे जगत को प्राण देने वाले ने उनको हमसे हठात छीन लिया। प्रमाणित हो गया कि जैसे अच्छे इंसान हमे प्रिय हैं, वैसे ही भगवान को भी अच्छे लोग अतिप्रिय हैं। अपने पास बुला लेते हैं। डॉ. विद्याधर महला के सुपुत्र डॉ. राकेष महला की धर्मपत्नी डॉ. आरती महला गायनोकोलॉजिस्ट हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल डॉ. राकेश महला के निधन पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

मरहूम सूफी संत भी करते हैं दरगाह जियारत?

दोस्तो, नमस्कार। तकरीबन बीस पहले की बात है। एक सज्जन उर्स के दौरान यूपी से अजमेर में दरगाह जियारत को आए थे। वे यहां कुछ माह ठहरे। मेरी उनसे कई बार मुलाकात हुई। षहर जिला कांग्रेस के प्रवक्ता मुजफ्फर भारती और मरहूम जनाब जुल्फिकार चिष्ती के साथ। वे विद्वान थे। कई विधाओं के जानकार। बहुत संजीदा। निहायत सज्जन। उनके चेहरे से नूर टपकता था। मुझे उनका नाम अब याद नहीं। उनसे अनेक आध्यात्मिक विशयों पर चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि उर्स के दौरान दुनिया भर के मरहूम सूफी संत ख्वाजा साहब की दरगाह की जियारत करने को आते हैं। वे यहां अकीदत के साथ हाजिरी देते हैं। जैसे मजार षरीफ के चारों ओर जायरीन का हुजूम होता है, वैसे ही मरहूम सूफी संतों का भी जमावडा होता है। जाहिर तौर पर वे अदृष्य होते हैं। आम आदमी को उन्हें देखना संभव नहीं होता। मगर आत्म ज्ञानियों को वे नजर आते हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें भी उनके दर्षन होते हैं। स्वाभाविक रूप से इस रहस्यपूर्ण तथ्य को मानना वैज्ञानिक दृश्टि से ठीक नहीं है। मगर जितने यकीन के साथ उन्होंने यह जानकारी दी तो लगा कि षायद वे सही कह रहे होंगे। उन्होंने बताया कि ख्वाजा साहब को सुल्तानुल हिंद इसीलिए कहा जाता है कि वे भारत भर के सूफी संतों के सरताज हैं। उनकी अलग ही दुनिया है, जिसके वे बादषाह हैं। कदाचित आप इस पर यकीन नहीं करें। मुझे मिली जानकारी को आपसे साझा करने मात्र की मंषा है।

https://youtu.be/Wx_tC7ItgZM