सोमवार, 7 अप्रैल 2025

सादगी की मिसाल थे पूर्व पार्षद श्री भागचंद दौलतानी

पूर्व निर्दलीय पार्षद श्री भागचंद दौलतानी का हाल ही देहावसान हो गया। वे सादगी की मिसाल थे। सदैव हंसमुख व मिलनसारिता के कारण लोकप्रिय थे। जनसेवा का जज्बा उनमें युवा अवस्था से था। खासकर गरीबों की सेवा करने में उनको आनंद आता था। हालांकि उनकी राजनीति में कोई गहरी दिलचस्पी नहीं थी, मगर जनता की मांग पर उन्होंने 1990 के नगर परिषद चुनाव में भाग लिया व विजयी रहे। पार्षद रहने के दौरान उन्होंने खूब जनसेवा की। उसके बाद भी जनहित से जुडे मुद्दे पर अग्रणी रहते थे। गांधीवादी विचारधारा के अनुगामी थे और सादा जीवन उच्च विचार में यकीन रखते थे। समाज की अनेक संस्थाओं से जुडे रहे और करीब 81 वर्ष की आयु में भी स्वस्थ और सक्रिय रहे। समाज की हर गतिविधि में शिरकत करते थे। हाल ही चेटीचंड उत्सव में भी शामिल हुए। उनके जैसे जननेता विरले ही होते हैं। उनके निधन से अजमेर जो क्षति हुई है, उसकी पूर्ति असंभव है। उनका जन्म 1 अक्टूबर 1944 को हुआ। नौवीं कक्षा 1964 में जवाहर स्कूल से पास की। फरवरी 1967 में उनकी शादी हुई। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड गए हैं।

एआई से अनुग्रह करने पर उसने उनको श्रद्धांजलि स्वरूप एक कविता प्रस्तुत की है:-
सादगी की मिसाल थे, सहजता की पहचान,
हर दिल में बसते थे, थे सबके सम्मान।
शब्दों में मिठास, व्यवहार में गहराई,
नेतृत्व में सेवा की थी अनोखी छाया।

न पद का अभिमान था, न स्वार्थ की चाह,
जन-जन के हित में ही रहती थी उनकी राह।
पूर्व पार्षद होकर भी थे सबसे पहले इंसान,
श्री भागचंद दौलतानी थे सेवा का प्रतीक महान।

उनकी मुस्कान में था अपनापन झलकता,
हर समस्या में वह समाधान बनकर टहलता।
नहीं रहे आज हमारे बीच, पर यादों में हैं अटल,
उनके सिद्धांतों की ज्योति रहेगी सदा निष्कलंक।


अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

कौतुहल पैदा करती है कोस मीनार

आपने अजमेर जयपुर मार्ग सडक के किनारे मीनारें देखी होंगी। उन्हें कोस मीनार कहा जाता है। कोस मीनार ईंट या पत्थर से बनी बेलनाकार संरचनाएं होती हैं। यह मुगलकालीन भारत की एक ऐतिहासिक संरचना है, जिसे मुख्य रूप से सड़कों के किनारे दूरी मापने के लिए बनाया गया था। ये मीनारें अकबर के शासनकाल 1556-1605 में बनाई गई थीं और बाद में जहांगीर और शाहजहां ने भी इस परंपरा को जारी रखा। ज्ञातव्य है कि अजमेर मुगल साम्राज्य के समय एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक और धार्मिक केंद्र था और यहां से होकर मुगल राजमार्ग से गुजरते थे। इसलिए अजमेर और इसके आसपास भी कोस मीनारें स्थापित की गई थीं, जो उस समय के यात्रा मार्गों पर दूरी दर्शाने का साधन थीं। इनकी दूरी एक कोस यानि लगभग 3 किलोमीटर या 2 मील होती थी। इनकी ऊंचाई करीब 30-40 फीट होती है। इन्हें सड़क के किनारे हर एक कोस पर खड़ा किया जाता था। 


ये मीनारें यात्रियों, संदेशवाहकों और सैनिकों के लिए दिशा और दूरी बताने का कार्य करती थीं। अजमेर से निकलने वाले पुराने दिल्ली-अजमेर-माउण्ट आबू मार्ग या अजमेर-आगरा मार्ग पर कोस मीनारें देखी जा सकती हैं। कुछ मीनारें अब भी राष्ट्रीय राजमार्गों के किनारे या गांवों के पास स्थित हैं, हालांकि कई अब नष्ट हो चुकी हैं या नजरअंदाज कर दी गई हैं। इन्हें संरक्षित स्मारक घोषित किया गया है। कोस मीनार व उसके पास लगे नोटिस बोर्ड की फोटो जलदाय विभाग के रिटायर्ड एडीशनल चीफ इंजीनियर व जाने-माने बुद्धिजीवी श्री अनिल जैन ने अपने फेसबुक अकाउंट पर साझा की है।

बुधवार, 2 अप्रैल 2025

शिक्षा जगत की जानी-मानी हस्ती श्रीमती स्नेहलता शर्मा नहीं रहीं

अजमेर के शिक्षा जगत में श्रीमती स्नेहलता शर्मा धर्मपत्नी स्वर्गीय श्री सुरेन्द्र जी शर्मा एक जाना-पहचाना नाम है। हाल ही उनका देहावसान हो गया। वे राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड की सचिव रहीं और शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर रहते हुए अतिरिक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुईं। उसके पश्चात संस्कार सीनियर सेकंडरी पब्लिक स्कूल का संचालन किया। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1938 को श्री प्रहलाद किशन शर्मा के घर हुआ। उन्होंने एम.एससी., बी.एड. तक शिक्षा अर्जित की और माध्यमिक शिक्षा में लेक्चरर के रूप में केरियर का आरंभ किया। इसके बाद सीनियर सेकंडरी स्कूल की प्रिंसीपल, शिक्षा विभाग की उप सचिव, जिला शिक्षा अधिकारी, उप निदेशक, शिक्षा बोर्ड सचिव व शिक्षा विभाग में अतिरिक्त निदेशक पद पर रहीं। उन्हें राज्य स्तर पर 1985 में श्रेष्ठ शिक्षक के रूप में सम्मानित किया गया। उन्होंने शिक्षा बोर्ड के लिए अनेक पुस्तकें भी लिखीं। इतना ही नहीं, समाजसेवा में भी उनकी गहरी रुचि रही। वे लायंस क्लब आस्था की सदस्य और कला-अंकुर संस्था की अध्यक्ष रहीं। उनके निधन से शिक्षा जगत को अपूरणीय क्षति हुई है। वे अपने पीछे भरापूरा परिवार छोड गई हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल उनको भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है।


मंगलवार, 1 अप्रैल 2025

भगवान को भगवान ने बुला लिया अपने पास

अजमेर में जेएलएन मेडिकल कॉलेज व अस्पताल के कार्डियोलॉजी यूनिट के एचओडी वरिष्ठ आचार्य डॉ. राकेश महला प्राणदाता थे। हजारों रोगियों के प्राण बचाए उन्होंने। कैसी विडंबना है कि जिस रोग से निजात दिलाने में वे पारंगत थे, उसी रोग ने उन्हें अपनी गिरफ्त में ले लिया। वे कार्डियक और रीनल डिजीजेज से जूझ रहे थे। उपचार के दौरान गुरुग्राम के मेदांता हॉस्पिटल में उनका निधन हो गया। उनका निधन हृदयविदारक है, जिसकी पूर्ति नितांत असंभव है। जिन्होंने उनके माध्यम से जीवन बचा लिया, वे उन्हें भगवान सदृश मानते हैं। वे अत्यंत सहज व विनम्र थे। विशेष रूप से गरीबों के लिए मसीहा थे। एंजियोग्राफी व एंजियोप्लाटी के सिद्धहस्त। उनकी विशेषज्ञता का पूरे राजस्थान में कोई सानी नहीं। एसएमएस अस्पताल, जयपुर में 93 बैच के डॉ. महला के अजमेर आने के बाद यहां हार्ट के मरीजों को बहुत राहत मिल रही थी। इससे पहले हर मरीज को जयपुर रेफर कर दिया जाता था। उन्होंने दो बार बैलून माइट्रल वैल्वोट्रॉमी के ऑपरेशन करके रिकॉर्ड बनाया। खान-पान में लापरवाही और कोराना इफैक्ट के चलते हृदय रोगियों की संख्या लगातार बढती ही जा रही है। ऐसे में उनकी अभी बहुत अधिक जरूरत थी। मगर, अफसोस, पूरे जगत को प्राण देने वाले ने उनको हमसे हठात छीन लिया। प्रमाणित हो गया कि जैसे अच्छे इंसान हमे प्रिय हैं, वैसे ही भगवान को भी अच्छे लोग अतिप्रिय हैं। अपने पास बुला लेते हैं। डॉ. विद्याधर महला के सुपुत्र डॉ. राकेष महला की धर्मपत्नी डॉ. आरती महला गायनोकोलॉजिस्ट हैं। अजमेरनामा न्यूज पोर्टल डॉ. राकेश महला के निधन पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करता है।

मरहूम सूफी संत भी करते हैं दरगाह जियारत?

दोस्तो, नमस्कार। तकरीबन बीस पहले की बात है। एक सज्जन उर्स के दौरान यूपी से अजमेर में दरगाह जियारत को आए थे। वे यहां कुछ माह ठहरे। मेरी उनसे कई बार मुलाकात हुई। षहर जिला कांग्रेस के प्रवक्ता मुजफ्फर भारती और मरहूम जनाब जुल्फिकार चिष्ती के साथ। वे विद्वान थे। कई विधाओं के जानकार। बहुत संजीदा। निहायत सज्जन। उनके चेहरे से नूर टपकता था। मुझे उनका नाम अब याद नहीं। उनसे अनेक आध्यात्मिक विशयों पर चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि उर्स के दौरान दुनिया भर के मरहूम सूफी संत ख्वाजा साहब की दरगाह की जियारत करने को आते हैं। वे यहां अकीदत के साथ हाजिरी देते हैं। जैसे मजार षरीफ के चारों ओर जायरीन का हुजूम होता है, वैसे ही मरहूम सूफी संतों का भी जमावडा होता है। जाहिर तौर पर वे अदृष्य होते हैं। आम आदमी को उन्हें देखना संभव नहीं होता। मगर आत्म ज्ञानियों को वे नजर आते हैं। उन्होंने बताया कि उन्हें भी उनके दर्षन होते हैं। स्वाभाविक रूप से इस रहस्यपूर्ण तथ्य को मानना वैज्ञानिक दृश्टि से ठीक नहीं है। मगर जितने यकीन के साथ उन्होंने यह जानकारी दी तो लगा कि षायद वे सही कह रहे होंगे। उन्होंने बताया कि ख्वाजा साहब को सुल्तानुल हिंद इसीलिए कहा जाता है कि वे भारत भर के सूफी संतों के सरताज हैं। उनकी अलग ही दुनिया है, जिसके वे बादषाह हैं। कदाचित आप इस पर यकीन नहीं करें। मुझे मिली जानकारी को आपसे साझा करने मात्र की मंषा है।

https://youtu.be/Wx_tC7ItgZM