शुक्रवार, 8 नवंबर 2024

ऐसा था स्वतंत्र राज्य अजमेर: भाग दो

सन् 1946 से 1952 तक अजमेर राज्य के संचालन के लिए चीफ कमिश्नर को राय देने के लिए सलाहकार परिषद् बनी हुई थी। इस में सर्वश्री बालकृष्ण कौल, किशनलाल लामरोर व मिर्जा अब्दुल कादिर बेग, जिला बोर्ड व अजमेर राज्य की नगरपालिकाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि, संसद सदस्य मुकुट बिहारी लाल भार्गव, कृष्ण गोपाल गर्ग, मास्टर वजीर सिंह और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में सूर्यमल मौर्य मनोनीत किया गया था। 

भारत विभाजन के बाद कादिर बेग पाकिस्तान चले गए व उनके स्थान पर सैयद अब्बास अली को नियुक्त किया गया। चीफ कमिश्नर के रूप में श्री शंकर प्रसाद, सी. बी. नागरकर, के. एल. मेहता, ए. डी. पंडित व एम. के. कृपलानी रहे। सन् 1952 में प्रथम आम चुनाव के साथ ही यहां लोकप्रिय शासन की स्थापना हुई। 

अजमेर विधानसभा को धारा सभा के नाम से जाना जाता था। इसके तीस सदस्यों में से इक्कीस कांग्रेस, पांच जनसंघ (दो पुरुषार्थी पंचायत) और चार निर्दलीय सदस्य थे। मुख्यमंत्री के रूप में श्री हरिभाऊ उपाध्याय चुने गए। गृह एवं वित्त मंत्री श्री बालकृष्ण कौल, राजस्व व शिक्षा मंत्री ब्यावर निवासी श्री बृजमोहन लाल शर्मा थे। मंत्रीमंडल ने 24 मार्च, 1952 को शपथ ली। विधानसभा का उद्घाटन 22 मई, 1952 को केन्द्रीय गृह मंत्री डॉ. कैलाश नाथ नायडू ने किया। विधानसभा के पहले अध्यक्ष श्री भागीरथ सिंह व उपाध्यक्ष श्री रमेशचंद भार्गव चुने गए। बाद में श्री भार्गव को अध्यक्ष बनाया गया और उनके स्थान पर सैयद अब्बास अली को उपाध्यक्ष बनाया गया। विरोधी दल के नेता डॉ. अम्बालाल थे। विधानसभा प्रशासन संचालित करने के लिए 19 कानून बनाए। सरकार के कामकाज में मदद के लिए  विकास कमेटी, विकास सलाहकार बोर्ड, औद्योगिक सलाहकार बोर्ड, आर्थिक जांच बोर्ड, हथकरघा सलाहकार बोर्ड, खादी व ग्रामोद्योग बोर्ड, पाठ्यपुस्तक राष्ट्रीयकरण सलाहकार बोर्ड, पिछड़ी जाति कल्याण बोर्ड, बेकारी कमेटी, खान सलाहकार कमेटी, विक्टोरिया अस्पताल कमेटी, स्वतंत्रता आंदोलन इतिहास कमेटी और नव सुरक्षित वन जांच कमेटी का गठन किया गया, जिनमें सरकारी व गैर सरकारी व्यक्तियों को शामिल किया गया। 

राजस्थान में विलय से पहले अजमेर राज्य से लोकसभा के लिए व राज्यसभा के लिए एक सदस्य चुने जाने की व्यवस्था थी। लोकसभा के लिए अजमेर व नसीराबाद क्षेत्र से श्री ज्वाला प्रसाद शर्मा और केकड़ी व ब्यावर क्षेत्र से श्री मुकुट बिहारी लाल भार्गव और राज्यसभा के लिए श्री अब्दुल शकूर चुने गए। सन् 1953 में अजमेर राज्य से राज्यसभा के लिए कोई सदस्य नहीं था, जबकि 1954 में श्री करुम्बया चुने गए। अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के साथ ही मंत्रीमंडल व सभी समितियों का अस्तित्व समाप्त हो गया। राजस्व व शिक्षा मंत्री श्री बृजमोहन लाल शर्मा को राजस्थान मंत्रीमंडल में लिया गया।

यहां उल्लेखनीय है कि गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नीतिगत निर्णय के तहत 11 जून 1956 को श्री सत्यनारायण राव की अध्यक्षता में गठित राजस्थान केपिटल इन्क्वायरी कमेटी की सिफारिश पर अजमेर के महत्व को बरकरार रखते हुए 1 नवंबर, 1956 को राजस्थान लोक सेवा आयोग का मुख्यालय अजमेर में खोला गया। 4 दिसम्बर 1957 को पारित शिक्षा अधिनियम के तहत माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय अजमेर रखा गया। 22 जुलाई, 1958 को राजस्व मंडल का अजमेर हस्तांतरण किया गया। अजमेर एट ए ग्लांस से साभार।

तीर्थराज पुष्कर की पवित्रता कैसे कायम रहेगी?

विश्व प्रसिद्ध तीर्थराज पुष्कर के रखरखाव और विकास पर यद्यपि सरकार अपनी ओर से पूरा ध्यान दे रही है, बावजूद इसके यहां अनेकानेक समस्याएं सालों से कब्जा जमाए बैठी हैं, जिसके कारण यहां दूर-दराज से आने वाले तीर्थ यात्रियों को तो दिक्कत होती ही है, इसकी छवि भी खराब होती है। विशेष रूप से इसकी पवित्रता का खंडित होना सर्वाधिक चिंता का विषय है।

यह सही है कि पर्यटन महकमे की ओर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार के कारण यहां विदेशी पर्यटक भी खूब आकर्षित हुए हैं और सरकार की आमदनी बढ़ी है, मगर विदेशी पर्यटकों की वजह से यहां की पवित्रता पर भी संकट आया है। असल में पुष्कर की पवित्रता उसके देहाती स्वरूप में है, मगर यहां आ कर विदेशी पर्यटकों ने हमारी संस्कृति पर आक्रमण किया है। होना तो यह चाहिए कि विदेशी पर्यटकों को यहां आने से पहले अपने पहनावे पर ध्यान देने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में जाने से पहले सिर ढ़कने और जूते उतारने के नियम हैं, वैसे ही पुष्कर में भ्रमण के भी अपने कायदे होने चाहिए। यद्यपि इसके लिए कोई ड्रेस कोड लागू नहीं किया सकता, मगर इतना तो किया ही जा सकता है कि पर्यटकों को सख्त हिदायत हो कि वे अर्द्ध नग्न अवस्था में पुष्कर की गलियों या घाटों पर नहीं घूम सकते। होटल के अंदर कमरे में वे भले ही चाहे जैसे रहें, मगर सार्वजनिक रूप से अंग प्रदर्शन नहीं करने देना चाहिए। इसके विपरीत हालत ये है कि अंग प्रदर्शन तो दूर विदेशी युगल सार्वजनिक स्थानों पर आलिंगन और चुंबन करने से नहीं चूकते, जो कि हमारी संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। कई बार तो वे ऐसी मुद्रा में होते हैं कि देखने वाले को ही शर्म आ जाए। यह ठीक है कि उनके देश में वे जैसे भी रहते हों, उसमें हमें कोई ऐतराज नहीं, मगर जब वे हमारे देश में आते हैं तो कम से कम यहां मर्यादाओं का तो ख्याल रखें। विशेष रूप तीर्थ स्थल पर तो गरिमा में रह ही सकते हैं। विदेशी पर्यटकों के बेहूदा कपड़ों में घूमने से यहां आने वाले देशी तीर्थ यात्रियों की मानसिकता पर बुरा असर पड़ता है। वे जिस मकसद से तीर्थ यात्रा को आए हैं और जो आध्यात्मिक भावना उनके मन में है, वह खंडित होती है। जिस स्थान पर आ कर मनुष्य को अपनी काम-वासना का परित्याग करना चाहिए, यदि उसी स्थान पर विदेशी पर्यटकों की हरकतें देख कर तीर्थ यात्री का मन विचलित होता है तो यह बेहद आपत्तिजनक और शर्मनाक है। विदेशी पर्यटकों की हालत तो ये है कि वे जानबूझ कर अर्द्ध नग्न अवस्था में निकलते हैं, ताकि स्थानीय लोग उनकी ओर आकर्षित हों। जब स्थानीय लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते हैं, तो उन्हें बड़ा रस आता है। जाहिर तौर पर जब दर्शक को ऐसे अश्लील दृश्य आसानी से सुलभ हो तो वे भला क्यों मौका गंवाना चाहेंगे? स्थिति तब और विकट हो जाती है जब कोई तीर्थ यात्री अपने परिवार के साथ आता है। आंख मूंद लेने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता।

यह भी एक कड़वा सत्य है कि विदेशी पर्यटकों की वजह से ही पुष्कर मादक पदार्थों की मंडी बन गया है, जिससे हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद होती जा रही है। इस इलाके एड्स के मामले भी इसी वजह से सामने आते रहे हैं।

यह सही है कि तीर्थ पुरोहितों ने पुष्कर की पवित्रता को लेकर अनेक बार आंदोलन किए हैं, मगर कामयाबी अब तक हासिल नहीं हो पाई है। तीर्थ पुरोहित पुष्कर में प्रभावी भूमिका में हैं। वे चाहें तो सरकार पर दबाव बना कर यहां का माहौल सुधार सकते हैं। यह न केवल उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुकूल होगा, अपितु तीर्थराज के प्रति लोगों की अगाध आस्था का संरक्षण करने के लिए भी जरूरी है।

पार्षद बन कर पछताए थे स्वर्गीय श्री सेवकराम सोनी

नगर निगम चुनाव को लेकर कितनी मारामारी मचती है, सब जानते हैं। हर छोटा-मोटा नेता चाहता है कि उसे पार्टी टिकट दे दे। उसके लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाता है। येन-केन-प्रकारेण टिकट चाहिए ही। आखिर क्यों? क्या सेवा का भाव उछाल मार रहा होता है? या वर्चस्व की चाह गहरी हो जाती है? या फिर कमाई का जरिया बनने का आकर्षण है? जो कुछ भी हो, मगर आप पाते हैं कि अदद पार्षद बनना भी बडा लक्ष्य हो जाता है। और पार्षद बनने के बाद जो आनंद मिलता है, उसकी कल्पना आम आदमी नहीं कर सकता। ऐसे में अगर कोई पार्षद बन कर खुश न हो, यहां तक कि पछताए तो आप क्या कहेंगे? कहे कि कहां आ कर फंस गया, तो आप क्या सोचेंगे? यही न कि यह आदमी मौजूदा आर्थिक आपाधापी के युग में मिसफिट है। जी हां, मैं एक ऐसे भूतपूर्व, और एक अर्थ में अभूतपूर्व पार्षद को जानता हूं, जानता क्या, बाकायदा मिला हूुं, जिन्होंने एक बार कहा कि पार्षद बन कर बहुत पछता रहा हूं। जनता की सेवा तो ठीक, मगर नगर परिषद की दुनिया में दम घुटता बहुत है। अंदर जो मंजर है, उसमें जीना मुश्किल है। झूठ, फरेब, स्वार्थ, मक्कारी, चालाकी, मुझ से तो नहीं होगी। वार्ड वासियों की सेवा का तो अच्छा अवसर है, वह ठीक है, मगर कमीशन का शिष्टाचार मेरे लिए तो संभव नहीं है। वे मिसफिट पार्षद थे, स्वर्गीय श्री सेवकराम सोनी। नया बाजार के जाने-माने व्यवसायी थे। संपन्न, समर्थ, मगर अत्यंत धार्मिक। सादा जीवन। सहज सुलभ। जाने-माने सिंधी गायक कलाकार थे। बालसखा स्वर्गीय श्री मिर्चूमल सोनी के साथ उनकी जोडी प्रसिद्ध थी। आकाशवाणी पर इस जोडी ने कई कार्यक्रम दिए। वेदांत के गहन जानकार। वैशाली नगर के शिव मंदिर में प्रतिदिन प्रातः प्रवचन दिया करते थे। अध्यात्म के जगत में इतना कदीमी मुकाम हासिल कर लिया था कि वेदांत केसरी ब्रह्मलोकवासी स्वामी श्री मनोहरानंद सागर जी महाराज ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनने का प्रस्ताव रखा, मगर उन्होंने अपनी पारीवारिक जिम्मेदारी को अधिक अहमियत दी। तब स्वर्गीय स्वामी श्री अद्वैतानंद सागर जी ने गद्दी संभाली थी। असल में उनकी लोकप्रियता को देखते हुए आरएसएस ने उनको भाजपा के टिकट पर निगम का चुनाव लडवाया था, हालांकि उनकी खुद की कोई दिलचस्पी नहीं थी। कहां धार्मिक व्यक्तित्व और कहां पार्षद की भूमिका। कोई मेल नहीं। मगर यह सोच कर कि पार्षद बनने पर सेवा का बेहतर अवसर मिलेगा। वे जीत गए। निस्वार्थ भाव से सेवा भी खूब की। वार्ड में दिन-रात सक्रिय रहे। मगर निगम परिसर में जाना उनको अच्छा नहीं लगता था। वहां के माहौल को देख कर। एक बार साधारण सभा में बहुत हंगामा, गरमागरमी, आरोप-प्रत्यारोप, छीना-झपटी देख कर बोले पार्षद बन कर पछता रहा हूं। बात तकरीबन पच्चीस साल पुरानी है। तब से लेकर अब तक गंगा का पानी बहुत बह चुका। कल्पना की जा सकती है कि आज कैसे हालात होंगे। प्रसंगवश बताना उचित होगा कि बाद में उनकी पुत्र वधु श्रीमती रीना सोनी धर्मपत्नी श्री मनोहर सोनी भी पार्षद बनी थीं।