उनकी सरलता व मितव्ययता की स्थिति ऐसी थी कि वे कई बार रोडवेज की बस से ही जयपुर आते जाते थे। बस स्टैंड से अपने घर तक टैक्सी या तांगे से आया करते थे। एक बार उनकी तांगे में घर आने की फोटो मीडिया में भी चर्चा का विषय बनी। उनकी सबसे बडी खासियत ये थी कि जो भी फरियादी उनके पास आता तो वे उसकी जायज मांग पूरी करने के लिए बिना किसी ना नुकर के तुरंत डिजायर लिख दिया करते थे। यह बात दीगर है कि इसका लाभ उनके कुछ एक नजदीकियों ने उठाया होगा, मगर उन पर किसी भी डिजायर की एवज में कुछ मांगने का आरोप नहीं लगा। ईमानदारी के कारण ही विधायक के नाते मिलने वाला भत्ता कम पड जाता था। इसके लेकर वे बहुत परेशान रहते थे। मेरे उनसे व्यक्तिगत संबंध थे। एक बार मैं उनके पास बैठा था तो अपनी परेशान बयां करते हुए उनकी आंखें नम हो गई थीं। वे बोले पहले जब वे अपनी कोठडी में बैठा करते थे, तो उनका टेलीफोन बिल और चाय पानी का खर्च सीमित था, जिसे वे आसानी से वहन कर लेते थे, लेकिन विधायक बनने के बाद हर एक कार्यकर्ता यह सोच कर कि यह सरकारी खाते का है, इस कारण उनके टेलीफोन का उपयोग बेधकडक करता है, किसी को रोका भी नहीं जा सकता, नतीजतन विधायक के नाते जो टेलीफोन भत्ता मिलता है, उससे तीन चार गुना बिल आने लगा है। उसे चुकाना बहुत मुश्किल हो रहा है। इतने पैसे कहां से लाउं? चाय पानी का खर्च भी इतना अधिक हो गया है कि उसे वहन करना बस की बात की नहीं रही। समझा जा सकता है कि जिसे वसूली का फंडा पता न हो, वह भला उपरी खर्चा कैसे झेल सकता है। दूसरा ये कि वसूली वही कर सकता है, जो तेज तर्रार हो, नानकराम जैसे सीधे सादे विधायक को भला कोई क्यों गांठने वाला था।
खैर, बातचीत के आखिर में वे यहां तक बोल गए कि वे विधायक होने से पहले ज्यादा सुखी थे। यह सही है कि अब रौब बढ गया है, लोगों के काम भी हो रहे हैं, मगर सुख चैन छिन गया है, क्योंकि लोगों की अपेक्षाएं बहुत अधिक हैं और उन सब को पूरा करना संभव नहीं। ऐसे में लोग नाराज हो जाते हैं। जिसके नौ काम करो, मगर दसवां काम न कर पाओ तो पुराने सभी नौ कामों पर पानी फिर जाता है।