गुरुवार, 19 जून 2025

कांग्रेस से क्यों विमुख होते जा रहे हैं सिंधी नेता?

यह आम धारणा है कि अजमेर में अधिसंख्य सिंधी मतदाता भाजपा मानसिकता के हैं, लेकिन एक जमाने में भूतपूर्व केबीनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के प्रभाव से काफी संख्या में सिंधी कांग्रेस से जुडे हुए थे। उनके निधन के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने हालांकि स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय को टिकट दिया और वे जीते भी, मगर उसके बाद हुए चुनाव में टिकट काट दिया गया, नतीजतन वे बागी हो गए। परिणामस्वरूप श्री नरेन शहाणी भगत मात्र ढाई हजार वोटों से हार गए। भाजपा के श्री वासुदेव देवनानी का अजमेर में पदार्पण हुआ और उसके बाद लगातार चार बार जीते। वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष हैं। हालांकि बाद में भगत को नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनाया गया था, मगर कांग्रेस राज में कथित षडयंत्र के चलते वे भ्रष्टाचार के मामले में फंस गए। उन्होंने बाकायदा साजिश का आरोप लगाते हुए पार्टी छोड दी। बस इसी के साथ सिंधी समुदाय में कांग्रेस विचारधारा के नेता व कार्यकर्ता हतोत्साहित होते गए। बावजूद इसके कुछ नेताओं ने हिम्मत नहीं हारी। श्री नरेश राधानी ने टिकट हासिल करने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया, मगर उन्हें सफलता हासिल नहीं हुई। उस जमाने के सारे दावेदारों में वे इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्हें टिकट हासिल करने की पतली गलियों का अच्छी तरह से पता था और उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। मगर कांग्रेस को चूंकि सिंधी को टिकट देना ही नहीं था, इस कारण उनकी कवायद किनारे तक पहुंचने के बाद भी कामयाब नहीं हो पाई। वे समझ गए और पूर्णकालिक पत्रकारिता आरंभ कर दी। फिर आए दीपक हासानी। प्रोजेक्शन तो था कि टिकट उनकी फायनल है, मगर उनके साथ भी अंततः धोखा हो गया। हालांकि उन्होंने दूसरी बार भी कोशिश की, मगर सफलता हासिल नहीं हो पाई। पिछले कुछ दिन से निष्क्रिय से हैं। पिछले पांच बार से टिकट के सबसे प्रबल दावेदार माने जा रहे राजस्थान सिंधी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ लाल थदानी ने पिछले चुनाव में तो ढंग से दावेदारी ही नहीं की। उनकी गिनती सिंधी समाज में सर्वाधिक सक्रिय नेताओं में होती रही है। आज कल हिंदूवादी मानसिकता के कार्यक्रमों में शिरकत कर रहे हैं। यानि कि कांग्रेस से लगभग किनारा कर लिया है। वस्तुतः कांग्रेस राज में उन्हें सस्पेंशन का दर्द भोगना पडा। अब बात करते हैं, स्वामी अनादि सरस्वती की। बडे हाई प्रोफाइल तरीके से कांग्रेस में लाया गया। तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उनको कांग्रेस ज्वाइन करवाई। उनको टिकट मिलने का तनिक विरोध होते ही उन्हें साइड में बैठा दिया गया। बाद में खैर खबर ही नहीं ली। उनका कोई उपयोग नहीं किया गया। अब वे हिंदूवादी संगठनों के कार्यक्रमों में भाग ले रही हैं। कुल जमा ऐसा समझ में आता है कि कांग्रेस की नीति व रवैये के कारण सिंधी नेता विमुख होते जा रहे हैं। इतना ही नहीं भूतपूर्व केबिनेट मंत्री स्वर्गीय श्री किशन मोटवानी के जमाने के कई कांग्रेस समर्थकों की औलादें नेतृत्व के अभाव में भाजपा में जा चुकी हैं। अब यह तथ्य सुस्थापित हो चुका है कि सिंधियों की नाराजगी के कारण कांग्रेस अजमेर की दोनों सीटों पर पिछले चार चुनावों से लगातार हार रही है। सुना है अब सिंधी मतदाताओं को लुभाने के लिए तीन विकल्पों पर विचार किया जा रहा है। एक शहर कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया जाए। दूसरा अगर मेयर के चुनाव डायरेक्ट हों तो किसी सिंधी को प्रत्याशी बना दिया जाए। तीसरा परिसीमन के बाद संभावित तीसरी सीट का टिकट सिंधी को दिया जाए।


रविवार, 15 जून 2025

छोटा सा गांव टहला बना शक्तिकेन्द्र

 मातृभूमि की अनूठी पूजा की औंकार सिंह लखावत ने

अजमेर के निकटवर्ती नागौर जिले का छोटा सा टहला गांव। गत दिनों चहल-पहल के आगोश में था। प्रदेश भर के छोटे-बडे नेताओं की आवाजाही से आबाद। एक जागृत शक्ति केन्द्र का आभास। मौका था राजस्थान धरोहर संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत की धर्म पत्नी के निधन पर शोक संवेदना व्यक्त करने का। दिनभर श्रद्धालुओं का तांता। आवभगत में कोई कमी नहीं। हर एक को आते ही पानी की बोतल। तुरंत बाद चाय की प्याली। भीषण गर्मी से निजात दिलाने के लिए दो बडे कूलर। लखावत बैठक के एक कोने में मुड्डे पर बैठे हुए दिखाई देते हैं। शांत, अविचल। धीर-गंभीर चहरे के भीतर से झांकता जीवनसाथी के विछोह का दर्द। हर खास को अपने पास सोफे पर बिठाते हैं। सुनते सबकी हैं, खुद चंद शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। पूरे बाहर दिन सुबह से लेकर शाम तक लगातार बैठना कितना कठिन है, यह वे ही समझ सकते हैं। कौतुहल होता है कि वे चाहते तो शोक बैठक अपनी कर्मस्थली अजमेर में भी रख सकते थे, जहां कहीं अधिक गुना लोग संवेदना व्यक्त करने आते, मगर उन्होंने इसके लिए चुना अपनी मातृभूमि को। कदाचित धर्मपत्नी की मृत्युपूर्व इच्छानुसार या पारिवारिक परंपरा के निर्वहन की खातिर। और उससे भी अधिक जन्म देने वाली भूमि की पूजा की खातिर। भाव भंगिमा में मातृभूमि के प्रति समर्पण की संतुष्टि साफ झलकती है। कुछ इस तरह जताया आभारः-

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शुक्रवार, 6 जून 2025

लंबी राजनीतिक यात्रा के बाद बी पी सारस्वत को मिला यथोचित सम्मान

अजमेर जिले में लंबी राजनीतिक यात्रा में अनेक उतार-चढाव वाले पडावों से गुजरने के बाद अंततः प्रो. भगवती प्रसाद सारस्वत को यथोचित सम्मान मिल गया। उन्हें कोटा विश्वविद्यालय का कुलगुरू बनाया गया है। वे महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय, अजमेर के पूर्व कॉमर्स विभागाध्यक्ष व पूर्व डीन रहे हैं। हालांकि उनकी मनोकामना विधायक अथवा सांसद बनने की रही, मगर जिले के जातिगत समीकरणों की मजबूरी के चलते बहुत कवायद के बाद भी ऐसा हो नहीं पाया। इस दरम्यान पार्टी को जिलेभर में मजबूत करने का दायित्व निभाया, मगर प्रदेश भाजपा के अंदरूनी पेचोखम इतने उलझे रहे कि पात्रता के बाद भी उन्हें कभी टिकट नहीं मिल पाया। अब जा कर उनकी शैक्षिक योग्यताओं का प्रतिफलन कुलगुरू के रूप में घटित हुआ है।

जब उन्हें देहात जिला भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई तो यह माना जाने लगा कि उनकी किस्मत में केवल सेवा ही लिखी है। तीन विधानसभा चुनावों में वे ब्यावर सीट के दावेदार रहे, उसके बाद अजमेर उत्तर अथवा केकड़ी से प्रबल दावेदार थे, मगर उन्हें मौका नहीं मिला। देहात जिले की छहों सीटों पर पार्टी की जीत ने यह साबित हो गया कि सांगठनिक लिहाज से उनकी कार्यशैली अद्भुद है। जिले में पूरी निष्पक्षता के साथ शानदार सदस्यता अभियान चलाने का श्रेय भी उनके ही खाते में दर्ज है। वे पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नजदीकी लोगों में माने जाते हैं।  

वस्तुतः वे मूल्य आधारित विचारधारा के पोषक हैं और मूल्यों की रक्षा के कारण ही उठापटक की राजनीति में अप्रासंगिक से नजर आते हैं। नैतिक मूल्यों की रक्षा की खातिर ही उन्होंने भाजपा के शिक्षा प्रकोष्ठ के प्रदेशाध्यक्ष पद को त्याग दिया, हालांकि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद व विश्व हिंदू परिषद में सक्रिय रहे हैं। पिछली अशोक गहलोत सरकार के दौरान विहिप नेता प्रवीण भाई तोगडिया के त्रिशूल दीक्षा कार्यक्रम के दौरान उनको सहयोग करने वालों में प्रमुख होने के कारण उनके खिलाफ भी मुकदमा दर्ज हुआ था।

विद्यार्थी काल से ही वे संघ और विद्यार्थी परिषद से जुड़ गए। वे सन् 1981 से 86 तक परिषद के विभाग प्रमुख रहे। वे सन् 1992 से 95 तक संघ के ब्यावर नगर कार्यवाह रहे। वे सन् 1997 से 2004 तक विश्व हिंदू परिषद के प्रांत मंत्री रहे हैं। वे सन् 1986 से 97 तक राजस्थान यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अनेक पदों पर और 2001 से 2003 तक अजमेर यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष रहे हैं। उनकी चौदह पुस्तकें और बीस पेपर्स प्रकाशित हो चुके हैं। उनके मार्गदर्शन में विद्यार्थियों ने पीएचडी की है। वे चीन, सिंगापुर, श्रीलंका व पाकिस्तान आदि देशों की यात्रा कर चुके हैं।

उनका जन्म जिले के छोटे से गांव ब्रिक्चियावास में सन् 1960 में हुआ। उच्च शिक्षा पाने के बाद वे ब्यावर स्थित राजकीय सनातन धर्म महाविद्यालय में लेक्चरर बने। लंबे समय तक नौकरी करने के बाद महर्षि दयानंद सरस्वती विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर बनाए गए। पदोन्नति के बाद प्रोफेसर बने। बाद में वे कॉमर्स विभाग के विभागाध्यक्ष और डीन बनाए गए। ग्यारह साल तक पीटीईटी (प्री. बी.एड़ परीक्षा) के कोर्डिनेटर बने। यह विश्वविद्यालय तब पीटीईटी की नोडल एजेंसी रहा। एक बार राज्य सरकार की ओर से रजिस्ट्रार पद नहीं भरा गया तो उनको तत्कालीन कुलपति ने रजिस्ट्रार का दायित्व सौंपा, जिसका निर्वहन करते हुए उन्होंने अनेक उपब्धियां हासिल कीं।