राजस्थान अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड गठन
प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने एक बार फिर राजस्थान लोक सेवा आयोग को दोफाड़ करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। अब सभी प्रकार की अधीनस्थ व मिनिस्ट्रियल कर्मचारियों की भर्ती पुनर्गठित राजस्थान अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड के जरिये होगी। इसके लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है। पिछली बार भी वसुंधरा राजे ने अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में चुनाव से ठीक पहले 2008 में इसका गठन किया था। बाद में कांग्रेस सरकार ने मामले को काफी दिन ठंडे बस्ते में रखा और अंतत: इसे भंग कर दिया था। वसुंधरा ने सत्तारूढ़ होते ही फिर से इसके गठन का नोटिफिकेशन जारी कर दिया।
सरकार के इस कदम का राजस्थान लोक सेवा आयोग कर्मचारी संघ ने विरोध शुरू कर दिया है। कर्मचारी संघ ने इसे आयोग के विखंडन की संज्ञा देते हुए इसे अजमेर की अस्मिता का सवाल बता कर जिले के जनप्रतिनिधियों से इस मामले में दखल की मांग की है। अजमेर के वजूद को बरकरार रखने के लिए कई बार आवाज उठाने वाले पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ही एक मात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने फिर सवाल उठाया है कि अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के वक्त राव कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर स्थापित राज्य स्तरीय आयोग को क्यों दोफाड़ किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि राजस्थान अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड के गठन के बाद आयोग के पास केवल 40% भर्तियों की जिम्मेदारी ही रहेगी। करीब 60% भर्तियां चयन बोर्ड को मिल सकती हैं। इसके पुनर्गठन के बाद 150 से 200 कर्मचारियों-अधिकारियों की जरूरत पड़ेगी। वर्तमान में आरपीएससी राजपत्रित, मेडिकल सेवा, इंजीनियरिंग सेवा, शिक्षक भर्ती, पीटीआई भर्ती, एलडीसी समेत विभिन्न भर्ती परीक्षाएं आयोजित कर रहा है। अधीनस्थ बोर्ड गठन होने के बाद आयोग के पास आधा ही काम रह जाएगा। सूत्रों के मुताबिक एलडीसी, थर्ड ग्रेड टीचर भर्ती, सेकंड ग्रेड टीचर्स भर्ती, पीटीआई समेत विभिन्न भर्तियां नए बोर्ड को मिल जाएंगी।
इस बारे में आयोग कर्मचारी संघ के अध्यक्ष दयाकर शर्मा का कहना है कि आयोग में मात्र 250 ही कार्मिक स्वीकृत हैं, लेकिन हर साल 18 से 20 लाख अभ्यर्थियों की परीक्षा आयोजित की जाती है, जबकि राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में 853 का स्टाफ स्वीकृत है और बोर्ड करीब 18 लाख विद्यार्थियों की परीक्षा आयोजित करता है। राज्य सरकार नया चयन बोर्ड गठित करने पर जो संसाधन जुटाएगा, उससे आधे संसाधन भी आयोग को मिल जाएं, तो सरकार का आर्थिक बोझ कम होगा। नया बोर्ड गठित होने पर नए भवन के साथ ही नया स्टाफ भी लगाना पड़ेगा। इससे आर्थिक भार और बढ़ेगा। आयोग कर्मचारी संघ के पूर्व अध्यक्ष पूरण मीणा ने भी सरकार की इस कवायद का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि नए बोर्ड से अभ्यर्थियों को भी नुकसान होगा। आयोग की विश्वसनीयता अभ्यर्थियों में बनी हुई है।
ज्ञातव्य है कि पिछली बार विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से ठीक पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने कुछ नेताओं को एडजस्ट करने और एसी चैंबर्स में बैठ कर धरातल के निर्णय करने वाले अधिकारियों के षड्यंत्र के चलते बोर्ड का गठन कर दिया। जल्दबाजी में उप सचिव स्तर के अधिकारी राकेश राजोरिया को सचिव तो बना दिया, मगर उन्हें भवन और कर्मचारी नहीं दे पाई। अध्यक्ष के रूप में आयोग के सदस्य एच. एल. मीणा और सदस्यों के रूप में डॉ. सुभाष पुरोहित, भैरोंसिंह गुर्जर, उदयचंद बारूपाल व एच. सी. डामोर की नियुक्ति कर दी। बाद में मीणा की जगह भरतपुर के तत्कालीन सांसद विश्वेन्द्र सिंह को खुश करने के लिए उनकी पत्नी दिव्या सिंह को कार्यभार सौंपा गया। सरकार आगे कुछ कार्यवाही करती, इससे पहले चुनाव आ गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को विश्वास था कि वे फिर सत्ता में आएंगी और तब उसे विधिवत काम सौंपेंगीं। मगर दुर्भाग्य से चुनाव में तख्ता पलट गया और कांग्रेस सरकार काबिज हो गई। नतीजतन राजनीतिक लाभ के लिए गठित यह बोर्ड कांग्रेस सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया। न तो वह उगल पा रही थी और न ही निगल पा रही थी। ऐसी स्थिति में बोर्ड के सभी पदाधिकारी भी लटक गए। न तो उनको बैठने के लिए जगह दी गई और न ही उनकी उपस्थिति दर्ज करने की कोई व्यवस्था कायम की गई। वेतन मिलने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं था। उधर बोर्ड में सरकारी प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त राजेश राजोरिया की स्थिति भी अजीबोगरीब हो गई। उन्होंने बोर्ड को किराये के भवन में स्थापित करने के लिए दो बार विज्ञापन भी जारी किए, लेकिन किसी भी भवन मालिक ने रुचि नहीं दिखाई। दूसरी ओर अराजपत्रित पदों की भर्ती का जो काम बोर्ड को कराना था, वह आयोग करवाता जा रहा है। ऐसे में इस बोर्ड के वजूद पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ था।
सरकार की उहापोह का चाहे जो कारण हो, मगर सरकार की इस किंकर्तव्यविमूढ़ता के चलते हाईकोर्ट में एक याचिका तक दायर कर दी गई, जिसमें सवाल खड़ा किया गया कि इस बोर्ड को अब तक काम और कर्मचारी क्यों नहीं दिए गए हैं। इस पर हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा। हालांकि यह पहले से ही लग रहा था कि सरकार इस बोर्ड को अस्तित्व में नहीं रखना चाहती, मगर जब हाईकोर्ट का डंडा पड़ा तो आखिर सरकार को निर्णय करना ही पड़ा।
बहरहाल, इस बार जैसे ही भाजपा की सरकार काबिज हुई है, उसने एक बार फिर बोर्ड के गठन का काम शुरू कर दिया है। इसका विरोध भी हो रहा है, मगर लगता यही है कि सरकार किसी दबाव में नहीं आएगी।
वस्तुत: भाजपा सरकार ने केन्द्र की तरह अखिल भारतीय सेवाओं और अन्य सेवाओं के लिए अलग-अलग भर्ती दफ्तर होने को आधार बना कर यह कदम उठाया है, जबकि इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी। सरकार चाहती तो मौजूदा आयोग में ही कुछ नए सदस्य नियुक्त कर देती और लंबे-चौड़े आयोग परिसर में कुछ और भवन बनवा देती। यह सही है कि आयोग का जब गठन किया गया तो उसके पास गजटेड व फस्र्ट क्लास अधिकारियों की भर्ती का ही काम था, लेकिन बाद में जिस तरह अन्य सेवाओं की भी भर्तियां होने लगीं तो यहां के कर्मचारियों ने अपने आपको उसी के अनुरूप ढाल लिया। यहां तक कि तृतीय श्रेणी शिक्षकों की बड़ी भर्ती के काम को भी बखूबी अंजाम दिया।
पिछली बार सत्तारूढ़ दल के विधायक सरकार के साथ सुर में सुर मिला कर गीत गा रहे थे और इकलौते विपक्षी विधायक डॉ.श्रीगोपाल बाहेती की आवाज नक्कारखाने में तूती की माफिक दब कर रह गई। इस बार तो जिले के आठों विधायक भाजपा के हैं, फिर भी डॉ. बाहेती ने आवाज उठाई है। उनका कहना है कि यदि सरकार राव कमीशन की सिफारिशों को दरकिनार कर आयोग का विखंडन करना चाहती है तो उससे बेहतर है अजमेर को फिर से राज्य का दर्जा दे दिया जाए।
-तेजवानी गिरधर
प्रदेश की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने एक बार फिर राजस्थान लोक सेवा आयोग को दोफाड़ करने की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। अब सभी प्रकार की अधीनस्थ व मिनिस्ट्रियल कर्मचारियों की भर्ती पुनर्गठित राजस्थान अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड के जरिये होगी। इसके लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिया गया है। पिछली बार भी वसुंधरा राजे ने अपने कार्यकाल के आखिरी दौर में चुनाव से ठीक पहले 2008 में इसका गठन किया था। बाद में कांग्रेस सरकार ने मामले को काफी दिन ठंडे बस्ते में रखा और अंतत: इसे भंग कर दिया था। वसुंधरा ने सत्तारूढ़ होते ही फिर से इसके गठन का नोटिफिकेशन जारी कर दिया।
सरकार के इस कदम का राजस्थान लोक सेवा आयोग कर्मचारी संघ ने विरोध शुरू कर दिया है। कर्मचारी संघ ने इसे आयोग के विखंडन की संज्ञा देते हुए इसे अजमेर की अस्मिता का सवाल बता कर जिले के जनप्रतिनिधियों से इस मामले में दखल की मांग की है। अजमेर के वजूद को बरकरार रखने के लिए कई बार आवाज उठाने वाले पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ही एक मात्र ऐसे नेता हैं, जिन्होंने फिर सवाल उठाया है कि अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के वक्त राव कमीशन की रिपोर्ट के आधार पर स्थापित राज्य स्तरीय आयोग को क्यों दोफाड़ किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि राजस्थान अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड के गठन के बाद आयोग के पास केवल 40% भर्तियों की जिम्मेदारी ही रहेगी। करीब 60% भर्तियां चयन बोर्ड को मिल सकती हैं। इसके पुनर्गठन के बाद 150 से 200 कर्मचारियों-अधिकारियों की जरूरत पड़ेगी। वर्तमान में आरपीएससी राजपत्रित, मेडिकल सेवा, इंजीनियरिंग सेवा, शिक्षक भर्ती, पीटीआई भर्ती, एलडीसी समेत विभिन्न भर्ती परीक्षाएं आयोजित कर रहा है। अधीनस्थ बोर्ड गठन होने के बाद आयोग के पास आधा ही काम रह जाएगा। सूत्रों के मुताबिक एलडीसी, थर्ड ग्रेड टीचर भर्ती, सेकंड ग्रेड टीचर्स भर्ती, पीटीआई समेत विभिन्न भर्तियां नए बोर्ड को मिल जाएंगी।
इस बारे में आयोग कर्मचारी संघ के अध्यक्ष दयाकर शर्मा का कहना है कि आयोग में मात्र 250 ही कार्मिक स्वीकृत हैं, लेकिन हर साल 18 से 20 लाख अभ्यर्थियों की परीक्षा आयोजित की जाती है, जबकि राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में 853 का स्टाफ स्वीकृत है और बोर्ड करीब 18 लाख विद्यार्थियों की परीक्षा आयोजित करता है। राज्य सरकार नया चयन बोर्ड गठित करने पर जो संसाधन जुटाएगा, उससे आधे संसाधन भी आयोग को मिल जाएं, तो सरकार का आर्थिक बोझ कम होगा। नया बोर्ड गठित होने पर नए भवन के साथ ही नया स्टाफ भी लगाना पड़ेगा। इससे आर्थिक भार और बढ़ेगा। आयोग कर्मचारी संघ के पूर्व अध्यक्ष पूरण मीणा ने भी सरकार की इस कवायद का विरोध किया है। उन्होंने कहा कि नए बोर्ड से अभ्यर्थियों को भी नुकसान होगा। आयोग की विश्वसनीयता अभ्यर्थियों में बनी हुई है।
ज्ञातव्य है कि पिछली बार विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी होने से ठीक पहले तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने कुछ नेताओं को एडजस्ट करने और एसी चैंबर्स में बैठ कर धरातल के निर्णय करने वाले अधिकारियों के षड्यंत्र के चलते बोर्ड का गठन कर दिया। जल्दबाजी में उप सचिव स्तर के अधिकारी राकेश राजोरिया को सचिव तो बना दिया, मगर उन्हें भवन और कर्मचारी नहीं दे पाई। अध्यक्ष के रूप में आयोग के सदस्य एच. एल. मीणा और सदस्यों के रूप में डॉ. सुभाष पुरोहित, भैरोंसिंह गुर्जर, उदयचंद बारूपाल व एच. सी. डामोर की नियुक्ति कर दी। बाद में मीणा की जगह भरतपुर के तत्कालीन सांसद विश्वेन्द्र सिंह को खुश करने के लिए उनकी पत्नी दिव्या सिंह को कार्यभार सौंपा गया। सरकार आगे कुछ कार्यवाही करती, इससे पहले चुनाव आ गए। तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को विश्वास था कि वे फिर सत्ता में आएंगी और तब उसे विधिवत काम सौंपेंगीं। मगर दुर्भाग्य से चुनाव में तख्ता पलट गया और कांग्रेस सरकार काबिज हो गई। नतीजतन राजनीतिक लाभ के लिए गठित यह बोर्ड कांग्रेस सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया। न तो वह उगल पा रही थी और न ही निगल पा रही थी। ऐसी स्थिति में बोर्ड के सभी पदाधिकारी भी लटक गए। न तो उनको बैठने के लिए जगह दी गई और न ही उनकी उपस्थिति दर्ज करने की कोई व्यवस्था कायम की गई। वेतन मिलने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं था। उधर बोर्ड में सरकारी प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त राजेश राजोरिया की स्थिति भी अजीबोगरीब हो गई। उन्होंने बोर्ड को किराये के भवन में स्थापित करने के लिए दो बार विज्ञापन भी जारी किए, लेकिन किसी भी भवन मालिक ने रुचि नहीं दिखाई। दूसरी ओर अराजपत्रित पदों की भर्ती का जो काम बोर्ड को कराना था, वह आयोग करवाता जा रहा है। ऐसे में इस बोर्ड के वजूद पर एक बड़ा सवालिया निशान लगा हुआ था।
सरकार की उहापोह का चाहे जो कारण हो, मगर सरकार की इस किंकर्तव्यविमूढ़ता के चलते हाईकोर्ट में एक याचिका तक दायर कर दी गई, जिसमें सवाल खड़ा किया गया कि इस बोर्ड को अब तक काम और कर्मचारी क्यों नहीं दिए गए हैं। इस पर हाईकोर्ट ने सरकार से जवाब मांगा। हालांकि यह पहले से ही लग रहा था कि सरकार इस बोर्ड को अस्तित्व में नहीं रखना चाहती, मगर जब हाईकोर्ट का डंडा पड़ा तो आखिर सरकार को निर्णय करना ही पड़ा।
बहरहाल, इस बार जैसे ही भाजपा की सरकार काबिज हुई है, उसने एक बार फिर बोर्ड के गठन का काम शुरू कर दिया है। इसका विरोध भी हो रहा है, मगर लगता यही है कि सरकार किसी दबाव में नहीं आएगी।
वस्तुत: भाजपा सरकार ने केन्द्र की तरह अखिल भारतीय सेवाओं और अन्य सेवाओं के लिए अलग-अलग भर्ती दफ्तर होने को आधार बना कर यह कदम उठाया है, जबकि इसकी कोई आवश्यकता ही नहीं थी। सरकार चाहती तो मौजूदा आयोग में ही कुछ नए सदस्य नियुक्त कर देती और लंबे-चौड़े आयोग परिसर में कुछ और भवन बनवा देती। यह सही है कि आयोग का जब गठन किया गया तो उसके पास गजटेड व फस्र्ट क्लास अधिकारियों की भर्ती का ही काम था, लेकिन बाद में जिस तरह अन्य सेवाओं की भी भर्तियां होने लगीं तो यहां के कर्मचारियों ने अपने आपको उसी के अनुरूप ढाल लिया। यहां तक कि तृतीय श्रेणी शिक्षकों की बड़ी भर्ती के काम को भी बखूबी अंजाम दिया।
पिछली बार सत्तारूढ़ दल के विधायक सरकार के साथ सुर में सुर मिला कर गीत गा रहे थे और इकलौते विपक्षी विधायक डॉ.श्रीगोपाल बाहेती की आवाज नक्कारखाने में तूती की माफिक दब कर रह गई। इस बार तो जिले के आठों विधायक भाजपा के हैं, फिर भी डॉ. बाहेती ने आवाज उठाई है। उनका कहना है कि यदि सरकार राव कमीशन की सिफारिशों को दरकिनार कर आयोग का विखंडन करना चाहती है तो उससे बेहतर है अजमेर को फिर से राज्य का दर्जा दे दिया जाए।
-तेजवानी गिरधर
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