असल में अजमेर के लोग यह देखने के आदी हो चुके हैं कि यहां लाख दावों और प्रयासों के बाद भी विभिन्न विभागों में तालमेल नहीं हो पाता। निगम या पीडब्ल्यूडी सड़क बनाती है और उसके तुरंत बाद अजमेर विद्युत वितरण निगम या भारत दूरसंचार निगम उसे केबल डालने के लिए खोद डालता है। यह मुद्दा न जाने कितनी बार संभागीय आयुक्त व जिला कलेक्टर के सामने और अजमेर विकास प्राधिकरण की बैठकों में उठता रहा है। हर बार यही कहा जाता है कि अब तालमेल का अभाव बर्दाश्त नहीं किया जाएगा, मगर नतीजा ढ़ाक के तीन पात ही रहता है।
इसके अतिरिक्त ये भी पाया गया है कि जब जब अजमेर नगर सुधार न्यास, जो कि अब अजमेर विकास प्राधिकरण है, का मुखिया प्रशासनिक अधिकारी रहा है, विकास का काम ठप ही हुआ है। और जब भी जनता का कोई नुमाइंदा अध्यक्ष रहा है, उसने अपनी प्रतिष्ठा के लिए पूरी रुचि लेकर विकास के कार्य करवाए हैं। स्वाभाविक सी बात है कि सरकारी अधिकारियों की अजमेर के प्रति कोई रुचि नहीं होती, क्योंकि उन्हें तो केवल नौकरी करनी होती है और मात्र दो-तीन साल के लिए अजमेर आते हैं। ऐसे में यह जरूरी सा लगता है कि अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाए जाने के लिए जो अजमेर स्मार्ट सिटी कारपोरेशन लिमिटेड गठित होगा, उसका मुखिया जनता का ही कोई नुमाइंदा हो।
इस महती योजना की ठीक से मॉनिटरिंग भी अधिकारियों की बजाय जनता का ऐसा नुमाइंदा कर सकता है या कर पाएगा, जो स्थानीय कठिनाइयों, जरूरतों और संभावनाओं को बेहतर जानता होगा। अधिकारियों के भरोसे काम किस प्रकार होते हैं, इसका अनुमान तो इसी बात से लग जाता है स्मार्ट सिटी के लिए सबसे पहले घोषित तीन शहरों में अजमेर का नाम शुमार होने के बाद भी उसकी औपचारिकता में कितनी लापरवाही बरती गई।
लब्बोलुआब, सरकार को नीतिगत निर्णय करते हुए स्मार्ट सिटी कारपोरेशनों को जनता के प्रतिनिधियों को सौंपना चाहिए और उसकी कमेटी में स्थानीय विशेषज्ञों के साथ संबंधित विभागों के जिम्मेदार अधिकारियों को सदस्य के रूप में शामिल करना चाहिए। तभी अपेक्षित परिणाम सामने आएंगे। नहीं तो इसका हाल वही होना है, जैसा अब स्लम फ्री सिटी, जेएनएनयूआरएम आवास योजना और सीवरेज लाइन योजना का हुआ है। आखिर वही हुआ, जिसकी आशंका थी। आज लगभग सभी जनप्रतिनिधि सियापा कर रहे हैं कि अधिकारियों ने उनके सुझावों पर गौर किया ही नहीं।
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