असल में दैनिक भास्कर, अजमेर संस्करण के पूर्व संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल इस ठिये के सूत्रधार थे। तब वे नवज्योति में हुआ करते थे। उनके संपादन कार्य से निवृत्त के बाद यहां पहुंचने से पहले ही एक-एक करके ठियेबाज जुटना शुरू हो जाते थे। सबके नाम लेना तो नामुमकिन है। चंद शख्सियतों का जिक्र किए देते हैं- स्वर्गीय श्री वीर कुमार, रणजीत मलिक, इंदुशेखर पंचोली, संतोष गुप्ता, नरेन्द्र भारद्वाज, ललित शर्मा, अतुल शर्मा, तिलोक, स्वर्गीय सीताराम चौरसिया, स्वर्गीय योगेन्द्र सेन आदि-आदि, जो कि रोजाना इस मजार पर दीया जलाने चले आते थे। डॉ. अग्रवाल के आने के बाद तो महफिल पूरी रंगत में आ जाती थी। इस मयखाने की मय का स्वाद चखने कई रिंद खिंचे चले आते थे। यहां दिनभर की सियासी हलचल के साथ अफसरशाही के किस्सों पर खुल कर चटकारे लिये जाते थे। समझा जा सकता है कि दूसरे दिन अखबारों में छपने वाली खबरों का तो जिक्र होता ही था, उन छुटपुट वारदातों पर भी कानाफूसी होती थी, जो ऑफ द रिकार्ड होने के कारण खबर की हिस्सा नहीं बन पाती थीं। अगर ये कहा जाए कि इस ठिये पर शहर का दिल धड़कता था तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूंकि यहां हर तबके के बुद्धिजीवी जमा होते थे, इस कारण खबरनवीसों को शहर की क्रिया-प्रतिक्रिया का भरपूर फीडबेक मिला करता था। जो बाद में अखबारों के जरिए शहर की दिशा-दशा तय करता था। जिन स्वर्गीय श्री सीताराम चौरसिया का नाम चर्चा में आया है, वे कांग्रेस सेवादल के जाने-माने कार्यकर्ता थे। सेवादल के ही स्वर्गीय योगेन्द्र सेन इस मजार के पक्के खादिम थे। बाद में यह ठीया वरिष्ठ पत्रकार इंदुशेखर की पहल पर पैरामाउंट होटल के एक कमरे में शिफ्ट हो गया था। एक घर बनाऊंगा की तर्ज पर एक सा छोटा ठिया सामने ही रेलवे स्टेशन के गेट के पास कोने में चाय की दुकान पर भी खुला, जो दैनिक न्याय के पत्रकारों ने जमाया था। लगे हाथ ये बताना वाजिब रहेगा कि नाले शाह की मजार से भी पहले क्लॉक टॉवर के सामने मौजूदा इंडिया पान हाउस के पास चबूतरे पर दैनिक नवज्योति के तत्कालीन क्राइम रिपोर्टर स्वर्गीय श्री जवाहर सिंह चौधरी देर रात के धूनी रमाया करते थे।
गुरुवार, 24 अक्तूबर 2024
अजमेर की चौधर करने वालों का ठीया था नाले शाह की मजार
शहर के चंद बुद्धिजीवियों को ही पता है कि अजमेर में एक स्थान नाले शाह की मजार के नाम से जाना जाता था। अब उसका कोई नामो-निशान नहीं है। दरअसल न तो नाले शाह नाम के कोई शख्स हुए और न ही वह किसी की मजार थी। वह एक ठीया था। क्लॉक टॉवर पुलिस थाने के मेन गेट से सटी बाहरी दीवार पर रोजाना रात सजने वाले मजमे को कुछ मसखरे नाले शाह की मजार कहा करते थे। दरअसल दीवार के सहारे पटे हुए एक नाले पर होने के कारण ये नाम पड़ा था। इस ठीये पर शहर की चौधर करने वाले जमा होते थे। बाखबर के साथ बेखबर चर्चाओं का मेला लगता था। अफवाहों की अबाबीलें घुसपैठ कर जातीं, तो कानाफूसियां भी अठखेलियां करती थीं। हंसी-ठिठोली, चुहलबाजी, तानाकशी व टीका-टिप्पणी के इस चाट भंडार पर शहर भर के चटोरे खिंचे चले आते थे। दुनियाभर की टेंशन और भौतिक युग की आपाधापी के बीच यह वह जगह थी, जहां आ कर जिंदगी रिलैक्स करती थी। इतना ही नहीं, वहां शहर की फिजां का तानाबाना सायास नहीं, अनायास बुना जाता था। यहां से निकली हवा शहर की आबोहवा में बिखर जाती थी।
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