रविवार, 26 जून 2011

मुख्यमंत्री की बची न बची, मेयर की प्रतिष्ठा तो मिट्टी में मिल गई



दीप दर्शन हाउसिंग सोसायटी की ओर से बसाई गई माधव नगर कॉलोनी में 59 लोगों के प्लॉट का आवंटन रद्द करने और 10 दुकानों को सीज करने की कार्यवाही जिस प्रकार ताबड़तोड़ की गई, उससे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रतिष्ठा बची या नहीं, पता नहीं, मगर अजमेर के मेयर कमल बाकोलिया की तो मिट्टी में ही मिल गई। यहां उल्लेखनीय है कि दीप दर्शन सोसायटी के कथित जमीन घोटाले में गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत का नाम जोड़े जाने के बाद जैसे ही गहलोत की कुर्सी पर आंच आने लगी, उन्होंने पहले पंचशील कॉलोनी में दीप दर्शन सोसायटी के नाम नगर सुधार न्यास की ओर से आवंटित 63 बीघा जमीन के आवंटन व लीज को रद्द कर दिया गया। इसके बाद इसी सोसायटी की माधव नगर कॉलोनी को भी लपेटे में ले लिया गया।
कानून के जानकार ही नहीं बल्कि आम आदमी भी समझ रहा है कि गहलोत ने अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए सारे नियम-कायदे ताक पर रख कर कार्यवाही कर दी और कोर्ट से आवंटियों को राहत मिलने की पूरी उम्मीद है, लेकिन इससे अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया की प्रतिष्ठा के तो पलीता लग ही गया। माधव नगर में बाकोलिया का भी मकान है। अफसोसनाक पहलु ये है कि जमीन पर कब्जा लेने को नगर निगम के ही सीईओ सी. आर. मीणा दल-बल के साथ गए और निगम स्थित चैंबर में बैठे बाकोलिया को हवा तक नहीं लगी। जाहिर है ऊपर से इशारा था कि उन्हें पता नहीं लगना चाहिए, वरना वे रोड़ा अटका सकते हैं। सरकार के इस रवैये से जहां यह साफ हो गया है कि उनकी प्राथमिकता गहलोत की प्रतिष्ठा बचाना था, मेयर की जाए तो जाए, वहीं यह भी स्पष्ट हो गया है कि मेयर की सरकार में कितनी पहुंच है। सरकार में छोडिय़े, स्थानीय स्तर पर भी उनका तंत्र कितना कमजोर है, इसकी भी पोल पट्टी खुल गई। वे निगम में ही बैठे थे और मीणा सहित निगम के दल के मौके पर रवाना हो कर कार्यवाही करने तक उन्हें हवा तक नहीं लगी। साफ है कि वे मेयर बनने के बाद उसकी कुर्सी पर बैठ कर इतराना भर सीख पाए हैं, मेयर वाली प्रशासनिक योग्यता और रुतबा हासिल नहीं कर पाए हैं। कुछ लोगों का मानना है कि सरकार चाहती तो बाकोलिया को यह कह कर पहले विश्वास में ले सकती थी कि कार्यवाही करना उनकी मजबूरी है, मगर उसने बाकोलिया को इस योग्य भी नहीं समझा। रहा मीणा का तो उन्हें तो सरकार का हुक्म बजाना था, तनख्वाह तो वही देती है। हालांकि बाकोलिया ने मीणा को पत्र लिख कर उन्हें अंधेरे में रखने का कारण पूछा है, मगर जिस अधिकारी पर सरकार का हाथ हो, उसके लिए ऐसे पत्र के कोई मायने ही नहीं हैं।
ताजा घटनाक्रम से यह भी साबित हो गया है कि बाकोलिया को अभी तक राजनीतिक समझ नहीं आ पाई है। वे चाहते तो यह कह कर अपनी प्रतिष्ठा बचा सकते थे कि उन्हें सरकारी आदेश की जानकारी थी। भले ही उन्होंने कायदे-कानून के मुताबिक जमीन ले कर मकान बनाया था, लेकिन चूंकि सरकार के आदेश हैं, इस कारण उन्होंने कार्यवाही होने दी। रहा सवाल अपने मकान का, उसे कानूनी तरीके से ही वैध करवा लेंगे। मगर न तो उनमें खुद की इतनी सूझबूझ है और न ही उनके सलाहकारों में। उलटे अंधेरे में रख कर कार्यवाही करने पर ऐतराज जता कर उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा ही मिट्टी में मिला ली। इतना ही नहीं इस मामले को मुद्दा बनाने की मजबूरी के चलते यह भी पोल खुलवा ली कि न तो पूरे कांग्रेसी पार्षद उनके साथ हैं और न ही कांग्रेस संगठन। बाकोलिया के समर्थक कांग्रेसियों ने तो मीणा के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर दिया, जबकि मूल धड़ा अलग ही बना रहा। हालत ये हो गई कि उनके चैंबर में ही कांग्रेसी आपस में भिड़ लिए।
इस मामले का रोचक पहलु ये है कि कांग्रेस संगठन का मूल धड़ा इस कारण भी दूर खड़ा रहा क्यों कि उसके प्रमुख सिपहसालार डॉ. जसराज जयपाल व डॉ. सुरेश गर्ग ने ही तो जमीन घोटाले की शिकायत की थी। अब जब कि सरकार ने कार्यवाही कर दी है तो वे उस पर सवाल कैसे खड़ा कर सकते थे, भले ही उसमें कांग्रेसी मेयर का भी मकान हो।
वैसे एक बात तो है बाकोलिया के इस तर्क में जरूर दम है कि इसी प्रकार यदि सरकार और प्रशासन को ही सब कुछ अपने स्तर पर करने का अधिकार है तो लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए निगम मेयर व बोर्ड का कोई मतलब ही नहीं है। इससे तो बेहतर है कि निगम में प्रशासक ही नियुक्त कर दिया जाए। लेकिन दूसरे अर्थ में यह सियापा मात्र ही है, क्योंकि इससे मेयर की बहुत किरकिरी हुई है। काश वे अजमेर और जयपुर में अपनी पकड़ बनाते तो कम से कम ये दिन तो नहीं देखने पड़ते। यहां भी चंद लोगों से घिरे रहने और जयपुर में लिंक नहीं बनाने का नतीजा है अजमेर के प्रथम नागरिक को जीवन का सबसे बुरा दिन देखना पड़ गया।
रहा सवाल वैभव गहलोत के बहाने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को घेरने का तो ताजा कार्यवाही के बाद मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे व वैभव गहलोत के नाम वाले विवादित परचे को विधानसभा के पटल पर रखने वाले अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी अब चुप हैं। जैसे ही माधव नगर की जमीन सरकार ने हथियाई, ये खबरें छन-छन कर सामने आ रही हैं कि जमीन का आवंटन भाजपा राज में ही हुआ था। हालांकि तत्कालीन जिला कलेक्टर करणी सिंह ने ऐतराज किया, मगर सरकार ने उसे नजरअंदाज कर आवंटन करने के आदेश दे दिए। मजे की बात ये है कि उस वक्त नगर परिषद (तब निगम नहीं बनी थी) पर भाजपा का कब्जा था। बताते हैं कि नियमों की अनदेखी कर जमीन आवंटन करने की एवज में कुछ लोग उपकृत भी हुए थे। उन्हीं में एक ने अपना प्लॉट बाकोलिया को बेच दिया था।
राजनीति से अलग हट कर देखें तो सरकार की यह कार्यवाही उन निर्दोष आवंटियों पर तो कहर ही है, जिन्होंने बाकायदा नियमानुसार जारी जमीन के भूखंड लिए। उनके पास फिलहाल सिर पीटने के अलावा कोई चारा नहीं है।

मंगलवार, 21 जून 2011

दूसरे दिन ही पलट गए संभागीय आयुक्त


संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा ने सोमवार को यातायात पुलिस व परिवहन विभाग के अधिकारियों की संभाग स्तरीय बैठक में अवैध वाहनों की धरपकड़, गलत पार्किंग करने वाले वाहन चालकों व ओवर लोडिंग गतिविधियों पर प्रभावी कार्यवाही करने के साथ-साथ जैसे ही यह भी कहा कि दुपहिया वाहन में पीछे बैठने वाले व्यक्ति भी हैलमेट पहनें, तो जाहिर तौर पर सभी को अचरज हुआ। विरोध तो होना ही था।
असल बात तो ये है कि अजमेर शहर में व्यस्ततम यातायात की स्थिति और वाहनों की धीमी गति को लेकर पहले से ही दुपहिया वाहन चालक के लिए हेममेट जरूरी कर दिए जाने से लोग खफा हैं, ऐसे में जब उन्होंने पीछे बैठने वाले के लिए भी हेलेमेट पहनने के आदेश दिए तो उसका तुरंत विरोध हुआ। शर्मा भी समझ गए कि बैठक में उनसे गलती से यह निकल गया था कि पीछे बैठने वाले को भी हेलमेट पहनना होगा, जबकि अभी तक यातायात महकमे ने इस प्रकार का नियम अजमेर पर लागू नहीं किया है, दूसरे ही दिन विरोध के मद्देनजर अपना बयान वापस ले लिया। वे जानते थे कि इसको लेकर हंगामा हो जाएगा। मजे की बात ये रही कि विपक्षी दल भाजपा तो चुप रहा, जबकि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस ने ही विरोध दर्ज करवा दिया। ऐसे में उन्होंने दूसरे ही दिन सूचना व जनसंपर्क कार्यालय के माध्यम से यह खबर जारी करवाई कि अजमेर संभाग के शहरी क्षेत्रों में केवल दुपहिया वाहन चालक के लिए हेलमेट पहनना जरूरी है, पीछे बैैठने वाले व्यक्ति के लिए हेलमेट पहनना जरूरी नहीं है। खबर में यह भी बताया गया है कि संभागीय आयुक्त कार्यालय में मंगलवार को प्राप्त यातायात विभाग की अधिसूचना की प्रति के आधार पर यह स्पष्ट किया जा रहा है कि केवल जयपुर में दुपहिया वाहन चालक के साथ-साथ पीछे बैठने वाले व्यक्ति के लिए भी हेलमेट पहनना जरूरी किया गया है।
सवाल ये उठता है कि जब यातायात विभाग की ओर से पीछे बैठने वाले के लिए हेलमेट पहनना जरूरी नहीं किया गया था तो उन्होंने किस आधार पर नया आदेश जारी कर दिया? इसने जिम्मेदार अधिकारी का बिना किसी आधार पर नया नियम लागू करने की बात कहना सचमुच अफसोसनाक है। यह भी साफ है कि अपनी गलती का अहसास होते ही उन्होंने यातायात विभाग से अधिसूचना की प्रति मंगवाई और उसके आधार पर अपने आदेश में संशोधन कर दिया।
एक सवाल ये भी है कि चलो संभागीय आयुक्त से तो चलो भूल हो गई, लेकिन बैठक में यातायात विभाग के नियम-कायदे जानने वाले क्षेत्रीय परिवहन अधिकारी सत्येन्द्र नामा, अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक बी.एस.मीना, जिला परिवहन अधिकारी अजमेर सुधीर बंसल सहित डीडवाना के बी.एल.मीना, नागौर के ओमप्रकाश मारू, ब्यावर के रमेश पांडे, टोंक के जे.पी.बैरवा, यातायात निरीक्षक अनवर खान व सुरेन्द्र सिंह(मेड़ता) तथा भीलवाड़ा जिले के यातायात पुलिस के अधिकारियों व उपनिदेशक श्रीमती वीना वर्मा भी मौजूद थे, उन्होंने क्यों नहीं उस वक्त उन्हें यह जानकारी दी कि वे गलत बात कह रहे हैं? जाहिर है, उनकी हालत तो ये थी कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन?
खैर, अब आइये उनके एक और बयान पर नजर डालें, जिसमें उन्होंने कहा कि सड़क के किनारों पर हैलमेट बेचने वाले दुकानदारों को भी पाबन्द करना जरूरी है कि वे निर्धारित मानदंडों के अनुसार बनाये गये हैलमेट ही बेचें। सवाल ये उठता है कि संभागीय आयुक्त को अचानक अब जा कर यह बात कैसे सूझी? अजमेर में हेलमेट लागू किए अरसा हो गया है और सड़क किनारे हेलमेट बेचने वाले निर्धारित मानदंडों वाले हेलमेट की बजाय घटिया हेलमेट बेचते रहे हैं और अब तक तो अधिसंख्य दुपहिया वाहन चालक उनसे वे हेलमेट खरीद भी चुके हैं। ऐसे में अब नए आदेश देने के क्या मायने हैं? सवाल ये भी है कि क्या वाकई प्रशासन को उन दुकानदारों के खिलाफ कार्यवाही का अधिकार है? और यह मान भी लें कि प्रशासन को अधिकार है व संभागीय आयुक्त को अब जा कर ख्याल आया है, तो यह भी नाई नाई बाल कितने, यजमान अभी सामने आ जाएंगे। देखते हैं क्या वाकई उन दुकानदारों के खिलाफ कार्यवाही होती है?

गुरुवार, 16 जून 2011

लो अब बीसलपुर के पानी पर टौंक का भी हक जताया जा रहा है


राजस्व मंडल के विखंडन को रुकवाने को लेकर अभी जद्दोजहद चल ही रही है कि अजमेर के एक और हक पर भी हाथ मारने के संकेत मिलने लगे हैं। हाल ही नियुक्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान ने बीसलपुर के पानी पर टौंक का पहला हक जता दिया है। जाहिर सी बात है ऐसा बयान उन्होंने अपने क्षेत्र के लोगों को खुश करने के लिए दिया है, मगर इससे अजमेर की इस जीवनदायिनी परियोजना पर तो संकट का इशारा हो ही गया है। पहले जयपुर ने जबरन पानी लिया और अब टौंक
असल में यह सब इस कारण है कि अजमेर का कोई धणी-धोरी नहीं है। और जो धणी-धोरी कहे जाने योग्य हैं, उनमें वो ताकत नहीं कि अजमेर के हितों की रक्षा कर सकें। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों के ही नेता इतने कमजोर हैं कि अजमेर की अस्मिता पर हो रहे हमलों से रक्षा करने के काबिल नहीं हैं। सब जानते हैं कि बीसलपुर परियोजना बनी ही अजमेर के लिए थी और इसकी पहल पूर्व राजस्व मंत्री स्वर्गीय किशन मोटवानी ने की थी। हालांकि बाद में पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल, ललित भाटी, श्रीकिशन सोनगरा आदि ने भी पूरा ध्यान दिया, मगर दुर्भाग्य से श्रीमती वसुंधरा राजे के कार्यकाल में प्रो. सांवरलाल जाट के जलदाय विभाग का केबीनेट मंत्री बनने के बावजूद वे बीसलपुर परियोजना का पानी जयपुर को दिए जाने के नीतिगत फैसले का वे विरोध नहीं कर पाए। इस मामले दोनों ही दलों के नेता फिसड्डी साबित हुए।
अजमेर का राजनीतिक वजूद कमजोर होने का ही परिणाम है कि समुचित विकास तो दूर यहां स्थापित अनेक दफ्तर ही धीरे-धीरे अन्यत्र स्थानांतरित हो गए। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और राजस्व मंडल के विखंडन को लेकर अनेक बार उठापटक हो चुकी है। इसी प्रकार वसुंधरा राजे ने तो जाते-जाते राजस्थान लोक सेवा आयोग का विखंडन कर अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड गठन कर दिया था, मगर हमारे राजनेता चुप्पी साध गए। यह संयोग ही है कि मौजूदा कांग्रेस सरकार ने उसे भंग कर दिया, मगर उसको श्रेय स्थानीय नेताओं को नहीं दिया जा सकता। इसी प्रकार अंग्रेजों के जमाने में रेलवे की दृष्टि से खास अहमियत रखने वाले अजमेर के हर दृष्टि से पात्र होने के बावजूद रेलवे का जोन मुख्यालय यहां स्थापित नहीं किया गया। यहां की आर्थिक उन्नति के आधार कारखाने पर कई बार हथोड़े चल चुके हैं।
अलबत्ता राजस्व मंडल के विखंडन को रुकवाने के मामले में जरूर एक मंच पर आ कर संघर्ष करते दिखाई दे रहे हैं, मगर उसमें भी सच्चाई ये है कि दोनों पार्टियों के कुछ प्रमुख नेता वकील हैं, इस कारण अपने वकील समुदाय का साथ देने को मजबूर हैं। जहां भाजपा के पूर्व सांसद औंकारसिंह लखावत, पूर्व शहर भाजपा अध्यक्ष पूर्णाशंकर दशोरा, पूर्व महापौर धर्मेन्द्र गहलोत आदि वकील हैं, वहीं शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल और वरिष्ठ कांगे्रस नेता राजेश टंडन सरीखे कई नेता भी वकालत करते हैं। इतना ही नहीं कांग्रेस विचारधारा के पूर्व जिला प्रमुख सत्यकिशोर सक्सैना भी वकील हैं। राजस्व मंडल के मामले में एकजुटता की एक प्रमुख वजह यही है। इन सब ने तब कोई एकजुटता नहीं दिखाई, जब राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का एक दफ्तर जयपुर में खोला जा रहा था। एकजुटता तो दूर कोई बोला तक नहीं। अकेले भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी चिल्लाते रहे, मगर उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती के समान साबित हुई। विपक्ष के नाते न तो उनका साथ अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने दिया और न ही शहर भाजपा संगठन ने। नतीजा ये हुआ कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उस दफ्तर की आधारशिला जयपुर के शिक्षा संकुल में रख दी। वह भी बोर्ड का एक प्रकार का विखंडन ही था, मगर देवनानी के अलावा किसी को नजर नहीं आया। बाद में सब को तब समझ में आया जब शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल ने शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय अजमेर में होने के बावजूद एक परीक्षा परिणाम जयपुर में जारी कर दिया। उसकी कोई जरूरत नहीं थी, फिर भी यह हरकत की गई, अजमेर को चिढ़ाने के लिए। अगर शिक्षा मंत्री को परिणाम जारी करने का ही शौक था तो अजमेर में आकर कर देते, लेकिन ऐसा कैसे कर सकते थे, अजमेर का महत्व जो बढ़ जाता।
बहरहाल, राजस्व मंडल के विखंडन के मामले में विरोध के दौर में ही बीसलपुर पर टौंक का हक जताया जाना यह साबित करता है कि अजमेर को गरीब की जोरू माना जा रहा है। देखते हैं कि इस मामले में विरोध करने में माहिर भाजपाई क्या करते हैं और कांग्रेसी अपने प्रदेश अध्यक्ष के खिलाफ बोल भी पाते हैं या नहीं। देखना ये भी है कि उम्मीद की आखिरी किरण अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट क्या रुख अख्तियार करते हैं। बताते हैं कि राजस्व मंडल के मामले में उन्होंने रुचि लेना शुरू कर दिया है, मगर अभी उसमें कुछ सफलता मिले, इससे पहले ही अजमेर के हक पर एक और हमला करने की साजिश होने लगी है।

बुधवार, 15 जून 2011

सीमा की सुरक्षा के लिए शहीद हो गए सिंधुपति महाराजा दाहरसेन


विशाल भारत की विशाल सीमाओं पर समय-समय पर घुसपैठ व अतिक्रमण होते-होते अब खंडित भारत का नक्शा हमारे सामने है। कितना संकुचित छोटा भारत जा कर बचा है। भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा से प्राचीन समय से आक्रमण होते आए हैं। सिंध प्रांत पर खैबर से आक्रमण होते थे। इस कारण कहावत बन गई कि सिंधुड़ी सिंधुड़ी आप को खैबर से खतरा।
327 वर्ष ईस्वी पूर्व अत्याचारी सिकंदर बादशाह ने अचानक सिंध पर आक्रमण किया। बादशाह सिकंदर बड़ा बलशाली था। उसकी सेना भी अन्य देशों को रौंधती सिंध प्रांत होते हुए सोने की चिडिय़ा भारत को निगलना चाहती थी। लेकिन सीमा पर सिंध और पंजाब की सेनाओं ने इनका कड़ा मुकाबला किया। सिकंदर को घायल कर दिया। अंत में उसने सीमा पर ही प्राण त्याग दिए।
सिकंदर के बाद 163 वर्ष ईस्वी पूर्व मगध, गुजरात, काठियावाड़, पंजाब, मथुरा, सिंध आदि पर मनिन्दर का आक्रमण हुआ। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनिन्दर के बाद सात यवन बादशाहों के आक्रमण हुए। उन सब को सिंध के प्राचीन महाराजाओं ने मौत के घाट उतार दिया। इन यवन राजाओं के अलावा तुषार (शक) जाति के राजाओं ने भी आक्रमण किया। संस्कृत ग्रन्थों में इन्हें तुषार, निशक और देवपुत्र के नाम से संबोधित किया गया है। उस समय हिंदुओं की पाचन क्रिया प्रबल थी। उन्होंने इन सब को परास्त कर आत्मसात कर लिया।
सिंध पर अरबों के आक्रमणसे लगभग डेढ़ सदी पूर्व रायदेवल नामक एक हिंदू राजा सिंध पर राज करता था। उसके बाद राय सहरास पहला, राय सहरास दूसरा सिंहासन पर बैठे। राय घराने के उन राजाओं ने कुल 137 साल तक राज्य किया। चच, राय सहिरास दूसरे के मंत्री थे। राजा के मरने के बाद चच ने उनकी विधवा रानी संहदी से विवाह किया और सन् 622 ईस्वी में सिंहासन पर बैठे। राजा चच ने अपने छोटे भाई चंद को प्रधानमंत्री बनाया और स्वयं अपने राज्य की निगरानी करने और भारी सेना साथ लेकर राज्य की सीमाएं बढ़ाने निकल पड़े। थोड़े समय बाद राजा चच मकरान की ओर बढ़े। इस प्रांत पर भी अपना झंडा फहराया। सिंध पर राजा चच का राज्य सन् 671 ईस्वी तक बड़े न्याय, ठाठ और शांति से चला।
दाहरसेन ने बारह वर्ष की अल्पायु में बागडोर संभाली। उनकी तरुणावस्था होने तक उनके चाचा इन्द्र राज्य की व्यवस्था सुचारु रूप से चलाने में सहयोग दे रहे थे, किन्तु ऐसा अधिक समय तक नहीं हो सका। दाहरसेन के सिंहासनारूढ़ होने के छह वर्ष बाद ही इन्द्र की मृत्यु हो गई। तब मात्र 18 साल की आयु में ही राज्य के संचालन की सम्पूर्ण जिम्मेदारी दाहरसेन पर आ गई।
सिंधुपति महाराजा दाहरसेन ग्रीष्मकाल का समय रावर नामक स्थान पर व्यतीत किया करते थे और सर्दी में ब्राह्मणवाद और बसंत ऋतु में अलोर (अरोद्रा) में बिताते थे। पांचवीं सदी से पहले अरब देशों की ओर से हिन्दुस्तान एवं सीमावर्ती प्रांत सिंध पर आक्रमण शुरू हो गए थे। उन दिनों आक्रमणकारियो को बार-बार मुंह की खानी पड़ती थी और जान से हाथ धोना पड़ता था। अंत में 710 ई. में अरब के खलीफा ने अपने नौजवान भतीजे व नाती इमाम अल्दीन मोहम्मद बिन कासिम को सिंध पर आक्रमण के लिए भारी सेना के भेजा। यह सेना कुछ समुद्री मार्ग से और कुछ मकरान के रास्ते सिंध की ओर बढ़ी। अंत में मोहम्मद बिन कासिम का भारी लश्कर 711 ईस्वी में मुहर्रम माह की दसवीं तारीख को सिंध के देवल बंदरगाह पर पहुंचा। धोखा देकर मोहम्मद बिन कासिम ने देवल बंदरगाह को अपने कब्जे में कर लिया। शिरोमणि सिंधुपति महाराजा दाहरसेन भारत के वीर, सरहद के राखा, हिंदू कुल के रक्षक तीरंदाजी में प्रसिद्ध थे। उनके पास भारी मजबूत शूल था, जिसमें सुदर्शन चक्र की तरह चक्र था, जो शत्रु का सिर काट कर वापस चुंबक की तरफ जैसे लोहा आता है, वैसे लौटता था। उन्होंने गांव-गांव संदेश भेज कर सेना बढ़ाई और मोहम्मद बिन कासिम का मुकाबला किया और उनका पीछे खदेड़ दिया। इस पर मोहम्मद बिन कासिम की अरब सेना के कुछ सैनिक महिलाओं के वस्त्र पहन कर सहायता के लिए चिल्लाने लगे। दाहरसेन से फरेब किया गया था। वे दयावश उनकी सहायतार्थ अपनी सेना को छोड़ कर उस करुणा भरी आवाज की ओर बढ़े। अरब सेना ने उन्हें अकेला देख कर उनके हाथी पर अग्नि बाण छोड़े। मस्त हाथी ने नदी में जा कर सम्राट को पटका। वहां अंधेरे में से आपको सैनिक महल में ले आए, जहां 16 जून 712 ईस्वी में आपने शहादत दी। उसके बाद उनकी पत्नी श्रीमती लाडली देवी, दो कन्याओं व बेटे जयसिंह कुमार ने भी बलिदान दिया। इस प्रकार प्रथम स्वतंत्रता सेनानी ने भारत मां को पूरे परिवार के साथ आहुति दी।
सन् 1997 में अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष ओंकार सिंह लखावत के अथक प्रयासों वे अजमेर के हरिभाऊ उपाध्याय नगर विस्तार में सिंधुपति महाराजा दाहरसेन का स्मारक खड़ा करवाया। इस रमणीक स्थान पर स्वामी विवेकानंद, गुरु नानकदेव, झूलेलाल, संत कंवरराम एवं हिंगलाज माता की मूर्तियां भी अलग-अलग पहाडिय़ों पर स्थापित करवार्इं। दीर्घाओं में सम्राट दाहरसेन के बलिदानी संघर्ष की कहानी चित्रों में दर्शायी गई है। प्रत्येक प्रतिमा को कांच से ढ़का गया है। यहां आकर्षक फव्वारे और प्राकृतिक गुफाएं देखने लायक हैं। यहा हर साल दाहरसेन के बलिदान दिवस व जयंती पर कार्यक्रम होते हैं। इसके अतिरिक्त यह शहर का दर्शनीय स्थल भी है, इस कारण यहां पर्यटकों आना-जाना रहता है।