शनिवार, 23 जुलाई 2011

पायलट के इशारे पर मीणा से मिले रलावता




हाल की शहर कांग्रेस के नवमनोनीत अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने नगर निगम के सीईओ सी. आर. मीणा से गुप्त मुलाकात की। हालांकि उसे गुप्त इसलिए नहीं कहा जा सकता कि वह गुप्त नहीं रही, अलबत्ता ये पता नहीं लग पाया कि दोनों में बातचीत क्या हुई। गुप्त इसलिए भी नहीं रहनी थी, क्योंकि मुलाकात का स्थल ही सीईओ का चैंबर को चुना जाना था। और यह भी जाहिर है कि मुलाकात में मीणा व मेयर कमल बाकोलिया के बीच जमी बर्फ का पिघलाने पर चर्चा हुई होगी। सुविज्ञ सूत्र मानते हैं कि दोनों के बीच नाइत्तफाकी को खत्म करने का इशारा स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने किया था।
असल में जब तक शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद पर जसराज जयपाल काबिज थे, तब तक पायलट कुछ करने की स्थिति में नहीं थे। जयपाल लॉबी उनके खिलाफ चल रही थी और जाहिर तौर पर पायलट खेमे के बाकोलिया को भी वह गांठ नहीं रही थी। इसका परिणाम ये हुआ कि अफसर जमात ने कांग्रेसियों की धड़ेबाजी का लाभ उठाया। अफसर बाकोलिया को कोई तवज्जो ही नहीं दे रहे थे, जब कि वे अजमेर के प्रथम नागरिक हैं। इस सिलसिले में एक वाकया याद आता है। एक बार एक वीआईआईपी अजमेर आए थे। उनकी अगुवानी करते हुए तत्कालीन कलेक्टर सबसे आगे खड़े थे। इस पर तत्कालीन नगर परिषद सभापति वीर कुमार ने कलेक्टर को साफ तौर पर कह दिया कि मिस्टर कलेक्टर, मैं शहर का प्रथम नागरिक हूं, प्रोटोकॉल के तहत मुझे आगे रहना चाहिए, आप पीछे हो जाइये। कलेक्टर साहब को बात समझ में आई। वे वीर कुमार का मिजाज भी जानते थे, लिहाजा तुरंत पीछे हो गए। अब बात करें मौजूदा मेयर बाकोलिया की। उन्होंने शुरू से अपना मिजाज व रुतबा मेयर के लायक रखा ही नहीं। ऊपर से स्थानीय कांग्रेस संगठन, यहां तक कि अनेक कांग्रेसी पार्षद भी उनके साथ नहीं था, इस कारण अफसरशाही को मनमानी करने की खुली छूट मिल गई। अनेक ऐसे वाकये हो चुके हैं, जिनमें प्रशासन ने साफ तौर पर बाकोलिया के पद की अहमियत को दरकिनार किया है। इसका सबसे बड़ा जीता जागता प्रमाण ये है कि जिस माधव नगर में बाकोलिया का मकान है, उसी कॉलोनी की जमीन का आवंटन निरस्त करने के जब राज्य सरकार के आदेश दिया तो कार्यवाही करने से पहले बाकोलिया को विश्वास में नहीं लिया गया। किसी मेयर की इतनी फजीती इससे ज्यादा क्या हो सकती है। रही सही कसर बाकोलिया ने सियापा करके पूरी कर दी। वे झूठ बोलते हुए कह देते कि मुझे जानकारी है, मेरी जानकारी में ही हुआ है, राज्य सरकार के आदेश हैं, क्या किया जा सकता है, तो उनकी इज्जत बच जाती। मगर वे तो खुद की खुद की बेबसी और उपेक्षा का रोना रोने लगे। इससे यह भी जाहिर हो गया कि न तो बाकोलिया में राजनीति की पूरी समझ है और न ही उनके सलाहकार इतने परिपक्व की ऐसी हालत में उनकी इज्जत बचा लेते। उलटे उन्होंने तो इस सिलसिले में कांग्रेस संगठन के एक गुट की बैठक बुला कर संगठन के दो फाड़ को उजागर कर दिया। पूरे शहर को पता लग गया कि बाकोलिया की पीठ कितनी कमजोर है। हालांकि कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्होंने बाकोलिया को सलाह दी कि आप विरोध में इस्तीफे की पेशकश कर दीजिए, सरकार की अक्ल ठिकाने आ जाएगी, मगर वे हिम्मत नहीं जुटा पाए।
बहरहाल, बाकोलिया की लगातार हो रही किरकिरी से उनके आका सचिन पायलट बेहद दु:खी हैं। बाकोलिया उनकी लॉबी के हैं, इस कारण जाहिर तौर पर उनकी भी किरकिरी तो होती ही है। मगर उनकी मजबूरी ये है कि वे इतना वक्त दे नहीं सकते। आखिर किसी मेयर को अंगुली पकड़ कर तो चलाया नहीं जा सकता। कुछ तो खुद उसको भी चुतराई दिखानी होगी। वैसे भी वे दिल्ली की राजनीति में इतने व्यस्त हैं कि अजमेर को इतना समय दे नहीं सकते। हाल ही जब वे अपने चहेते रलावता को शहर अध्यक्ष बनाने में कामयाब हो गए हैं, उन्होंने उन सहित अपने कुछ सिपहसालारों को इशारा किया है कि वे बाकोलिया को संभालें। सुविज्ञ सूत्रों के अनुसार उसी के तहत रलावता ने मीणा से मुलाकात करके मीणा व बाकोलिया के बीच के गिले-शिकवे को दूर करने की कोशिश की है। बहरहाल, देखते हैं कि उनके प्रयास कितने कामयाब होते हैं।

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

खुद ही मरीज है अजमेर संभाग का सबसे बड़ा नेहरू अस्पताल


अजमेर। संभाग का सबसे बड़ा अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय जरूरी उपकरणों के अभाव और स्टाफ की कमी के कारण अत्यावश्यक सेवाएं भी पूरी तरह से नहीं दे पा रहा है। सुपर स्पेशियलिटी सेवाओं का तो नितांत अभाव है। नतीजतन रोगियों को या तो प्राइवेट अस्पतालों की शरण लेनी पड़ती है अथवा उन्हें जयपुर रेफर करना पड़ता है। इस सिलसिले में अस्पताल प्रशासन और जनप्रतिनिधियों ने कई बार राज्य सरकार को सूचित किया है, लेकिन बजट के अभाव में कोई समाधान नहीं हो पा रहा है।
जानकारी के अनुसार चिकित्सालय में सीटी स्कैन व एम.आर.आई. मशीन की स्थापना का कार्य अरसे से न्यायिक विवाद के कारण लम्बित है। अतिरिक्त बजट न होने के कारण अस्पताल प्रशासन भी हाथ पर हाथ धरे बैठा है। चिकित्सालय में डायलिसिस मशीन तो है, किन्तु महज तीन लाख रुपए के आर.ओ. सिस्टम के खराब होने के कारण उसका उपयोग नहीं हो पा रहा है। चिकित्सालय में आपातकालीन सुविधाओं के विस्तार की गम्भीर आवश्यकता है। आपातकालीन इकाई में सोनोग्राफी, वेंटीलेटर, सी.टी. स्कैन, आई.सी.यू. तथा आक्सीजन का सैन्ट्रल सैक्शन व माइनर ऑपरेशन थियेटर की कमी के कारण मरीजों को ऐन वक्त पर जयपुर रेफर करना पड़ता है। इसी प्रकार नेत्र रोग विभाग में फेको मशीन ठीक नहीं है। चिकित्सालय में ट्रोमा सेन्टर की स्थापना की घोषणा राज्य के बजट में की गई है, किन्तु इस दिशा में कोई प्रयास प्रारम्भ नहीं हुए हैं, जबकि जोधपुर एवं कोटा आदि अन्य शहरों में ट्रोमा सेन्टर ने काम करना भी शुरू कर दिया है। पीलिया के मरीजों के लिये ई.आर.सी.पी. की व्यवस्था नहीं है। चिकित्सालय में न्यूरो फिजीशियन का पद नहीं है। इस कारण मरीजों को भारी परेशानी होती है। चिकित्सालय में डाक्टर एवं स्वास्थ्य कर्मियों के अनेक पद रिक्त चल रहे हैं।
संभाग का सबसे बडा चिकित्सालय होने के बावजूद यहां सुपर स्पेशियलिटी सुविधाओं का अभाव है। चिकित्सालय में नेफ्रोलाजी, ओपन हार्ट सर्जरी, न्यूरोलॉजी, एंडोक्राइन, ओंकोलॉजी, लेप्रोस्कॉपी, प्लास्टिक सर्जरी जैसी सुपर स्पेशियलिटी सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं।
चिकित्सालय में सेप्टिक टेंक व ड्रेनेज की सफाई की कोई नियमित व्यवस्था नहीं है। सम्बन्धित जानकारों का कहना है कि चिकित्सालय की स्थापना के समय से ही सेप्टिक टेंक की सफाई का कार्य नहीं हुआ है तथा कितने सेप्टिक टैंक हैं, इसका भी किसी को निश्चित ज्ञान नहीं है। सेप्टिक टैंक भर जाने के कारण भूतल के शौचालय गन्दगी से भरे रहते हैं। चिकित्सालय की सफाई व्यवस्था ठेके पर दी गई है, किन्तु ठेकेदारों द्वारा जिम्मेदारी का निर्वहन नहीं किये जाने से प्राय: वार्ड, शौचालय एवं सम्पूर्ण परिसर में गन्दगी रहती है।
प्राय: मरीजों को अपने मर्ज की रिपोर्टें प्राप्त करने अथवा दिखाने के लिये एक से दूसरे विभाग में भटकना पड़ता है। मरीजों के परिजन के बैठने की उचित व्यवस्था भी नहीं है। इसके अभाव में परिजन संक्रमित स्थानों पर बैठ कर ही भोजन करते हैं। चिकित्सालय में लिफ्ट की संख्या कम है तथा ये प्राय: खराब अथवा बन्द रहती हैं।
इस सिलसिले में अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने राज्य सरकार को पत्र लिखा है। पत्र में लिखा है कि चिकित्सालय के भवन का निर्माण ब्रिटिशकाल में लगभग 100 वर्ष पूर्व हुआ था। भवन में पूर्णत: नये निर्माण को छोड़कर शेष भवन खस्ता-हाल में है। अस्थि रोग विभाग से सम्बंधित फिजीयोथैरेपी विभाग का भवन बिल्कुल जर्जर अवस्था में है एवं जगह भी कम है। गेस्ट्रोलॉजी विभाग में विषेषज्ञ चिकित्सक उपलब्ध होने के उपरान्त भी चिकित्सालय भवन में इसका अलग विभाग/वार्ड खोले जाने हेतु पर्याप्त स्थान एवं संसाधन उपलब्ध नहीं है। बाल रोग विभाग में भर्ती होने वाले मरीजों के लिए वार्ड एवं पलंग बहुत कम है, प्राय: एक पलंग पर दो-दो मरीजों को रखा जाता है।

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

बगैर तैयारी के हुई 800वें उर्स की तैयारी बैठक रही बेनतीजा



आम सहमति बनाने में आएगा प्रशासन को पसीना
महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के आगामी 800वें सालाना उर्स में जायरीन की आवक ज्यादा होने की संभावना के मद्देनजर प्रदेश के गृह मंत्री शांति धारीवाल की मौजूदगी में हुई अहम बैठक बेनतीजा ही रही। असल में जिस आयोजन पर तकरीबन तीन सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाने का अंदाजा हो, ऐसी महत्वपूर्ण बैठक के लिए न तो कोई पुख्ता एजेंडा तैयार किया गया था और न ही संभागियों को उसकी तैयारी करके आने को कहा गया। जिला प्रशासन से भी पहले कोई एक्सरसाइज नहीं करवाई गई। बस मोटे तौर पर इतना भर तय हो पाया कि अब संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा जल्द से जल्द मास्टर प्लान बनाएंगे। दूसरा लाभ अगर माना जाए तो वो यह कि आला अफसरों को ये समझ गया कि दरगाह से जुड़े मसले कितने पेचीदा हैं।
आगामी 800वें उर्स को सरकार कितनी गंभीरता से ले रही है, इसका अनुमान जयपुर में मुख्य सचिव की मौजूदगी में हुई पहली बैठक से ही हो गया था। चूंकि इसके लिए केन्द्र सरकार से पर्याप्त आर्थिक सहयोग मिलना है, इस कारण राज्य सरकार की भी मंशा है कि उसका पूरा उपयोग किया जाए, मगर कमजोर इच्छाशक्ति के चलते महत्वपूर्ण बैठक को ऐसे निपटा दिया गया, जैसे रूटीन की बैठक हो।
दरअसल मास्टर प्लान के लिए जो प्रस्ताव मोटे तौर पर रखे गए हैं, वे कोई नए नहीं हैं। उन पर पहले भी कई बार विचार हो चुका है। हर साल होने वाले उर्स मेले से पूर्व और विशेष रूप से 786वें उर्स मेले के दौरान भी लगभग इन्हीं प्रस्तावों पर चर्चा हो चुकी है, मगर उन पर अमल करने की इच्छा शक्ति न सरकार ने दिखाई और न ही प्रशासन में इतनी हिम्मत की वह बर्र के छत्ते में हाथ डाले। प्रशासन का भी यही रवैया रहा है कि जैसे-तैसे मेला निपटा लिया जाए। मेला शांति से संपन्न होने पर वह शुक्र अदा करने के लिए मजार शरीफ पर चादर पेश कर खुद भी चादर ओढ़ कर सो जाता है। इस रवैये का खामियाजा उठा रहा है बेचारा जायरीन, जो धक्के खा-खा कर जियारत करता है और मन ही मन में भुनभुनाता हुआ लौट जाता है।
असल में उर्स मेले में जायरीन की सुविधा जितना अहम मसला है, उतना ही जरूरी है सुरक्षा व्यवस्था। विशेष रूप से दरगाह परिसर में एक बार हो चुके बम विस्फोट और कई बार भगदड़ के हालात उत्पन्न होने के कारण यह खतरा बना ही रहता है कि कोई हादसा न हो जाए। मेला तो फिर भी बड़ी बात है, मोहर्रम के दौरान होने वाले मिनी उर्स व हर माह महाना छठी के दिन ही भारी भीड़ की वजह से हालात बेकाबू हो जाते हैं। ऐसे में जायरीन की सुविधा और सुरक्षा के व्यापक इंताजमात की सख्त जरूरत रहती है। सरकारी स्तर पर कुछ जरूरी प्रस्ताव रखे जाते रहे हैं, मगर दरगाह से जुड़ी खादिमों की संस्था अंजुमन, दरगाह के अंदरुनी इंताजामात देखने वाली दरगाह कमेटी और पुलिस व प्रशासन में तालमेल नहीं हो पाता। दुर्भाग्य से ये कभी एकराय नहीं हुए, इस कारण आए दिन यहां अनेक परेशानियों से जायरीन को रूबरू होना पड़ता है। ये तो गनीमत है कि जायरीन का ख्वाजा साहब से रूहानी वास्ता है, इस कारण सब प्रकार की तकलीफें भोग कर भी जियारत करते हैं, वरना इंताजामात के हिसाब देखा जाए तो एक बार यहां आने वाला दुबारा आने से तौबा कर जाए। आम मानसिकता भी यही है कि जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए, उन परेशानियों के प्रति गंभीरता नहीं दिखाई जाती।
मेले के दौरान सबसे बड़ी समस्या रहती है भीड़भाड़ की। कई बार यहां भगदड़ भी मच चुकी है। एक बार तो छह जायरीन की मौत तक हो गई। इसका एक मात्र समाधान है वन वे। इसे एक बार अमल में भी लाया गया। और वह काफी कारगर भी रहा। मगर खादिमों के ऐतराज पर प्रशासन ने हाथ खींच लिए। खादिमों का मानना है कि जो भी जायरीन यहां आता है, वह केवल जियारत के लिए नहीं बल्कि यहां की अनेक रस्मों में भी शिरकत करना चाहता है। उसकी इच्छा होती है कि वह दरगाह के भीतर मौजूद मस्जिदों में नमाज अदा करे और कव्वाली का आनंद ले, लेकिन वन वे करने से वह ऐसा नहीं कर पाता और उसकी इच्छा अधूरी ही रह जाती है। बुधवार को आला अधिकारियों ने इस पर चर्चा भी की, मगर फिर विरोध का सामना करना पड़ा।
मेले के दौरान भीड़ की समस्या से निपटने के लिए दरगाह बाजार को चौड़ा करने, निजाम गेट तक एलीवेटेड ब्रिज बनाने और पार्किंग स्थल विकसित करने जैसे मसले तो ऐसे हैं, जिन पर फैसला करना बड़ी टेढ़ी खीर है। इन पर तो आला अफसरों के सामने ही खींचतान उभर कर आ गई।
मेले के दौरान जेब कतरों व असामाजिक तत्त्वों पर काबू पाने और सुरक्ष के लिए पुलिस की बड़े पैमाने पर मौजूदगी पर भी विवाद होते रहते हैं। जैसे ही दरगाह के भीतर पुलिस का बंदोबस्त बढ़ाया जाता है, रोका-रोकी और टोका-टाकी की जाती है तो खादिमों से टकराव हो जाता है। इसी वजह से कई बार पुलिस वाले पिट भी चुके हैं। बाद में समझौता कर मामला रफा-दफा कर लिया जाता है, मगर स्थाई हल आज तक नहीं निकाला गया।
एक ओर जायरीन की भीड़ और दूसरी ओर बेशुमार अतिक्रमण। समस्या तो विकट होनी ही है। जब भी दुकानों और खादिमों की गद्दियों व संदूकों को हटाने की बात आती है, नाजिम से टकराव हो जाता है। केन्द्र सरकार के इस प्रतिनिधि के पास कोई न्यायिक अधिकार नहीं हैं, इस कारण कोई ठोस कार्यवाही नहीं कर पाते। प्रशासन भी अंदर के मामले में चुप हो जाता है। इसके लिए दरगाह एक्ट में संशोधन की जरूरत बताई जाती है, मगर इससे खादिमों के हक मारे जाने की समस्या आ खड़ी हो जाती है। सुरक्षा के लिहाज से खादिमों को परिचय पत्र देने का मसला भी पेचीदा है। खादिमों का तर्क है कि जियारत करवाना पीढ़ी-दर-पीढ़ी का हक है। उसके लिए किसी से इजाजत की जरूरत नहीं है।
कुल मिला कर संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा को जो जिम्मा दिया गया है, वह बेहद चुनौतीपूर्ण है। देखते हैं कि वे सभी पक्षों की आम राय से कोई समाधान निकाल कर पुख्ता मास्टर प्लान बना पाते हैं या नहीं।

बुधवार, 6 जुलाई 2011

आखिर सचिन पायलट ने कर लिया शहर कांग्रेस पर कब्जा



अध्यक्ष पद पर महेन्द्र सिंह रलावता के काबिज होने के साथ ही निवर्तमान शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल व पूर्व उप मंत्री ललित भाटी की खींचतान से एक लंबे अरसे से पीडि़त शहर कांग्रेस दो के कब्जे से मुक्त हो गई है, वहीं सांसद बनने के बाद लगातार अपना कब्जा बनाने को आतुर स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को एक बड़ी सफलता हासिल हो गई है।
यह सर्वविदित ही है कि गुटबाजी के कारण ही कांग्रेस को बहुत पिछले बीस साल में काफी नुकसान उठाना पड़ा है। अजमेर पूर्व विधानसभा सीट, जो कि अब अजमेर दक्षिण है, केवल इसी गुटबाजी के कारण कांग्रेस को तीन बार गंवानी पड़ी। दोनों ही गुटों के प्रमुख डॉ. राजकुमार जयपाल व ललित भाटी इसका शिकार हुए। इसी प्रकार स्थानीय निकाय के चुनाव में भी कांग्रेस को लगातार हार का सामना करना पड़ा। निगम चुनाव में मेयर भले ही कांग्रेस का बन गया, मगर बोर्ड पर तो भाजपा ने ही कब्जा कर लिया। हालांकि लोकसभा के चुनाव में इसी गुटबाजी को दबा कर सचिन पायलट जीतने में कामयाब हो गए थे, मगर संगठन पर फिर भी उनकी विरोधी जयपाल लॉबी ही काबिज थी। यद्यपि पायलट ने ऊपर से दबाव डाल कर अपने कुछ चहेतों को संगठन में प्रवेश करवा दिया, मगर फिर भी अपने मन के मुताबिक जाजम बिछाने का उन्हें बेसब्री से इंतजार था। पिछले दिनों जब संगठन चुनाव की प्रक्रिया शुरू हुई तो एक बारगी शहर अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का अधिकार सर्वसम्मति से पायलट को दे दिया गया, लेकिन जयपाल लॉबी बाद में इससे मुकर गई। इस घटना से पायलट को बड़ा झटका लगा है। वे यह सोच रहे थे कि बड़ी आसानी ने सभी गुट उनकी छतरी के नीचे आ जाएंगे, लेकिन सब कुछ गड़बड़ हो गया।
हुआ दरअसल यूं कि नगर निगम चुनाव में स्थानीय कांग्रेसियों को जीत के आसार कम नजर आ रहे थे। इस कारण उन्होंने उस वक्त शहर अध्यक्ष का नाम तय करने का मसला पायलट पर छोड़ दिया, ताकि परिणाम आने के बाद हार का ठीकरा पायलट पर यह कह कर फोड़ा जा सके कि स्थानीय स्तर पर कांग्रेस में कोई मतभेद नहीं था। जैसे ही चुनाव में कांग्रेस के कमल बाकोलिया मेयर बने तो जीत का पूरा श्रेय पायलट को दिया जाने लगा। खुद बाकोलिया ने भी पायलट का ही अहसान माना। पायलट का इस प्रकार मजबूत होना जयपाल लॉबी को रास नहीं आया। उसने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए शहर अध्यक्ष पद के लिए पायलट को दिए गए अधिकार पर बनाई गई आमराय को उखाड़ फैंका। उन्होंने कांग्रेस पर्यवेक्षकों के सामने साफ कह दिया कि विधिवत चुनाव कराए जाएं। बहरहाल, स्थानीय खींचतान के अतिरिक्त नए प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति के विवाद की वजह से नियुक्ति अटकी रही। जैसे ही डॉ. चंद्रभान प्रदेश अध्यक्ष बने, जिला अध्यक्ष की नियुक्ति का रास्ता भी खुल गया। समझा यही जा रहा था कि अजमेर संगठन पर पकड़ रखने के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने चहेते पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को ही नियुक्त करवा लेंगे, मगर पायलट की हाईकमान से नजदीकी के चलते उन्हें अपने चहेते रलावता को कब्जा दिलवाने में कामयाबी हासिल हो गई। इसमें कुछ भूमिका स्वयं रलावता की कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से करीबी की भी रही।
निर्गुट की शुरुआत की थी राठौड़ ने
हालांकि शहर को जयपाल-भाटी लॉबी से मुक्त करवाने की सफलता पायलट के जरिए रलावता को हासिल हो गई है, मगर इसकी पृष्ठभूमि काफी पहले ही बनने लगी थी। कांग्रेस के अनेक कार्यकर्ता दोनों गुटों से मुक्ति चाहते थे। देहात जिला युवक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे भूपेन्द्र सिंह राठौड़ ने उन्हें एक जाजम पर बैठा कर शहर व इस दिशा में प्रयास शुरू किए। उन्होंने किसान कांग्रेस के प्रदेश उपाध्यक्ष के नाते एक जलसा कर पायलट का जवाहर रंगमंच पर शानदार स्वागत किया। उनका मकसद था कि अपनी ताकत दिखा कर वे शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद हासिल कर लें। मगर बाद में हालात को भांप कर उन्होंने अपने आप को दौड़ से अलग कर लिया। असल में राठौड़ ने तीसरी लॉबी बना कर शहर कांग्रेस पर कब्जा करने की कोशिश तो काफी पहले ही कर ली थी, लेकिन उनकी चतुराई काम न आई। विधिवत चुनाव प्रक्रिया के दौरान हकीकत में रिकार्ड पर तो वे शहर अध्यक्ष लगभग बन ही चुके थे, लेकिन उस वक्त चुनाव प्रक्रिया को दफ्तर दाखिल कर दिए जाने के कारण उनके मनसूबे पूरे नहीं हो पाए थे।
अब न्यास अध्यक्ष की कुर्सी पर नजर
रलावता के शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ ही अब सबकी निगाहें नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद पर टिक गई है। रलावता की प्राथमिकता न्यास सदर बनने की थी, मगर आखिरकार वे संगठन की जिम्मेदारी को संभालने को राजी हो गए। एक प्रमुख दावेदार के मैदान से बाहर होने के साथ ही न्यास सदर बनने के लिए खींचतान तेज हो जाएगी। जाहिर तौर पर शेष दावेदारों में सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री गहलोत के खासमखास पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ही हैं, मगर चूंकि उन्हें बीस सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति का उपाध्यक्ष बनाया जा चुका है, इस कारण कई लोगों को मानना है कि उनको मौका नहीं दिया जाएगा। वैसे भी न्यास में हुए घोटालों में उनके पुत्र वैभव गहलोत का नाम घसीटे जाने से वे बेहद खिन्न हैं। कदाचित इसी कारण अपने चहेते को सदर बना कर नई मुसीबत मोल लेना नहीं चाहेंगे। एक कयास ये भी है कि विधानसभा चुनाव में सिंधी-गैर सिंधीवाद से चोट खाई कांग्रेस सिंधियों को खुश करने के लिए किसी सिंधी को मौका दे सकती है। इस लिहाज से नरेन शहाणी का दावा सबसे मजबूत है, मगर सुना है कि सूचना आयुक्त एम.डी. कोरानी के पुत्र शशांक कोरानी ने भी इस कुर्सी पर नजर टिका रखी है। अन्य प्रबल दावेदारों में जसराज जयपाल अथवा डॉ. राजकुमार जयपाल भी माने जा रहे हैं, ताकि शहर अध्यक्ष पद से बेदखली से नाराज उनकी लॉबी को संतुष्ट किया जा सके। यूं ललित भाटी, राजेश टंडन, प्रकाश गदिया, डॉ. लाल थदानी व मुकेश पोखरणा के नाम भी चर्चा में हैं।
बाकोलिया होंगे मजबूत
रलावता के शहर अध्यक्ष बनने से मेयर कमल बाकोलिया को सर्वाधिक राहत मिली है। सचिन पायलट लॉबी का होने के कारण शहर अध्यक्ष जयपाल की लॉबी उन्हें कोई तवज्जो नहीं दे रही थी। हाल ही जब उनकी जानकारी में लाए बिना ही प्रशासन ने माधव नगर कॉलोनी में जमीन का कब्जा लिया तो वे काफी कसमसाए। उनके कुछ समर्थकों ने संगठन की बैठक कर निगम सीईओ सी. आर. मीणा के खिलाफ प्रस्ताव पारित किया, मगर जयपाल लॉबी ने सरकार के निर्णय के खिलाफ उनका साथ देने से इंकार कर दिया। इससे बाकोलिया काफी आहत हुए। अब जबकि उनके सबसे ज्यादा करीबी रलावता शहर अध्यक्ष बन गए हैं तो वे काफी सुकून महसूस कर रहे हैं। वे समझते हैं कि नए समीकरणों में संगठन के साथ होने पर उनके कब्जे में नहीं आ रहे कांग्रेस पार्षदों पर कुछ तो अंकुश लगेगा। देखते हैं अब तक कमजोर साबित हो रहे बाकोलिया कैसा परफॉर्म कर पाते हैं।

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

राजस्व मंडल के मामले में अंधेरे में रख रही है सरकार


विखंडन का नाम लिए बिना की गई है विखंडन की तैयारी
संभागीय आयुक्तों को राजस्व मंडल का सदस्य बना कर उसका विखंडन करने के प्रस्ताव के विरोध में एक ओर जहां अजमेर आंदोलित है, वहीं राज्य सरकार इसे हल्के में ले रही है और स्थिति स्पष्ट करने की बजाय उलझाए जा रही है। अजमेर वासियों के लिए आशा की किरण कहलाने वाले केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट तक की हालत ये है उन्हें राज्य सरकार साफ-साफ कुछ नहीं बता रही। वे भी राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी की भाषा ही बोल रहे हैं कि मंडल के विखंडन जैसा कोई प्रस्ताव सरकार के पास विचाराधीन नहीं है। अफसोसनाक बात ये है कि एक ओर बार के वकील पिछले 24 दिन से आंदोलनरत हैं और मंडल में कामकाज ठप है, जिससे काश्तकारों व पक्षकारों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, वहीं राजस्व मंत्री हेमाराम चौधरी साफ तौर पर यह कहने की बजाय कि मंडल का विखंडन नहीं किया जाएगा, यह कह कर अपना पिंड छुड़वा रहे हैं कि उनके पास इस प्रकार की कोई भी फाइल नहीं आई है। साफ नजर आ रहा है कि वे जान-समझ सब रहे हैं, मगर जानबूझ कर अनजान बने हुए हैं। उनकी लापरवाही और हठधर्मिता का नमूना देखिए कि एक ओर राजस्व मंडल का कामकाज बंद पड़ा है और वे कह रहे हैं कि यदि इस प्रकार की कोई फाइल है भी तो वे क्यों मंगवाएं, अपने आप आ जाएगी। अर्थात उन्हें अजमेर के वजूद के साथ हो रहे छेड़छाड़ व उसकी वजह से हो रहे आंदोलन से कोई सरोकार नहीं है।
आइये जरा समझें कि माजरा क्या है? वस्तुत: विवाद शुरू ही इस बात से हुआ कि राजस्व महकमे के शासन उप सचिव ने संभागीय आयुक्तों को राजस्व मंडल के सदस्य की शक्तियां प्रदत्त करने संबंधी पत्र मंडल के निबंधक को लिखा है। पत्र की भाषा से ही स्पष्ट है कि सरकार मंडल को संभाग स्तर पर बांटने का निर्णय कर चुकी है, बस उसे विखंडन का नाम देने से बच रही है। शासन उपसचिव के पत्र से ही स्पष्ट है कि गत 1 अप्रैल 2011 को अतिरिक्त मुख्य सचिव विकास की अध्यक्षता में हुई बैठक में ही निर्णय कर यह निर्देश जारी कर दिए थे कि संभागीय आयुक्तों को मंडल सदस्य के अधिकार दे दिए जाएं। तभी तो शासन उपसचिव ने निबंधक को साफ तौर निर्णय की नोट शीट भेज कर आवश्यक कार्यवाही करके सूचना तुरंत राजस्व विभाग को देने के लिए कहा है। ऐसे में राजस्व मंत्री चौधरी का यह बयान बेमानी हो जाता है कि उनके पास तो ऐसी कोई फाइल नहीं आई है। सवाल ये उठता है कि क्या राजस्व मंत्री की जानकारी में लाए बिना ही अतिरिक्त मुख्य सचिव विकास की अध्यक्षता में निर्णय कर लिया गया? उससे भी बड़ा सवाल ये कि अगर अधिकारियों के स्तर पर निर्णय ले भी लिया था तो उसे कार्यान्वित किए जाने के लिए उनके अधीन विभाग के शासन उप सचिव ने राजस्व मंत्री को जानकारी दिए बिना ही मंडल के निबंधक को पत्र कैसे लिख दिया? माजरा साफ है कि या तो वाकई मंत्री महोदय को जानकारी दिए बिना ही पत्र व्यवहार चल रहा है, या फिर वे झूठ बोल रहे हैं। यदि झूठ नहीं बोल रहे हैं तो इसका अर्थ ये है कि विभाग पर मंत्री महोदय का कोई नियंत्रण ही नहीं है, तभी तो पत्र व्यवहार होने के बाद भी वे अभी तक अनभिज्ञ हैं।
मंत्री महोदय की दयनीय हालत देखिए कि वे कह रहे हैं कि उनके पास ऐसी कोई फाइल नहीं आई है, उनके पास आएगी तो उस पर विचार करेंगे। दूसरी ओर स्थिति ये है कि अधिकारी स्तर पर निर्णय किया जा चुका है और उसे क्रियान्वित करने की बात हो रही है। कितने अफसोस की बात है कि मंत्री महोदय अभी इसी भुलावे में हैं कि पहले फाइल उनके पास आएगी, वे सीएस से बात करेंगे, फिर फाइल मुख्यमंत्री के पास जाएगी, कानून में संशोधन के लिए विधानसभा में रखा जाएगा और राज्यपाल की भी मंजूरी लेनी होगी। यदि इस मामले में इतनी लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता तो शासन उप सचिव के पत्र में इतना स्पष्ट कैसे लिखा हुआ होता कि अतिरिक्त मुख्य सचिव विकास के निर्देशों पर आवश्यक कार्यवाही की जाए? यानि कि मंत्री महोदय को ये गलतफहमी है कि इसके लिए कानून पारित करना होगा, जबकि अधिकारी अपने स्तर पर व्यवस्था को अंजाम देने जा रहे हैं।
इसका एक मतलब ये भी है कि अजमेर के वकील, बुद्धिजीवी व प्रबुद्ध नागरिक जिस व्यवस्था को विखंडन मान कर आंदोलित हैं, सरकार की नजर में वह एक सामान्य प्रक्रिया मात्र है। और यही वजह है कि जैसे ही सरकार से ये पूछा जाता है कि क्या राजस्व मंडल का विखंडन किया जा रहा है तो वह साफ कह देती है कि ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं है। यानि कि बाकायदा विखंडन तो किया जा रहा है, मगर उसे विखंडन का नाम देने से बचा जा रहा। इसी शाब्दिक चतुराई के बीच मामला उलझा हुआ है। अजमेर वासी चाहते हैं कि सरकार साफ तौर पर कह दे कि विखंडन नहीं किया जाएगा, जबकि वह यह कह कर कि उसके पास विखंडन का कोई प्रस्ताव ही विचाराधीन नहीं है, अपना पिंड छुड़वाना चाहती है।
यहां उल्लेखनीय है कि अजमेर वासियों को स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट से बड़ी उम्मीदें हैं, मगर वे भी सरकार से यह स्पष्ट जवाब लेने में अब असफल रहे हैं कि अजमेर-मेरवाड़ा राज्य के राजस्थान में विलय के वक्त अजमेर के वजूद के मद्देनजर राव कमीशन की सिफारिश के आधार पर स्थापित राजस्व मंडल का विखंडन नहीं किया जाएगा।
-तेजवानी गिरधर, अजमेर