शनिवार, 20 दिसंबर 2014

मोदी की पार्टी में वंश परंपरा का बोलबाला

भाजपा के नए खेवनहार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले ही वंश परंपरा से परहेज रखने की सीख देते हों, कदाचित इसी के चलते विधानसभा उपचुनाव में केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के बेटे को नसीराबाद से टिकट नहीं दिया गया, मगर हाल ही घोषित अजमेर शहर जिला भाजपा कार्यकारिणी में इस सीख को ताक पर रख दिया गया है। यदि ये कहा जाए कि ताक पर नहीं बल्कि उठा कर फैंक दिया गया है तो शायद ज्यादा उपयुक्त होगा।
शहर जिला भाजपा की इस कार्यकारिणी में आश्चर्यजनक रूप से पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा के पुत्र विकास सोनगरा और पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत के पुत्र तिलक रावत के पुत्र को उपाध्यक्ष बना दिया गया है, जबकि पार्टी को उनका सांगठनिक रूप से कोई सक्रिय योगदान नहीं रहा है। इसको लेकर पार्टी के लिए दिन-रात एक करने वाले कार्यकर्ताओं को मायूसी हो रही है। उनकी मायूसी इसलिए वाजिब लगती है क्योंकि अगर काडर बेस पार्टी में ही इस तरह से पेराटूपर थोपे जाएंगे तो काडर से गुजर कर आने वालों का क्या होगा। ज्ञातव्य है कि जब काडर बेस को ध्यान में रखते हुए ही शहर अध्यक्ष पद पर अरविंद यादव को आरूढ़ किया गया था, तो ये संदेश गया था कि पार्टी में सक्रिय रूप से सक्रिय युवाओं की टीम गठित की जाएगी, मगर ऐसा हुआ नहीं। यूं सीधे तौर पर इस स्थिति के लिए शहर अध्यक्ष यादव ही जिम्मेदार माने जाएंगे, मगर ये सब जानते हैं कि कितने भारी दबाव की वजह से कार्यकारिणी घोषित नहीं कर पा रहे थे। समझा जा सकता है कि जिस जगह से केन्द्रीय जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट, राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण न्यास के अध्यक्ष औंकारसिंह लखावत, राज्य के शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व महिला व बाल अधिकार राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल आते हों, वहां के शहर जिला अध्यक्ष की क्या स्थिति होगी। अगर वे अपने कुछ चहेतों को शामिल कर भी पाएं हैं तो वह राज्य सभा सदस्य भूपेन्द्र यादव के दम पर, जिनकी अनुकम्पा से ही वे शहर अध्यक्ष बने हैं। यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि विकास सोनगरा का नंबर यादव के श्रीकिशन सोनगरा से निकट संबंधों की वजह से आया है। हालांकि सोनगरा का कोई अलग गुट नहीं रहा है, मगर यादव के उनसे संबंधों को सारे भाजपाई जानते हैं। यही वजह है कि इन दिनों सोनगरा को विशेष तवज्जो मिलने लगी है, वरना लखावत ने तो उन्हें पूरी तरह से दरकिनार ही कर दिया था। एक और कयास ये भी लगाया जा रहा है, वो ये कि उम्र के लिहाज से सोनगरा की राजनीतिक पारी लगभग पूरी हो चुकी है, ऐसे में विकास सोनगरा को भविष्य में अजमेर दक्षिण से टिकट का दावेदार बनाने का धरातल बनाया जा रहा है। इसी प्रकार प्रो. रावत की राजनीतिक पारी भी अवसान की ओर है, सो उनके पुत्र तिलक रावत को स्थान दिया गया है, ताकि बाद में उन्हें रावत नेता के तौर पर उभारा जा सके।
जहां तक सुरेन्द्र सिंह शेखावत का यादव के अंडर में महामंत्री बनने का सवाल है, उस पर तनिक आश्चर्य होता है क्योंकि वे नगर परिषद के सभापति रह चुके हैं, मगर जब तक कोई बड़ी राजनीतिक रेवड़ी नहीं मिलती, उन्होंने महामंत्री पर स्वीकार करना उचित समझा होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि वे अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद के दावेदार हैं और आगामी नगर निगम चुनाव में मेयर पर के भी दावेदार हो सकते हैं। उधर धर्मेन्द्र गहलोत ने संभव है मेयर रह चुकने की वजह से यादव की कार्यकारणी में आना उपयुक्त नहीं समझा है। वे भी प्राधिकरण अध्यक्ष व मेयर पद के दावेदार माने जाते हैं। इसमें कोई दोराय नहीं कि कार्यकारिणी पर गुटबाजी का भी प्रभाव रहा है, जिसकी वजह से रश्मि शर्मा व विनोद कंवर से कहीं अधिक योग्य व जिम्मेदार पद पर रह चुकी वनिता जैमन को दरकिनार किया गया है। संपूर्ण कार्यकारिणी को देखने से लगता है कि इस पर देवनानी का प्रभाव कुछ ज्यादा है। देवनानी के प्रति झुकाव का इशारा लोगों को गत दिनों मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की अजमेर यात्रा के दौरान हेलीपेड पर मिल गया था।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 9 दिसंबर 2014

क्या इसे देवेन्द्र शेखावत को फिर से चुनौती माना जाए?

भारतीय जनता युवा मोर्चा के शहर अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह शेखावत को अपने ही संगठन के समानांतर नेताओं से फिर चुनौती मिलती नजर आ रही है। हाल ही जब भाजपा का सदस्यता अभियान शुरू हुआ है तो उनके विरोधी खेमे के नेता फिर से सक्रिय हो गए हैं। उन्होंने शहर के प्रमुख चौराहों पर बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाए हैं, जिनमें युवा मोर्चा की ओर से भाजपा की सदस्यता लेने की अपील की गई है। दिलचस्प बात ये है कि इसमें विरोधी नेता नितेश आत्रेय व अनिल नरवाल के फोटो तो हैं, मगर शहर अध्यक्ष शेखावत का नहीं। साफ है कि उनका फोटो जानबूझ कर नहीं लगाया गया है। हालांकि सदस्यता की अपील कोई भी भाजपा का कार्यकर्ता कर सकता है, उसमें किसी को कोई आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए, मगर यदि अपील संगठन की ओर से की जा रही हो और उसमें अध्यक्ष का ही फोटो न हो तो मुद्दा विचारणीय बन जाता है। भले इस कृत्य को शेखावत को चुनौती न माना जाए, एक सामान्य अपील के रूप में ही देखा जाए, मगर यदि संगठन के कुछ नेताओं की ओर से अलग से अपील की जा रही हो तो कम से कम ये तो परिलक्षित होता ही है कि उन्होंने अपना कद अलग से जाहिर करने की कोशिश की है, जो कि शहर अध्यक्ष शेखावत के चुनौती का ही रूप मानी जाएगी।  प्रसंगवश बता दें कि वर्तमान में सदस्यता अभियान के प्रभारी सुरेन्द्र सिंह शेखावत हैं, जिनका देवेन्द्र सिंह शेखावत पर वरदहस्त माना जाता है।
आपको याद होगा कि जब से शेखावत की नियुक्ति हुई है, आत्रेय व नरवाल का गुट अलग ही चल रहा है। भाजपा हाईकमान को जब लगा कि बगावत भारी पड़ जाएगी तो उसने नरवाल की भाजयुमो प्रदेश कार्यकारिणी सदस्यता को बहाल कर दिया था। इस पर भी उन्होंने अपनी मौजूदगी अलग से दर्ज करवाई थी। उनके नेतृत्व में भाजयुमो शहर जिला के कार्यकर्ताओं ने शहीद स्मारक पर दीपदान किया, जबकि उसमें शहर जिला अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह शेखावत सहित उनके गुट के कार्यकर्ता इस मौके पर मौजूद नहीं थे।
आपको ये भी याद होगा कि गुटबाजी के इस विवाद पर तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी ने कड़ा रुख अख्तियार करते हुए यह साफ कर दिया था कि शहर अध्यक्ष पद पर देवेन्द्र सिंह शेखावत की नियुक्ति का संगठन फैसला ले चुका है, अत: उसे अब बदला नहीं जाएगा।
जरा और पीछे जाएं तो आपको ख्याल होगा कि शहर अध्यक्ष पद के कुल तीन दावेदारों नीतेश आत्रे, गौरव टाक व देवेन्द्र सिंह शेखावत के नाम का पैनल बना कर जयपुर भेजा गया था। इनमें से नीतेश आत्रे विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी खेमे के माने जाते हैं, जबकि विधायक अनिता भदेल ने गौरव टाक पर हाथ रख रखा था। विधायकों की खींचतान से बचने के लिए हाईकमान ने तीसरे नाम शेखावत पर मुहर लगा दी। हालांकि अनिता भदेल को पता लग गया था कि उनकी ओर से प्रस्तावित नाम तय नहीं हो रहा है, मगर उन्हें इस बात से संतुष्टि थी कि देवनानी की ओर से पेश किया गया नाम भी तय नहीं हो रहा है, इस कारण उन्होंने ऐन वक्त पर शेखावत के नाम पर सहमति जता दी। बहरहाल, जैसे ही शेखावत की नियुक्ति हुई तो मानो भूचाल आ गया। नीतेश आत्रे के नेतृत्व में पार्टी का अनुशासन सड़क पर तार-तार कर दिया गया। असंतुष्ट कार्यकर्ता अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह औंकारसिंह लखावत के घर पर प्रदर्शन करने पहुंच गए। प्रसंगवश बता दें कि देवनानी खेमे के भाजयुमो राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नीरज जैन ने भी शेखावत की नियुक्ति पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा था कि नियुक्ति के समय आम कार्यकर्ताओं की भावना का ध्यान नहीं रखा गया और नियुक्ति पर फिर से विचार होना चाहिए। उनके लिए यह बड़ा कष्टप्रद था कि वे अपने गुट के आत्रे को अध्यक्ष नहीं बनवा पाए।
खैर, कुल जमा बात ये समझ में आती है कि नए प्रदेश अध्यक्ष सी. पी. जोशी की ओर से नए शहर अध्यक्ष की नियुक्ति हो सकती है, इस लिहाज से ताजा कृत्य को उन पर दबाव के रूप में देख जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 8 दिसंबर 2014

अजमेर के मित्तल हॉस्पीटल के पास दिखा शेर?

सोशल मीडिया का किस प्रकार दुरुपयोग हो रहा है, इसका ताजा उदाहरण देखिए। 8 फरवरी 2014 की रात वाट्स एप पर एक वीडियो यह कह कर अनेक ग्रुप्स में चलता रहा कि अजमेर के मित्तल हॉस्पीटल के पास यह शेर घूम रहा था। स्वाभाविक सी बात है कि वीडियो को देख कर लोगों के मन में दहशत फैली। जानकारी मिलते ही मीडिया कर्मी भी ड्यूटी पर लग गए और कोशिश ये रही कि उसकी फोटो खींची जा सके। लाख कोशिश के बाद भी ऐसा संभव न हो पाया। वन महकमे को भी कहीं से पता लगा, मगर वे निश्चिंत थे क्योंकि उनकी जानकारी के अनुसार प्रदेश में एक भी शेर खुला हुआ नहीं है। वैसे बताते हैं कि यही वीडियो इससे पहले भी वायरल हुआ है, जिसमें बताया गया था कि यह जोधपुर में धूमता पाया गया है। जो कुछ भी हो, वाट्स एप पर इस प्रकार की हरकतें लोग मजे लेने की खातिर करते हैं, मगर वे यह नहीं सोचते कि इसके परिणाम क्या होंगे। अब देखना ये है कि प्रशासन इस प्रकार की हरकत पर कोई कार्यवाही करता है या यूं ही मजाक समझ कर छोड़ देता है।
वीडियो देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए
http://youtu.be/J093e04ttEw 

रलावता के प्रदेश सचिव बनते ही शहर कांग्रेस अध्यक्ष पद की भागदौड़ तेज

अजमेर शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता के प्रदेश कार्यकारिणी के गठन के साथ ही प्रदेश सचिन बनने के तुरंत बाद खाली होने वाले पद को लेकर स्थानीय कांग्रेसी नेताओं की भागदौड़ तेज हो गई है। हालांकि अभी यह तय नहीं है कि नई नियुक्ति कब हो पाएगी, मगर चूंकि यह पद रिक्त होना अब सुनिश्चित हो गया है, इस कारण दावेदार नेताओं के मुंह में लार आना स्वाभाविक है।
ज्ञातव्य है कि विधानसभा व लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद यह तय सा माना जा रहा था कि रलावता की इस पद से मुक्ति होगी ही, मगर चूंकि रद्दोबदल की थोड़ी सी भी सुगबुगाह नहीं थी, इस कारण सारे दावेदार हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। रलावता भी यही कहते सुने जाते थे कि आगामी नगर निगम चुनाव भी उनकी ही देखरेख में होंगे।
जहां तक दावेदारी का सवाल है, हालांकि अजमेर दक्षिण विधानसभा सीट से चुनाव लड़ चुके प्रमुख समाजसेवी हेमंत भाटी ने अपनी ओर से कोई दावेदारी नहीं की है, मगर जिस तरह से पुराने स्थापित नेताओं को नजरअंदाज कर उन्हें टिकट दिया गया और लोकसभा चुनाव में भाटी ने जी-जान से सेवा की, आम धारणा यही है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की पहली पसंद वे ही हैं। इसके पीछे तर्क उनकी साधन संपन्नता व खुद की सशक्त टीम होने का दिया जाता है। जानकारी ये है कि उन्हें शहर अध्यक्ष पद संभालने का फौरी प्रस्ताव भी मिल चुका है, मगर फिलवक्त उन्होंने अपना मानस स्पष्ट नहीं किया है। कदाचित सचिन के जोर देने पर वे राजी भी हो जाएं। दूसरे प्रमुख दावेदार मौजूदा शहर उपाध्यक्ष कैलाश झालीवाल माने जाते हैं। उन्हें सचिन की कृपा से ही यह पद हासिल हुआ था। वे कांग्रेस से लंबे समय से जुड़े हुए हैं और खांटी नेता माने जाते हैं। पायलट लॉबी के ही विजय जैन की भी खासी चर्चा है। इसी प्रकार भूतपूर्व शहर अध्यक्ष स्वर्गीय माणक चंद सोगानी के जमाने से महत्वपूर्ण पदों पर रहे प्रताप यादव की भी सशक्त दावेदारी मानी जा रही है। मगर सचिन के लिए समस्या ऐसे नेता को अध्यक्ष बनाने की है, जिसके प्रति सर्वस्वीकार्यता हो, सभी को साथ लेकर चल सके और साधन संपन्न हो। और सबसे बड़ी बात ये कि आगामी नगर निगम चुनाव में पार्टी की प्रतिष्ठा को फिर से कायम रख पाने में सक्षम हो। यूं तो कांग्रेस के सारे धड़ों को एकजुट करना सचिन के आसान नहीं होगा, मगर समझा जाता है कि वे भाटी व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के धड़ों को एक जाजम पर बैठा कर ऐसा संगठन बनाने की जुगत में हैं, जिसका कोई विरोध न कर सके।
-तेजवानी गिरधर

वसुंधरा से प्रो. जाट की दूरी के क्या मायने निकाले जाएं?

मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के अजमेर दौरे के दौरान हाल तक राज्य के जलदाय मंत्री रहे व अब केन्द्र के मौजूदा जलदाय राज्य मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट की गैर मौजूदगी के भाजपा नेता भले ही कोई जायज कारण गिनाएं, मगर राजनीतिक हलकों में यह जुगाली के सुपुर्द हो गया है कि आखिर ऐसी क्या वजह रही कि प्रो. जाट ने वसुंधरा ने उनके केन्द्र में मंत्री बनने के बाद इस पहले दौरे में क्यों कन्नी काटी? चाहे कैसी भी मजबूरी रही हो, मगर जब केन्द्र ने अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने की घोषणा की है, और उसके बाद मुख्यमंत्री पहली बार अजमेर आई हैं व जाहिर तौर पर इस मौके पर अजमेर के सभी प्रमुख नेता व प्रशासन का पूरा लवाजमा मौजूद रहेगा तो क्या उनका यहां उपस्थित रहना जरूरी नहीं था, ताकि उस पर कोई ठोस चर्चा हो जाती? सवाल उठ रहे हैं कि क्या केन्द्र में मंत्री बनने के लिए ऐन वक्त पर पाला बदलने की कानाफूसियों व उनकी इस दूरी के बीच कोई अंतर्संबंध है? गर भाजपा वसुंधरा व प्रो. जाट के बीच हाल ही बनी दूरी को कोरी कपोल कल्पित चर्चा मानती है तो क्या यह जरूरी नहीं था कि उस कथित भ्रांति को ही दूर करने के लिए ही प्रो. जाट को यहां आना चाहिए था? क्या भाजपा के थिंक टैंकरों को इस बात की कत्तई परवाह नहीं कि प्रो. जाट की इस अनुपस्थिति से आम जन में गलत संदेश जाएगा? क्या उन्हें इसकी चिंता भी नहीं कि इससे भाजपा कार्यकर्ताओं में भी मतभेदों का कौतूहल जागेगा? कौतुहल ही क्यों गुटबाजी को भी बढ़ावा मिल सकता है।
यहां आपको बता दें कि पिछले दिनों जब काफी जद्दोजहद के बाद प्रो. जाट को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में स्थान मिला था तो राजनीतिक हलकों यह चर्चा आम थी कि उन्हें इसके लिए ऐन वक्त पर पाला ही बदलना पड़ा। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रो. जाट वसुंधरा के खासमखास माने जाते रहे हैं और उन्हीं कहने पर उन्होंने राज्य में केबीनेट मंत्री पद का मोह त्याग कर लोकसभा चुनाव लड़ा। स्वाभाविक रूप से इस वादे के बाद कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनने पर उन्हें जरूर मंत्री बनवाएंगी। मगर सूत्र लगातार ये ही बताते रहे कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी व वसुंधरा के बीच जो ट्यूनिंग बिगड़ी है, उसके चलते प्रो. जाट का मंत्री बनना बेहद कठिन हो गया है। इसी दौरान प्रो. जाट ने जिस प्रकार मोदी के खासमखास कथित हनुमान पूर्व प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ओम प्रकाश माथुर से मेलजोल बढ़ा दिया और प्रो. जाट के मंत्री बनने के पीछे माथुर की पैरवी को ही अहम माना जा रहा है।
ज्ञातव्य है कि प्रो. जाट की अनुपस्थिति कोई यूं ही चर्चा का विषय नहीं बनी है। उन्हें कोई वसुंधरा की लटकन के रूप में थोड़े ही घूमना था, उन्हें बाकायदा जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में आईसीयू यूनिट के लोकार्पण और  तोपदड़ा स्थित आदर्श आंगनबाड़ी केन्द्र के शुभारंभ समारोहों में विधिवत निमंत्रण मिला हुआ था। यहां तक कि दोनों कार्यक्रमों के बोर्डों पर भी उनका नाम लिखा था। जानकारी के अनुसार प्रशासन के स्तर पर भी उनका निमंत्रण दिया गया था। वसुंधरा के दौरे से एक दिन पहले जब प्रो. जाट अजमेर आए तो यही माना गया कि वे उनके साथ रहने के लिए ही अजमेर आए हैं, मगर वे दौरे के दिन केकड़ी होते हुए फागी की ओर चले गए। संभव है उनकी गैर मौजूदगी की टीका करने को बाल की खाल निकालना माना जाए, मगर राजनीतिक हलकों में हो रही फुसफुसाहट को भला कौन रोक पाएगा?
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 30 नवंबर 2014

अजमेर के विकास का इससे स्वर्णिम मौका फिर शायद न मिले

अजमेर के राजनीतिक इतिहास में यह पहला मौका है और शायद भविष्य में यह स्वर्णिम अवसर फिर नहीं मिलेगा कि यहां की चार शख्सियतें एक साथ केन्द्र व राज्य सरकारों में मंत्री हों। पहले मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने वरिष्ठ भाजपा नेता श्री ओंकार सिंह लखावत को राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण प्राधिकरण का अध्यक्ष बना का राज्य मंत्री का दर्जा दिया। इसके बाद हाल ही मंत्रीमंडल विस्तार में अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी व अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल को  राज्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद अजमेर के सौभाग्य में चार चांद लगे, जब अजमेर के भाजपा सांसद प्रो. सांवरलाल जाट को केन्द्र सरकार में राज्यमंत्री बनाया गया। समझा जा सकता है कि केन्द्र व राज्य सरकारों ने अजमेर को कितनी तवज्जो दी है। अजमेर के राजनीतिक इतिहास में इससे बड़ा स्वर्णिम मौका शायद ही कभी आए।
बमुश्किल जागे अजमेर के इस सौभाग्य के साथ ही यहां के वासियों में अपेक्षाएं जाग गई हैं। अब हर नागरिक ये सोचता है कि यहां का ऐसा विकास होगा, जो कभी नहीं हो पाया। अब अजमेर भी विकास के मामले में अपने समकक्ष शहरों के बराबर खड़ा हो सकेगा। कदाचित इन मंत्रियों को भी इस बात का भान है, क्योंकि वे लगातार जनता के संपर्क में हैं। ऐसे में सभी पर यह महती जिम्मेदारी आ गई है कि वे जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरें। अजमेर का सौभाग्य इस वजह से भी उदित हुआ है कि केन्द्र सरकार ने अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने का निर्णय किया है, जिसके लिए अमेरिका मदद करेगा। यानि कि दरगाह ख्वाजा साहब व तीर्थराज पुष्कर के कारण पूरी दुनिया में मशहूर ऐतिहासिक अजमेर देश में चंद विशेष शहरों में शुमार हो जाएगा। मगर यह तभी होगा, जबकि अजमेर के ये मंत्री  इस योजना के अमल पर पूरी पकड़ रखेंगे। उन्हें इस काम को प्रशासनिक तंत्र के भरोसे नहीं छोडऩा चाहिए। चूंकि अजमेर वासियों का अब तक का अनुभव ठीक नहीं रहा है, इस कारण इस बात को रेखांकित करने की जरूरत पड़ रही है। सबको पता है कि अजमेर में सीवरेज योजना का क्या हश्र हुआ है? सबको जानकारी है कि स्लम फ्री सिटी की योजना पर किस गति से काम हो रहा है? सबको ज्ञात है कि हेरिटेज सिटी बनाने के आदेश पर किस प्रकार अमल हो रहा है? दरगाह विकास के लिए बनी तीन सौ करोड़ की योजना कागजों तक ही सीमित रह जाने को भी अजमेर वासी नहीं भूले हैं। शहर में ऐलीवेटेड रोड बनाने का प्रस्ताव भी अभी तक ठंडे बस्ते में ही पड़ा है। मगर, अब उम्मीद है कि ये सारी योजनाएं तो ठीक से अमल में लाई ही जाएंगी ही और भी योजनाओं के भी प्रस्ताव तैयार होंगे।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 27 नवंबर 2014

एक युग का अंत हो गया राव हमीर सिंह मेजा के साथ

प्रतिभा के दम पर सरपंच से रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन तक का सफर तय किया
राजपूत समाज के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की
राजपूत समाज ही नहीं, अपितु अन्यत्र भी एक जाना-पहचाना नाम है राव श्री हमीर सिंह मेजा का। उन्होंने न केवल सरपंच पद पर लगातार 25 वर्ष तक रह कर न केवल राजनीति के जरिए समाज सेवा के जज्बे को जीया, अपितु रेलवे भर्ती बोर्ड जैसे महत्वपूर्ण विभाग के अध्यक्ष पर छह साल तक रह कर अपनी प्रशासनिक क्षमता का भी परिचय कराया। वे क्षत्रिय विकास एवं शोध संस्थान के मुख्य संरक्षक एवं पुष्कर स्थित जयमल ट्रस्ट के संरक्षक जैसे महत्वपूर्ण पदों पर रहे और विशेष रूप से राजपूत समाज में उनका बहुत ही श्रद्धा के साथ लिया जाता रहा है। वस्तुत: वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साथ ही सुमधुर व्यवहार की वजह से आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। जीवन के आखिरी क्षण तक उनके मन में समाजसेवा के जरिए अपने जीवन को सफल बनाने का जूनून बरकरार रहा।
आइये, जरा उनके जीवन में झांक कर देखें कि कैसा था वह विलक्षण व्यक्तित्व:-
मेजा ठिकाने की प्रतिष्ठित पृष्ठभूमि
24 मई, 1935 को जन्मे जिला भीलवाड़ा के मेजा ठिकाने के राव श्री हमीर सिंह से नाका मदार, अजमेर स्थित उनके आवास पर ली गई भेंटवार्ता में वंश परम्परा के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि मेवाड़ राजघराने में राव चूण्डा जी से चूण्डावतों की शाखा के चार प्रमुख ठिकानों आमेट, देवगढ़, सलूम्बर तथा बेगूं रहे। उनके पूर्वज राव अमरसिंह बेमाली ठिकाने से सम्बद्ध थे। सन् 1860 में ठिकाने आमेट के श्री राव पृथ्वीसिंह के पुत्रविहीन मृत्यु हो जाने पर उनकी धर्मपत्नी द्वारा बेमाली से अमरसिंह को गोद लिया गया था और लगभग 12 वर्ष तक वे आमेट ठिकाने के प्रमुख रहे। किन्तु जिलोला ठिकाने वालों ने राव पृथ्वीसिंह के निकटतम रिश्तेदार होने के कारण इस गोद प्रक्रिया के विरुद्ध वाद दायर किया।
अजमेर स्थित ब्रिटिश सरकार के ए.जी.जी. ने अपने फैसले में जिलोला वालों को सही उत्तराधिकारी स्वीकार कर यह भी लिखा कि चूंकि राव अमरसिंह 12 वर्ष तक शासक रहे हैं, अत: उन्हें नई जागीर दी जानी चाहिए। तत्कालीन महाराणा शम्भूसिंह ने खालसा (खालसा अर्थात् वे ग्राम जो सीधे महाराणा के शासन के अंतर्गत थे) में से मेजा के आसपास 25 गांवों की आमेट के बराबर नई जागीर बनाकर सन् 1871 में राव अमरसिंह को प्रदान की और इस प्रकार मेजा ठिकाने का आरम्भ हुआ।
राव अमरसिंह के बाद उनके पुत्र राव राजसिंह तथा इनके बाद राव जयसिंह एवं इनके बाद इनके पुत्र राव हमीर सिंह मेजा के उत्तराधिकारी बने। मेवाड़ राजघराने से मेजा ठिकाने के प्रभाव और सम्बन्धों के बारे में पूछने पर राव हमीरसिंह ने बताया कि हमारे पूर्वज राव राजसिंह महाराणा द्वारा स्थापित महेन्द्राज सभा, जिसे वर्तमान के उच्च न्यायालय के समकक्ष अधिकार थे, उसके सदस्य रहे थे। महाराणा भगवतसिंह के कार्यकाल में मेवाड़ राजघराने की मेजा ठिकाने पर बहुत कृपा रही। महाराणा साहब उनके जीवनकाल में दो बार मेजा पधारे।
ठिकाने की सेवा का जुनून
जन्म तथा शिक्षा के सम्बन्ध में 24 मई, 1935 को जन्मे मेजा ठिकाना तहसील माण्डल जिला भीलवाड़ा के राव हमीरसिंह ने बताया कि उनकी प्रारम्भिक शिक्षा से आरम्भ होकर इन्टरमीडियेट तक अजमेर स्थित प्रतिष्ठित मेयो कॉलेज से हुइ। मेयो कॉलेज में अपने शैक्षणिक जीवन में शिक्षा के साथ-साथ अनुशासन, डिबेट और सांस्कृतिक गतिविधियों में अग्रणी रहे। हाउस कैप्टिन व मॉनीटर भी रहे।
मेयो कॉलेज की शिक्षा के पश्चात् आपने महाराणा भोपाल कॉलेज से स्नातक तथा एलएल.बी. की परीक्षा में सफलता प्राप्त की। एलएल.बी. में राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से आपने प्रथम स्थान पर मैडल भी प्राप्त किया। थोड़े समय आपने जोधपुर हाईकोर्ट में वकालत भी की, किन्तु अपने पिता राव जयसिंह के एकमात्र पुत्र होने के कारण 1968 में आपने मेजा ठिकाने का कार्यभार संभाला।
राव हमीरसिंह का विवाह सन् 1954 में राजा साहब देवीसिंह जी की सुपुत्री हंसा कुमारी से हुआ। राजा देवीसिंह जी भाद्राजून ठिकाने के जागीरदार और सन् 1965 से 1977 तक जिला जालोर के जिला प्रमुख रहे। राव हमीरसिंह के साले राजा गोपालसिंह आहोर विधानसभा क्षेत्र से दो बार विधायक और 1977-1978 तक राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष रहे।
उल्लेखनीय है कि वे 1962 से 1987 तक लगातार 25 वर्ष तक ग्राम पंचायत मेजा के सर्वसम्मति से सरपंच चुने गए। जैसी उनकी शिक्षा और व्यक्तित्व था, उसमें सरपंच जैसे पद पर लम्बी अवधि तक बहुत लगन, निष्ठा और ईमानदारी से कार्य करना अपने आप में बेहद चौंकाने वाला है। इसका जवाब उन्होंने अजयमेरु में ही प्रकाशित एक साक्षात्कार में उन्होंने दिया। उनका कहना था कि ग्रामवासियों के ठिकाने के प्रति अगाध प्रेम, समर्पण और विश्वास के कारण तथा अपनी पैतृक सम्पत्ति की रक्षा और गांव की उन्नति की सोच के कारण ही उन्होंने सरपंच बनना स्वीकार किया और अपने कार्यकाल में सभी ग्रामवासियों को कृषिभूमि के पट्टे दिए तथा पक्के मकान बनाने की प्रेरणा दी। उन्होंने बड़े फख्र के साथ बताया था कि उनके गांव में कोई भी व्यक्ति भूमिहीन व मकानविहीन नहीं है।
यूं पहुंचे रेलवे में चेयरमैन पद पर
25 वर्ष तक ग्रामीण परिवेश में रहने के बाद 1987 तक सरपंच जैसे पद पर रहते हुए ही 1987 में रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन के पद पर कैसे पहुंचे, इस पर उनका सीधा सा उत्तर था कि किसी विवाह समारोह में तत्कालीन रेलमंत्री श्री माधवराव सिंधिया से परिचय हुआ। श्री सिंधिया ने विस्तार से जीवन परिचय जानने के बाद उन्हें रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन पद पर कार्य करने की प्रेरणा दी।
अजमेर रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमैन का एक ही पद रिक्त था और उसके पैनल में कुल 15 व्यक्तियों का नाम था। इनमें पश्चिमी रेलवे के रिटायर्ड जनरल मैनेजर का नाम भी था। राव हमीरसिंह ने बताया कि उन्होंने संघ लोक सेवा आयोग के लिए तैयारी की और चयनकर्ताओं के सभी प्रश्नों के उत्तर दिए। प्रशासनिक अनुभव के बारे में पूछने पर दृढ़तापूर्वक उत्तर दिया कि प्रशासन की क्षमता तो हमारे खून में व वंश परम्परा में विद्यमान है, ऐसे में चयन हो गया। उन्होंने बताया कि उन्होंने 1987 से 1993 लगभग छह वर्ष तक पूर्ण निष्ठा से अजमेर रेलवे भर्ती बोर्ड के चेयरमेन के गरिमामय पद पर सफलतापूर्वक कार्य किया। उन्होंने बताया कि इस अवधि में अजमेर, रतलाम, कोटा व जयपुर के अतिरिक्त जोधपुर तथा बीकानेर मण्डल के रिक्त पदों पर लगभग 10,000 प्रत्याशियों को चयनित किया गया।

प्रतिभाओं को उभारने का जज्बा
राजपूत समाज की सर्वांगीण उन्नति में उनके योगदान को वर्षों तक याद किया जाता रहेगा। 1999 में प्रदेश के राजपूत युवक एवं युवतियों को प्रोत्साहन देने के लिए क्षत्रिय प्रतिभा विकास एवं शोध संस्थान की अजमेर में स्थापना हुई, जिसमें उन्हें सर्वसम्मति से मुख्य संरक्षक चुना गया। संस्थान द्वारा अनेक प्रतिभावान युवक-युवतियों को प्रोत्साहित करने के लिए सम्मानस्वरूप मैडल और प्रशंसा प्रमाण-पत्र दिए जा चुके हैं। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले समारोह में समाज की अति विशिष्ट हस्तियों की अध्यक्षता रही है, जिनमें श्रीमती प्रतिभा पाटिल, श्री विलासराव देशमुख, श्री दिग्विजय सिंह, श्री अरविन्दसिंह मेवाड़, श्री गजसिंह जोधपुर तथा महारावल श्री रघुवीरसिंह सिरोही के नाम उल्लेखनीय हैं।
उनका कहना था कि समाज के प्रतिभावान युवक-युवतियों को प्रशासनिक सेवाओं के लिए प्रेरित करने और इसके लिए अपेक्षित प्रशिक्षण देने के मकसद से 'राजपूत प्रशासनिक प्रशिक्षण एकेडमीÓ की स्थापना का विचार है और इस बारे में समाज के प्रमुख व प्रभावशाली व्यक्तियों से सलाह मश्विरा कर इसे क्रियान्वित करवाने की उनकी हार्दिक इच्छा है।
राव साहब समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष रुचि लेकर कार्य कर रहे रहे और पुष्कर स्थित जयमल ट्रस्ट व राजपूत बोर्डिंग तथा राजपूत समाज वैवाहिक समिति, पुष्कर के भी संरक्षक थे।
जीवन के आखिरी क्षण तक उन्होंने समाज सेवा की। छह मई 2011 को अपने विवाह की 57वीं सालगिरह के अवसर पर मेजा में स्थायी नि:शुल्क चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था की।
उनके एकमात्र पुत्र जितेन्द्र सिंह आर.ए.एस. वर्तमान में आरटीओ के पद पर उदयपुर में कार्यरत हैं, जबकि उनके एकमात्र पौत्र विक्रमादित्य जोधपुर में होटल व्यवसाय का संचालन कर रहे हैं। पुत्र और पौत्र दोनों ही मेयो कॉलेज से शिक्षित हैं।

पायलट की एवज में मिले जाट से कितनी होंगी उम्मीदें पूरी?

जैसे फिल्मी दुनिया और गैंबलिंग में स्टार्स की अहम भूमिका होती है, कुछ ऐसा ही राजनीति में भी होता है। कौन कब सैंचुरी बना ले और कौन कब जीरो पर आउट हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। कुछ ऐसा ही अजमेर की राजनीति में हुआ। जिन प्रो. सांवरलाल जाट को पिछले से पिछले लोकसभा चुनाव में अजमेर से लडऩे के योग्य नहीं मान कर किरण माहेश्वरी को उतारा गया, उन्हीं को पिछले चुनाव में राज्य सरकार के केबीनेट मंत्री पद का मोह त्याग कर जबरन उतारा गया और उनका सितारा इतना बुलंद था कि वे न केवल शानदार वोटों से जीते, अपितु जिन सचिन पायलट को हराया, उन्हीं के कद के बराबर राज्य मंत्री पद भी हासिल कर लिया। बेशक कुछ लोगों को सचिन जैसे दमदार मंत्री को खोने का मलाल हो सकता है, मगर अजमेर के लिए यह संतोषजनक बात है कि उसे मंत्री के रूप में सचिन की जगह जाट मिल गए हैं। अब सवाल ये उठता है कि क्या उनकी परफोरमेंस भी वैसी ही रहेगी, जैसी कि सचिन की रही थी?
यह एक सच्चाई है कि भले ही सचिन पर ये आरोप लगाया जाता रहा कि वे सिर्फ हवाई दौरे करते थे व स्थानीय नेताओं को खास तवज्जो नहीं देते थे, मगर साथ ही आम धारणा ये भी है कि उन्होंने अजमेर के लिए पहली बार कुछ किया जबकि पांच बार भाजपा के सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत कुछ नहीं कर पाए। एक मात्र यही वजह थी कि मोदी लहर के बाद भी कई लोग मानते थे कि उन्होंने जो काम किए हैं, उसकी एवज में जनता उनको नवाज सकती है। कदाचित इसी बात का गुमान खुद सचिन को भी था। वे खुद सभाओं में कहते नजर आए कि उन्हें काम के आधार पर वोट दिया जाए, अगर ऐसा नहीं हुआ तो राजनेताओं का यह विश्वास टूट जाएगा कि जनता की सेवा करने पर वह मेवा देती है। खैर, सचिन का विश्वास तो मोदी की आंधी में धराशायी हो गया, मगर आज भी लोग सचिन को याद तो करते ही हैं। अब सवाल ये उठता है कि क्या उनकी एवज में मिले प्रो. जाट अजमेर के लिए कुछ कर पाएंगे?
जहां तक हालात का सवाल है, दोनों में कुछ समानता है। सचिन की तरह ही जाट के कार्यकाल में राजस्थान में खुद की पार्टी की सरकार है। यानि कि यदि वे कोई ऐसी योजना लाते हैं, जिसमें कि राज्य की भी भागीदारी जरूरी है तो उन्हें दिक्कत पेश नहीं आएगी। जिस प्रकार सचिन कांग्रेस हाईकमान के खासमखास हैं, उसी तरह जाट का भी जितनी जद्दोजहद के बाद मनोनयन हुआ है, उससे लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सोच समझ कर ही उन्हें मंत्री पद दिया है। दो मामलों में जाट सचिन से आगे हैं। एक ये कि सचिन कांग्रेस हाईकमान की राय से चलने वाले तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की टीम में थे, जब कि जाट को एक ऐसे प्रधानमंत्री के साथ काम करने का मौका मिला है, जिन्होंने जनता की उम्मीदें बहुद ज्यादा जगा रखी हैं। कम से कम फिलहाल तो यही माना जा रहा है कि वे कुछ नया व युगांतरकारी कर दिखाने वाले हैं। दूसरा ये कि सचिन की तो फिर भी तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से कोई खास ट्यूनिंग नहीं थी, मगर जाट की तो मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से जबरदस्त घनिष्ठता रही है। वे वसुंधरा के संकट मोचक के रूप में जाने जाते रहे हैं। इसके अतिरिक्त एक केबीनेट मंत्री के रूप में भी उन्हें यहां काम करने का अनुभव हासिल है, इस कारण यहां के प्रशासनिक तंत्र के मिजाज से भी अच्छी तरह से वाकिफ हैं। राज्य सरकार के कामकाज की बारीकी से भी वे अच्छी तरह से परिचित हैं। इसके अतिरिक्त उनका साथ देने को दो राज्यमंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व अनिता भदेल सहित जिले के सात विधायक तैयार हैं। जाट अजमेर में ही जन्मे हैं, इस कारण सचिन की तुलना में न केवल उनके स्थानीय संपर्क बेहतर हैं, अपितु यहां की जरूरतों को भी अच्छी तरह से जानते हैं। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि वे सचिन से कहीं बेहतर काम करके दिखा सकते हैं। बस जरूरत है तो इस बात की उनमें कुछ कर दिखाने का शिद्दत कितनी है। सब जानते हैं कि जब पहली बार सचिन अजमेर आए थे तो स्थानीय कांग्रेसियों को बड़ी तकलीफ हुई थी। बड़ी मुश्किल से जा कर वे अपनी जाजम बिछा पाए थे, मगर अजमेर को ही अपनी कर्मभूमि बनाने की खातिर उन्होंने जम कर काम किया। दूसरी ओर जाट स्थानीय होने के कारण नए सिरे से जाजम बिछाने की जरूरत नहीं समझते होंगे, मगर इतना तय है कि उन पर कुछ कर दिखाने का दबाव ज्यादा रहेगा, वरना अगली बार दिक्कत पेश आ सकती है।
जाट कैसा काम कर पाएंगे, इसका अनुमान फिलहाल इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने विचारधीन व निर्माणाधीन योजनाओं को पूरा करने के प्रति अपनी रुचि दिखाना शुरू कर दिया है। ये उनका सौभाग्य है कि उनके कार्यकाल में ही अजमेर को स्मार्ट सिटी बनाने के लिए अमेरिका से दो सौ करोड़ मिलने जा रहे हैं। ये काम भले ही केन्द्र की पहल पर शुरू हो रहा है, जिसमें फिलवक्त जाट की कोई भूमिका नहीं है, मगर इसके पूरा होने का सारा श्रेय वे हासिल कर सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 18 नवंबर 2014

मंत्रियों के टकराव से विकास तो बाधित नहीं होगा?

मंत्रीमंडल विस्तार के दौरान जैसे ही अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल को राज्य मंत्री बनाए जाने की बात लीक हुई तो सभी को आश्चर्य हो रहा था कि ये कैसे हो सकता है, मंत्री बनना तो अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी का तय था। ज्ञातव्य है कि श्रीमती भदेल का नाम किसी जानकार ने उजागर किया था, तब सारे मंत्रियों की आधिकारिक घोषणा नहीं हुई थी, इस कारण अचानक संदेह उत्पन्न हुआ कि कहीं देवनानी को मंत्री बनने से वंचित तो नहीं कर दिया गया, मगर बाद में जब अनिता भदेल के साथ उनका भी नाम घोषित हुआ तो देवनानी समर्थकों को राहत मिली।
बताया जाता है कि देवनानी का नाम काफी पहले से तय था। संघ का पूरा दबाव था कि उन्हें मंत्री बनाया जाए। मुख्यमंत्री वसुंधरा न चाहते हुए भी मजबूर थीं। ऐसे में उन्होंने बैलेंस करने के लिए वीटो का इस्तेमाल करते हुए अनिता को भी उनके बराबर ला कर खड़ा कर दिया। बताया जाता है कि देवनानी को केबीनेट मंत्री बनाया जाना था, मगर चूंकि वसुंधरा अनिता को भी चांस देना चाहती थीं, इस कारण देवनानी को केबीनेट की बजाय राज्य मंत्री बना दिया। अब दोनों ही बराबर की हैसियत के मंत्री हैं। बेशक देवनानी के पास शिक्षा विभाग जैसा महत्वपूर्ण विभाग है, जबकि अनिता के पास महिला व बाल विकास विभाग जैसा तुच्छ विभाग, मगर जानकार लोग समझते हैं कि अनिता कहीं अधिक पावरफुल हैं। इसकी वजह ये है कि सब को पता लग गया है कि वे वसुंधरा की पहली पसंद हैं। जाहिर तौर पर इसका राजनीतिक हलकों व प्रशासनिक खेमे में असर होगा। वे अनिता भदेल को ज्यादा तवज्जो दे सकते हैं। मिसाल के तौर पर अजमेर के किसी मसले पर यदि दोनों मंत्रियों में कोई मतभेद होता है तो विवाद स्थानीय प्रशासन तो निपटा नहीं पाएगा और वह मामला मुख्यमंत्री के पास भेज देगा, ऐसे में समझा जाता है कि वे अनिता का पक्ष लेकर देवनानी को नीचा दिखा सकती हैं। इस लिहाज से देवनानी के लिए काफी कठिन वक्त है। हालांकि वे मंत्री तो बन गए हैं, मगर उनके दिन का चैन व रात की नींद हराम ही रहेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले ग्यारह साल से दोनों की बीच छत्तीस का आंकड़ा है। दोनों में टकराव की अनेक घटनाएं सामने आ चुकी हैं। हाल ही जयपुर से अजमेर लौटते वक्त जब जुलूस भी निकले तो अलग-अलग, जो कि गुटबाजी का पक्का सबूत है। इस गुटबाजी में भाजपा का एक बड़ा धड़ा देवनानी के खिलाफ है। वह हर वक्त देवनानी को नीचा दिखाने की कोशिश करता रहता है। अब उसे अनिता का संबल मिल गया है। ऐसे में हर छोटे-मोटे मसले पर देवनानी को परेशानी आ सकती है। अनिता की वजह से उन्हें केबीनेट मंत्री पद से वंचित रहना पड़ा और साथ ही उन पर हर वक्त अनिता का चैक लगा रहेगा। समझा जाता है कि देवनानी के राजनीतिक जीवन में इससे कठिन समय कभी नहीं आया।
जहां तक दोनों मंत्रियों के टकराव के असर का सवाल है, इससे सबसे ज्यादा परेशान स्थानीय अधिकारी रहेंगे। उनके लिए एक ओर कुआं तो दूसरी ओर खाई है। किसी भी छोटे विवादित मुद्दे पर वे किस की मानें, यह असमंजस बना रहेगा। माना पुलिस थाने में कोई केस आता है और एक पक्ष के साथ अनिता होती हैं और दूसरे पक्ष का साथ देवनानी देते हैं तो संबंधित पुलिस अधिकारी किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाएगा। किसकी माने और किसकी नहीं। यानि कि दोनों की लड़ाई में अधिकारी पिस जाएंगे। अलबत्ता, शातिर अफसर इस फूट का लाभ भी उठा सकते हैं।
हालांकि उम्मीद तो यही की जा रही है कि अजमेर शहर को एक साथ दो राज्यमंत्री मिलने के कारण ज्यादा विकास होगा, मगर इसके विपरीत दोनों के टकराव का अजमेर के विकास पर भी असर पड़ सकता है। विकास के किसी काम पर अगर दोनों की राय भिन्न हुई तो वह लंबित हो सकता है।
दोनों के टकराव का सबसे अहम पहलु ये है कि सबसे अनुशासित पार्टी कहलानी वाली भाजपा के मंत्री इस प्रकार अपनी गुटबाजी को सार्वजनिक किए हुए हैं। कैसी विडंबना है कि केन्द्र और राज्य में भाजपा प्रचंड बहुमत से सत्ता पर काबिज हैं, मगर उसके दो मंत्री मनमानी पर उतारू हैं और दोनों ने अपना स्वागत जुलूस अलग अलग निकलवाया। उन्हें न तो संघ हिदायत दे कर एक कर पाया और न ही मुख्यमंत्री। जानकारी के अनुसार शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव ने दोनों से आग्रह किया कि एक ही जुलूस निकाला जाए, मगर वे नहीं माने। ऐसे में जनता के पास क्या संदेश गया, ये आसानी से समझा जा सकता है। इसका आगामी निगम चुनाव पर असर पड़ता साफ दिखाई दे रहा है। अगर दोनों के बीच खींचतान बड़ी तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा कि निगम पर कब्जा करने से भाजपा वंचित रह जाए।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 9 नवंबर 2014

सरकार को नहीं मिले एडीए के लिए पूर्णकालिक अध्यक्ष व आयुक्त

जब से अजमेर नगर सुधार न्यास अजमेर विकास प्राधिकरण बना है, तब से उसका कामकाज डांवाडोल हो गया है। न तो उसमें जरूरी पदों को भरने पर ध्यान दिया गया है और न ही मुख्य पदों पर पूर्णकालिक अधिकारियों की नियुक्ति की गई है। नतीजतन आम जनता सहित विकास के काम ठप पड़े हैं।
ज्ञातव्य है कि सरकार के कार्मिक विभाग ने आदेश जारी कर संभागीय आयुक्त आईएएस धर्मेंद्र भटनागर को अजमेर विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष पद का अतिरिक्त कार्यभार दिया है। इसी प्रकार जिला कलेक्टर आरुषि ए मलिक को प्राधिकरण के आयुक्त का अतिरिक्त कार्यभार दिया है।
ज्ञातव्य है कि बाबत हाल ही अजयमेरू प्रेस क्लब की ओर से आयोजित मीट द प्रेस में महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल से जब ये सवाल किया गया कि एडीए कामकाज कब सुधरेगा और कब पूर्णकालिक अधिकारी लगाए जाएंगे तो उन्होंने कहा कि जल्द ही समस्या का समाधान किया जाएगा। बेशक समस्या का कुछ समाधान तो हुआ है और स्थानीय अधिकारियों को प्राधिकरण का जिम्मा सौंपा गया है, मगर समस्या जस की तस रहने वाली है। इसकी वजह ये है कि दोनों ही अधिकारियों को अपने मूल कार्यभार से फुर्सत नहीं है, इस कारण वे प्राधिकरण का काम कैसे अंजाम देंगे, यह समझा जा सकता है। जिस जिले में राज्य सरकार के दो राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल हों, राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण प्राधिकरण के अध्यक्ष के रूप में राज्य मंत्री का दर्जा पाए औंकार सिंह लखावत हों और अब केन्द्र में राज्य मंत्री के रूप में प्रो. सांवरलाल जाट हों, वहां के इतने महत्वपूर्ण महकमे का ये हाल हो तो यह बेहद अफसोसनाक ही कहलाएगा।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

बेचारे अफसर तो पिस जाएंगे दोनों के बीच

प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के रूप में अजमेर शहर को एक साथ स्वतंत्र प्रभार वाले राज्य मंत्री मिलने पर हर शहरवासी में खुशी है कि अब शहर को बेहतर विकास होगा। दोनों में प्रतिस्पद्र्धा रहेगी काम करवाने की। दोनों ही चाहेंगे कि वे अपने-अपने खाते में बेहतर से बेहतर काम दर्ज करें। एक साथ दो मंत्रियों के होने का एक लाभ ये भी हो सकता है कि अगर वे विकास के किसी मुद्दे पर एक राय हो जाएं तो मुख्यमंत्री को उनकी माननी ही होगी। मगर दूसरी ओर बताया जाता है कि दोनों के एक साथ बराबर का मंत्री बनने के कारण प्रशासनिक हलके में सन्नाटा है। अफसर ये जानते हैं कि दोनों के बीच तालमेल का अभाव है और टकराव बना ही रहता है। ऐसे में अब किसकी मानेंगे और किसकी नहीं। यदि किसी मुद्दे पर एक मंत्री की राय एक है और दूसरे की दूसरी तो बेचारे अफसर क्या करेंगे। एक को राजी करो तो दूसरा राजी। यानि कि उनका तो मरण ही है। मगर दूसरी ओर कुछ का मानना है कि इस मनभेद का फायदा भी उठाया जा सकता है। चालाक अफसर इसका फायदा भी उठा सकते हैं। वे एक को दूसरे की भिन्न राय का हवाला देते हुए हाथ खड़े कर देंगे। वे सीधे मुख्यमंत्री तक बात पहुंचा कर मार्गदर्शन मांग लेंगे। जो कुछ भी हो, सकारात्मक सोच वाले तो यही सोचते हैं कि एक साथ दो मंत्री होने के कारण अजमेर के दिन फिरेंगे।

अजमेरनामा ने तीन दिन पहले ही बता दिया था कि 27 तक हर हाल में मंत्रीमंडल विस्तार होगा

राज्य मंत्रीमंडल के लंबे समय से प्रतीक्षित विस्तार का आखिर हो ही गया। इस बारे में कई बार चर्चा होती रही कि विस्तार अब होगा, तब होगा, मगर हर बार किसी न किसी वजह से वह टलता ही रहा, मगर अब स्थिति ऐसी आ गई कि तुरत-फुरत में विस्तार का कार्यक्रम आयोजित करना पड़ा। इस बारे में अजमेरनामा ने तीन दिन पहले 24 अक्टूबर को ही यह जानकारी आपसे शेयर कर दी थी कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को आगामी 27 अक्टूबर तक विस्तार करना ही होगा। संभवत: अजमेरनामा राज्य का एक मात्र ऐसा मीडिया रहा, जिसने यह आकलन प्रस्तुत किया था।
अपुन ने बताया था कि असल में यूं तो वसुंधरा राजे के पास आगामी 15 नवंबर तक का समय था। तब नसीराबाद से विधायक बनने के बाद इस्तीफा देकर सांसद बने प्रो. सांवरलाल जाट के बिना विधायक रहते मंत्री बने रहने को छह माह पूरे होने हैं। इस बात की कोई संभावना भी नहीं थी कि उन्हें फिर से विधानसभा का चुनाव लडय़ा जाए। अगर विधायक रखना ही था तो इस्तीफा ही क्यों दिलवाते। खैर, चूंकि 15 नवंबर तक जाट को इस्तीफा देना ही होगा और उनके इस्तीफा देते ही न्यूनमत 12 मंत्रियों की बाध्यता आ जाएगी, यानि कि तब तक उन्हें मंत्रीमंडल का विस्तार करना ही होगा। मगर इस बीच समस्या ये आ गई कि राज्य में कुछ स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए आचार संहिता 28 अक्टूबर को लागू हो जाएगी और तब वे मंत्रीमंडल का विस्तार नहीं कर पाएंगी, इस कारण अब यह लगभग पक्का ही है कि 27 अक्टूबर तक किसी भी सूरत में मंत्रीमंडल का विस्तार कर दिया जाएगा। हालांकि बाद में जानकारी ये भी आई कि आचार संहिता इसमें आड़े नहीं आएगी, मगर जैसे ही 27 को विस्तार का कार्यक्रम तय हुआ, यही माना जाएगा कि आचार संहिता की वजह से ही ऐसा किया गया।
इसमें भी एक पेच बताया गया था। वो ये कि भाजपा हाईकमान की इच्छा थी कि फिलहाल जाट के इस्तीफा देने के साथ सिर्फ एक-दो नए मंत्री बना दिए जाएं और पूरा विस्तार बाद में किया जाए, मगर जानकारी ये है कि वसुंधरा ठीक से विस्तार करना चाहती थीं। आखिर उनकी बात मान ली गई। मंत्रियों की शपथ के बाद अब कुछ लोग ये भी मान रहे हैं कि वसुंधरा राजे पूरी तरह से संघ में दबाव में नहीं रहीं और उन्हें कुछ स्वतंत्रता दी गई थी। विशेष रूप से इस लिए कि इसमें वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को शामिल नहीं किया गया, जो कि संघ खेमे से हैं और वसुंधरा के धुर विरोधी हैं। बहरहाल, मंत्रीमंडल का बहुप्रतीक्षित विस्तार हो चुका है, प्याज की छिलके बाद में धीरे-धीरे खुलते रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

नसीराबाद के असली विधायक तो सुनिल गुर्जर हैं

भले ही हाल में हुई नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में कानूनी तौर पर कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर चुनाव जीत कर विधायक बने हों, मगर जानने वाले जानते हैं कि न केवल चुनाव अभियान के दौरान बल्कि चुनाव संपन्न होने के बाद असल भूमिका उनके ही पुत्र सुनिल गुर्जर अदा कर रहे हैं।
बेशक चुनाव के दौरान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के निर्देश पर पूर्व मंत्री मास्टर भंवरलाल ने चुनाव संचालन का जिम्मा संभाल रखा था, मगर निचले स्तर पर काम करने वालों को पता है कि पूरी रणनीति पर सुनिल गुर्जर की ही पकड़ बनी हुई थी। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस चुनाव में जीत के पीछे पायलट की बिसात काम आई और खुद गुर्जर की छवि ने भी अहम किरदार निभाया, मगर सच ये है कि पल-पल पर पकड़ और खर्च से लेकर पूरे तोड़बट्टे पर सुनिल का ही रोल था। यहां तक कि मतदान के दिन प्रतिबंध के बाद भी इलाके में विचरण कर रही अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल से सुनिल ने ही भिड़ंत ली थी, नतीजन उन्हें मैदान छोड़ कर भागना पड़ा था। सुनिल की भूमिका को हाल ही नसीराबाद में संपन्न कार्यकर्ता रैली में खुद सचिन ने भी स्वीकार किया।
जानकारी के अनुसार रामनारायण गुर्जर के विधायक बनने के बाद ज्ञात रूप से वे ही विधायकी कर रहे हैं, मगर हर फैसले पर सुनिल की मुहर लगना जरूरी होता है। नसीराबाद में हुए कार्यकर्ता सम्मेलन पर भी सुनिल ने ही पकड़ बना रखी थी। ऊपर मंच पर भले ही रामनारायण गुर्जर बैठे थे, मगर जनता के बीच बैठने की व्यवस्था से लेकर खाने के इंतजाम पर सुनिल की नजर थी। वैसे भी रामनारायण गुर्जर बेहद सरल हैं, ऐसे में राजनीति की बारीकियों पर सुनिल को ही नजर रखनी होगी और यही उनकी ट्रेनिंग का पार्ट होगी।

शुक्रवार, 3 अक्तूबर 2014

अजमेर शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनना चाहते हैं बाकोलिया

अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया शहर कांग्रेस अध्यक्ष बनने की ख्वाहिश रखते हैं। चर्चा है कि उन्होंने इसके लिए जयपुर के चक्कर लगाना भी शुरू कर दिया है। असल में उनके साथ दिक्कत ये है कि मौजूदा पद से हटन के प्रथम नागरिक की बजाय आम नागरिक हो जाने वाले हैं। दुबारा मेयर बन नहीं सकते, क्योंकि इस बार यह पद सामान्य वर्ग के लिए है। ऐसे में पार्षद का चुनाव लडऩे का तो कोई मतलब ही नहीं। यानि कि नगर निगम चुनाव के बाद वे बेकार हो जाएंगे। अगर उनके पास कोई सांगठनिक पद नहीं हुआ तो राजनीतिक कैरियर का क्या होगा? इस कारण इसी जुगत में लगे हैं कि किसी प्रकार शहर कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं। नगर  निगम मेयर रहते उनकी परफोरमेंस के बाद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट उन्हें इस पद के लायक समझते हैं या नहीं, ये तो वक्त ही बताएगा। वैसे जानकारी यह भी है कि फिलवक्त समाजसेवी व उद्योगपति हेमंत भाटी पर ही यह पद संभालने का दबाव है, देखने वाली बात ये है कि वे इसे स्वीकार करते हैं या फिर अपने किसी साथी पर हाथ धरते हैं।

शहर भाजपा अध्यक्ष यादव पर है चारों ओर से दबाव

नवनियुक्त शहर भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव पर कार्यकारिणी के गठन को लेकर चारों ओर से दबाव है। संभवत: वे पहले ऐसे अध्यक्ष हैं, जिन पर इतना दबाव है। गनीमत ये है कि वे कूल माइंडेड हैं, इस कारण तनाव में नहीं आ रहे।
असल में पूर्व में विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल शहर भाजपा संगठन पर इतने हावी रहे हैं कि उनके अतिरिक्त अन्य नेताओं की पसंद कम ही चलती थी। चूंकि पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत इन दोनों विधायकों की आपसी सहमति से बने थे, इस कारण उन्होंने ज्यादा दिमाग लगाया ही नहीं और दोनों की ओर से दी गई लिस्ट में दिए गए नामों को ही ज्यादा तरजीह दी। दोनों विधायक इतने हावी रहे हैं कि पूर्व में जब शिवशंकर हेड़ा अध्यक्ष थे तो नगर निगम चुनाव में अधिसंख्य उनकी ही पसंद के दावेदारों को टिकट मिले। हेड़ा की तो कुछ चली ही नहीं।
बहरहाल, अब हालात अलग हैं। बेशक आज भी दोनों विधायक अपना दमखम रखे हुए हैं, मगर चूंकि अरविंद यादव की नियुक्ति राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव की मेहरबानी से हुई है, इस कारण जाहिर तौर पर उनकी पसंदगी-नापसंदगी भी काउंट करेगी। इसके अतिरिक्त राजस्थान पुराधरोहर प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष औंकारसिंह लखावत व पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत भी टांग अड़ाएंगे ही। चूंकि यादव पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा के करीबी रहे हैं, इस कारण उनकी सिफारिश भी रोल अदा करेगी। कुल मिला कर स्थिति ये है कि यादव पर एकाधिक नेताओं का दबाव है। लोग मजाक में यह तक कहने से नहीं चूकते कि अध्यक्ष होते हुए भी अपनी खास पसंद के किसी कार्यकर्ता को भी स्थान दे पाएंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। बताया जाता है कि सभी ने अपनी पसंद की लिस्ट दे दी है और अब उस पर मंथन चल रहा है। वैसे माना ये जाता है कि यादव युवाओं की अच्छी टीम बनाने में कामयाब हो जाएंगे। ठंडे दिमाग के होने के कारण विवाद होने की आशंका कम है। उसकी एक वजह ये है कि उन पर सांसद यादव का वरदहस्त है, इस कारण कोई ज्यादा चूं-चपड़ करने की हिमाकम कर नहीं पाएगा।

रविवार, 21 सितंबर 2014

केवल सरिता पर ठीकरा फोड़ कर बाकी सभी बरी हो गए

इसमें कोई दो राय नहीं कि नसीराबाद विधानसभा सीट के उपचुनाव में भाजपा हार की एक वजह पार्टी प्रत्याशी श्रीमती सरिता गैना की छवि भी मानी जाती है, मगर मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की समीक्षा बैठक में सारा जोर इसी पर दिया गया, उससे तो यही लगा कि पार्टी हाईकमान सहित अजमेर के नेताओं ने सारा ठीकरा सरिता गैना पर फोड़ कर अपने आप को बड़ी सफाई से बचा लिया। जानकारी के अनुसार पार्टी प्रत्याशी, प्रभारी, सेक्टर प्रभारियों सहित अन्य नेताओं ने राजे को जो हार के कारण बताए, उसमें सारा जोर सरिता की छवि को ही दिया गया। उन पर जिला प्रमुख पद पर रहते हुए पैसे खाने के आरोप इस तरह लगाए, मानो भाजपा के अन्य नेता तो दूध के धुले हुए हैं।
एक महत्वपूर्ण तथ्य ये भी सामने आया कि जाट बाहुल्य इलाकों में भाजपा को भरपूर वोट नहीं मिल पाए। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या जाटों ने ही सरिता की छवि के आधार पर ही मतदान में उत्साह नहीं दिखाया। यह बात कुछ गले नहीं उतरी। साफ है कि जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट का सरिता गैना को अपेक्षित सहयोग नहीं मिल पाया, वरना क्या वजह रही कि जो जाट सांवरलाल के लिए बढ़-चढ़ कर वोट डालने निकले थे, वे सरिता के चुनाव में ठंडे पड़ गए। कहने की जरूरत नहीं है कि यह सीट जाट ने यह सीट मुख्यमंत्री के कहने पर ही छोड़ कर लोकसभा का चुनाव लड़ा था। ऐसे में स्वाभाविक रूप से इस पर दावा उनके पुत्र का बनता था, मगर चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिवारवाद को बढ़ावा न देने की नीति का बहाना हो या फिर कोई ओर वजह, मगर इसमें गलती मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे का ही रहा कि वे जाट के बेटे के लिए ठीक से नहीं अड़ीं। दूसरा ये कि यदि आज यह बात उभर कर आ रही है कि सरिता की छवि ठीक नहीं थी तो जिले के नेता टिकट देने के पहले जोर देकर ये क्यों नहीं बोले की सरिता को टिकट देना ठीक नहीं होगा। यदि उन्हें टिकट मिलने के बाद चुनाव प्रचार के दौरान सरिता की छवि का पता लगा तो यह भी साफ हो जाता है कि उनकी पकड़ जिले पर है ही नहीं, इस कारण उचित फीडबैक नहीं दे पाए। यानि कि कहीं न कहीं देहात जिला भाजपा भी इसके लिए दोषी है। और सबसे बड़ी बात ये कि चलो यहां तो सरिता की छवि ने दिक्कत की, प्रदेश की दो और सीटों पर भाजपा की हार क्यों हुई? कोटा दक्षिण में मतातंर काफी कम कैसे हो गया? जाहिर तौर पर प्रमुख वजहों में ूमोदी लहर का नदारद होने के साथ ही प्रदेश की भाजपा सरकार की नीतियां भी रहीं, जिसकी वजह से जनता में भाजपा के प्रति मोह भंग हुआ।
बेशक सरिता की हार की एक वजह उनकी छवि रही होगी, मगर इतना तय है हार के लिए खुद मुख्यमंत्री वसुंधरा, जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट व देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत भी हैं। बावजूद इसके सभी ने मिल कर सारा ठीकरा सरिता पर फोड़ दिया। अफसोस कि इस मोर्चे पर सरिता भाजपा में अकेली पड़ गई।

बुधवार, 17 सितंबर 2014

सुशील कंवर पलाड़ा की बराबरी नहीं कर पाईं सरिता

केन्द्र व राज्य में प्रचंड बहुमत से बनी भाजपा सरकारें और राज्य की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पूरी फौज के नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में लगने के कारण यही लग रहा था कि पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना जीत कर पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के बराबर आ जाएंगी, मगर बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं पाया। उन्होंने एक बारगी यह तथ्य फिर साबित कर दिया कि जो भी एक बार जिला प्रमुख बन जाता है, उसका राजनीतिक कैरियर खत्म सा हो जाता है।
ज्ञातव्य है कि इससे पहले जिला प्रमुख हनुवंत सिंह रावत, सत्यकिशोर सक्सैना, पुखराज पहाडिय़ा, रामस्वरूप चौधरी की किस्मत पर बाद में लगभग फुल स्टॉप ही लग चुका है। रावत का तो निधन हो गया, जबकि सक्सैना अब केवल वकालत करते हैं। कांग्रेस तक में सक्रिय नहीं हैं। पहाडिय़ा की बात करें तो वे हालांकि अब भी संगठन के कामों में सक्रिय हैं, मगर एक बार भी विधानसभा का टिकट हासिल नहीं कर पाए हैं। पहले वे पुष्कर से टिकट मांगते रहे, बाद परिसीमन होने पर नसीराबाद में जोर लगाया, मगर हर बार कोई न कोई रोड़ा आ गया। चौधरी भी फिलहाल ठंडे बस्ते में हैं। इस लिहाज से सुशील कंवर पलाड़ा किस्मत की धनी नहीं। जिला प्रमुख रहने के बाद पिछले विधानसभा चुनाव में मसूदा से ऐन वक्त पर टिकट ले कर आईं और बहुकोणीय मुकाबले में जीत कर दिखाया। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस जीत में उनकी किस्मत ने तो साथ दिया ही, उनकी जिला प्रमुख रहने के दौरान की गई सेवाओं का भी खासा प्रभाव था।

यानि कि रामचंद्र चौधरी भी हथेली नहीं लगा पाए

अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से जाति दुश्मनी के चलते नसीराबाद उपचुनाव में भाजपा का भरपूर साथ दिया, मगर वे भी हथेली नहीं लगा पाए, जबकि उनके पास तो इलाके की सारी दूध डेयरियां थीं और दूधियों पर उनका जबरदस्त प्रभाव माना जाता है। बताते हैं कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से मेहनत कर धुंआधार प्रचार किया, चाहे निजी संतुष्टि के लिए ही सही, मगर सरिता को नहीं जितवा पाए। मीडिया में इस तरह की खबरें आ रही हैं कि उनका दावा सरिता के 15 हजार वोटों से जीत का था। अगर वे मेहनत नहीं करते तो सरिता की हार का आंकड़ा हजारों में होता। अगर यह बात सही मान ली जाए तो इससे यह अर्थ निकलता है कि जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट ने तो कुछ किया ही नहीं। जाट के लिए यह विडंबना ही है कि सरिता की हार का आंकड़ा सैंकड़ों में रहने का श्रेय चौधरी का दिया जा रहा है, जबकि यह वह सीट है, जिसे उन्होंने हजारों से वोटों से जीतने के बाद छोड़ा था। जो कुछ भी हो, चौधरी का श्रेय मिलना उनका मीडिया फ्रेंडली होना है। कम से कम इससे वसुंधरा के पास ये मैसेज जाएगा कि चौधरी ने तो खूब मेहनत की थी, जाट ने ही ठीक से काम नहीं किया। वैसे ये बात पक्की है कि इस हार की सीधी जिम्मेदारी जाट पर ही आयद होती है क्योंकि यह सीट उनकी थी, भले ही इसके लिए बाहर से आए मंत्रियों व विधायकों ने भी कमान संभाली हो।

अब मान रहे हैं कि सरिता गैना गलत कैंडिडेट थीं

नसीराबाद विधानसभा उप चुनाव में मतदान के दिन तक श्रीमती सरिता गैना की हजारों वोटों से जीत के दावे करने वाले भाजपाई ही अब हार के बाद दबे सुर में कहने लगे हैं कि वे गलत कैंडिडेट थीं। अगर इसी जगह जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के बेटे को टिकट दिया जाता तो वे किसी भी सूरत में जीत कर आते।
असल में नसीराबाद के ग्रामीण इलाकों में चुनाव प्रचार करने गए शहरी नेताओं को तभी पता लग गया कि कि सरिता गैना की छवि उतनी ठीक नहीं है, जितनी नजर आ रही है। उनके प्रति जिला प्रमुख के कार्यकाल के दौरान की कुछ नाराजगियां लोगों में है। मगर अब क्या हो सकता था। उन्हें तो प्रचार करना था, तो करते रहे। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे हालांकि भरपूर ताकत लगा रखी थी, इस कारण उन्हें उम्मीद थी कि सरिता जीत जाएंगी, मगर मन ही मन धुकधुकी थी। अब जब कि वे हार गई हैं तो हर कोई एक दूसरे के कान में फुसफुसा रहा है कि वे गलत कैंडिडेट थीं। अगर  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के परिवारवाद को बढ़ावा न देने की नीति नहीं होती व प्रो. जाट के बेटे को टिकट दे दिया जाता तो वे येन-केन-प्रकारेण उसे जितवा कर ही आते। सरिता के लिए उन्होंने भले ही मेहनत की हो, मगर खुद का बेटा होता तो जाहिर तौर पर एडी चोटी का जोर लगा देते। हालांकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि जाट ने मेहनत नहीं की, मगर परिणाम यही बता रहे हैं कि जरूर कहीं न कहीं लापरवाही या अनदेखी हुई है। हार के लिए जाट को जिम्मेदार मानने वाले तर्क देते हैं कि वे काहे को सरिता के लिए जी जान लगाते। यदि सरिता जीत जातीं तो यह सीट उनके बेटे के लिए भविष्य में खाली नहीं रहती। वैसे भी उनके साथ जितनी बड़ी चोट हुई है, वो तो उनका मन ही जानता होगा। वसुंधरा की जिद के कारण सांसद का चुनाव लड़ा, मगर केन्द्र में मंत्री नहीं बन पाए। चाहते थे कि कम से कम अपने बेटे को राजनीति में स्थापित कर दें, मगर वह भी नहीं हो पाया।
जहां तक खुद सरिता का सवाल है, हालांकि उन्होंने खुद कैंडिडेट होने के नाते पूरे दौरे किए, मगर उन्हें ज्यादा भरोसा इस बात का था कि चूंकि सरकार की पूरी ताकत लगी हुई है, इस कारण आसानी से जीत जाएंगी। बाकी उनके चेहरे से कहीं से नहीं लग रहा था कि वे एक योद्धा की तरह से मैदान में हैं। 

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

रामनारायण को मिला स्थानीयता व सहज सुलभता का फायदा

बेशक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की कड़ी मेहनत और लगातार मॉनिटरिंग की बदौलत कांग्रेस को नसीराबाद उप चुनाव में जीत हासिल हुई है, मगर यदि स्थानीय समीकरणों की बात करें तो कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर को उनके स्थानीय होने व सहज सुलभ व स्वच्छ छवि का होने का लाभ मिला है। दूसरी ओर पूरे चुनाव में कहीं पर भी ये नहीं लगा कि भाजपा की श्रीमती सरिता गैना चुनाव लड़ रही हैं। उनकी बॉडी लैंग्वेज में भी वह शिद्दत नहीं थी। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आदेश पर भाजपा की यह चुनाव लड़ रही थी। सरिता गैना के बारे एक आम राय यह नजर आई कि अगर वे जीत गईं तो उन्हें अजमेर कहां ढूंढऩे जाएंगे।
अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि रामनारायण गुर्जर को स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के उत्तराधिकार के साथ सहज-सरल स्वभाव का लाभ मिलेगा। उन्हें बाबा के साथ लंबे समय तक राजनीतिक यात्रा करने का अनुभव है। उन्हें नसीराबाद का बच्चा-बच्चा जानता है। स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के छह बार के विधायक काल के दौरान उन्होंने न जाने कितने लोगों के निजी काम किए। जाहिर तौर पर उनका नसीराबाद के स्थानीय लोगों से सीधा अटैचमेंट रहा है। इसका फायदा उन्हें मिलना ही था।
जहां तक अन्य स्थानीय समीकरणों का सवाल है, निर्दलीय प्रत्याशी कालूराम चौधरी के नाम वापस लेने पर सरिता गैना ने राहत की सांस ली। हालांकि भारतीय आम जन पार्टी के विजय सिंह रावत मैदान में डटे रहे, और उनके कुछ नुकसान पहुंचाने की आशंका थी, मगर  वे मात्र 792 मत ही हासिल कर पाए। जागो पार्टी के प्रत्याशी इदरीस मोहम्मद पठान के दुर्घटना में निधन होने के बाद कांग्रेस ने राहत महसूस की, मगर फिर भी उन्हें 1469 मत मिल गए। प्रमुख जातीय समीकरण की बात करें तो गुर्जर को अपनी जाति के अतिरिक्त मुस्लिम व अनूसूचित जाति का भरोसा था तो भाजपा प्रत्याशी सरिता गेना को जाटों के अतिरिक्त परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहे रावतों पर आसरा था। बताया यही जा रहा है कि गुर्जरों ने जितना लामबंद हो कर वोट डाला, उतना जोश जाटों व रावतों में नहीं देखा गया।
इस चुनाव में सचिन की मेहनत तो रंग लाई ही, कांग्रेसियों का उत्साह भी काम कर गया। वे उत्साहित इस वजह से थे कि लोकसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस का मतांतर आश्चर्यजनक रूप से कम हो गया था। हालांकि पूरे संसदीय क्षेत्र में जाट को 1 लाख 71 हजार 983 की लीड मिली, लेकिन नसीराबाद में लीड घट कर 10 हजार 999 मतों पर सिमट गई। प्रचंड मोदी लहर के बाद भी लीड कम होने को मुकाबला करने का आधार माना गया।  वे उत्साहित इस वजह से भी थे कि केन्द्र व राज्य की भाजपा सरकार का चंद माह का परफोरमेंस कुछ खास नहीं रहा, विशेष रूप से महंगाई पर काबू न कर पाने की वजह से आम आदमी की अच्छे दिन आने की उम्मीद पर पानी फिरा। इसके अतिरिक्त गुर्जरों में बाबा की इस सीट को फिर हथियाने का जोश रहा। इसी वजह से अपुन ने लिखा था कि उपचुनाव में लहर की तीव्रता बरकरार न रही तो कांग्रेस व भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला होगा। वही हुआ। हार और जीत का अंतर मात्र 386 रह गया।
कुल मिला कर बाबा की परंपरागत सीट पर उनके ही उत्तराधिकारी ने फिर से कब्जा कर लिया है।
एक नजर जरा, इतिहास पर भी डाल लें
अजमेर जिले की नसीराबाद विधानसभा सीट पर पूर्व में गुर्जर व रावतों का वर्चस्व रहा है। स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1980 से 2003 तक लगातार छह बार जीते। बाबा के सामने लगातार तीन बार रावत समाज के मदन सिंह रावत खड़े किए गए, मगर जीत उनकी किस्मत में थी ही नहीं, हालांकि मुकाबला हर बार कड़ा ही होता था। परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाट मतदाताओं के मद्देनजर 2008 में पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया, मगर वे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के राजनीतिक उत्तराधिकारी श्रीनगर पंचायत समिति के पूर्व प्रधान महेन्द्र सिंह गुर्जर से महज 71 वोटों से हार गए। इसके बाद दिसम्बर 13 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने प्रो. जाट पर फिर दाव खेला, जो कि कामयाब हो गया। उन्होंने पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर को  28 हजार 900 मतों से पराजित किया। सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले, जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत। हालांकि उसमें कांग्रेस विरोधी लहर की ही अहम भूमिका थी।
-तेजवानी गिरधर

नसीराबाद से रामनारायण नहीं, सचिन पायलट जीते

नसीराबाद विधानसभा उप चुनाव में यूं तो कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर ने विजय दर्ज की है, मगर असल में यह जीत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की जीत है, क्योंकि न केवल उन्होंने इसे रामनारायण-सरिता गैना की बजाय घोषित रूप से सचिन-वसुंधरा की प्रतिष्ठा का चुनाव करार दिया था, अपितु अपनी पूरी ताकत भी झोंक दी थी। बेशक राज्य की चार सीटों पर हुए उप चुनाव में कांग्रेस को तीन सीट मिलना उनके लिए एक उपलब्धि है, मगर अपने ही संसदीय क्षेत्र की हारी हुई सीट को फिर हथियाने से उनकी प्रतिष्ठा स्थापित हो गई है।
असल में सचिन को अपने संसदीय क्षेत्र में विधानसभा और लोकसभा चुनाव में हुई हार का बदला लेने की जिद थी। वे चाहते थे कि अपने संसदीय क्षेत्र की गुर्जर बहुल इस सीट पर किसी भी स्थिति में जीत हासिल की जाए, ताकि उनका राजनीतिक कद स्थापित हो। इस परिणाम से लगभग हताशा में जी रहे कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्राण वायु मिली है, क्योंकि सचिन अपने संसदीय क्षेत्र की सीट को भाजपा से छीनने में कामयाब हो गए, जिनके प्रदेश अध्यक्ष के रूप में जमने में संशय व्यक्त किया जा रहा था। अब वे उत्साह के साथ कांगे्रेस को फिर जिंदा करने का साहस जुटा पाएंगे। कांग्रेस हाईकमान के सामने भी अब वे तन कर खड़े हो सकते हैं कि विपरीत हालात में भी उन्होंने कांग्रेस में प्राण फूंके हैं। इससे उन नेताओं के प्रयासों को भी झटका लगेगा, जो कि किसी भी तरह सचिन के पांव जमने नहीं देना चाहते थे। जो लोग ये मान रहे थे कि सचिन राजस्थान में नहीं चल पाएंगे और उन्हें निष्प्राण अध्यक्ष सा मान रहे थे, उस लिहाज से इस उप चुनाव ने सचिन की प्राण प्रतिष्ठा कर दी है।
हालांकि भाजपाई यह कह कर अपने आपको संतुष्ठ करने की कोशिश कर सकते हैं कि उनकी हार के मायने उनका जनाधार खिसकना नहीं है, क्योंकि हार-जीत का अंतर मामूली है, मगर सच ये है कि कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रो. सांवरलाल जाट की  लीड और पिछले लोकसभा चुनाव में प्रो. जाट को नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र में मिली   लीड को कांग्रेस ने कवर किया है। वो भी तब, जबकि केन्द्र व राज्य में भाजपा की प्रचंड बहुमत वाली सरकार है और वसुंधरा ने एडी चोटी का जोर लगा दिया था। ऐसे में कांग्रेस की यह जीत काफी अहम मानी जाएगी।
हालांकि भाजपा को पूरा भरोसा था कि जीत उसकी ही होगी। उसकी वजह ये भी रही कि सचिन ने अपनी चुनावी सभाओं में जैसे ही यह कहना शुरू किया कि ये चुनाव रामनारायण गुर्जर व सरिता गैना के बीच नहीं, बल्कि स्वयं उनके और मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच है, वसुंधरा राजे के आदेश पर भाजपाइयों ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना कर ताकत झोंक दी। जाहिर तौर पर इसके पीछे सत्ता से इनाम पाने की अभिलाषा भी रही। भाजपा के विधायक व नेता घर-घर ऐसे जा रहे थे, मानो पार्षद का चुनाव लड़ रहे हों। भाजपा को उम्मीद थी कि वह चूंकि पहले से ही अच्छी खासी बढ़त में है और केन्द्र व राज्य में उनकी सरकार है, इसका पूरा फायदा मिलेगा। मगर मोदी लहर समाप्त होने के साथ ही केन्द्र व राज्य सरकारों की लगभग एक साल ही परफोरमेंस कुछ खास न होने के कारण उनका मुगालता दूर हो गया है।
कुल जमा देखा जाए तो राजस्थान की चार में से तीन पर कांग्रेस की जीत यह साबित करने में कामयाब हो गई है कि मोदी लहर पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। अब लोगों को कांग्रेस का यह कहना आसानी से गले उतरेगा कि जनता सुराज और अच्छे दिनों के झूठे वादों को समय पर पहचान चुकी है और इस उपचुनावों के परिणामों ने उनकी कथित खुमारी को उतार फैंका है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 15 सितंबर 2014

फिर सुर्खियों में आ गई किरण शेखावत

ऐसा प्रतीत होता है कि आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता श्रीमती किरण शेखावत को सुर्खियों में रहने की आदत हो गई है। वे अखबारों व टीवी चैनलों में छाने के लिए कोई न कोई ने बहाना तलाश ही लेती हैं। हालांकि जहां तक उनके नजरिये का सवाल है, वे अपनी ओर से तो किसी भी रूप अन्याय के खिलाफ संघर्ष करती दिखाई देना चाहती हैं। मगर चूंकि उनका तरीका आक्रामक ही होता है, इस कारण खबर का हिस्सा बन ही जाती हैं। 
आम आदमी पार्टी के मिशन विस्तार कार्यक्रम के तहत इंडोर स्टेडियम में आयोजित सम्मेलन में भी उन्होंने जम कर हंगामा किया कि पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं की उपेक्षा की जा रही है। आयोजकों ने चूंकि उनकी उपेक्षा की थी, इस कारण आशंकित भी थे कि कहीं सम्मेलन स्थल पर आ कर हंगामा न कर दें, इस कारण पहले से ही पुलिस सुरक्षा मांग ली थी। आप के सदस्य राजेश कुमार राजोरिया ने तो किरण का नाम लिए बिना कह दिया कि पिछले दिनों पार्टी हेल्पलाइन नंबर पर एक महिला ने फोन करके अभद्रता की थी। इस घटना के बाद पार्टी कार्यकर्ताओं को आशंका थी कि कार्यकर्ता सम्मेलन के दौरान कुछ असामाजिक तत्व माहौल बिगाड़ सकते हैं। इसी आशंका के चलते प्रदेश कार्यकारिणी के दिशा-निर्देश पर एसपी से शिकायत की गई थी। एसपी के आदेशों पर कार्यकर्ता सम्मेलन में कोतवाली थाना पुलिस का जाप्ता तैनात किया गया। किरण को ये भी ऐतराज था कि उनका नाम पुलिस के पास क्यों था, इस कारण पुलिस से भी भिड़ गईं। 
बताया जाता है कि पार्टी ने उन्हें इस करतूत पर स्थानीय स्तर पर अनुशासन हीनता के आरोप में पार्टी से बाहर कर दिया है, मगर बताते हैं कि इसके लिए उच्च स्तर पर अनुमति नहीं ली गई है।
आपको याद होगा कि लोकसभा चुनाव में भी पार्टी के अधिकृत प्रत्याशी अजय सोमानी के ऐन वक्त पर नाम वापस ले लेने पर उन्होंने उत्तेजित हो कर उनका मुंह काला कर दिया था। इसी प्रकार उन्होंने पुष्कर के एक दवाई विक्रेता द्वारा प्रतिबंधित दवा बेचने का स्टिंग ऑपरेशन कर सुर्खियां पाई थीं। कुल मिला कर किरण की छवि एक हंगामाई नेता की बनती जा रही है।

कांग्रेस-भाजपा के जीत के अपने-अपने दावे

नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस व भाजपा के जीत के अपने-अपने दावे हैं। भाजपा को जहां अपने पूरे तंत्र के चप्पे-चप्पे पर छा जाने का भरोसा है तो वहीं कांग्रेस कुछ अहम समीकरणों के चलते हुए जीत का आशा पाले हुए है।
असल में इस चुनाव को चूंकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने यह कह कर कि ये चुनाव रामनारायण गुर्जर व सरिता गेना के बीच नहीं, बल्कि स्वयं उनके और मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के बीच है, प्रतिष्ठा का प्रश्र बना लिया और इस पर वसुंधरा राजे ने भी पूरी ताकत झोंक दी, इस कारण एक-एक वोट के लिए जबरदस्त रस्साकशी हुई। भाजपा के विधायकों ने डेरा डाल कर घर-घर जनसंपर्क किया। वसुंधरा ने जोर दे कर कह दिया था कि इस चुनाव में किसी तरह की कोर कसर बाकी नहीं रहनी चाहिए। इस कारण भाजपा नेताओं ने इनाम की लालच में पूरी ताकत झोंक दी।  भाजपा को मिलने वाले वोटों की इतनी बारीक छंटनी की गई कि उस तक कांग्रेस सोच भी नहीं सकती थी। वैसे भी भाजपा को उम्मीद है कि वह चूंकि पहले से ही अच्छी खासी बढ़त में है और केन्द्र व राज्य में उनकी सरकार है, इसका पूरा फायदा मिलेगा। हालांकि खुद भाजपा प्रत्याशी श्रीमती सरिता गेना की हालत तो ये रही कि उन्हें कुद पता ही नहीं रहा कि आखिर चुनाव लड़ा कैसे जा रहा है, मगर पार्टी की एकजुटता अच्छे परिणाम की उम्मीद पैदा कर रही है।
दूसरी ओर सचिन ने भी पूरी ताकत झोंक रखी थी। वे चाहते हैं कि अपने संसदीय क्षेत्र की गुर्जर बहुल इस सीट पर किसी भी स्थिति में जीत हासिल की जाए, ताकि उनका राजनीतिक कद स्थापित हो। कांग्रेसी मानते हैं कि उनके प्रत्याशी रामनारायण गुर्जर को स्थानीय होने का पूरा लाभ मिलेगा। उन्हें नसीराबाद का बच्चा-बच्चा जानता है। स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के छह बार के विधायक काल के दौरान उन्होंने न जाने कितने लोगों के निजी काम किए हैं, इस कारण वे मानते हैं कि वे इतने तो अहसान फरामोश तो नहीं होंगे। यूं भी आम लोगों में यह धारणा देखी गई कि गुर्जर तो उन्हें सहज सुलभ हैं, जबकि सरिता गेना को तलाशने अजमेर जाना होगा।  कांग्रेस को यह भी उम्मीद है कि मतदान प्रतिशत का गिरना और मोदी लहर का असर कम होने का उन्हें लाभ मिलेगा। जहां तक जातीय समीकरण का सवाल है, आंकड़े यही बताते हैं कि जाटों की तुलना में गुर्जरों ने ज्यादा लामबंद हो कर मतदान किया।
कुल मिला कर दोनों पार्टियों के अपने-अपने दावे हैं। अब किसकी बाजुओं में कितना दम रहा, ये तो 16 सितंबर की सुबह उगने वाला सूरज ही बता पाएगा।

रविवार, 31 अगस्त 2014

जनप्रतिनिधि की नियुक्ति के बिना एडीए से ज्यादा उम्मीद बेमानी

जब अजमेर नगर सुधार न्यास को अजमेर विकास प्राधिकरण के रूप में तब्दील किया गया था और इस कार्यक्षेत्र अजमेर के अतिरिक्त पुष्कर व किशनगढ़ किया गया तो यहां के निवासियों में खुशी की लहर थी कि अब इस इलाके का तेजी से विकास होगा, मगर चूंकि इसके अध्यक्ष पद पर अब तक किसी राजनीतिक नेता की नियुक्ति नहीं की गई है, इस कारण विकास को जो गति मिलनी चाहिए, वह नहीं मिल पा रही है। सीधी-सीधी बात है कि सरकारी अधिकारी की विशेष रुचि लेकर विकास करने की कभी मंशा नहीं होती, जबकि राजनीतिक नेता वाहवाही के लिए ही सही, कुछ न कुछ नया करने के लिए पूरी ताकत झोंक देता है। मगर अफसोस कि राज्य में नई सरकार बने आठ माह हो गए हैं, मगर इसका जिम्मा सरकारी अधिकारी ही संभाले हुए हैं, जो कि केवल रूटीन का काम करने तक सीमित रहते हैं।
आपको याद होगा कि पिछली सरकार ने बजट में अजमेर प्राधिकरण की घोषणा की थी, तब न्यास अध्यक्ष पद पर नरेन शाहनी भगत थे। कांग्रेसी नेताओं ने उन्हें प्राधिकरण बनने से पहले ही अध्यक्ष पद की अग्रिम बधाई दे दी थी, लेकिन भूमि के बदले भूमि प्रकरण में नाम आने और एसीबी की कार्रवाई के बाद शाहनी को इस्तीफा देना पड़ा था। दो माह बाद विधानसभा चुनाव होने थे, ऐसे में अध्यक्ष पद सरकार प्राधिकरण के पहले अध्यक्ष पद का दायित्व कलेक्टर वैभव गालरिया को सौंपा गया। जाहिर तौर पर चुनाव होने तक उनसे कोई विशेष अपेक्षा थी भी नहीं, क्योंकि उन पर चुनाव कार्य शांतिपूर्वक कराने का जिम्मा था।
नई सरकार बनी तो फिर उम्मीद जगी कि अब कोई स्थाई नियुक्ति होगी, मगर सरकार ने सीनियर आईएएस देवेंद्र भूषण गुप्ता को अध्यक्ष पद का अतिरिक्त पदभार संभलवा दिया और मनीष चौहान को आयुक्त बनाया गया। यहां उल्लेखनीय है कि प्राधिकरण के नए अध्यक्ष गुप्ता अजमेर के कलेक्टर रह चुके थे, इस कारण उन्हें अजमेर के हालात की पूरी जानकारी थी और यहां की आवश्यकताओं व अपेक्षाओं के अनुरूप विकास को गति दे सकते थे। आयुक्त मनीष चौहान ने भी जता दिया कि वे प्राधिकरण में बिचौलियों पर नकेल कसेंगे, जिससे आम जनता को राहत मिलेगी। उन्होंने कहा कि अच्छा प्रशासन उनकी प्राथमिकता होगी। अजमेर शहर का विकास योजनाबद्ध तरीके से किया जाएगा। विकास कार्यों में तेजी लाई जाएगी एवं प्राधिकरण के कार्यों में आय के स्रोत बढ़ाए जाएंगे। वे अपने मत्नव्य में कितने कामयाब हुए, ये सबके सामने हैं। पिछले दिनों सरकार ने एक आदेश जारी कर जिला कलेक्टर भवानी सिंह देथा को प्राधिकरण का जिम्मा सौंप दिया।  ऐसे में अध्यक्ष पद हासिल करने के दावेदार तो निराश हुए ही, जनता की आशाएं भी ठंडी पड़ी हैं।
लोगों को अब भी उम्मीद है कि नई सरकार जल्द ही अध्यक्ष पद पर कोई राजनीतिक नियुक्ति करेगी, मगर आठ माह बीत जाने के बाद भी इस दिशा में कुछ हरकत होती नजर नहीं आ रही। वजह चाहे इस दरम्यान लोकसभा चुनाव होने की रही हो या फिर कोई और मगर मामला जस का तस है। हालत ये है कि सरकार अभी तक पूरा मंत्रीमंडल ही गठित नहीं कर पाई है। सरकार की सुस्त चाल के पीछे कुछ तार्किक कारण समझ में आते हैं, मगर यह अजमेर पर तो भारी ही पड़ रहा है। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि अध्यक्ष और सदस्यों के रूप में मनोनयन से भाजपाई अब तक वंचित हैं, बल्कि महत्वपूर्ण ये है कि शहर के विकास में अहम भूमिका अदा कर सकने वाली इस विशेष संस्था की निष्क्रियता से शहर का विकास अवरुद्ध हो रहा है। ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि भाजपाई दावेदारों की अपेक्षा पूरी हो, बल्कि जरूरी ये है कि अजमेर वासियों की अपेक्षाएं पूरी हों।
असल में इस बात के प्रमाण हैं कि जब भी न्यास के अध्यक्ष पद पर कोई राजनीतिक प्रतिनिधि बैठा है, शहर का विकास हुआ है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की। हर न्यास अध्यक्ष ने चाहे शहर के विकास के लिए चाहे अपनी वाहवाही के लिए, काम जरूर करवाया है। पृथ्वीराज चौहान स्मारक, महाराजा दाहरसेन स्मारक, विवेकानंद स्मारक, अशोक उद्यान, राजीव उद्यान सहित अनेक आवासीय योजनाएं उसका साक्षात प्रमाण हैं। जब भी सरकारी अधिकारियों ने न्यास का कामकाज संभाला है, उन्होंने महज नौकरी की बजाई है, विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया है। ऐसे में विकास तो दूर रोजमर्रा के कामों की हालत भी ये है कि जरूरतमंद लोग चक्कर लगा रहे हैं और किसी को कोई चिंता नहीं। नियमन और नक्शों के सैंकड़ों काम अटके पड़े हैं। पिछले सात साल से लोग न्यास के चक्कर लगा रहे हैं, मगर नियमन के मामले नहीं निपटाए जा रहे। असल में न्यास के पदेन अध्यक्ष जिला कलैक्टर को तो प्राधिकरण की ओर झांकने की ही फुरसत नहीं है। वे वीआईपी विजिट, जरूरी बैठकों आदि में व्यस्त रहते हैं। कभी उर्स मेले में तो कभी पुष्कर मेले की व्यवस्था में खो जाते हैं। प्राधिकरण से जुड़ी अनेक योजनाएं जस की तस पड़ी हैं। कुल मिला कर जब तक न्यास के सदर पद पर किसी राजनीतिक व्यक्ति की नियुक्ति नहीं होती, तब तक अजमेर का विकास यूं ही ठप पड़ा रहेगा।
प्राधिकरण बनने पर ये जगी थीं उम्मीदें
प्राधिकरण गठित होने की वजह से भविष्य में विकास की रफ्तार तेज होने की आशा बलवती हुई थी। वजह ये कि प्राधिकरण का क्षेत्र काफी बड़ा हो गया था। इसके तहत किशनगढ़ और पुष्कर शहर के अतिरिक्त 119 गांव भी इसका हिस्सा बन गए। यानि कि प्राधिकरण यूआईटी की तुलना में एक उच्च शक्ति वाली संस्था बन गई। इसमें सरकार की ओर से घोषित एक चेयरमैन के अलावा एक सचिव और 19 सदस्य का प्रावधान है। 19 सदस्यों में से 12 सदस्य आधिकारिक और 7 सदस्य राजनीतिक नियुक्तियों के रखने का प्रावधान है। जैसे ही प्राधिकरण का गठन हुआ तो सभी समाचार पत्रों में यह शीर्षक सुर्खियां पा रहा था कि अब लगेंगे अजमेर के विकास को पंख। उम्मीद स्वाभाविक भी थी। उम्मीद जताई गई थी कि सही योजनाएं बनीं और तय समय में काम पूरे हुए तो एक दशक में ही अजमेर महानगर में तब्दील हो सकता है। इसके ठोस आधार भी हैं। प्राधिकरण की सीमाएं किशनगढ़ औद्योगिक क्षेत्र तक हैं, यानि केंद्रीय विद्यालय तक हमारी पहुंच हो गई है। बाड़ी घाटी अब प्राधिकरण का हिस्सा है, यानि विदेशी पर्यटकों की पहली पसंद बने पुष्कर तीर्थ को हम विकास की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय सुविधाएं दे सकते हैं। ब्यावर रोड पर सराधना और नारेली तीर्थ हमारी सीमा में आ जाने से हम कई दृष्टि से विकसित हो जाएंगे। हवाई अड्डा तो गेगल निकलते ही हम छू लेंगे। कुल मिला कर अजमेर विकास प्राधिकरण का गठन अजमेर के विकास में मील का पत्थर साबित होगा। इसके अतिरिक्त प्राधिकरण बनने से किसानों को भू-उपयोग परिवर्तन कराने के लिए उपखंड अधिकारी व कलेक्ट्रेट के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। टाउन शिप पॉलिसी के तहत अब प्राधिकरण में होगा यह काम। इससे किसानों के एक ही स्थान पर हो जाएंगे काम। प्राधिकरण के सभी गांवों में यात्री सेवाओं की पहुंच होगी। इससे टेम्पो, सिटी बस व यात्री वाहन का परिवहन बढ़ेगा तथा आम लोग को इस क्षेत्र में कारोबार व रोजगार का लाभ मिलेगा। गांवों के लोगों को सड़क नाली, बिजली के विधायकों व जन प्रतिनिधियों के चक्कर लगाने पड़ते थे लेकिन अब ये काम प्राधिकरण स्तर पर हो जाएंगे। पुष्कर व किशनगढ़ में अब तक आवासन मंडल द्वारा ही मकान बनाए जाते रहे, लेकिन प्राधिकरण भी इन स्थानों पर आवासीय भूखंड करेगा, जिसकी कीमत मंडल से काफी कम होगी। न्यास अध्यक्ष को 25 लाख रुपए और सचिव को दस लाख रुपए के वित्तीय अधिकार थे, मगर अध्यक्ष और कमिश्नर (सचिव) दोनों के वित्तीय अधिकार एक-एक करोड़ रुपए हो गए हैं।
-तेजवानी गिरधर

एक ओर सरकार की ताकत तो दूसरी ओर पायलट की प्रतिष्ठा

नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में एक ओर सत्तारूढ़ भाजपा ने पूरी ताकत झोंक रखी है तो दूसरी ओर अपने संसदीय क्षेत्र की विधानसभा सीट होने के कारण नसीराबाद के उपचुनाव में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की प्रतिष्ठा दाव पर लगी है। चूंकि टक्कर बराबरी की है और मामूली चूक भी पराजय का कारण बन सकती है, इस कारण दोनों दल कोई कोर कसर बाकी नहीं रखना चाहते। भाजपा ने अपने तीन मंत्री व बीस विधायक चप्पे-चप्पे पर बिखेर दिए हैं तो पायलट ने खुद विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित कर रखा है।
हालांकि नामांकन वापस लेने की तिथि से पहले तक ऐसा लग रहा था कि दोनों दलों के प्रत्याशियों को निर्दलीय कुछ नुकसान पहुंचा सकते हैं, मगर अब तस्वीर साफ है और मुकाबला आमने-सामने का है। असल में जैसे ही निर्दलीय प्रत्याशी कालूराम चौधरी के नाम वापस लिया, भाजपा प्रत्याशी सरिता गैना ने राहत की सांस ली। हालांकि भारतीय आम जन पार्टी के विजय सिंह रावत अभी मैदान में हैं, जो कुछ नुकसान पहुंचा सकते हैं, मगर भाजपा पूरी तरह से तैयार है। जानकारी के अनुसार चौधरी जल संसाधन मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के करीबी माने जाते हैं, इस कारण बाद में कहीं हार का ठीकरा उन पर न फूटे, उन्होंने हरसंभव कोशिश कर चौधरी को बैठा दिया। उधर जागो पार्टी के प्रत्याशी इदरीस के दुर्घटना में निधन होने के बाद कांग्रेस ने राहत महसूस की है। जाहिर तौर पर वे मुस्लिम वोट बैंक में सेंध मार सकते थे। कुल मिला कर मुकाबला अब सीधे तौर पर गुर्जर और जाट के बीच है। कांग्रेस प्रत्याशी रामनारायण गुर्जर को अपनी जाति के अतिरिक्त मुस्लिम व अनूसूचित जाति का भरोसा है तो भाजपा प्रत्याशी सरिता गेना को जाटों के अतिरिक्त परंपरागत रूप से भाजपा के साथ रहे रावतों पर आसरा है।
नसीराबाद विधानसभा सीट का उपचुनाव इस कारण भी दिलचस्प है क्योंकि लंबे अरसे बाद यहां पहली बार यहां दो नए प्रत्याशी आमने-सामने हैं। हालांकि उन्हें फ्रेश तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि कांग्रेस के रामनारायण गुर्जर प्रधान हैं तो भाजपा की सरिता गेना पूर्व जिला प्रमुख रह चुकी हैं, मगर दोनों पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ रहे हैं।

इस सीट का मिजाज:-
अजमेर जिले की नसीराबाद विधानसभा सीट पर पूर्व में गुर्जर व रावतों का वर्चस्व रहा है। स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1980 से 2003 तक लगातार छह बार जीते। बाबा के सामने लगातार तीन बार रावत समाज के मदन सिंह रावत खड़े किए गए, मगर जीत उनकी किस्मत में थी ही नहीं, हालांकि मुकाबला हर बार कड़ा ही होता था। परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाट मतदाताओं के मद्देनजर 2008 में पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया, मगर वे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के राजनीतिक उत्तराधिकारी श्रीनगर पंचायत समिति के पूर्व प्रधान महेन्द्र सिंह गुर्जर से महज 71 वोटों से हार गए। इसके बाद दिसम्बर 13 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने प्रो. जाट पर फिर दाव खेला, जो कि कामयाब हो गया। उन्होंने पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर को  28 हजार 900 मतों से पराजित किया। सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले, जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत। हालांकि उसमें कांग्रेस विरोधी लहर की ही अहम भूमिका थी।
वस्तुत: नसीराबाद यों तो एससी बहुल इलाका है, लेकिन किसी एक जाति की बात करें तो गुर्जर सबसे ज्यादा हैं। राजनीतिक पंडितों के मुताबिक नसीराबाद में एससी के करीब 45 हजार, गुर्जर करीब 30 हजार, जाट करीब 25 हजार, मुसलमान करीब 15 हजार, वैश्य करीब 15 हजार, रावत करीब 17 हजार हैं। इनके अलावा ब्राह्मण, यादव मतदाता भी हैं। परंपरागत मतों के हिसाब से जोड़ कर देखें तो गुर्जर, एससी, मुसलमान कांग्रेस का वोट बैंक 90 हजार से अधिक हो जाता है। क्षेत्र में प्रत्याशी के जातिगत मतों और परंपरागत मतों को जोड़कर देखें तो भाजपा का वोट बैंक भी करीब 90 हजार के लगभग हो जाता है। शेष मतों को लेकर दोनों दलों में कांटे का मुकाबला होता है।

भाजपा उत्साहित, मगर कांग्रेस भी हतोत्साहित नहीं
आसन्न उपचुनाव की बात करें तो भले ही केन्द्र व राज्य में भाजपा को मिली प्रचंड जीत के कारण भाजपा उत्साहित है, मगर मुकाबला कांटे का ही रहने की संभावना है, क्योंकि कांग्रेसी भी हतोत्साहित नहीं हैं। इसकी कुछ वजुआत हैं। हाल ही हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा व कांग्रेस का मतांतर आश्चर्यजनक रूप से कम हो गया। हालांकि पूरे संसदीय क्षेत्र में जाट को 1 लाख 71 हजार 983 की लीड मिली, लेकिन नसीराबाद में लीड घट कर 10 हजार 999 मतों पर सिमट गई। प्रचंड मोदी लहर के बाद भी लीड कम होना रेखांकित करने लायक तथ्य है। यानि कि उपचुनाव में लहर की तीव्रता बरकरार न रही तो कांग्रेस व भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला संभव है। कांग्रेसी इस कारण भी कुछ उत्साहित हैं केन्द्र व राज्य की भाजपा सरकार का चंद माह का परफोरमेंस कुछ खास नहीं रहा, विशेष रूप से महंगाई पर काबू न कर पाने की वजह से आम आदमी की अच्छे दिन आने की उम्मीद पर पानी फिरा है। इसके अतिरिक्त गुर्जरों में बाबा की इस सीट फिर हथियाने का जोश नजर आ रहा है। यह सीट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के लिए प्रतिष्ठा की मानी जाती है, क्योंकि ये उनके संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आती है और गुर्जर बहुल है। जहां तक प्रत्याशियों के स्वयं के परफोरमेंस का सवाल है, दोनों की ही छवि साफ-सुथरी है। दोनों पर कोई भी बड़ा राजनीतिक आरोप नहीं है, जिसका चुनाव पर असर पड़ता हो।
गुर्जर की बात करें तो उन्हें स्वाभाविक रूप से बाबा के उत्तराधिकार के साथ सहज-सरल स्वभाव का लाभ मिलेगा। उन्हें बाबा के साथ लंबे समय तक राजनीतिक यात्रा करने का अनुभव है, साथ ही कांग्रेस संगठन के अतिरिक्त श्रीनगर पंचायत समिति के प्रधान के रूप में काम करने का भी अनुभव है। श्रीनगर प्रधान के चुनाव में भाजपा के सदस्य अधिक होने के बावजूद वे प्रधान बनने में कामयाब रहे। वैश्य समाज में उनकी पैठ है, ऐसे में वैश्य समाज को वे साथ ले सकते हैं। नसीराबाद के निवासी होने के कारण मतदाताओं को सहज उपलब्धता भी उनके पक्ष में है।
नसीराबाद इलाके में बाऊजी के नाम से सुपरिचित रामनारायण गुर्जर का जन्म 15 अगस्त 1946 को नसीराबाद के सुत्तरखाना मोहल्ले में श्री गोगराज गुर्जर के आंगन में हुआ। मैट्रिक तक शिक्षा अर्जित करने के बाद वे ट्रांसपोर्ट कंपनी में मैनेजर रहे। वे 1988 में नसीराबाद नगर कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1992 तथा 2000 में जिला देहात कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे। वे 1995 तथा 2005 में जिला परिषद सदस्य रहे। इसके 2010 में श्रीनगर पंचायत समिति सदस्य बने और 10 फरवरी 2010 को कांग्रेस के 8 और भाजपा के 11 सदस्य होने के बावजूद श्रीनगर पंचायत समिति के प्रधान बन कर अपने राजनीतिक कौशल का परिचय दिया।
बात भाजपा की सरिता गेना की करें तो उन्हें जाट मतों की लामबंदी के साथ स्वच्छ छवि की महिला होने का लाभ मिल सकता है। केन्द्र व राज्य में भाजपा के सत्ता में होने का स्वाभाविक लाभ भी उन्हें मिलेगा। एकाएक कोई भीतरघात नहीं कर सकता। जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के लिए भी प्रतिष्ठा का सवाल है, इस कारण उन पर पूरा दबाव रहेगा कि वे ही मोर्चा संभालें, मगर सीट छोड़ कर लोकसभा चुनाव लडऩे, केन्द्र में मंत्री न बन पाने की आशंका और बेटे को टिकट नहीं दिए जाने से जरा भी बेरुखी रही तो सरिता के लिए मुश्किल हो सकती है। एक ओर जहां जिला प्रमुख रह चुकने के कारण नसीराबाद में भी संपर्क का वे लाभ लेंगी, वहीं गुर्जर की तुलना में स्थानीय संपर्कों का अभाव कुछ दिक्कत पेश आ सकती है। वैसे एक बात है, वे हैं लक्की। आपको याद होगा कि वे जिला प्रमुख सौभाग्य से ही बनी थीं। उन्हें जिला परिषद का टिकट भाग्य से ही मिला। टिकट पहले किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी की पुत्री सरिता को मिलना था, लेकिन खुद विधायक ने रुचि नहीं ली, इस कारण ऐन वक्त पर उनकी ही जेठानी सरिता गैना का भाग्य जाग गया। वे चुनाव जीत कर जिला प्रमुख भी बनी। विधानसभा चुनाव के टिकट के लिए उन्होंने कोई खास मेहनत नहीं की, मगर समीकरण ऐसे बने कि उनकी चेत गई। किस्मत का वास्तविक चेतना उनके जीतने के बाद ही तय होगा। उनका व्यक्ति परिचय इस एक पंक्ति से जुड़ा है:- राजनीति में कदम रखते ही सफलता का शिखर छूने वालों में श्रीमती सरिता गेना नाम शुमार है। वे सन् 2005 में भारतीय जनता पार्टी से जुड़ीं और जिला प्रमुख पद का चुनाव जीता। श्री जी. एल. परोदा के घर 26 फरवरी 1977 को जन्मी श्रीमती गेना ने एम.ए. तक शिक्षा अर्जित की है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 26 अगस्त 2014

आखिरी विकल्प के रूप में मिला सरिता को टिकट

नसीराबाद विधानसभा उप चुनाव के लिए भाजपा ने पूर्व जिला प्रमुख सरिता गेना को आखिरी विकल्प के रूप में टिकट दिया है। इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि उन्होंने टिकट के लिए कोई खास मशक्कत नहीं की। मात्र और मात्र जाट व महिला होने के नाते वे टिकट लेने में कामयाब हो गई।
दरअसल भाजपा की यह मजबूरी थी कि वह यहां से किसी जाट को प्रत्याशी बनाती। हालांकि पूर्व में लंबे समय तक, अर्थात लगातार तीन बार रावत प्रत्याशी के रूप में मदन सिंह को स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के सामने खड़ा किया जाता रहा। ये बात दीगर है कि वे एक बार भी जीत नहीं पाए, मगर टक्कर कांटे की ही होती थी। परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाट मतदाताओं के मद्देनजर पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया, मगर महज 71 वोटों से हार गए। यानि की कांटे की टक्कर रही। दिसम्बर 13 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा ने जाट पर फिर दाव खेला, जो कि कामयाब हो गया। हालांकि उसमें कांग्रेस विरोधी लहर की ही अहम भूमिका थी। वे जब लोकसभा चुनाव लड़ कर सांसद बन गए तो यह सीट खाली हो गई और उनकी कोशिश तो यही थी कि उनके पुत्र रामस्वरूप लांबा को टिकट मिल जाए, मगर मौजूदा सांसदों के रिश्तेदारों को टिकट नहीं दिए जाने के पार्टी के फैसले की वजह से ऐसा हो नहीं पाया। हालांकि रावत समाज की इच्छा थी कि इस बार फिर उन्हें मौका दिया जाए, मगर जिले में पहले से ही दो रावत विधायक होने के कारण यह संभव नहीं था। भाजपा हाई कमान पहले ही तय कर चुका था कि किसी जाट को ही टिकट दिया जाएगा। एक मात्र कारण ये था कि पूर्व मंत्री दिगम्बर सिंह का नाम भी चला, मगर स्थानीयतावाद के आगे पार्टी को झुकना पड़ा। वैश्य समाज से पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा व ब्राह्मण समाज से देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत ने भी टिकट मांगा, मगर उस पर गौर नहीं किया गया।
जाट समाज को टिकट देने की वजह स्पष्ट है कि प्रो. जाट के सीट खाली करने के बाद जाट समाज यह बर्दाश्त कर सकता था कि किसी और समाज को टिकट दिया जाता। अगर गलती से भाजपा कोई नया प्रयोग करती तो उसे जाट समाज झटका भी दे सकता था। खैर, अब सवाल आया कि किस जाट नेता को टिकट दिया जाए। पक्के कांग्रेसी रहे अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी ने लोकसभा चुनाव में खुल कर भाजपा का साथ दिया था, इस कारण उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी इनाम देगी, मगर बताया जाता है कि संघ ने उनका विरोध कर दिया। ऐसे में आखिरी विकल्प के रूप में सरिता गेना का नाम तय किया गया, जो कि पूर्व में जिला प्रमुख रह चुकी हैं। एक तरह से देखा जाए तो सरिता के लिए यह एक लाटरी के टिकट की तरह है। अब ये लॉटरी खुलती है या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।
अजमेर जिले में जिला प्रमुख बनने के बाद विधानसभा का टिकट पाने वाली सरिता गैना दूसरी महिला बन गई हैं। इससे पहले पूर्व जिला प्रमुख सुशील कंवर पलाड़ा को मसूदा से भाजपा ने टिकट दिया और वह विधायक बनी। उन्होंने उस धारणा को भंग कर दिया कि जो नेता एक बार जिला प्रमुख बन गया, उसके राजनीतिक भविष्य पर पूर्व विराम लग जाता है। बहरहाल, भाजपा ने सरिता पर दाव खेल दिया है, अब देखना ये है कि वह कितना कामयाब होता है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 23 अगस्त 2014

बाबा के उत्तराधिकार व सहज-सरल स्वभाव का लाभ मिलेगा रामनारायण गुर्जर को

हालांकि नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में भाजपा का प्रत्याशी घोषित होने के बाद ही यह कहा जा सकेगा कि भिड़ंत कैसी रहेगी, मगर कांग्रेस प्रत्याशी रामनारायण गुर्जर को पुड्डुचेरी के पूर्व उपराज्यपाल बाबा गोविंद सिंह गुर्जर की विरासत और खुद के सहज-सरल स्वभाव का लाभ जरूर मिलेगा। बाबा के दो अन्य उत्तराधिकारियों पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर व सुनिल गुर्जर की तुलना में वे बेशक बेहतर उम्मीदवार माने जा रहे हैं। कुद शिकायतों के कारण पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर की प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से ट्यूनिंग गड़बड़ हो चुकी थी, कदाचित इस कारण वे टिकट से वंचित रह गए, जबकि इस प्रतिष्ठापूर्ण चुनाव के लिहाज से सुनिल गुर्जर की अनुभवहीनता टिकट में आड़े आ गई।
जहां तक रामनारायण गुर्जर का सवाल है, उन्हें बाबा के साथ लंबे समय तक राजनीतिक यात्रा करने का अनुभव है, साथ ही कांग्रेस संगठन के अतिरिक्त श्रीनगर पंचायत समिति के प्रधान के रूप में काम करने का भी अनुभव है। इससे भी बड़ी बात ये है कि उनकी छवि साफ सुथरी है और सहज-सरल स्वभाव के कारण लोकप्रिय हैं। जो कुछ भी हो, मगर कांग्रेस की ओर से यह सीट बाबा की विरासत के रूप में ही काउंट हो गई है। ज्ञातव्य है कि बाबा गोविंद सिंह गुर्जर इस सीट पर 1980 से 2003 तक लगातार छह बार विजयी रहे। उनके निधन के बाद 2008 में महेन्द्र सिंह गुर्जर विजयी हुए। उन्होंने पूर्व मंत्री सांवरलाल जाट को मामूली अंतर से हराया। इसके 2013 के चुनाव में मोदी लहर के चलते जाट ने यह सीट हथिया ली।
यहां आपको बता दे कि हालांकि कुछ और गुर्जर नेताओं ने भी दावेदारी की थी, मगर उनका कद इतना बड़ा नहीं था कि उन पर दाव खेला जा सके। चाहते तो स्वयं सचिन पायलट या उनकी माताश्री रमा पायलट भी चुनाव मैदान में उतर सकती थीं, मगर उन्होंने अपने आप को रोक लिया।
आइये, जरा रामनारायण गुर्जर के बारे में भी कुछ जान लें:-
नसीराबाद इलाके में बाऊजी के नाम से सुपरिचित रामनारायण गुर्जर का जन्म 15 अगस्त 1946 को नसीराबाद के सुत्तरखाना मोहल्ले में श्री गोगराज गुर्जर के आंगन में हुआ। मैट्रिक तक शिक्षा अर्जित करने के बाद वे ट्रांसपोर्ट कंपनी में मैनेजर रहे। वे 1988 में नसीराबाद नगर कांग्रेस अध्यक्ष बने और 1992 तथा 2000 में जिला देहात कांग्रेस के उपाध्यक्ष रहे। वे 1995 तथा 2005 में जिला परिषद सदस्य रहे। इसके 2010 में श्रीनगर पंचायत समिति सदस्य बने और 10 फरवरी 2010 को कांग्रेस के 8 और भाजपा के 11 सदस्य होने के बावजूद श्रीनगर पंचायत समिति के प्रधान बन कर अपने राजनीतिक कौशल का परिचय दिया।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

यानि रमा का नाम चार दावेदारों की रणनीति का हिस्सा था

नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की ओर से जैसे ही अचानक अपेक्षा से पहले रामनारायण गुर्जर का नाम घोषित हुआ है, उससे यह साफ हो गया है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की माताश्री रमा पायलट का नाम कैसे उभर कर आया। अपुन को पहले ही आशंका थी कि पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर के साथ तीन और दावेदार हरिसिंह गुर्जर, सौरभ बजाड़ और पार्षद नौरत गुर्जर आए हैं तो या तो ये ऊपर से इशारा है या फिर यह भी एक रणनीति है। रामनारायण गुर्जर का नाम घोषित होने से तो साफ ही हो गया कि रमा का नाम इन चारों दावेदारों की उपज था। वो इसलिए कि  महेन्द्र सिंह गुर्जर को पता लग गया था कि टिकट रामनारायण गुर्जर को मिलने जा रहा है, इस कारण अपने साथ तीन और दावेदारों को जोड़ कर दबाव बनाने की कोशिश की। वे जानते थे कि अन्य तीन को टिकट मिलना नहीं है, क्योंकि उनका कद इतना बड़ा नहीं है, मगर ऐसा करने से प्रदेश आलाकमान दबाव में आ जाएगा। अगर उनको टिकट नहीं भी मिलता है तो कम से कम रामनारायण गुर्जर को नहीं मिले, इस कारण खुद की रमा पायलट का नाम भी सुझा दिया। उनको लगता था कि सचिन अपनी मां के नाम पर तुरंत सहमत हो जाएंगे, मगर सचिन किसी चक्कर में नहीं आए।
ज्ञातव्य है कि रमा पायलट वाली मांग के मामले में रामनारायण गुर्जर व स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के दत्तक पुत्र सुनील गुर्जर शांत थे। इसी से ऐसा प्रतीत हुआ कि कहीं न कहीं कुछ पेच है।
खैर, अब जबकि नाम घोषित हो गया है तो यह सोचने का विषय होगा कि क्या महेन्द्र सिंह गुर्जर सहित चारों दावेदार उनका पूरा समर्थन करेंगे। आशंका इस कारण उत्पन्न होती है क्योंकि उन्होंने ही एक गुट बना कर दबाव कायम करने की कोशिश की थी।
एक बात और, बेशक कांग्रेस के पास मौजूदा विकल्पों में से रामनारायण गुर्जर ही बेहतर विकल्प हैं, क्योंकि वे बाबा के परिवार से हैं, बुजुर्ग हैं, मगर रमा पायलट से बेहतर नहीं। इसकी वजह ये है कि कांग्रेस यह सीट प्रतिष्ठा का सवाल बनाने पर ही जीतने की स्थिति में आ सकती है। रामनारायण गुर्जर के मामले में शायद ऐसा न हो। सब दावेदारों को एकजुट करना कुछ कठिन हो सकता है, जबकि रमा के आने पर सचिन के कारण खुद ब खुद दावेदार एक हो जाते। अगर रमा मैदान में उतरतीं तो कांग्रेस शर्तिया टक्कर लेने की स्थिति में होती। फिर भी रामनारायण गुर्जर को कमजोर नहीं माना जा सकता।  वे गुर्जरों को इस नाते एक जुट करने में कामयाब हो सकते हैं कि बाबा की विरासत को फिर से उनके परिवार में लाना है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

ये रमा पायलट का नाम कहां से आया?

नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में कांग्रेस की ओर से यकायक प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट की माताश्री रमा पायलट का नाम उभर आया है। दिलचस्प बात ये है कि खुद दावेदारों ने ही उनका नाम सुझाया है। हालांकि अब तक ये माना जा रहा था कि विशेष परिस्थिति में स्वयं सचिन भी मैदान में उतर सकते हैं, मगर बताते हैं कि उन्होंने चुनाव न लडऩे की बात कह दी है।
अब जब कि रमा पायलट का नाम आया है तो इसमें दो ही बातें हो सकती हैं। या तो ऊपर से सुझाया गया है कि रमा पायलट का नाम लो और उनको प्रत्याशी बनाने की मांग करो, या फिर ये भी एक रणनीति का हिस्सा है। ज्ञातव्य है कि रमा का नाम सुझाने वाले नेताओं में पूर्व विधायक महेंद्र गुर्जर, हरिसिंह गुर्जर, सौरभ बजाड़ और पार्षद नौरत गुर्जर शामिल हैं, जबकि अन्य प्रबल दावेदार रामनारायण गुर्जर व सुनील गुर्जर इस मामले में शांत हैं।  इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कहीं न कहीं कुछ पेच है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि रमा की मांग करने वालों में से केवल पूर्व विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर ही प्रबल दावेदार हैं। वजह साफ है कि वे पहले विधायक रहे हैं और बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के परिवार से हैं। असल में इस सीट पर दावा ही बाबा के परिवार का है, जिसका कि इलाके पर खासा अच्छा प्रभाव है। यही वजह है कि बीच में किसी ने बाबा की धर्मपत्नी का नाम भी सुझाया था। वैसे बाबा के परिवार से मुख्य रूप से महेन्द्र सिंह गुर्जर, रामनारायण गुर्जर व सुनील गुर्जर के नाम ही आगे हैं। इनमें से कोई भी आगे आए और बाकी के दोनों व अन्य दावेदार पूरा साथ दें तो यह सीट कांटे की टक्कर की बन सकती है।  मगर अब जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर के साथ हरिसिंह, सौरभ व नौरत आए हैं, इससे लगता है कि महेन्द्र सिंह अपनी दावेदारी मजबूत कर रहे हैं। रहा सवाल रमा पायलट का तो यदि प्रदेश अध्यक्ष चाहेंगे तो वे इंकार भी नहीं कर सकते। ऐसे में लगता ये भी है कि उन्हें ये कहा गया हो कि रमा के नाम पर अपनी सहमति दे दो। जो कुछ भी हो, मगर इतना तय है कि अगर रमा मैदान में उतरीं तो यहां कांग्रेस टक्कर लेने की स्थिति में आ जाएगी। वे न केवल खुद राजनीति की खिलाड़ी हैं, अपितु प्रदेश अध्यक्ष के नाते उनके पुत्र का भी साथ होने से मजबूत उम्मीदवार साबित होंगी। भाजपा को भी उनकी ही टक्कर का नेता मैदान में उतारना होगा।
कांग्रेस इस चुनाव को लेकर विशेष उत्साहित है। इसी कारण अब तक टिकट के लिए प्रतिद्वंद्वी दावेदार भी कहने लगे हैं कि किसी को भी टिकट दे दो, जिताने के लिए जान लड़ा देंगे। कांग्रेस के उत्साह की वजह ये भी है कि  लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन विधानसभा चुनाव से बेहतर रहा। वो ये कि वह सिर्फ 10 हजार 999 मतों से ही पिछड़ी, जबकि विधानसभा चुनाव में सांवर लाल जाट 28 हजार 900 मतों से जीते थे। अपने ही विधानसभा क्षेत्र में जाट का पिछडऩा तनिक सोचने को विवश करता है, मगर इसकी वजह ये आंकी जाती है कि लोकसभा चुनाव में खुद सचिन पायलट के होने के कारण गुर्जर मत एकजुट हो गए थे। जो भी हो, मगर अंतर कम होना कांग्रेस की हताशा को कम तो करता है। एक और फैक्टर भी कांग्रेसी अपने पक्ष में गिन कर चल रहे हैं कि महंगाई का हल्ला मचा कर जिस प्रकार भाजपा केन्द्र व राज्य में सत्ता में आई और उसके बाद महंगाई और बढ़ गई है, इस कारण आम जनता में अंदर ही अंदर प्रतिक्रिया पनप रही है। राज्य में भाजपा सरकार का अब तक कोई खास परफोरमेंस भी नहीं रहा है, इस कारण कांग्रेसी मानते हैं कि आम जन का भाजपा से मोह भंग हुआ होगा। खैर, देखते हैं कि कांग्रेस किसे चुनाव मैदान में उतारती है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 16 अगस्त 2014

मात्र दस दिन में तय करने होंगे प्रत्याशी

हालांकि पहले यह जानकारी आई थी कि विधानसभा चुनाव सितम्बर-अक्टूबर में होंगे, मगर यकायक इसका कार्यक्रम अगस्त-सितंबर में कर दिए जाने से सभी अचंभित हैं। हालांकि प्रशासन को शायद पहले से अनुमान था, इस कारण उसने अपनी तैयारी शुरू कर दी थी, मगर विशेष रूप से कांग्रेस व भाजपा के नेता अचंभित हैं, जिन्होंने अभी कोई खास कवायद शुरू नहीं की थी।
ज्ञातव्य है कि नई सूचना के अनुसार निर्वाचन आयोग ने उपचुनाव 13 सितबर को कराने का कार्यक्रम जारी किया है। 16 सितंबर को मतगणना होगी। उपचुनाव की अधिसूचना 20 अगस्त को जारी होगी। अधिसूचना जारी होने के पश्चात नामांकन पत्र भरने का काम शुरू हो जाएगा, जिसकी अन्तिम तिथि 27 अगस्त होगी, 28 अगस्त को नामांकन पत्रों की जांच होगी तथा 30 अगस्त को नामांकन पत्र वापस लिए जा सकेंगे। यानि कि अब मात्र दस दिन ही रह गए हैं प्रत्याशी घोषित होने में। दूसरी ओर राजनीतिक दलों ने अभी तक प्रत्याशी चयन की कवायद आरंभ नहीं की है। अंदर ही अंदर भले ही विचार चल रहा हो।
जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह विधानसभा चुनाव में नसीराबाद सहित अजमेर जिले की सभी सीटों पर हारने और अजमेर संसदीय क्षेत्र में मौजूदा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के बुरी तरह से पराजित होने के बाद हतोत्साहित है मगर नसीराबाद में को लेकर हताशा में नहीं है। कांग्रेसी थोड़े से आश्वस्त इस वजह से हैं कि लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन विधानसभा चुनाव से बेहतर रहा। वो ये कि वह सिर्फ 10 हजार 999 मतों से ही पिछड़ी, जबकि विधानसभा चुनाव में सांवर लाल जाट 28 हजार 900 मतों से जीते थे। अपने ही विधानसभा क्षेत्र में जाट का पिछडऩा तनिक सोचने को विवश करता है, मगर इसकी वजह ये आंकी जाती है कि लोकसभा चुनाव में खुद सचिन पायलट के होने के कारण गुर्जर मत एकजुट हो गए थे। जो भी हो, मगर अंतर कम होना कांग्रेस की हताशा को कम तो करता है। एक और फैक्टर भी कांग्रेसी अपने पक्ष में गिन कर चल रहे हैं कि महंगाई का हल्ला मचा कर जिस प्रकार भाजपा केन्द्र व राज्य में सत्ता में आई और उसके बाद महंगाई और बढ़ गई है, इस कारण आम जनता में अंदर ही अंदर प्रतिक्रिया पनप रही है। राज्य में भाजपा सरकार का अब तक कोई खास परफोरमेंस भी नहीं रहा है, इस कारण कांग्रेसी मानते हैं कि आम जन का भाजपा से मोह भंग हुआ होगा। जहां प्रत्याशी का सवाल है, माना जाता है कि कांग्रेस किसी गुर्जर को ही मैदान में उतारेगी। वैसे विधानसभा चुनाव में हारे महेंद्र सिंह गुर्जर, श्रीनगर प्रधान रामनारायण गुर्जर, सुनील गुर्जर, पूर्व संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत, पार्षद नौरत गुर्जर, पूर्व मनोनीत पार्षद सुनील चौधरी आदि लाइन में हैं। कुछ नेताओं की ओर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे नसीराबाद सीट से चुनाव लड़ें।
भाजपा की बात करें तो नसीराबाद से जीतने के बाद इस्तीफा देकर लोकसभा चुनाव लडऩे वाले प्रो. सांवर लाल जाट अपने बेटे रामस्वरूप लांबा के लिए टिकट का प्रयास करेंगे। पूर्व में तीन बार स्वर्गीय गोविंद सिंह गुर्जर से हार चुके मदन सिंह रावत, जिला परिषद सदस्य ओमप्रकाश भडाणा, राजेंद्र सिंह रावत, केसरपुरा के पूर्व सरपंच शक्ति सिंह रावत के नाम भी चर्चा में हैं। उनके अतिरिक्त पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा व अनिरुद्ध खंडेलवाल भी हाथ मारने की फिराक में हैं। देहात जिला भाजपा अध्यक्ष बनाए गए प्रो. बी. पी. सारस्वत का चांस अब कम है। जिले से बाहर के नेता भी नजरें गड़ाए हुए हैं, जिनमें पूर्व मंत्री दिगंबर सिंह, आरपीएससी के पूर्व सदस्य ब्रह्मदेव गुर्जर, गुर्जर नेता अतर सिंह भडाणा आदि शामिल हैं।

यादव व किरण की बदोलत अजमेर का बढ़ा मान

भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र सिंह यादव को महामंत्री और अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ चुकीं विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी को उपाध्यक्ष बनाए जाने से अजमेर का मान बढ़ा है। ऐसी उम्मीद की जा रही है कि केन्द्र व राज्य में भाजपा की सरकार होने और भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अजमेर के दो दमदार नेताओं के महत्वपूर्ण पदों पर पहुंचने से अजमेर को लाभ होगा। वे यहां के विकास के लिए भरपूर दबाव बनाएंगे। हालांकि उनकी नियुक्ति के साथ ही यह लगभग तय माना जा सकता है कि अजमेर को केन्द्रीय मंत्रीमंडल में स्थान नहीं मिल पाएगा।
आपको ज्ञात होगा कि यादव अपनी कॉलेज लाइफ अजमेर में बिता चुके हैं और उनकी अजमेर में खासी रुचि है। इसी कारण यदाकदा अजमेर आते भी रहते हैं। अजमेर उनकी नजर कितना महत्वपूर्ण है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने अपने खासमखास अरविंद यादव को शहर भाजपा का अध्यक्ष बनवाया है, ताकि संगठन पर यहां उनकी पकड़ रहे। यहां उनके चहेतों में पूर्व नगर परिषद सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत व पार्षद जे. के. शर्मा की गिनती होती है। जाहिर है वे भी अब प्रभावशाली भूमिका में होंगे।

जहां तक श्रीमती किरण माहेश्वरी का सवाल है, हालांकि वे अभी अजमेर जिले से विधायक नहीं है, मगर अजमेर संभाग की होने और अजमेर से लोकसभा चुनाव लड़ चुकने के कारण उनका अजमेर से लगाव है। लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद भी वे यहां कई बार आती रही हैं। वे कह भी चुकी हैं कि भले ही वे अजमेर से हार गईं, मगर यहां का सदैव ध्यान रखेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि वे अपने वादे पर कायम रहेंगी। अजमेर में उनकी कितनी प्रतिष्ठा है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शहर भाजपा की ओर से जारी बधाई संदेश में उनका भी नाम है।