रविवार, 5 अप्रैल 2020

अजमेर में जैन संस्कृति का गौरवशाली इतिहास

महावीर जयंती पर विशेष
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली
अजमेर के इतिहास में झांक कर देखें तो यहां जैन संस्कृति का इतिहास गौरवशाली रहा है। चौहान काल में जैन आचार्य जिनदत सूरी, आयार्च धर्म घोष सूरी व पंडित गुणचंद्र की साधना स्थली होने का गौरव भी अजमेर को हासिल है। मुगल काल में भी जैनाचार्यों व भट्टारकों को विशेष सम्मान हासिल था।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार बारहवीं सदी में अजमेर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनके देहांत के बाद यहां दादाबाड़ी का निर्माण हुआ, जिसकी बहुत मान्यता है। इतिहास की पुस्तकों में ऐसी भी जानकारी है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां इन्दर कोट बनवाया, जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है। इतिहासविदों का मानना है कि पद्मसेन नामक एक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। उनके समय में अजमेर से खुंडियावास गांव तक 108 मंदिर थे। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि खुदाई के दौरान जो ईंट व स्तम्भ निकले हैं, वे जैन मंदिरों की वास्तुशिल्प से मेल खाते हैं। पद्मावती नगरी बड़ली, किशनपुरा, पुष्कर व नरवर तक फैली हुई थी।
यह सर्वविदित है कि 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ था, जिनकी छतरी आज भी मौजूद है। इसी साल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। तकरीबन 175 साल के बाद एक और पंच कल्याणक आयोजित किया गया। वीरम जी गोधा ने गोधा गवाड़ी में श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण भी कराया। बताया जाता है कि राजा अजयराज चौहान ने पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया था। क्रिश्चियन गंज इलाके में स्थित जैन आचार्यों की छतरियां छठी-सातवीं सदी की हैं। इतना ही नहीं अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) तक के कालखंड में अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के कई शस्त्रार्थ हुए। इस दौरान जैन विद्वानों ने कई नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित  हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई।
यह उल्लेखनीय जानकारी भी पुस्तकों में मौजूद है कि सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी थी। 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की स्मृति में स्तम्भ बनवाया। 1171 ईस्वी में विशाल पंच कल्याणक महोत्सव हुआ।
चौहान काल के बाद लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौरान सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध हुआ। अंग्रेजों के राज के दौरान पुन: जैन संस्कृति का अभ्युदय हुआ व जैन मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। आजादी के बाद निकटवर्ती नारेली गांव में ज्ञानोदय तीर्थ का निर्माण जैन संस्कृति के विकास में एक अहम कदम माना जाता है।
यहां प्रस्तुत है अजमेर के प्रमुख जैन धर्म स्थलों का विवरण, जो अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक से साभार लिया गया है:-
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली 
अजमेर शहर से दस किलोमीटर दूर किशनगढ़-ब्यावर बाईपास पर नारेली गांव के पास तीन सौ बीघा क्षेत्र में बने इस तीर्थ क्षेत्र की स्थापना तीस जून 1995 में जैन मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से की गई। मुनिश्री के सान्निध्य में सिंह द्वार का शिलान्यास 16सितंबर 2000 को किया गया। लाल पत्थर से बना यह द्वार 81 फीट ऊंचा है। तलहटी में बने जिनालय में भगवान ऋषभदेव की 21 फीट की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया। मुनिश्री सान्निध्य में 3 दिसंबर 1997 को त्रिमूर्ति का शिलान्यास किया गया। तीर्थ परिसर में भगवान शांतिनाथ, कुन्थनाथ व अरहनाथ की अष्टधातु की 11-11 फीट मूर्तियां हैं। भगवान बाहुबली की अष्टधातु की प्रतिमा भी स्थापित है। तीर्थ क्षेत्र में एक हजार आठ जिनबिम्ब विराजमान हैं। यहां आठ बड़ी प्रतिमाएं हैं। इसका शिलान्यास 31 जनवरी 1998 को किया गया। पहाड़ी पर भगवान शीतलनाथ, महावीर व आदिनाथ की अष्टधातु की प्रतिमाएं हैं। तीर्थ परिसर में दस दिसंबर 1995 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने गौशाला का उद्घाटन किया। इसी प्रकार 1 मार्च 1998को औषधालय का शिलान्यास किया गया। भोजनशाला का शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया, जिसमें एक साथ दो हजार व्यक्ति बैठ सकते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
महापूत जिनालय
सरावगी मोहल्ले के नुक्कड़ पर ही करौली के लाल पत्थर से बना तीन मंजिला मंदिर है। इसे महापूत जिनालय के अतिरिक्त सेठ साहब का मंदिर भी कहा जाता है। इसमें भट्टारक भवन कीर्तिजी ने सेठ मूलचंद सोनी के आर्थिक सहयोग से भगवान सुपाश्र्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। यदि मंदिर स्थापत्य कला का नायाब नमूना है।
त्रिकाल चौबीसी
गोधा गवाड़ी में स्थित यह मंदिर करीब तीन सौ साल पुराना है। इसमें चौबीसों तीर्थंकरों की 72 प्रतिमाएं हैं। ये सभी अष्टधातु की हैं। महावीर जयंती पर यहां विशेष आयोजन होता है।
मां पदमावती मंदिर
मां पदमावती का यह मंदिर पूरे भारत में एक ही है। यहां भगवान महावीर स्वामी की भी प्रतिमा है। महावीर जयंती के मौके पर भगवान महावीर का कलशाभिषेक कर विधान पढ़ा जाता है। इसके अतिरिक्त मोइनिया इस्लामिया स्कूल में वात्सल्य भोज के बाद जैन समाज के सभी बंधु आरती के लिए यहां आते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
गुफा मंदिर
यह सरावगी मोहल्ले में स्थित है। यहां 1995 में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। स्थापना के वक्त यहां भगवान आदिनाथ का कलाशाभिषेक भी हुआ था।
दादाबाड़ी
बीसलसर झील के किनारे कायम दादाबाड़ी श्वेताम्बर संप्रदाय के जैन संत जिनवल्लभ सूरी के शिष्य श्री जिनदत्त सूरी जी की स्मृति में बनी हुई है। उन्होंने अनेक राजपूतों को जैन धर्म की दीक्षा दी। श्री जिनदत्त दादा के नाम से जाने जाते थे, इसी कारण उनके समाधि स्थल को दादाबाड़ी के नाम से जाना जाता है। यहां भगवान श्री पाश्र्वनाथ का मंदिर भी है। मूर्ति पर विक्रम संवत 1535 (ईस्वी 1478) खुदा हुआ है। यहां आषाढ़ शुक्ला दशमी और एकादशी को दादा जी की स्मृति में मेला आयोजित किया जाता है। यहां बाहर से आने वाले यात्रियों के रहने की भी सुविधा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000