बुधवार, 9 जनवरी 2013

आम लोगों को ही जोड़ पाई कीर्ति पाठक


कभी देवनानी साथ हुआ करते थे, मगर आज नहीं
आम आदमी पार्टी की अजमेर जिले की कार्यकारिणी यथा नाम तथा गुण वाली ही साबित हो गई। इसमें जिला संयोजक कीर्ति पाठक को छोड़ कर एक भी चेहरा ऐसा नहीं है, जिसकी जिले में कोई पहचान हो या किसी की किसी क्षेत्र में कोई खास उपलब्धि रही हो। यूं तो कीर्ति पाठक का भी कोई लंबा इतिहास नहीं है, मगर अन्ना आंदोलन के साथ अजमेर के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने के बाद उन्होंने अपने बौद्धिक स्तर और उग्र तेवरों से अलग पहचान तो बनाई ही है।
खैर, कुल मिला कर आम आदमी पार्टी में आम आदमी ही हैं, कोई खास नहीं। बड़ी अच्छी बात है, होना भी नहीं चाहिए, यही उनका सिद्धांत है। वैसे इसका अर्थ ये भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि आम आदमी पार्टी की कोई क्रेडिट नहीं है, क्योंकि कई बार ठीकरी भी घड़ा फोड़ देती है। खुद कुछ हासिल कर पाए न पाए, कम से कम रायता तो बिखेर ही सकती है। कांग्रेस व भाजपा को समान रूप से गाली दे सकती है। जिस मामलों में दोनों पार्टियों की मिलीभगत होती है, उनमें आलोचना करने को कम से कम कोई एक तो पैदा हुआ। एसपी राजेश मीणा मंथली प्रकरण में खुल कर दोनों दलों को निशाने पर लेने को इसका ताजा उदाहरण माना जा सकता है।
अब गिनती के लोग ही साथ नजर आते हैं
असल में जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में इंडिया अगेंस्ट करप्शन का आंदोलन चला तो उसे अजमेर में भी अच्छा खासा समर्थन मिला था। उसमें आम जन की तो भागीदारी थी ही, आरएसएस और भाजपा के लोग भी समर्थन कर रहे थे। कोई फ्रंट में तो कोई बैक ग्राउंड में। अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी तो खुल कर साथ दिखाई दिए। एक बार अरविंद केजरीवाल की सभा में प्रो. देवनानी के साथ संघ महानगर प्रमुख सुनिल जैन भी नजर भी नजर आए। वस्तुत: तब भाजपा मानसिकता के लोगों का मकसद था कि जैसे भी हो कांग्रेस के खिलाफ चल रहे माहौल को गरमाया जाए। यही वजह रही कि उन दिनों अजमेर में आंदोलन का नेतृत्व कर रही कीर्ति पाठक को अच्छा समर्थन मिल रहा था। उनके प्रतिद्वंद्वी धड़े का भी लोग साथ दे रहे थे, हालांकि अब उसका कोई अता-पता नहीं है। बाद में जब अन्ना के खास सेनापति अरविंद केजरीवाल ने अपनी अलग से पार्टी बनाई तो लोगों को जुनून ठंडा पड़ गया। आंदोलन के साथ जितने लोग थे, वे पार्टी के साथ जुडऩे को तैयार नहीं हुए। चूंकि अब उस आंदोलन की शक्ल राजनीतिक पार्टी ने अख्तियार कर ली है, इस कारण लोग अब उससे परहेज करने लगे हैं। वे सिर्फ निस्वार्थ आंदोलन के साथ थे, सत्तालोलुप पार्टी के प्रति नहीं। भाजपा के लोग तो उससे पूरी तरह से दूर रहने लगे हैं। वैसे भी केजरीवाल ने जब से भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ मोर्चा खोला, तब से भाजपाइयों को केजरीवाल समर्थक फूटी आंख नहीं सुहाते। यानि कि जो लोग तक गलबहियां कर रहे थे, वे भी मुंह फेर चुके हैं। ऐसे में समर्थकों का टोटा होना ही था। आंदोलन ने जो ऊंचाई छुई थी, उसका दसवां हिस्सा भी पार्टी के साथ नहीं जुड़ पाया है। हालांकि कीर्ति पाठक की कोशिश में कोई कमी नहीं है, मगर जाने-पहचाने व प्रभावशाली लोग इस पार्टी के साथ जुडऩे में कोई रुचि नहीं दिखा रहे। बिना भावी स्वार्थ के जुड़ता भी कौन है? स्वाभाविक सी बात है कि वे जानते हैं कि सरकार या तो कांग्रेस की बनेगी या फिर भाजपा की, ऐसे में नई नई पार्टी से कौन जुड़े? इसी का नतीजा है कीर्ति पाठक के नेतृत्व में गठित टीम का चेहरा। ये टीम कैसे आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनाव लड़वाएगी, अब इस पर सवाल उठ खड़े होने लगे हैं। अर्थात पार्टी को खड़ा करने और उसे चलाने में कीर्ति पाठक को बहुत जोर आएगा और वो भी खुद की जेब के खर्चे पर।
-तेजवानी गिरधर