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सोहन सिंह चौहान |
राजस्थान मगरा विकास बोर्ड के नव नियुक्त अध्यक्ष सोहन सिंह चौहान ने अपनी नियुक्ति के बाद पहली बार ब्यावर पहुंचने पर ऐलान किया कि वे मगरा क्षेत्र के विकास में कोई कसर नहीं छोडेंग़े। वे खुद सरपंच व प्रधान के रहे हैं, ऐसे में वे खुद भी मगरा क्षेत्र से वाकिफ हैं। जल्द ही जनता से रूबरू होंगे और क्षेत्र की समस्याओं के लिए सरपंच व प्रधानों से भी मिलेंगे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिल कर समस्याओं का समाधान कराएंगे। बेशक ऐसी सुहावनी बातें किसी भी नवनियुक्त जनप्रतिनिधि करनी ही चाहिए, करते ही हैं, मगर सवाल ये उठता है कि वे मौजूदा सरकार के शेष रहे चार माह में ऐसा क्या वे जादू से करेंगे? क्या जादूगरी में माहिर अशोक गहलोत से नियुक्ति पत्र के साथ कोई जादू भी सीख कर आए हैं? सच तो ये है कि किसी भी जनप्रतिनिधि को चार माह तो संबंधित लोगों से मिलने और समस्याओं को जानने और उनके निराकरण के लिए प्रस्ताव बनाने में ही लग जाता है। उसके बाद आती है बजट राशि की बात। समस्याओं के निवारण के लिए उतनी राशि भी तो होनी चाहिए। असल में यह तभी संभव होता है, जबकि समस्याओं का सतत निवारण किया जाए और समय-समय पर अपेक्षित बजट भी आवंटित किया जाए, जो कि अब इन चार माह में तो संभव नजर नहीं आता।
ज्ञातव्य है कि अरावली पर्वत शृंखला से जुड़ी 14 पंचायत समितियों के एक हजार गांवों के लोगों के उत्थान तथा विकास के मद्देनजर पिछली भाजपा सरकार ने इस बोर्ड का गठन किया था, जो कांग्रेस राज आने के बाद अस्तित्वविहीन हो गया। सरकार ने बोर्ड के लिए न तो किसी प्रकार का बजट आवंटित किया और न ही किसी को अध्यक्ष मनोनीत किया। मात्र वोटों की राजनीति के लिए गठित इस बोर्ड का ख्याल भी भाजपा राज में तब आया, जबकि सरकार के कार्यकाल में मात्र नौ माह शेष बचे थे। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने 27 मार्च 2008 को मदन सिंह रावत को बोर्ड का पहला अध्यक्ष मनोनीत किया, मगर उसी साल दिसंबर में चुनाव के बाद भाजपा सरकार रुखसत हो गई। तब से पूरे साढ़े चार साल तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को बोर्ड के पुनर्गठन का ख्याल नहीं आया। इसी से साबित होता है कि सरकारें इस बोर्ड से होने वाले वास्तविक लाभ के प्रति कितनी गंभीर हैं। स्पष्ट है कि वोटों की खातिर वसुंधरा ने भी चुनावी साल में इसका गठन किया और अब गहलोत ने भी चुनाव नजदीक देख कर इसका पुनर्गठन कर दिया है।
जहां तक रावत के नौ माह के कार्यकाल का सवाल है, उनके वक्त विकास के लिए पांच करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया, जिससे पानी, बिजली, सड़क के साथ अन्य निर्माण काम भी इस बजट से कराए गए। हालांकि रावत ने मांग रखी थी कि बजट कम से कम बीस करोड़ रुपए का होना चाहिए।
बोर्ड के गठन की पृष्ठभूमि
वस्तुत: नरवर से दिवेर तक अरावली पर्वत शृंखला की तलहटी में पांच जिलों में फैले क्षेत्र में बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जिन्हें चौहान वंश का माना जाता है। इनमें प्रमुख रूप से रावत, चीता, मेहरात तथा काठात वर्ग के हैं। इनके अतिरिक्त भील, मीणा तथा गरासिया जातियां भी इस क्षेत्र में रहती हैं। माना जाता है कि इन जातियों के लोग आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं। क्षेत्र के उत्थान के लिए अंग्रेजी हुकूमत में भील, मीणा, गरासिया, रावत तथा मेहरात जाति के लोगों को आरक्षित जातियों की सूची में शामिल किया गया था। आजादी के बाद इनमें से रावत व मेहरात को हटा दिया गया, जबकि भील, मीणा तथा गरासिया जाति के लोग आज भी शामिल हैं। इन्हीं के विकास के लिए बोर्ड का गठन किया गया था।
बोर्ड के कार्यक्षेत्र में अजमेर, चित्तौडगढ़़, राजसमंद, पाली तथा भीलवाड़ा की 14 पंचायत समितियों को रखा गया। इनमें मसूदा के 137, जवाजा 193, निंबाहेड़ा के 32, आसींद के 65, रायपुर के 23(भीलवाड़ा), मांडल के 74, रायपुर के 41 (पाली), मारवाड़ जंक्शन के 41, भीम के 109, राजसमंद के 103, देवगढ़ के 131, आमेट के 136, कुंभलगढ़ के 161 तथा खमनोर पंचायत समिति के 132 गांव शामिल हैं। जब रावत अध्यक्ष थे तो उन्होंने अजमेर की श्रीनगर, पीसांगन तथा भिनाय पंचायत समितियों को भी शामिल करने के प्रस्ताव भेजा था, जो कि सरकार के जाने के साथ ठंडे बस्ते में चला गया।
-तेजवानी गिरधर