गुरुवार, 13 अक्तूबर 2011

यूआईटी का गठन न होने से अटका विकास

ढ़ाई साल से भी ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी प्रदेश की सरकार ने अब तक नगर सुधार न्यास का गठन नहीं किया है। चाहे इसके लिए सत्तारूढ़ कांग्रेस की भीतरी राजनीति जिम्मेदार हो या फिर सरकार का कोई असमंजस, मगर यह अजमेर शहर पर तो भारी ही पड़ रहा है। महत्वपूर्ण ये नहीं है कि अध्यक्ष और सदस्यों के रूप में मनोनयन से कांग्रेसी अब तक वंचित हैं और उनमें असंतोष बढ़ रहा है, बल्कि महत्वपूर्ण ये है कि शहर के विकास में अहम भूमिका अदा कर सकने वाली इस विशेष संस्था की निष्क्रियता से शहर का विकास अवरुद्ध हो रहा है। ये उतना महत्वपूर्ण नहीं है कि कांग्रेस के दावेदारों की अपेक्षा पूरी हो, बल्कि जरूरी ये है कि अजमेर वासियों की अपेक्षाएं पूरी हों।
ऐसा नहीं है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने कभी साफ मना किया है कि वे न्यास अध्यक्ष की नियुक्ति करेंगे ही नहीं और न ही इसके प्रति अरुचि दिखाई है। हर बार यही कहा कि जल्द ही होगी। मगर अब तक नियुक्ति न करने से खुद उनकी ही पार्टी के नेता और कार्यकर्ता समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर उनके मन में है क्या? अफसोसनाक बात तो ये है कि नियुक्ति को लेकर अनेक बार कवायद करने के बावजूद वे चुप बैठे हैं। बताते हैं कि नाम तक लगभग तय है और घोषणा भर की देरी है। लेकिन घोषणा न होने से अब तो यह समझा जाने लगा है कि वे नियुक्ति करने के मूड में ही नहीं हैं। कदाचित वे नियुक्ति के बाद होने वाली उठापटक से बचना चाहते हैं। कई बार तो उन्हें नियुक्ति के आदेश जारी न करने के बहाने भी उन्हें मिले हैं। कभी बजट सत्र तो कभी संगठन चुनाव। कभी लोकसभा चुनाव तो कभी स्थानीय निकाय व पंचायतीराज का चुनाव। हर बार उन्हें नियुक्ति टालने का मौका मिला है। अंंतत: निष्कर्ष ये निकाला गया कि वे किसी भी विवाद से बचने केलिए नए प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की नियुक्ति होने तक कोई कदम नहीं उठाना चाहते। उन्होंने ऐसा किया भी। जैसे ही प्रदेश अध्यक्ष पद पर डॉ. चंद्रभान की नियुक्ति हुई, ये आशा जगी कि अब तो कुछ होगा। नियुक्ति की संभावना इस कारण भी कायम हुई क्योंकि गहलोत के साथ डॉ. चंद्रभान ने भी यही कहा कि जल्द ही नियुक्ति हो जाएगी। मगर इसके बाद भी कुछ नहीं हुआ।
बहरहाल, इसका परिणाम ये है कि वह सब ठप्प पड़ा है, जिसकी न्यास से उम्मीद की जाती है। असल में इस बात के प्रमाण हैं कि जब भी न्यास के अध्यक्ष पद पर कोई राजनीतिक प्रतिनिधि बैठा है, शहर का विकास हुआ है। चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की। हर न्यास अध्यक्ष ने चाहे शहर के विकास के लिए चाहे अपनी वाहवाही के लिए, काम जरूर करवाया है। पृथ्वीराज चौहान स्मारक, महाराजा दाहरसेन स्मारक, विवेकानंद स्मारक, अशोक उद्यान, राजीव उद्यान सहित अनेक आवासीय योजनाएं उसका साक्षात प्रमाण हैं। जब भी सरकारी अधिकारियों ने न्यास का कामकाज संभाला है, उन्होंने महज नौकरी की बजाई है, विकास पर कोई ध्यान नहीं दिया है। पत्रकार कॉलोनी के लिए अरसे लंबित आवेदन उसका ज्वलंत उदाहरण हैं। दुर्भाग्य से सरकार की अरुचि के कारण नगर सुधार न्यास पिछले तकरीबन साढ़े चार साल से प्रशासनिक अधिकारियों भरोसे ही चल रहा है। ऐसे में विकास तो दूर रोजमर्रा के कामों की हालत भी ये है कि जरूरतमंद लोग चक्कर लगा रहे हैं और किसी को कोई चिंता नहीं। नियमन और नक्शों के सैंकड़ों काम अटके पड़े हैं। पिछले सात साल से लोग न्यास के चक्कर लगा रहे हैं, मगर नियमन के मामले नहीं निपटाए जा रहे। इसका परिणाम ये है कि अपना मकान बनाने का सपना मात्र पूरा होता नहीं दिखाई देता। स्पष्ट है कि विकास अवरुद्ध हुआ है।
असल में न्यास के पदेन अध्यक्ष जिला कलैक्टर को तो न्यास की ओर झांकने की ही फुरसत नहीं है। वे वीआईपी विजिट, जरूरी बैठकों आदि में व्यस्त रहते हैं। कभी उर्स मेले में तो कभी पुष्कर मेले की व्यवस्था में खो जाते हैं। न्यास से जुड़ी अनेक योजनाएं जस की तस पड़ी हैं। कुल मिला कर जब तक न्यास के सदर पद पर किसी राजनीतिक व्यक्ति की नियुक्ति नहीं होती, तब तक अजमेर का विकास यूं ही ठप पड़ा रहेगा।

300 करोड़ की दरगाह विकास योजना में लीपापोती की आशंका

सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के 800 वें सालाना उर्स के मौके पर दरगाह परिसर व अजमेर शहर के विकास के लिए सरकार की ओर से बनाई गई तीन सौ करोड़ की महत्वाकांक्षी योजना के क्रियान्वयन के लिए जितना समय बचा है, उससे साफ जाहिर है कि प्रशासन चाहे भी तो समय पूरे कार्य संपन्न नहीं कर सकता। ऐसे में आशंका इस बात की है कि कहीं लीपापोती ही हो कर न रह जाए।
यहां उल्लेखनीय है कि इस परियोजना के अन्तर्गत विभिन्न मार्गों के विकास, नालियों के निर्माण, सीवरेज, विद्युत सप्लाई उपकरण, सुरक्षा, पार्किंग, शौचालय, कोरिडोर, दरगाह शरीफ के प्रवेश द्वारों की चौड़ाई बढाना, अग्नि शमन, विश्राम स्थलियों का विकास, ईदगाह के विकास के साथ-साथ अजमेर शहर की कई बड़ी सड़कों के निर्माण एवं विकास का प्रावधान रखा गया है। ऐसी बड़ी योजना यदि पूरी तरह से लागू हो जाए और उस पर पूरी ईमानदारी के साथ काम हो तो शहर की काया ही पलट जाएगी। मगर समय के अभाव में संदेह ये होता है कि कहीं काम पूरे होने से पहले ही उर्स सर पर न आ जाए और बिखरी हुई निर्माण सामग्री व खुदे हुए गड्ढे वरदान की बजाय अभिशाप बन जाएं।
हालांकि यह समस्या प्रशासन भी अच्छी तरह से समझ रहा है, लेकिन उसने अभी तक कोई कार्य योजना नहीं बनाई है। होना दरअसल ये चाहिए कि काम दु्रत गति से निपटें, इसके लिए उच्च कोटि के प्रोजेक्ट प्रबंधन की व्यवस्था की जााए। क्रियान्वयन के लिए चुनिंदा विशेषज्ञों की इकाई का गठन किया जाए, जो समयबद्ध तरीके से कार्यों का प्रबंधन व मोनिटरिंग करे। समय पर कार्य पूरे कराने के लिए सभी कार्य रात्रि के समय भी कराने जरूरी होंगे। शहर के संकरे एवं दुर्गम मार्गों पर रात्रि के समय कार्य कराने से यातायात बाधित होने से भी बचाया जा सकता है।
आम तौर पर पाया गया है कि विकास योजनाओं में जनता और जनप्रतिनिधियों का अपेक्षित सहयोग नहीं मिलता। अमूमन तो जनता उसमें बाधा ही डालती है, क्योंकि उसे कुछ समय के लिए परेशानी होती है। ऐसे में बेहतर यह होगा कि जिस क्षेत्र में भी कार्य आरम्भ किया जाना है, उस क्षेत्र के सभी वर्गों को साथ लिया जाये। न सिर्फ कार्यों के चयन, प्राथमिकताओं के निर्णय निर्माण में सहयोग एवं रखरखाव के लिये इनकी राय ली जाये, बल्कि जनसहयोग प्राप्त करने के लिए जन सम्पर्क की एक विशेष इकाई भी बनाई जाये, जो होने वाले लाभों से लोगों को पहले से अवगत कराए।
एक अहम समस्या विभिन्न विभागों के बीच तालमेल नहीं होने की भी रहती है। इस कारण कई बार एक ओर तो सार्वजनिक निर्माण विभाग या नगर निगम व न्यास की देखरेख में सड़क बन जाती है और दूसरी जलदाय विभाग, बिजली विभाग व टेलीफोन महकमे के देखरेख में सड़क की खुदाई कर दी जाती है। इससे धन व समय का अपव्यय होता हो। अत: जरूरी है कि एक समन्वय इकाई हो, जो सभी विभागों के बीच तालमेल रखे।
यहां उल्लेखनीय है कि इससे पहले भी ख्वाजा साहब के 786वें उर्स में विशेष पैकेज आया था, मगर समय के अभाव में लीपापोती हुई और बाद में लंबे समय तक उसकी जांच होती रही। अत: बेहतर ये होगा कि योजना की समीक्षा भी इसी मौके पर हो जाए, ताकि एक तो यह जाना जा सके कि पहले क्या गलतियां हुईं, जिनसे अब बचा जा सके। दूसरे यह पता भी चले कि जिन कार्यों पर पहले पैसा खर्च हुआ बताया गया उनका अब वजूद भी हैं अथवा नहीं।

पाक मंत्री की सभा : प्रशासन की मुस्तैदी पर बड़ा सवाल

अजमेर में गत 30 सितम्बर को प्रशासन की अनुमति के बिना मेरवाड़ा एस्टेट में अवैधानिक व नियम विरुद्ध हुई पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्री मकदूम अमीन फहीम की सभा जिला प्रशासन व पुलिस की मुस्तैदी पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर रही है।
सबसे बड़ा सवाल तो ये है कि यह सभा आयोजित ही कैसे कर ली गई? इसके लिए अनुमति क्यों नहीं ली गई? सभा स्थल पर हजारों लोगों के एकत्रित होने पर पुलिस ने ऐतराज क्यों नहीं किया? अनुमति तो दूर की बात है, प्रशासन के प्रोटोकॉल अधिकारी और पुलिस अफसर खुद ही उनको एस्कॉर्ट कर सभा स्थल पर ले गए। उन अधिकारियों को यह ख्याल कैसे नहीं आया कि पाक मंत्री के जियारत कार्यक्रम में यह तो शामिल था ही नहीं। इसके अतिरिक्त इस सभा की अनुमति तो ली ही नहीं गई है। उन्हें वहां ले जाने से पहले उनसे अनुमति पत्र मांगा जाना चाहिए था, मगर वे सब कुछ चुपचाप देखते रहे। इससे सवाल ये उठता है कि आखिर वे चुप क्यों थे? क्या उन्हें ऊपर से कोई इशारा था? सवाल ये भी है कि पाकिस्तानी मंत्री की सभा में गुपचुप तरीके से हजारों लोग एकत्रित कैसे हो गए? वे सभी सीमावर्ती जिलों के थे और पाक मंत्री के मुरीद होने के नाते उनके दीदार करने आए थे। उनको एकत्रित करने वाला और सभा आयोजित करने वाला कौन था? सवाल ये है कि क्या पाकिस्तानी मंत्री का मकसद दरगाह जियारत के नाम पर अजमेर आकर सभा करना ही था? जांच का विषय ये भी है कि पाक मंत्री ने यहां सभा करने के अतिरिक्त किन-किन लोगों से मंत्रणा की और उसका मकसद क्या था? अफसोसनाक बात ये रही कि हरवक्त मुस्तैद रहने वाले मीडिया कर्मियों के मन में भी यह ख्याल नहीं आया कि यह सभा कैसे हो रही है। मीडिया ने दूसरे दिन भी कोई सवाल नहीं उठाया। तीसरे दिन जा कर भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष औंकार सिंह लखावत की इस मामले पर नजर पड़ी। उन्होंने तुरंत शहर भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत और विधायक द्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल को बुला कर पे्रेस कॉन्फ्रेंस की।
अफसोसनाक ये भी कम नहीं है कि अजमेर के घटनाक्रम के विषय में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह बयान दिया कि उन्हें इस विषय पर कोई शिकायत प्राप्त नहीं हुई हैं। कैसी विडंबना है कि राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़े इस मसले पर एक मुख्यमंत्री ऐसा कह रहे हैं, जबकि पूरा प्रशासन व पुलिस उन्हीं के नियंत्रण में है। होना तो यह चाहिए था कि भाजपा के ऐतराज करने से पहले ही उनको मामले की जांच करने के आदेश दे कर संबंधित जिम्मेदार अधिकारियों को तलब करना था।
जहां तक भाजपा के ऐतराज का सवाल है, वह भले ही प्रत्यक्षत: राजनीति लगे, लेकिन निष्पक्ष रूप से यह मसला वाकई बेहद आपत्तिजनक है। जिस मंत्री ने बिना अनुमति के यहां सभा की, वह उसी पाकिस्तान के हैं, जिसके इशारे पर हमारे आए दिन आतंकी घटनाएं होती हैं। उस देश के मंत्री का अजमेर में भारत के सीमांत जिलों बाड़मेर और जैसलमेर से आए हजारों लोगों को उनके धार्मिक नेता के रूप में संबोधित करना घोर आपत्तिजनक है। इससे राज्य व केन्द्र सरकार की कार्य प्रणाली पर प्रश्नचिन्ह लग गया है।
इन सबसे इतर पाक मंत्री की यह हरकत अजमेर जैसे अंतराष्ट्रीय महत्व के शहर में करना बेहद चिंतनीय है। अजमेर को दरगाह ख्वाजा साहब और तीर्थराज पुष्कर की वजह से सर्वाधिक संवेदनशील शहरों में शुमार किया जाता है। दरगाह में बम विस्फोट और पुष्कर में मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड का खबाद हाउस की रेकी करने जैसी घटनाएं हो चुकी हैं। उसके बाद तो अजमेर और भी असुरक्षित हो गया है। इसके बाद भी प्रशासन व पुलिस ने लापरवाह बरती तो वह पूरी तरह से इस घटना के लिए जवाबदेह हो गया है। राज्य सरकार को चाहिए कि वह मामले की पूरी जांच करवा कर दोषी अधिकारियों को दंडित करे।

न्यास अध्यक्ष पद को लेकर उभरा खंडेलवाल का नाम

अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद पर नियुक्ति का मामला काफी दिन से अटका हुआ है, इस कारण अब जब भी इसके बारे में कोई समाचार आता है तो यही लगता है कि अफवाह होगी, मगर ताजा जानकारी ये है कि इस पद को लेकर यकायक कवायद तेज हो गई है।
राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि दावेदारों की भागदौड़ में यूं तो पूर्व विधायक डॉ. के. सी. चौधरी व पूर्व उपमंत्री ललित भाटी का नाम चल रहा बताया, मगर हाल ही शहर के प्रमुख समाजसेवी व व्यवसायी कालीचरण खंडेलवाल का नाम इन दोनों से आगे आ गया बताया। इसके पीछे तर्क ये दिया जा रहा है कि वे पिछले काफी दिन से अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के संपर्क में हैं और दूसरा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की भी पसंद बन गए हैं, क्योंकि उनके खासमखास पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती भी उनका समर्थन कर रहे हैं। जानकारी ये भी है कि इस पद से वंचित और उसके एवज में शहर कांग्रेस अध्यक्ष बने महेन्द्र सिंह रलावता भी उनकी पैरवी कर रहे हैं।
यहां उल्लेखनीय है कि कोई दस 0िदन पहले तक यह सूचना थी कि सरकार ने काफी जद्दोजहद के बाद डॉ. चौधरी व भाटी के नामों का पैनल बनाया था। उनमें से किसे इस पद से नवाजा जाएगा, इस पर मुहर सचिन पायलट को लगानी थी। जैसी की जानकारी है, पायलट का झुकाव चौधरी की ओर था। उसकी अहम वजह ये रही कि वे भाटी की तुलना में उनके ज्यादा करीब हैं। मगर अजमेर के वैश्य समाज के प्रमुख नेताओं के सक्रिय होने के बाद अचानक खंडेलवाल का नाम उभर आया है।
विश्लेषकों का मानना है कि डॉ. चौधरी के नाम इस कारण सामने था आया, क्योंकि किसी सिंधी अथवा वैश्य को बनाए जाने के फार्मूले में वैश्य को सरकार ज्यादा मुफीद समझती है। हालांकि सिंधी समाज के नेता नरेन शहाणी भगत की प्रबल दावेदारी रही है, वैश्य समुदाय ने यह तर्क दिया बताया कि अभी सिंधी समुदाय को खुश करने के लिए भले ही किसी सिंधी नेता को अध्यक्ष बना दिया जाए, मगर विधानसभा चुनाव में फिर किसी सिंधी को ही टिकट दिए जाने की बात सामने आएगी। वैश्य समुदाय की यह सोच इस कारण भी बनी है कि पिछले चुनाव में वैश्य समुदाय के एकजुट होने और भाजपा के परंपरागत वोटों में सेंध मारने के बाद भी उनके प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हार गए, इस कारण अगली बार कांग्रेस सिंधी समाज की दावेदारी को काटने की हिम्मत नहीं जुटा पाएगी। यही वजह है कि उसने दबाव बनाया कि न्यास अध्यक्ष व विधायक की टिकट, दोनों में एक उसके लिए तय की जाए। अभी किसी सिंधी को अध्यक्ष बनाया जाता है तो विधानसभा की टिकट उनके लिए तय कर दी जाए। और अगर अभी वैश्य को मौका दिया जाता है तो वह विधानसभा चुनाव की दावेदारी छोड़ देगा। माना ये जा रहा है कि कांग्रेस हाईकमान भी विधानसभा चुनाव में दुबारा सिंधी समाज को नाराज करने के मूड में नहीं है। ऐसे में किसी वैश्य को ही बनाने की जोड़तोड़ चल रही है। वैश्य समुदाय से यूं तो सबसे तगड़े दावेदार डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हैं, मगर पायलट उनके लिए तैयार नहीं हो रहे। यही वजह है कि किसी और वैश्य के नाम पर चर्चा शुरू हो गई। डॉ. चौधरी राजनीति के खिलाड़ी हैं, इस कारण उन्होंने पूरा जोर लगा दिया और एक बार तो लगा कि वे ही घोषित होने वाले हैं, मगर यकायक खंडलेवाल का नाम सामने आ गया है। चौधरी के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क ये दिया जा रहा है कि वे मूलत: किशनगढ़ और बाद में ब्यावर के रहे हैं। कदाचित स्थानीय वैश्य समुदाय भी चौधरी की बजाय खंडेलवाल का समर्थन कर रहा है। चूंकि चुनाव में खंडेलवाल ने डॉ. बाहेती का साथ दिया था, इस कारण डॉ. बाहेती भी उनका साथ दे रहे हैं।
यूं ललित भाटी ने भी पूरा जोर लगा दिया है और तर्क ये है कि कभी कांग्रेस के लिए पक्की रही सीट अजमेर दक्षिण (जो पहले अजमेर पूर्व थी) को फिर कब्जे में लेने के लिए इस कोली बहुल इलाके में कांग्रेस को फिर मजबूत करना है तो भाटी को अहमियत देनी होगी। मगर भाटी के खिलाफ सबसे बड़ा रोड़ा ये आ रहा है कि अन्य जाति वर्ग उनकी नियुक्ति को उचित नहीं मानते। उनका तर्क ये है कि पहले से अजमेर शहर की एक सीट विधानसभा सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। इसके अतिरिक्त मेयर भी अनुसूचित जाति से है। ऐसे में शहर की एक और महत्वपूर्ण सीट भी अनुसूचित जाति के नेता को देना अन्य जातियों के साथ अन्याय होगा।
कुल मिला कर लगता यही है कि वैश्य समुदाय में से ही किसी को मौका मिलेगा, जिसमें फिलहाल खंडलेवाल का नाम सबसे ऊपर आ गया है।

मुफ्त दवा योजना बेहतरीन, मगर सावधानियां भी जरूरी

राज्य सरकार की ओर से 2 अक्टूबर से शुरू की मुफ्त दवा योजना बेशक बेहतरीन है, मगर उसको विफल किए जाने की आशंकाएं भी कम नहीं हैं। ऐसे में सरकार को अतिरिक्त सावधानी बरतनी होगी।
वस्तुत: यह सही है कि आम आदमी के इलाज का जिम्मा अगर सरकार लेती है तो इससे बेहतरीन कल्याणकारी योजना कोई हो ही नहीं सकती। इसकी अहम वजह ये है कि लाख कोशिशों के बाद भी दवा माफिया पर काबू नहीं पाया जा सका है। दवा माफिया ने ब्रांडेड और उन्नत किस्म की दवा के नाम पर बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी शुरू कर जहां चिकित्सकों को मालामाल कर दिया है, वहीं आम आदमी की कमर ही तोड़ दी है। कल्पना कीजिए कि एक जेनेरिक दवाई अगर मात्र दस रुपए में आती है और उसी साल्ट की ब्रांडेड कंपनी की दवा सौ रुपए में है तो जाहिर तौर पर उसे बेचने के लिए दवा लिखने वाले डॉक्टरों को मोटी राशी बतौर कमीशन दी जाती है। डॉक्टर भी उसी कंपनी की दवाई लिखते हैं, जो उनको ज्यादा कमीशन देती है। हालांकि सरकार ने आदेश जारी कर केवल जेनेरिक दवाई ही लिखने के आदेश जारी कर दिए, मगर पूरा मार्केट माफियाओं के चंगुल में इस कदर जकड़ा हुआ है कि उस आदेश पर ठीक से अमल हो ही नहीं पाया। अगर कोई डॉक्टर जेनेरिक दवाई लिख भी देता है तो वह दवा मार्केट में आसानी से मिलती ही नहीं, ऐसे में मरीज मजबूर हो कर ब्रांडेड दवाई लेने को ही मजबूर होता है। जब सरकार ने देखा कि उसके आदेश का पर अमल हो ही नहीं रहा तो उसने आखिरकार ऐसी योजना बना दी, जिससे माफिया की चालें ध्वस्त हो जाएंगी। जाहिर तौर पर जब मरीज को अस्पताल में ही मुफ्त दवाई उपलब्ध करवा दी जाएगी तो वह बाजार में जाएगा ही नहीं। इन सबके बाद भी सरकार की इस योजना को लेकर भारी आशंकाएं हैं। एक आशंका तो ये है कि कमीशन के आदी हो चुके डॉक्टर इसे विफल करने के तरीके निकालेंगे। कदाचित वे यह कह सकते हैं कि वह सरकार के कहने पर अमुक जेनेरिक दवाई लिख तो रहा है और वह अस्पताल में मिल भी जाएगी, मगर असर नहीं करेगी। यदि असरकारक दवाई चाहिए तो अमुक ब्रांडेड दवाई लेनी होगी। इसके अतिरिक्त दवा माफिया भी यह प्रचारित कर रहे हैं कि जेनेरिक दवाइयां घटिया होती हैं। ऐसे में सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती ये है कि उसे एक तो सावधानी से जेनेरिक दवाई खरीदनी होगी और दूसरा उसके प्रति विश्वास कायम हो, इसके भरसक प्रचास करने होंगे। अगर आम आदमी में विश्वास कायम नहीं किया जा सका तो सरकार की योजना विफल हो सकती है। यदि मरीज को जेनेरिक दवाई पर यकीन नहीं हुआ तो वह मुफ्त में मिल रही दवाई की बजाय ब्रांडेड दवाई ही खरीदेगा। सरकार को जेनेरिक दवाई की गुणवत्ता कायम रखने पर पूरा जोर लगाना होगा। अगर इस मामले में भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरी चली तो घटिया कंपनियों को माल सप्लाई करने का मौका मिल जाएगा। यदि कुछेक मामले ऐसे हुए कि जेनेरिक दवाई से मरीज ठीक नहीं हुआ तो जाहिर तौर पर उसका प्रचार दवा माफिया जम कर करेगा।
एक बड़ी आशंका ये भी है कि क्या सरकार वाकई उतनी दवाई उपलब्ध करवा पाएगी, जितनी कि जरूरत है? क्या सरकार ने वाकई पूरा आकलन कर लिया है कि प्रतिदिन कितने मरीजों के लिए कितनी दवाई की खपत है? इसके अतिरिक्त क्या समय पर दवा कंपनियां माल सप्लाई कर पाएंगी? अगर कुछ दवाई अस्पताल से मिली और कुछ बाहर से खरीदनी पड़ी तो भी योजना पर संकट आ सकता है। एक खतरा ये भी है कि सरकारी दवाई में कहीं बंदरबांट न हो जाए। अगर अस्पताल प्रशासन मुस्तैद नहीं रहा तो सरकारी दवाई बिकने को मार्केट में चली जाएगी। कुल मिला कर योजना तभी कारगर होगी, जबकि सरकार इस मामले की मॉनिटरिंग मुस्तैदी से करेगी।