शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

कश्मीर के मामले में बोलने का ठेका केवल हिंदूवादियों के पास?

जियारत को अजमेर आए पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी शुजात हुसैन

पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री व मुस्लिम लीग के अध्यक्ष चौधरी शुजात हुसैन दरगाह जियारत को आए और भारत की अखंडता व अस्मिता से जुड़े कश्मीर के मुद्दे पर विवादास्पद व आपत्तिजनक बयान दे गए। जाहिर सी बात है कि इस पर ऐतराज होना ही था। मगर अफसोस कि हर बार की तरह केवल हिंदूवादी संगठनों ने ही विरोध दर्ज करवाया। न तो धर्मनिरपेक्षता की पैरोकार कांग्रेस बोली और न ही अन्य कोई देशभक्त संगठन।
सवाल ये उठता है कि क्या कश्मीर के मामले में बोलने का केवल हिंदूवादी संगठनों को ही ठेका दिया हुआ है, कांग्रेस का इससे कोई लेना-देना नहीं है? क्या पाक इस्लामिक देश है, इस कारण केवल हिंदूवादियों के निशाने पर रहेगा, धर्मनिपेक्षता की आड़ में मुस्लिमों को राजी रखने की खातिर कांग्रेस चुप रहेगी? क्या कांग्रेस को डर लगता है कि कश्मीर के मामले में पाकिस्तान का विरोध करने पर उसके मुस्लिम वोट खिसक जाएंगे? पाकिस्तान यदि हमसे दुश्मनी का भाव रखता है तो क्या केवल हिंदूवादियों को ही ऐतराज होना चाहिए, धर्मनिरपेक्ष ताकतों को नहीं? ये ऐसे सवाल हैं, जिनका उत्तर खोजने के लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है, सवाल खुद-ब-खुद जवाब दे रहे हैं।
असल में चौधरी ने यह कहा कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा नहीं करना चाहता, बल्कि वहां के लोगों को उनका अधिकार दिलाना चाहता है। सवाल ये उठता है कि पाक कश्मीर पर कब्जा करना चाहे या नहीं, उसे कब्जा करने दे कौन रहा है? दूसरा ये कि जो कश्मीर हमारा है, वहां के लोगों को अधिकार दिलाना या न दिलाना पाकिस्तान का विषय कैसे हो सकता है? जाहिर सी बात है कि पाकिस्तान के नेता कश्मीन के मुसलमानों को भड़का कर अपनी रोटियां सेकना चाहते हैं, जिसे किसी भी सूरत में भारत बर्दाश्त नहीं कर सकता।
विश्व हिंदू परिषद के महामंत्री शशिप्रकाश इंदौरिया व बजरंग दल के संयोजक लेखराज ने ठीक ही कहा है कि धार्मिक यात्राओं के बहाने पाकिस्तानी नेता अजमेर आते हैं और यहां आकर अनर्गल टिप्पणियां कर रहे हैं। कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। भारत सरकार ऐसे लोगों के आने पर प्रतिबंध लगाए।
इस सिलसिले में भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के नेता इब्राहिम फखर का यह बयान तारीफ-ए-काबिल है कि शुजात हुसैन पहले पाकिस्तान में अपने लोगों को तो अधिकार दिला दें, उसके बाद भारत के बारे में बात करें। कश्मीर के लोगों को यह समझाने या बताने की जरूरत नहीं कि उनका हित किस में हैं। कश्मीरियों को वे सभी अधिकार मिले हुए हैं जो भारत के अन्य राज्यों के लोगों के पास हैं। शुजात हुसैन यहां एक मेहमान की हैसियत से आए हैं, लिहाजा इसी हैसियत में रह कर बात करें तो ठीक रहेगा। इब्राहिम ने वाकई हिम्मत दिखाई है। वे कांग्रेस व कांग्रेस से जुड़े अल्पसंख्यक नेताओं से लाख बेहतर हैं, भले ही उन्होंने हिंदूवादी भाजपा से जुड़ा होने के नाते बयान जारी किया हो। उनकी इस मांग में दम है कि भारत सरकार शुजात हुसैन के बयान पर आधिकारिक विरोध दर्ज कराए।
इस मामले में कांग्रेस नेताओं की चुप्पी वाकई शर्मनाक है। अदद बयान ही तो जारी करना था, कौन सा सीमा पर जा कर युद्ध लडऩा था, मगर इसकी भी हिम्मत नहीं जुटा पाए। खैर, कांग्रेस नेताओं की जो भी मजबूरी हो, मगर कम से कम राजनयिक तौर पर भारत सरकार को चौधरी के बयान पर कड़ा ऐतराज करना चाहिए और पाकिस्तान को चेताना चाहिए कि वह अपने नेताओं को भारत की जमीन पर आ कर इस प्रकार के अनर्गल बयान जारी करने के लिए पाबंद करे।
-तेजवानी गिरधर

पुष्कर में विदेशियों के नंगेपन को कौन रोकेगा?


जगतपिता ब्रह्मा की नगरी व तीर्थ गुरु पुष्कर में अव्यवस्थाओं को लेकर जागृति आई है। तीर्थ पुरोहित संघ के संयोजक श्रवण पाराशर समेत सामाजिक कार्यकर्ता व वकील अशोक सिंह रावत, राजेंद्र महावर और महेंद्र सिंह रावत ने वकील कमल सिंह राठौड़, विकास पाराशर, सुषमा गुर्जर, लक्ष्मीकांत और मुनेश तिवारी के जरिए विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम की धारा 22 बी के अन्तर्गत स्थाई लोक अदालत में जनहित याचिका दायर की है। ये अच्छी बात है।
याचिका में मूलभूत सुविधाओं के अभाव से लेकर चहुंओर पसरी अव्यवस्था, पौराणिक काल से मदिरा व मांसाहार पर प्रतिबंध के बावजूद सरकारी अमले की लापरवाही व मिलीभगत से हो रही खुले आम बिक्री जैसे अहम मुद्दों को उठाया गया है। जिक्र ड्रग्स का ट्रांजिट सेंटर बनने और विदेशी पर्यटकों द्वारा नशे में मदहोश हो कपड़े उतारकर मुख्य सड़कों पर नग्न प्रदर्शन का भी है। बेशक इसके लिए जिला प्रशासन, पुलिस व स्थानीय नगर पालिका प्रशासन सहित अन्य विभाग जिम्मेदार हैं। याचिका के बाद जाहिरा तौर पर कोर्ट के आदेश पर विभागों की डेबरी कसी जाने की उम्मीद है, मगर क्या इतने भर से पुष्कर की पवित्रता कायम रह पाएगी? मेले में तीर्थ यात्रियों के लिए व्यवस्थाएं होनी ही चाहिए, मगर उससे भी बड़ी है पुष्कर की पावन धरा की महत्ता को बरकरार रखना। ये केवल पुलिस व प्रशासन के भरोसे संभव नहीं है।
सब जानते हैं कि तीर्थराज की सड़कों पर विदेशी पर्यटकों का सरेआम अश्लील प्रदर्शन और हंगामा अब आम होता जा रहा है। कभी वे सरे राह नग्न हो कर पुष्कर की पौराणिक मर्यादा को भंग करते हैं तो कभी उठाईगिरों की तरह उत्पात मचाते हैं। इस प्रकार के अधिकतर मामलों में पाया गया है कि वे मादक पदार्थ का अत्यधिक सेवन के कारण मानसिक संतुलन खो देते हैं। उन्हें कब्जे में लेने में ही पुलिस को काफी मशक्कत करनी पड़ती है। रहा सवाल उनके खिलाफ कार्यवाही का तो संबंधित देश के दूतावास को सूचित कर उन्हें यहां से रवाना करने के सिवा पुलिस के पास और कोई चारा नहीं होता। इस फौरी कार्यवाही के कारण विदेशी बेखौफ हो कर खुले सांड की तरह पुष्कर में ऐसे विचरते हैं, मानो अतिथि देवा भव की परंपरा वाला यह देश उनकी चरागाह है। वे चाहे जो करें, कोई कुछ कहने वाला नहीं है।
यह हालत उस तीर्थ स्थल की है, जिसके बारे में वेद पुराणों में कहा गया है, पर्वतानां यथा मेरू, पक्षिणाम् गरुड़: यथा: तदवत समस्त तीर्थाणाम् आदि पुष्कर मिष्यते अर्थात जिस प्रकार पर्वतों में सुमेरू पर्वत और पक्षियों में गरुड़़ का शिरोमणि महत्व है, उसी प्रकार समस्त तीर्थ स्थलों में पुष्कर तीर्थ सर्वोपरि तीर्थ है। पुराणों में उल्लेख है कि पृथ्वी के तीन नेत्र हैं, इनमें प्रथम और प्रमुख नेत्र पुष्कर है। पुष्कर नगरी को पृथ्वी का प्रथम नेत्र कहलाने का सौभाग्य प्रजापति ब्रह्मा के आशीर्वाद से प्राप्त हुआ है, जिन्होंने इसी नगरी से सम्पूर्ण बह्मांड की रचना की। ऐसे महान तीर्थराज की दुर्गति देख कर तो ऐसा लगता है कि यहां का कोई धणी-धोरी ही नहीं है।
यह सही है कि सरकार पुष्कर के विकास के प्रति सतत प्रयत्नशील है। पर्यटन महकमे की ओर किए जाने वाले प्रचार-प्रसार के कारण यहां विदेशी पर्यटक खूब आकर्षित हुए हैं और सरकार की आमदनी भी बढ़ी है, मगर विदेशी पर्यटकों के ऊलजलूल तरीके से अंग प्रदर्शन करते हुए विचरण करने से यहां की मर्यादा और पवित्रता छिन्न-भिन्न हुई है। मगर अफसोस कि उन्हें कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है। इस मामले में तीर्थ पुरोहितों से तो दरगाह के खादिम ही अच्छे हैं, जिन्होंने कैटरीना कैफ के उघाड़ी टांगों में जियारत करने पर हंगामा कर दिया और आखिर उसे माफी मांगनी पड़ी।
होना तो यह चाहिए कि विदेशी पर्यटकों को यहां आने से पहले अपने पहनावे पर ध्यान देने के निर्देश जारी किए जाने चाहिए। जैसे मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारे में जाने से पहले सिर ढ़कने और जूते उतारने के नियम हैं, वैसे ही पुष्कर में भ्रमण के भी अपने कायदे होने चाहिए। यद्यपि इसके लिए कोई ड्रेस कोड लागू नहीं किया सकता, मगर इतना तो किया ही जा सकता है कि पर्यटकों को सख्त हिदायत हो कि वे अद्र्धनग्न अवस्था में पुष्कर की गलियों या घाटों पर नहीं घूम सकते। होटल के अंदर कमरे में वे भले ही चाहे जैसे रहें, मगर सार्वजनिक रूप से अंग प्रदर्शन नहीं करने देना चाहिए। इसके विपरीत हालत ये है कि अंग प्रदर्शन तो दूर विदेशी युगल सार्वजनिक स्थानों पर आलिंगन और चुंबन करने से नहीं चूकते, जो कि हमारी संस्कृति के सर्वथा विपरीत है। कई बार तो वे ऐसी मुद्रा में होते हैं कि देखने वाले को ही शर्म आ जाए। जब स्थानीय लोग उन्हें घूर-घूर कर देखते हंै, तो उन्हें बड़ा रस आता है। जाहिर तौर पर जब दर्शक को ऐसे अश्लील दृश्य आसानी से सुलभ हो तो वे भला क्यों मौका गंवाना चाहेंगे। स्थिति तब और विकट हो जाती है जब कोई तीर्थ यात्री अपने परिवार के साथ आता है। आंख मूंद लेने के सिवाय उसके पास कोई चारा नहीं रह जाता।
यह भी एक कड़वा सत्य है कि विदेशी पर्यटकों की वजह से ही पुष्कर मादक पदार्थों की मंडी बन गया है, जिससे हमारी युवा पीढ़ी बर्बाद होती जा रही है। इस इलाके एड्स के मामले भी इसी वजह से सामने आते रहे हैं। जहां तक प्रशासन व पुलिस तंत्र का सवाल है, उन्हें तो नौकरी और डंडा बजाने तक से वास्ता है। वह तो कानून और व्यवस्था का पालन ही ठीक से करवा ले, तो काफी है। असल में उसकी तो हालत ये है कि मुंबई ब्लास्ट का मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली के पुष्कर आ कर चले जाने तक की हवा भी नहीं लगती। ऐसे में पुष्कर की पवित्रता की जिम्मेदारी संस्कृति की वाहक आमजन की है। उसमें सर्वाधिक दायित्व है तीर्थ पुरोहितों व पुष्कर के नाम पर संस्थाएं चलाने वालों का। यह सही है कि तीर्थ पुरोहितों ने पुष्कर की पवित्रता को लेकर अनेक बार आंदोलन किए हैं, पर कहीं न कहीं वे भी स्थानीय राजनीति के कारण आंदोलनों को प्रभावी नहीं बना पाए हैं। तीर्थ पुरोहित पुष्कर में प्रभावी भूमिका में हैं। वे चाहें तो सरकार पर दबाव बना कर यहां का माहौल सुधार सकते हैं। यह न केवल उनकी प्रतिष्ठा और गरिमा के अनुकूल होगा, अपितु तीर्थराज के प्रति लोगों की अगाध आस्था का संरक्षण करने के लिए भी जरूरी है। विश्व हिन्दू परिषद को ही लीजिए, उसने केंद्र व राज्य सरकार पर भेदभाव का आरोप लगाते हुए यह तो कह दिया कि उर्स के लिए जहां सरकार तीन सौ करोड़ की घोषणा कर रही है, वहीं पुष्कर मेले के लिए महज सवा करोड़ की ही घोषणा की गई, मगर क्या कभी उसने विदेशियों के स्वच्छंद विचरण पर रोक के लिए अपने स्तर पर भी कुछ किया है? केवल सरकार व प्रशासन से उम्मीद करना बेमानी है। अगर वाकई उसे पुष्कर की महत्ता की चिंता है तो उसे अपने स्तर भी कुछ तो करना ही होगा।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

एलीवेटेड रोड : आगाज को अंजाम तक पहुंचाना होगा

वह चित्र जो अजमेर एट ए ग्लांस में दो साल पहले प्रकशित हुआ था

खबर है कि अजमेर में एलीवेटेड रोड की मांग पर सरकार का ध्यान आखिर चला गया है। पुराने आरपीएससी भवन से मार्टिंडल ब्रिज तक अपेक्षित एलीवेटेड रोड की संभावना को तलाशने के लिए नगर सुधार न्यास ने कंसल्टेंसी के लिए निविदाएं आमंत्रित करने का निर्णय कर लिया है। वर्षों से यातायात की विकट समस्या से जूझते अजमेर के लिए यह एक सुखद खबर है। अब जरूरत है तो इस बात की कि नगर सुधार अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत सहित सभी राजनेता, सामाजिक संगठन, पूरा प्रशासनिक अमला व मीडिया इसके लिए पूरा दबाव बना कर रखे। साथ ही अजमेर वासी इसमें किसी प्रकार का रोड़ा न अटकाएं। तभी यह महत्वाकांक्षी योजना जल्द से जल्द पूरी हो सकती है।
आपको याद होगा कि एलीवेटेड रोड की जरूरत पिछले काफी समय से महसूस की जाती रही है। पिछले दो साल से तो इस मांग ने काफी जोर भी पकड़ लिया था। विभिन्न समाचार पत्रों के समय-समय पर इस मुद्दे को उठाने के साथ जनजागरण व सरकार पर दबाव के लिए दैनिक नवज्योति ने तो बाकायदा अभियान ही छेड़ दिया था। अजमेर उत्तर ब्लाक-बी कांग्रेस कमेटी के सचिव व जागरूक युवा लेखक व ब्लॉगर साकेत गर्ग ने तो इस अभियान को बल प्रदान करने के लिए फेसबुक पर एलीवेटेड रोड फोर अजमेर नामक पेज तक बनाया और उससे अनेक अजमेर वासियों को जोड़ा। अजमेर के इतिहास, वर्तमान व भविष्य पर दो वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस के विजन अजमेर पार्ट में तो एलीवेटेड रोड का काल्पनिक चित्र तक प्रकाशित किया। जब इस पुस्तक का विमोचन करने के लिए अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट से दिल्ली में उनके निवास पर बात की तो इस चित्र को देख कर उन्होंने मजाक किया कि हमारी तो कोई योजना नहीं है, आपने यह कैसे छाप दिया, मैं तो विमोचन समारोह में ये बात कह दूंगा। बाद में उन्होंने इसकी तारीफ करते हुए कहा कि जैसे ही मौका मिलेगा, वे एलीवेटेड रोड के लिए प्रयास करेंगे। अजमेर की बहबूदी के लिए काम कर रहे अजमेर फोरम ने भी इसके लिए गंभीर प्रयास किए।
बहरहाल, अंतत: मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का अजमेर की इस सबसे अहम जरूरत पर ध्यान गया है और उनके निर्देश पर ही नगरीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव जी.एस. संधु ने दौरा कर न्यास अधिकारियों को रोड बनाने की संभावना तलाशने के निर्देश दिए। जानकारी के अनुसार न्यास ने इसके लिए कंसल्टेंट नियुक्त करने बाबत निविदाएं आमंत्रित की जा रही हैं और आगामी 5 से 26 नवंबर तक निविदा पत्रों का बिक्री की जा कर 26 नवंबर को तकनीकी बिड व 3 दिसंबर को वित्तीय बिड खोली जाएगी। यानि कि अब आशा की किरण नजर आने लगी है। ऐसे में अजमेर के हर तबके, हर जागरूक नागरिक को जुट कर यह जल्द से जल्द बने, इसके लिए दबाव बनाना होगा। इसके लिए राजनीतिक व प्रशासनिक इच्छाशक्ति की भी जरूरत होगी।
उम्मीद है कि आगाज एक सुखद अंजाम की ओर ले जाएगा। न्यास सदर भगत के राजनीतिक केरियर के लिए तो यह बेहद महत्वपूर्ण योजना साबित हो सकती है। डीडी पुरम आवासीय योजना, एनआरआई कॉलोनी सहित अनेक कार्य उन्हें जितनी प्रसिद्धि नहीं दिलवाएंगे, उससे कई गुना अधिक यह योजना उनकी उपलब्धि में मील का पत्थर साबित हो सकती है। बशर्ते के लिए वे इसके लिए पूर्व न्यास सदर औंकारसिंह लखावत की तरह पूरे मनोयोग से जुट जाएं। इसे यूं कहा जाए कि अकेला एलीवेटेड रोड ही उनके राजनीतिक केरियर को ऊंचाई तक का सफर करवा देगा, तो कोई अतश्योक्ति नहीं होगी।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 25 अक्तूबर 2012

नसीम का सरकार से मांगना गले नहीं उतरा


पुष्कर मेले की व्यवस्थाओं के लिए एक करोड़ रुपए की मांग कर बेशक शिक्षा राज्य मंत्री एवं पुष्कर क्षेत्र की विधायक श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ ने नेक काम किया है, मगर एक मंत्री का अपनी ही सरकार से इस प्रकार खुल कर मांग करना कुछ गले नहीं उतरता।
असल में मंत्री होने के नाते वे खुद ही सरकार का हिस्सा हैं। यह सही है कि एक विधायक के नाते उन्हें भी मुख्यमंत्री के सामने मांग रखनी ही होती है, मगर कम से कम एक मंत्री का सार्वजनिक रूप से मांगना तो ठीक नहीं। बेहतर तो ये होता कि वे मांग जरूर करतीं, मगर उसकी खबर जारी नहीं करतीं और एक करोड़ रुपए स्वीकृत करवा कर उसकी खबर जारी करवातीं। इससे उनके मंत्री होने का रुतबा भी कायम होता। मांग की खबर उन्होंने कदाचित इस कारण जारी की हो, ताकि राशि स्वीकृत हो जाने पर ये तो संदेश अपने आप चला जाए कि उनकी मांग पर एक करोड़ रुपए मंजूर हुए हैं। वरना होता अमूमन ये है कि सरकार भले ही किसी मांग व प्रस्ताव पर राशि जारी करती है, मगर उसमें यह खुलासा नहीं करती कि किस की मांग पर ऐसा किया गया है। ऐसे में संबंधित विधायक उसकी क्रेडिट ले नहीं पाता। शायद यही जान कर श्रीमती इंसाफ ने मांग की खबर बाकायदा सूचना केन्द्र के जरिए जारी करवाई।
एक बात और अखरने वाली है। वो ये कि श्रीमती इंसाफ को यह तर्क दे कर एक करोड़ रुपए की मांग करनी पड़ रही है कि ख्वाजा साहब उर्स की तर्ज पर पुष्कर मेले के लिए भी बजट उपलब्ध कराया जाए। यानि कि सरकार को खुद तो कुछ नहीं सूझता कि पुष्कर का मेला भी उतना ही महत्वपूर्ण है। तभी तो क्षेत्रीय विधायक को मांग करनी पड़ती है।
वैसे एक बात है। उन्होंने मांग जरा देर से की है। मेला सिर पर है और अगर राशि मंजूर हो भी जाती है तो उससे काम इतने कम समय में हो नहीं पाएंगे। बेहतर ये होता कि वे कुछ पहले राशि मंजूर करवा कर लातीं, ताकि समय से पहले पुष्कर मेले के बेहतरीन इंतजाम हो पाते।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

... कुत्ते की पूंछ भी भला कभी सीधी होती है?


एक कहावत है-कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं होती? इसके साथ एक किस्सा भी जुड़ा हुआ है कि कुत्ते की पूंछ को सीधा करने के लिए उसे एक बार लोहे की नली में फंसा दिया गया। बारह साल बाद निकाला तो पूंछ वही टेढ़ी की टेढ़ी। जब यह कहावत भी घिस गई तो किसी ने इसमें जोड़ दिया कि पूंछ तो सीधी नहीं हुई, उलटे नली ही टेढ़ी हो गई।
ये कहावत यकायक यूं याद आई कि अपुन ने केसरगंज में गोदामों में हुए अग्निकांड के बाद लोगों को सियापा करते देखा। सियापा ये कि यदि ट्रांसपोर्ट नगर बन व बस गया होता तो इतना बड़ा भीषण अग्निकांड शायद नहीं होता, अतिक्रमण नहीं होते तो इतना ज्यादा नुकसान नहीं होता, ज्वलनशील पदार्थों के गोदाम शहर से दूर बनने चाहिए, इत्यादि-इत्यादि।
असल में हादसों को न्यौता देने और हादसा हो जाने पर सियापा करने की हम अजमेरियन्स की पुरानी आदत है। ये सियापा भी कुछ हल निकाल दे, तब भी बात बनें, मगर जैसे हमारे हाल हैं, हम सुधरने वालों में से हैं नहीं।
अकेले ट्रांसपोर्ट नगर की ही बात करें तो अंदाजा लगाइये कि आज से कोई 25 साल पहले ही हमें भगवान ने सद्बुद्धि दी थी कि यातायात व्यवस्था को सुधारने व केसरगंज वासियों की आए दिन की परेशानी को मिटाने के लिए ट्रांसपोर्ट नगर शहर से बाहर बनाया जाना जरूरी है। अर्थात हम तब ही समझ गए थे कि ट्रांसपोर्ट नगर शहर से बाहर होना चाहिए, मगर ऐसी समझ का क्या अचार डालियेगा, जिसका उपयोग ही नहीं किया गया। न हमारे यहां के राजनेताओं में इच्छाशक्ति है और न ही प्रशासनिक अधिकारियों की कुछ खास रुचि। नेताओं को केवल वोटों से मतलब है और अधिकारियों को नौकरी पक्की करने से। रहा सवाल ट्रांसपोर्टरों का तो, उनकी जिद को कौन पार पा सकता है? स्टील लेडी तत्कालीन जिला कलेक्टर अदिति मेहता तक हल नहीं निकाल पाई। चतुर सुजान पूर्व न्यास सदर औंकारसिंह लखावत तक कुछ नहीं कर पाए। कोई सैकड़ों बार जद्दोजहद हुई होगी, फिर-फिर नए सिरे से बैठकें हुई होंगी, मगर ट्रांसपोर्ट संघ की अंदर की राजनीतिक के चलते गाडी गीयर में ही पड़ रही। नहीं निकली तो नहीं ही निकली। हर बार कोई नया रोड़ा। हर बार कोई नया पेच। जब बाहर जाना ही नहीं है तो आप लाख सिर पटक लीजिए, हर बार कोई नया बहाना बना लेंगे। ऐसे में मामला जहां है, वहीं ठहरा हुआ है। दोष किसे दें? रहा सवाल आम जनता का तो, वह दुनिया की सबसे महान सहनशील जमात है। न जाने किसी मिट्टी की बनी है? रोती रहती है, मगर हर हाल में संतुष्ट रहती है। ऐसे में भला कैसे उम्मीद की जा सकती है कि हम सुधर जाएंगे?
पिछले दिनों न्यास अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत ने पहल कर व्यापारियों को शिफ्ट करने के लिए तैयार किया। करीब 80 ट्रांसपोर्ट व्यवसाइयों ने न्यास में भूखंड की राशि भी जमा करा दी, लेकिन ट्रांसपोर्ट व्यवसायी बाहर नहीं जा रहे है। अब कहा जा रहा है कि जब तक प्रशासन सख्ती नहीं करेगा, तब तक ट्रांसपोर्ट व्यवसायी शहर से बाहर जाने वाले नहीं हैं। कैसी विडंबना है?
अग्निकांड ने कुछ और सवाल और उनके समाधान भी खड़े किए हैं। मसलन ज्वलनशील पदार्थों के गोदाम शहर से दूर होने चाहिए, व्यस्ततम क्षेत्रों में बने गोदामों में अग्निशमन यंत्र लगना अनिवार्य कर इसकी सख्त मॉनिटरिंग की जानी चाहिए, रास्तों में अतिक्रमण हटें ताकि राहत व बचाव कार्य में परेशानी नहीं आए। ये सवाल व समाधान पहले भी उठ चुके हैं, जब पुरानी मंडी में भीषण अग्निकांड हुआ था। मगर हुआ क्या? और होना इसलिए नहीं है कि हम तब न सुधरेंगे, जब सुधरने को तैयार होंगे। अखबार वाले हर बार पूरे के पूरे पेज रंग देंगे। सारे बुद्धिजीवी पूरा पेज चट कर जाएंगे। गरमागरम बहसें होंगी और फिर वही ढ़ाक के तीन पात। वही घोड़े और वही मैदान।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

सांई बाबा मंदिर में हुई ऐतिहासिक व अनूठी शादी


अजमेर। आपने एक फिल्मी गाना सुना होगा-मेरा जूता है जापानी, ये पतलून इंग्लिस्तानी, सिर पर लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी। ये गीत इस बात का अहसास कराता है कि हिंदुस्तानी भले ही दुनिया की कैसी भी रंगीनी में रंग जाए, मगर उसका दिल हिंदुस्तानी ही होता है। दुनिया से कदम से कदम मिला कर चलने के लिए हिंदुस्तानी चाहे कहीं भी जा कर बस जाए, मगर अपनी माटी की खुशबू हरदम उसके दिल में महकती रहती है। कुछ ऐसा ही अहसास कराया है कि अजयनगर स्थित सांई बाबा मंदिर  में मुख्य ट्रस्टी सुरेश के. लाल ने। 
मूलत: अजमेर निवासी सुरेश के. लाल जापान जा बस गए, मगर  जब जीवन का अहम संस्कार कन्या दान करने का मौका आया तो उन्होंने इसके लिए अपनी प्यारी जन्मभूमि अजमेर को ही चुना और अपनी बेटी नमिता की शादी जापान के उद्योगपति मिशु से सांई बाबा मंदिर परिसर में ही की। और इस भव्य व ऐतिहासिक समारोह के साक्षी बने जिले के कई राजनेता, प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी, कारोबारी सहित अजमेर के कई गणमान्य लोग, जिनका कहना है कि ऐसी भव्य, अनूठी और विलक्षण शादी अजमेर के इतिहास में न देखी, न सुनी। न खर्च के लिहाज से, न खूबसूरती के पहलु से और न ही थीम डिजाइन के एंगल से।
तकरीबन तीन सौ जापानियों की बारात को जयपुर से एयर कंडीशंड बसों में विवाह स्थल पर लाया गया। विशेष बात ये रही कि सभी बाराती राजस्थानी वेशभूषा में थे। कैसा विलक्षण सांस्कृतिक संयोग है, युवती सिंधी, युवक जापानी, बाराती राजस्थानी लुक में और विवाह स्थल मंदिर परिसर। इतना ही नहीं, इस भव्य विवाह ने पर्यावरण रक्षा का अनूठा संदेश भी दिया। साईं बाबा मंदिर से डेढ़ किलोमीटर पहले से सजावट की गई सजावट की थीम ग्रीनरी रखी गई थी। ऐसी सजावट शहर में पहले कभी नहीं हुई। सजावट में लगे आकर्षक झूमर जयपुर और दिल्ली से मंगाए गए थे। बारातियों के स्वागत के लिए चार हाथियों को लाया गया था। 
कहते हैं न कि शादी कितनी भी भव्य सजावट के साथ की गई हो, मगर उसमें शिरकत करने वालों को असल मजा तभी आता है, जबकि उन्हें स्वादिष्ट भोजन परोसा जाता है। खाने में देश के प्रत्येक राज्य का मीनू स्पेशल डिश के साथ शामिल किया गया था। अतिथियों की सहूलियत के लिए मीनू का बाकायदा नक्शा बनाया गया था, ताकि मेहमानों के खाने के व्यंजन ढूंढने में असुविधा न हो। सॉफ्ट ड्रिंक में ब्लू करंट, पीनी कोलाड़ा, रसभरी, कोकोनट, वाटर मेलन, ग्रीन मिंट, ट्रिपल स्क्वायर आदि को शुमार किया गया था। शेक में काजू, अंजीर, पिस्ता, इलाइची आदि थे तो साथ ही जूस में मौसमी व पाइन एपल का इंतजाम था।
प्रसंगवश बता दें कि सुरेश के. लाल की आकांक्षा के अनुरूप इस पूरे इंतजाम को साकार रूप दिया सांई बाबा मंदिर के ट्रस्टी महेश तेजवानी और स्वामी समूह के सीएमडी कंवलप्रकाश किशनानी, जिसे देख कर अजमेर वासी तो दंग रहे ही, जापानी मेहमान भी अभिभूत हो गए।
कौन हैं सुरेश के. लाल-
सांई बाबा के अनन्य भक्त सुरेश के. लाल जाने-माने अप्रवासी भारतीय हैं, जिन्होंने अजमेर-ब्यावर मार्ग पर पृथ्वीराज स्मारक वाली सड़क पर एक किलोमीटर अंदर अजयनगर कॉलोनी में संगमरमर के पत्थर से साईंबाबा के मंदिर का निर्माण कराया है। उनका जन्म 24 अगस्त 1953 को अजमेर में स्वर्गीय श्री कन्हैयालाल डी. लाल के घर हुआ। उन्होंने अजमेर के ही राजकीय महाविद्यालय से बी.एससी. तक शिक्षा अर्जित की। इसके बाद उन्होंने जापान में गुलराज ट्रेडिंग कंपनी में काम किया। सन् 1984 में उन्होंने वीडियोगेम की एजेंसी ली और उसका सिंगापुर, मलेशिया, जापान एवं अन्य देशों में काफी विस्तार किया। इसके अतिरिक्त जापान में अजमेर होटल खोला है। वे सन् 1990 से 1996 तक इंडियन चैम्बर्स ऑफ कॉमर्स के अध्यक्ष रहे। वे जापान में इंडियन्स क्लब के आजीवन सदस्य हैं। उन्होंने सन् 1999 में सांई बाबा का मंदिर बनवाया, जो आज शहर के प्रमुख धार्मिक व पर्यटन स्थल के रूप में स्थापित हो चुका है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

सचिन पायलट ने लगाए निंदकों के मुंह पर ताले


अजमेर के सांसद व केंद्रीय संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट ने बिना मांगे ही अजमेर को एक और सौगात दे दी है। उनके प्रयासों से अजमेर के निकटवर्ती पालरा रीको औद्योगिक क्षेत्र में 50 करोड़ रुपये की लागत से बनने वाले इलेक्ट्रॉनिक परीक्षण एवं विकास केंद्र की स्थापना होगी, जिसकी कि आधारशिला गत दिनों स्वयं उन्होंने रखी। इस केन्द्र की महत्ता ये है कि सौर ऊर्जा के क्षेत्र में कार्य करने वाली एजेंसीज को अपने उपकरणों की जांच का प्रमाण पत्र इस केंद्र से लेना होगा। इस केंद्र द्वारा संपूर्ण जांच करने के बाद यह प्रमाण पत्र दिया जाएगा। पूरे देश में ऐसे 14 केंद्र हैं, परंतु यह देश का पहला केंद्र होगा, जहां सौर ऊर्जा में काम आने वाली 4 से 6 फीट बड़ी प्लेट्स का प्रमाणीकरण कार्य होगा। इतनी बड़ी प्लेट्स के प्रमाणीकरण का कार्य अन्य केंद्रों में नहीं है। दूरसंचार के क्षेत्र में काम आने वाले उपकरणों के मानक प्रमाणीकरण का परीक्षण भी इसी केंद्र में होगा। इससे पूरे राजस्थान में सौर ऊर्जा के क्षेत्र में और निवेश बढ़ेगा।
समारोह में मानकीकरण, परीक्षण तथा गुणवत्ता प्रमाणन निदेशालय के महानिदेशक एनई प्रसाद ने यहां स्थापित हो रहे केंद्र की कार्य प्रणाली के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए बताया कि यह कार्य आगामी 3 वर्ष में पूरा हो जायेगा।
एक तो आम लोगों को इस प्रकार के केन्द्र के बारे में तनिक भी जानकारी नहीं है, दूसरा चूंकि इसको शुरू होने में वक्त लगेगा, इस कारण संभव है अभी से इसके लाभ का अहसास नहीं किया जाए, मगर जानकार समझते हैं कि पायलट ने अजमेर को यह एक और सौगात दी है, जिसकी महत्ता आज नहीं तो कल लोगों को समझ में आएगी। पायलट की इस ताजा उपलब्धि से उन लोगों के मुंह पर थोड़ी लगाम लगेगी, जो ये कहते हैं कि वे अजमेर में केवल माला पहनने व फीते काटने ही आते हैं। यह बात सही है कि उनका कार्यकर्ताओं को कुछ खास मेलजोल नहीं है, मगर उनकी कार्यप्रणाली से यह तो जाहिर हो ही गया है कि अजमेर के विकास पर वे पूरी नजर रखे हुए हैं। यहां खास बात ये है कि ताजा योजना के बारे में किसी को कल्पना तक नहीं थी और न ही समझ। पायलट अपने स्तर पर ही इसके लिए प्रयास करते रहे और लोगों को तभी पता लगा, जबकि वे शिलान्यास करने आए।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

सरकारी शिक्षकों को सौंप दें समित शर्मा के हवाले


जयपुर में शिक्षा पर तैयार आरएफडी पर पैनल डिस्कशन में यह बात खुल कर सामने आई है कि सरकारी स्कूलों में दोयम दर्जे की पढ़ाई होती है और व्यवस्थाओं में गंभीर खामियां हैं। इस डिस्कशन में मुफ्त दवा योजना को सफलतापूर्वक लागू कर देशभर में नाम कमाने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कॉर्पोरेशन के एमडी डॉ. समित शर्मा ने तो यहां तक कहा कि शिक्षा की गुणवत्ता में कमी आज सबसे बड़ी समस्या है। हम सरकारी स्कूलों में दोयम दर्जे की शिक्षा देकर बच्चों को निकाल रहे हैं। आज मजबूरी में ही कोई अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में भेजता है। यह स्थिति क्यों पैदा हुई? निजी स्कूल में महीने के तीन से चार हजार रुपए लेने वाला शिक्षक कमिटमेंट से पढ़ाता है, वहीं सरकारी शिक्षक 20 से 25 हजार रु. लेता है, लेकिन पढ़ाता नहीं है। कहीं न कहीं हमारे सिस्टम में गंभीर खामी है, जिसे दूर करना पड़ेगा।
उन्होंने कहा कि जब वे नागौर में कलेक्टर था तो देखा कि जिले में शिक्षकों के वेतन पर ही 110 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। इतना पैसा मुझे दे दो तो ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड जैसी पढ़ाई करवा दूंगा।
इसी मौके पर अल्पसंख्यक मामलों के विभाग के प्रमुख सचिव सियाराम मीणा ने कहा कि हम 50 साल से शिक्षा की ही बात कर करते आ रहे हैं, लेकिन हुआ क्या? स्थिति सबके सामने है। शिक्षा निदेशक (माध्यमिक) वीणा प्रधान ने कहा कि शिक्षकों की अनुपस्थिति सबसे चिंता की बात है।
कुल मिला कर इस डिस्कशन से यह पूरी तरह से साफ हो चुका है कि हमारा स्कूली शिक्षा का ढ़ांचा पूरी तरह से सड़ चुका है। हो सकता है कि सरकारी स्कूलों के जाल के पक्ष में भी अनेक तर्क हों, मगर जितना पैसा इस पर खर्च हो रहा है, उसकी तुलना में परिणाम का प्रतिशत काफी कम है। और इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि सरकार स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाना पसंद करते हैं।
बहरहाल, डॉ. समित शर्मा के प्रस्ताव पर सरकार को गौर करना चाहिए। कम से कम एक बार उन्हें स्कूली शिक्षा सिस्टम को दुरुस्त करने का जिम्मा सौंप दिया जाना चाहिए। संभव है मुफ्त दवा योजना की तरह इस क्षेत्र में भी उनका फार्मूला कामयाब हो जाए। हालांकि ऐसा करना है कठिन क्योंकि पूरे राज्य में सबसे बड़ा सरकारी ढ़ांचा स्कूली शिक्षा का है, जिससे जुड़े शिक्षक संगठनों के माध्यम से सरकार पर हर वक्त दबाव बनाए रखते हैं। उनसे निपटना आसान काम नहीं है। आपको याद होगा कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खां उन्हीं की हाय हाय में हार्ट अटैक से शहीद हो गए थे। पिछली अशोक गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद शिक्षकों व राज्य कर्मचारियों के कारण निपट गई थी। गहलोत दुबारा शिक्षकों को छेडऩे की हिम्मत दिखा पाएंगे, इसकी संभावना कम ही है, मगर उन्हें पहले प्रयोग के तौर पर सुधार करने के लिए डॉ. समित शर्मा को प्रोजेक्ट बनाने को कहना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर

मोहन नेता को नहीं करने दी अंदरकोट में नेतागिरी


मोहन नेता के नाम चर्चित मोहन लाल शर्मा ने कच्ची बस्ती फैडरेशन के अध्यक्ष के नाते अंदरकोट में भी कच्ची बस्ती पर संकट को लेकर बैठक की, मगर वहां के स्थानीय नेताओं ने उनकी दुकान नहीं चलने दी।
असल में जिला प्रशासन के निर्देश पर वन विभाग की 700 बीघा जमीन तलाशी के लिए किए जा रहे संयुक्त सर्वे के दूरगामी परिणामों पर विचार-विमर्श के लिए शर्मा ने अंदरकोट में बैठक आयोजित की। अंदरकोट में किसी बाहरी की नेतागिरी चलने नहीं दी जाती, सो मोहन नेता ने कुछ स्थानीय लोगों, जिनमें कि पूर्व पार्षद मुख्तयार अहमद नवाब का भाई व फैडरेशन का उपाध्यक्ष कदीर अहमद शामिल थे, की मदद से लोगों का इकट्ठा किया। जैसे ही इस बात की खबर पंचायत अंदरकोटियान को पता लगा, उसके पदाधिकारियोंं ने मौके पर आ कर आपत्ति जताई। पंचायत पदाधिकारियों का कहना था कि शर्मा कच्ची बस्ती के लोगों को गुमराह कर रहे हैं। पंचायत सदर मंसूर खां, सचिव निसार शेख, वाहिद मोहम्मद, फकरुद्दीन, जाहिद खां, फिरोज खां, ऑडिटर एस एम अकबर आदि ने आरोप लगाया कि शर्मा लोगो को गुमराह कर रहे हैं। सदर मंसूर का कहना था कि अंदरकोट में कोई कच्ची बस्ती है ही नहीं। अंदरकोट में वन विभाग की जमीन तलाशने के लिए किए जा रहे सर्वे पर पंचायत की प्रशासन से बात हो चुकी है। लोगों को समझा दिया गया है कि यहां कोई मकान टूटने वाला नहीं है। इसके बावजूद काहे को फटे में टांग फंसा रहे हो।
ज्ञातव्य है कि इस मामले में पहले से ही शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने पहल करके प्रशासन से बात की और समस्या का ऐसा समाधान निकालने की कोशिश की, जिससे लोगों के मकान टूटने की नौबत न आए। प्रशासन भी स्थिति को समझते हुए नए सिरे से विचार कर रहा था कि मोहन नेता बीच में टपक पड़े। यहां कहने की जरूरत नहीं है कि इन दिनों रलावता व मोहन नेता के बीच कैसे संंबंध हैं। वैसे भी अंदरकोटियान किसी निहित उद्देश्य के लिए किसी को वहां की नेतागिरी करने देना बर्दाश्त नहीं किया करते। उन्हें अपनी ताकत और कांग्रेस की सरपरस्ती का गुमान है, सो जैसे ही मोहन नेता ने बीच में पडऩे की कोशिश की तो उन्हें रोक दिया गया। मोहन नेता को वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा। मोहन नेता लाख कहें कि वे फेडरेशन के अध्यक्ष के नाते वहां पहुंचे, मगर जब इलाके के लोगों को उनके सहारे की जरूरत ही नहीं है तो वे क्यों उन्हें वहां घुसपैठ करने देने वाले थे। ये तो वही बात हुई, कोई माने न माने जबरन लाडे की भुआ बनना।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

ट्रेन का ठहराव पायलट ने करवाया या सेठ ने


दिगंबर जैन समाज के प्रमुख तीर्थ स्थल सम्मेद शिखर के नजदीकी रेलवे स्टेशन पारसनाथ पर सियालदाह टेन का ठहराव शुरू हो चुका है। जैन समाज के लोगों के लिए यह अच्छी खबर है। मगर इस खबर पर अजमेर में जो हलचल हुई, उससे यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि ट्रेन का यह ठहराव केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट ने करवाया है या फिर रेलवे के अजमेर मंडल डीआरएम मनोज सेठ ने।
हुआ यूंकि जैसे ही ट्रेन के ठहराव की सूचना आई जैन समाज के उत्साही व उभरते नेताओं ने, जो कि कांग्रेस विचारधारा से जुड़े हुए हैं, पायलट का कागजी आभार यानी अखबारों में विज्ञप्ति देकर आभार जताया, जबकि डीआएम मनोज सेठ का माल्यार्पण कर एवं साफा पहना कर आभार जताया। अगर कोई अधिकारी अच्छा काम करता है तो उसका अभिनंदन करने में कोई हर्ज नहीं है, मगर सवाल ये उठता है कि जब डीआरएम मनोज सेठ अजमेर मंडल के अधिकारी हैं, तो झारखंड प्रदेश में किस अधिकार से टे्रन का ठहराव करवा सकते हैं? स्वाभाविक सी बात है कि ठहराव पायलट ने ही करवाया है, मगर अजमेर के कुछ नेताओं में मिजाजपुर्सी की आदत है तो वह भला कैसे छूट पाएगी। उन्हें जैसे ही मौका मिला, पहुंच गए सेठ का अभिनंदन करने। जानकारी के अनुसार सेठ का अभिनंदन करने वालों में कमल गंगवाल और उनकी गिनी-चुनी टीम ही शामिल थी। ज्ञातव्य है कि गंगवाल रेलवे स्टेशन सलाहकार समिति के सदस्य है। खुद उनकी यह पीड़ा रही है कि समिति के सदस्यों की अधिकारी सुनवाई नहीं करते, तो झारखंड के पारसनाथ स्टेशन पर इस टे्रन का ठहराव इनके कहने या मांग करने पर सेठ ने कैसे कर दिया? आपको यह भी बता दें कि जिन नेताओं ने डीआरएम का स्वागत किया है, उन्हें टेन के ठहराव की सूचना रेलवे ने अपने स्तर पर नहीं दी, बल्कि वहां गए कुछ यात्रियों की जानकारी के बाद डीआरएम मनोज सेठ का अभिनंदन किया गया। जानकारी के अनुसार समिति के कुछ अन्य सदस्य भी सेठ को खुश करने के लिए उनका अभिनंदन करने गए थे, मगर उन्होंने यह ध्यान नहीं रखा कि उसकी खबर अखबारों को देते, जबकि गंगवाल एंड टीम ने बाकायदा अखबारों में खबरें प्रकाशित करवाई।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

आम आदमी को नहीं खींच पाया गुलशा बेगम का जलवा


डिवाइन अबोड संस्था की ओर से आयोजित इंटरनेशल सूफी फेस्टिवल कहने को यूं तो कामयाब रहा, मगर मिस मैनेजमेंट अथवा कदाचित दरगाही राजनीति के कारण यह दर्शकों को तरस गया। नतीजतन इसकी कर्ताधर्ता गुलशा बेगम के खाते में तो एक बड़ा आयोजन करने की उपलब्धि दर्ज हो गई, मगर आज जनता इसका लाभ नहीं उठा पाई। हिंदलवली के नाम से विख्यात महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के शहर में इसका जो हश्र हुआ, वह बेहद अफसोसनाक ही कहा जाएगा।
बेशक आज जिस दौर से दुनिया और भारत गुजर रहे हैं, उसमें सूफीज्म बेहद जरूरी है। संस्था का भी यही मकसद था कि ख्वाजा साहब की शिक्षा और सूफीज्म का संदेश आमजन तक पहुंचे। अफसोस कि वह हो न सका। ऐसा प्रतीत होता है कि इस फेस्टिवल का ठीक से प्रचार-प्रसार ही नहीं किया गया और न ही बड़े पैमाने पर लोगों को जोडऩे की कोशिश हुई, इस कारण आम आदमी इससे जुड़ नहीं पाया। इन्विटेशन कार्ड जितना खूबसूरत था और जितनी मेहनत उसको बनाने पर हुई, उतनी मेहनत भी इसके ठीक से वितरण पर नहीं की गई। आयोजन को लेकर हवाई बातें ज्यादा हुईं, मगर धरातल पर कुछ ठोस प्रयास हुए ही नहीं। शहर के गिने-चुने लोगों ने ही इसका आनंद लिया। आम आदमी महरूम रह गया। अखबारों में जरूर खबरें छपीं, मगर उसके पीछे था केवल मीडिया मैनेजमेंट। यानि कि जितना कामयाब नहीं था, उससे कहीं ज्यादा कवरेज हासिल कर लिया। इस लिहाज से भले ही कागजों में इसे कामयाब करार दे दिया जाए, मगर सच ये है कि आम आदमी इसके प्रति कत्तई आकर्षित नहीं हुआ। ऐसे में अगर कहा जाए कि जिस सूफीज्म को आम जन तक पहुंचाने के मकसद से यह अर्थ साध्य व श्रम साध्य कार्यक्रम हुआ, वह तो कत्तई पूरा नहीं हुआ। कार्यक्रम की गुणवत्ता पर नजर डालें तो शिड्यूल के हिसाब से इसमें भरपूर विविधता थी, मगर यह वह ऊंचाइयां नहीं छू पाया, जिसकी कि उम्मीद थी। कलाकार अपने पूरे फन को नहीं खोल पाए। संभव इसकी वजह ये रही हो कि उन्हें देखने वाले इतने कम थे कि वे किसके सामने पूरे दिल से प्रस्तुति देते। अलबत्ता तेज तर्रार आयोजिका गुलशा बेगम ने शहर के लगभग सारे वीआईपी को कार्यक्रम में ला कर जता दिया कि उनके व्यक्तित्व में कुछ तो खास है। इससे उनके हाई प्रोफाइल होने का भी सबूत मिलता है, जिसकी चमक से हर वीआईपी, राजनेता हो या अफसर, की आंखें चुंधिया गई।
एक बड़ी और रेखांकित करने वाली बात ये भी नजर आई कि दरगाह शरीफ से गहरे जुड़ा खुद्दाम साहेबान का तबका इस आयोजन से लगभग कटा ही रहा। अजमेर शरीफ में सूफीज्म पर कोई जलसा हो और उसमें ख्वाजा साहब के खिदमतगार गैर मौजूद रहें, तो चौंकना स्वाभाविक ही है। ऐसा लगता है कि आयोजकों का दरगाह दीवान जेनुअल आबेदीन से जुड़ाव होना इसकी प्रमुख वजह रही है। दीवान व खुद्दाम हजरात के बीच कैसे ताल्लुक हैं, इसे सब जानते हैं। यानि कि दरगाही सियासत के चलते एक शानदार सूफी जलसा अपने उरोज पर नहीं आ पाया। यह न केवल सूफीज्म के मिशन के लिए अफसोसनाक है, अपितु अजमेर वासियों के लिए भी दुखद। उम्मीद है कि आयोजन की समीक्षा करने पर बहुमुखी प्रतिभा की धनी गुलशा बेगम भविष्य में इस बात पर पूरा ध्यान देंगी कि कार्यक्रम जिस मकसद से हो रहा है, कम से कम से वह तो पूरा होना ही चाहिए। कार्यक्रम महज एक उपलब्धि का तमगा बन कर न रह जाए। और इसके लिए उन्हें अपने जैसे करंट वाली टीम भी बनानी होगी।
-तेजवानी गिरधर

अनुपम श्रीवास्तव ने हासिल की बडी उपलब्धि

हाल ही में अजमेर बीएसएनएल के सीनियर जनरल मैनेजर अनुपम श्रीवास्तव का चयन बीएसएनएल मुख्यालय ने नेशनल डायरेक्टर मोबाइल के पद पर किया है। श्रीवास्तव के लिए ही नहीं बल्कि अजमेर के लिए भी यह एक बड़ी उपलब्धि है। वे इसके लिए बेशक हकदार भी हैं। अजमेर बीएसएनएल की तस्वीर बदलने में इनका जो योगदान रहा है, वह बीएसएनएल स्टाफ ही नहीं बल्कि शहर के जनप्रतिनिधियों एवं आम उपभोक्ताओं के लिए भी अकल्पनीय रहा। यहां तक की शहर की मीडिया ने भी उनके सकारात्मक कार्यों में उनका साथ दिया। श्रीवास्तव का मीडिया के प्रति भी हमेशा दोस्ताना व्यवहार रहा।
आज के डेढ़ साल पहले जब बीएसएनएल के तत्कालीन जीएम महेंद्र कुमार वाधवा का यहां से तबादला हुआ तो यहां के स्टाफ ने भगवान का शुक्र मनाया, क्योंकि वाधवा के अडयिल रवैये के कारण स्टाफ और शहर के हजारों उपभोक्ता भी हमेशा परेशान रहते थे। मीडिया से तो उनका 36 का आंकड़ा रहा। इस बीच केंद्रीय सूचना एवं प्रौद्योगिकी राज्य मंत्री सचिन पायलट भी यहां से सांसद का चुनाव जीत चुके थे। माना जाता है कि उन्होंने ही वाधवा को अजमेर से रुखसत कर अजमेर में योग्य अफसर की तैनाती की। पायलट ने अजमेर के बीएसएनएल तंत्र को मजबूत बनाने के लिए श्रीवास्तव को अजमेर में लगाया। कारण भी साफ था, क्योंकि पायलट अपने संसदीय क्षेत्र से कई ऐसी योजनाओं की शुरुआत करने वाले थे, जो देश में पहली दफा अजमेर से ही शुरू की गई। ऑप्टिकल फाइबर केबल का जाल बिछाना, नेशनल ऑप्टिकल फाइबर केबल का अरांई में पूरा किया गया पायलट प्रोजेक्ट, नेटवर्क सुधार में किए गए नए प्रयोग और अन्य कई ऐसे कार्य, जो श्रीवास्तव और उनकी टीम ने अजमेर में पूरी दक्षता के साथ पूरे किए। यह वे ही श्रीवास्तव हैं, जिन्होंने पूरे प्रदेश में बीएसएनएल मोबाइल सेवाओं की शुरुआत जोधपुर में जीएम पद पर रहते हुए करवाई।
जब आईटीएस अफसरों के रिलीव होने की बारी आई तो प्रदेश में महज श्रीवास्तव ही ऐसे अधिकारी बचे, जो 2005 में ही बीएसएनएल में अपनी सेवाओं को मर्ज करवा चुके थे। माना जा रहा था कि वे अपनी योग्यता के बूते पर प्रदेश बीएसएनएल में सीजीएम के पद पर आसाीन होंगे। मगर इस अंदाजे से भी दो कदम आगे निकले श्रीवास्तव। हाल ही में ही बीएसएनएल मुख्यालय दिल्ली ने उन्हें नेशनल मोबाइल डायरेक्टर पद के लिए चयन कर लिया। यह चयन आसान नहीं था। देशभर के 20 अनुभवी अफसर इसके लिए कतार में थे। मगर इन पर श्रीवास्तव का अनुभव और योग्यता भारी पड़ी।
अजमेर बीएसएनएल के इतिहास में संभवतय यह पहला मौका है, जब अजमेर जीएम पद से कोई अफसर सीधे नेशनल मोबाइल डायरेक्टर के पद पर देशभर की मोबाइल सेवाओं और व्यवस्थाओं की कमान को संभालेंगे।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

स्कूल का समय न बदलना सराहनीय


छात्राओं की सुविधा के अनुरूप समय नहीं बदलने पर भले ही चंद छात्राओं ने सावित्री स्कूल छोड़ दी हो, मगर इस सिलसिले में शिक्षा विभाग व स्कूल प्रबंधन की ओर से अपनाए गए रवैये की सर्वत्र सराहना हो रही है।
ज्ञातव्य है कि स्कूल का समय बदले जाने की मांग पूरी न होने पर सावित्री स्कूल की 11वीं कक्षा की 3 छात्राओं ने टीसी कटवा ली है, जबकि 5 और ने भी आवेदन कर दिया है। इस पर जिला शिक्षा अधिकारी सुरेश चंद शर्मा ने दो टूक शब्दों में कहा है कि सुबह आठ बजे से दोपहर डेढ़ बजे तक का समय नहीं किया जा सकता। प्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में एकल पारी स्कूलों का समय सुबह साढ़े 10 बजे से शाम साढ़े 4 बजे तक का है। छात्राएं स्कूल से जाना चाहती हैं तो वे जा सकती हैं, इसके लिए अभिभावक पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।
असल में छात्राओं ने कहा था कि पहले से ही ट्यूशन का समय चार बजे से कर रखा है, लेकिन अब वे साढ़े 4 बजे तो स्कूल से छूटती हैं तो वे ट्यूशन नहीं जा पाती हैं। उनके इस तर्क में कोई दम नहीं है। स्कूल की पढ़ाई के बाद ट्यूशन पर जाना छात्राओं का पूर्णत: निजी मामला है, उसकी वजह से पूरी स्कूल का समय बदले जाने की मांग गैर वाजिब है। इस प्रकार अगर चंद छात्राओं की सुविधा को देखते हुए स्कूलों के समय बदले जाने लगे तो पूरी व्यवस्था ही चौपट हो जाएगी। ऐसे तो हर स्कूल के छात्र और छात्राएं अपनी सुविधा के हिसाब से स्कूल का समय रखने की मांग करने लगेंगे। इतना ही नहीं एक ही स्कूल के कुछ छात्र कोई और समय पर स्कूल चलाने की मांग करेंगे तो कुछ छात्र कोई और समय पर स्कूल खोलने की मांग करने लगेंगे। उनकी मांग पर ध्यान दिया जाता है तो इससे न केवल पूरी व्यवस्था चौपट हो जाएगी, अपितु इससे अराजकता को भी बढ़ावा मिलेगा। कम से शिक्षण संस्थाओं में तो इस प्रकार की अराजकता बेहद घातक साबित हो सकती है। कुछ निहित स्वार्थों के चलते चंद तत्त्वों ने छात्रों की मांग को उनका अधिकार बताते हुए अराजकता फैलाने की कोशिश की थी। बताया तो यहां तक जाता है कि जिस ट्यूशन की आड़ ली जा रही है, वह स्कूल की ही कुछ शिक्षिकाओं की ओर से ली जाती है, जो कि अपनी सुविधा के लिए छात्राओं को भड़का रही हैं। हालांकि पिछले दिनों जब यकायक छात्राएं आंदोलित हुई तो उस वक्त हालात को देखते हुए प्रशासन को झुकना पड़ा, पर बाद में उसने सख्त रवैया अपना लिया, जो कि तारीफ ए काबिल है।
-तेजवानी गिरधर

अजमेर के भाजपा टिकटों में होगी सांसद यादव की भूमिका


भाजपा के राष्ट्रीय सचिव व राज्यसभा सदस्य भूपेन्द्र यादव जिस प्रकार अजमेर से लगाव रख रहे हैं, उससे यह संदेश साफ जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर जिले के विधानसभा टिकटों में उनकी अहम भूमिका होगी। ज्ञातव्य है कि दिल्ली से भाजपा की सदस्यता होने के बाद भी उन्होंने अजमेर आ कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की है, ताकि उन पर राजस्थान में बाहरी होने का ठप्पा न रहे। राजस्थान में भी उन्होंने अजमेर को उन्होंने इसलिए तरजीह दी है, क्योंकि अजमेर में उन्होंने अपना अध्ययन काल बिताया है।
सब जानते हैं कि जब भाजपा हाईकमान ने उन्हें राज्यसभा का टिकट दिया था तो भरी बैठक में इस पर ऐतराज हुआ था कि वे बाहरी हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के दबाव से मामला दबा दिया गया। इसके बाद भी उन पर बाहरी होने का ठप्पा लग रहा था, सो उन्होंने यह बेहतर समझा कि भाजपा की प्राथमिक सदस्यता अजमेर से ही ले ली जाए। आपको याद होगा कि जीतने के बाद भी वे सबसे पहले अजमेर ही आए और उसके बाद भी आए दिन अजमेर आते रहते हैं। राज्यसभा सदस्य बनने के बाद वे काफी सक्रिय हैं और आए दिन राष्ट्रीय मसलों पर न्यूज चैनलों पर भाजपा की पैरवी करते नजर आते हैं। वे पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के काफी नजदीक भी हैं। समझा जाता है कि हाई कमान ने उन्हें विशेष रूप से अजमेर जिम्मेदारी दे रखी है। हालांकि विधानसभा टिकट वितरण के दौरान पैनल बनाने का काम निचले स्तर पर होगा, मगर जयपुर व दिल्ली में टिकट फाइनल करते वक्त उनकी राय अहम रहेगी। चतुर दावेदार उनकी भूमिका को अच्छी तरह से समझते हैं और उन्होंने अभी से उनसे लाइजनिंग रखना शुरू कर दिया है। यहां बताना प्रांसगिक ही होगा कि यहां उनके लंगोटिया यार भी मौजूद हैं, जिनमें से कुछ टिकट के दावेदार भी हैं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

बाइयों की एकजुटता अनूठी, पर कायम रखना कठिन


कांग्रेस कच्ची बस्ती प्रकोष्ठ की अध्यक्ष सुशीला चौधरी की पहल और दैनिक भास्कर के समर्थन से शहर में पहली बार पॉश कॉलोनियों के बंगलों में काम करने वाली बाइयों को एकजुट करने का अनूठा प्रयोग किया गया है। माकड़वाली रोड स्थित रामदेव नगर कच्ची बस्ती से शुरू हुआ आंदोलन वैशाली नगर, एलआईसी कॉलोनी, आनंद नगर तक पहुंच गया। राजीव कॉलोनी कच्ची बस्ती की काम वाली बाइयों ने भी बंगलों में काम-काज का बहिष्कार कर दिया। बाइयों के हितों के लिए किया गया यह प्रयोग कुछ हद तक सफल हुआ है, जिसका बाइयों को लाभ भी मिला है, मगर इसमें विसंगतियां भी हैं, जिन्हें अगर नहीं समझा गया तो इस प्रकार की एकजुटता ज्यादा समय तक टिक नहीं पाएगी।
असल में बंगलों में रहने वाले लोग इतने आराम पसंद हैं कि बाइयों के बिना उनकी जिंदगी अधूरी है। एक भी दिन बाई छुट्टी करती है तो घर की मालकिन के हाथ पांव फूल जाते हैं। बीवी के काम में मियां को भी हाथ बंटाना पड़ जाता है। जिन घरों में मियां-बीवी दोनों कमाते हैं, उनके यहां तो बाई के बिना काम ही नहीं चल सकता, क्योंकि उनके पास टाइम ही नहीं है। ऐसे में वे बाइयों की पगार बढ़ाने की मांग को पूरा करने को मजबूर हैं। कई ने तो पगार बढ़ा भी दी है। इससे उनके बजट पर कुछ खास असर भी नहीं पड़ा है, क्योंकि जितनी उनकी मासिक आय, उसकी तुलना में पगार में बढ़ोत्तरी कुछ भी नहीं, मगर परेशानी में वे आ गए हैं, जो मध्यम वर्ग के हैं। उन्हें ज्यादा परेशानी ये है कि इस प्रकार यदि बाइयों की एकजुटता रही तो आगे फिर बढ़ोतरी की मार झेलनी होगी।
बेशक एक ओर जहां संगठित क्षेत्र के मजदूरों को ही एकजुट करना कठिन होता है, ऐसे में असंगठित क्षेत्र के ऐसे मजदूर, जो कि पार्ट टाइम काम करते हैं, उन्हें एकजुट करना वाकई तारीफ ए काबिल है। मेहतनतकश लोगों के हितों के मद्देनजर चलाया गया यह अभियान शाबाशी देने योग्य है, मगर आंदोलन के सूत्रधार व रणनीतिकारों को इसकी विसंगतियों की ओर भी ध्यान देना चाहिए, वरना आगे चल कर यह दम भी तोड़ सकता है।
सबसे बड़ी समस्या तो ये है कि मेहनताने का फार्मूला क्या हो? हर घर में अलग किस्म का काम है, कहीं कम तो कहीं ज्यादा। हालांकि इसका फार्मूला फौरी तौर पर बनाया तो गया है मगर ऐसा प्रतीत होता है कि दूसरे पक्ष को कत्तई ख्याल नहीं रखा गया है। बाइयों से काम करवाने वालों का कहना है कि वे पहले से ही काम से ज्यादा पगार दे रहे हैं। इसके अतिरिक्त मानवीय संवेदना रखते हुए काम वाली बाइयों की छुट्टियों का कोई हिसाब नहीं रखा जाता। कई बाइयां आए दिन किसी न किसी बहाने से छुट्टियां करती हैं, मगर उनके पैसे नहीं काटे जाते। साथ ही त्यौहार अथवा घर में कोई उत्सव होने पर कुछ न कुछ दिया करते हैं। वस्त्र इत्यादि का तो कोई हिसाब ही नहीं है। काम ठीक से न करने की शिकायतें तो आम हैं। कई जगह तो हालत ये है कि बाइयों ने काफी एडवांस ले रखा है, वे पुरानी पगार पर ही काम करने को मजबूर हैं। इन समस्याओं का समाधान तलाशना भी आंदोलन को हवा देने वालों की जिम्मेदारी बनती है। माना कि कुछ लोग पगार बढ़ाने को मजबूर हुए हैं, मगर कई ऐसे भी हैं, जिन्होंने बाइयों से यह कह दिया है कि काम पर आना है तो आ नहीं तो हिसाब कर ले। उन घरों से बाइयों का काम छूटा तो उन्हें काम कौन दिलवाएगा? अगर इस समस्या का समाधान नहीं हुआ तो आर्थिक तंगी के चलते बाइयां कम पगार पर ही काम करने को मजबूर हो जाएंगी। कुल मिला कर यह आंदोलन है भले ही अनूठा, मगर इससे जुड़ी समस्याओं का भी समुचित समाधान और दोनों पक्षों के बीच संतुलन भी जरूरी है, वरना अन्ना हजारे जैसे दिग्गजों के आंदोलन को टांय टांय फिस्स होते हुए हमने देखा है। (फोटो-दैनिक भास्कर से साभार)
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

सिंगारिया की धमाकेदार शुरुआत का प्रतीक है इंदिरा स्मारक


अजमेर में रेलवे स्टेशन रोड पर जिस इंदिरा गांधी स्मारक की चर्चा इन दिनों खूब हो रही है, वहां पर इंदिरा गांधी की मूर्ति स्थापित होने पर उसका श्रेय भले ही नगर सुधार न्यास सदर नरेन शहाणी भगत के खाते में जाए अथवा तुरत-फुरत में एनओसी देने के लिए नगर निगम मेयर कमल बाकोलिया की वाहवाही हो, मगर कम लोगों को ही पता है कि असल में यह स्मारक केकड़ी के पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारिया की राजनीति में धमाकेदार शुरुआत की यादगार है।
हुआ ये था कि तकरीबन पच्चीस साल पहले जिन दिनों सिंगारिया कांग्रेस में सक्रिय हुए ही थे तो उन्होंने अपनी एंट्री धमाकेदार तरीके से करने के लिए स्टेशन रोड पर मोइनिया इस्लामिया स्कूल की दीवार पर इंदिरा गांधी के फोटो के साथ उनके लोकप्रिय बीस सूत्र का एक भित्ति चित्र लगवाया था। इस पर विवाद हुआ और बाद में विवाद तब ज्यादा बढ़ गया, जबकि उसके ऊपर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ भी लगा दिया गया। बाद में जब टैम्पो स्टैंड के लिए स्कूल के मैदान की जमीन ली गई तो दीवार तोड़े जाने के सबब इसे हटाने की नौबत आ गई। मगर कांग्रेसी अड़ गए। उन दिनों सिंगारिया, पूर्व विधायक हाजी कयूम खान, महेन्द्र सिंह रलावता, महेश ओझा, कैलाश झालीवाल वाली सशक्त लॉबी ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। बड़ी जद्दोजहद हुई। आखिर भित्ति चित्र वाली दीवार के हिस्से को छोड़ते हुए दोनों तरफ मार्ग निकालना पड़ा। बाद में पुराने भित्ति चित्र के ठीक पीछे नया भित्ति चित्र व्यवस्थित तरीके से बनवाया गया और तब से यह स्थान इंदिरा गांधी के स्मारक के रूप में स्थापित हो गया, जहां पर कांग्रेस का एक गुट जयंती व पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने आया करता था।
यहां पर मूर्ति की स्थापना करने की बात तो बहुत बाद में आई। नगर सुधार न्यास ने वर्ष 2002 में मोइनिया इस्लामिया स्कूल के बाहर प्रतिमा लगाने के आवेदन किया था। इस पर संभागीय आयुक्त कार्यालय ने नगर सुधार न्यास को 16 अक्टूबर 2003, 6 जुलाई 2004, 6 सितंबर 2004, 7 अक्टूबर 2004 और फरवरी 2005 को पत्र लिखकर निगम की एनओसी पेश करने के निर्देश दिए थे, लेकिन प्रदेश में भाजपा का शासन होने की वजह से न्यास ने केवल 7 अप्रैल 2004 को पत्र लिखकर निगम से एनओसी देने का आग्रह कर इतिश्री कर ली। निगम में भाजपा का बोर्ड होने की वजह से मामला लटका रहा।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों गांधी जयंती पर कांग्रेस की एक सभा में मूर्ति स्थापना के मुद्दे को मुख्य रूप से शहर कांग्रेस महामंत्री प्रताप यादव ने उठाया था। इससे पहले भी वे अनेक बार इस मुद्दे पर राज्य सरकार से पत्र व्यवहार करते रहे हैं। उनका मुद्दा था कि जब केन्द्र व राज्य में कांग्रेस की सरकार है और नगर निगम में मेयर व न्यास में सदर कांग्रेस के हैं, तब भी क्या इंदिरा गांधी की प्रतिमा नियत स्थान पर लगने के इंतजार में न्यास में ही पड़ी रहेगी। इस पर भगत ने जैसे ही सफाई दी कि न्यास ने नगर निगम को इस संबंध में पत्र लिखा, लेकिन निगम स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी है, तो बवाल हो गया। निगम में नेता प्रतिपक्ष नरेश सत्यावना ने इस बात पर नाराजगी जताई की बेमौके ऐसे मुद्दे न उठाए जाएं। इसके साथ ही सत्यावना ने भगत के इस बयान को भी गलत ठहराया कि न्यास ने प्रतिमा के संबंध में निगम के मेयर कमल बाकोलिया को कोई चि_ी लिखी है। उन्होंने दावा किया कि यूआईटी सदर चि_ी बता दें तो निगम की साधारण सभा में प्रस्ताव पारित कर प्रतिमा स्थापित करवाने के संबंध में कार्रवाई करेंगे। वस्तुस्थिति ये थी कि प्रस्ताव निगम के पास लंबित पड़ा था। जाहिर सी बात है कि वे इस मुद्दे को हथियाना चाहते थे, ताकि मूर्ति लगवाने में अपनी भूमिका भी दर्ज करवा सकें।
बहरहाल इस हलचल का परिणाम ये रहा कि मेयर कमल बाकोलिया ने दस साल से लंबित मामले का निबटारा कर दिया। बाकोलिया ने 6 सदस्यों की एक कमेटी का गठन कर दिया, इसमें तीन भाजपा के भागीरथ जोशी, दलजीत सिंह व दिनेश चौहान और तीन कांग्रेस के नरेश सत्यावना, चंद्रशेखर बालोटिया व श्रीमती चंद्रकांता पारलेचा का शामिल किया गया। इस कमेटी ने मेयर की अध्यक्षता में हुई बैठक में सर्वसम्मति से श्रीमती गांधी प्रतिमा लगाने के लिए स्वीकृति प्रदान कर दी। अब उम्मीद की जा रही है कि मूर्ति जल्द ही लग जाएगी। इसमें भी पेच ये आ सकता है कि मूर्ति के नीचे लगाए जाने वाले शिलापट्ट पर नाम किस-किस के आएंगे।
चलते-चलते यह बता दें कि जिस प्रकार तीन भाजपा पार्षदों ने मूर्ति लगाने के प्रस्ताव पर सहमति दी है, उसको लेकर भाजपा पार्षद दल में अंतर्विरोध चल रहा है। बताते हैं कि उन्होंने डिप्टी मेयर अजित सिंह तक को विश्वास में नहीं लिया है। इसको लेकर पार्षदों में गरमागरम बहस चल रही है, जिसका अंत क्या होगा, पता नहीं।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

क्या वापसी पर नरवाल पाला बदल लेंगे?


भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा अजमेर शहर जिला अध्यक्ष पद पर देवेंद्र सिंह शेखावत की नियुक्ति की विरोध करने वाले प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य अनिल नरवाल भले ही बहाल हो गए हैं, मगर ये सवाल आज भी खड़ा है कि क्या वे इस वजह से अपना पाला बदल लेंगे?
असल में ये सवाल इस वजह से उठता है क्योंकि शेखावत का ही विरोध करने वाले उनके प्रतिद्वंद्वी नितेश आत्रेय की नाराजगी को दूर करने के लिए उन्हें कोटा संभाग का प्रभारी बनाया गया तो यही समझा गया था कि प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष औंकारसिंह लखावत गुट ने उन्हें बोतल में बंद कर लिया है। लखावत गुट में बड़ा सुकून था कि चलो देवनानी लॉबी के एक युवा मोर्चा नेता को तो सेट कर लिया। इस बात की भी तसल्ली थी कि अब वे अजमेर में शेखावत को परेशान करने के लिए दखल नहीं देंगे, मगर चंद दिन बाद ही उन्होंने जता दिया कि वे उस खेमे से बंधे हुए नहीं हैं। डीजल के दामों में बढ़ोत्तरी को लेकर मोर्चा की अजमेर इकाई अभी कुछ करती, इससे पहले ही उन्होंने अपने समर्थकों के साथ रैली निकाल कर यूपीए सरकार का पुतला फूंका और जता दिया कि वे अजमेर में तो अपना दखल जारी रखेंगे ही। इससे भी रोचक बात ये थी कि उन्होंने इस विरोध प्रदर्शन की जो विज्ञप्ति अखबारों को भेजी, वह भारतीय जनता युवा मोर्चा शहर जिला अजमेर के लेटर हेड पर भेजी है। उसमें साफ लिखा है कि भारतीय जनता युवा मोर्चा शहर जिला अजमेर का यह प्रदर्शन संभाग प्रभारी नितेश आत्रेय के नेतृत्व में आयोजित किया गया। इस प्रदर्शन पर शहर जिला अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह शेखावत की स्थिति अजीबोगरीब हो गई। वे समझ रहे थे कि आत्रेय से मुक्ति मिल गई, मगर वे तो उससे भी बड़ा सिरदर्द हो गए। अर्थात वे अब भी देववानी लॉबी में ही बने हुए हैं, भले ही वापसी में लखावत का हाथ हो। इसके चंद दिन बाद ही जब मोर्चे का कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ आंदोलन के तहत जवाहर रंगमंच पर सम्मेलन हुआ तो ये खतरा बना हुआ ही था कि आत्रेय का गुट हंगामा किए बिना नहीं मानेगा। वो तो यह गुट इससे पहले हुए अजमेर बंद के दौरान कांग्रेस कार्यालय में कालिख पोते जाने की वजह से उलझ गया, वरना इतनी शांति से सम्मेलन होना संभव नहीं था।
बहरहाल, अब जब कि नरवाल को बहाल किया गया है तो अंदरखाने की खबर ये है कि ऐसा ओंकार सिंह लखावत के प्रयासों से हुआ है और वे उन्हें देवनानी लॉबी से तोड़ कर लाए हैं। ऐसे में यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठ रहा है कि क्या बहाली के बाद वे लखावत का अहसान मान कर उनके कहे अनुसार चलेंगे या फिर देवनानी गुट में ही बने रहेंगे। हां, ये बात जरूर हो सकती है कि दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है सो आत्रेय के झटके बाद नरवाल की बहाली से पहले उन्होंने उनसे वचन लिया होगा कि वे वापस देवनानी लॉबी को ज्वाइन नही करेंगे।
-तेजवानी गिरधर

अब हेमा गहलोत बढ़ रही हैं तेजी से आगे


अजमेर की राजनीति में हेमा गहलोत का नाम अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है। कुछ अरसे पहले जरूर उन्हें अजमेर में प्रथम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत की धर्मपत्नी के रूप में जाना जाता था, मगर अब उन्होंने अपनी खुद की पहचान बनाना शुरू कर दिया है।
हाल ही उन्होंने केन्द्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल द्वारा महिला विरोधी बयान दिए जाने पर शहर भाजपा महिला मोर्चा की ओर से गांधी भवन पर आयोजित प्रदर्शन का नेतृत्व किया। शहर अध्यक्ष जयंती की अनुपस्थिति में आयोजित इस प्रदर्शन में उपाध्यक्ष होने के नाते नेतृत्व करते हुए उन्होंने जता दिया कि वे भी अपने पति की तरह पूरी तरह से बिंदास हैं और उनमें भी नेतृत्व के गुण हैं। महिला मोर्चा में उनकी अपनी फेन फॉलोइंग भी है। बताते हैं वे उतनी ही तेज-तर्रार हैं, जितनी विधायक श्रीमती अनिता भदेल हो चुकी हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि वे महिला मोर्चा में भदेल विरोधी गुट की अग्रणी नेता मानी जाती हैं। यूं अनिता भदेल मोर्चा की प्रदेश उपाध्यक्ष हैं, मगर मीटिंग इत्यादि में हेमा गहलोत का गुट अपनी उपस्थिति अलग से दिखाता है।
समझा जाता है कि धर्मेन्द्र गहलोत निकट भविष्य में चुनावी राजनीति  में कोई चांस नजर नहीं आने के कारण अपनी धर्मपत्नी को पूरा संबल प्रदान कर रहे हैं। हालांकि विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से उनकी दावेदारी की भी चर्चाएं हैं, मगर समझा जाता कि सिंधियों के लिए अघोषित रूप से आरक्षित इस सीट से उन्हें कुछ खास उम्मीद नहीं होगी। रहा सवाल नगर निगम का तो वे मेयर रह चुकने के बाद पार्षद का चुनाव तो लड़ेंगे नहीं। मेयर पद की बात करें, जिसका चुनाव सीधे मतदाता करेंगे, तो अगली बार न जाने किस जाति-वर्ग के लिए आरक्षित हो। ऐसे में चुनावी राजनीति के लिहाज से उनके पास कुछ खास करने को है नहीं। संगठन में जरूर महामंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर हैं। ऐसे में उनकी धर्मपत्नी का सक्रिय राजनीति में आगे आना नए समीकरणों की ओर इशारा करता है। यदि मेयर का पद ओबीसी महिला के लिए आरक्षित होता है तो एक झटके में उनकी पत्नी आगे आ जाएंगी। इसके अतिरिक्त भी जिस प्रकार पढ़ी लिखी महिलाओं की भाजपा में कमी है, हेमा गहलोत के लिए आगे बढऩे का पूरा चांस है। अपनी तो यही दुआ है कि जिस तरह धर्मेन्द्र व हेमा मालिनी की जोड़ी आबाद है, वैसे ही धर्मेन्द्र गहलोत व हेमा गहलोत की जोड़ी भी आबाद रहे।

-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

क्या नई संभागीय आयुक्त इस ओर ध्यान देंगी?


अजमेर निवासी अतुल शर्मा के सेवानिवृत्त होने के बाद संभागीय आयुक्त के पद पर 1985 बैच की आईएएस किरण सोनी गुप्ता ने कार्यभार संभाल लिया है। अपनी पहली ही बैठक में उन्होंने कलेक्टर वैभव गालरिया से अजमेर में चल रही विभिन्न विकास योजनाओं की जानकारी ली। ट्रैफिक, पानी, पार्किंग, सीवरेज व अन्य समस्याओं के बारे मेंं भी जाना। जैसा कि उन्होंने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि अजमेर संभाग में टूरिज्म और औद्योगिक क्षेत्र में विकास की बड़ी संभावनाएं हैं, ऐसा प्रतीत होता है कि जरूर यहां के विकास में रुचि लेंगी।
कदाचित उन्हें पता न लगा हो कि शर्मा अजमेर के लिए क्या-क्या करना चाहते थे और क्या-क्या कर गए, साथ ही कौन से काम राजनीतिक दखंलदाजी के कारण बाकी रह गए, लिहाजा उन्हें बताना हमारा फर्ज है।
असल में शर्मा अजमेर को उसके ऐतिहासिक गौरव के अनुरूप अन्य बड़े शहरों की तरह खूबसूरत और सुव्यवस्थित करना चाहते थे, मगर ऐसा हो नहीं पाया।
विकास के मामले में अन्य शहरों से पिछडऩे के अतिरिक्त यह शहर वर्षों से अतिक्रमण और यातायात अव्यवस्था से बेहद पीडि़त है। पिछले पच्चीस साल के कालखंड में अकेले पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता को ही यह श्रेय जाता है कि उन्होंने मजबूत इरादे के साथ अतिक्रमण हटा कर शहर का कायाकल्प कर दिया था। संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा भी बहुत कुछ करना चाहते थे, मगर राजनीति आड़े आ गई। शर्मा के विशेष प्रयासों से शहर को आवारा जानवरों से मुक्त करने का अभियान शुरू हुआ, मगर चूंकि राजनीति में असर रखने वालों ने केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट का दबाव डलवा दिया, इस कारण वह अभियान टांय टांय फिस्स हो गया। इसी प्रकार शहर को अतिक्रमण से मुक्त करने पर भी शर्मा ने पूरा जोर लगाया, मगर जब भी इस दिशा में कुछ करते, कोई न कोई राजनीतिक रोड़ा सामने आ जाता। एक बार शर्मा ने तत्कालीन जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के प्रयासों से टे्रफिक मैनेजमेंट कमेटी की अनुशंसा पर यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए जवाहर रंगमंच के बाहर बनी गुमटियों को दस साल ही लीज समाप्त होने के बाद हटाया तो बड़ा हंगामा हुआ। कांग्रेसी पार्षदों ने जेसीबी मशीन के आगे तांडव नृत्य किया।नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि प्रशासन तो जन-विरोधी है, जबकि वे स्वयं गरीबों के सच्चे हितैषी। बहरहाल, विरोध का परिणाम ये रहा कि प्रशासन को न केवल गुमटी धारकों को अन्यत्र गुमटियां देनी पड़ीं, अपितु यातायात में बाधा बनी अन्य गुमटियों को हटाने का निर्णय भी लटक गया।
इसी प्रकार शहर की यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए शर्मा की अध्यक्षता में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय तो हुए, पर उन पर कितना अमल हो नहीं पाया। जिस कचहरी रोड और नेहरू अस्पताल के बाहर उन्होंने सख्ती दिखाते हुए ठेले और केबिने हटाई थीं, वहां फिर पहले जैसे हालात हो गए। शर्मा ने पशु पालन की डेयरियों को अजमेर से बाहर ले जाने की कार्यवाही शुरू करने का ऐलान किया, मगर आज भी स्थिति जस की तस है। बड़े-बड़े गोदाम शहर से बाहर निर्धारित स्थल पर स्थानांतरित करने की व्यवस्था करने का निर्णय किया गया, मगर आज तक कुछ नहीं हुआ। शहर के प्रमुख चौराहों को चौड़ा करने का निर्णय भी धरा रह गया। खाईलैंड में नगर निगम की खाली पड़ी जमीन पर बहुमंजिला पार्किंग स्थल बनाने की योजना अब तक खटाई में पड़ी हुई है। कुल मिला कर शर्मा जैसा चाहते थे, वैसा हो नहीं पाया। अब देखते हैं कि अजमेर विकास की संभावनाएं बताने और उस पर अमल करने को जोर देने वाली किरण सोनी गुप्ता कितना जज्बा दिखाती हैं।
जानकारी है कि वे न केवल कुशल प्रशासक हैं, बल्कि साहित्य और कला में भी उनकी गहरी रुचि है। महाराणा प्रताप, ए ग्रेट सन ऑफ मेवाड़ के अलावा उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं और विभिन्न विषयों पर उनके लिखे आर्टिकल समय-समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। चित्रकारी के प्रति उनका लगाव है और वे अच्छी चित्रकार भी हैं। उनकी बनाई पेंटिंग्स राष्ट्रीय स्तर पर सराही गई और उन्हें कई अवार्ड भी मिले हैं। सामाजिक क्षेत्र में भी गुप्ता कई संस्थाओं से जुड़ी रही हैं। एक बड़े अधिकारी का यह पहलु अजमेर के कला प्रेमियों के लिए सुखद है। कला प्रेमी अजमेर फोरम के माध्यम से एक बड़ा कला केन्द्र बनवाने के लिए प्रशासन व सरकार पर दबाव बनाए हुए हैं। सूचना केन्द्र में पूरी सुविधाएं नहीं हैं और जवाहर रंगमंच छोटा पड़ता है। ऐसे में भोपाल के भारत भवन जैसे कला केन्द्र की सख्त जरूरत है। उम्मीद है वे इस ओर तो जरूर ध्यान देंगी।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

अजमेर ने खो दिया मार्केटिंग का इकलौता बादशाह


सोनिया और करिश्मा प्रदर्शनी की बदोलत लोकप्रिय मार्केटिंग गुरू श्री वासुदेव वाधवानी का निधन अजमेर के लिए एक अपूरणीय क्षति है, जिसकी पूर्ति कत्तई असंभव है।
पैंतालीस स्वर्गीय वाधवानी पहले शख्स थे, जिन्होंने मात्र पच्चीस साल ही उम्र में ही दिखा दिया था कि उनमें मार्केटिंग का बेजोड़ गुर है। उस जमाने में न तो लोग मार्केटिंग के बारे में समझते थे और न ही मीडिया मार्केटिंग के संबंध में। शहर का सबसे बड़ा अखबार दैनिक नवज्योति हुआ करता था। दूसरे स्थान पर दैनिक न्याय व राजस्थान पत्रिका की गिनती होती थी। विज्ञापन के लिहाज से इन अखबारों में मात्र एक-एक व्यक्ति रखा हुआ होता था। वही शहरभर के चुनिंदा तीन-चार सौ विज्ञापनदाताओं से विशेष अवसरों पर विज्ञापन लिया करते थे। विज्ञापन की दुनिया क्या होती है और विज्ञापन के क्या लाभ होते हैं, इसके बारे में व्यवसाइयों को कोई खास जानकारी नहीं होती थी। जहां तक प्रॉडक्ट्स की मार्केटिंग का सवाल है, गिनती की कंपनियों के एसआर जरूर हुआ करते थे, मगर योजनाद्ध तरीके से मार्केटिंग कैसे की जाती है, इसके बारे में किसी को जानकारी नहीं थी। स्वर्गीय श्री वाधवानी पहले शख्स थे, जिन्होंने इंडियन मार्केटिंग की स्थापना की और शहर के व्यपारियों को पहली बार दिखाया कि अपने प्रोडक्ट का मार्केटिंग सर्वे कैसे किया जाता है और उसके क्या लाभ हैं। उन्होंने न केवल सर्वे की परंपरा को आरंभ किया अपितु हॉर्डिंग्स, फ्लैक्स व बैनर के जरिए विज्ञापन करने से भी साक्षात्कार कराया। कदाचित कुछ इक्का दुक्का और युवक भी इस क्षेत्र में आए होंगे, मगर स्वर्गीय वाधवानी उन सबमें अव्वल थे और जल्द ही उन्होंने अपने कारोबार का विस्तार कर लिया। साथ ही मीडिया मार्केटिंग से भी शहर वासियों को रूबरू करवाया। दैनिक भास्कर और राजस्थान पत्रिका तो बहुत बाद में आए, उससे पहले ही उन्होंने मीडिया मार्केटिंग की शुरुआत कर दी।  मुझे अच्छी तरह ख्याल है कि दैनिक भास्कर ने अजमेर आने पर सबसे पहले उनसे ही विज्ञापनों की मार्केटिंग करवाई। बाद में तो भास्कर व पत्रिका ने बाकायदा मार्केटिंग हैड व उनके नीचे स्टाफ रखना आरंभ किया और शहर में तरीके से मार्केटिंग होने लगी। मगर निजी क्षेत्र में मीडिया मार्केटिंग के वे सदैव बेताज बादशाह रहे।
सरे राह ग्रुप के विज्ञापन प्रभारी व अजमेर मल्टी मीडिया के प्रोपराइटर स्वर्गीय वाधवानी दैनिक भास्कर अजमेर से अधिकृत विज्ञापन एजेंसी संचालक के रूप में भी जुड़े हुए थे। उन्होंने अनेक युवक-युवतियों को मार्केटिंग सिखाई और रोजगार भी उपलब्ध करवाया।
आमजन में उनकी पहचान सोनिया व करिश्मा प्रदर्शनी से हुई, जिसकी परंपरा शुरू करने का श्रेय भी उनके ही खाते में जाता है। एक ही छत के नीचे जरूरत का हर सामान, वह भी सस्ते में कैसे मिलता है, इससे साक्षात्कार करवाने की उपलब्धि उनके ही खाते में जाती है। एक अर्थ में उन्होंने शहर के व्यवसाइयों को यह सिखाया कि प्रदर्शनी के जरिए अपना माल कैसे बेहतर ढंग से बेचा जा सकता है। यदि ये कहें कि अजमेर का व्यवसाय जगत उनके बिना अधूरा है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
उनकी सफलता का सबसे बड़ा सूत्र ये था कि वे सदैव पॉजिटिव रहते थे। उनके साथी और व्यवसायी बताते हैं कि नहीं शब्द तो उनकी जुबान पर था ही नहीं। कैसा भी काम हो, वे यही कहते थे कि हो जाएगा। उनकी व्यवहार कुशलता का ही सबब है कि आज पूरे मीडिया जगत और व्यावसायिक दुनिया में शोक की लहर व्याप्त है।
अजमेरनामा उनके निधन पर भावपूर्ण श्रद्धांजलि अर्पित करता है और ईश्वर से प्रार्थना करता है कि उनके परिजन को इस दु:ख को सहन की शक्ति प्रदान करे।
-तेजवानी गिरधर

क्या ये अराजकता प्रशासन की समझ में नहीं आ रही?


स्कूलों का समय यथावत रखने को लेकर सावित्री स्कूल के बाद राजकीय गुलाबबाड़ी स्कूल की छात्राओं ने भी जिस प्रकार सड़कों पर आ कर प्रदर्शन किया है, उससे यह साफ नजर आने लगा है कि अपने हक और मांग की खातिर अराजक व अनियंत्रित तरीके की बीमारी जोर पकड़ रही है। इसके बावजूद प्रशासन का जो ढ़ीला रवैया है, उससे सवाल उठता है कि क्या पानी सिर के ऊपर से बहने लगेगा, तब जा कर वह चेतेगा?
जिस प्रकार छात्राएं लामबंद हो कर प्रदर्शन को उतारू हुईं, उससे इस बात का अंदेशा तो होता है कि चंद खुरापाती शिक्षक-शिक्षिकाओं के भड़काने से ही यह माहौल उत्पन्न हुआ है। दोनों स्कूलों में जिस तरह से हंगामा पैदा हुआ और फिर सड़कों पर पसर गया है, उसमें कम से कम छात्राओं के स्वप्रेरित आंदोलन करने की तो कत्तई संभावना नहीं है। और अभिभावकों के उकसाने की बात भी गले नहीं उतरती। भला कौन माता-पिता अपनी बेटियों को इस प्रकार के प्रदर्शन के लिए उकसाएगा? ऐसे में शक की सुई शिक्षकों-शिक्षिकाओं पर ही घूमती है। प्रशासन को भी इसी आशय की रिपोर्ट मिली है, इस कारण वह उनके खिलाफ कार्यवाही की बात कर रहा है।
अगर यह सच है कि हमारे गुरुजन इस प्रकार की हरकतें करवा रहे हैं, तो यह बेहद शर्मनाक है। ऐसा करके वे न केवल भावी पीढ़ी को उदंड बना रहे हैं, अपितु देश को अराजकता का पाठ पढ़ा रहे हैं। होना यह चाहिए था कि छात्र-छात्राओं की समस्या को शिक्षक अपने स्तर पर शिक्षा विभाग तक पहुंचाते और दबाव बनाते कि फिलहाल समय यथावत रखा जाए। इसकी बजाय बच्चों को भड़काना वाकई घटिया हरकत है। ऐसे खुरापाती शिक्षकों के खिलाफ तो कार्यवाही होनी ही चाहिए।
वस्तुत: लोकतंत्र में मांग रखना गलत नहीं है, मगर उसका जो तरीका अपनाया गया है, वह चिंता का कारण बनता है। स्कूली छात्राओं का कक्षाओं का बहिष्कार करना और बिना किसी संरक्षण के पांच किलोमीटर का सफर तय कर के कलेक्ट्रेट पहुंचने को संभव है प्रशासन ने हल्के में लिया हो, मगर यह किसी हादसे का सबब भी बन सकता था। उस वक्त जिम्मेवार कौन होता?
अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि कहीं ये अराजकता का आगाज तो नहीं है? यह आशंका इस बात से पुष्ट होती है कि गुलाबबाड़ी स्कूल की छात्राओं ने यह तर्क दिया कि जब प्रदर्शन के बाद सावित्री स्कूल की छात्राओं के समय में परिवर्तन किया जा सकता है तो उनकी स्कूल के समय में परिवर्तन संभव क्यों नहीं है। यानि कि खुद की बला टालने की खातिर शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने जो अस्थाई समाधान निकाला, वह अन्य बच्चों के लिए नजीर बन गया। अराजकता ऐसे ही पनपती है। वह छूत की बीमारी है।  समय रहते इलाज न किया जाए तो दुखदायी हो जाती है। दुर्भाग्य से चंद तथाकथित बुद्धिजीवी, जिन्होंने पूरे देश को स्वर्ग बनाने का ठेका ले रखा है, वे सनक की हद तक इसे जायज ठहरा रहे हैं। उनके तर्कों में कितना कुतर्क है, इसे आमजन अच्छी प्रकार समझ रहे हैं, उसके लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं है।
ताजा घटनाक्रम में यह बात तो सही लग रही है कि राज्य सरकार व शिक्षा विभाग ने अपने कलेंडर के मुताबिक स्कूलों का जो समय बदला है, वह दिन में पड़ रही गर्मी की वजह से कुछ कष्टप्रद है। फिलहाल समय न बदले जाने को लेकर कुछ शिक्षक संगठनों ने तो शुरू में ही मांग उठाई थी, मगर सरकार ने उसे नजरअंदाज कर दिया। अब जब कि एक के बाद दूसरी स्कूल की छात्राएं सड़क पर पर उतरी हैं, प्रशासन को हालात की गंभीरता को समझना होगा। मात्र शिक्षकों के खिलाफ सख्ती बरतने से हल नहीं निकलने वाला है। उसे सरकार से संपर्क साध कर तुरंत समाधान निकालना होगा।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

छात्राओं का हंगामा : क्या यह अराजकता का आगाज है?


सावित्री स्कूल की छात्राओं द्वारा गत दिवस स्कूल का समय बदलने के विरोध में किए गए हंगामे के साथ यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि कहीं लोकतंत्र में अपने अधिकारों को हासिल करने के लिए हम अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे? क्या यह ऐसी जागरुकता है, जो हमें पूरी व्यवस्था को छिन्न भिन्न करने को प्रेरित कर रही है? क्या हम व्यवस्था से इतने तंग आ चुके हैं कि उसे नष्ट करने के लिए किसी भी स्तर पर जाने को तैयार हैं?
ये सवाल इसलिए उठते हैं क्योंकि जिस ढंग से अचानक अनियंत्रित विरोध प्रदर्शन हुआ, वह किसी सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा प्रतीत होता है। अंदाजा लगाइये कि जिस स्कूल का अस्तित्व खतरे में था, छात्राओं का भविष्य अंधकार में था, तब उसका अधिग्रहण करने की मांग को लेकर छात्राओं ने कोई खास भूमिका अदा नहीं की और मात्र समय बदलने पर इतना बड़ा हंगामा खड़ा कर दिया। छात्राओं के स्वप्रेरित आंदोलन किए जाने की बात तो कत्तई गले नहीं उतरती। हालांकि यह प्रशासनिक जांच से ही स्पष्ट हो पाएगा कि इस हंगामें के पीछे कौन था, मगर चर्चा यही है कि इसमें कहीं न कहीं स्कूल स्टाफ की भूमिका रही होगी। हालांकि स्कूल की प्रिंसिपल रंजू पारीक कहती हैं कि इसमें शिक्षिकाओं का तो कोई रोल नहीं है, लेकिन मगर ऐसा प्रतीत होता कि स्टाफ से टकराव मोल न लेने की वजह से उन्होंने इस प्रकार का बयान दिया है। स्कूल की शिक्षिकाओं की भूमिका का संदेह इसी कारण उत्पन्न हुआ है क्योंकि छात्राओं ने ट्यूशन के समय का जो बहाना बनया है, वह शिक्षिकाओं की सुविधा से जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।
रहा सवाल बाहरी तत्त्वों के हस्तक्षेप का तो कम से कम अभिभावकों द्वारा इस प्रकार की हरकत करने की संभावना तो कम ही नजर आती है। उसमें सीधे तौर पर आईएसी की अजमेर प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक थीं और साथ ही थे उनके कुछ कार्यकर्ता। इसकी पुष्टि वीडियो फुटेज के साथ ही रंजू पारीक भी कर रहीं हैं कि लाल रंग की साड़ी पहनी हुई महिला इन छात्राओं का नेतृत्व कर रही थी, मगर उन्हें इसका पता ही नहीं लग पाया कि आंदोलन का ताना बाना किसने बुना? कैसी विडंबना है कि एक स्कूल प्रधान को यह पता ही नहीं लगा कि कीर्ति पाठक ने छात्राओं को उकसाया या फिर उकसाया तो किसी और ने तथा कीर्ति पाठक को बाद में बुलाया गया। इससे रंजू पारीक की प्रशासनिक सूझबूझ का खुलासा खुद ब खुद हो रहा है। उधर खुद कीर्ति पाठक का कहना है कि सविता नामक छात्रा ने उन्हें टेलीफोन कर उनकी मदद करने के लिए बुलाया था। वे स्कूल पहुंची तब जाम लगा हुआ था। छात्राएं स्कूल का समय यथावत रखने के लिए कलेक्टर को ज्ञापन देना चाहती थीं, उन्होंने उनकी मदद की इसमें हर्ज क्या है? उनके इस बयान से यह तो समझ में आता है कि वे ऐन वक्त पर वहां पहुंची, पहले से रची गई साजिश का उन्हें कुछ पता नहीं था। जैसे ही उन्हें नेतागिरी करने का निमंत्रण मिला वे दौड़ी दौड़ी चली आईं। प्रदर्शन के दौरान उत्पन्न हालात की उन्हें कल्पना ही नहीं थीं, इसी कारण पूरा ठीकरा अपने ऊपर फूटने के डर से अपनी भागीदारी को जायज ठहराने की कोशिश कर रही हैं। मगर साथ ही उनका यह कहना कि छात्राएं अपने हक के लिए लडऩा सीख रही हैं, से यह सवाल उठता है कि जिन छात्राओं को अभी अपने कर्तव्यों का ही पूरा भान नहीं है, उन्हें अभी से हक की खातिर लडऩा सिखा कर देश का कौन सा भला किया जा रहा है? ये तो गनीमत है कि कोई दुर्घटना नहीं हुई, वरना लेने के देने पड़ जाते। विरोध प्रदर्शन के दौरान उत्पन्न माहौल पर बात करें तो यह साफ नजर आया कि कीर्ति पाठक छात्राओं का नेतृत्व तो कर रही थीं, मगर छात्राएं उनके नियंत्रण नहीं थीं। वे बेकाबू हो कर इधर-उधर भटक रही थीं, जिससे किसी भी वक्त दुर्घटना होने का अंदेशा था।
अब जरा छात्राओं कथित हक की भी बात कर लें। उनको पहले से चला आ रहा समय तो सूट करता है, मगर बदले गए समय से कोचिंग खराब होती है। संभव है उनका तर्क अपनी जगह पर ठीक हो, मगर इस प्रकार यदि अन्य स्कूल के छात्र-छात्राएं भी अपनी सुविधा के हिसाब से स्कूल खुलवाने पर अड़ जाएंगे तो पूरे सिस्टम का क्या होगा? बस यहीं अंदेशा होता है कि कहीं अपने हकों को हासिल करने के लिए हम अराजकता की ओर तो नहीं बढ़ रहे?
वस्तुत: यह सिस्टम पूरे राजस्थान में लागू है। वर्षों से यही सिस्टम है। मौसम बदलने पर जिस प्रकार कोर्ट का समय, पानी-बिजली बिल भरने का समय इत्यादि बदले जाते हैं, ठीक उसी प्रकार स्कूलों का समय भी बदला जाता है। यह सभी पर समान रूप से लागू होता है और उससे भी बड़ी बात ये कि यह इसी साल अचानक लागू नहीं किया गया है। ऐसा नहीं है कि 1 अक्टूबर से एक-दो दिन पहले  कोई नया नियम लागू किया गया हो। यह नियम पहले से घोषित है। पहली बात तो उसके प्रति स्कूल विशेष की असहमति के कोई मायने ही नहीं हैं, मगर यदि उनकी असहमति है भी तो उसके लिए पहले से ही आगाह किया जाना चाहिए था, न कि अचानक नियम लागू होने वाले दिन स्कूल से बाहर आ कर हंगामा खड़ा करना।
रहा सवाल कीर्ति पाठक के साथ चल रहे दो युवकों नील शर्मा व सुशील पाल का, तो पुलिस ने उन्हें कानून व्यवस्था के नजरिए से शांति भंग के मामले में गिरफ्तार किया, मगर कीर्ति पाठक के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की, जबकि प्रदर्शन का नेतृत्व वे कर रही थीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस व प्रशासन उनसे घबराने लगा है? लगे हाथ बता दें कि इस घटनाक्रम के सिलसिले में कीर्ति पाठक द्वारा यू ट्यूब व फेस बुक पर एक वीडियो फुटेज डाला गया है। इसे देखने से पूरे प्रकरण को कुछ हद तक समझा जा सकता है। वीडियो फुटेज देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:-

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सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

जो चाहते थे, वह नहीं कर पाए संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा


भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी अतुल शर्मा 39 वर्ष की राजकीय सेवा के बाद सेवानिवृत्त हो गए। अजमेर में उन्होंने 15 जून 2009 को कार्यभार संभाला और करीब सवा तीन साल तक रहे। इस दौरान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में अध्यक्ष और एमडीएस यूनिवर्सिटी में प्रशासक का दायित्व भी निभाया। शर्मा आमजन के लिए हमेशा उपलब्ध रहे और उनकी समस्याओं को सुनकर निपटाने का प्रयास भी किया। उनके प्रयासों से स्टेशन रोड पर फुट ओवर ब्रिज बना और पार्किंग व्यवस्था के कुछ कार्य कराए। असल में वे अजमेर को अन्य बड़े शहरों की तरह खूबसूरत और सुव्यवस्थित करना चाहते थे, मगर ऐसा हो नहीं पाया।
 वस्तुत: यह अजमेर का सौभाग्य रहा कि शर्मा के अजमेर के निवासी हैं, मगर कई बार मजबूत होने के बाद भी राजनीतिक कारणों से मजबूर साबित हुए। अपने कार्यकाल में आखिरी खंड में वे अमूमन इस बात का इजहार भी करते थे।
सब जानते हैं कि यह शहर वर्षों से अतिक्रमण और यातायात अव्यवस्था से बेहद पीडि़त है। पिछले पच्चीस साल के कालखंड में अकेले पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता को ही यह श्रेय जाता है कि उन्होंने मजबूत इरादे के साथ अतिक्रमण हटा कर शहर का कायाकल्प कर दिया था। यह सही है कि जैसा वरदहस्त अदिति मेहता को तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत का मिला हुआ था, वैसा मौजूदा संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा पर नहीं था। बावजूद इसके उन्होंने कुछ करना चाहा, मगर राजनीति आड़े आ गई।
आपको याद होगा कि कुछ अरसे पहले शर्मा के विशेष प्रयासों से शहर को आवारा जानवरों से मुक्त करने का अभियान शुरू हुआ, मगर चूंकि राजनीति में असर रखने वालों ने केन्द्रीय राज्य मंत्री सचिन पायलट का दबाव डलवा दिया, इस कारण वह अभियान टांय टांय फिस्स हो गया।
इसी प्रकार शहर को अतिक्रमण से मुक्त करने पर भी शर्मा ने पूरा जोर लगाया, मगर जब भी इस दिशा में कुछ करते, कोई न कोई राजनीतिक रोड़ा सामने आ जाता। एक बार शर्मा ने तत्कालीन जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के प्रयासों से टे्रफिक मैनेजमेंट कमेटी की अनुशंसा पर यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए जवाहर रंगमंच के बाहर बनी गुमटियों को दस साल ही लीज समाप्त होने के बाद हटाया तो शहर के नेता यकायक जाग गए। जहां कुछ कांग्रेसी पार्षदों ने वोटों की राजनीति की खातिर गरीबों का रोजगार छीनने का मुद्दा बनाते हुए जेसीबी मशीन के आगे तांडव नृत्य कर बाधा डालने की कोशिश की, वहीं भाजपा दूसरे दिन जागी और कांग्रेसी पार्षदों पर घडियाली आंसू बहाने का आरोप लगाते हुए प्रशासन को निरंकुश करार दे दिया। गुमटियां तोडऩे पर इस प्रकार उद्वेलित हो कर नेताओं ने यह साबित करने की कोशिश की कि प्रशासन तो जन-विरोधी है, जबकि वे स्वयं गरीबों के सच्चे हितैषी। विरोध करने वालों को इतनी भी शर्म नहीं आई कि अगर वे इस प्रकार करेंगे तो प्रशासनिक अधिकारी शहर के विकास में रुचि क्यों लेंगे। केवल नौकरी ही करेंगे न। बहरहाल, विरोध का परिणाम ये रहा कि प्रशासन को न केवल गुमटी धारकों को अन्यत्र गुमटियां देनी पड़ीं, अपितु यातायात में बाधा बनी अन्य गुमटियों को हटाने का निर्णय भी लटक गया।
इसी प्रकार शहर की यातायात व्यवस्था को सुधारने के लिए संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की अध्यक्षता में अनेक महत्वपूर्ण निर्णय तो हुए, पर उन पर कितना अमल हुआ, ये पूरा शहर जानता है। उनकी लाचारी इससे ज्यादा क्या होगी कि जिस कचहरी रोड और नेहरू अस्पताल के बाहर उन्होंने सख्ती दिखाते हुए ठेले और केबिने हटाई थीं, वहां फिर पहले जैसे हालात हो गए हैं।
शर्मा ने पशु पालन की डेयरियों को अजमेर से बाहर ले जाने की कार्यवाही शुरू करने का ऐलान किया, मगर आज भी स्थिति जस की तस है। बड़े-बड़े गोदाम शहर से बाहर निर्धारित स्थल पर स्थानांतरित करने की व्यवस्था करने का निर्णय किया गया, मगर आज तक कुछ नहीं हुआ। रोडवेज बस स्टैंड के सामने रोडवेज की बसों को खड़ा करके यात्रियों को बैठाने पर पांबदी लगाई गई, मगर उस पर सख्ती से अमल नहीं हो पाया। शहर के प्रमुख चौराहों को चौड़ा करने का निर्णय भी धरा रह गया। खाईलैंड में नगर निगम की खाली पड़ी जमीन पर बहुमंजिला पार्किंग स्थल बनाने की योजना खटाई में पड़ी हुई है।
कुल मिला कर अजमेर ने एक अच्छा अफसर खो दिया है, जिसके मन में अपनी मातृभूमि का ऋण चुकाने की इच्छा थी, मगर कामयाब नहीं हो पाए।
प्रसंगवश बता दें कि 1987 बैच के आईएएस अतुल शर्मा की राजकीय सेवा में शुरुआत उद्योग विभाग से हुई। पंजीयन एवं मुद्रांक विभाग के महानिरीक्षक के पद पर शर्मा का कार्यकाल उल्लेखनीय रहा। उन्होंने पंजीयन और मुद्रांक महकमे में व्यापक फेरबदल व सुधार किए, जिनमें उप पंजीयक कार्यालयों से दलालों का एकाधिकार समाप्त करना था। शर्मा ने एक ही दिन में रजिस्ट्री करने और 24 घंटे में रजिस्टर्ड दस्तावेज देने की व्यवस्था करते हुए रजिस्ट्री की प्रक्रिया को सरल कर दिया।
-तेजवानी गिरधर