गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

क्या संघ देवनानी-अनिता जंग की वजह से भट्टे बैठी भाजपा का उद्धार करेगा?

इन दिनों संघ प्रमुख मोहन भागवत की मौजूदगी में संघ नेताओं के जमघट का फायदा उठा कर भाजपा व संघ के कुछ नेता इस कोशिश में लगे हैं कि जिन दो विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल की वजह से पार्टी का भट्टा बैठा हुआ है, उनकी ढ़ेबरी टाइट करवाई जाए, जर्जर हो चुके संगठन का उद्धार हो सके। संयोग से उन्हें दोनों की जंग को उजागर करने का मौका भी मिल गया है। इधर संघ का जलसा चालू हुआ और उधर यह समाचार आया कि शहर भाजपा अध्यक्ष पद के लिए पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत का नाम फाइनल हो गया है। साथ में यह भी उजागर हुआ है कि उनके नाम पर मजबूरी में सहमति इसी कारण बनाई गई है क्योंकि अन्य सभी पात्र दावेदारों पर दोनों विधायक राजी नहीं हैं। इसी को मुद्दा बना कर संघ के जुड़े कुछ नेता फिर सक्रिय हो गए हैं। हालांकि उन्होंने रावत का नाम तय न होने देने के लिए पहले भी पूरी ताकत लगा दी थी, लेकिन उनकी चली नहीं। अब जब कि संघ प्रमुख मोहन भागवत अजमेर प्रवास पर हैं तो वे इसका फायदा उठाना चाहते हैं। उनका प्रयास है कि संघ के बड़े पदाधिकारियों से जोर लगवा कर प्रो. बी. पी. सारस्वत के अध्यक्ष बनाने के आदेश जारी करवा दें।
यहां उल्लेखनीय है कि दोनों विधायकों की लड़ाई को देखते हुए ही कभी अजमेर भाजपा के भीष्म पितामह रहे औंकारसिंह लखावत के प्रयासों से आखिरी विकल्प के रूप में प्रो. रावत के नाम पर सहमति बनाई गई है। ऐसे में प्रो. सारस्वत की पैरवी करने वाले संघ के लोगों का कहना है कि जिन विधायकों की आपसी लड़ाई के कारण शहर भाजपा का भट्टा बैठा है, क्या अब भी उनकी सहमति को तवज्जो दी जाएगी। शिकायत पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे से भी की गई है कि क्या केवल उन्हीं दो विधायकों से पूछ कर सब कुछ तय किया जाएगा, जिनकी वजह से पार्टी को मेयर के चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा, और क्या कार्यकर्ता की नहीं सुनी जाएगी?
ज्ञातव्य है कि शहर की दोनों विधानसभा सीटों पर काबिज प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल भले ही लगातार दूसरी बार चुनाव जीत कर विधानसभा में भाजपा के आंकड़े में दो का इजाफा करने का श्रेय रखते हों, मगर भाजपा कार्यकर्ताओं का तो यही मानना है कि अजमेर में पार्टी संगठन का बेड़ा गर्क करने के लिए ये दोनों ही जिम्मेदार हैं। इन दोनों में से कौन ज्यादा जिम्मेदार है, इसका आकलन जरूर कठिन है, मगर जहां तक संगठन में गंदगी फैलाने की वजह से खिलाफत का सवाल है, वह देवनानी की कुछ ज्यादा ही हो रही है। इसकी वजह ये है कि अधिसंख्य भाजपा नेता, चाहे कुंठा की वजह से, चाहे देवनानी के व्यवहार की वजह से अथवा वैश्यवाद की वजह से, देवनानी के खिलाफ खम ठोक कर खड़े हंै। पार्टी के अधिसंख्य नेताओं का मानना है कि गुटबाजी तो औंकारसिंह लखावत और श्रीकिशन सोनगरा के बीच भी थी। स्वर्गीय वीर कुमार की भी लखावत से नहीं बनती थी। सबको पता था। मगर कोई कुछ नहीं बोलता था। देवनानी व भदेल के बीच जैसी जैसी जंग है, वैसी पूर्व में कभी नहीं रही। पार्टी बाकायदा दो धड़ों विभाजित हो रखी है। उनकी लड़ाई की वजह से ही पार्टी हाईकमान ने संगठन की स्थानीय इकाई को दरकिनार करके नगर निगम चुनाव में टिकट वितरण के अधिकार दोनों विधायकों को दे दिए थे। परिणामस्वरूप अनेक टिकट गलत बंट गए। संगठन पूरी तरह से गौण हो गया और दोनों विधायक अपने-अपने चहेते प्रत्याशियों को जितवाने में जुट गए। नतीजतन मेयर पद के प्रत्याशी डॉ. हाड़ा अकेले पड़ गए। न तो विधायकों ने उनकी मदद की और न ही संगठन ने। संगठन तो था ही नहीं। केवल पूर्व उपमहापौर सोमरत्न आर्य डॉ. हाड़ा को लेकर घूमते रहे। और एक जिताऊ व साफ-सुधरी छवि का नेता शहीद हो गया। इसका मलाल संगठन के सभी समझदार नेताओं व कार्यकर्ताओं को है। कुल मिला कर पार्टी के कार्यकर्ताओं को भारी पीड़ा है। वे यह उम्मीद लगाए बैठे थे कि अब तो पार्टी हाईकमान किसी ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाएगा, जो देवनानी व भदेल गुट में बंटी पार्टी को एक करेगा, मगर पार्टी फिर उन्हीं के आगे नतमस्तक है।