रविवार, 15 मई 2016

गर रावत का पुनर्वास हो भी गया तो अजमेर का क्या?

इन दिनों अजमेर से दिल्ली तक एक चर्चा है कि अजमेर से पांच बार लोकसभा रहे प्रो. रासासिंह रावत राज्यसभा में जाने की जुगत बैठा रहे हैं। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से उनकी मुलाकात के भी यही अर्थ निकाले गए हैं। मगर सवाल ये है कि मोदी जी ने दया करके उन्हें राज्यसभा के लिए चुनवा लिया तो जाहिर तौर पर उनका तो वनवास समाप्त हो जाएगा, मगर उससे अजमेर को क्या लाभ होने वाला है? ये सवाल इस वजह से मौजूं है कि राज्यसभा सदस्य से कहीं अधिक पावरफुल लोकसभा सदस्य, और वो भी पांच बार रहते उन्होंने अजमेर का क्या भला करवा दिया? वे लोकसभा में सवाल तो बहुत उठाते थे, मगर उनकी सुनता कोई नहीं था।
दिल्ली में बैठा आदमी ये सोच सकता है कि रावत अजमेर के बहुत लोकप्रिय नेता रहे होंगे, तभी तो पांच बार चुने गए, मगर असल में सच्चाई इससे दीगर है। वे अमूमन लोकसभा की ना पक्ष की लॉबी में बैठे। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में जरूर उनका मंत्री बनने का नंबर आ सकता था, मगर अनेक दलों के सहयोग से सरकार बनाए जाने के कारण उन दलों को ज्यादा संतुष्ट किया गया और रावत को मन मसोस कर रहना पड़ा।
दरअसल जब तक वे चुने जाते रहे, तब अजमेर लोकसभा क्षेत्र में रावतों का दबदबा रहा और उन्हीं के दम पर वे जीतते भी रहे। कांग्रेस ने जातीय पत्ता बदल बदल कर उम्मीदवार उतारे, मगर सभी हार गए। उन्होंने सन् 1989 में पुडुचेरी के भूतपूर्व उपराज्यपाल व नसीराबाद के लोकप्रिय विधायक रहे स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, 1991 में जाट नेता जगदीप धनखड़, 1996 में राज्य के पूर्व राजस्व मंत्री स्वर्गीय किशन मोटवानी, 1999 में पूर्व राज्यसभा सदस्य डॉ. प्रभा ठाकुर और 2004 में हाजी हबीबुर्रहमान को हराया। केवल 1998 में वे कांग्रेस की प्रभा ठाकुर से मात्र पांच हजार वोटों से हारे थे। कुल मिला कर रावत वोटों की बहुलता के चलते कोई भी उनके सामने नहीं टिक पाया। बाद में जब अजमेर लोकसभा क्षेत्र का पुनर्सीमन हुआ तो रावत बहुल मगरा इलाका कट गया। भाजपा की उन पर दाव खेलने की हिम्मत नहीं हुई। हालांकि अजमेर के रावतों को खुश करने के लिए उन्हें राजसमंद से टिकट दिया गया, मगर वे हार गए। इसी के साथ उनका अवसान आरंभ हो गया। बाद में अजमेर भाजपा की फूट के चलते वरिष्ठता और सर्वसम्मति के आधार पर उन्हें शहर जिला भाजपा का अध्यक्ष बनाया गया, जो कि एक तरह से पुर्नवास ही था, मगर प्रो. वासुदेव देवनानी व अनिता भदेल के आगे वे प्रभावहीन ही रहे। शहर जिला अध्यक्ष पद पर अरविंद यादव की नियुक्ति के बाद से राजनीति के हाशिये पर हैं। उनके पुत्र को कार्यकारिणी में स्थान मिला, मगर उनकी खुद की कोई पूछ नहीं रही। ये वाकई आश्चर्यजनक है कि पांच बार लोकसभा सदस्य रहे नेता का आज कोई नामलेवा भी नहीं रहा। कदाचित ऐसा उनके स्वयं प्रभावहीन होने अथवा भाजपा की लालकृष्ण आडवाणी सरीखी यूज एंड थ्रो वाली नीति के चलते हुए है। ऐसे और भी स्थानीय उदाहरण हैं, यथा पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा, पूर्व विधायक नवलराय बच्चानी, पूर्व विधायक हरीश झामनानी, जिनकी आज पार्टी में कोई खास तवज्जो नहीं है।
बहरहाल, अब जब कि रावत प्रधानमंत्री मोदी से मिल कर आए हैं और राज्यसभा चुनाव का दौर है तो उनका नाम चर्चा में है। उनकी इस मुलाकात का फोटो वायरल होने का उन्हें फायदा होगा या नुकसान, कुछ कहा नहीं जा सकता, मगर इस मुलाकात को गुपचुप रखते तो बेहतर होता। अब नाम चर्चा में आने के बाद जरूर अन्य दावेदार अड़ंगा लगा रहे होंगे।
प्रसंगवश बता दे कि रावत के अतिरिक्त अजमेर के पूर्व राज्यसभा सदस्य और वर्तमान में राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण न्यास के अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत का नाम भी चर्चा में है, वे तिकड़मी भी हैं, मगर वे खुद ऐसा चाहते या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। और सबसे अव्वल सवाल ये कि अगर वे राज्यसभा सदस्य बन कर चले गए तो उन पर जो पुरा धरोहरों के संरक्षण का जिम्मा है, जो कि वे बखूबी निभा रहे हैं, उसका क्या होगा? लगता नहीं कि कोई और पूरी ईमानदारी और लगन के साथ इस काम को कर पाएगा। हां, इतना जरूर है कि अगर वे राज्यसभा में गए तो जरूर अजमेर का कुछ भला हो सकता है। उनका पूर्व का अधूरा कार्यकाल नजीर के रूप में देखा जा सकता है, जबकि उन्होंने दिल्ली में दमदार तरीके से अजमेर की उपस्थिति दर्ज करवाई थी।
ज्ञातव्य है कि राजस्थान से चार सदस्य चुने जाने हैं, जिनमें से पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण का टिकट पक्का माना जा रहा है। बाकी की दो सीटों के लिए आरएसएस वाले रामलाल, वी पी सिंह, सतीश पूनिया, महेश चंद शर्मा और ओम माथुर के साथ प्रो. रासासिंह रावत व औंकार सिंह लखावत के नाम की चर्चा है।
-तेजवानी गिरधर
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