सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

राजा शब्द का इस्तेमाल हाईकमान के निर्देशों को उल्लंघन


हाल ही शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने जब एक पारिवारिक शादी के कार्ड में अपने नाम के आगे राजा शब्द का विशेषण लगाया तो चर्चा का विषय हो गया। होना ही था। लोकतांत्रिक देश में अगर अब भी कोई अपने आपको राजा कहलाता है तो लोकतंत्र भक्तों को अटपला लगेगा ही। उससे भी बड़ी बात ये है कि वे उसी पार्टी के शहर जिला अध्यक्ष जैसे जिम्मेदार पद पर बैठे हैं, जिसने पिछले विधानसभा चुनाव में राजा, महाराजा, राजकुमार, कुंवर शब्द से परहेज रखने का फरमान जारी किया था। यह दीगर बात है कि तक कांग्रेस के इस फरमान का विरोध भी हुआ था।
असल में यह मुद्दा वर्षों से चर्चित रहा है। राजस्थान क्षत्रिय महासभा के महासचिव व राजपूत स्टूडेंट यूथ ऑर्गेनाइजेशन के प्रदेशाध्यक्ष कुंवर दशरथ सिंह सकराय ने तो बाकायदा बयान जारी कर कहा था कि कांग्रेस राजपूत समाज के साथ सौतेला व्यवहार कर रही है, लेकिन गत लोकसभा चुनाव में प्रथम बार राजा-महाराजाओं को प्रत्याशी बनाये जाने पर राजपूत समाज ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया है। राज्य के मुख्यमंत्री मानसिक तौर पर महाराजा, महारानी आदि शब्दों से पीडि़त है। अगर इन शब्दों से इन्हें पीड़ा है तो फिर क्यों चुनावों में पहले राजमहलों के दरवाजों पर दस्तक दी।
सकराय ने कहा कि शालीन राजपूत समाज के महाराजाओं को आज भी समाज के प्रति द्वेषता का व्यवहार नहीं है, यही कारण है कि उन्होंने गहलोत के प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार किया और चुनावी समर में कांग्रेस के पक्ष में संसदीय सीटों पर विजयश्री दिलाई। इससे स्पष्ट होता है कि कांग्रेस यह स्वीकार कर चुकी है अगर किसी सीट पर विजय प्राप्त करती है तो महाराजाओं को टिकट दिया जाए। इतना सब होने के बावजूद गहलोत अपनी मानसिक कुण्ठा को अन्दर रखने में असफल रहे और हमारे समाज के प्रणेताओं के महाराजा उद्बोधन को पूर्णतया हटाने का फरमान जारी करवाया, यह समाज को कभी स्वीकार नहीं होगा।
उनका तर्क है कि राजपूत समाज में ठाकुर, कुंवर, कुंवरानी, बाईसा, जैसे शब्दों से उद्बोधन करना सांस्कृतिक परम्परा है, जिसका पट्टा राजूपत समाज को किसी राजनीतिक या सरकार से लेने की आवश्यकता नहीं है। ये हमारी सांस्कृतिक विरासत है। उसी प्रकार मुस्लिम समाज में नवाब, बेगम, शहजादी, शहजादा शब्दों का प्रचलन आम बोलचाल में संस्कृति का स्वरूप लिए हुए हैं।
कांग्रेस आम आदमी की पार्टी होने का दम भरती है तो चुनावों में महाराजाओं, नवाबों को प्रत्याशी क्यों बनाया, क्या उस समय शांमतशाही शब्दों से परहेज नहीं था। वास्तविक यह है कि कांग्रेस राजाओं-महाराजाओं के दम पर सीटें तो जीतना चाहती है, मगर उनकी लोकप्रियता व उनके सम्मान को पचा नहीं पा रही है। लोकतांत्रिक परंपरा की दृष्टि से चाहे जो कहा जाए, मगर सकराय के बयान में दम तो है। इसी तर्क को यदि रलावता के प्रकरण में जोड़ कर देखा जाए तो प्रासंगिक ही लगता है। राजपूतों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए यदि रलावता को अध्यक्ष बनाया जाता है तो उनके राजा शब्द के इस्तेमाल पर ऐतराज नहीं होना चाहिए।

सनद रहे... जारी है देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी


शहर भाजपा अध्यक्ष के रूप में प्रो. रासासिंह रावत को अध्यक्ष बना कर पार्टी में चल रही गुटबाजी को समाप्त करने के गंभीर प्रयासों के बाद भी ऐसा प्रतीत होता है कि अब भी देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी जारी है। देवनानी खेमा अपने अस्तित्व को हरवक्त स्थापित करने की कोशिश में रहता है, जबकि एंटी देवनानी खेमा देवनानी को निपटने की फिराक में ही रहता है।
हाल ही नगर निगम की साधारण सभा के लिए रणनीति में देवनानी खेमे को पूरी तरह से हाशिये में लाने के लिए सदन में बोलने के लिए शिवशंकर हेड़ा, अजीत सिंह, अनिता भदेल व संपत सांखला के ही नाम तय किए गए। ये सभी देवनानी विरोधी खेमे के माने जाते हैं। रणनीति बनाने के वक्त तो इस चालाकी पर चुप रह गए, मगर उन्होंने ठान ही ली कि मौका पड़ते ही वे भी बोलना शुरू कर देंगे। हुआ भी यही। उन्होंने सभा के स्थान को लेकर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की। ठीक इसी प्रकार उनके ही शागिर्द नीरज जैन ने भी कई मसलों पर अपने चिर-परिचित उग्र तेवर दिखाए।
स्पष्ट है कि देवनानी खेमा इस प्रकार निपटाए जाने से नहीं निपटने वाला है। अपने वजूद की खातिर यह खेमा हर सीमा तक जा सकता है। उसी का परिणाम है कि एक ओर विधानसभा घेराव के राज्य स्तरीय कार्यक्रम की योजना बनाने के लिए अजमेर में प्रदेश युवा मोर्चा कार्यसमिति की बैठक हो रही है। वहीं युवा मोर्चा अध्यक्ष पद पर देवेंद्रसिंह शेखावत की नियुक्ति से नाराज चल रहे असंतुष्ट गुट ने कार्यसमिति बैठक का विरोध करने की चेतावनी दे दी है। असंतुष्ट खेमे के अनिल नरवाल तो खुल कर कह रहे हैं कि शेखावत की नियुक्ति से कार्यकर्ताओं में रोष है। मामला प्रदेश अध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी की जानकारी में होने के बाद भी कोई हल नहीं निकाला गया है। प्रदेश अध्यक्ष ने नियुक्ति के समय उठे विवाद को यह कह कर ठंडा करने की कोशिश की कि लालकृष्ण आडवाणी की जनचेतना यात्रा के बाद इस मसले को सुलझाया जाएगा, लेकिन कुछ नहीं किया। यहां तक कि युवा मोर्चा महामंत्री प्रमोद सांभर की ओर से दी गई तथ्यात्मक रिपोर्ट पर भी कोई कार्रवाई नहीं की गई। यदि अध्यक्ष पद को लेकर कोई निर्णय नहीं किया गया तो पदाधिकारियों का विरोध किया जाएगा।
ज्ञातव्य है कि शेखावत के विरोध की मुहिम देवनानी खेमे के नितेश आत्रे को अध्यक्ष न बनाने के साथ शुरू हुई थी। बाद में कुछ और ताकतें भी इसमें शामिल हो गईं। लब्बोलुआब, देवनानी वर्सेज एंटी देवनानी का मुकाबला फिलहाल तो समाप्त होता नजर नहीं आता। जैसी कि जानकारी है, यह तब तक जारी रहेगा, जब तक कि देवनानी विरोधी खेमा देवनानी का टिकट नहीं कटवा लेता।