शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लॉक डाउन में नशे के आदी लोग बेहाल

नशे के विरोधी सभी सुधिजन से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत ये पोस्ट तस्वीर के दूसरे रुख की महज प्रस्तुति है। क्षमायाचना की भी वजह है। जमाना ही ऐसा है कि सच बोलने से पहले उसे बर्दाष्त न कर पाने वालों को नमस्ते करना जरूरी है। वस्तुत: यह सुव्यवस्था की ऐसी विसंगति पर रोशनी डालने कोशिश है, जो बुरी होते हुए भी साथ चली आई है। यह सरकार के स्तर पर तय नीति के धरातल पर कहीं न कहीं व्यावहारिक न होने का इशारा मात्र करती है।
सरकार ने लॉक डाउन के तहत ऐसी व्यवस्था की है कि आम आदमी बेहद जरूरी उपभोक्ता वस्तु, विशेष रूप से जीने के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री से महरूम न रह जाए। दूध, सब्जी, किराने का सामान, दवाई इत्यादि की उपलब्धता बनी रहे, इस का पूरा ध्यान रखा गया है। तकरीबन एक माह से घरों में ही कैद रह कर सोशल डिस्टेंसिंग का काल व्यतीत करते लोगों के बीच से उठी रही एक गोपनीय मांग पर नजर पड़ी तो मैं अचंभित रह गया। वार्ड में नियमित रूप से खाद्य सामग्री का वितरण कर रहे एक पार्षद के किसी मुरीद ने उनसे कहा कि खाद्य सामग्री तो मिल रही है, पड़ी भी है, मगर थोड़ी दारु का भी इंतजाम कर दो ना। स्वाभाविक सी बात है कि पार्षद निरुत्तर हो गए।
खैर, इस मांग को गोपनीय की उपमा इसलिए दी कि क्यों कि आदमी ये तो सवाल खुलकर कर सकता है कि उसे राशन सामग्री समय पर क्यों नहीं मिल रही, लॉक डाउन को तोड़ कर मु_ियां तान सकता है कि खाद्य सामग्री के वितरण में भेदभाव क्यों हो रहा है, मगर ये मांग नहीं कर सकता कि उसे पीने को शराब चाहिए, खाने को गुटखा चाहिए, दम मारने को सिगरेट-बीड़ी चाहिए। वह ये गुहार नहीं लगा सकता कि नशे की लत पूरी न होने से वह बेहाल हो गया है। चिड़चिड़ा हो गया है। अवसाद में जी रहा है।
सीधी-सीधी सी बात है, सरकार की यह जिम्मेदारी तो है कि वह आपको भूखा न सोने दे, मगर नशे की वस्तुएं भी सुलभ करवाए, ये उसका ठेका नहीं, भले ही सामान्य दिनों में बाजार में बेचने के लिए ठेका या लाइसेंस भी उसी ने दिया हुआ है। वस्तुत: नशे के ये शौक आपके निजी हैं, उसका जिम्मा सरकार नहीं ले सकती। चूंकि नशे के ये उत्पाद स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, इस कारण इस विषय पर मुंह खोलना ही अपराध बोध कराता है। पैरवी करो कि एक माह से बंद दुकान के दुकानदार की कि उसका सामान चूहे चट कर गए होंगे, मगर इस पर कलम कैसे चलाई जा सकती है कि लोग नशे का सामान न मिलने से त्रस्त हैं या तीन-चार गुना रेट में लेने को मजबूर हैं। यह बात दीगर है कि सोसायटी का एक बड़ा तबका इसका उपभोग करता है। आम आदमी क्या, नशे के हानिकारक होने से भलीभांति परिचित डाक्टर्स में से भी कुछ इनका उपभोग करते हैं।
उदाहण पेश है। कोई बीस साल पहले मेरे छोटे भाई को जब लीवर के पास आंत में केंसर डाइग्नोस हुआ तो उसे मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में भर्ती करावाया गया। तब केंसर की रोकथाम के लिए इसी अस्पताल की ओर से टीवी पर विज्ञापन आया करता था कि सिगरेट-गुटखा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। एक दिन मैं भौंचक्क रह गया, जब हास्पिटल के बाहर चाय-कॉफी व नाश्ते के रेस्टोरेंट में दूध लेने गया तो देखा कि एक डॉक्टर सिगरेट के कश लगा रहा है। गौर से देखा तो यह वही शख्स था, जो कि मेरे भाई के कॉटेज वार्ड का रेजीडेंट डाक्टर था। विरोधाभास की कैसी आत्यंतिक मिसाल। एक ओर जो अस्पताल कैंसर से बचाव व इलाज के लिए देश भर में प्रसिद्ध है, उसी का एक चिकित्सक यह परवाह नहीं कर रहा कि सिगरेट पीने से उसे भी कैंसर हो सकता है। ऐसा ही एक उदाहरण और। अजमेर में एक ऐसे सर्जन हयात हैं, जो सरकारी नौकरी में रहते ऑपरेशन की एवज में महंगी शराब की बोतल अपनी कार की डिक्की में रखवाया करते थे।
कहने का तात्पर्य ये कि नशे की वस्तुओं को भले ही त्याज्य कहा जाए, मगर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसने समाज को अपने शिकंजे में कस लिया है। एक तबके के लिए जरूरी उपभोक्ता वस्तु बन गई है। क्या यह सही नहीं है कि हमारी व्यवस्था ने ही उसे पहले नषे का आदी होने के लिए स्वतंत्र कर रखा है, भले ही स्वास्थ्य के हानिकारक होने की चेतावनी के साथ। अब अगर हम रोक लगाएंगे तो वह कोसेगा ही।
नशे से दूर रहने वालों के ये बात गले में ही अटक सकती है, मगर धरातल की सच्चाई ये ही है। इस सच्चाई की कड़वाहट ये है कि नशे के आदी लोग अपनी मानसिक क्षुधा को शांत करने के लिए बड़ी भारी ब्लैक के शिकार हैं। उदाहरण के लिए पांच रुपए का एक गुटखा, जिसकी होलसेट रेट चार रुपए है और फैक्ट्री से तो दो रुपए में ही निकल रहा होगा, वह बीस रुपए में बिक रहा है। मिराज नामक तम्बाकू का दस रुपए का पाउच पचास रुपए में बेचा जा रहा है। ऐसा ही हाल शराब का है। शराब न मिलने से बौराए लोग हथकड़ व घटिया शराब पीने को मजबूर हैं। एक अहम बात ये है कि प्रतिबंध के कारण एक ओर जहां कालाबाजारियों के पौ बारह हैं, वहीं आम आदमी लुटने को मजबूर है। सरकार को राजस्व की हानि हो रही है, वो अलग। इसके लिए सरकारी तंत्र को इसलिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, क्योंकि सीमित नफरी व संसाधनों में उसकी पूरी ताकत लॉक डाउन की पालना में लगी हुई है। बावजूद इसके जहां-जहां उसकी जानकारी में आया है, उसने पूरी सख्ती से कार्यवाही की भी है।
मेरे एक पत्रकार साथी डॉ. मनोज आहूजा, जो कि वकील भी हैं, ने जमीनी हकीकत पर कलम चलाई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को खत लिख कर उन्होंने बताया है कि लोग शराब नहीं मिलने से तंग आ चुके हैं। 25 रुपये में मिलने वाला क्वार्टर 200 रुपये में बिक रहा है। जिनके पास दो सौ रुपए नहीं हैं, वे नकली शराब खरीद रहे हैं। हरियाणा ब्रांड की शराब आने लगी है मार्केट में। इनसे मरने वाले कहीं कोरोना के आंकड़ों को पीछे न छोड़ दें। उन्होंने तर्क दिया है कि शराब बंदी लागू होने पर भी सरकार ऐसे लोगों को शराब मुहैया करवाती है, जो एडिक्ट हैं। ऐसे में उन्होंने शराब बंदी के फैसले को अव्यावहारिक बताया है। इस विषय पर चर्चा न कर पाने की विवशता का इजहार करते हुए कहते हैं कि नशा सब छुप कर ही करते हैं। सब जानते हैं कि ये सामाजिक बुराई है, इसलिए बोल नहीं पा रहे।
सुरा के आदी लोगों की पैरवी करते हुए अजमेर जिला कांग्रेस कमेटी सीए प्रकोष्ठ के अध्यक्ष सीए विकास अग्रवाल ने भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व प्रदेश आबकारी विभाग के संयुक्त सचिव ओम राजोतिया को पत्र लिख कर देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को खुलवाने के आदेश जारी करने की मांग की है। अग्रवाल ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि पूरे प्रदेश में चोरी-छिपे शराब की सप्लाई मनमाने दामों पर की जा रही है, जिसकी गुणवत्ता पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। कई जगह पर तो अवैध व हथकड़ शराब बेची जा रही है, जिससे पीने वालों की जान खतरे में पड़ गई है। जो लोग शराब का नियमित सेवन करते हैं, उनको शराब नहीं मिलने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हो रहा है। रात में नींद नहीं आने, चिड़चिड़ापन व हाइपर्टेंशन की प्रमुख समस्या हो गयी है। अत: जैसे दैनिक उपयोग की वस्तुओं को छूट दे रखी है, वैसे ही देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को भी एक समय सीमा के तहत खोलने की इजाजत दी जानी चाहिए।
बहरहाल, कोराना जैसी वैश्विक महामारी में एक ओर जहां लोगों की जान पर बन आई है, सरकार ही पहली प्राथमिकता जान बचाने की है। वही बेहतर समझती है कि वर्तमान में नशीली वस्तुओं पर रोक क्यों व कितनी जरूरी है, मगर तस्वीर का दूसरा पहलु भी संज्ञान में रहना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
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