गुरुवार, 13 जनवरी 2011

यह तो अभी शुरुआत है बाकोलिया जी

करीब बीस साल के कथित कुशासन और भ्रष्टाचार को समाप्त करने की दुहाई दे कर नगर निगम के मेयर पद पर काबिज कमल बाकोलिया अभी निगम की कार्यप्रणाली को समझ ही रहे थे कि खुद उनकी ही पार्टी के पार्षदों की ओर से उन्हें चुनौती मिलने लगी है। भले ही बाकोलिया यह कह एक बार बच लें कि उन्हें पता नहीं कि लौंगिया मोहल्ले में श्रवण खटीक के अवैध मकान का उन्हें पता नहीं, मगर यह तो जानकारी हो ही गई है कि अगर निगम प्रशासन ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की ओर भी आंख उठाई तो तो कांग्रेस के पार्षद उनकी तरफदारी में लामबंद हो जाने वाले हैं। खटीक वाले मामले में तो एक हो ही गए हैं। भले ही मकान के कागजात देखने से पता लगेगा कि वह अवैध है या नहीं, मगर कांग्रेसी पार्षदों ने तो उसे वैध करार दे दिया है, क्योंकि वह कांग्रेसी कार्यकर्ता का है। इतना ही नहीं, उन्होंने लामबंद हो कर निगम परिसर में प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी भी की। कहने भर को यह भले ही एक सामान्य सी घटना होगी क्यों कि निगम में इस प्रकार आए दिन होता रहता है, मगर बाकोलिया के लिए यह एक बड़ा सिरदर्द बनने वाली है।
अफसोसनाक बात ये है कि अखबारों में खुल कर इस शीर्षक से खबरें छप रही हैं कि अवैध निर्माण के पक्ष में और कांग्रेसी पार्षद जुटे, इसके बावजूद अवैध निर्माण के पक्ष में लामबंद होने वालों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है। वे तो उलटा इस पर मलाल कर रहे हैं कि सत्ता में आते ही नेताओं ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हितों को भुला दिया है। यानि निगम के कानून-कायदे जाएं भाड़ में, चूंकि मेयर पद पर कांग्रेस के बाकोलिया काबिज हंै, तो कांग्रसी कार्यकर्ताओं के हितों का तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए। उन्हें इस बात से भी तकलीफ है कि निगम के अधिकारी बाकोलिया को कोई जानकारी दिए बिना ही फैसले ले रहे हैं। अर्थात वे यह कहना चाहते हैं कि जब भी किसी अवैध निर्माण को तोड़ा जाए तो पहले बाकोलिया से पूछा जाए कि वह तोड़ा जाए या नहीं। और अगर एक-एक बात पूछ कर ही काम करने लगे तो हो गया शहर का उद्धार। इसका एक अर्थ और भी है, वो यह कि बाकोलिया पर यह जिम्मेदारी बिना कहे ही लादी जा रही है कि वे कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के हितों के ध्यान रखें और निगम अधिकारियों को निर्देश दें कि वे कम से कम किसी कांग्रेसी का अवैध निर्माण तोडऩे से पहले उन्हें जानकारी दे दें। खैर, अभी तो शुरुआत है। बाकोलिया के सामने एक नहीं, ऐसे अनेक मामले आने वाले हैं। खटीक का मकान तो केवल एक परखी है। ऐसे में बाकोलिया की परीक्षा के दिन आ चुके हैं। नए-नए बने थे तो बधाइयों का तांता लगा और उसके कारण अब तक खुशनुमा दिन बिता लिए, मगर अब ऐसे-ऐसे उलझे हुए मामले सामने आते जाएंगे। ऐसे में बाकोलिया चुनाव के समय किए वादे को ध्यान में रखते हैं या फिर खुद भी हथियार डाल कर बहती धारा के साथ बहने लगते हैं। भले ही वे कुछ दिन शर्माशर्मी में खुद बहने से बचते रहें, मगर उनके साथी तो बहने को तैयार नजर आते हैं। बहुत जल्द ही वे दिन भी आ जाएंगे कि उन्हें भी बहने को मजबूर किया जाएगा। मजबूर इसलिए होंगे क्योंकि वे देखेंगे कि वे भले ही खुद भ्रष्टाचार नहीं कर रहे, मगर और तो जम कर कर रहे हैं। और उनकी बुराई का ठीकरा उनके ही सिर गिर रहा है। देखना ये होगा कि बाकोलिया शहर को कुछ नया देने की खातिर भ्रष्टाचार से मुकाबला करते हैं या फोकट की बदनामी की बजाय खा-पी कर बदनाम होना पसंद करते हैं।
सवाल दानपेटी में आग लगने का नहीं है
लो सांप्रदायिक सौहार्द्र का संदेश देने वाले सूफी सिलसिले के दुनिया के सबसे बड़े मरकज दरगाह ख्वाजा साहब में हुआ एक और वाकया इन दिनों नाजिम और खादिमों के बीच विवाद का विषय बना हुआ है। पिछले दिनों किसी शरारती तत्त्व में दरगाह शरीफ में रखी दानपेटी में आग लगा दी, जिससे उसमें रखे नोट जल गए। अब विवाद ये है कि यह आग आखिर किसने लगाई? अंजुमन को तकलीफ ये है कि नाजिम ने इस बारे में जिस तरह का बयान दिया है, उससे यह संकेत मिलता है कि वे इसके लिए खादिमों पर संदेह व्यक्त कर रहे हैं। और नाजिम इस तकलीफ में हैं कि खादिम इस घटना के लिए दरगाह कमेटी प्रशासन को जिम्मेदार मान रहे हैं। नाजिम का संदेह तो फिर भी संदेह ही है, मगर यह तो सही ही है कि इस आग के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार कमेटी प्रशासन है, जो कि दरगाह परिसर की अंदरुनी व्यवस्थाओं को अंजाम देता है। इस जिम्मेदारी से बचा नहीं जा सकता। आग भले ही नाजिम ने नहीं लगाई हो, मगर उनकी व्यवस्था में खामी की वजह से ही तो यह घटना हुई है। रहा सवाल खादिमों का तो वे ख्वाजा साहब की खिदमत करने के अलावा परंपरागत रूप से जायरीन को जियारत करवाते हैं।
खैर, आग भले ही किसी ने भी लगाई हो, मगर कड़ाके की सर्दी में दोनों ही पक्ष इससे हाथ तपते दिखाई दे रहे हैं। और होना भी आखिर ये है कि ये कभी पता नहीं लगेगा कि आग किसने लगाई, और जैसे हालात हैं आगे भी इस तरह आग लगती रही तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए, मगर समस्या उससे कहीं बड़ी है। नोटों की आग तो फिर भी बुझाई जा सकती है। आगे न हो, इस पर रोक के इंतजाम भी हो सकते हैं, मगर दोनों पक्षों के बीच जो आग लगी हुई है, वह कब बुझेगी, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। असल में यह आग है ही ऐसी इसके बुझने की कोई संभावना नहीं है। दरगाह कमेटी व नाजिम कहने भर को दरगाह के अंदरुनी इंतजामों को देखते हैं, असल में दरगाह परिसर में सिक्का खादिमों का ही चलता है। एक तो उन्हें जियारत की धार्मिक रस्म अदा करवाने का हक है, दूसरा वे साधन-संपन्न होने के साथ रसूखदार भी हैं। बड़े-बड़े नेता उनके हाथ चूमते हैं। दरगाह कमेटी के कर्मचारी उनके सामने कहीं नहीं ठहरते। कर्मचारी क्या नाजिम तक नहीं ठहरते। यही वजह है कि वे हर वक्त तलवार की धार पर चलते रहते हैं। पता नहीं कब वे धार की चपेट में आ जाएं। एक अर्थ में देखा जाए तो नाजिम इतने कमजोर अधिकारी हैं कि सदैव निशाने पर रहते हैं। जब देखो, उनकी शिकायत होती रहती है। ताजा मामले में भी वे निशाने पर आ गए हैं। होना जाना कुछ नहीं है। केन्द्रीय अल्पसंख्यक मामलात विभाग भी जानता है कि यहां की हकीकत क्या है। उसके पास नाजिम को और अधिकार संपन्न बनाने के न जाने कितने प्रस्ताव जा चुके हैं, मगर उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
बहरहाल, इन सब सियासी दाव-पेचों को ताक पर रख कर विचार किया जाए तो अहम मुद्दा ये है कि खादिमों व नाजिम के बीच होने वाले इन विवादों से इस कदीमी मरकज के बारे में जो छवि बन रही है, उसकी किसी को फिक्र नहीं है। और जब तक इस दिशा में नहीं सोचा जाएगा, तब तक यूं ही छोटी-मोटी आगें लगती-बुझती रहेंगी और दोनों पक्षों के बीच भी लगी हुई अखंड आग प्रज्ज्वलित रहेगी।