रविवार, 10 मार्च 2013

पुलिस में बढ़ता असंतोष महंगा पड़ेगा

जयपुर में हुए वकील-पुलिस संघर्ष में पुलिस के खिलाफ की जा रही एक तरफा कार्रवाई के विरोध में अजमेर में भी पुलिस के जवान जिस तरह एकजुट हो कर मैस के बहिष्कार पर उतारु हो गए और वकीलों के खिलाफ जम कर नारेबाजी कर पुलिस लाइन के बाहर रास्ता जाम किया, वह शहर व प्रदेश की कानून-व्यवस्था के लिए अशुभ संकेत है। कानून-व्यवस्था को अंजाम देने वाली एजेंसी के अनुशासित कर्मचारी ही इस तरह असंतुष्ट हो कर उखडऩे लेगेंगे तो यह प्रवृत्ति बाद में महंगी पड़ सकती है। विशेष रूप से कानून का पालन कराने वालों और कानून की रक्षा करने वालों के बीच ही झगड़ा चलेगा तो उससे जो अराजकता होगी, उसको पूरी जनता को भुगतना होगा।
हम समझ सकते हैं कि आम तौर पर प्रदर्शनकारियों से टकराव के दौरान पत्थर खाने वाले पुलिस कर्मचारी कभी ये शिकायत नहीं करते कि उनके साथ ज्यादती हुई है। असल में उनकी ट्रेनिंग और विभाग का माहौल ही ऐसा है कि वे अपने हकों के लिए बोल ही नहीं पाते, बोल ही नहीं सकते। चाहे काम का अतिरिक्त बोझ हो या उच्चाधिकारियों की सख्ती, वे चुपचाप सहन करते रहते हैं कि चुप रहना ही उनकी नियती है। इसके बावजूद यदि जवानों ने नहीं सहेगी पुलिस अत्याचार, जयपुर पुलिस संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं, राजस्थान पुलिस जिंदाबाद-जिंदाबाद और हमने ड्यूटी की है हम क्यों भुगतें सजा सहित कई अन्य नारे लगा कर विरोध प्रदर्शन करने की हद चले गए तो यह वाकई चिंता का विषय है। यह तो गनीमत रही कि एसपी गौरव श्रीवास्तव ने समझदारी का परिचय देते हुए पुलिस के जवानों को शांत किया, अन्यथा हालात बिगड़ भी सकते थे।
ज्ञातव्य है कि अजमेर में इससे पहले भी पुलिस के बागी होने की नौबत आ चुकी है। आपको याद होगा कि गत 7 जनवरी 2008 में नगर परिषद के तत्कालीन सभापति धर्मेंद्र गहलोत के नेतृत्व में कुछ वकीलों का जिला कलेक्ट्रेट पर प्रदर्शन के दौरान टकराव हो गया था। जब एक महिला पुलिस अधिकारी से असभ्य शब्दों में बाद की गई तो मामला बेकाबू हो गया। गहलोत ने निगम कर्मियों को बुलवा कर कचरे के केंटर एसपी कक्ष के बाहर खाली करने का प्रयास किया तो पुलिस ने उनकी धुनाई कर दी। मामला इस हद तक जा पहुंचा कि सजा के तौर पर पुलिस अधीक्षक एस सेंगथिर का तबादला कर दिया गया, जिससे पुलिस कर्मियों में रोष फैल गया और वे आंदोलन पर उतारु हो गए थे। मामला बमुश्किल संभाला जा सका।
बहरहाल, एक बार फिर हालात पहले जैसे हो गए हैं। पुलिस कर्मियों के इस तर्क मे दम है कि वे दोनों तरफ से मारे जाते हैं। अगर सारी हदें पार करने वाले आंदोलनकारियों को काबू में नहीं करते तो उसे नकारा करार दे कर सजा दी जाती है और अगर अपनी ड्यूटी ठीक से अंजाम देते हैं तो भी आंदोलनकारियों की एकजुटता के आगे नतमस्तक हो कर सरकार उन्हें ही दंडित करती है। यह सिलसिला आखिर कब तक चलेगा। आखिरकार वे भी इंसान हैं। केवल पिटने के लिए थोड़े ही हैं। ताजा प्रकरण में भी वे अपनी ड्यूटी को ही अंजाम दे रहे थे। अगर सख्ती नहीं दिखाते तो वकील विधानसभा के अंदर घुस जाते। तब जो कुछ होता, उसका सारा ठीकरा पुलिस पर ही फूटता। अगर कानून का उल्लंघन करने वालों से सख्ती बरती तो क्या गलत कर दिया? इसी तरह से ड्यूटी अंजाम देते हुए आखिर कब तक दोनों ओर से मारे जाएंगे?
ताजा मामले में तो अब जनता तक पुलिस के साथ होती नजर आ रही है। ऐसे में जैसे भी हो, मामले में सुलह की हरसंभव कोशिश कर टकराव समाप्त करवाना जरूरी है, वरना कोई ऐसी अनहोनी हो सकती है, जो इतिहास में काले अध्याय के रूप में दर्ज हो जाएगी।
-तेजवानी गिरधर