गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

बिना गड़बड़ के कैसे मान गए गड़बड़?

मुस्लिम वक्फ बोर्ड के सदर के लिए हुए चुनाव में सेवानिवृत्त आईजीपी लियाकत अली के निर्विरोध जीतते ही स्पष्ट हो गया है कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने उन पर पहले से कायम आशीर्वाद बरकरार रखा है और इस पद के दूसरे दावेदार दरगाह सरवाड़ शरीफ के आरजी मुतवल्ली यूसुफ उर्फ गड़बड़ को गड़बड़ करने का मौका नहीं मिल पाया है। यही वजह रही वे अजमेर से तो निकले थे दावेदारी करने को, मगर वहां जा कर तलवार म्यान में डाल कर अपना समर्थन जता दिया। जिन पुष्कर विधायक श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ का पल्लू वे थाम कर चल रहे थे, वे भी खुल कर लियाकत अली के साथ हो लीं। और तो और बधाई देने वालों में भी वे ही छुटभैये सबसे आगे रहे, जो कि गड़बड़ का साथ दे रहे थे।
चुनाव भले ही शांतिपूर्वक व निर्विरोध हो गए हों, मगर चर्चा यही है कि यूसुफ गड़बड़ बिना कोई गड़बड़ किए चुप नहीं हुए हैं। जैसी उनकी फितरत है, बिना किसी मतलब के कुछ नहीं करते। इतने नादान भी नहीं कि जीतने या दावा करके कुछ पाने के बिना दावा करके चुनाव में अपनी फजीहत करवाएं। उनके करीबी उन्हें अच्छी तरह जानते हैं कि वे कितने गुरू घंटाल हैं। आरजी मुतवल्ली होने के कारण उनकी माली हालत खासी तगड़ी है। इसको लोग उन पर दरगाह में वित्तीय गड़बड़ के आरोपों से जोड़ कर देखते हैं। तीसरी आंख को तो पहले से पता था कि चुनाव जीतने के लिए पैसा पानी की तरह बहाने का माद्दा रखते हैं। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि लियाकत अली भी केवल मुख्यमंत्री के वरदहस्त पर निर्भर नहीं थे। वे भी दिल खोल कर बैठे थे। ऐसे अनेक गड़बड़ वे अपनी जेब में रखते हैं। जब पंजा लड़ा तो लियाकत भारी पड़ गए, ऐसे में गड़बड़ ने यही सोचा कि सार्वजनिक गड़बड़ क्यों की जाए, जब अंदर की गड़बड़ ही आखिरी रास्ता है। कुल मिला कर अपुन तो यही कहेंगे कि कोई गड़बड़ न करके भी गड़बड़ कर जाना हर किसी के बूते की बात नहीं।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

ठगे से देखते रह गए कांग्रेसी आंदोलनकारी

कर्नल किरोड़ सिंह बैंसला के निर्देशन पर अजमेर में गुर्जर आंदोलन का संचालन कर रहे ओमप्रकाश भढ़ाणा ने सोमवार को ऐसा खेल खेला कि समाज के नाते बमुश्किल साथ आए कांग्रेसी नेता ठगे से देखते रह गए और आंदोलन उनके हाथ से निकल गया। आंदोलन में साथ देने के कारण संगठन में भी बुरे बने और आंदोलन हाथ से निकलने के कारण समाज के सामने भी ठिठोली का पात्र बन गए।
हालांकि शुरू से ओम प्रकाश भढ़ाणा ने पूरी ताकत झोंक रखी थी, लेकिन आंदोलन जोर नहीं पकड़ पा रहा था। तभी राजनीतिक जानकार यह समझने लगे थे कि एक ओर जहां पूरा प्रदेश गुर्जर आंदोलन से गरमाया हुआ है, वहीं अजमेर में यह उतना जोर नहीं पकड़ पा रहा, जितना कि यहां गुर्जरों की बहुलता के मद्देनजर होना चाहिए था। इसकी एक मात्र वजह ये भी कि किसी भी राजनीतिक दल से प्रतिबद्धता न रखने वाले गुर्जर नेताओं के लिए तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन अधिसंख्य कांग्रेसी गुर्जर नेताओं के लिए इधर कुआं उधर खाई वाली स्थिति बनी हुई थी। कांग्रेसियों को डर था कि अगर आंदोलन में साथ दिया तो एक तो सीधे अजमेर के सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट से बुरे बनेंगे और कांग्रेस संगठन में भी हेय नजर से देखे जाएंगे। मगर साथ ही दूसरी ओर खतरा ये था कि आज यदि समाज का साथ नहीं देते तो जनाधार ही खिसक जाएगा। आगे राजनीति क्या खाक करेंगे। इसी उधेड़बुन में आखिरकार उन्होंने समाज को तरजीह देते हुए आंदोलन में खुल कर साथ देने का निश्चय किया। दिलचस्प बात ये रही कि इसके लिए गठित कोर कमेटी के सदर सचिन के ही खास व श्रीनगर प्रधान रामनारायण गुर्जर बनाए गए और कमेटी के अधिसंख्य नेता भी कांग्रेस ही थे। कांग्रेस के लिए जैसे ही यह अनहोनी हुई, मीडिया वालों ने शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल को पकड़ लिया। उनके पास कहने को क्या था, सच सबको दिखाई दे रहा था कि कांग्रेसी ही सरकार के खिलाफ चल रहे आंदोलन में साथ दे रहे हैं, मगर फिर भी उन्होंने गोलमोल जवाब देते हुए यही कहा कि आंदोलन में शरीक होने वाले कांग्रेसियों ने आश्वासन दिया है कि वे गांधीवादी तरीके से आंदोलन में शामिल हो रहे हैं।
मजेदार बात ये रही कि अजमेर बंद के लिए भी भढ़ाणा ने बड़ी चतुराई से इन्हीं कांग्रेसियों का सहारा लिया। व्यापारिक महासंघ के अध्यक्ष कांग्रेसी पार्षद मोहनलाल शर्मा और अन्य व्यापारियों को मनाने के लिए इन्हीं को आगे किया। कांग्रेसियों की लाज रखने के लिए शर्मा ने ही हामी भर दी कि एक दिन के शांतिपूर्ण बंद से क्या फर्क पड़ जाएगा। कुल मिला कर यही लग रहा था कि आंदोलन पर कांग्रेसियों की पकड़ बनी रहेगी और सब कुछ शांति से हो जाएगा, मगर हुआ उलटा ही। वैसा ही जैसा इससे पहले एक बार हो चुका है। शांतिपूर्ण प्रदर्शन अचानक उग्र हो गया और गुर्जर कार्यकर्ताओं ने रोडवेज बस स्टैंड के सामने इतना हंगामा मचाया कि कांग्रेस नेता एडवोकेट हरिसिंह गुर्जर समझाते ही रह गए थे। सोमवार को भी जैसे ही भीड़ जमा हुई, वह कांग्रेसी नेताओं के कब्जे से बाहर हो गई। ऐसे में कांग्रेसी समझ गए कि मामला कुछ और हो गया है और अपने आपको इससे अलग रखना ही ठीक है। वे तो इधर-उधर हो गए और उग्र कार्यकर्ताओं ने कमान अपने हाथ में ले ली। जम कर हंगामा हुआ। नया बाजार में तो एक कार का शीशा तोड़़ दिए जाने पर हालात बेकाबू हो गए और टकराव होते-होते बचा। इस सब के बीच बार अध्यक्ष किशन गुर्जर ने भढ़ाणा से भी एक कदम आगे बढ़ते हुए ऐसा खेल खेला कि सब देखते ही रह गए। वे उग्र कार्यकर्ताओं को लेकर मांगलियावास पहुंच गए और अजमेर-अहमदाबाद मार्ग जाम कर दिया। इतना ही नहीं उन्होंने फोन पर कर्नल बैंसला से बात भी की और आगे के निर्देश मांगते हुए जता दिया कि कांग्रेसियों को आंदोलन से दूर छिटक दिया गया है। इस पूरे प्रकरण में मजेदार बात ये रही कि भढ़ाणा और किशन गुर्जर ने कांग्रेसी नेताओं को हवा तक न लगने दी कि वे अब कौन सा कदम उठाने जा रहे हैं। जाहिर है कि अब कांग्रेसी नेताओं के पास अपने संगठन के सामने केवल यही कहने को रह गया है कि उन्होंने तो बहुत कोशिश की, मगर उग्र कार्यकर्ता बस में ही नहीं रहे। ठीक वैसे ही जैसे बाबरी मस्जिद को घेरने पर उग्र कार्यकर्ताओं ने उसे शहीद कर दिया और भाजपा नेताओं को यही दलील देना पड़ी कि सब कुछ अचानक हो गया। कांग्रेसी नेताओं को अभी तो सचिन को भी जवाब देना होगा कि आखिर यह सब कैसे हो गया।
अजमेर में आंदोलन ने जो रुख अख्तियार किया, वह सचिन के लिए भी चिंताजनक तो है ही। वे प्रदेशभर के आंदोलन से निपटने की मंत्रणाओं में शामिल हैं और दूसरी ओर उनके गृह जिले में ही हालत उनके कब्जे में नहीं है।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

समीकरण गड़बड़ाने को किया यूसुफ गड़बड़ ने दावा

मुस्लिम वक्फ बोर्ड के सदर के लिए आगामी 28 दिसम्बर को होने जा रहे चुनाव की रंगत परवान पर है। यूं तो इस पद के लिए सेवानिवृत्त आईजीपी लियाकत अली ने खम ठोक रखा है और विधायक जाकिर हुसैन भी एडी-चोटी का जोर लगा रहे हैं, मगर यूसुफ गड़बड़ ने भी दावा करके चुनावी समीकरणों को गड़बड़ा दिया है। असल में गड़बड़ उनका सरनेम नहीं है, बल्कि लोगों ने जबरन उनके नाम के साथ यह तखल्लुस जोड़ दिया है। दरगाह इलाके में इस प्रकार के तखल्लुस जोडऩा आम बात है। किसी को कबूतर तो किसी को टेण्या, किसी को डंठल तो किसी को टकला के नाम से जाना जाता है।
खैर, बात चल रही थी, यूसुफ गड़बड़ की। यूं वे पेशे से हैं तो महज रोडवेज के पंप ऑपरेटर, मगर सरवाड़ में स्थित दरगाह ख्वाजा फकरुद्दीन चिश्ती के आरजी मुतवल्ली होने के कारण उनकी माली हालत खासी तगड़ी है। इसको लोग उन पर दरगाह में वित्तीय गड़बड़ के आरोपों से जोड़ कर देखते हैं। यानि चुनाव जीतने के लिए पैसा पानी की तरह बहाने का माद्दा रखते हैं। जहां तक रसूखात का सवाल है, इन दिनों उन्होंने केकड़ी विधायक डॉ. रघु शर्मा व पुष्कर विधायक पति हाजी इंसाफ अली का पल्लू थाम रखा है। कुछ छुटभैये भी उनके साथ हैं। किसी जमाने में जरूर मसूदा के पूर्व विधायक हाजी कयूम खान के खेमे में थे। असल बात तो यह है कि हाजी कयूम खान की बदौलत ही मुतवल्ली और वक्फ बोर्ड सदस्य भी बने, लेकिन आजकल वे अपने आपको कयूम खान से भी बड़ा नेता मानते हैं। विधायक स्तर के नेता को सीढ़ी बना कर इस्तेमाल करने वाला कितना शातिर हो सकता है, इसका आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है। बहरहाल, कयूम खान से नाइत्तफाकी के बाद उन्होंने इंसाफ अली का सहारा ले लिया है।
हालांकि इस पद के दमदार दावेदार लियाकत अली ही माने जा रहे हैं, क्योंकि उन पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का आशीर्वाद है। चुनाव भले ही लोकतांत्रिक प्रणाली से वोटों के जरिए होंगे, मगर माना जाता है कि जिसे गहलोत चाहेंगे, वही काबिज होगा। इसकी वजह ये है कि जिनको भी गहलोत ने वक्फ बोर्ड सदस्य बनाया है, वे भला गहलोत से बाहर कैसे जा सकते हैं। गहलोत जिसे चाहेंगे, उसे ही वोट देने का इशारा कर देंगे। बावजूद इसके यूसुफ गड़बड़ के मैदान में उतर जाने से मुकाबला दिलचस्प हो गया है। देखते हैं वे गड़बड़ करने में कामयाब हो पाते हंै या नहीं?

हॉट सीट है सीएमएचओ की कुर्सी

अजमेर में मुख्य चिकित्सा एवं स्वास्थ्य अधिकारी यानि सीएमएचओ की कुर्सी हॉट सीट है। इसकी गर्मी बर्दाश्त करना बेहद कठिन है। तभी तो अब मौजूदा सीएमएचओ डॉ. जवाहर लाल गार्गिया इस कुर्सी को छोडऩा चाहते हैं। जब से इस कुर्सी पर बैठे हैं उनका ब्लड पे्रशर बढ़ गया है। हर वक्त हाईपर टैंशन में रहते हैं। यह सीट कितना करंट मारती है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिलेभर के लोगों के स्वास्थ्य का जिस पर जिम्मा हो, उसी का स्वास्थ्य काबू में नहीं रहता। किसी को हाइपर टैंशन हो जाता है तो किसी का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। तभी तो दो साल में चार सीएमएचओ बदले जा चुके हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ पाई डॉ. बी.एल. फानन ने। पहले पूर्व सीएम वसुंधरा राजे के दौरे में लापरवाही के आरोप में उन्हें एपीओ किया गया। दुबारा फिर लगाए गए तो कांग्रेसियों ने उनका जीना हराम कर दिया। आए दिन उनके चैंबर में हंगामा होता रहा। हॉट सीट की वजह से उनका मिजाज भी इतना हॉट हो गया कि हर किसी को काटने को दौड़ते थे। आखिर उन्हें रुखसत करना पड़ा। पूर्व मंत्री लक्ष्मण सिंह रावत के करीबी डॉ. गार्गिया ने यह सीट हासिल तो कर ली, लेकिन स्वास्थ्य महकमा जिला परिषद के अधीन किए जाने के बाद यह सीट ज्यादा हॉट हो गई, इस कारण उसका करंट झेल नहीं पा रहे।
यूं तो इस सीट का स्वाद चखने को कोई चार डॉक्टर आतुर हैं, मगर मौजूदा डिप्टी सीएमएचओ डॉ. लाल थदानी उसी वक्त दावेदार थे। पूरी सैटिंग हो चुकी थी, मगर उनके आदेश जारी होते-होते रह गए और डॉ. गार्गिया ने बाजी मार ली। इस सीट को लेकर होने वाली राजनीतिक दखलंदाजी से परेशान हो कर उन्होंने अब सीट छोडऩे का मंशा जाहिर कर दी है।
बताते हैं कि यूं तो आरसीएएचओ डॉ. मधु विजयवर्गीय व नागौर सीएमएचओ डॉ. अखिलेश कुमार माथुर भी इस सीट के दावेदार हैं, मगर डॉ. लाल थदानी का पाया सबसे भारी है। यह सर्वविदित ही है कि वे पॉलिटिकल मैनेजमेंट में कितने सिद्धहस्त हैं। तभी तो पिछले कांग्रेस राज में राजस्थान सिंधी अकादमी के अध्यक्ष का पद हासिल करने में कामयाब हो गए। मौजूदा राज में भी उनके मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से तार जुड़े हुए हैं। इसके अतिरिक्त कांग्रेसी नेताओं से अच्छे संबंधों के कारण उन्हें पता है कि सत्तारूढ़ दल से जुड़े लोगों को कैसे संतुष्ट किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त मीडिया फ्रंैडली होने के कारण मीडिया वालों को मैनेज करना भी उन्हें आता है। आज भी हालत ये है कि हैं वे डिप्टी सीएमएचओ, मगर सीएमएचओ से ज्यादा अखबारों में छाये रहते हैं। सोशल एक्टीविस्ट रह चुके हैं, इस कारण महज नौकरी करके संतुष्ट नहीं होते। कुछ न कुछ एडीशनल करते रहते हैं। उनकी मौजूदगी का ही परिणाम है कि आज स्वास्थ्य विभाग की गतिविधियां अखबारों में सुर्खियां पाती हैं। वस्तुत: कुछ न कुछ कर गुजरने की इच्छा के कारण हमेशा छाये रहते हैं। देखना ये है कि कांग्रेस सरकार उन्हें मौका देती है या नहीं।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

क्यों नजर नहीं आई गिरिजाघरों पर नेता मंडली?

ईद के मौके पर ईदगाह के बाहर लाइन लगा कर मुस्लिम भाइयों को बढ़-चढ़ कर मुबारकबाद देने वाले और मुस्लिम दोस्तों के घर जा कर नॉनवेज का लुत्फ उठाने वाले नेता ईसाई समुदाय के सबसे बड़े धार्मिक पर्व क्रिसमस पर गिरिजाघरों पर नजर नहीं आए।
अलबत्ता पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व दरगाह नाजिम अहमद रजा ने जरूर आगरा गेट स्थित रॉबसन मेमारियल केथेडल चर्च पर जा कर कौमी एकता की मिसाल पेश की, मगर शहर के दीगर नेताओं को ख्याल ही नहीं आया कि ईसाई समुदाय भी कोई अहमियत रखता है। उसकी भी इस शहर को एक कदीमी शहर बनाने में अहम भूमिका रही है।
असल बात तो ये है कि दरगाह और पुष्कर को छोड़ कर अगर अजमेर कुछ है तो उसमें अंग्रेज ईसाई अफसरों का योगदान है। सीपीडब्ल्यूडी, सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ सेकण्डरी एज्युकेशन, कलेक्ट्रेट बिल्डिंग, सेन्ट्रल जेल, पुलिस लाइन, टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज, लोको-केरिज कारखाने, डिविजन रेलवे कार्यालय बिल्डिंग, मार्टिन्डल ब्रिज, सर्किट हाउस, अजमेर रेलवे स्टेशन, क्लॉक टावर, गवर्नमेन्ट हाई स्कूल, सोफिया कॉलेज व स्कूल, मेयो कॉलेज बिल्डिंग, लोको ग्राउण्ड, केरिज ग्राउण्ड, मिशन गल्र्स स्कूल, अजमेर मिलिट्री स्कूल, नसीराबाद छावनी, सिविल लाइंस, तारघर, आर.एम.एस., गांधी भवन, नगर निगम भवन, जी.पी.ओ., विक्टोरिया हॉस्पिटल, मदार सेनीटोरियम, फॉयसागर, भावंता से अजमेर की वाटर सप्लाई, पावर हाउस की स्थापना, रेलवे हॉस्पिटल, दोनों रेलवे बिसिट आदि का निर्माण ब्रिटिश सरकार के ईसाई अधिकारियों के विजन का ही परिणाम था, जिससे अजमेर के विकास की बुनियाद पड़ी। आज अजमेर का जो स्वरूप है, उस पर अंग्रेजों की छाप स्पष्ट देखी जा सकती है। अजमेर में शिक्षा के विकास में जितना आर्य समाज का योगदान है, उससे कहीं अधिक ईसाई मिशनीज की भूमिका है। सच्चाई तो ये है कि ऊंचे-ऊंचे ओहदों पर पहुंचे अनेक हिंदू व मुसलमानों की शिक्षा में ईसाई मिशनरीज की स्कूलों का रोल रहा है। आज भी हालत ये है कि अधिसंख्य संपन्न घराने अपने बच्चों को ईसाई मिशनरीज में पढ़ाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा देते हैं। मोटा-मोटा चंदा देने तक को राजी रहते हैं। यहां तक कि महान भारतीय संस्कृति के झंडाबरदार और ईसाई मिशनरीज के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन छेडऩे वाले नेताओं के बच्चे भी मिशनरी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। और तो और कौमी एकता के नाम पर ईसाई फादर्स को साथ लेकर जलसे करने वाले भी क्रिसमस के मौके पर सार्वजनिक रूप से नजर नहीं आए। इनमें से अधिकतर वे हैं जो फादर्स और सिस्टर्स से दोस्ती रखते ही इस कारण हैं, ताकि उनके परिजन व मित्रों को मिशनरी स्कूलों में आसानी से दाखिला मिल जाए। कई नेताओं ने तो एडमिशन की दुकान तक खोल रखी है।
असल में ये सब वोटों का चक्कर है। मुसलमानों के वोट काफी तादाद में हैं, इस कारण उनकी मिजाजपुरसी करनी पड़ती है। कांग्रेसी इस कारण करते हैं क्यों कि उन्हीं के वोट बैंक की बदौलत राज करते हैं और भाजपाई इस उम्मीद में कि कांग्रेस ने नाराज और शॉर्ट कट से आगे आने के इच्छुक मुसलमान उनकी ओर कभी तो आकर्षित होंगे। मगर चूंकि ईसाइयों के वोट ज्यादा नहीं हैं, इस कारण उन्हें नजरअंदाज करने से कोई फर्क नहीं पडऩे वाला है। बहरहाल, आज जब केवल नोट और वोट का ही जमाना है तो अकेले अपने ईसाई समुदाय की तरफदारी करने से क्या होने वाला है? अपना तो सिर्फ इतना कहना है कि इस शहर को दुनिया में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल बता कर सीना चौड़ा करना पर्याप्त नहीं है, सांप्रदायिक सौहाद्र्र दिखाना भी चाहिए।

ऊंट पर बैठे अश्फाक को काट खाया कुत्ता

कहते जब बुरा वक्त आता है तो ऊंट पर बैठे आदमी को भी कुत्ता काट खाता है। आप कहेंगे कि ऊंट पर बैठे आदमी को कुत्ता कैसे काट सकता है? असल में जब कुछ बुरा वक्त आता है तो ऊंट जमीन पर बैठ जाता है और उसी वक्त मौका देख कर कुत्ता काट खाता है। ऐसा ही कुछ हो रहा है इन दिनों नगर सुधार न्यास के सचिव अश्फाक हुसैन के साथ।
कभी तेज-तर्रार अफसर के रूप में ख्यात रहे अश्फाक दोधारी तलवार से गुजरने वाले दरगाह नाजिम पद पर बिंदास काम कर चुके हैं। दरगाह दीवान और खादिमों के साथ तालेमल बैठाने के अलावा दुनियाभर से आने वाली तरह-तरह की खोपडिय़ों से मुकाबला करना कोई कठिन काम नहीं है। पिछले कुछ नाजिम तो बाकायदा भी कुट चुके हैं, मगर अश्फाक ने बड़ी चतुराई से इस पद को बखूबी संभाला। किसी के कब्जे में न आने वाले कई तीस मार खाओं को तो उन्होंने ऐसा सीधा किया कि वे आज भी उनके मुरीद हैं।
इन दिनों अश्फाक ज्यादा उखाड़-पछाड़ नहीं करते, शांति से अफसरी चला रहे हैं, मगर वक्त उन्हें चैन से नहीं रहने दे रहा। सबसे ज्यादा परेशानी संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा से ट्यूनिंग नहीं हो पाने की वजह से है। आए दिन उनके गुस्से का शिकार होते हैं। शर्मा ने अवमानना के मामले में अश्फाक के लिए सजा का प्रस्ताव कर दिया, जिसे अश्फाक ने हाईकोर्ट में चुनौती दे दी है। इन दो अधिकारियों के बीच क्यों नहीं बन रही, खुदा जाने। और तो और, कांग्रेसी भी उनके पीछे पड़ गए हैं। न्यास की पृथ्वीराज नगर योजना में पात्र आवेदकों को भूखंड नहीं देने और भूमि के बदले भूमि का आवंटन न करने को लेकर पहले तो एक अखबार में लंबी-चौड़ी खबर छपवाई और फिर दूसरे ही दिन उनके चैंबर में जा धमके। पहले तो वे कांग्रेसियों के गुस्से को पीते रहे, मगर जैसे ही उनके मुंह से निकला कि वे तो प्रस्ताव बना कर कई बार जयपुर के चक्कर लगा चुके हैं, सरकार आपकी है, वहीं मामले अटके हुए हैं तो कांग्रेसी भिनक गए। उन्होंने इसे अपनी तौहीन माना। सरकार से तो लड़ नहीं सकते, अश्फाक पर ही पिल पड़े। हालात इतने बिगड़ गए कि कांग्रेसियों ने उन्हें इस कुर्सी पर नहीं बैठने देने की चेतावनी तक दे डाली। कांग्रेसियों व उनके बीच टकराव की असल वजह क्या है, अपुन को नहीं पता, मगर लगता है मामला प्रॉपर्टी डीलरों से टकराव का है।
खैर, कांग्रेसियों के हमले पर अपुन को याद आया कि ये वही अश्फाक हुसैन हैं, जिनकी गोपनीय रिपोर्ट के आधार पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अपेक्षित एक सौ एक नानकरामों में से एक नानकराम को कांग्रेस का टिकट मिला था। गहलोत उनसे इतने खुश हुए कि अपने गृह जिले जोधपुर ले गए। आज भी उन पर गहलोत का आशीर्वाद है। उनके एक खासमखास अधिकारी गहलोत के पास ही लगे हुए हैं। ऐसे में कांग्रेसियों की तड़ी कामयाब होगी, इसमें अपुन को तो थोड़ा डाउट ही लगता है। खैर, अपुन को एक ही ख्याल आता है। अगर कांग्रेसी न्यास सचिव के कामकाज से इतने ही खफा हैं तो क्यों नहीं अपना अध्यक्ष न्यास में बैठा देते। मुख्यमंत्री पर तो जोर चलता नहीं है और अफसर पर अफसरी गांठते हैं।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

पुलिस तंत्र फेल, अब केवल मुखबिरों पर भरोसा

पुष्कर इलाके में स्कूली छात्र सूरज व महंत सेवापुरी की हत्या से पर्दा उठा पाने में नाकाम पुलिस को थक-हार कर मुखबिरों का ही सहारा लेना पड़ रहा है। उसने इन दोनों हत्याकांडों का सुराग बताने वालों के लिए इनाम की घोषणा की है। मतलब साफ है। पुलिस तंत्र ने हाथ खड़े कर दिए हैं। न तो उसे फिंगर प्रिंटों से कुछ पता लगा और न ही मोबाइल कॉल डिटेल से।
असल में इन हत्याकांडों की बला पिछले पुलिस कप्तान हरिप्रसाद शर्मा के गले आई हुई थी, जिनके गले में जाते-जाते कुछ संस्थाओं ने मालाओं का ढेर लगा दिया था। ऐसे विदा किया मानो कोई बहुत बड़ा बहादुरी काम करके जा रहे हैं। ये ही समझ में नहीं आता कि उनका अभिनंदन इस कारण किया गया कि वे सफलतम एसपी थे, या फिर इस कारण कि ऐसे नाकाम एसपी को विदा करते हुए खुशी हो रही थी। सब जानते हैं कि यदा-कदा मुखबिर की सहायता से कोई मामला खोलने में कामयाबी मिल भी जाती थी तो वे संबंधित थानाधिकारी को श्रेय देने की की बजाय खुद ही क्रेडिट लेने की कोशिश करते थे। यहां तक की छोटे-मोटे मामलों के खुलासे की ब्रीफिंग भी खुद ही करने में रुचि रखते थे।
बहरहाल, दस्तूर के मुताबिक उन्होंने जाते-जाते अपनी बला नए एसपी बिपिन कुमार पांडे के गले डाल दी। पांडे जी आए तो पता लगा कि वे बहुत बड़े तीस मार खान हैं। राजनीतिक माफियाओं के गढ़ बिहार राज्य के आईपीएस हैं और राजस्थान में भी काफी घूम चुके हैं। आते ही जादू की छड़ी घुमा कर पर्दाफाश कर देंगे। मगर कुछ दिन की मशक्कत के बाद उन्होंने भी हथियार डाल दिए। वैसे भी वे अकेले क्या कर सकते थे? उनको टीम तो वही मिली न जिसकी मुस्तैदी से मुंबई ब्लास्ट के मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली उसके चेहरे पर कालिख पोत कर जा चुका है।
पुलिस की नाकामी को बयां करने वाले अकेले ये सूरज व सेवापुरी हत्याकांड ही नहीं हैं। वह अनेक हत्याकांडों की गुत्थियां नहीं सुलझ पाई हैं। आशा व सपना हत्याकांड जैसे कुछ कांड तो भूले-बिसरे हो गए हैं, जिन्हें पुलिस ने अपनी अनुसंधान सूची से ही निकाल दिया है। अब तो हालत ये है कि उनकी फाइलों पर ही धूल की परतें चढ़ गई हैं। वो तो रावत समाज ने एकजुट हो कर दबाव बना रखा है, वरना सूरज व सेवापुरी हत्याकांडों को भी भुलाये जाने की स्थिति आ चुकी थी।
अपुन ने तो पहले ही कहा था कि कई चैलेंज पांडे साहब का स्वागत करने को मुंह बाये खड़े हैं। चैन स्नेचिंग के मामले तो इस कदर बढ़े हैं, महिलाएं खुद को असुरक्षित महसूस करने लगी हैं। पुलिस डाल-डाल है तो चोर पात-पात। नकली पुलिसकर्मी बन कर ठगने वाले असली पुलिस को मुंह चिढ़ा रहे हैं। वाहन चोरी की तो इंतहा हो चुकी है। जुए-सट्टे पुलिस थानों की नाक के नीचे चल रहे हैं। अवैध शराब और मादक पदार्थों की तस्करी में तो अजमेर रिकार्ड बना चुका है। कच्ची शराब का धंधा पुलिस वालों की देखरेख में होता रहा है, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि शराब तस्करों को छापों से पूर्व जानकारी देने की शिकायत के आधार पर दो पुलिस कर्मियों को लाइन हाजिर करना पड़ा। पुलिस की मिलीभगत का अंदाजा क्या इससे भी नहीं लगता कि अपराधी जेल से ही अपने गिरोह संचालित करते हैं। ऐसे में स्वाभाविक सा है कि पुलिस कप्तान अपने तंत्र पर कैसे भरोसा करें, मुखबिरों का ही सहारा लेना पड़ेगा।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

भरत सिंह की बात दूर तलक जाएगी

संभाग मुख्यालयों पर जिला परिषदों में आईएएस अधिकारियों की तैनाती व ग्राम पंचायतों में निविदा प्रक्रिया पर मुंह खोल कर विवाद में फंसे प्रदेश के पंचायतीराज मंत्री भरतसिंह का मामला दूर तक जाता दिखाई देता है। हालांकि शुरुआत जिला सरपंच संघ के अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ ने लंबा-चौड़ा बयान जारी कर की थी, लेकिन अब जिले के कांग्रेसी विधायकों ने भी ठान ली है कि वे भरत सिंह का पीछा नहीं छोड़ेंगे। हालांकि विधायक डॉ. रघु शर्मा व श्रीमती नसीम अख्तर के हवाले से शिकायत करने की खबरें भी शाया हुई हैं, मगर जानकारी मिली है कि मामला इतने तक रुकने वाला नहीं है। जानकारी मिली है कि जिले के सभी कांग्रेसी विधायकों का जमीर जगा कर उन्हें लामबंद किया जा रहा है और सीधे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी से मिल कर शिकायत दर्ज करवाने की योजना बनाई जा रही है। जाहिर है मामला शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल तक भी गया होगा। वे कौन से छोडऩे वाले हैं?
यहां उल्लेखनीय है कि भरतसिंह ने जो बयान दिया था, वह चंद दिन पहले अजमेर आ कर निर्देश दे गए शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल के ठीक खिलाफ था। इतना ही नहीं वह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की ओर से दी गई व्यवस्था की मुखालफत भी जाहिर कर रहा था। दो मंत्रियों के इस प्रकार एक ही जगह पर आ कर परस्पर विरोधी बयानबाजी करने से सरकार की कितनी किरकिरी हुई, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
बहरहाल, कांग्रेसी विधायकों की मुहिम क्या रंग लाती है, यह तो वक्त ही बताएगा।
यानि मुफ्त में बदनाम हो गई सुरजीत कपूर
जगत में बदनाम करने के बाद जा कर एडवोकेट दिनेश राठौड़ को ख्याल आया है कि जिस सुरजीत कपूर के साथ उसके बेहतरीन संबंध थे, उसे उसने लोगों के भडक़ाने पर मुफ्त ही बदनाम कर दिया है। उल्लेखनीय है कि राठौड़ ने आत्महत्या की कोशिश कर अपने सुसाइड नोट में इसके लिए सुरजीत को जिम्मेदार बताया था। उसने तब साफ कहा था कि उसने सुरजीत के साथ खोड़ा गणेश में शादी की थी। इतना ही नहीं यह आरोप तक लगाया था कि सुरजीत के एक पुलिस अफसर के साथ अवैध संबंध थे। उनके इन आरोपों की वजह से न केवल वे खुद गिरफ्तार हुए, अपितु सुरजीत को भी गिरफ्तार होना पड़ा। बाद में दोनों जमानत पर रिहा हो गए। यानि सुरजीत केवल बदनाम ही नहीं हुई, बल्कि पुलिस केस में भी फंसी। इतना ही नहीं, उन्होंने शहर महिला कांग्रेस अध्यक्ष का पद तक खो दिया। माल भी गया और माजना भी गया। अब जा कर राठौड़ ने पलटी खाई है और सुरजीत के परिवार वालों और प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष विजय लक्ष्मी विश्नोई को पत्र लिख कर मांगी है। एक महिला पर चरित्र संबंधी आरोप लगने के बाद उसके परिवार की क्या हालत होती है, इसका दंश कितना दर्दीला होता है, यह तो सुरजीत ही जान सकती हैं। इससे परिवार में जो दरार आई होगी, उसे पाटना कितना कठिन है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। रहा सवाल प्रदेश महिला कांग्रेस अध्यक्ष से माफी मांगने का तो अब पछतावत होत क्या, जब चिडिय़ा चुग गई खेत। यह सर्वविदित ही है कि जब विश्नोई ने उन्हें पद से हटाया था, तब यह भी कहा था कि सुरजीत के खिलाफ पहले से शिकायतें आ रही थीं, इस कारण उन्हें हटाना जरूरी हो गया था। अब देखना ये है कि विश्नोई ताजा प्रकरण में आरोप लगाने वाले के पलटने के बाद क्या पुरानी शिकायतों को भी भूल कर सुरजीत को फिर से पद पर काबिज करती हैं या नहीं। कुल मिला कर राठौड़ की नादानी से शहर महिला कांग्रेस को शानदार तरीके से चलाने वाली दबंग व बिंदास सुरजीत इस प्रकरण में जो खोया है, उसे फिर पाना नितांत असंभव है। बड़े बुजर्गों ने सच ही कहा है- नादान की दोस्ती जी का जंजाल।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

क्या आंदोलन के बिना नहीं होगा सावित्री कॉलेज का उद्धार?

एक ओर केन्द्र व राज्य सरकार महिला सशक्तिकरण और नारी शिक्षा पर विशेष जोर देते हुए करोड़ों रुपए का प्रावधान कर रही है, तो दूसरी ओर पूरे उत्तर भारत में सर्वप्रथम घोषित संपूर्ण साक्षर अजमेर में वर्षों से नारी शिक्षा की अलख जगा रहा सावित्री कॉलेज बंद होने के कगार पर है। अफसोसनाक बात ये है कि सरकार और जनप्रतिनिधियों को कॉलेज की खराब माली हालत के बारे में पूरी जानकारी है, इसको अधिग्रहित करने का प्रस्ताव भी भेजा जा चुका है, बावजूद इसके जानबूझ कर आंखें फेरी जा रही हैं और कॉलेज की शिक्षिकाएं व छात्राएं आंदोलन करने को मजबूर हैं।
प्रदेश में शैक्षिक राजधानी के रूप में विख्यात अजमेर में नारी शिक्षा की लौ आजादी से बहुत पहले ब्रिटिश शासनकाल में ही प्रज्ज्वलित हो गई थी। इस कॉलेज की शुरुआत 1914 में प्राथमिक कन्या विद्यालय के रूप में हुई थी। क्रमश: 1933, 1943, 1951 और 1968 में हाई स्कूल, इंटरमीडिएट, स्नातक और स्नातकोत्तर कॉलेज के रूप में क्रमोन्नत इस कॉलेज ने अनगिनत युवतियों को शिक्षित किया, जो आज देश-विदेश में अनेक क्षेत्रों में उच्चस्थ पदों पर स्थापित हैं। संगीत व ड्राइंग की शिक्षा के क्षेत्र में तो इसकी विशेष पहचान है और यहां से शिक्षित युवतियों ने चित्रकला व संगीत के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए हैं। बदलते युग के साथ यहां एम. कॉम. बिजनिस एडमिनिस्ट्रेशन व बीसीए की शिक्षा भी दी जा रही है। नारी शिक्षा के क्षेत्र में हालांकि सोफिया स्कूल व कॉलेज की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, मगर वहां मात्र उच्च आय वर्ग की युवतियों ने ही शिक्षा पाई है, जबकि सावित्री कॉलेज ने शहर के बहुसंख्यक मध्यम व निम्न मध्यम वर्ग की युवतियों को शिक्षित करने का दायित्व निभाया है। मौजूदा परिदृश्य पर नजर डालें तो इस कॉलेज में वे सब सुविधाएं हैं, जो कि सरकार द्वारा स्थापित राजकीय कन्या महाविद्यालय के पास नहीं हैं। सरकारी कॉलेज के पास न तो अपना भवन है और न ही पर्याप्त प्रवक्ता। यहां तक कि राजस्थान में इकलौते सावित्री कॉलेज को नेवल विंग से युक्त होने का गौरव हासिल है। यूजीसी की भी सभी सुविधाएं मिल रही हैं।
यह एक सर्वविदित तथ्य है कि जिस समाज की महिलाएं शिक्षित होती हैं, उसकी नई पीढ़ी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी होती है। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि तीन पीढिय़ों की महिलाओं को शिक्षित करने वाले इस संस्थान की बदौलत ही आज अजमेर संपूर्ण साक्षर बन सका है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। कितने दु:खद आश्चर्य की बात है कि जिस जमाने में नारी शिक्षा के प्रति कोई खास जागृति नहीं थी, तक इस संस्थान ने अग्रणी भूमिका निभाई और आज जब नारी शिक्षा पर सर्वाधिक जोर दिया जा रहा है, उसके लिए पर्याप्त फंड भी जारी किया जाता है, तब अजमेर में शिक्षा का आधार स्तम्भ रहा यह संस्थान आज अंतिम सांसें गिन रहा है।
यह तो गनीमत है कि तीर्थराज पुष्कर व दरगाह ख्वाजा साहब की बदौलत अजमेर विश्व मानचित्र पर अंकित है, वरना राजनीतिक जागरुकता के अभाव में हमारा शैक्षिक राजधानी का ओहदा लगभग छिन सा गया है। आजादी के बाद अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के समय जरूर इस महत्व को बरकरार रखा गया। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल के नीतिगत निर्णय के तहत यहां राजस्थान लोक सेवा आयोग व माध्यमिक शिक्षा बोर्ड खोला गया, मगर उसके बाद पर्याप्त ध्यान नहीं दिए जाने के कारण उच्च शिक्षा के क्षेत्र में जयपुर सहित कोटा व जोधपुर आगे निकल गए। इतिहास के झरोखे में जरा और पीछे झांके तो साफ नजर आता है कि सन् 1936 में स्थापित राजकीय महाविद्यालय और सन् 1875 में स्थापित मेयो कॉलेज हमारे गौरव स्तम्भ रहे हैं। इतना ही नहीं बिसलदेव विग्रहराज के काल में स्थापित संस्कृत महाविद्यालय के अवशेष आज भी ढ़ाई दिन के झौंपड़े में देखे जा सकते हैं। सन् 1925 में पुष्कर में स्थापित संस्कृत महाविद्यालय भी हमारी गौरव यात्रा बखान करता है। ऐसे ऐतिहासिक शहर में महिला शिक्षा अलग जगाने में अहम भूमिका निभाने वाला सावित्री कॉलेज यदि बंद होता है तो यह यहां के राजनेताओं, बुद्धिजीवियों और व्यवसाइयों के लिए बेहद शर्मनाक होगा।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

...यानि कि मंत्रीजी खुद मानते हैं आईएएस की दादागिरी

खुद पंचायतराज मंत्री भरतसिंह ने यह स्वीकार कर लिया है कि संभाग स्तर पर जिन जिला परिषदों में आईएएस अधिकारियों को मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया गया है, वहां सबसे ज्यादा परेशानियां बढ़ी हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि आईएएस अधिकारी जनप्रतिनिधियों के कब्जे में नहीं आते और वही करते हैं, जो उनको जंचती है। इस सिलसिले में अजमेर का उदाहरण सबसे ज्वलंत है, जहां सीईओ शिल्पा जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा से टकराव ले रही हैं।
मंत्रीजी ने सोमवार को पत्रकारों के सामने जो स्वीकारोक्ति की उससे स्पष्ट है कि सरकार ने बिना सोचे-समझे जिला परिषदों में आईएएस को सीईओ बनाने का निर्णय किया। एक ओर उसने पंचायतीराज संस्थाओं को मजबूत करने के मकसद से उनके अधीन पांच महकमे किए ओर साथ ही जनप्रतिनिधि निरंकुश न हो जाएं, इसके लिए संभाग मुख्यालयों की जिला परिषदों में आईएएस अधिकारी बैठा दिए। उसे पता था कि आईएएस अधिकारियों का मिजाज कैसा होता है कि वे किसी के कब्जे में नहीं आते। इसके अलावा उनका कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते। हद से हद तबादला कर सकते हैं। अव्वल तो जब आईएएस को तंत्र पर नियंत्रण रखने के लिए ही लगाया गया है तो यह उम्मीद ही कैसे की जा सकती है कि वे टकराव के हालात पैदा नहीं करेंगे। असल में देखा जाए तो ऐसा करके खुद सरकार ने ही टकराव के हालात पैदा किए। क्या ऐसा माना जा सकता है कि उसे अनुमान ही नहीं था कि ऐसा करने से जिला प्रमुखों व सीईओ में टकराव होगा? वस्तुत: उसने एक प्रयोग किया और वह फेल हो गया। जनप्रतिनिधियों व आईएएस में टकराव हुआ और अब सरकार परेशान है कि आखिर इसका तोड़ क्या निकाला जाए। अब दोनों पक्षों में तालमेल की कवायद की जा रही है। दोनों के बीच अधिकारों के बंटवारे पर विचार किया जा रहा है। समझ में ही नहीं आता कि आखिर तालमेल कैसे किया जाएगा, जब कि सरकार के दो मंत्रियों मास्टर भंवरलाल व भरतसिंह के बीच ही तालमेल नहीं है। भरतसिंह कहते हैं जिला प्रमख के नेतृत्व में बनी स्थाई समिति को असीमित अधिकार हैं और उसके निर्णयों को अमल में लाना अधिकारियों की जिम्मेदारी है, जब कि भंवरलाल ने पिछले दिनों साफ तौर पर शिल्पा को शह देते हुए कहा कि वे किसी के दबाव में न आएं और वही करें, जो कि नियमानुसार सही हो। कैसी विडंबना है कि मंत्री खुद ही जनप्रतिनिधियों व अधिकारियों को आपस में भिड़ा रहे हैं।
असल में यह स्थिति इसलिए आई है क्यों कि मौजूदा गहलोत सरकार में ब्यूरोक्रेसी हावी है। उसी ने गहलोत को जिला परिषदों में आईएएस की तैनाती करवाई है। खुद गहलोत भी ब्यूरोक्रेसी को कितना पसंद करते हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत ये है कि उन्होंने किसी न किसी बहाने विभिन्न बोर्डों, अकादमियों व न्यासों में जनप्रतिनिधियों की नियुक्ति को अब तक टाला है और अधिकारियों के सहारे ही सरकार चला रहे हैं। ब्यूरोक्रेसी के हावी रहने के दौर में जिला परिषदों के मौजूदा विवाद से ऐसा प्रतीत होता है कि बोर्डों में यदि नियुक्तियां की गईं तो वहां भी टकराव के हालात बनेंगे।
यह सर्वविदित धारणा रही है कि भाजपा नेताओं को अधिकारियों को हैंडल करना नहीं आता और कांग्रेसी वर्षों तक राज किए हुए हैं, इस कारण अधिकारियों को खींच कर रखने में माहिर हैं। इस सिलसिले में पूर्व मंत्री परसराम मदेरणा का नाम लिया जाता था, जो किसी सरकारी बैठक की अध्यक्षता करने से एक दिन पहले रात को पूरी स्टडी करते थे और बैठक में आईएएस अधिकारियों की ऐसी क्लास ले डालते थे कि वह थर थर कांपता था। मगर ऐसा लगता है कि अब धारणा टूटने लगी है। कांग्रेसी नेता अधिकारियों के आगे बेबस होने लगे हैं। ऐसे में यदि यह कहा जाए कि पिछली बार कर्मचारियों ने कांग्रेस का भट्टा बैठा दिया और इस बार अधिकारी निपटाने में लगे हुए हैं, कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

सरकार से अकेले जूझ रहे हैं पलाड़ा, सारे भाजपाई अजमेरीलाल

एक तो प्रदेश में कांग्रेस सरकार, दूसरा ब्यूरोक्रेसी का बोलबाला, दोनों से युवा भाजपा नेता भंवरसिंह पलाड़ा अकेले भिड़ रहे हैं, बाकी सारे भाजपाई तो अजमेरीलाल ही बने बैठे हैं। सभी भाजपाई मिट्टी के माधो बन कर ऐसे तमाशा देख रहे हैं, मानो उनका पलाड़ा और जिला प्रमुख श्री सुशील कंवर पलाड़ा से कोई लेना-देना ही नहीं है।
असल में जब से पलाड़ा की राजनीति में एंट्री हुई है, तभी से सारे भाजपाइयों को सांप सूंघा हुआ है। भाजपा संगठन के अधिकांश पदाधिकारी शुरू से जानते थे कि वे तो केवल संघ अथवा किसी और की चमचागिरी करके पद पर काबिज हैं, चार वोट उनके व्यक्तिगत कहने पर नहीं पड़ते, जबकि पलाड़ा न केवल आर्थिक रूप से समर्थ हैं, अपितु उनके समर्थकों की निजी फौज भी तगड़ी है। यही वजह थी कि कोई नहीं चाहता था कि पलाड़ा संगठन में प्रभावशाली भूमिका में आ जाएं। सब जानते थे कि वे एक बार अंदर आ गए तो बाकी सबकी दुकान उठ जाएगी। यही वजह रही कि जब पहली बार उन्होंने पुष्कर विधानसभा क्षेत्र से टिकट मांगा तो स्थानीय भाजपाइयों की असहमति के कारण पार्टी ने टिकट नहीं दिया। ऐसे में पलाड़ा ने चुनाव मैदान में निर्दलीय उतर कर न केवल भाजपा प्रत्याशी को पटखनी खिलाई, अपितु लगभग तीस हजार वोट हासिल कर अपना दमखम भी साबित कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि दूसरी बार चुनाव में पार्टी को झक मार कर उन्हें टिकट देना पड़ा। मगर स्थानीय भाजपाइयों ने फिर उनका सहयोग नहीं किया और बागी श्रवण सिंह रावत की वजह से उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद भी पलाड़ा ने हिम्मत नहीं हारी।
प्रदेश में कांग्रेस सरकार होने के बाद भी अकेले अपने दम पर पत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को जिला प्रमुख पद पर काबिज करवा लिया। जाहिर है इससे पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट, पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत सहित अनेक नेताओं की दुकान उठ गई है। भाजपा के सभी नेता जानते हैं कि पत्नी के जिला प्रमुख होने के कारण उनका नेटवर्क पूरे जिले में कायम हो चुका है और जिस रफ्तार से वे आगे आ रहे हैं, वे आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट के सबसे प्रबल दावेदार होंगे। कदाचित इसी वजह से कई भाजपा नेताओं को पेट में मरोड़ चल रहा है और वे शिक्षा मंत्री व जिला परिषद की सीईओ शिल्पा से चल रही खींचतान को एक तमाशे के रूप में देख रहे हैं। हर छोटे-मोटे मुद्दे पर अखबारों में विज्ञप्तियां छपवाने वाले शहर व देहात जिला इकाई के पदाधिकारियों के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकल रहा है कि प्रदेश की कांगे्रस सरकार राजनीतिक द्वेषता की वजह से जिला प्रमुख के कामकाज में टांग अड़ा रही है। रहा सवाल अफसरों का, एक तो वे कांग्रेस सरकार के पिट्ठू बने हुए हैं, दूसरा अफसर अफसर का मुंह सूंघता है वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं। ऐसे विपरीत हालात में भी दबंग हो कर पूरी ईमानदारी से जिला प्रमुख पद को संभालना वाकई दाद के काबिल है। हालांकि पलाड़ा के विदेश दौरे पर होने के दौरान पीछे से शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल सीईओ शिल्पा को फूंक भर गए हैं, इसके बावजूद जिला प्रमुख ने आते ही शिक्षा विभाग के अफसरों को चेता दिया है कि वे नियमों के खिलाफ जा कर या फिर मौखिक आदेशों पर अमल न करें।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

अब मीणा को जूझना होगा छप्पन पहलवानों से

अब तक अतिरिक्त जिला कलेक्टर (प्रशासन) के शानदार व सुकून भरे पद का आनंद भोग रहे सी. आर. मीणा को अब नगर निगम के दारासिंह बनाम महापौर और रंधावा बनाम उप महापौर के अतिरिक्त सभी पार्षदों सहित कुल छप्पन पहलवानों से जूझना होगा। हालांकि अनुमान यही लगाया जा रहा है कि खुद महापौर कमल बाकोलिया ने उनको निगम में लगाने की मांग रखी होगी, फिर भी उनका दबाव तो झेलना ही होगा। एक कलेक्टर का दबाव झेलने से कहीं ज्यादा मुश्किल होता है एक जनप्रतिनिधि का दबाव झेलना। इसके अतिरिक्त नरक निगम में कैसी कुत्ता फजीती होती है, इससे भी मीणा वाकिफ ही हैं। एक पार्षद भी जब गुर्राता है तो उसकी सुननी पड़ती है। पार्षद वो ताकत हैं जो मुंह काला तक कर देने तक की कुव्वत रखते हंै। पिछले दिनों आयुक्त जगदीश चौधरी का क्या हाल हुआ था, वो तो बाहर होने के कारण बच गए, वरना लिट्रेरी मुंह काला करवा बैठते। हालांकि पार्षदों ने केवल नेम प्लेट की काली की, मगर चौधरी की जो दुर्गति हुई, वह मुंह काला होने से कम नहीं थी। पिछले दिनों एक कांग्रेस पार्षद ने तो एक जेईएन को ही थप्पड़ रसीद कर दिया था। जब जेईएन ने शिकायत की और महापौर ने उस पार्षद को तलब किया तो उलटे उन्हें ही यह सुनने को मिला कि कोई अधिकारी काम नहीं करेगा तो थप्पड़ खाएगा ही और उसने फोन रख दिया।
बहरहाल, बात चल रही थी मीणा साहब की। वे एक सुलझे हुए और व्यावहारिक प्रशासनिक अधिकारी हैं। कहां ठंडा होना है और कहां गर्म, उन्हें सब कुछ पता है। उन्हें अजमेर की नब्ज भी अच्छी तरह पता है। उम्मीद है कि वे ठीक वैसे ही कामयाब होंगे, जैसे किसी जमाने में उन्हीं के नाम राशि सी. आर. चौधरी कामयाब हुए थे। सबसे बड़ी राहत तो बाकोलिया को मिलेगी, क्यों कि वे राजनारायण शर्मा की तरह बात-बात पर अटकेंगे नहीं।
राजनीति में कौन पास कौन फेल?
गुरुवार को अजमेर आए कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने नगर निगम कमल बाकोलिया व पीसीसी सदस्य महेन्द्र सिंह रलावता से अजमेर के बारे में चंद अनौपचारिक सवाल क्या पूछ लिए, वे खबरों का हिस्सा बन गए। मजे की बात ये रही कि दोनों ही ठीक जवाब नहीं दे पाए। बाकोलिया भले ही सही जवाब न दे पाए, इसमें कोई आश्चर्य नहीं, क्यों कि वे अभी नए-नए हैं, मगर रलावता का हड़बड़ाकर गलत जवाब देना कुछ जंचा नहीं। वे तो राजनीतिक आंकड़ों के बादशाह हैं। उन्हें अजमेर क्या, पूरे राजस्थान के बारे में जबरदस्त जानकारी है। खैर, कभी-कभी ऐसा हो जाता है।
तिवारी के साथ हुई इस चर्चा से एक सवाल तो उठता ही है कि क्या राजनीति के लिए ऐसी किसी प्राथमिक योग्यता की जरूरत होती है? क्या राजनीति में सफलता के लिए ऐसे सवालों का जवाब आना जरूरी है कि आपके क्षेत्र में कितने मतदाता हैं या कितने बूथ हैं? अपुन का तो मानना है कि कोई जरूरी नहीं है। यदि जरूरी ही होता तो अंगूलियों के पौरों पर आंकड़े रखने वाले रलावता अजमेर के सांसद या फिर मंत्री होते। इसके विपरीत बाकोलिया की राजनीतिक जानकारी कुछ खास नहीं, फिर भी मेयर हैं। असल में पार्षद, महापौर, विधायक या सांसद बनने के लिए ऐसे किसी बौद्धिक योग्यता की जरूरत नहीं होती। अव्वल तो प्राथमिक जरूरत होती है पर्याप्त धन की, जो खुद का भी हो सकता है और फाइनेंसर्स का भी हो सकता है, जो कि बाद में वसूल लेते हैं। दूसरा जरूरी होता है कि अच्छे मैनेजरों का, बींद भले ही भौंदू हो। और तीसरा जरूरी होता है किस्मत का बुलंद होना। अपना मानना है कि किस्मत का तगड़ा होना ही सबसे ज्यादा जरूरी है। यदि राजनीति किस्मत का खेल नहीं है तो क्या यह सत्य नहीं है कि बाकोलिया से कहीं अधिक पढ़े-लिखे और अनुभवी राजनीतिज्ञ डॉ. प्रियशील हाड़ा को मात खानी पड़ी थी? क्या यह सच नहीं है कि अनिता भदेल जब पहली बार विधायक बनीं, तब उन्हें राजनीति की एबीसीडी भी नहीं आती थी और उन्होंने अपनी योग्यता के दम पर अफसरों की क्लास ले डालने में माहिर ललित भाटी को निपटा दिया था?
ऐसे में अपना तो मानना है कि तिवारी ने जिस तरह की परीक्षा ली, वैसी राजनीति में कत्तई जरूरी नहीं है। परीक्षा में वही पास होता है, जो येन-केन-प्रकारेण ज्यादा से सिर गिनवाने में कामयाब हो जाता है, न कि ज्यादा से ज्यादा सवालों के जवाब देने वाला।
चंदगीराम को हुए नुकसान का हर्जाना कौन भरेगा?
स्वायत्त शासन विभाग के सचिव ने नगर निगम के सीईओ राजनारायण शर्मा के उस फैसले को गैरकानूनी करार दे दिया है, जो उन्होंने जयपुर रोड पर स्थित चंदगीराम शो रूम पर लागू कर उसे सीज कर दिया था। जिन तर्कों को आधार मान कर सचिव ने फैसला दिया है, उससे साफ जाहिर है कि शर्मा ने द्वेषतापूर्ण कार्यवाही करते हुए अकेले इसी शो रूम को अपना शिकार बना कर भेदभाव किया। उन्होंने जानबूझकर ऐन दीपावली से पूर्व शो रूम को सीज किया, जब कि उसमें करोड़ों रुपए का माल भरा हुआ था। कार्यवाही से साफ जहिर हो रहा था कि वे कोई दुश्मनी ही निकाल रहे हैं। अकेले इसी हरकत से नगर निगम महापौर कमल बाकोलिया पर यह आरोप लगा कि उनके राज में व्यापारियों को परेशान किया जा रहा है। यह सही है कि शो रूम मालिक कहीं न कहीं त्रुटि पर था, तभी निगम को कार्यवाही का मौका मिला, मगर जिस ढंग से कार्यवाही की गई, उससे तो यह साफ हो गया था कि ऐसा समय पर जेब गरम न करने की वजह से ही किया गया होगा। वैसे भी बताते हैं कि शो रूम के मालिक थोड़ा मु_ी भींच कर ही चलते हैं, एकाएक जेब ढ़ीली नहीं करते, इसी कारण राजनारायण की नाराजगी का शिकार हो गए।
हालांकि यह सही है कि सचिव के फैसले से फर्म को तो राहत मिली है, मगर शो रूम बंद रहने के कारण जो नुकसान हुआ, उसकी भरपाई कौन करेगा? क्या सरकार के पास ऐसा कोई प्रावधान है कि किसी अधिकारी की मनमर्जी के कारण किसी को नुकसान हो तो उसकी भरपाई उसी अधिकारी से ही होनी चाहिए? निश्चित ही इसका जवाब खुद सचिव के पास भी नहीं होगा।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

विमोचन समारोह बन गया अजमेर पर चिंतन का यज्ञ

अजमेर। अजमेर के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि अदद एक पुस्तक का विमोचन समारोह अजमेर की बहबूदी पर चिंतन का यज्ञ बन गया, जिसमें अपनी आहूति देने को भिन्न राजनीतिक विचारधारों के दिग्गज प्रतिनिधि एक मंच पर आ गए। यह न केवल राजनीतिकों, बुद्धिजीवियों, समाजसेवियों व गणमान्य नागरिकों एक संगम बना, अपितु अजमेर के विकास के लिए समवेत स्वरों में प्रतिबद्धता भी जाहिर की गई।
बुधवार की सुबह क्षितिज पर उभरी सूर्य रश्मियों की ऊष्मा से मिली गर्मजोशी का यह मंजर बना च्अजमेर एट ए ग्लांसज् पुस्तक के विमोचन समारोह में। पहली बार एक ही मंच पर अजमेर में कांग्रेस के दिग्गज केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट व भाजपा के भीष्म पितापह पूर्व सांसद औंकारसिंह लखावत को मधुर कानाफूसी करते देख सहसा किसी को यकीन ही नहीं हुआ कि विरोधी राजनीतिक विचारधारा के दो दिग्गज अजमेर के विकास की खातिर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताएं त्याग कर एक हो सकते हैं। मंच पर मौजूद प्रखर वक्ता पूर्व उप मंत्री ललित भाटी व धारा प्रवाह बोलने में माहिर पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत संकेत दे रहे थे उनमें भले ही वैचारिक भिन्नता है, मगर अजमेर के लिए उनमें कोई मनभेद नहीं है।
जिह्वा पर सरस्वती को विराजमान रखने वाले लखावत ने जिस खूबसूरती से अजयमेरु नगरी के गौरव व महत्ता का बखान किया, उससे समारोह में मौजूद सभी श्रोता गद्गद् हो गए। उन्होंने खुद उत्तर देते सवाल उठाए कि अगर अजमेर खास नहीं होता तो क्यों सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा इसी पावन धरती पर आदि यज्ञ करते? इस्लाम को मानने वाले लोगों के लिए दुनिया में मक्का के बाद सर्वाधिक श्रद्धा के केन्द्र ख्वाजा गरीब नवाज ने सुदूर ईरान देश से हिंदुस्तान में आ कर सूफी मत का प्रचार-प्रसार करने के लिए पाक सरजमीं अजमेर को ही क्यों चुना? उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि अजमेर की विकास यात्रा का भागीदारी बनने में कोई भी राजनीतिक विचारधारा बाधक नहीं बन सकती। लखावत के बौद्धिक और भावपूर्ण उद्बोधन से मुख्य अतिथि पायलट भी अभिभूत हो गए और उनके मुख से निकला कि कोई भी शहर इस कारण खूबसूरत नहीं होता कि वहां ऊंची-ऊंची इमारतें हैं या सारी भौतिक सुविधाएं हैं, अपितु वह सुंदर बनता है वहां रहने वाले लोगों के भाईचारे और स्नेह से। पायलट ने केन्द्रीय मंत्री के नाते अजमेर को उसका पुराना गौरव दिलाने के लिए अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। मुख्य वक्ता की भूमिका निभा रहे भाटी ने उन सभी बिंदुओं पर प्रकाश डाला, जिन पर ध्यान दे कर अजमेर को और अधिक गौरव दिलाया जा सकता है।
समारोह में मौजूद सभी गणमान्य नागरिक इस बात से बेहद प्रसन्न थे कि अजमेर और केवल अजमेर के लिए चिंतन का यह आगाज विकास यात्रा के लिए मील का पत्थर साबित होगा।
झलकी पायलट के संस्कार व सदाशयता
सचिन पायलट को मिले पारिवारिक संस्कार और सदाशयता समारोह में यकायक तब झलकी, जब उन्होंने सामने श्रोताओं की पहली पंक्ति में बैठे पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत को मंच पर आदर सहित आमंत्रित कर अपने पास बैठा लिया। वे पूरे समारोह के दौरान उनसे अजमेर के विकास के बारे में लंबी गुफ्तगू करते रहे। साफ झलक रहा था कि नई पीढ़ी का सांसद पांच बार सांसद रहे पुरानी पीढ़ी के प्रो. रावत को अपेक्षित सम्मान देने के लोक व्यवहार को भलीभांति जानता है। उन्होंने साबित कर दिया कि वरिष्ठता के आगे राजनीतिक प्रतिबद्धता गौण हो जाती है। पायलट के ऐसे सहज व्यवहार को देख कर पानी की कमी के कारण पिछड़े अजमेर के वासियों की आंख में पानी तैरता दिखाई दिया।
लब्बोलुआब, बुधवार का यह दिन सांप्रदायिक सौहाद्र्र की धरा अजमेर में पल-बढ़ रहे लोगों के बीच अजमेर की खातिर सारे मतभेद भुला कर एकाकार होने का श्रीगणेश कर गया।

धर्मेश जैन उस समय क्यों नहीं बता पाए खुद को ईमानदार?

वाकई धर्मेश जैन को न्यास अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने का अब तक मलाल है। वे आज तक इस्तीफे के घटनाक्रम को नहीं भूल पाए हैं। आखिर कैसे भूल सकते हैं। जब न्यास अध्यक्ष बने तो सालों की पार्टी सेवा के बाद एक सपना साकार हुआ था, मगर इस्तीफा देने के साथ सपना टूटा और जीवन का सबसे दु:खद दिन भी देखने को मिला। खुद अपनी ही पार्टी के नेताओं के षड्यंत्र का शिकार हो कर अपनी ही पार्टी के राज में पद से हटना निश्चित रूप मानसिक पीड़ा की इंतहा है। सामाजिक प्रतिष्ठ खोयी सो अलग।
अशोक गहलोत के दो साल के कामकाज पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए जब उन्होंने कहा कि उनकी ईमानदारी साबित हो गई है तो सहसा यह सवाल उठ खड़ा हुआ कि यही बात वे अपनी सरकार के रहते क्यों नहीं दमदार तरीके से कह पाए? वे चाहते तो इस्तीफा न देने के लिए अड़े रहते कि उन्होंने कोई भ्रष्टाचार नहीं किया है, चाहे सरकार उन्हें हटा कर जांच करवा ले। मगर पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता की वजह से मन मसोस कर रह गए। वे उन्हीं की पार्टी की नेता श्रीमती वसुंधरा राजे की तरह हिम्मत नहीं जुटा पाए। वसु मैडम को भी तो पार्टी हाईकमान ने विपक्ष का नेता पद छोडऩे को कहा था, मगर वे लंबे समय यह कह कर डटी रहीं कि विधायक उनके साथ हैं तो वे क्यों पद छोड़ें। अत्यधिक दबाव और पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बना कर कंपन्सेट करने पर ही पद छोड़ा। मगर जैन साहब वैसा साहस नहीं दिखा पाए। न जाने अपने किस सलाहकार की सलाह पर तुरंत पद छोड़ दिया? काश, साहस दिखा पाते तो भले ही पार्टी उनको निकाल देती, मगर सामाजिक प्रतिष्ठा तो बची रह जाती। वैसे भी एक बार इस प्रकार जलील करने के बाद पार्टी से भविष्य में उन्हें क्या मिलना है। पार्टी ने अगर बेटे को पार्षद को टिकट दिया भी तो उससे ज्यादा तो चूस ही लिया। जिस पार्टी ने उनका जम कर दोहन किया और इतना जलील भी किया, उसी पार्टी को छाती से चिपका कर चल रहे हैं। आज कांग्रेस राज में अगर वे कहते हैं कि वे भ्रष्ट नहीं थे, तो इसका कोई मतलब नहीं है।
हां, उनकी इस बात जरूर दम है कि अजमेर को गौरव दिलाने वाले गौरव पथ का काम कांग्रेस राज में ही ठप्प हुआ है। इसी प्रकार पृथ्वीराज नगर व पंडित दीनदयाल नगर योजना को भी ठप्प कर दिया गया। उनका यह आरोप धांसू है कि कांग्रेस राज में न्यास में जमकर भ्रष्टाचार हो रहा है, मगर मजा तब आता जबकि वे बाकायदा बिंदूवार यह साबित करते कि कहां-कहां पैसा खाया जा रहा है। आखिरकार वे न्यास अध्यक्ष रहे हैं, उन्हें तो पता ही होगा कि अंदरखाने में कहां-कहां घपला होता है। मगर ऐसा लगता है कि कांग्रेस पर हमला करने की गलत सलाह भी किसी गलत सलाहकार ने दी है।
इतना क्यों झल्लाते हैं देवनानी?
अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी इन दिनों झल्लाते बहुत हैं। बुधवार को रीजनल कॉलेज में फाइबर टू होम सेवा के शुभारंभ के मौके पर भी वे केकड़ी विधायक रघु शर्मा के छेडऩे पर झल्ला गए। इससे पहले भी कई विषयों पर लगातार प्रतिक्रिया जाहिर करते रहे हैं, जबकि उनकी पार्टी के पदाधिकारी तक चुप बैठे हंै। बुधवार को अटके भी तो रघु शर्मा की टिप्पणी पर। जो रघु शर्मा कद के अनुरूप पद नहीं मिलने के कारण खुद जले-भुने बैठे हैं और अपनी पार्टी के मंत्रियों को नहीं बख्शते, वे भला देवनानी को कैसे छोडऩे वाले थे। असल में देवनानी को उन्होंने छेड़ा ही इस कारण कि वे जानते थे कि इससे देवनानी चिढ़ेंगे। यह बात देवनानी समझ नहीं पाए और बिफर गए। बाद में भले ही उन्हें सचिन पायलट ने शांत करवाया और रघु शर्मा ने मिठाई खिला कर राजी किया, मगर इससे यह तो साबित तो हो ही गया कि देवनानी घोर प्रतिक्रियावादी हैं। यह सर्वविदित तथ्य है कि जो चिढ़ता है, उसे लोग ज्यादा चिढ़ाते हैं। अगर यह रहस्य उजागर हो गया तो कहीं ऐसा न हो कि कांग्रेसी हर वक्त यहीं तलाशते रहें कि उन्हें कैसे छेड़ा जाए।

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

दो राजपूत ही चला रहे हैं नगर निगम

राजपूत राजा अजयराज द्वारा स्थापित और अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान की अजयमेरु नगरी के नगर निगम को वर्तमान में दो राजपूत नेता चला रहे हैं। डिप्टी मेयर तो राजपूत नेता अजीत सिंह राठौड़ हैं ही, मेयर पद की चाबी भी राजपूत नेता के ही पास है। मेयर पद पर बैठे भले ही कमल बाकोलिया हों, मगर उन्हें गुरुज्ञान देने वाले तो राजपूत नेता रलावता महेन्द्र सिंह ही हैं। ये वही मेहन्द्र सिंह रलावता हैं, जिन्होंने हाजी कयूम खान और बाबूलाल सिंगारियां के पहली बार विधायक चुने जाने पर उन्हें अंगूली पकड़ कर विधानसभा परिसर के रास्तों से अवगत कराया था और आज बाकोलिया को राजनीति के गुर सिखा रहे हैं। खान व सिंगारियां तो फिर भी राजनीतिक यात्रा करके विधायक बने थे, इस कारण उन्हें राजनीति की समझ थी, मगर बाकोलिया तो कोरे कागज ही हैं। अजमेर के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी और पांच बार नगर पालिका के पार्षद रहे स्वर्गीय श्री हरिशचंद जटिया की पारिवारिक पृष्ठभूमि और परिवर्तन की लहर पर सवार हो कर वे मेयर तो बन गए हैं, मगर राजनीतिक चतुराइयां समझने में उन्हें अभी वक्त लगेगा। ऐसे में भला रलावता से अच्छा गुरू कौन होगा। वैसे भी रलावता खुद तो कुछ बन नहीं पाते, या फिर उनके किस्मत में बनना नहीं लिखा है, मगर किसी को बनवाने में तो माहिर हैं ही। कभी-कभी ऐसा होता है। कोई आदमी किंग मेकर तो होता है, मगर खुद किंग नहीं बन पाता। बहरहाल, बात चल रही थी बाकोलिया की। वे बंद कमरे में तो रलावता से ज्ञान लेते ही हैं, सार्वजनिक रूप से भी उन्हें साथ ही रखते हैं। हाल ही जब जादूगर आनंद ने उन्हें शो की शोभा बढ़ाने का आग्रह किया तो साथ में उनके गुरू रलावता को भी निमंत्रण देना पड़ा। गुरू-चेले ने साथ ही जादू का आनंद लिया। खैर, रलावता तो दिखाने के दांत हैं, बाकोलिया के खाने के दांत भी हैं। वे केवल खाने के ही काम आते हैं, दिखाने के नहीं क्योंकि वे भाजपा से जुड़े हुए हैं। बाकोलिया की जीत में उनका बड़ा सहयोग रहा है। अब भी उनकी मंत्रणा काम आती है। संयोग से वे भी राजपूत हंै। यानि कि निगम को दो नहीं, तीन राजपूत चला रहे हैं। राजपूत राजाओं की इस नगरी को राजपूत चलाएं, इससे सुखद बात क्या हो सकती है, बशर्ते वे इसे फिर पुराने गौरव तक ले जाएं।

पुलिस यकायक हो गई मुस्तैद

एक ओर जहां पूरा शहर कड़ाके की ठंड झेल रहा है, वहीं अब तक ठंडी से पड़ी पुलिस यकायक गर्म हो गई है। शहरभर के अतिरिक्त शहर से बाहर जा रहे मार्गों पर पुलिस की चौकसी बढ़ गई है। थानों के आगे बेरिकेड लगा कर वाहनों की जांच को सख्त कर दिया गया है। शहरभर ही होटलों को तो खंगाला ही जा रहा है, यातायात पुलिस भी अलर्ट हो गई है और उसने वाहनों की धरपकड़ तेज कर दी है। पायरेटेड फिल्मों का जखीरा बरामद होना भी उसी पुलिस सक्रियता का नतीजा है, वरना पिछले लंबे समय यह धंधा धड़ल्ले से चला रहा है और पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी थी।
हालांकि बताया यही जा रहा है कि हाल ही बनारस में गंगा आरती के दौरान पुलिस को विशेष रूप से सक्रिय किया गया है, मगर असल बात ये है कि नए-नए आए पुलिस कप्तान बिपिन कुमार पांडे ने पूर्व कप्तान हरि प्रसाद शर्मा की बिछाई पूरी जाजम को झाडऩे के मूड में हैं। सब को पता है कि पांडे बिहार केडर के हैं और जिस राज्य में बाहुबलियों को बोलबाला हो, उस मिट्टी का पुलिस अफसर कितना कडक़ होगा, अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। जैसे ही पांडे आए हैं उन्होंने सारे अधीनस्थ पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों की खिंचाई करना शुरू कर दी है। एक वजह है फस्र्ट इम्प्रेशन इस दी लास्ट इम्पेशन। वे जानते हैं कि जब पूरे देश में आतंकवाद का साया है, मोहर्रम के दौरान थोड़ी भी गड़बड़ी हुई तो शुरुआत ही खराब हो जाएगी। दूसरा ये कि शर्मा जी उनको पुराना बकाया काफी टास्क दे गए हैं। यंू तो फेहरिश्त काफी लंबी है, मगर सबसे ज्यादा चैलेंज का काम हत्याकांडों का पर्दाफाश करना। इन सब को पार पाने के लिए यह बेहद जरूरी है कि उन्हें पुराने ढर्रे को तोडऩा ही होगा। उसी ढर्रे की वजह से ही तो जंग लगी हुई थी। सब को पता है कि जब भी कोई नया पुलिस अधीक्षक आता है, पुरानी सारी सैटिंगें खत्म हो जाती हैं। कांस्टेबल से लेकर पुलिस कप्तान से जुड़ी पुरानी सारी कडिय़ों टूट जाती है। टूटती क्या हैं, जानबूझ कर तोड़ दी जाती हैं। पुराने मुखबिरों व पुराने बिचौलियों की नए जगह पाते हैं। थानेदार भले ही वे ही रहें, मगर विश्वस्थों की जगह बदल जाती है। इसके अतिरिक्त नए कप्तान के सामने नंबर बढ़ाने का दबाव भी रहता है, इस कारण सारे एसआई व एएसआई अलर्ट हो गए हैं। जो पुराने एसपी के सामने जगह नहीं बना पाए थे, वे पांडेजी को अपनी परफोरमेंस दिखाना चाहते हैं। सबसे ज्यादा हैडएक है क्लॉक टावर पुलिस थाने को, क्यों कि सबसे बड़ा टारगेट उसे ही पूरा करना होता है। सावधानी भी पूरी बरतनी पड़ती है, क्यों कि यह थाना हार्ट ऑफ दि सिटी है। न केवल सारे प्रशासन की नजर इस पर रहती है, अपितु नेताओं का दखल भी ज्यादा होता है। एक तरह से यहां काम करना तलवार की धार पर चलने के समान होता है। आपको याद होगा कि किसी जमाने में यहां के थानाधिकारी हरसहाय मीणा का कितना खौफ था। गुंडो की हालत तो पतली थी ही, व्यापारी तक घबराते थे। जोश में होश न रखने के कारण एक छात्र नेता की थाने में मौत की कालिख पुतवा गए थे। उसके बाद आए थानेदार जरा संभल कर ही चलते हैं।
कुल मिला कर इन दिनों पूरा महकमा जोश से जबरेज है और पेशवर अपराधी चौकन्ने हो गए हैं। उम्मीद है कि बिहारी बाबू, सॉरी बिहारी अफसर आम जनता को कुछ तो राहत प्रदान करेंगे।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बोर्ड विखंडन का मुद्दा टांय टांय फिस्स

शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल ने जिस तरह अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विखंडन के आरोपों की गिल्लियां उड़ाते हुए पलटवार किया है, उसे देखते हुए तो यह साफ हो चुका है कि सरकार जो निर्णय कर चुकी है, उससे एक कदम भी पीछे हटने को तैयार नहीं है। उन्होंने जयपुर स्थित शिक्षा संकुल में बनाए जाने वाले बोर्ड के भवन को बड़ी चतुराई से विस्तार की संज्ञा तो दी ही है, साथ ही उलटे देवनानी पर ही सवाल दाग दिया कि शायद उन्हें सरकार की ओर से किए जा रहे विकास कार्य पच नहीं रहे हैं। वे देवनानी पर लगभग बरसते हुए बोले कि आपने शिक्षा मंत्री रहते ऐसे विकास कार्य क्यों नहीं करवाए।
असल में इस प्रकरण यही हश्र होना था। अव्वल तो इसको लेकर शिक्षा बोर्ड कर्मचारी संघ चूं तक नहीं कर रहा। उसकी चुप्पी साबित करती है कि वह सरकार के इस निर्णय से सहमत है। रहा सवाल समय-समय पर अजमेर के हित की बात करने वाले कांग्रेसी विधायकों व नेताओं का, तो वे इस कारण बोलने वाले नहीं हैं कि वे अपने आकाओं को नाराज नहीं करना चाहते। पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती से जरूर जनता को उम्मीद थी, क्यों कि वे गाहे-बगाहे अजमेर के हित की बात करते रहते हैं, मगर वे भी शायद इसी कारण चुप हैं कि उनके आका मुख्यमंत्री अशोक गहलोत स्वयं उस भवन का 12 दिसम्बर को शिलान्यास करने जा रहे हैं। पूर्व विधायक ललित भाटी भी बोलने में कम नहीं पड़ते, मगर वे अभी तो बिखरी हुई को समेटने में व्यस्त हैं। बाकी बचे भाजपाई, जिन पर विपक्ष में रहते हुए जनता के हितों का ध्यान रखने की जिम्मेदारी है, उन्हें भी सांप सूंघा हुआ ही लग रहा है। अकेले देवनानी ही अपनी पूंपाड़ी बजा रहे हैं। अन्य मौकों पर बढ़-चढ़ कर बोलने वाली अजमेर शहर की दूसरी भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने भी चुप्पी साध रखी है। कदाचित वे इस कारण नहीं बोल रहीं कि मुद्दा देवनानी ने जो उठाया है। वे भला उनकी बात का समर्थन कैसे कर सकती हैं। बाकी बचा शहर भाजपा संगठन, वह तो वैसे भी नए अध्यक्ष इंतजार में मृतप्राय: सा पड़ा है। वैसे भी उसकी और अन्य भाजपा नेताओं की देवनानी से नाइत्तफाकी सर्वविदित ही है। जब अधिसंख्य भाजपा नेता देवनानी को निपटाने की कोशिश में जुटे हुए हों, तो भला उनकी बात को समर्थन करने कौन आएगा, भले ही वे शहर हित की बात कर रहे हों। कम से कम अभी तो कर ही रहे हैं, आईआईटी के मामले में भले ही उदयपुर जा कर उनकी जबान फिसल चुकी हो। जाहिर है ऐसे में देवनानी की आवाज नक्कारखाने में तूती की माफिक साबित हो रही है।
अब अगर मीडिया की बात करें तो वह पहले ही चोट खा चुका है। आईआईटी के मामले में स्थानीय दैनिक नवज्योति के मालिक दीनबंधु चौधरी ने अगुवाई की थी, मगर शेरनी की माफिक तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की नाराजगी होने पर एक तो सरकारी विज्ञापनों में कटौती का डर और दूसरा आम जनता की बेरुखी, दोनों कारणों से चुप हो कर बैठ गए। जनता का तो हम सब को पता ही है। हमारी बला से तो पूरा बोर्ड ही जयपुर ले जाएं तो हमें क्या फर्क पड़ता है। हमें तो पांच-पांच दिन के अंतराल से पानी सप्लाई किए जाने से ही फर्क नहीं पड़ता, बोर्ड तो चीज ही क्या है? यानि कुल मिला कर तय है कि बोर्ड विखंडन का मुद्दा टांय टांय फिस्स होता दिख रहा है।

दो साल में कांग्रेसियों को कुछ नहीं दिया गहलोत ने

प्रदेश के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भले ही अपने दो साल के कार्यकाल की उपलब्धियां गिना कर नहीं थकें, मगर जिन कार्यकर्ताओं के दम पर वे सत्ता का स्वाद आनंद भोग रहे हंै, उन्हें तो निराशा ही हाथ लगी है। नरेगा, प्रशासन शहरों की ओर, प्रशासन गांवों की ओर जैसे अभियानों से आम आदमी को भले ही दोनों हाथों से लुटा रहे हों, मगर कार्यकर्ताओं को उन्होंने कुछ नहीं दिया है। वे अब भी राजनीतिक नियुक्तियों को तरस रहे हैं। रोष तो उनमें बहुत है, मगर कर कुछ नहीं पा रहे। मलाईदार पदों की छोड़ भी दें, मगर संगठन के पदों पर नई नियुक्तियों का इंतजार करते-करते भी एक साल बीतने को आया है। सत्ता व संगठन के बीच तालमेल न होने के कारण प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर भी नई नियुक्ति नहीं हो पा रही। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को गहलोत इस रवैये पर बड़ा आश्चर्य हो रहा है कि क्या से वही गहलोत हैं, जिन्होंने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के नाते प्रदेशभर के कार्यकर्ताओं में अपनी पहचान बनाई थी और उन्हें कार्यकर्ताओं की भावनाओं के बारे में भी भरपूर जानकारी है।
राजनीति जानकारों का मानना है कि पिछली बार के मुख्यमंत्री गहलोत और इस बार के मुख्यमंत्री गहलोत में काफी फर्क है। इस बार जब से मुख्यमंत्री बने हैं, तब से न जाने कितनी बार मीडिया उनसे पूछ चुका है कि राजनीतिक नियुक्तियां कब कर रहे हैं और वे भी न जाने कितनी बार यह कह चुके हैं कि बस अब जल्द ही तोहफे बांटे जाएंगे। रहा सवाल कांग्रेसियों का तो जो भी उनके पास हाजिरी देने जाता है, उससे बड़ी गर्मजोशी से मिल कर जादूई स्टाइल में मुस्कराते हैं और सिर्फ एक ही बात कहते हैं, तसल्ली रखो, मुझे सब कुछ ध्यान में है, जल्द ही कुछ करेंगे। ऐसा कहते-कहते उन्होंने पूरे दो साल निकाल दिए। अब तो कांग्रेसियों को भी निराशा होने लगी है। उन्हें बार-बार जा कर भिखारी की तरह मांगने में शर्म आने लगी है। कई कार्यकर्ता तो इस कारण उनके सामने जाने से कतराने लगे हैं कि कहीं टोक न दें कि एक बार कह दिया न कि तसल्ली रखें, समय आने पर सब कुछ मिलेगा। राजनीनिक नियुक्ति की आशा में अपना निजी व्यवसाय चौपट कर चुके कांग्रेसी तो अब सब कुछ छोड़ छाड़ कर वापस धंधे पर ध्यान देने की सोच रहे हैं।
हालांकि दो साल पूरे होने पर एक बार फिर राजधानी में तोहफे बंटने की चर्चा जोरों पर है, मगर कांग्रेसियों को यही लगता है कि जन्म से जादूगर गहलोत के झोले में से कुछ नहीं निकलने वाला है। वे इस बार काफी कंजूस हो गए हैं। या फिर उन्हें यह समझ में आ गया है कि जब तक कुछ नहीं बांटो, कार्यकर्ता मुंह ताकता है, देने के बाद तो मुट्ठी खुल जाएगी। या फिर उन्हें ये रहस्य पता लग गया है कि कार्यकर्ताओं को देने के लालच में अटकाए रखो तो वे काम करते हैं, मलाई चखाने से तो बिगड़ जाते हैं। अभी तो कोई सेवा मांग रहे हैं और सेवा कार्य दे दिए जाने के बाद खुद की सेवा में लग जाएंगे। इसी का परिणाम रहा कि पिछली बार सुशासन देने के कारण देश के नंबर वन मुख्यमंत्री घोषित होने के बाद भी सत्ता में लौट नहीं पाए। अकाल राहत के नाम पर इतना लुटाया कि चुनाव के दो-तीन माह के बाद तक ग्रामीणों के घरों में गेहूं की बोरियां पड़ी थीं, मगर यही सेवा मांगने वाले जन-जन तक गहलोत की उपलब्धियों को नहीं पहुंचा पाए थे। कार्यकर्ताओं व छोटे नेताओं की छोडिय़े, मंत्री पद पर बैठे नेता तक यहीं इंतजार कर रहे हैं कि उन्हें अब तक के परफोरमेंस को देख कर कोई अच्छा विभाग मिल जाएगा। कई विधायक भी इसी इंतजार में हैं कि कब मंत्रीमंडल का विस्तार अथवा फेरबदल हो और उनका नंबर आए।
समझदानी में सियासत की बारीकियां रखने वाले मानते हैं कि असल में गहलोत को इतनी फुर्सत ही नहीं कि कार्यकर्ताओं पर ध्यान दे पाएं। असल में उन्हें तो अपनी ही कुर्सी की चिंता लगी रहती है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सी. पी. जोशी ने नींद हराम कर रखी है। वे आए दिन कोई घोचा कर देते हैं। केन्द्रीय मंत्री होने के कारण अधिकांश समय दिल्ली में रहते हैं, इस कारण वहां बैठे-बैठे सोनिया गांधी के प्रमुख सलाहकारों के बीच चक्कर चलाते रहते हैं। खुद ही कई बार मुख्यमंत्री पद का दावेदार होने की सुर्री छोड़ चुके हैं। हालांकि बताया जाता है कि सोनिया दरबार में गहलोत के पैर जमे हुए हैं, मगर राजनीति का क्या भरोसा, कब पलटी खा जाए। इसकी वजह ये है कि कांग्रेस में सत्ता का केन्द्र अब केवल सोनिया गांधी ही नहीं है, राहुल बाबा की भी चलती है। और राहुल के रजिस्टर में जोशी ने खासे नंबर हासिल कर रखे हैं। यही वजह है कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद पर नई नियुक्ति नहीं हो पा रही है। जोशी चाहते हैं उनकी पसंद का अध्यक्ष हो, जो गहलोत को चैक करता रहे, जबकि गहलोत चाहते हैं कि उनसे ट्यूनिंग बैठाने वाला अध्यक्ष बने। इसी खींचतान में इसी साल एक जनवरी को शुरू हुए संगठन चुनाव की प्रक्रिया अब तक पूरी नहीं हो पा रही है। पीसीसी व एआईसीसी के सदस्य तो तय हो गए, सदर का फैसला नहीं हो पा रहा। और जब तक सदर का फैसला नहीं होगा, तब तक भला सत्ता व संगठन के बीच मलाईदार पदों का बंटवारा कैसे हो सकता है?

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

अब तक क्या झक मार रहा था निगम प्रशासन?

नगर निगम प्रशासन ने शहर में बुधवार को अचानक दस निर्माणाधीन व्यावसायिक परिसरों पर धावा बोल दिया और छह के निर्माण पर रोक लगा दी। चार परिसरों के मालिकों को नोटिस देने का निर्णय किया है और एक में तोडफ़ोड़ भी की गई है। सुर्खियों में छपी इस खबर से ऐसा प्रतीत होता है मानो निगम प्रशासन ने कोई जंग जीत ली हो। इसे जंग की ही संज्ञा देनी चाहिए क्यों कि निगम में दस्ते ने इसे युद्ध स्तर पर ही अंजाम दिया। मगर अहम सवाल ये है कि निगम प्रशासन की नींद अचानक कैसे खुल गई? विशेष रूप से ये कि अतिक्रमण व अवैध निर्माण पर ध्यान देने वाले अधिकारी व कर्मचारी क्या फोकट में ही तनख्वाह उठा रहे थे? क्या ये भवन केवल मंगलवार की रात में ही खड़े हो गए कि निगम को बुधवार को तुरंत कार्यवाही करनी पड़ गई? या फिर अब तक तो देख कर भी नजरअंदाज कर रहे थे, क्यों कि इन भवनों के मालिकों की उन पर नजरें इनायत थीं और अब जब कि कांग्रेस पार्षदों के दबाव में मेयर कमल बाकोलिया ने अधिकारियों की खिंचाई की, तब जा कर उनको मजबूरी में कार्यवाही करनी पड़ी? एक अखबार ने तो चंद शब्दों की रोचक हैडिंग च्हो गए खड़े, तब नैन पड़ेज् में ही साफ दिया है कि स्पष्ट है कि ये कथित अवैध भवन लंबे अरसे से बड़ी तसल्ली से बनाए जा रहे थे और निगम के अधिकारी चुप बैठे थे। ऐसे में सिर्फ एक ही सवाल कौंधता है तो फिर वे अब तक हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे थे? नीचे से ऊपर तक हो रहे भ्रष्टाचार पर सवाल खड़े करने वाली हमारी व्यवस्था क्या यह सवाल खड़ा करेगी? क्या केवल दोषियों को ही हिकारत की नजर से देखा जाएगा और इस दोष में भागीदारी निभा रहे अधिकारियों को पाक साफ मान लिया जाएगा? क्या सरकार व न्यायालय इस पर प्रसंज्ञान लेते हुए जवाब तलब करेंगे कि वे आखिर अब तक कर क्या रहे थे? भवन मालिकों पर तो कार्यवाही होगी मगर क्या जिन अधिकारियों व कर्मचारियों की देखरेख में ये भवन बन रहे थे, उनको भी कटघरे में खड़ा किया जाएगा?
पिछले दिनों घटे घटनाक्रम से तो साफ ही है कि ये सभी भवन पिछले भाजपा बोर्ड के दौरान बनना शुरू हुए थे। नगर निगम के मेयर पद के भाजपा प्रत्याशी रहे डॉ. प्रियशील की राय को ध्यान रखें तो यही अहसास होता है कि उन्होंने कदाचित ऐसे भवनों के बारे में जिक्र करते हुए नए बोर्ड के बारे में बयान दिया था। उन्होंने कहा था कि मेयर ने लोगों के प्रतिष्ठान बंद करवाए और व्यापारियों को आंख दिखाना शुरू कर दिया। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये वही व्यापारी हों, जिनके बारे उन्होंने अपना दर्द बयां किया था। यदि ये वही व्यापारी हैं तो फिर यह पक्का है कि पिछले बोर्ड का ऐसे भवनों को बनाने के लिए पूरा संरक्षण था। सवाल ये उठता है कि क्या मेयर इस बात की भी जांच करवाएंगे कि ये भवन किसकी शह पर खड़े हो गए? वे जो दुहाई दे कर चुनाव जीत कर आए हंै, उसके तहत तो उन्हें और उनके बड़े प्रचारक नेताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए। सरकारी मातहतों को तो उन्होंने बड़ी आसानी से फटकार दिया, क्यों कि उन्हें तो बेचारों को नौकरी की गरज है, मगर क्या पिछले बोर्ड के जनप्रतिनिधियों की भी कोई जवाबदेही तय करने की हिम्मत भी दिखा पाएंगे? ये सब सवाल ऐसे हैं, जो आमजन के मन में उमड़-घुमड़ रहे हैं। अब ये तो वक्त ही बताएगा कि मेयर बाकोलिया अपनी पार्टी की सरकार के होते हुए कोई हिम्मत दिखा पाते हैं या नहीं।
कांग्रेस में चल रहा है शक्ति प्रदर्शन का दौर
जब से स्थानीय सांसद व केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट व शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल के बीच नाइत्तफाकी उजागर हुई है, जयपाल किसी न किसी तरीके से लगातार शक्ति प्रदर्शन किए जा रहे हैं। आमतौर वे इसके लिए किसी मंत्री के अजमेर आने का मौका तलाशते हैं। वे मंत्री का स्वागत-सत्कार करने के बहाने मजमा इकट्ठा करते हैं। ऐसा करने से मंत्री जी तो खुश होते ही हैं, शक्ति प्रदर्शन भी हो जाता है। हालांकि वे आधिकारिक रूप से शहर अध्यक्ष हैं कि इस कारण उन पर सीधे ये सवाल नहीं उठाया जा सकता कि मंत्रियों का स्वागत क्यों कर रहे हैं, मगर उनके इन आयोजनों में पायलट खेमे के लोगों की अनुपस्थिति ये दर्शाती है कि मामला कुछ और है। बुधवार को शिक्षा मंत्री मास्टर भंवरलाल मेघवाल जब यहां अपने महकमे के अधिकारियों की क्लास लेने आए तो जयपाल ने उनके स्वागत में अपने निवास स्थान पर ही शानदान जलसा आयोजित किया, मगर इस जलसे में पायलट खेमे के महेन्द्र सिंह रलावता, कैलाश झालीवाल, विजय जैन, बिपिन बैसिल व जयपाल के धुर विरोधी ललित भाटी गैर हाजिर रहे। अब ये गैर मौजूद रहने वाले ही जानें कि उन्हें बुलाया ही नहीं गया या फिर उन्होंने वहां जाना उचित नहीं समझा।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

आखिर प्रेम उजागर हो ही गया जयपाल व बाकोलिया का

संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर की पुण्यतिथि के मौके पर भी अंबेडकर सर्किल की सफाई न होने पर शहर कांगे्रस अध्यक्ष जसराज जयपाल व मेयर कमल बाकोलिया के बीच पल रहा च्प्रेमज् आखिर उजागर हो ही गया। दोनों ने एक-दूसरे पर शब्द बाण चलाए। जयपाल शहर अध्यक्ष हैं, इस नाते उन्हें अपनी ही पार्टी के मेयर को पार्टी फोरम पर निर्देश देने के पूरे अधिकार हैं, मगर बाकोलिया के प्रति मन में कायम च्प्रेमज् सार्वजनिक रूप से उजागर कर गए। कदाचित उजागर न भी करना चाहते हों, मगर आजकल मीडिया के कुछ लोग नेताओं के मुंह में जबरन शब्द डाल देते हैं। फिर इलैक्ट्रॉनिक मीडिया की तो बात ही कुछ और है। बयान देने वाले को सोच-समझ कर बोलने का तो मौका ही नहीं मिलता और मजे की बात ये है कि मुंह से निकले शब्द रिकॉर्ड हो जाते हैं। प्रिंट मीडिया के मामले में तो कोई सफाई दे भी सकता है कि उन्होंने ऐसा नहीं कहा था, बयान को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है।
बहरहाल बात चल रही थी जयपाल और बाकोलिया की। बाकोलिया चुनाव जीतते ही केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट के खेमे में चले गए। ऐसे में पायलट विरोधी लॉबी के जयपाल से उनके च्प्रेमज् का अंदाजा लगाया ही जा सकता है। बस टकराव नहीं हो रहा था, इस कारण वह उजागर नहीं हो रहा था। बाबा साहब के बहाने उजागर हो गया। उजागर क्या हो गया, समझो जंग की शुरुआत हो गई। जयपाल ने तो थोड़ी ही सीमा लांघी, मगर बाकोलिया ने तो जयपाल को संयम की सीख देते हुए खुद ही संयम खो दिया। इसमें बाकोलिया ही घाटे में रहने वाले हैं। बाकोलिया अभी राजनीति में कच्चे हैं, जबकि जयपाल धुरंधर। उनकी लॉबी इतनी सशक्त है कि एकाएक पायलट भी सीधे टांग नहीं फंसा पा रहे। नए शहर अध्यक्ष को लेकर हुए विवाद में पायलट कितने फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं, सबको पता है। और वैसे भी जयपाल तो पार्टी अध्यक्ष हैं, जबकि बाकोलिया जनप्रतिनिधि। जनप्रतिनिधि हरवक्त तलवार की धार पर काम करता है। उस पर हमला करना भी आसान होता है। जयपाल से पंगे की शुरुआत होने के बाद अब बाकोलिया को संभल-संभल कर चलना होगा। वे कहां लंगी लगाएंगे, बाकोलिया को अनुमान ही नहीं हो पाएगा। चलो शहर के लिए तो अच्छा ही हुआ। भाजपा तो बाकोलिया के कामकाज पर नजर रख ही रही है, अब बाकोलिया कांग्रेस की पैनी नजर के दायरे में रहेंगे।

सलमान खान नाइट के टिकट में वाकई फर्जीवाड़ा है

आगामी 19 दिसम्बर को विश्राम स्थली में प्रस्तावित सलमान खान नाइट के सिलसिले में सलमान से शो के करार व प्रशासनिक स्वीकृति के अभाव में जिन टिकटों के साथ तीन आयोजकों को गिरफ्तार किया गया है, उनमें वाकई फर्जीवाड़ा नजर आता है।
हमें टिकट का जो नमूना हासिल हुआ है, उसमें दिनांक व समय का तो उल्लेख है, लेकिन स्थान का कोई उल्लेख नहीं है। टिकट पर वीआईपी टिकट लिखा है, लेकिन उसकी कीमत क्या है, इसका कोई जिक्र नहीं है। ऐसे में जाहिर है जब कि टिकट के जरिए वसूली गई राशि का पता नहीं लगेगा तो आमदनी कितनी हुई है, इसका आकलन कैसे होगा। और कैसे उसका पचास फीसदी चेरिटी पर खर्च किया जाएगा। यानि कि टिकटों के जरिए वसूली जाने वाली राशि को गोलमाल किए जाने की योजना थी।
अव्वल तो जिस फर्म स्टार ईवेंट के नाम से यह आयोजन हो रहा है, उसका कोई अता-पता नहीं है। टिकट में फर्म का केवल नाम ही दिया गया है, उसका कोई संपर्क सूत्र नहीं दिया गया है। न ही फर्म के कहीं रजिस्टर्ड होने का उल्लेख है। ऐसे में आयोजकों का यह दावा स्वत: ही खारिज हो जाता है कि वे आमदमी का पचास प्रतिशत चेरिटी पर खर्च करेंगे। अव्वल तो इस आयोजन का खर्च ही इतना अधिक है कि उसे टिकटों के जरिए एकत्रित ही करना असंभव है। जब कुछ आमदनी ही नहीं होगी तो चैरिटी कहां से होगी।
टिकट में नीचे जिन दो जनों धर्मेन्द्र व असीम के नाम हैं, उनके भी कोई संपर्क सूत्र नहीं हैं कि कोई समस्या होने पर उनसे संपर्क किया जा सके। एक फर्जीवाड़ा और है। टिकट पर जिस असीम का नाम है, उसका नाम शो के बारे में सबसे पहले एक अखबार में आए विज्ञापन में कहीं भी नहीं है। असल में उसमें विक्की का नाम है। बताते हैं कि वही असीम है। वह पहले महेन्द्रा नामक किसी कंपनी में काम करता था। वह काफी फर्टाइल दिमाग का है। यह एक रहस्य ही है कि असीम उर्फ विक्की को पुलिस ने गिरफ्तार नहीं किया है। अपुष्ट सूत्रों के अनुसार वह नया बाजार में ही एक दुकान मालिक का भतीजा है। जानकारी ये भी मिली है कि असीम व धर्मेन्द्र ने कुछ दिन पहले एक ऐसी फर्म खोलने की योजना बनाई थी, जिसके तहत घर बैठे हर प्रकार की सेवाएं दी जानी थीं। वह योजना क्यों विफल हुई, इसका पता नहीं लग पाया है। टिकट पर एक एफएम कंपनी का लोगो भी छपा है, देखना ये है कि पुलिस उस मामले में क्या कार्यवाही करती है।
एक जानकारी यह भी है कि सलमान का शो करने के लिए आयोजकों ने तीस लाख रुपए पेशगी दे रखे हैं। सिर्फ इसी कारण आयोजन तो हर हाल करने पर विचार किया जा रहा है। अगर आयोजन रद्द होता है तो तीस लाख रुपए पेशगी कैसे वापस होंगे, ये तो आयोजक ही जानते होंगे। इसके अतिरिक्त इतनी बड़ी राशि किसने फायनेंस की यह भी एक बड़ा सवाल है। हालांकि आयोजन करने पर फिर से कवायद शुरू कर दी गई है, मगर आयोजन होगा या नहीं अभी कुछ नहीं कहा जा सकता।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

अब चुप क्यों हैं अतुल शर्मा?

एक प्रचलित जुमला है कि अमुख आदमी को गुस्सा क्यों आता है। मगर आपको ऐसा किस्सा सुना रहे हैं कि आप खुद कह उठेंगे कि अमुख आदमी का गुस्सा जल्द ठंडा क्यों हो जाता है।
नगर निगम के चुनाव हुए ही थे कि शहर में आवारा गायों को पकडऩे के लिए नए-नवेले मेयर कमल बाकोलिया से भी ज्यादा संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा सख्त हो गए। बाकोलिया का करंट में रहना इस कारण भी समझ में आ रहा था कि नया मुसलमान अल्लाह-अल्लाह ज्यादा करता है, मगर शर्मा की सक्रियता को देख कर सभी चकित थे। सक्रिय भी इतने हुए कि यदि निगम के सीईओ राजनारायण शर्मा थोड़ी सी भी ढ़ील बरतें तो गायों की जगह उनको बांध कर बाड़े में पटक दें। अतुल शर्मा के इस रवैये से एक बारगी तो लोगों पूर्व जिला कलैक्टर श्रीमती अदिति मेहता की याद आ गई। उनकी सख्ती को इस रूप में पेश किया गया कि चूंकि वे अजमेर के ही रहने वाले हैं, इस कारण उनका शहर के प्रति ज्यादा दर्द है। दूसरी ओर कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो बताते हैं कि उन्हें गायों से कोई लेना-देना नहीं था, वे तो रेलवे स्टेशन के बाहर बनाए गए ओवर ब्रिज को लेकर सीईओ शर्मा के रवैये से खफा थे, और रडक़ निकालना चाहते थे। चलो वे किसी भी कारण सख्त हुए, मगर उनकी सख्ती और सक्रियता मात्र चार दिन की चांदनी ही साबित हुई। ठीक उसी तरह जैसी कि यातायात नियमों की पालना करवाने और अतिक्रमण हटाने के मामले में लोग देख चुके हैं। लोगों को अच्छी तरह याद है कि सूचना केन्द्र व इंडिया मोटर सर्किल के आसपास के अतिक्रमण को उन्होंने एक झटके में हटवा दिया, मगर आज हालात जस के तस हैं। अब तो लोग कहने लगे हैं कि शर्माजी को करंट तो खूब आता है, मगर वे डिस्चार्ज भी जल्द ही हो जाते हैं। गायों के मामले वे डिस्चार्ज इस कारण हुए बताए कि केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट ने गुर्जर पशुपालकों की व्यवहारिक परेशानी को देखते हुए ज्यादा नौटंकी करने की हिदायत दे दी थी। और शर्माजी का उफान खाता गुस्सा पैंदे जा बैठा। बस तभी से शर्मा जी चुप हैं। भइया, नौकरी से बढ़ कर शहर थोड़े ही है।

क्या दोषी बीएलओ को बचाने का विचार है?

नगर निगम चुनाव में मतदाता सूचियों में बड़े पैमाने पर लापरवाही और गड़बड़ी के मामले में बड़े अधिकारी तो बड़ी सफाई से बच और जिन बीएलओ को दोषी माना गया था, उनके खिलाफ भी कार्यवाही होती नहीं दिखाई दे रही है। स्वयं रिटर्निंग ऑफिसर व एडीएम सिटी जगदीश पुरोहित इस बात को स्वीकार रहे हैं कि दोषी पाए गए बीएलओ के खिलाफ 30 नवंबर तक कार्यवाही करने के लिए संबंधित विभागों को कहा गया था, लेकिन अब तक उनके पास कार्यवाही की सूचना नहीं आई है। यानि खुद प्रशासन ही इस मामले में कोई ज्यादा रुचि नहीं ले रहा।
वस्तुत: मतदाता सूचियों में गड़बड़ी इतनी बड़ी थी कि अनुमानत: पचास हजार मतदाता वोट देने से वंचित रह गए थे। तकनीकी रूप से भले ही प्रशासन इस कारण बच रहा था कि उसने तो बाकायदा समय-समय पर लोगों को चेताया, मगर सवाल ये था कि जिसने पिछलेे लोकसभा चुनाव में वोट दिया था, वह भला क्यों जा कर देखेगा कि उसका नाम मतदाता सूची में है या नहीं। इस मामले में राजनीतिक दलों को भी जिम्मेदार माना जा रहा था कि उन्होंने ध्यान क्यों नहीं दिया, जबकि प्रशासन हर स्तर पर उनको विश्वास में लेकर काम कर रहा था। खैर, इस मामले को लेकर एक-दो दिन तो बड़ा हंगामा हुआ और अखबार वालों ने भी पूरे के पूरे पेज रंग दिये, मगर बाद में मामला ठंडे बस्ते चला गया। मामला था भी बेहद गंभीर। इतने सारे वोटों के नहीं पडऩे से कई नेताओं के जीवन में अंधेरा आ गया। शुरू-शुरू में तो बड़े अधिकारियों पर भी सरकार की टेढ़ी नजर थी, लेकिन बाद में यह सोच कर कि मेयर तो कांग्रेस का बन ही गया है, सरकार के स्तर पर भी ढ़ील दे दी गई। मीडिया बार-बार मामले को उछाल रहा था, इस कारण मजबूरी में ही सही, मगर सरकार की ढ़ील का फायदा उठा कर प्रशासन ने बीएलओ को ही बली का बकरा बनाने की सोची। असल में धरातल पर तो वे ही दोषी थे, क्योंकि मतदाता सूचियां बनवाने का काम सीधे तौर पर उन्होंने ही किया था। स्वयं रिटर्निंग ऑफिसर इस कारण दोषी थे कि भले ही सीधे तौर पर उन्होंने कोई गड़बड़ी नहीं की, मगर यह सवाल तो था ही कि उन्हीं के देखरेख में इतनी बड़ी लापरवाही कैसे हो गई। बहरहाल उन्होंने तो जल्द से जल्द जांच कर अपनी रिपोर्ट कलेक्टर राजेश यादव को सौंप दी, जिसे आधार बना कर दोषी 23 बीएलओ के खिलाफ कार्यवाही के निर्देश संबंधित विभागों को जारी कर दिए। जबकि होना यह चाहिए था कि सरकार को इस मामले में प्रशासन को ही सीधे कार्यवाही के अधिकार देने थे, ताकि लंबी प्रक्रिया से न गुजरना पड़े। लोग प्रकरण को भूल जाएं, इस कारण कार्यवाही कर सूचना देने के लिए भी लंबा समय दे दिया गया। प्रशासन के इस ढ़ीले रवैये का विभागीय अधिकारियों ने भरपूर फायदा उठाया और नियत तारीख निकल जाने के बाद भी कार्यवाही की सूचना प्रशासन को नहीं दी। ऐसे में खुद एडीएम सिटी का यह कहना कि अब तक उनको सूचना नहीं मिली है, साबित करता है कि वे भी इसमें कितनी रुचि ले रहे हैं।
और सबसे बड़ी बात ये कि यदि कार्यवाही हो भी गई तो पचास हजार मतदाताओं को वोट के अधिकार से वंचित रखने वालों को फांसी और आजीवन कारावास तो होगा नहीं, हद से हद मात्र 17 सीसी को ही अमल में लाया जाएगा। इतना बड़ा जुर्म करने वालों के लिए ये दंड भी कोई दंड है? ऐसी धाराओं के तो कर्मचारी आदी हो चुके हैं। देखते हैं कि दोषी पाए गए बीएलओ को कितनी बड़ी सजा होती है, ताकि भविष्य में कोई बीएलओ आम जनता के मताधिकार पर कुठाराघात करने से कांपे।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

आयुक्त चौधरी और पार्षदों के बीच टकराव का राज क्या है?

क्या अवैध निर्माण के लिए अकेले चौधरी जिम्मेदार हैं?
पिछले दिनों कुछ कांग्रेसी पार्षदों और आयुक्त (विकास) जगदीश चौधरी के बीच जबरदस्त टकराव हो गया। पहले तो चंद पार्षदों ने लामबंद हो कर मेयर कमल बाकोलिया को उनकी शिकायत की व फटकार लगवाई और फिर दूसरे दिन उनका मुंह काला करने को पहुंच गए। गनीमत ये रही कि वे अपने कमरे में नहीं थे, इस कारण नेम प्लेट पर ही कालिख पोत कर गुबार निकाला। और फिर उनके खिलाफ कार्यवाही की मांग को लेकर सीआईओ राजनारायण शर्मा के कमरे में धरने पर बैठ गए।
सवाल ये उठता है कि केवल चंद कांग्रेसी पार्षदों के साथ ही चौधरी का टकराव क्यों हुआ? क्या केवल उन्हीं के वार्डों में अवैध निर्माण हो रहे हैं? अपनी ही पार्टी का मेयर होने के बाद भी ऐसी क्या वजह बनी कि उन्हें बाकायदा शिकायत करनी पड़ी, जिसकी एवज में बाकोलिया ने चौधरी को फटकार लगाई? क्या किसी भाजपा पार्षद को उनसे कोई शिकायत नहीं है और वे पूरी तरह से संतुष्ट हैं? क्या अन्य वार्डों में हो रहे अवैध निर्माण के प्रति वहां के पार्षद जागरूक नहीं हैं? और सबसे अहम सवाल ये कि चौधरी ने पार्षद नरेश सत्यावना व श्रवण टोनी पर जवाबी हमला करते हुए खुद उनके अवैध निर्माण में शामिल होने का आरोप क्यों लगाया? क्या चौधरी को ये ख्याल नहीं था कि यदि वे इस प्रकार पार्षदों पर सीधे आरोप लगाएंगे तो और हंगामा होगा? ये सब सवाल इशारा करते हैं कि मामला जितना सीधा नजर आता है, उतना है नहीं। दाल में जरूर कुछ काला है। आरोप, प्रत्यारोप और फिर आरोप, यह सब बेवजह नहीं हो सकता।
यदि सत्यावना व टोनी अवैध निर्माण में शामिल नहीं हैं तो चौधरी को उसे साबित करना कत्तई संभव नहीं होगा। यदि ये समझा जाए कि उन्होंने गुस्से में ऐसा कह दिया होगा, तो भी सीधे जनप्रतिनिधियों पर आरोप लगाना तो निश्चित रूप से गंभीर बात है। असल में ये चुनौती सत्यावना व टोनी को नहीं, बल्कि मेयर बाकोलिया को है, जिन्हें यह देखना होगा कि जिन पार्षदों के कहने पर उन्होंने अधिकारी को फटकार दिया, उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। सच्चाई जो भी हो, मगर इस पूरे प्रकरण से आम जनता में तो यह संदेश गया ही है कि अवैध निर्माण अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से हो रहे हैं। और यदि यह भी सही नहीं तो आखिर अवैध निर्माण हो कैसे रहे हैं? क्या केवल अकेले चौधरी की लापरवाही से, क्यों कि सीधी जिम्मेदारी उनकी ही बनती है? तो फिर इस सवाल का जवाब क्या है कि पहले मेयर व सीईओ नीति बना दें, चौधरी कार्यवाही करने को तैयार हैं? क्या वाकई नीति अस्पष्ट है और राजनीतिक इच्छाशक्ति में भी कुछ गड़बड़ हैं? चलो चौधरी को तो नौकरी करनी है, इसलिए गर्दन झुका कर सब कुछ सुन लिया, मगर सवाल ये उठता है कि क्या शहर में हो रहे अतिक्रमणों के लिए केवल वे ही दोषी हैं? क्या कोई अफसर वाकई पूरी ईमानदारी बरतते हुए अतिक्रमण हटाने को निकलेगा तो उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा? क्या चौधरी को कोई गारंटी देने को तैयार है कि अगर वे सख्ती से अतिक्रमण हटाएंगे तो उनको पूरा राजनीतिक संरक्षण मिलेगा व कहीं और तबादला नहीं किया जाएगा?
असल में अतिक्रमण का सिलसिला कोई नया नहीं है, सनातन है। चाहे स्टील लेडी अदिति मेहता जैसी कडक़ कलेक्टर कितने ही अतिक्रमण हटवा दें, मगर अतिक्रमी भी कुत्ते की पूंछ की तरह हैं, कितना भी सीधा करो, फिर टेढ़े हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि अतिक्रमणकारी केवल निगम कर्मचारियों या अफसरों से मिलीभगत करके अपने काम को अंजाम देते हैं, वे पूरा राजनीतिक संरक्षण हासिल करने के बाद ही आगे कदम बढ़ाते हैं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, मगर उन्हें साबित करना कत्तई संभव नहीं है। एक तो अतिक्रमण करने वाले को अपने काम से मतलब है, वह भला क्यों शिकायत करेगा कि उसने अमुक जनप्रतिनिधि या अफसर की जेब गर्म की है। दूसरा ये कि जिन इक्का-दुक्का अतिक्रमियों ने मुंह खोला भी है तो उसे साबित नहीं कर पाए हैं। पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत पर चुनावी माहौल में कांग्रेस ने ऐसे भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगाए कि उनके रहते अवैध कॉमर्शियल कॉम्पलैक्स कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, मगर निगम पर काबिज होने के बाद क्या इस आरोप को साबित किया जा सका है?
चलो एकबारगी यह मान भी लें कि इस बार चुन कर आए जनप्रतिनिधि बड़े ईमानदार हैं और उन्हें वाकई शहर का दर्द है, इस कारण उनको अतिक्रमण सहन नहीं हो रहे, देखते हैं उनकी शिकायत क्या रंग लाती है? मेयर बाकोलिया के लिए भी यह चैलेंज है कि विपक्षी पार्षदों की बजाय खुद उनकी ही पार्टी के पार्षद अतिक्रमणों के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं। भाजपा ने ही नहीं, बल्कि उनकी ही पार्टी के पार्षदों ने यह स्थापित कर दिया है कि शहर में अतिक्रमण हो रहे हैं, जिसके लिए भले ही संबंधित अफसर को कटघरे में खड़ा किया जा रहा हो, मगर असल जिम्मेदारी तो निगम के मुखिया बाकोलिया की ही है। वरना धर्मेन्द्र गहलोत पर आरोप लगा कर वोट हासिल करने का क्या अर्थ निकाला जाए? ऐसा तो हो नहीं सकता कि भाजपा के कार्यकाल में जो अतिक्रमण हुए उनके लिए गहलोत जिम्मेदार थे और अब कांग्रेस के राज में जो अतिक्रमण हो रहे हैं, उनके लिए अकेले जगदीश चौधरी ही दोषी हैं। बहरहाल, देखना ये है कि बाकोलिया वाकई दबाव बना कर अतिक्रमण हटवाते हैं या फिर यह केवल गीदड़ भभकी थी?
गहलोत ने दी धरातलीय प्रतिक्रिया
नगर निगम बोर्ड के एक सौ दिन पूरे होने पर समीक्षा के रूप में भले ही मेयर कमल बाकोलिया को जीरो नंबर दिया जा रहा हो, मगर मेयर की सीट को भोग चुके धर्मेन्द्र गहलोत ने पार्टी के नाते आलोचना भर के लिए आलोचना करने की बजाय धरातलीय प्रतिक्रिया जाहिर की है। उन्होंने स्वीकार किया है कि निगम के कामकाज का दायरा इतना व्यापक है कि उसे सौ दिन की अल्पावधि में नहीं झमझा जा सकता। गहलोत का यह बयान बाकोलिया जैसे राजनीति के नौसीखिये के लिए तो और भी अधिक प्रासंगिक है। उन्हें तो एक गैस एजेंसी चलाते-चलाते सीधे पूरे शहर को चलाने का दायित्व मिल गया। गहलोत ने तो मेयर की कुर्सी को कांटों भरा ताज की भी संज्ञा दी है, जिस पर बैठे व्यक्ति को जन अपेक्षाओं पर खरे उतरने के साथ कानूनी प्रावधानों को भी पूरा करना आसान नहीं होता। कदाचित उन्हें यह भी ख्याल में है कि मेयर भले ही कांग्रेस का हो, मगर बोर्ड पर तो भाजपा ही काबिज है। असल में ऐसी प्रतिक्रिया एक अनुभवी ही जाहिर कर सकता है। यही वजह है कि मेयर पद पर नहीं पहुंच पाए भाजपा प्रत्याशी डॉ. प्रियशील हाड़ा ने तो वैसी ही प्रतिक्रिया दी है, जैसी एक विपक्षी को देनी चाहिए। वैसे उनकी प्रतिक्रिया में एक बात समझ में नहीं आई। वे कहते हैं कि मेयर ने लोगों के प्रतिष्ठान बंद करवाए और व्यापारियों को आंख दिखाना शुरू कर दिया। क्या इसे इस रूप में लिया जाए कि जिन व्यापारियों ने भाजपा के शासनकाल में अवैध कॉम्पलैक्स बनाए, उनको छेडऩा हाड़ा को नागवार गुजरा, जब कि नागवार तो गहलोत को गुजरना चाहिए था।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

चैलेंज दर चैलेंज हैं नए एसपी पांडे के सामने

अजमेर में नियुक्त किए गए नए एसपी विपिन कुमार पांडे का कई चैलेंज स्वागत कर रहे हैं। विरासत में निवर्तमान एसपी हरिप्रसाद शर्मा कई समस्याएं और गुत्थियां छोड़ गए हैं, जिन्हें सुलझाने की कोई ठोस कोशिश ही नहीं की। एक गुत्थी अभी सुलझती नहीं थी कि दूसरी नई पैदा हो जाती है। इसी कारण गुत्थियों की एक लंबी लिस्ट बन गई है।
हकीकत तो ये है कि शर्मा ने अजमेर का कार्यकाल बड़े आराम से काटा। यदा-कदा मुखबिर की सहायता से कोई मामला खोलने में कामयाबी मिल भी जाती थी तो संबंधित थानाधिकारी को श्रेय देने की की बजाय खुद ही क्रेडिट लेने की कोशिश करते थे। यहां तक की छोटे-मोटे मामलों के खुलासे की ब्रीफिंग भी खुद ही करने में रुचि रखते थे। यही वजह रही कि हर मामले की जानकारी लेने को मीडिया वाले उनसे ही संपर्क साधते थे। मीडिया से दोस्ताना व्यवहार के कारण उनकी खिंचाई भी ढ़ंग से नहीं होती थी।
नए एसपी पांड के सामने सबसे बड़ा चैलेंज ये होगा कि पिछले दो-तीन साल में अनेक ऐसे हत्याकांड हो चुके हैं, जिनका सुराग आज तक पुलिस के हाथ नहीं आया है। आशा व सपना हत्याकांड जैसे कुछ कांड तो भूले-बिसरे हो गए हैं, जिन्हें पुलिस ने अपनी अनुसंधान सूची से ही निकाल दिया है। पिछले पांच माह में ही रावत समाज के एक के बाद एक करके तीन लोगों की हत्या पुलिस की नाकामी की इबारत लिख रही है। रावत समाज के हल्ला मचाने के कारण ये हत्याकांड तो सरकार की नोटिस में भी आ चुके हैं।
पिछले कुछ सालों में चैन स्नेचिंग के मामले तो इस कदर बढ़े हैं, महिलाएं अपने आपको पूरी तरह से असुरक्षित महसूस करने लगी हैं। इसी प्रकार नकली पुलिस कर्मी बन कर ठगने के मामले असली पुलिस को चिढ़ा रहे हैं। वाहन चोरी की वारदातें भी लगातार बढ़ती जा रही हैं। रहा सवाल जुए-सट्टे का तो वह पुलिस थानों की नाक के नीचे धड़ल्ले से चल रहा है। अवैध शराब और मादक पदार्थों की तस्करी की तो बात करना ही बेकार है। शराब और चरस-गांजा की तस्करी का तो अजमेर ट्रांजिट सेंटर ही बन गया है। हालांकि बरामदगी भी हुई है, लेकिन हरियाणा मार्का की शराब का लगातार अजमेर में आना साबित करता है कि कहीं न कहीं मिलीभगत है। पिछले दिनों एक हिस्ट्रीशीटर ने तो मदहोशी में खुलासा ही कर दिया कि मंथली न बढ़ाए जाने के कारण पुलिस परेशान कर रही है। इस मामले की औपचारिक जांच जारी है। इसके अतिरिक्त जिले में अवैध कच्ची शराब को बनाने और उसकी बिक्री की क्या हालत है और इसमें पुलिस की भी मिलीभगत होने का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि शराब तस्करों को छापों से पूर्व जानकारी देने की शिकायत के आधार पर दो पुलिस कर्मियों को लाइन हाजिर करना पड़ा। रहा सवाल चोरियों का तो उसका रिकार्ड रखना ही पुलिस के लिए कठिन हो गया है। अब तो केवल बड़ी-बड़ी चोरियों का जिक्र होता है। हाल ही त्रिकाल चौबीसी की मूर्ति चोरी हो गई, मगर पुलिस हाथ पर हाथ धरे बैठी है।
पांडे के सामने एक बड़ी चुनौती अपराधियों का जेल से अपने गिरोह संचालित करना है। खुद निवर्तमान एसपी ने यह स्वीकार किया कि जेल में कैद अनेक अपराधी वहीं से अपनी गेंग का संचालन करते हुए प्रदेशभर में अपराध कारित करवा रहे हैं और इसके लिए बाकायदा जेल से ही मोबाइल का उपयोग करते हैं। वे स्वीकार न भी करते तो आतंकी डॉ. अंसारी के पास मिला मोबाइल का जखीरा खुद ही कहानी बयां करता है। अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने तो इस मामले को विधानसभा में भी उठाया।
मुंबई ब्लास्ट का मास्टर माइंड व देश में आतंकी हमले करने का षड्यंत्र रचने के आरोप में अमेरिका में गिरफ्तार डेविड कॉलमेन हेडली तो मुस्तैद पुलिस के चेहरे पर कालिख पोत कर जा चुका है। वह भले ही अपनी पुष्कर यात्रा के दौरान और कोई गड़बड़ी न कर पाया हो, मगर उसने लचर पुलिस व्यवस्था की तो पोल खोल ही दी थी। प्रतिबंधित इस्लामिक छात्र संगठन सिमी के सक्रियता बढ़ाने की बात को भी स्वीकार करते हुए शर्मा ने दरगाह की सुरक्षा बढ़ाए जाने का दावा किया था।
बहरहाल, नए एसपी पांडे के लिए अजमेर पुलिस तंत्र का ताज कांटों भरा है। वे राजनीतिक माफियाओं के गढ़ बिहार राज्य के आईपीएस हैं और राजस्थान में भी काफी घूम चुके हैं। देखते हैं वे कैसा परफोर्म कर पाते हैं।

यानि गौ रक्षा का नारा केवल चुनावी मुद्दा है

जिले के बिजयनगर में श्रीविजय गौशाला में गायों के कुपोषण से मरने पर गौ रक्षा की सबसे बड़ी पैराकार भाजपा की चुप्पी जाहिर करती है कि वह हिंदुओं के वोट हासिल करने मात्र के लिए गाय को माता का दर्जा देती है। एक ओर गायों के कटने के लिए जाने के खिलाफ समय-समय पर आंदोलन और प्रदर्शन करने वाली पार्टी के देहात जिलाध्यक्ष नवीन शर्मा का बयान से तो इसकी पुष्टि ही होती है। उन्होंने इसे केवल दुर्भाग्यपूर्ण बता कर प्रबंध समिति को गायों की उचित देखभाल की सीख दे कर इतिश्री कर ली है। सवाल उठता है कि क्या इस प्रकार गायों को मरने देने के लिए गौशाला में उन्हें कैद करके रखना गायों को काटे जाने से कमतर अपराध है? क्या गायों को वध करने के लिए ले जाने वालों पर छापा मार कर गायों को बचाना केवल नाटक मात्र है?
वैसे अंदरखाने की बात ये है कि भाजपा का यह रवैया खुद के घिरने जाने की वजह से है। गौ शाला प्रबंध समिति के मंत्री व भाजपा नेता धर्मीचंद खटोड़ बिजयनगर पालिका के अध्यक्ष भी हैं। इस प्रकार उन पर तो दोहरी जिम्मेदारी थी। इसके बावजूद गौ शाला में गायों की रक्षा पर ध्यान नहीं दिया गया। यानि कि दिया तले ही अंधेरा है। जो गौ रक्षा का नारा चिल्ला-चिल्ला कर देते हैं, उन्हीं की छत्रछाया में गायों की केवल इसी कारण मौत हो रही है, क्योंकि उनके खाने और रखरखाव की पुख्ता व्यवस्था नहीं है। पहली बात तो ऐसी प्रबंध समिति का वजूद ही नहीं होना चाहिए जो गायों की परवरिश न कर सके। और अगर समिति के पास संसाधनों का अभाव था तो पालिकाध्यक्ष के नाते तो खटोड़ की जिम्मेदारी बनती ही थी कि वे कोई न कोई इंतजाम करते। हालात की गंभीरता और घोर लापरवाही का अंदाजा इसी बात से हो जाता है कि पालिकाध्यक्ष पद के कांगे्रस प्रत्याशी राधेश्याम खंडेलवाल ने जब पूर्व में गौशाला में कुप्रबंध का मुद्दा उठाया तो उन्होंने एक राजनीतिक साजिश करार दिया था।
इस पूरे प्रकरण से यह साफ सा है जिस भाजपा के नाम पर हिंदूवादी लोगों के वोट हासिल कर पालिकाध्यक्ष बने खटोड़ का उसी भाजपा के सिद्धांतों से कोई लेना-देना नहीं है। असल में मौजूदा प्रकरण में अकेले खटोड़ ही जिम्मेदार नहीं हैं, अपितु मामले को केवल दुर्भाग्यपूर्ण बता कर पल्लू झाडऩे वाले देहात जिला भाजपा अध्यक्ष नवीन शर्मा के लिए भी यह बेहद शर्मनाक है। होना तो यह चाहिए था कि खुद खटोड़ को ही शर्म आती और वे नैतिक जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए दोनों पदों से इस्तीफा दे देते। अगर वे ऐसा नहीं करते तो पार्टी को उन पर दबाव बना कर इस्तीफा दिलवाना चाहिए। गायों की खातिर एक पालिकाध्यक्ष यदि शहीद भी हो जाए तो क्या फर्क पड़ता है, कम से कम यह संदेश तो जाएगा कि पार्टी को गायों के प्रति वाकई पूरी संवेदना है।

बेइज्जती दर बेइज्जती, अफसोसनाक है भाजपा की चुप्पी

अजमेर में भाजपाई जनप्रतिनिधियों का लगातार अपमान किया जा रहा है, मगर अफसोस कि भाजपा संगठन ऐसे चुप बैठा है, मानो उसका अस्तित्व ही नहीं है। शुक्रवार को पटेल मैदान में माई क्लीन अप अजमेर डे के मौके पर, जिसमें कि नगर निगम की भी प्रमुख भागीदारी थी, उप महापौर अजित सिंह राठौड़ को बोलने का मौका ही नहीं दिया गया। कदाचित इस वजह से कि वे भाजपा के हैं। यदि ऐसा जानबूझ कर नहीं किया गया हो तो भी इतना तो तय है कि उनकी अहमियत को नजरअंदाज तो किया ही गया। इतना भी ख्याल नहीं रखा गया कि वे नगर निगम में बहुमत वाली भाजपा के नेता हैं। हालांकि भाजपा पार्षद खेमचंद नारवानी सहित कुछ पार्षदों ने बाद में इस हरकत का विरोध किया, लेकिन वह सांप जाने के बाद लकीर पीटने जैसा ही था। यह तो ठीक है कि राठौड़ रिजर्व नेचर के हैं, इस कारण कुछ नहीं बोले, वरना कोई और होता तो हंगामा कर देता।
भाजपा जनप्रतिनिधियों के साथ लगातार ऐसा बर्ताव हो रहा है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की मौजूदगी में आयोजित नगर सुधार न्यास के कार्यक्रम में शहर के दोनों भाजपा विधायकों को ससम्मान नहीं बुलाया गया। सवाल उठा तो न्यास सचिव अश्फाक हुसैन ने कहा कि हमने तो बुलाया था। जाहिर है दोनो विधायकों को सामान्य सा निमंत्रण भेज दिया गया होगा, जैसा कि आम लोगों को भेजा जाता है। इसी प्रकार ग्रामीण परिवेश के अंतर्राष्ट्रीय पुष्कर मेले के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के मुख्य आतिथ्य में आयोजित समापन समारोह में जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को आमंत्रण नहीं दिया गया, क्योंकि वे भाजपा की हैं। सवाल उठा तो जिला कलेक्टर राजेश यादव ने खुद का पल्लू झाड़ते हुए कह दिया कि आयोजक पशु पालन विभाग था, उसने निमंत्रण दिया होगा। उन्होंने इतना गैर जिम्मेदाराना जवाब दिया, मानो पशु पालन विभाग उनके अधीन नहीं आता है। इतना ही नहीं, उन्होंने यहां तक कह दिया कि ग्रामीण परिवेश का मेला है, उन्हें स्वयं ही आना चाहिए। मानो वे जिला प्रमुख नहीं हुईं, कोई सामान्य सी ग्रामीण महिला हो गईं। जिला प्रमुख को कम करके आंकने का यह एक ही मामला नहीं है। जब जिला परिषद की सीईओ शिल्पा मैडम टकराव कर रही हैं तो क्या जिला कलेक्टर की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे इसका समाधान निकालें, मगर वे तमाशबीन से बने हुए हैं।
जिला कलेक्टर राजेश यादव के इस रवैये से यकायक उनकी मानसिकता का ख्याल आ जाता है। इससे पहले वे पाली में भाजपा अध्यक्ष को थप्पड़ मार चुके हैं। पाठकों को याद होगा कि जब यादव को अजमेर लगाया गया था, तब चंद अखबारों में यह खबर शाया हुई थी कि उन्हें दोनों भाजपा विधायकों वाले अजमेर शहर के भाजपाइयों को कंट्रोल में रखने के लिए ही लगाया गया है। हालांकि उन्होंने अजमेर में तो तीखे तेवर वाली कोई हरकत नहीं की, मगर भाजपा जनप्रतिधियों की लगातार हो रही उपेक्षा के बीच उनकी चुप्पी संदेह तो उत्पन्न करती ही है।
खैर, जिला कलेक्टर जाने, उनका काम जाने, मगर खुद भाजपा संगठन ही अपने जनप्रतिधियों के अपमानित होने पर गैर जिम्मेदार बनी बैठा है, तो आश्चर्य होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मौजूदा शहर जिला भाजपा अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा इस कारण कोई पंगा नहीं करना चाहते क्यों कि वे तो कुर्सी जाने के दिन गिन रहे हैं। रहा सवाल अन्य दिग्गज भाजपा नेताओं का तो वे आपस में ही लड़ कर खप रहे हैं। यही हाल रहा तो भाजपाई जनप्रतिनिधियों को और अधिक जलालत झेलनी पड़े तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए।