सोमवार, 21 दिसंबर 2020

नगर निकाय चुनाव में भी रहेगा पलाड़ा का दखल?

 


युवा नेता व समाजसेवी भंवर सिंह पलाड़ा ने कांग्रेस के सहयोग से जिस प्रकार भाजपा को पटखनी खिला कर अपनी धर्मपत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को जिला प्रमुख बनवा लिया, उसे देखते हुए राजनीतिक हलकों में यह सवाल कुलबुला रहा है कि क्या वे अपने बढ़ते वर्चस्व का दायरा बढ़ाते हुए अजमेर, किशनगढ़ व केकड़ी के नगर निकाय चुनाव में भी दखल देंगे? हालांकि उन्होंने फिलवक्त कांग्रेस में शामिल होने के कयास पर विराम लगा दिया है, मगर भाजपा से दूरी और कांग्रेस से नजदीकी के चलते विशेष रूप से कांग्रेस खेमे में यह सुगबुगाहट है कि वे अपनी पसंद के दावेदारों को टिकट दिलवाने की कोशिश कर सकते हैं। जहां तक कांग्रेस हाईकमान का सवाल है, वह भी यह जरूर चाहेगा कि उनसे नजदीकी और बढ़ाई जाए और निकाय चुनाव में उनकी ताकत का इस्तेमाल किया जाए। 

हालांकि उनकी धर्मपत्नी श्रीमती पलाड़ा ने पिछले जिला प्रमुख कार्यकाल व मसूदा विधायक रहते हुए ग्रामीण राजनीति में अपना डंका बजाया है, लेकिन अजमेर शहर में भी उनकी अच्छी फेन फॉलोइंग है। उनकी शहरी टीम निकाय चुनाव में काफी उलटफेर करने का माद्दा रखती है। ऐसे में यह समझा जा रहा है कि वे इस मौके को नहीं चूकना चाहेंगे। जाहिर सी बात है कि स्थानीय राजनीति में दखल बढऩे का फायदा उन्हें आगामी विधानसभा व लोकसभा चुनाव में भी मिलेगा। हालांकि अभी यह दूर की कोड़ी है कि आगामी विधानसभा चुनाव में वे क्या रणनीति अपनाएंगे, मगर कांग्रेसियों को ऐसा लगता है कि वे अजमेर उत्तर के प्रबल दावेदार बन कर उभरेंगे। अगर ऐसा होता है तो यह वरिष्ठ कांग्रेस नेता डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व महेन्द्र सिंह रलावता के लिए मुश्किलात पैदा करेगा। विशेष रूप से  कांग्रेस से नजदीकी रखने वाले दमदार राजपूत नेता के रूप में पलाड़ा की मौजूदगी रलावता के लिए प्रतिद्वंद्विता खड़ी कर देगी। 

ऐसा नहीं कि वे अकेले कांग्रेस की राजनीति में दखल दे सकते हैं, अपितु अपने समर्थकों के दम पर भाजपा में भी सेंध मार सकते हैं। खैर, जो कुछ होगा, वह बहुत दिलचस्प होगा। उल्लेखनीय बात ये है कि अपने दम पर जिस प्रकार अजमेर की राजनीति पर हावी हुए हैं, उसने राजनीतिक पंडितों को भी चकित कर दिया है।

-तेजवानी गिरधर

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गुरुवार, 19 नवंबर 2020

अफसरशाही के आगे जनप्रतिनिधि इतने मजबूर क्यों?


पिछले दिनों स्वामी न्यूज फेसबुक लाइव में कांग्रेस व भाजपा के विभिन्न प्रमुख नेताओं से हुई बातचीत से एक बात खुल कर सामने आई है कि जनहित के लिए किए जा रहे विकास कार्यों में जनप्रतिनिधियों की ही नहीं चलती, सारे निर्णय प्रशासन ही करता है। विशेष रूप से ताजा तरीन स्मार्ट सिटी योजना में। जनप्रतिनिधियों की राय भले ही ली जाती हो, मगर होता वही है जो प्रशासन चाहता है। अर्थात जिला प्रशासन के आगे जनप्रतिनिधि मजबूर हैं। यह बात जनप्रतिनिधियों ने स्वयं स्वीकार की है कि प्रशासन मनमानी करता है। यह वाकई दुर्भाग्यपूर्ण है। लोकतंत्र में लोक का प्रतिनिधित्व करने वाले ही कमजोर हैं तो इसका अर्थ ये है कि सिस्टम में कोई गड़बड़ी है। 

सवाल उठता है कि आखिर जनप्रतिनिधि मजबूर क्यों हैं? इसकी एक वजह ये है कि जैसे ही सरकार बदलती है तो उसी के साथ नेताओं के प्रति प्रशासन का नजरिया बदल जाता है। लेकिन ऐसे भी उदाहरण हैं कि सत्तारूढ़ पार्टी के नेताओं को भी कई बार प्रशासन ने नहीं गांठा है। कुछ नेता मानते हैं कि ऐसा इस कारण भी है कि जनहित के कार्यों में दोनों राजनीतिक दलों के नेताओं में एकजुटता नहीं होती। एकराय न होने के कारण ही शासन-प्रशासन पर राजनीतिक दबाव कम हो जाता है और वह मनमानी करता है।  यातायात की बेहद कष्टदायक समस्या के समाधान के लिए एलिवेटेड रोड बनाने की योजना इसी कारण लंबी खिंच गई कि सरकारें बदलने के साथ स्थानीय नेताओं की स्थिति भी बदल गई। कांग्रेस व भाजपा नेताओं की एकजुटता की बात तो फिर भी सपना है, मगर इसको लेकर भाजपा नेताओं तक में एकराय नहीं बनी। एक प्रमुख नेता सरकार पर मंजूरी का दबाव बनाए हुए थे तो दूसरे इसका विरोध करते रहे। वे आज भी सहमत नहीं हैं।

विकास योजनाओं की बात करें तो सीवरेज योजना का हश्र हम देख चुके हैं। कांग्रेस व भाजपा की सरकारें दो बार एक के बाद दूसरे की बनी, मगर आज तक वह ठीक से लागू नहीं पाई है। सात सौ छियांसीवें उर्स के मौके पर बनी छोटी सीवरेज योजना बेकार ही हो गई। स्मार्ट सिटी योजना का हाल भी किसी से छुपा हुआ नहीं है। प्रशासन अपने हिसाब से काम करवा रहा है और जनप्रतिनिधि अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। दोनों दलों के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि उनकी राय तो ली जाती है, मगर उस अमल नहीं किया जाता। कैसी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आजीवन अजमेर में रहने वाले नेताओं को स्थानीय समस्याओं व जरूरतों की गहरी समझ है, उनकी राय ताक पर रख दी जाती है, जबकि मात्र दो-तीन साल के लिए यहां पदस्थापित होने वाले अधिकारी ही अंतिम फैसला करते हैं, जिनका अजमेर से कोई लगाव नहीं होता। 

प्रशासनिक कामकाज की समझ रखने वाले बुद्धिजीवी मानते हैं कि एक्जीक्यूशन का काम बेशक तकनीकी रूप से समृद्ध विभागीय अधिकारी ही करते हैं, मगर उन पर निगरानी के लिए जरूरी समझ जनप्रतिनिधियों को नहीं होती। वे तकनीकी अध्ययन करने की बजाय, राजनीतिक उलझनों व दाव-पेच में ही व्यस्त रहते हैं। इसी कारण अधिकारी उन पर हावी रहते हैं और मनमानी करते हैं। अगर जननेता विकास योजनाओं की बारीकियों का ठीक से अध्ययन करें तो क्या मजाल कि प्रशासन मनमानी कर जाए। 

कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का ही परिणाम है कि वर्षों से पानी की किल्लत झेल रहे अजमेर को बार-बार छला ही इसलिए गया कि दोनों दलों ने एकजुट हो कर दबाव नहीं बनाया। जब भाजपा की सरकार थी तो कांगे्रसी बोले, मगर भाजपाई पार्टी की मर्यादा में बंधे रहे और जब कांग्रेस सरकार रही तो भाजपाई तो चिल्लाए, मगर कांग्रेसियों ने चुप्पी साध ली। आज स्थिति ये है कि मूलरूप से अजमेर की प्यास बुझाने के लिए बनाई गई बीसलपुर परियोजना का लाभ जयपुर को दिया जाने लगा, जबकि अजमेर में अब भी नियमित व पर्याप्त जल सप्लाई नहीं हो पा रही। इसकी एक वजह ये भी है कि अपनी-अपनी सरकारों में यहां के मंत्री व विधायकों की स्थिति बौनी ही रही। वे सरकार का विरोध कर ही नहीं पाए। ज्ञातव्य है कि भूतपूर्व मंत्री स्वर्गीय प्रो. सांवरलाल जाट जैसे दबंग कहलाने वाले नेता के पास जलदाय महकमा होने के बावजूद, उनके कार्यकाल में ही सरकार ने बीसलपुर का पानी जयपुर को देने का फैसला कर दिया, मगर वे कुछ नहीं कर पाए। लब्बोलुआब परिणाम तो जनता ही भुगत रही है।

विद्युत वितरण का काम प्राइवेट कंपनी को सौंपे जाने का निर्णय भाजपा शासन काल में हुआ, तब कांग्रेसी तो खूब उबले, मगर भाजपाई मौन बने रहे। आज जब कांग्रेस सरकार है तो भाजपाई अनापशनाप बिल आने का विरोध कर रहे हैं, मगर कांग्रेसी आंदोलन करने की स्थिति में नहीं रहे। बहाना ये बनाया जा रहा है कि चूंकि बिजली कंपनी के साथ एमओयू पर साइन हो चुके हैं, इसलिए अब कुछ नहीं हो सकता। यह कारण वाजिब भी हो सकता है, मगर इसका मतलब ये तो नहीं कि बिजली कंपनी दो-तीन गुना बिलों के बारे में पारदर्शिता रखने में कोताही बरते। आज हालत ये है कि इस मसले पर आम जनता की सुनवाई करने वाला कोई नहीं है।


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 17 नवंबर 2020

आरएसएस कोई फ्रेश चेहरा सामने लाएगा मेयर पद के लिए?


हालांकि अनुसूचित जाति महिला के लिए रिजर्व मेयर पद के लिए चर्चाओं में स्थापित या चर्चित चेहरे आ रहे हैं, लेकिन अंदरखाने से यह जानकारी छन कर आ रही है कि भाजपा का मातृ संगठन आरएसएस किसी फ्रेश चेहरे को सामने ला सकता है। ठीक वैसे ही जैसे पूर्व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री व मौजूदा अजमेर दक्षिण विधायक श्रीमती अनिता भदेल को लेकर आई थी। उस वक्त श्रीमती भदेल हालांकि आरएसएस के प्रकल्प संस्कार भारती से जुड़ी हुई थीं, लेकिन भाजपा में उनकी कोई सक्रियता नहीं थी। न ही उनकी कोई महत्वाकांक्षा थी। संघ की मंशा के अनुरूप ही भाजपा ने उन्हें पार्षद का टिकट दिया और जीतने पर तत्कालीन नगर परिषद का सभापति बनवा दिया था।

जानकारी ये भी है कि केवल अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित वार्डों में ही नहीं, अपितु कुछ सामान्य वार्डों से भी अनुसूचित जाति की महिलाओं पर दाव खेला जा सकता है। यद्यपि आरएसएस ने अपना मन तो बना लिया है, लेकिन फिलवक्त किसी को कानों-कान खबर नहीं है कि वह करने क्या जा रहा है? भाजपा के नेताओं तक को नहीं। 

चूंकि अधिसंख्य सुरक्षित वार्ड अजमेर दक्षिण में हैं, अजमेर उत्तर में केवल दो वार्ड ही सुरक्षित हैं, इसलिए मेयर पद की दावेदार स्वाभाविक रूप से अजमेर दक्षिण से ही होगी। संगठन लाख कहे कि पार्षदों के टिकट चयन समिति करेगी, मगर यह भी तय है कि दक्षिण के अधिकतर टिकट श्रीमती भदेल ही फाइनल करने वाली हैं। उसमें गलत कुछ भी नहीं है। लगातार चार बार विधायक चुने जाने के कारण जितनी पकड़ उनकी है, उतनी भाजपा के किसी और नेता की हो भी नहीं सकती। श्रीमती भदेल चाहेंगी कि उनके क्षेत्र से एकाधिक दावेदार जीत कर आएं, मेयर किसे बनाया जाए, यह बाद में तय हो जाएगा।

महत्वपूर्ण बात ये है कि अजमेर उत्तर में केवल दो वार्ड ही आरक्षित हैं, वो भी अनुसूचित जाति के पुरुष के लिए, लेकिन समझा जाता है कि उनमें से एक पर महिला को भी चुनाव लड़ाया जा सकता है। इतना ही नहीं आरएसएस जो वर्क आउट कर रही है, उसमें यदि अनुसूचित जाति की कोई महिला सामान्य वार्ड में निवास कर रही है तो उसे वहां से ही लड़ाया जा सकता है। अर्थात यह पक्का नहीं है कि अजमेर दक्षिण से जीती हुई पार्षद ही मेयर बनाई जाएगी। ज्ञातव्य है कि नियम के मुताबिक सामान्य वार्ड में भी अनुसूचित जाति का पुरुष या महिला को चुनाव लड़वाने में कोई अड़चन नहीं है। 

मुद्दे की एक बात ये भी है कि राजनीतिक जानकार ये मानते हैं कि भाजपा अजमेर दक्षिण की तुलना में अजमेर उत्तर से अधिक पार्षद जितवा कर लाएगी, हालांकि दक्षिण में 42 व उत्तर में 38 वार्ड हैं। विधानसभा चुनाव के लिहाज से अजमेर दक्षिण भी भाजपा का गढ़ है, इस कारण श्रीमती भदेल चार बार जीत कर आई हैं। उसमें मूल रूप से सिंधी व माली जाति के वोट बैंक उनकी जीत का आधार बनते हैं। लेकिन नगर परिषद चुनाव में ऐसा नहीं है, क्योंकि कई वार्डों में कांग्रेस का वर्चस्व है।

जहां तक प्रमुख दावेदारों का सवाल है, समझा जाता है कि पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती वंदना नरवाल केवल उसी सूरत में चुनाव लड़ेंगी, जबकि उन्हें पक्के तौर पर आश्वस्त किया जाएगा कि भाजपा का बहुमत आने पर उन्हें ही मेयर बनाया जाएगा। वे प्रबल दावेदार हैं ही इसलिए एक तो वे गैर कोली जाति से हैं और दूसरा ये कि उन पर पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी का वरदहस्त है, लेकिन ताजा हालत में भी वह बना रहेगा, इस बारे में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता था। ज्ञातव्य है कि जिला प्रमुख चुनाव में देवनानी ने उन्हें शतरंज की गहरी चाल से पदारूढ़ करवाया था।  बात अगर पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा की पुत्र वधु की करें तो वे हैं तो प्रबल दावेदार, मगर बड़ा सवाल ये है कि क्या वे राजनीति का जुआ खेलने के लिए सरकारी नौकरी छोडऩे की दुस्साहस करेंगी। 

इन सब समीकरणों के अतिरिक्त हाइब्रिड फार्मूला रिजर्व में पड़ा है। अगर भाजपा के अधिक पार्षद जीत कर आए और कोई ढ़ंग की अनुसूचित जाति महिला जीत कर नहीं आई तो संभव है किसी सशक्त महिला को मेयर बनवा दिया जाए। तब किसी की भी लॉटरी लग सकती है।


-तेजवानी गिरधर

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मंगलवार, 27 अक्तूबर 2020

प्रूफ रीडर एडीटर का बाप होता है!


हाल ही मैंने एक ब्लॉग में सुरेन्द्र सिंह शेखावत की जगह गलती से सुरेन्द्र सिंह रलावता लिख दिया। ऐसा कभी-कभी हो जाता है। इसे स्लिप ऑफ पेन कहा जाता है। जैसे ही ब्लॉग प्रकाशित हुआ, दैनिक न्याय सबके लिए के ऑनर श्री ऋषिराज शर्मा और श्री राजीव शर्मा बगरू ने तत्काल मेरा ध्यान आकर्षित किया। मैने भी यथासंभव जल्द से जल्द त्रुटि संशोधन करने की कोशिश की। श्री ऋषिराज शर्मा ने एक टिप्पणी भी की। वो यह कि प्रूफ रीडर इज चीफ एडीटर। उन्होंने सभ्य तरीके से कमेंट किया, हालांकि अखबार वाले आम बोलचाल की भाषा में कहा करते रहे हैं कि प्रॅूफ रीडर एडीटर का बाप होता है। वाकई ये बात सही है। कारण ये कि एडीटोरियल सैक्शन की फाइनल अथॉरिटी एडीटर के हाथ से निकले मैटर में भी अंतिम करैक्शन प्रूफ रीड करता है। उसके बाद ही अखबार छपने को जाता है। इस लिहाज से वह एडीटर से भी ऊपर कहलाएगा।

इस प्रसंग के साथ ही मुझे यकायक दैनिक न्याय को वो जमाना याद आ गया, जब भूतपूर्व प्रधान संपादक स्वर्गीय श्री विश्वदेव शर्मा सुबह उठते ही पूरा अखबार पढ़ते थे और कॉमा व बिंदी तक की गलती पर गोला कर देते थे। जिस भी प्रूफ रीडर की गलती होती थी, उसके हर गलती के पच्चीस पैसे काट लिया करते थे। न्याय में दूसरे के बाद अगल लगता कि गतलियां अधिक हैं तो तीसरा प्रूफ लेने की भी परंपरा थी। कहने का तात्पर्य है कि न्याय में शुद्ध हिंदी पर बहुत अधिक जोर दिया जाता था। वहां दो प्रूफ रीडर्स के ऊपर उनके सुपुत्र श्री सनत शर्मा हैड प्रूफ रीडर हुआ करते थे। क्या मजाल कि कोई गलती रह जाए। मेरी त्रुटि को पकडऩे वाले श्री ऋषिराज शर्मा का भी हिंदी व अंग्रेजी पर मजबूत कमांड है। उल्लेखित सभी प्रूफ रीडर्स न केवल वर्तनी की अशुद्धि दूर करने में माहिर हैं, अपितु शब्द विन्यास भी बेहतर करने में सक्षम हैं।

बात प्रूफ रीडिंग की चली है तो आपको बताता चलूं कि दैनिक भास्कर में  जब ऑन लाइन वर्किंग शुरू हुई तो सभी रिपोर्टर्स व सब एडीटर्स ने कंप्यूटर पर खुद ही कंपोज करना शुरू किया। तब प्रूफ रीडर्स हटा दिए गए थे। प्रूफ रीडर्स की व्यवस्था इसलिए हुआ करती थी कि रिपोर्टर्स की खबर को एडिट करने के बाद कंपोजिंग में टाइप मिस्टेक की बहुत संभावना रहती थी। जब ऑन लाइन एडिटिंग शुरू हो गई तो यह मान कर चला जाता है कि उसमें एडिटर ने कोई गलती नहीं छोड़ी होगी। सभी रिपोर्टर्स व सब एडिटर की कॉपी एडिट करने के दौरान मुझे अतिरिक्त सावधानी बरतनी होती थी, क्योंकि उसके बाद तो अखबार सीधे प्रिंटिग मशीन पर चला जाता था। इतनी सधी हुई एडिटिंग के अभ्यास के बाद भी मुझ से त्रुटि हो गई और मैंने शेखावत की जगह रलावता लिख दिया तो मैने अपने आप को लानत दी। क्षमा प्रार्थी हूं। कोई कितना भी पारंगत क्यों न हो त्रुटि तो हो ही जाती है, जिसे ह्यूमन एरर कहा करते हैं।

खैर, लगे हाथ बताता चलूं कि अजमेर में प्रूफ रीडि़ंग के सिरमौर हुआ करते थे श्री आर. डी. प्रेम। उन्होंने लंबे समय तक दैनिक नवज्योति में काम किया। उनकी हिंदी, अंग्रेजी व उर्दू पर बहुत अच्छी पकड़ थी। उन्होंने राजस्थानी में कुछ गीत भी लिखे, जिनका राजस्थानी फिल्मों में उपयोग हुआ। दैनिक नवज्योति में श्री सुरेश महावर व श्री गोविंद जी ने भी बेहतरीन प्रूफ रीडिंग की। श्री विष्णु रावत की भी अच्छी पकड़ रही है। श्री वर्मा ने तो अनेक उपन्यास भी लिखे। लंबे समय से पत्रकारिता कर रहे श्री राजेन्द्र गुप्ता, जो कि वर्तमान में राजस्थान पत्रिका के हुबली संस्करण में काम कर रहे हैं, उनकी शुरुआत प्रूफ रीडिंग से ही हुई है। वे भी प्रूफ रीडिंग के मास्टर हैं। युवा प्रूफ रीडर्स की बात करें तो श्री नरेन्द्र माथुर भी प्रूफ रीडिंग के कीड़े हैं। ऐसा हो ही नहीं सकता कि उनके हाथ से निकली हुई कॉपी में कोई त्रुटि रह जाए। वे थोड़े खुरापाती स्वभाव के हैं। दैनिक भास्कर का अजमेर संस्करण शुरू हुआ तो वे पूरे अखबार में त्रुटियों को अंडर लाइन करके उसे मुख्यालय भोपाल भेज दिया करते थे। जांच के लिए वे अखबार अजमेर आते तो प्रूफ रीडर्स को बहुत डांट पड़ा करती थी। कदाचित वे यह जताना चाहते थे भास्कर जैसे बड़े अखबार के प्रूफ रीडर्स से भी बेहतर प्रूफ रीडर्स अजमेर में बसा करते हैं। उन्होंने वैदिक यंत्रालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान में भी प्रूफ रीडिंग की है, जहां कि पुस्तकों में संस्कृतनिष्ट शब्दों का इस्तेमाल अधिक होता है। कुछ नाम मुझसे छूट रहे हैं, मेहरबानी करके वे अन्यथा न लें।

चूंकि सारा समय अखबार जगत में ही बिताया है, इस कारण केवल इसी फील्ड के प्रूफ रीडर्स के बारे जानकारी है। पुस्तकों के प्रकाशकों के यहां काम करने वालों के बारे में जानकारी नहीं है। इतिश्री।


-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 25 अक्तूबर 2020

नगर निगम चुनाव में नई पीढ़ी दस्तक देने को आतुर


नगर निगम के चुनावों में जहां हर बार कुछ नए चेहरे पार्षद बन कर आते हैं, वहीं कुछ ऐसे भी हैं, जो दो या तीन बार पार्षद बन चुके हैं। मगर इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि स्थापित राजनेताओं की नई पीढ़ी दस्तक देने को आतुर है।

ज्ञातव्य है कि महापौर का पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित होने के बाद दो बार महापौर रह चुके धर्मेन्द्र गहलोत के लिए कम से कम पांच साल निगम की राजनीति के रास्ते बंद हो गए हैं। पांच साल बाद क्या होगा, कुछ पता नहीं। ऐसे में उन पर समर्थकों का दबाव है कि वे अपने पुत्र रनित गहलोत को आगे लाएं। जैसा कि गहलोत कह चुके हैं कि हालांकि उनकी अपने पुत्र को राजनीति में लाने की रुचि नहीं है, लेकिन पार्टी का अगर आदेश हुआ तो वे उसे रोक भी नहीं पाएंगे। इसका अर्थ ये ही है कि उनके पुत्र के चुनाव लडऩे की पूरी संभावना है। अगर वे चुनाव लड़े व जीते तथा भाजपा का बोर्ड बना हो निश्चित रूप से उप महापौर पद के दावेदार भी होंगे।

इसी प्रकार कांग्रेस के दिग्गज नेता महेन्द्र सिंह रलावता का कद निगम की राजनीति से ऊंचा हो गया है, इस कारण उनके पुत्र शक्ति सिंह रलावता का नाम उभर कर आया है। उनके समर्थकों ने आसमान सिर पर उठा रखा है और अभी से सीधे उप महापौर पद की दावेदारी ठोक रहे हैं। 

निगम जब परिषद था, तब सभापति रहे सुरेन्द्र सिंह शेखावत निवर्तमान बोर्ड में पार्षद थे। हालांकि उन्होंने सभापति बनने के लिए पार्टी से बगावत भी की, मगर सफलता हाथ नहीं लगी। अब चूंकि महापौर पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित हो गया है तो इतने सीनियर लीडर के लिए अब निगम में केवल पार्षद या उप महापौर पद के लिए रुचि लेने का कोई मतलब ही नहीं है। हालांकि वे अपने पुत्र हर्षवद्र्धन सिंह शेखावत उर्फ टूटू बना को राजनीति में लाने वाले हैं या नहीं, कुछ पता नहीं, मगर अंदरखाने की खबर बताई जाती है कि उनके समर्थकों की इच्छा है कि पुत्र की राजनीतिक यात्रा आरंभ करवाई जाए। सार्वजनिक जीवन में उनकी एंट्री रग्बी फुटबॉल संघ, अजमेर का अध्यक्ष बनने के साथ हो ही चुकी है।

कांग्रेस में महापौर पद की प्रबल दावेदार पूर्व पार्षद श्रीमती तारादेवी यादव मानी जाती हैं, मगर सतह से भीतर चल रही हलचल से इशारा मिल रहा है कि इस बार उनकी पुत्री को भी आगे लाया जा सकता है। इसी प्रकार पूर्व राज्यमंत्री श्रीकिशन सोनगरा की पुत्र वधु का नाम भाजपा खेमे से महापौर पद की दावेदारी के लिए आगे आ ही चुका है। निवर्तमान जिला प्रमुख श्रीमती वंदना नोगिया भाजपा की ओर से प्रबल दावेदार के रूप में आगे आ रही हैं। हालांकि वे जिला प्रमुख पद पर रह चुकी हैं, मगर उन्हें भी नई पीढ़ी का इसलिए माना जा सकता है कि उनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं है। चर्चा ये भी है कि पूर्व महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की बहिन का नाम भी दावेदारों में शामिल किया जा रहा है। चूंकि वे अभी विधायक हैं, इस कारण उनका नाम तो दावेदारों में नहीं है, लेकिन यदि भाजपा को बहुमत मिलता है और अनुसूचित जाति की कोई पढ़ी-लिखी महिला जीत कर नहीं आती है तो हो सकता है कि उन्हें हाईब्रिड फार्मूले के तहत महापौर बनाने की कोशिश की जाए।

बात संभ्रांत लोगों के अजमेर क्लब के पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल की की जाए तो उनको खुद को भले ही लंबे समय से जनप्रतिनिधित्व वाली सक्रिय राजनीति में मौका नहीं मिला, मगर उनकी पत्नी के लिए जरूर रास्ता खुल गया है। इसी प्रकार पूर्व महापौर कमल बाकोलिया के लिए यही विकल्प है कि पत्नी को चुनाव मैदान में उतारें। एक नया नाम डॉ. नेहा भाटी का है। वे प्रतिष्ठित परिवार रामसिंह शंकर सिंह भाटी के परिवार से हैं। 

दो या तीन बार पार्षद बन चुके कुछ नेताओं की मजबूरी  है कि उनके प्रभाव वाले वार्ड यदि महिलाओं के लिए आरक्षित हो चुके हैं तो उन्हें पत्नियों को मैदान में उतारना होगा। यानि वे भी नए चेहरे होंगे। 

इस बार शहर को एक साथ ढ़ेर सारे नए नेता भी मिलने जा रहे हैं। पहले 60 वार्ड थे, जो बढ़ कर 80 हो गए हैं। यदि मोटे तौर पर माना जाए कि हर वार्ड में जीते, हारे व तीसरे नंबर पर रहने वाले नए नेता पैदा होने जा रहे हैं तो साठ से भी अधिक नए चेहरे उभर कर आएंगे।

कुल मिला कर आसन्न चुनाव की तस्वीर कुछ अलग ही होगी और नई पीढ़ी निगम की दहलीज पर कदम रख सकती है।

-तेजवानी गिरधर

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शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2020

...अर्थात धर्मेन्द्र गहलोत के पुत्र चुनाव लड़ेंगे ही


हमने अजमेरनामा न्यूज पोर्टल के चौपाल कॉलम में चर्चा की थी कि अजमेर नगर निगम के निवर्तमान महापौर धर्मेन्द्र गहलोत के पुत्र रनित गहलोत के आगामी निगम चुनाव में पार्षद पद का चुनाव लडऩे की संभावना है। इस बारे में कुछ का कहना था कि गहलोत स्वयं तो चुनाव लडऩे की बात से इंकार कर रहे हैं। संयोग से शुक्रवार को स्वामी न्यूज चैनल के निगम चुनाव संबंधी फेसबुक लाइव में गहलोत से साक्षात्कार हो गया। मैंने जब इस जनचर्चा पर सवाल किया तो उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि अभी तक इस तरह का कोई निर्णय नहीं किया है। कम से कम वे तो नहीं चाह रहे कि उनका पुत्र राजनीति में आए। अपनी ओर से उन्होंने ऐसी कोई मंशा भी जाहिर नहीं की है। लेकिन साथ ही जोड़ा कि यदि पार्टी ने चुनाव लड़वाने का निर्णय लिया तो वे इंकार भी नहीं करेंगे। इसका और खुलासा करते हुए उन्होंने यह भी जोड़ा कोई भी फैसला परिस्थिति पर निर्भर करता है। राजनीति में किसी भी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इसका उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि जैसे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कहते रहे कि वे अपने पुत्र को राजनीति में नहीं लाएंगे, मगर हालात ऐसे बने कि उन्हें जोधपुर लोकसभा चुनाव लड़वाना पड़ा और उसमें सफलता न मिलने पर किक्रेट बोर्ड का जिम्मा सौंपा गया। कुल जमा उनका कहना था कि वे नियति के फैसलों पर दखलंदाजी नहीं कर सकते।

उनके इस बयान से राजनीति के जानकार यह अंदाजा लगा रहे हैं कि गहलोत के पुत्र अवश्य चुनाव लड़ेंगे। दो बार महापौर रह चुके गहलोत के पुत्र के लिए एकाधिक सुरक्षित वार्ड मिल ही जाएंगे। ऐसे में पार्टी भला जिताऊ प्रत्याशी को चुनाव क्यों नहीं लड़वाना चाहेगी।

इसी से जुड़ी बात ये भी है कि अगर रनित गहलोत चुनाव लड़ कर जीतते हैं तो उप महापौर पद के लिए भी वे सशक्त दावेदार होंगे। 

उल्लेखनीय है कि रनित गहलोत के वार्ड दो से चुनाव लडऩे की संभावना है। इस बारे में उनकी ही पार्टी के एक व्यक्ति ने निजी राय के बारे में मुझे बताया कि वे वार्ड दो से चुनाव क्यों लड़ेंगे, यह वार्ड कमाई वाला वार्ड तो है नहीं। वे जरूर ऐसे वार्ड लड़ेंगे, जहां कमर्शियल गतिविधियां होती हैं और अच्छी कमाई होती है। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए गहलोत ने कहा कि ऐसी सोच गलत है। आम आदमी की ऐसी धारणा बन गई है कि उसे हर जगह भ्रष्टाचार ही नजर आता है, लेकिन कमाई वाले अथवा बिना कमाई वाले वार्ड को कोई मापदंड नहीं होता है।

समझा जा सकता है कि दो बार महापौर रह चुकने के बाद फिलहाल पांच साल तक तो उन्हें निगम की सक्रिय राजनीति से दूर रहना ही है। इसके अतिरिक्त बाद के विधानसभा या लोकसभा चुनाव में क्या होगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। ऐसे में बेहतर ये है कि वे अपनी राजनीतिक विरासत सुनिश्चित करने के लिए पुत्र को राजनीति में लाएं।

खैर, रनित के वार्ड नंबर दो से चुनाव मैदान में आने की संभावना की वजह से भाजपा के अन्य दावेदार तनिक हतोत्साहित हैं। वार्ड दो की स्थिति ये है कि इसमें अनुसूचित जाति के काफी वोट हैं। पिछली बार भी यह वार्ड सामान्य था, फिर भी अनुसूचित जाति के वोट बैंक को देखते हुए कांग्रेस ने पूर्व पार्षद कमल बैरवा के भाई मनोज बैरवा को चुनाव लड़वाया और वे जीते भी। इस बार फिर वही स्थिति बनी है। स्वाभाविक रूप से इस बार भी कमल बैरवा के परिवार का दावा रहेगा। लोगों का मानना है कि यदि बैरवा के परिवार से किसी को टिकट नहीं मिला तो वे निर्दलीय भी लड़ सकते हैं। ऐसा होने पर कांग्रेस के प्रत्याशी के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो जाएगा।  एक तर्क ये भी है कि अगर बैरवा परिवार को कोई व्यक्ति निर्दलीय मैदान में उतरता है तो उसका नुकसान तो होगा, लेकिन एक फायदा ये भी हो सकता कि निर्दलीय मैदान में न उतरने पर बैरवा समाज के जो वोट अपने प्रयासों से भाजपा हासिल कर सकती है, उस पर अंकुश लग जाएगा, और सारे वोट  एक मुश्त बैरवा प्रत्याशी को मिलेंगे, जिसका अप्रत्यक्ष लाभ कांग्रेस प्रत्याशी को मिलेगा। 

जानकारी के अनुसार कांग्रेस में एकाधिक दावेदार हैं, मगर शैलेश गुप्ता व हेमंत जोधा के नाम अभी तक उभर कर आए हैं। शैलेश गुप्ता पुराने सुपरिचित कांग्रेसी नेता हैं, वहीं जोधा पर दिग्गज कांग्रेस नेता महेन्द्र सिंह रलावता का वरदहस्त माना जाता है। वे पिछले विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से हार गए थे। चूंकि हारे हुए प्रत्याशियों की राय को भी तवज्जो देने की पूरी संभावना है, इस कारण कुछ लोग मानते हैं कि अगर रलावता ने चाहा तो जोधा को टिकट मिल सकता है।

-तेजवानी गिरधर

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बुधवार, 21 अक्तूबर 2020

शक्ति सिंह रलावता डिप्टी मेयर पद के भावी उम्मीदवार?


हालांकि अजमेर नगर निगम के चुनाव कब होंगे, अभी ये ही पता नहीं है, न ही कांग्रेस ने फिलवक्त उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया आरंभ की है, बावजूद इसके वरिष्ठ नेता महेन्द्र सिंह रलावता के पुत्र शक्ति सिंह रलावता को उनके समर्थकों ने डिप्टी मेयर पद का भावी उम्मीदवार  घोषित कर दिया है। यह उद्घोषणा फेसबुक पर फोटों के साथ धड़ल्ले से वायरल हो रही है। इतना ही नहीं, उस पोस्ट को लाइक भी खूब मिल रहे हैं, जो कि उनकी लोकप्रियता का द्योतक है। इसका अर्थ ये है कि उनके समर्थकों की नजर में न केवल शक्ति सिंह को टिकट मिल जाएगा है, अपितु वे जीत भी जाएंगे। वे ही क्यों, इस घोषणा के साथ यह भी तय मान लिया चाहिए कि बोर्ड कांग्रेस का ही बनने वाला है। इसे दुस्साहसपूर्ण घोषणा माने या अतिआत्मविश्वास, यह तय करना मुश्किल है, लेकिन इससे शक्ति सिंह के शुभचिंतकों की विल पॉवर का पता तो लगता ही है। इससे यह भी अंदाजा होता है कि उन्होंने राजनीतिक गणित फला लिया है।

ज्ञातव्य है कि मेयर का पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से डिप्टी मेयर के पद पर गैर अनुसूचित जाति वर्ग के किसी व्यक्ति को मौका मिलेगा। पहले मारे सो मीर, की तर्ज पर अभी से डिप्टी मेयर के दावेदार की घोषणा कर देने का अर्थ ये भी है कि गैर अनुसूचित जाति वर्ग का कोई अन्य दावेदार अभी से समझ जाए कि उसे मौका नहीं मिलेगा। वो इसलिए कि शक्ति सिंह के पिताश्री महेन्द्र सिंह रलावता बहुत प्रभावशाली हैं। अगर वाकई शक्ति सिंह को टिकट मिलता है, जो कि बहुत आसान है, वे जीतते हैं और साथ ही बोर्ड में भी कांग्रेस का वर्चस्व रहता है तो यह तय मान कर चलिए कि आगामी डिप्टी मेयर शक्ति सिंह ही होंगे।

बताने की आवश्यकता नहीं है कि शक्ति सिंह कोई नया चेहरा नहीं हैं। भले ही उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा हो, मगर पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने पिताश्री के चुनाव की कमान संभाली थी। न केवल उन्हें आम कांग्रेस कार्यकर्ता जानता है, अपितु राजनीति में रुचि रखने वाला हर अजमेरी उनसे सुपरिचित है। चूंकि वे पिताश्री के साथ साये की तरह चलते हैं, इस कारण उन्हें अजमेर की राजनीति के बारे में पूरी जानकारी व समझ है। यहां बताते चलें कि स्थानीय से लेकर राज्य स्तरीय व राष्ट्रीय राजनीति के ऐतिहासिक टिप्प रलावता जी की अंगुलियों पर थिरकते हैं। हालांकि ऐसा माना जाता है कि महेन्द्र सिंह रलावता आगामी विधानसभा चुनाव में भी टिकट के प्रबल दावेदार होंगे, फिर भी यदि अभी से अपनी राजनीतिक विरासत तय कर रहे हों, तो उसमें कोई बुराई नहीं है। राजनीति में ऐसा होना सामान्य सी बात है। उसमें अचरज वाली कोई बात नहीं है। बस दाद देने वाला आश्चर्य ये है कि शक्ति सिंह के फॉलोवर्स इतने अधिक यकीन से दावा कैसे कर रहे हैं? समझा जा सकता है कि इस दावे के साथ राजनीतिक जुगालियां आरंभ हो गई हैं।

धर्मेन्द्र  गहलोत के पुत्र के भी इस बार चुनाव लडऩे की संभावना


राजनीति में परिवारवाद की बात चली है तो आपको लगे हाथ बताते चलें कि निवर्तमान मेयर धर्मेन्द्र गहलोत के पुत्र के भी इस बार चुनाव लडऩे की संभावना बताई जा रही है। वार्ड नंबर संभवत: दो हो सकता है। हालांकि स्वयं गहलोत ने इस प्रकार का कोई इशारा नहीं किया है, न ही मंशा जाहिर की है, मगर समझा जाता है कि उनके समर्थक इस बात का दबाव बना रहे होंगे कि उनके पुत्र को चुनाव मैदान में उतारा जाए। कुछ लोगों की यह भी जानकारी है कि गहलोत ने इस बात से इंकार किया है कि वे अपने पुत्र को चुनाव लड़ाने जा रहे हैं। जो कुछ भी हो, राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। अगर अभी नहीं, बाद में समर्थकों के इच्छा की वजह से गहलोत का मानस बनता भी है तो उसमें कोई भी हर्ज नहीं है। आसन्न चुनाव के बाद के चुनाव में वे फिर से मेयर बन पाएंगे या नहीं, उस बारे में कल्पना कोरी मूर्खता होगी, मगर इस चुनाव में अपनी राजनीतिक विरासत तैयार करना तो आसान है। अगर वे चाहेंगे तो उनके पुत्र का टिकट काटना निहायत असंभव है।

-तेजवानी गिरधर

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tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

अजमेर ने खो दिया महान कलाविद्

 कला को समर्पित श्री कमलेन्द्र कुमार झा का निधन


जाने-माने कलाविद् श्री कमलेन्द्र कुमार झा हमारे बीच नहीं रहे। अजमेर के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है। कला की सेवा और उसका संरक्षण करने के क्षेत्र में कवि एवं गीतकार कमलेन्द्र कुमार झा अजमेर में एक स्थापित शख्सियत रहे। हालांकि पेशे से वे इंजीनियर थे और सार्वजनिक निर्माण विभाग में अतिरिक्त मुख्य अभियंता के पद से सेवानिवृत्त हुए, लेकिन कला के प्रति उनकी विशेष रुचि रही। वे स्वयं कवि थे। उन्होंने कला के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बना चुकी संस्था कला-अंकुर की स्थापना की और उसके संरक्षक रहे। कला-अंकुर संस्था के माध्यम से उन्होंने अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों आयोजन करवाया। संस्था के माध्यम से उन्होंने संगीत के क्षेत्र में नई प्रतिभाओं को तराशने का उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने कला-अंकुर अकादमी की स्थापना कर संगीत, गायन, वादन, नृत्य, नाटक व चित्रकला के क्षेत्र में नई पीढ़ी को दिशा देने का बीड़ा उठाया था। 

स्वर्गीय श्री पूरन चंद्र झा के घर जन्मे श्री कमलेन्द्र कुमार झा अजमेर इंजीनियरिंग इस्टीट्यूट के सचिव और अध्यक्ष रहे। अजमेर सिटीजन कौंसिल की तकनीकी शाखा के अध्यक्ष भी थे। अजमेर में अधिशाषी अभियंता व अधीक्षण अभियंता के पदों पर रहते हुए उन्होंने जवाहर रंगमंच के निर्माण, नगर सौंदर्यीरकरण और दरगाह विकास में महत्वपूर्ण तकनीकी योगदान दिया।

उनके बारे में यह जानकारी अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक से साभार ली गई है।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

क्या होगा धर्मेन्द्र गहलोत का भविष्य?

 


अजमेर नगर निगम के दो बार महापौर रह चुके धर्मेन्द्र गहलोत का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, यह सवाल सियासी हलकों में भ्रमण कर रहा है। ऐसा इसलिए कि भाजपा में वे गिनती के उन नेताओं में शुमार है, जो ऊर्जावान माने जाते हैं। दो बार महापौर रह लेना कोई कम बात नहीं है। हालांकि इस शहर में पांच बार के सांसद प्रो. रासासिंह रावत, राज्य मंत्री रह चुके श्रीकिशन सोनगरा, पूर्व विधायक हरीश झामनानी, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व जिला प्रमुख सरिता गेना आदि की स्थिति को देखने के बाद गहलोत के बारे में सोचना बेमानी सा लगता है, मगर चूंकि वे इन सबसे कहीं अधिक मुखर हैं, इस कारण धारणा यही है कि वे घर बैठने वालों में से नहीं हैं। यद्यपि सक्रिय राजनीति में उनके पास सीमित विकल्प हैं, फिर भी माना जाता है कि भाजपा उनका कहीं न कहीं उपयोग करेगी ही।

चूंकि आगामी निगम चुनाव में महापौर का पद अनुसूचित जाति की महिला के लिए आरक्षित है, इस कारण निगम की राजनीति करने के रास्ते पांच साल के लिए तो बंद हैं। रहा सवाल विधानसभा चुनाव का तो लगता नहीं कि आजादी के बाद से लेकर अब तक हुए अजमेर उत्तर, जो कि पूर्व में अजमेर पश्चिम कहलाता था, लगातार किसी सिंधी को ही टिकट देती आ रही भाजपा कोई नया प्रयोग करेगी। यानि कि भले ही तकरीबन तीन साल बाद वे दावेदारी करें, मगर टिकट मिलना असंभव सा लगता है। बात अगर लोकसभा चुनाव की करें तो चूंकि यह सीट जाट बहुल है, इस कारण जातीय समीकरण के लिहाज से उन पर दाव खेलना कठिन ही लगता है। फिर भी उनकी दावेदारी रहेगी ही, क्योंकि मालियों के वोट भी कम नहीं हैं।

बात अगर संगठन की करें तो भाजपा को उन जैसे दबंग नेता की जरूरत है, जो कि फिलहाल विपक्ष में रहते हुए पार्टी को आक्रामक बनाए रख सके। बेशक मौजूदा अध्यक्ष डॉ. प्रियशील हाड़ा सज्जन हैं, मगर विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए जिस प्रकार के नेता की जरूरत है, वह क्वालिटी में उनमें नजर नहीं आती। अव्वल तो यह सवाल अनुत्तरित ही पड़ा है कि अजमेर दक्षिण में पहले से कोली समाज की श्रीमती अनिता भदेल के विधायक रहते हुए पार्टी ने क्या सोच कर उनको मौका दिया? दूसरी बात ये कि आगामी महापौर भी अनुसूचित जाति की महिला के रूप में होगा तो क्या लंबे समय तक उन्हें इस पद पर रखा जाएगा या नहीं? ऐसे में भाजपा के पास बेहतर विकल्प के रूप में एक मात्र सशक्त नेता गहलोत ही बचते हैं। उनमें भूतपूर्व नगर परिषद सभापति स्वर्गीय वीर कुमार का प्रतिबिंब देखा जाता है। अजमेर भाजपा में चूंकि आरएसएस की अहम भूमिका है, इस कारण उनको शहर अध्यक्ष की कमान दिए जाने की संभावना बनती तो हैं, क्योंकि वे आरएसएस की पसंद हैं। इसके अतिरिक्त शहर में अपना वजूद बनाए रखने व और बढ़ाने के लिए पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री व मौजूदा अजमेर उत्तर विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी उनका साथ दे सकते हैं। चूंकि स्मार्ट सिटी के कार्य उनके महापौर काल में आरंभ हुए, इस कारण उन्हीं को इसकी गहरी समझ है। दौ बार नगर निगम का बेड़ा चलाने का अनुभव तो है ही। इन सारी बातों को देख कर लगता है कि भाजपा हाईकमान उनका उपयोग शहर अध्यक्ष के रूप में कर सकता है। यही आखिर विकल्प है। बाकी प्रदेश संगठन में कोई पद दे कर गैराज में सजा कर रखने से पार्टी को बहुत बड़ा फायदा नहीं होने वाला। 

जरा पीछे नजर डालें तो पिछली बार जब जब उनका पहला कार्यकाल समाप्त हुआ तब भी यह सवाल उठा था कि उनका राजनीतिक भविष्य क्या होगा? उन्होंने भी अपने मूल पेशे वकालत पर ध्यान देना शुरू कर दिया था। महापौर पद जाने के बाद मात्र एक दिन के फासले में ही वे बड़ी सरकारी गाडी से अपने निजी स्कूटर पर आ गए थे। तब निकट भविष्य में कोई चुनाव लडऩे की संभावना नहीं थी। उस वक्त भी ऐसी संभावना थी कि उन्हें संगठन की जिम्मेदारी दी जाए, मगर ऐसा हो नहीं पाया। यह उनका सौभाग्य था कि पांच साल बाद निगम चुनाव आए तो पार्षदों में से महापौर चुनने का नियम लागू हो गया और देवनानी के दम पर वे फिर से महापौर बन बैठे। सामान्य सीट पर फिर से ओबीसी को मौका देने के कारण हालांकि उनका जबदस्त विरोध हो गया। भाजपा के ही पूर्व नगर परिषद अध्यक्ष सुरेन्द्र सिंह शेखावत कांग्रेस के सहयोग से बागी बन कर मैदान में आ डटे। बराबर वोट मिलने पर लॉटरी निकाली गई और यहां भी भाग्य ने गहलोत का साथ दिया। हालांकि इसको लेकर विवाद हुआ, मगर देवनानी के आगे किसी की नहीं चली। 

गहलोत के पहले कार्यकाल की समाप्ति पर अपुन ने एक ब्लॉग लिखा था। उसमें साफ इशारा किया था कि जड़ अगर उनकी जिंदा है, तो फिर हरे हो जाएंगे। इस टायर्ड-रिटायर्ड शहर में मुर्दा लोग ही जब मात्र विज्ञप्तियों के सहारे जिंदा बने रहते हैं, तो चैन से नहीं बैठने वाले गहलोत को ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी। हुआ भी वही। इस बार देखें क्या होता है? 


-तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

सोमवार, 24 अगस्त 2020

आजादी से पहले व बाद में अजमेर नगर निकाय के ये रहे अध्यक्ष

हाल ही अजमेर नगर निगम के बोर्ड का कार्यकाल समाप्त हो गया। अब नए चुनाव होंगे। संभवत: अक्टूबर के बाद। कोरोना महामारी के कारण।  प्रसंगवश अजमेर के सुधि पाठकों की जानकारी के लिए आजादी से पहले और बाद में अजमेर नगर निकाय के कौन व कब अध्यक्ष रहे, उसक सूची यहां दी जा रही है। यह सूची अजमेर एट ए ग्लांस से ली गई है।

आजादी से पहले अजमेर नगर पालिका के अध्यक्ष

1866-68: मेजर डेविडसन

1868-73: केप्टन एच. एम. रिप्टन

1876: मिस्टर जेम्स व्हाइट

1883: मिस्टर जे. आर. फिटजाल्ट

1883-84: मिस्टर जे. ई. किट्स

1884: कैप्टन डब्ल्यू.एच.सी. विल्ल

1884-91: रेविड डॉ. जे. हजबैंड

1891: लेफ्टिनेंट कर्नल न्यूमैन

1891-94: मिस्टर एफ.एल. राइड

1894: मिस्टर एच. क्लोस्टन

1895-1900:  रेविड डॉ. जे. हजबैंड

1900-02: लेफ्टिनेंट कर्नल विलियम लॉंच

1903-07: मिस्टर सी. डब्ल्यू. वेडिंग्टन

1907-08: मिस्टर डब्ल्यू. टी. वेन सोमगन

1908-09: मेजर आर. आई. हेमिटन

1909: कैप्टन टी.एच.आर.एन. प्रिचर्ड

1909: मिस्टर डब्ल्यू.सी. ह्युस्टन

1909: मिस्टर एस.बी. पीटरसन

1909-11: मिस्टर सी.डब्ल्यू. वेडिंग्टन

1911: मिस्टर बी.जे. गेलेंसी

1911-13: सी.डब्ल्यू. वेडिंग्टन

1913-1918: मिस्टर आर.जी. रॉबसन

1919-20: मिस्टर एस.एफ.मदीन

1920-23: मिस्टर जी.के. खांडेलकर

1926-31: मिस्टर एस.एफ. मदीन

1931-32: लेफ्टिनेंट कर्नल जी. हेवसन

1932-33: सर हेमचंद सोगानी

1933-34: मिस्टर एच.डब्ल्यू. फीथ

1934: सर हेमचंद सोगानी

1934: मिस्टर जी.एल. बेथम

1934: कैप्टन आई.अगरालबे्रथ

1934: मेजर डेला फोग्र्यु

1934: मिस्टर सी.एच. गिदानी

1934-35: कैप्टन एल.ए.जी. फिनी

1935-39: मिस्टर टी. बेर्ट

1939-40: मिस्टर एम.के. कोल

1942-46: राजबहादुर सर सेठ भागचंद सोनी

1946-47: मिस्टर जीतमल लूनिया


आजादी के बाद अजमेर नगर निगम के अब तक के अध्यक्ष

1947-48: श्री हेमचंद सोगानी

1948-49: श्री कृष्णगोपाल गर्ग

1949-51: श्री कृष्णगोपाल गर्ग

1951: श्री विशम्बरनाथ भार्गव

1951-52: श्री ज्वाला प्रसाद शर्मा

1952: श्री जे. के. भगत

1953 व 54 में प्रशासकों ने व्यवस्था संभाली

1954-55: श्री दुर्गादत्त उपाध्याय

1955-57: श्री कृष्णगोपाल गर्ग

1957-58: श्री ज्वालाप्रसाद शर्मा

1959-60: श्री देवदत्त शर्मा

1960-61: श्री माणकचंद सोगानी

1961 से 69 तक प्रशासकों ने व्यवस्थाएं संभाली

1970: श्री एम.के. नाथूसिंह तंवर

1971: श्री माणकचंद सोगानी

1973: डॉ. एम. एल. बाघ

1973 से 90 तक प्रशासकों ने काम संभाला

1990-95: श्री रतनलाल यादव

1995-2000 श्री वीरकुमार

24.1.2000-9.4.2000: श्रीमती विद्या कमलाकर जोशी (कार्यवाहक)

10.4.2000-28.8.2000: श्री सुरेन्द्र सिंह शेखावत

28.8.2000-22.12.2003: श्रीमती अनिता भदेल

22.12.2003-31.12.2005: श्रीमती सरोज देवी जाटव

2005-10: श्री धर्मेन्द्र गहलोत

सन् 2008 में भाजपा शासनकाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पहल पर नगर परिषद को नगर निगम का दर्जा दे दिया गया। इसकी घोषणा उन्होंने अजमेर में ही की। वे यहां राज्य स्तरीय गणतंत्र समारोह में शिरकत करने आई थीं। इस लिहाज से श्री धर्मेन्द्र गहलोत को पहला मेयर बनने का गौरव हासिल हुआ। हालांकि जनसंख्या संबंधी औपचारिकता बाद में कुछ गांव मिला कर की गई।

अगस्त 2010: करीब बीस साल भाजपा का कब्जा रहने के बाद पहली बार कांग्रेस के नए चेहरे वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी व पूर्व पार्षद स्वर्गीय श्री हरिशचंद जटिया के पुत्र श्री कमल बाकोलिया अजमेर नगर निगम के पहले निर्वाचित मेयर बने। उन्होंने मेयर के लिए हुए सीधे चुनाव में भाजपा के डॉ. प्रियशील हाड़ा को पराजित किया। उपमहापौर पद पर भाजपा के श्री अजीत सिंह राठौड़ निर्वाचित हुए, जिन्होंने कांग्रेस समर्थित भाजपा की बागी श्रीमती चंद्रकांता पारलेचा को पराजित किया। 

अगस्त, 2015 के चुनाव में मेयर की चुनावी प्रक्रिया बदली गई। फिर से पार्षदों ने मेयर को चुना। भाजपा के श्री धर्मेन्द्र गहलोत व कांग्रेस के समर्थन से भाजपा के बागी श्री सुरेन्द सिंह शेखावत के बीच टक्कर हुई। दोनों को बराबर 30-30 वोट मिले। इस पर पर्ची से लॉटरी निकाली गई। हालांकि पहली बार पर्ची श्री शेखावत के नाम खुली, मगर चूंकि उसमें प्रक्रियागत त्रुटि थी, इस कारण दुबारा लॉटरी निकाली गई, जिसमें श्री गहलोत की किस्मत ने साथ दिया। इस प्रकार श्री गहलोत को दो बार मेयर बनने का मौका मिला।

श्री गहलोत जब पहली बार मेयर बने, तब यह सीट सामान्य थी। चूंकि श्री गहलोत ओबीसी से हैं, इस कारण तनिक विवाद हुआ। दूसरी बार भी सीट सामान्य थी, फिर भी भाजपा ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया। इसके विरोध में भाजपा के श्री सुरेन्द्र सिंह मैदान में आ डटे। आगामी चुनाव में मेयर की सीट अनुसूचित जाति महिला के आरक्षित है।

तेजवानी गिरधर

7742067000

tejwanig@gmail.com

शनिवार, 9 मई 2020

गोलमाल है भई, गोलमाल है

पांच गुना महंगे बिक रहे हैं बीड़ी-सिगरेट, तंबाकू-गुटखा
जब से लॉक डाउन लागू हुआ है, तंबाकू, गुटखा, सिगरेट, बीड़ी आदि पर प्रतिबंध है। यानि कि बनाने और बेचने पर। न बनना चाहिए, न बिकना चाहिए। खाने पर भी। यदि खा कर कहीं थूक दिया तो जुर्माना है। जब कि सच्चाई ये है कि ये सभी वस्तुएं बिक रही हैं। यह सर्वविदित तथ्य है। ठेठ मजदूर तक को पता है। पत्रकार की खोज खबर नहीं। इसके लिए किसी प्रमाण की जरूरत नहीं होनी चाहिए। प्रमाण भी है। पिछले दिनों पुलिस ने भारी मात्रा में बरामदगी भी की। वह एक मामला है, जो कि पुलिस की मुस्तैदी से उजागर हो गया, वरना ऐसे न जाने कितने स्टॉकिस्ट होंगे। निष्कर्ष ये कि स्टॉकिस्ट के पास माल आ रहा है। आता कहां से है? अर्थात उत्पादन हो रहा है। बरामद माल पहले का रखा हुआ नहीं हो सकता। पहले का रखा हुआ तो अब तक बिक बिका कर खत्म हो गया होगा। इसकी मांग कितनी है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि ये सभी वस्तुएं लगभग तीन से पांच गुना दामों में गुपचुप बिक रही हैं। आप दुकानदार के पास जाएंगे तो वह कह देगा, माल कभी का खत्म हो गया। जान पहचान वाला हुआ तो माफी के साथ चुपके से दे देगा, कि मैं क्या करूं? ऊपर से ही महंगा आ रहा है।
बताते हैं कि जो लोग गुटखे के बिना नहीं रह सकते, वे या तो महंगा खरीद रहे हैं या फिर मीठी व फीकी सुपारी में बीड़ी का तम्बाकू या खैनी मिला कर सेवन कर रहे हैं। तंबाकू मिश्रित सुपारी की आदत इतनी गहरी है कि बिना तंबाकू के मिल रही सुपारी से खुद को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं। हालत ये हो गई है कि जनरल स्टोर्स पर मीठी व फीकी सुपारी तक गायब हो चुकी है। कई लोग ऐसे हैं, जिनको ब्रांडेड बीड़ी नहीं मिल रही या खरीदने में सक्षम नहीं हैं, वे घर में बनी बीड़ी का जुगाड़ कर रहे हैं। एक बड़ा दिलचस्प प्रकरण जानकारी में आया। कोई युवक जनरल स्टोर पर बटर पेपर लेने गया। दुकानदार ने पूछा कि क्या करोगे, तो उसने बताया कि सिगरेट बहुत महंगी है, वह खरीद नहीं सकता। कहीं से तंबाकू का जुगाड़ किया है, वह बटर पेपर की सिगरेट बना कर उसमें तंबाकू डाल कर उपयोग कर लेगा। ये तो हद्द हो गई। उसे पता ही नहीं कि बटर पेपर का धुंआ फेफड़ों में गया तो कितना नुकसान करेगा। मगर क्या करे, सिगरेट के बिना रहा नहीं जाता। इसी को एडिक्शन कहते हैं। कुछ इसी प्रकार का जुगाड़ पहले भी जानकारी में आया था। कॉलेज टाइम में साथ में कुछ बिहारी युवक भी साथ पढ़ा करते थे। जरदा या खैनी नहीं मिलने पर वे कॉलेज की दीवार का चूना खुरच कर उसमें बीड़ी का तंबाकू मिला कर होंठ के नीचे दबाया करते थे।
वस्तुत: इन सभी मादक पदार्थों का बहुत बड़ा उपभोक्ता वर्ग है। वह इनका आदी है। पांच गुना रेट पर भी खरीद कर सेवन करना इसका सबूत है। हो सकता है कि महंगा होने के कारण उसने सेवन की क्वांटिटी कम कर दी हो। फिर भी देशभर में डेली की खपत बहुत होगी। सवाल सिर्फ ये कि अगर गुपचुप सप्लाई हो रही है तो उत्पादन भी हो रहा होगा। दूसरा ये कि बिक रहा है तो ऊपर से नीचे तक की चेन भी सक्रिय है। तंत्र की भी जानकारी में होगा ही। ऐसा ही नहीं सकता कि उसको पता न हो। कालाबाजारी करने वाले डाल-डाल तो तंत्र पात-पात। इसका उलट भी सही है। तंत्र डाल-डाल तो कालाबाजारिये पात-पात। तंत्र के पास इतने संसाधन नहीं कि ग्राउंड लेवल पर जा कर पकड़ सके। वह भी शिकायत पर ही कार्यवाही कर पाता है। उससे भी बड़ी बात ये है कि उसके पास केवल यही एक काम थोड़े ही है। लॉक डाउन की ड्यूटी ही इतनी श्रम साध्य है कि पूछो मत। अब चालीस डिग्री से ऊपर की गर्मी में तो उसका भी हाल बुरा है।
कुल जमा बात ये है कि कालाबाजारी जारी है तो इसका मतलब कुछ न कुछ गोलमाल है। उसका सर्वाधिक फायदा कौन उठा रहा है? स्टॉकिस्ट तो उठा ही रहा है, होल सेलर भी अपनी कमाई रख रहा है। गली का दुकानदार भी जब चार गुना रेट पर लाएगा तो वह भी रेट को पांच गुना करके कमाएगा। केवल माल की कमी का ही सवाल नहीं है। हर स्तर पर पकड़े जाने का रिस्क भी है। अब जो इतनी रिस्क ले रहा है, तो कमाएगा भी। इतना कमाएगा, कि पकड़ा भी जाए तो उसकी भरपाई कमाई से हो जाए।
इस गोरख धंधे का या तो शासन को पता नहीं है। और पता है तो संज्ञान नहीं ले रहा। कुछ न कुछ गोलमाल है। उसके लिए प्रशासन सीधे तौर पर जिम्मेदार इसलिए नहीं कि वह तो केवल शासन के आदेश को एक्जीक्यूट कर रहा है।  बीच में सुना था कि रेवेन्यू के लिए सरकार शराब के साथ पान-बीड़ी की दुकान भी खोल सकती है, मगर जैसे ही शराब खोलने पर सरकार की छीछालेदर हुई, कदाचित इसीलिए पान की दुकान खोलने का विचार ही त्यागना पड़ा।
आदेशों की भी बड़ी महिमा है। सुप्रीम कोर्ट ने तंबाकू मिश्रित पान मसाले पर रोक लगाई तो दूसरे ही दिन सारी कंपनियों ने पान मसाला व तंबाकू अलग-अलग पाउच में बेचना शुरू कर दिया। न तो आदेश की अवहेलना हुई और न ही उपभोक्ताओं को कोई दिक्कत। वे मिला कर सेवन करने लग गए। यह बात भी गौर तलब है कि तंबाकू के उत्पादों में चित्र के साथ लिखा होता है कि तंबाकू स्वास्थ्य के हानिकारक है। अरे भई, यदि हानिकारक है तो बेचने ही क्यों दे रहे हो? यानि की सरकार तो आगाह कर  रही है, अगर आपको हानि का वरण करना है तो यह आपकी मर्जी है।
कुछ ऐसा ही कोरोना को लेकर होने जा रहा है। सरकार आखिर कितने दिन लॉक डाउन करेगी। अंतत: खोलना ही होगा। आखिर चेतावनियां दे कर खोल देगी। आप जानो, आपका काम जाने।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 2 मई 2020

कर्फ्यू के बाद भी कैसे फैला कोरोना?

बड़ा गुमान था। हमारे यहां केवल एक ही मरीज सामने आया है। उसने भी केवल अपने ही परिवार को प्रभावित किया है। वो भी ठीक हो रहे हैं। चूंकि भीलवाड़ा मॉडल की तर्ज पर तुरंत चार थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू लगा दिया था, और तकरीबन एक माह तक शांति थी, इस कारण फहमी थी कि हम विजेता होंगे। 15 अगस्त को मेडल लेंगे। मगर गलत फहमी निकली। सब कुछ बिखर गया। फैल गया। पसर गया। संभाले नहीं संभल रहा। लॉक डाउन के दो टर्म बीत रहे हैं। रिलीफ चाहिए। मगर गिनती डेली बढ़ रही है। नयों का इलाज कराओ। उनसे संपर्क में आए लोगों को क्वारेंटाइन करवाओ। कफ्र्यू क्षेत्र में परेशान लोगों को जरूरी राहत पहुंचाओ। भाग रहे खानाबदोशों को संभालो। केन्द्र व राज्य की गाइड लाइन पर रिलीफ का फार्मूला निकालो। बहुत मुश्किल है। प्रशासन के लिए। वे ही जान सकते हैं कि कितना कठिन टास्क है। ऐसे वक्त में प्रशासन को पूरा सहयोग चाहिए। लोग कर भी रहे हैं। दानदाता अब भी सेवा में जुटे हैं। उनके जज्बे को सलाम। उनका सेवा भाव इतिहास में दर्ज हो गया है। कुछ कपड़े फाडऩे में लगे हैं। उनका काम ही यही है। आम अजमेरवासी अपनी किस्मत को कोस रहा है।
इन सब के बीच हर एक के मन में एक ही सवाल है। कफ्र्यू के बाद भी कैसे फैला कोरोना? चूक कहां हुई? हालांकि ताजा जो हालत हैं, उसे देखते हुए यह सवाल अब बेमानी सा लगता है। मुर्दे उखाडऩे सा प्रतीत होता है। अव्वल तो पता नहीं लगेगा कि फैला कैसे? गत पता लग भी गया तो आप क्या कर लोगे? कोई एक आदमी तो जिम्मेदार होगा नहीं, जिसे फांसी पर चढ़ा दोगे। लापरवाही कई स्तर पर हुई है। सरकारी एजेंसियों के स्तर पर भी, जिनका पोस्टमार्टम अखबार वाले कर ही रहे हैं। आम जनता के स्तर पर भी, जो डंडे खा कर भी बाहर निकलने से बाज नहीं आ रही थी। डंडे भी ऐसे खाये कि वर्षों तक याद रहेंगे। गनीमत रही कि आरएसी के नहीं थे। उनका मजा भी हम कई साल पहले चख चुके हैं।
कुछ लोग मानते हैं कि पुलिस ने बहुत ज्यादती की, मगर अनेक का मानना है कि अगर सख्ती न बरती होती तो, हालात कुछ और होते। यह मत भी सामने आया है कि सख्ती मुख्य चौराहों व रास्तों पर तो थी, मगर दरगाह के आसपास की तंग गलियों में आवाजाही बनी रही। मॉनिटरिंग की कमी सामने आई है, मगर आबादी का धनत्व बहुत अधिक होने के कारण भी संक्रमण को रोकना बेहद मुश्किल था। इसमें जिला प्रशासन कर भी क्या सकता था? पब्लिक भी क्या कर सकती थी? वैसे ठीक से सर्वे न होने की शिकायतें भी सामने आई हैं। इसलिए बीमारी दबी पड़ी रही। वह अब फूट कर निकल रही है। भोजन के पैकेट या खाद्य सामग्री के वितरण के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग की पालना भी ठीक से नहीं हुई। पासों का जम कर दुरुपयोग हुआ। आखिरकार कलेक्टर को सेल्फी व फोटो खींचने पर रोक लगानी पड़ी। सोशल डिस्टेंसिंग का सबसे ज्यादा भट्टा सब्जी मंडियों में बैठा। हालात ये हो गई कि मंडी दो-दो दिन के लिए बंद करनी पड़ी, नतीजन लोगों को दुगुनी रेट पर सब्जी खरीदनी पड़ी। शेल्टर्स होम्स पर नियंत्रण की कमी ने भी समस्या उत्पन्न की।
हर एंगल से सोचा जाए तो यही लगता है कि अकेला कफ्र्यू लगाना और पुलिस का सख्त होना ही पर्याप्त नहीं था। अजमेर का रेड जोन में आना सामूहिक जिम्मेदारी है। अब वापस दुरुस्त होना भी सबका दायित्व है। बेशक लॉक डाउन की अपनी समस्याएं हैं, मगर कुछ दिन और सब्र रख कर अपना बचाव रखना होगा। उसके अलावा कोई चारा भी तो नहीं है।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

सेलिब्रिटी बनते जा रहे हैं एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह

यह शीर्षक पढ़ कर आप चौंक गए होंगे। भले ही आप यकीन करें या न करें, मगर यह सच है कि अजमेर के एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह एक सेलिब्रिटी बनने की ओर अग्रसर हैं। आप सोच रहे होंगे कि वे एक दबंग एसपी तो हैं, जो उन्होंने अपने काम करने के तौर-तरीके से साबित किया है, मगर अजमेर से ही उनकी सेलिब्रिटी बनने की यात्रा भी आरंभ हो चुकी है, ऐसा कैसे संभव है?
जी हां, लॉक डाउन के दौरान उन्होंने जो सख्ती बरती, वह तो उनकी दहशत व लोकप्रियता का कारण बनी ही है, मगर तीन सेलिब्रिटीज दुनिया की सबसे छोटी लडकी नागपुर निवासी 29 साल की ज्योति आमगे, कॉमेडियन राजा एंड रेंचो और सारेगामापा 2018-19 की विनर इषिता ने उनके नाम को रेखांकित करके जो वीडियो जारी किए हैं, वे साबित करते हैं कि अब वे भी उसी पंक्ति में शुमार होने जा रहे हैं। यह एक सामान्य बात नहीं है कि बहुत महंगे सेलिब्रिटी किसी एसपी के हवाले से लॉक डाउन में घरों से न निकलने की अपील करें। स्वाभाविक है कि या तो वे उनके सुपरिचित हैं और या फिर वे उनकी कार्यशैली से इतने प्रभावित हुए हैं कि इस प्रकार का वीडियो बनाने से अपने आपको रोक न पाए हों। इन सेलिब्रिटीज के वीडियो संदेश अजमेर पुलिस राजस्थान नामक फेसबुक पर मौजूद हैं। वहां एक वीडियो वह भी नजर आ जाएगा, जिसमें खुद उन्होंने अजमेर वासियों को सीधे संबोधित किया है। अजमेर के एक पत्रकार व एडवोकेट डॉ. मनोज आहुजा ने भी एक वीडियो उनको समर्पित किया है, जो इस बात का प्रमाण है कि वे महज एक एसपी ही नहीं, बल्कि कोरोना वॉरियर्स के हीरो बन चुके हैं। इन चारों वीडियो की लिंक इस आलेख के आखिर में दिए गए हैं, जिन्हें आप क्लिक करके देख सकते हैं।
उनके लोकप्रिय होने का श्रीगणेष तब हुआ, जब उन्होंने अजमेर नगर परिशद के भूतपूर्व सभापति स्वर्गीय वीर कुमार के चेले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत सहित लगभग सभी काउंसलर्स को लॉक डाउन तोड कर राजनीति नहीं करने देने के लिए हडकाया। यह एक गुत्थी ही रह जाएगी कि गहलोत अपमान की घूंट क्यों पी गए। खैर, राजस्थान पत्रिका व स्वामी न्यूज फेसबुक लाइव पर एसपी कोषाबाषी देने वालों की झडी लग गई। हालांकि बाद में गहलोत के समर्थकों ने भी आम आदमी की आवाज उठाने के लिए उनकी तारीफ करने में कोई कसर बाकी नहीं छोडी।
मौजूदा समय में इन्फोर्मेशन टैक्नॉलोजी आधारित सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके ने एसपी जता दिया है कि वे पुलिस में नई व त्वरित कार्यशैली में विश्वास रखते हैं। अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों को संबोधन के साथ-साथ व उसीके बहाने उन्होंने आम जनता को भी आगाह करने के लिए ऑडियो क्लिप्स का इस्तेमाल करने में फुर्ती दिखाई है। हालांकि उन संदेशों की विषय वस्तु के साथ जुड़े कुछ आवृत तथ्य अलग से चर्चा का मुद्दा हो सकते हैं, मगर पूरी पारदर्शिता के साथ सीधे संवाद करना वक्त की महती जरूरत थी, जो एक मिसाल के रूप में स्थापित हो गया। आप गौर से सुनेंगे तो पाएंगे कि उन्होंने सख्त शब्द चित्र की नक्काशी में बड़ी नफासत के साथ संवेदनाओं का रंग बारीक तूलिका से सजाया है, जो उनके नारियल की तरह भीतर से संवेदनशील होने आभास कराता है। ऐसा नहीं है कि उनकी अब तक की रोशनाई से भरी यात्रा में उनकी पद चापों के नीचे अतिरिक्त सख्ती की कहानियां दफन नहीं हैं, मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये भी तो है कि लातों के भूत बातों से मानते कहां हैं। विशेष रूप से तब जब कि जरा सी आवारगी खुद की जान पर तो बन ही आए, दूसरों की जान भी आफत में डाल दे। फिर गेहूं के साथ घुन भी तो पिसता ही है।
कोरोना के खतरे के बीच जंगे मैदान में उतरे हुए पत्रकारों की स्वास्थ्य जांच करवाना उनके मीडिया फ्रेंडली होने का सबूत है। इसके लिए ऊर्जावान पत्रकार मनवीर सिंह व अभिजित दवे भी साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होंने बखूबी संयोजन किया। जाने-माने फोटोग्राफर दीपक शर्मा व उनके सहयोगियों के जरिए लॉक डाउन के दौरान ड्रॉन के जरिए अजमेर की विहंगम दृश्यावली को केमरे में कैद करके इतिहास की धरोहर बनाना एसपी साहब की सहमति के बिना संभव नहीं था। हाल ही उन्होंने हवाई केमरे के जरिए निगरानी का जो षगल किया है, वह नवाचार की श्रेणी में गिना जा सकता है।
सबसे बड़ी बात ये है कि उनके तेवरों की जमीन पर खुद ब खुद ऐसा नेरेटिव खड़ा हो गया है कि प्रशासनिक शक्तियों से संपन्न जिला कलैक्टर विश्वमोहन शर्मा अपेक्षाकृत कम अलर्ट हैं। और यही वजह है कि शर्मा बहुत अधिक आलोचना के शिकार हो रहे हैं। अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने तो अजमेर के हॉट स्पॉट बनने के लिए सीधे-सीधे उनको ही जिम्मेदार ठहरा दिया। वे अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी सहित अन्य भाजपा व कांग्रेस नेताओं के निशानों को भी झेल रहे हैं। यह दीगर बात है कि उन पर अनेक जटिल व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी है, और इतने संकटापन्न काल में उनमें कमियां रहना स्वाभाविक है। अपेक्षाएं अत्यधिक हैं और संसाधन सीमित। उसी का नतीजा है कि फेसबुक पर इस मत ने भी स्थान पा लिया:- अजमेर को कप्तान साहेब ने बचाए रखा था। जिला कलेक्टर और अधिकारियों ने अपनी जिद्द के आगे किसी की नहीं सुनी।
ये शब्दावली पढ़ कर मुझे यकायक लगा कि एसपी साहब के चेहरे की चमक कहीं कलेक्टर साहब के धुंधले चित्र पर तो नहीं उभर कर आ रही।
बहरहाल, किसी का मत किसी के प्रति कैसा और क्यों है, यह अलग विषय है, मगर कुल जमा बात ये है कि एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह सुपर हीरो बनते जा रहे हैं। इसे अगर प्रोजेक्शन की संज्ञा दी जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि बोलने वाले के तो बेर भी बिक जाते हैं और मौन रहने वाले के सेब भी धरे रह जाते हैं। रहा सवाल मेरे मत का तो अपुन इस तरह के नेरेटिव के साथ नहीं हैं, चूंकि दोनों जिम्मेदार अफसरों की वर्क कल्चर्ज सर्वथा भिन्न है। दोनों की कोई तुलना नहीं हो सकती। हां, इतना जरूर है कि किसी भी टास्क की सफल पूर्णाहुति के लिए दोनों के बीच बेहतर तालमेल निहायत ही जरूरी है। यद्यपि मेरे पत्रकारिता के गुरुओं ने जो घुट्टी पिलाई, उसमें महिमामंडन की विधा का अर्क नहीं था, फिर भी मेरा मानना है कि किसी की वास्तविक तारीफ में कोई बुराई नहीं है और निरपेक्ष व सरकारात्मक आलोचना से भी पीछे हटे तो पत्रकारिता धर्म की पालना नहीं हो पाएगी।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लॉक डाउन में नशे के आदी लोग बेहाल

नशे के विरोधी सभी सुधिजन से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत ये पोस्ट तस्वीर के दूसरे रुख की महज प्रस्तुति है। क्षमायाचना की भी वजह है। जमाना ही ऐसा है कि सच बोलने से पहले उसे बर्दाष्त न कर पाने वालों को नमस्ते करना जरूरी है। वस्तुत: यह सुव्यवस्था की ऐसी विसंगति पर रोशनी डालने कोशिश है, जो बुरी होते हुए भी साथ चली आई है। यह सरकार के स्तर पर तय नीति के धरातल पर कहीं न कहीं व्यावहारिक न होने का इशारा मात्र करती है।
सरकार ने लॉक डाउन के तहत ऐसी व्यवस्था की है कि आम आदमी बेहद जरूरी उपभोक्ता वस्तु, विशेष रूप से जीने के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री से महरूम न रह जाए। दूध, सब्जी, किराने का सामान, दवाई इत्यादि की उपलब्धता बनी रहे, इस का पूरा ध्यान रखा गया है। तकरीबन एक माह से घरों में ही कैद रह कर सोशल डिस्टेंसिंग का काल व्यतीत करते लोगों के बीच से उठी रही एक गोपनीय मांग पर नजर पड़ी तो मैं अचंभित रह गया। वार्ड में नियमित रूप से खाद्य सामग्री का वितरण कर रहे एक पार्षद के किसी मुरीद ने उनसे कहा कि खाद्य सामग्री तो मिल रही है, पड़ी भी है, मगर थोड़ी दारु का भी इंतजाम कर दो ना। स्वाभाविक सी बात है कि पार्षद निरुत्तर हो गए।
खैर, इस मांग को गोपनीय की उपमा इसलिए दी कि क्यों कि आदमी ये तो सवाल खुलकर कर सकता है कि उसे राशन सामग्री समय पर क्यों नहीं मिल रही, लॉक डाउन को तोड़ कर मु_ियां तान सकता है कि खाद्य सामग्री के वितरण में भेदभाव क्यों हो रहा है, मगर ये मांग नहीं कर सकता कि उसे पीने को शराब चाहिए, खाने को गुटखा चाहिए, दम मारने को सिगरेट-बीड़ी चाहिए। वह ये गुहार नहीं लगा सकता कि नशे की लत पूरी न होने से वह बेहाल हो गया है। चिड़चिड़ा हो गया है। अवसाद में जी रहा है।
सीधी-सीधी सी बात है, सरकार की यह जिम्मेदारी तो है कि वह आपको भूखा न सोने दे, मगर नशे की वस्तुएं भी सुलभ करवाए, ये उसका ठेका नहीं, भले ही सामान्य दिनों में बाजार में बेचने के लिए ठेका या लाइसेंस भी उसी ने दिया हुआ है। वस्तुत: नशे के ये शौक आपके निजी हैं, उसका जिम्मा सरकार नहीं ले सकती। चूंकि नशे के ये उत्पाद स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, इस कारण इस विषय पर मुंह खोलना ही अपराध बोध कराता है। पैरवी करो कि एक माह से बंद दुकान के दुकानदार की कि उसका सामान चूहे चट कर गए होंगे, मगर इस पर कलम कैसे चलाई जा सकती है कि लोग नशे का सामान न मिलने से त्रस्त हैं या तीन-चार गुना रेट में लेने को मजबूर हैं। यह बात दीगर है कि सोसायटी का एक बड़ा तबका इसका उपभोग करता है। आम आदमी क्या, नशे के हानिकारक होने से भलीभांति परिचित डाक्टर्स में से भी कुछ इनका उपभोग करते हैं।
उदाहण पेश है। कोई बीस साल पहले मेरे छोटे भाई को जब लीवर के पास आंत में केंसर डाइग्नोस हुआ तो उसे मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में भर्ती करावाया गया। तब केंसर की रोकथाम के लिए इसी अस्पताल की ओर से टीवी पर विज्ञापन आया करता था कि सिगरेट-गुटखा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। एक दिन मैं भौंचक्क रह गया, जब हास्पिटल के बाहर चाय-कॉफी व नाश्ते के रेस्टोरेंट में दूध लेने गया तो देखा कि एक डॉक्टर सिगरेट के कश लगा रहा है। गौर से देखा तो यह वही शख्स था, जो कि मेरे भाई के कॉटेज वार्ड का रेजीडेंट डाक्टर था। विरोधाभास की कैसी आत्यंतिक मिसाल। एक ओर जो अस्पताल कैंसर से बचाव व इलाज के लिए देश भर में प्रसिद्ध है, उसी का एक चिकित्सक यह परवाह नहीं कर रहा कि सिगरेट पीने से उसे भी कैंसर हो सकता है। ऐसा ही एक उदाहरण और। अजमेर में एक ऐसे सर्जन हयात हैं, जो सरकारी नौकरी में रहते ऑपरेशन की एवज में महंगी शराब की बोतल अपनी कार की डिक्की में रखवाया करते थे।
कहने का तात्पर्य ये कि नशे की वस्तुओं को भले ही त्याज्य कहा जाए, मगर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसने समाज को अपने शिकंजे में कस लिया है। एक तबके के लिए जरूरी उपभोक्ता वस्तु बन गई है। क्या यह सही नहीं है कि हमारी व्यवस्था ने ही उसे पहले नषे का आदी होने के लिए स्वतंत्र कर रखा है, भले ही स्वास्थ्य के हानिकारक होने की चेतावनी के साथ। अब अगर हम रोक लगाएंगे तो वह कोसेगा ही।
नशे से दूर रहने वालों के ये बात गले में ही अटक सकती है, मगर धरातल की सच्चाई ये ही है। इस सच्चाई की कड़वाहट ये है कि नशे के आदी लोग अपनी मानसिक क्षुधा को शांत करने के लिए बड़ी भारी ब्लैक के शिकार हैं। उदाहरण के लिए पांच रुपए का एक गुटखा, जिसकी होलसेट रेट चार रुपए है और फैक्ट्री से तो दो रुपए में ही निकल रहा होगा, वह बीस रुपए में बिक रहा है। मिराज नामक तम्बाकू का दस रुपए का पाउच पचास रुपए में बेचा जा रहा है। ऐसा ही हाल शराब का है। शराब न मिलने से बौराए लोग हथकड़ व घटिया शराब पीने को मजबूर हैं। एक अहम बात ये है कि प्रतिबंध के कारण एक ओर जहां कालाबाजारियों के पौ बारह हैं, वहीं आम आदमी लुटने को मजबूर है। सरकार को राजस्व की हानि हो रही है, वो अलग। इसके लिए सरकारी तंत्र को इसलिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, क्योंकि सीमित नफरी व संसाधनों में उसकी पूरी ताकत लॉक डाउन की पालना में लगी हुई है। बावजूद इसके जहां-जहां उसकी जानकारी में आया है, उसने पूरी सख्ती से कार्यवाही की भी है।
मेरे एक पत्रकार साथी डॉ. मनोज आहूजा, जो कि वकील भी हैं, ने जमीनी हकीकत पर कलम चलाई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को खत लिख कर उन्होंने बताया है कि लोग शराब नहीं मिलने से तंग आ चुके हैं। 25 रुपये में मिलने वाला क्वार्टर 200 रुपये में बिक रहा है। जिनके पास दो सौ रुपए नहीं हैं, वे नकली शराब खरीद रहे हैं। हरियाणा ब्रांड की शराब आने लगी है मार्केट में। इनसे मरने वाले कहीं कोरोना के आंकड़ों को पीछे न छोड़ दें। उन्होंने तर्क दिया है कि शराब बंदी लागू होने पर भी सरकार ऐसे लोगों को शराब मुहैया करवाती है, जो एडिक्ट हैं। ऐसे में उन्होंने शराब बंदी के फैसले को अव्यावहारिक बताया है। इस विषय पर चर्चा न कर पाने की विवशता का इजहार करते हुए कहते हैं कि नशा सब छुप कर ही करते हैं। सब जानते हैं कि ये सामाजिक बुराई है, इसलिए बोल नहीं पा रहे।
सुरा के आदी लोगों की पैरवी करते हुए अजमेर जिला कांग्रेस कमेटी सीए प्रकोष्ठ के अध्यक्ष सीए विकास अग्रवाल ने भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व प्रदेश आबकारी विभाग के संयुक्त सचिव ओम राजोतिया को पत्र लिख कर देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को खुलवाने के आदेश जारी करने की मांग की है। अग्रवाल ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि पूरे प्रदेश में चोरी-छिपे शराब की सप्लाई मनमाने दामों पर की जा रही है, जिसकी गुणवत्ता पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। कई जगह पर तो अवैध व हथकड़ शराब बेची जा रही है, जिससे पीने वालों की जान खतरे में पड़ गई है। जो लोग शराब का नियमित सेवन करते हैं, उनको शराब नहीं मिलने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हो रहा है। रात में नींद नहीं आने, चिड़चिड़ापन व हाइपर्टेंशन की प्रमुख समस्या हो गयी है। अत: जैसे दैनिक उपयोग की वस्तुओं को छूट दे रखी है, वैसे ही देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को भी एक समय सीमा के तहत खोलने की इजाजत दी जानी चाहिए।
बहरहाल, कोराना जैसी वैश्विक महामारी में एक ओर जहां लोगों की जान पर बन आई है, सरकार ही पहली प्राथमिकता जान बचाने की है। वही बेहतर समझती है कि वर्तमान में नशीली वस्तुओं पर रोक क्यों व कितनी जरूरी है, मगर तस्वीर का दूसरा पहलु भी संज्ञान में रहना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना से जंग अभी बाकी है, आपस की जंग फिर कर लेना

अजमेर शहर भर में लगभग एक माह का लॉक डाउन और चार थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू भोगने के साथ पांच के अतिरिक्त नए पोजीटिव सामने नहीं आने से उम्मीद जगी थी कि अजमेर भी भीलवाड़ा का तरह मॉडल बनने जा रहा है, मगर वह दिवा स्वप्न एक झटके में रेलवे म्यूजियम ने तोड़ दिया। उसके बाद मुस्लिम मोची मोहल्ले ने तो पूरे सिस्टम की पोल ही खोल कर रख दी। अर्थात जो क्रेडिट हम लेने जा रहे थे, वह भगवान भरोसे थी। जमीन पर  जो होना था, वह किया ही नहीं गया। नतीजा ये निकला कि सुप्त पड़ा कोराना का बम फट गया। बेशक बदइंतजामी की मार खाने के बाद अब हम चाक-चौबंद होने लगे हैं, मगर इस महामारी से निपटने के प्रति एकजुट होने की बजाय हम आरोप-प्रत्यारोपों में उलझ रहे हैं। जमीन पर आम जनता व दुकानदारों को राहत देने की बजाय, राजनीति करने पर उतर आए हैं। कभी एसपी और मेयर टकरा रहे हैं, तो कभी कांग्रेस और भाजपा। कभी फूड पैकेट्स के वितरण में भेदभाव की आवाज बुलंद रही है तो कभी जनप्रतिनिधियों को नहीं गांठने का आक्रोष उबल रहा है।
इस गंभीर मसले का सबसे अहम पहलु ये है कि कफ्र्यू के बाद भी अंदर ही अंदर पक रहे कोरोना मवाद का हमें पता ही नहीं लगा तो इसका मतलब साफ है कि कफ्र्यू पूरी तरह से निरर्थक हो गया। कफ्र्यू के दौरान हमें जो एक्ससाइज करनी थी, कहीं न कहीं वह हमने ठीक से की नहीं। एक भी मरीज सामने न आने पर केवल आत्मविमुग्ध हो कर चैन की बांसुरी बजाते रहे। बेशक... बेशक, कफ्र्यू के दौरान भी लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग की अवहेलना की, वह सोचनीय है, मगर साथ ही केवल उन लोगों को जाहिल ठहराना भी हमारी समझ की त्रुटि कहलाएगी, जो उन तंग गलियों में एक ही कमरे में चार से आठ की संख्या में रहने को मजबूर हैं।
गर हम ये कह कर खुद को बरी किए देते हैं कि हमने तो कफ्र्यू लगा दिया था, लोगों ने ही पालना नहीं की, तो इसका अर्थ ये है कि कफ्र्यू की मूल अवधरणा को समझने में हम चूक कर रहे हैं। अगर हम सभ्य कहलाने वाले लोग इतने ही अनुशासित नागरिक होते तो केवल लाउड स्पीकर पर घर से बाहर न निकलने की मुनादि करवाने से काम चल जाता। साथ में डंडे की फटकार की जरूरत ही क्या होती? अर्थात हमारी व्यवस्था उतनी चाक चौबंद नहीं थी, जितनी एसपी के सख्त चेहरे पर झलकती है।
अगर इस प्रकार मुस्लिम मोची मोहल्ला अचानक हॉट सेंटर बन कर सामने आया है तो 15 लाख लोगों की स्क्रीनिंग के दावे पर खुद ब खुद बड़ा सवालिया निशान लगता है। इलाके का एक मरीज अगर खुद अवतरित नहीं होता तो हम किसी बड़ी आपदा के मुहाने पर बैठ कर खैरियत मना रहे होते। इसी प्रकार रेलवे म्यूजियम शेल्टर होम में भी लापरवाही की चादर ओढ़े बैठे थे। सोशल डिस्टेंसिंग की कामयाबी अगर हम खुले रोड्स और बंद बाजारों में पसरे सन्नाटे को देख कर संतुष्ट हैं, तो हम पूरी तरह से गलत हैं। लॉक डाउन की कामयाबी का पैमाना बड़ी तादाद में वाहनों की जब्ती व चालान को ही मान लिया जाए तो वह भी एक भ्रम है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि पूरे उत्तर भारत में संपूर्ण साक्षर घोषित हुए अजमेर के 16 हजार से ज्यादा वाहन चालक आवारा की श्रेणी में दर्ज हो चुके हैं। उसकी अपनी अलग कहानी है। असल जरूरत शेल्टर होम में सोशल डिस्टेंसिंग की थी, जहां एक साथ डेढ़ सौ खानाबदोशों को ठहराया गया था। घटना स्थल का दौरा कर चुके मीडिया कर्मियों का कहना है कि कई दिन तक न नहाने के कारण वे बदबू मार रहे थे।
अजमेर के प्रति दिल में दर्द रख कर दिन-रात दौड़ रही सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती कीर्ति पाठक की फेसबुक पर की गई टिप्पणी काबिले गौर है कि अगर अजमेर को होट स्पॉट बनने के लिए कोई दोषी है, तो वो सिर्फ और सिर्फ हम नागरिक हैं। पुलिस कब तक एक ही दरवाजे के आगे गश्त लगाएगी? हम स्व अनुशासित जीवन नहीं जी रहे। मगर साथ ही स्वीकार करती हैं कि एक ही जगह से ये बीमारी इसी लिए परवान चढ़ रही है, क्योंकि यहां संकड़ी गालियां हैं, एक ही कमरे में कई-कई लोग रहते हैं और फिजिकल डिस्टेंसिंग नहीं हो पाती / नहीं रखते।
इस मंजर के ठीक उलट अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल का सार्वजनिक बयान भी सोचने को विवश करता है। संकट के वक्त प्रशासनिक तौर पर समस्या से निपटने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार जिला कलेक्टर पर हमला करते हुए पूरी समस्या के लिए उन्हें ही दोषी करार देना सहज है, कुछ लोग उसे दिलेरी की संज्ञा भी दे सकते हैं, आपकी भावना वाजिब भी हो सकती है, मगर ऐसा करके क्या हम अपने ही टीम लीडर का हौसला पस्त नहीं कर रहे। हो सकता है कि आपकी उनसे मतभिन्नता हो अथवा किसी निर्णय से असहमति हो, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि पूरा ठीकरा ही उन पर फोड़ दिया जाए। श्रीमती भदेल के आक्रामक रुख से यह साफ झलकता है कि प्रशासन व जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल का अभाव है। उसका नतीजा है कि सरकार की ओर से प्रभारी सचिव भवानी सिंह देथा को मध्यस्थता करनी पड़ी। तालमेल की बात चली तो यह कहते हुए भी अफसोस होता है कि तकरीबन 16-16 साल से लगातार विधायकी करने वाले जनप्रतिनिधि, दो बार मेयर रह चुके शख्स और एक-एक बार विधायक रह चुके नेताओं को इतना दरकिनार करना अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।
जनसहभागिता से खाने के पैकेट व सूखी खाद्य सामग्री बांटने के लिए मुक्तहस्त पास जारी किए जाने का दुरुपयोग भी विचारणीय है, मगर जरूरतमंद लोगों की मदद में उनके योगदान को अजमेर की सद्भावी संस्कृति के रूप में इतिहास में याद किया जाएगा। प्रशासन तो बहुत बाद में चेता, वरना लोग भूखे ही मर जाते।
एक जुट हो कर इस गंभीर समस्या से मुकाबला करने के वक्त कुछ अति समझदार बुद्धिजीवी कलेक्टर व एपी को भिड़ाने से नहीं चूक रहे। सोशल मीडिया पर इस किस्म की पोस्टें पसरी पड़ी हैं। यह साजिशन हो रहा है या अनायास पता नहीं, मगर धु्रवीकरण तो झलक ही रहा है। बतौर बानगी देखिए एक पोस्ट:- अजमेर को कप्तान साहेब ने बचाए रखा था। जिला कलेक्टर और अधिकारियों ने अपनी जिद्द के आगे किसी की नहीं सुनी। कोई सिंघम की जयजयकार कर रहा है तो कोई जिला कलेक्टर को निकम्मा साबित करने में जुटा है। बेशक हमें अभिव्यक्ति की आजादी है, मगर इसका अतिरेक ऐसा आभास देता है, मानो हमें सर्टिफिकेट जारी करने का लाइसेंस मिला हुआ है। सरकार को सब कुछ पता है कि कौन क्या कर रहा है, उसका भी अपना तंत्र है, मगर संकट के वक्त वह पहली प्राथमिकता समस्या से निपटने पर दे रही है। तभी तो चार आईएएस को सहयोग के लिए लगाया है, तभी तो उच्चाधिकारियों को दौरा कर समन्वय बैठाया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

मोदी को जैन ने जरूर बताए होंगे धरातल के हालात

अजमेर वासियों के लिए यह अत्यंत ही सुखद बात है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन के पुराने परिचित हैं। इसी कारण मोदी ने चला कर उनको फोन किया। यह कोई छोटी मोदी बात नहीं कि मोदी ने फोन करके जैन से कुशलक्षेम पूछी, लॉक डाउन के तहत किए गए इंतजामात का पता किया व अजमेर वासियों के हाल-चाल जाने।
जानकारी के अनुसार जैन ने मोदी को बताया कि एसपी कुंवर राष्ट्रदीप  ने लॉक डाउन की सख्ती से पालना करवाई है, जो कि सराहनीय है। अजमेर वासियों को उम्मीद है कि उन्होंने लॉक डाउन की सफलता के साथ धरातल पर आम लोगों को हो रही दिक्कतों से भी अवगत कराया होगा। सर्वविदित है कि जैन सदैव अजमेर के दु:ख-दर्द व विकास पर आवाज बुलंद करते रहते हैं। जैन केवल राजनीतिक नेता ही नहीं, बल्कि प्रमुख व्यापारी व सुपरिचित बुद्धिजीवी हैं,  ऐसे में यह उम्मीद वाजिब ही है कि उन्होंने व्यापारियों की समस्याओं का भी जिक्र किया होगा कि वे कितने परेशान हैं। कालाबाजारियों के प्रति प्रशासन के सख्त रवैये के बावजूद जम कर हो रही कालाबाजारी से भी अवगत कराया होगा। संभव है उन्होंने फूड पैकेट्स को लेकर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत सहित सभी पार्षदों के जिला प्रशासन से हुए टकराव की भी जानकारी दी होगी। मेयर गहलोत की ओर से कायड़ विश्राम स्थली को क्वारेंटाइन सेंटर बनाए जाने की मांग का भी जिक्र किया होगा। आशा है मोदी अजमेर के हालात जान कर धरातल के हालात सुधारने के निर्देश जारी करेंगे। यह एक संयोग है कि जैन की मोदीजी से बात हुई, उसके बाद ही मुुस्लिम मोची मोहल्ले में एक साथ पैंतीस-पैंतीस मरीज सामने आ गए, अन्यथा उन्हें यह भी मौका मिलता कि लगातार कफ्र्यू के बाद भी हालात बेकाबू कैसे हो गए, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

क्या बीमारियां यकायक कम हो गई हैं?

लॉक डाउन की वजह से अजमेर संभाग के सबसे बड़े अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय सहित अन्य सरकारी डिस्पेंसरियों में विभिन्न छोटी-मोदी बीमारियों के मरीजों की संख्या कम हो गई है। इससे ऐसा आभास होता है कि क्या कोराना की वजह से अन्य सामान्य या असामान्य बीमारियों का प्रकोप समाप्त प्राय: हो गया है। यह विषय सोचने को तो मजबूर करता ही ही है, आखिर वजह क्या है?
कहते हैं न, मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। जितनी खोपडिय़ां, उतने ही विचार। इस विषय पर भी लोगों के भिन्न मत हैं। एक बुद्धिजीवी ने इस स्थिति को कुछ इस प्रकार बयां किया है:-
क्या वाकई इंसान बार-बार बीमार होता है?
सभी अस्पतालों की बन्द हैं। आपातकालीन वार्ड में कोई भीड़ नहीं है। कोरोना के मरीजों के अलावा कोई नए मरीज नही आ रहे। सड़कों पर वाहन न होने से दुर्घटनाएं नहीं हैं। हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, ब्रेन हैमरेज के मामले अचानक बहुत कम हो गए हैं। अचानक ऐसा क्या हुआ है कि बीमारियों के केसेस में इतनी गिरावट आ गई? यहां तक कि श्मशान में आने वाले मृतकों की संख्या भी घट गई है। क्या कोरोना ने सभी अन्य रोगों को नियंत्रित या नष्ट कर दिया है? नहीं, बिल्कुल नहीं। दरअसल अब यह वास्तविकता सामने आ रही है कि जहां गंभीर रोग न हो, वहां पर भी डॉक्टर उसे जानबूझ कर गंभीर स्वरूप दे रहे थे। जब से भारत में कॉर्पोरेट हॉस्पिटल्स, टेस्टिंग लैब्स की बाढ़ आई, तभी से यह संकट गहराने लगा था। मामूली सर्दी, जुकाम और खांसी में भी हजारों रुपये के टैस्ट के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा था। छोटी सी तकलीफ में भी धड़ल्ले से ऑपरेशंस किये जा रहे थे। मरीजों को यूं ही आईसीयू में रखा जा रहा था। अब कोरोना आने के बाद यह सब अचानक कैसे बन्द हो गया? इसके अलावा एक और सकारात्मक बदलाव आया है। लॉक डाउन की वजह से रेस्टोरेंट व ठेले बंद हो गए हैं। केवल घर का ही खाना मिल रहा है। कदाचित इसका भी असर हो कि छोटी बीमारियां नहीं हो रहीं। यह पोस्ट सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है, लेकिन साथ ही रिपोर्ट भी हो रही है। मेडिकल से जुड़े लोगों को यह स्वाभाविक रूप से बुरी लगती होगी कि उनकी पोल खुल रही है या उनकी छवि खराब की जा रही है।
इस पोस्ट में मौलिक रूप से कुछ बातें तो सही हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। इस बारे में मैने एक मेडिकल स्टोर मालिक से बात की तो उन्होंने दो बातें बताईं। एक तो ये कि सिरदर्द, पेट दर्द, फोड़ा-फुंसी जैसे रोगों के मरीजों की संख्या कम हुई है। वजह ये कि घर से दुकान तक आने के फासले में पुलिस की स्क्रीनिंग से बचने के लिए लोग घर पर ही देसी इलाज कर रहे हैं। खासकर सर्दी-जुकाम-बुखार के मरीज अस्पताल जाने से ही घबरा रहे हैं और मेडिकल की दुकान से ही दवाई ले जा रहे हैं। दूसरा ये कि जो लोग पहले हर छोटी-मोटी बीमारी के लिए डॉक्टर के पास जा कर मेडिकल टेस्टिंग से गुजरते थे, वे उससे बचने के लिए मेडिकल की दुकानों से ही दवाई ले कर जा रहे हैं। जिन को कुछ गंभीर बीमारी आरंभ हुई है तो लॉक डाउन खुलने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि बाद में ठीक से इलाज करवाया जा सके।
एक डॉक्टर से पूछने पर उन्होंने बताया कि पहले हर छोटी-मोटी बीमारी का मरीज सीधे सरकारी अस्पताल या डिस्पेंसरी का रुख करता था, चूंकि उसे नि:शुल्क दवा योजना का लाभ मिल रहा था। अब अव्वल तो वह घर पर ही नुस्खे आजमा रहा है। ज्यादा तकलीफ है तो अस्पताल तक जाने की परेशानी व साधन के अभाव के कारण आसपास के ही किसी डॉक्टर से दवाई ले रहा है। इससे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बीमारियां कम हो गई हैं।  हां, उन्होंने यह आशंका जरूर जताई कि लॉक डाउन खुलने पर मानसिक अवसाद के बीमारों की संख्या बढ़ सकती है। जो लोग तंबाकू, गुटखा, सिगरेट, शराब आदि के आदी हैं, वे फिलहाल दुगुने-तिगुने दाम को भुगत  कर सीमित नशा कर रहे हैं, लेकिन नशे की सामग्री कम मिलने के कारण कुछ तो सुधर जाएंगे ओर कुछ अवसाद से ग्रस्त हो जाएंगे। उनमें कई विकृतियां उत्पन्न हो सकती हैं।
ये पंक्तियां लिखते समय एक लेखक की राय याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि सरकार को शराब की दुकानें खोलने पर विचार नहीं करना चाहिए। जब लोग 21 दिन लॉक डाउन के कारण बिना शराब पीये जी सकते हैं तो आगे भी जी ही लेंगे। जबकि धरातल का सच ये है कि पीने के आदी लोग कहीं न कहीं से महंगा जुगाड़ करके गला तर कर रहे हैं। पीना किसी ने बंद नहीं किया है। प्रसंगवश, मुझे यह हास्य करने का जी कर रहा है कि जब अस्पतालों के खुले बिना भी आदमी जी सकता है, तो क्यों न उनको बंद हीक कर दिया जाए।
रहा सवाल श्मशानों में अंत्येष्टि की संख्या कम होने का तो बात तो चौंकाने वाली है। शायद मरणासन्न लोग लॉक डाउन खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं। वैसे सामान्य रूप से मरने वालों की संख्या कम जरूर हुई है, मगर मरने वाले मर रहे हैं। पता इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि उठावने के विज्ञापन कम छप रहे हैं। लॉक डाउन के कारण उठावने किए ही नहीं जा रहे।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सख्त एसपी व गुस्सैल मेयर को सलाम

जरूरतमंदों को भोजन के पैकेट बांटने की व्यवस्था खत्म करने के विरोध में कलेक्ट्रेट पर पार्षदों के प्रदर्शन का फेसबुक लाइव चलने के कारण पूरा शहर इस घटना से सीधे जुड़ा हुआ था। लोग दिल थाम कर सारा नजारा देख रहे थे। खतरा बना हुआ था कि कहीं पार्षदों व पुलिस के बीच तनातनी बढ़ी तो पूरा शहर आंदोलित न हो जाए। इस बीच टीका-टिप्पणियां भी खूब हुईं। कोई एसपी कुंवर राष्ट्रदीप की सख्ती बरतने पर भूरि-भूरि तारीफ कर रहा था तो कोई जनता की खातिर सड़क पर आने के लिए मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व कांग्रेस-भाजपा पार्षदों पीठ थपथपा रहा था। बेशक लॉक डाउन के कारण घरों में कैद लोगों में पार्षदों द्वारा लोक डाउन का उल्लंघन करने के लिए आलोचना करने वालों की तादाद ज्यादा थी। यह तो अच्छा हुआ कि एसपी व मेयर ने चतुराई का परिचय दिया, दोनों पक्षों ने संयम बरता व गिरफ्तारी पर सहमति बन गई, वरना हालात बिगडऩे पर पूरे शहर को कफ्र्यू भी भुगतना पड़ सकता था।
घटना का पटाक्षेप होने के बाद भी परस्पर विरोधी टिप्पणियों का सिलसिला जारी रहा। एसपी के पक्ष में आई एक टिप्पणी आपकी नजर पेश है:-अनुशासन की अवेहलना, झुंड बना कर पहुंच गए यार, हद है, शर्मसार हुआ अजमेर, इन लोगों ने तो मर्यादा तोड़ी पर आप मर्यादा में रहे, नमन है। अजमेर सिंघम ने उतारा राजनीति का भूत, इस समय राजनीति नहीं करने दूंगा, सटीक जवाब। यह बिलकुल सही है कि पार्षदों के एक साथ एकजुट हो कर कलेक्ट्रेट पर पहुंचने से लॉक डाउन का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन हुआ।  गनीमत रही कि पार्षदों के समर्थक व दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता वहां नहीं पहुंचे, वरना स्थिति गंभीर हो सकती थी। सुपरिचित गर्म मिजाज के धर्मेन्द्र गहलोत व कड़क एसपी के आमने-सामने होने के कारण कभी भी कुछ भी हो सकता थ। गहलोत आखिरकार स्वर्गीय वीर कुमार के शिष्य रहे हैं। ऐसे मौके पर एसपी का यह कहना बिलकुल वाजिब था कि आप लोग एक-एक करके कलेक्टर से मिल सकते हैं, लेकिन इस तरह झुंड बना कर लॉक डाउन का उल्लंघन नहीं करने दूंगा। कानून सबके लिए बराबर है। उन्होंने सख्त रुख अपनाते हुए पार्षदों को जम कर लताड़ा और चेताया कि वे राजनीति नहीं करने देंगे, मगर साथ ही संयमित भी बने रहे। अचानक उनके मुंह से निकला कि आप सब का कृत्य ऐसा है कि आप गिरफ्तारी के पात्र हैं। इतना कहना था कि गहलोत ने चतुराई बररते हुए तत्क्षण गिरफ्तारी देने की बात कह दी। वे जानते थे कि कौन सा दस-बीस दिन की गिरफ्तारी होनी है। समझौता हुआ नहीं कि सभी बिना किसी मुकदमे के हाथों-हाथ छोड़ दिए जाएंगे। खैर, सभी को पुलिस के वाहन में बैठा कर सिविल लाइंस थाने ले जाया गया। बहसबाजी लंबी नहीं खिंची और तनातनी हॉट स्पॉट से सिविल लाइन थाने में शिफ्ट हो गई। मौके पर तुरंत शांति हो गई। गर एसपी ताव में आ कर बल प्रयोग कर बैठते अथवा गहलोत अपने मिजाज में आस्तीनें चढ़ा लेते तो स्थिति कुछ और ही होती।
सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि जैसे एसपी अपना कर्तव्य पालन कर रहे तो गहलोत व पार्षद भी कोई स्वार्थ की वजह से थोड़े ही लॉक डाउन तोड़ रहे थे। वे भी अपने जनप्रतिधित्व का कर्तव्य निभा रहे थे। वे जनता के हित की खातिर जमा हुए थे। लोकतंत्र में विरोध की गुंजाइश तो होती ही है। विचारणीय ये है कि अगर पार्षद कानून का उल्लंघन नहीं करते तो क्या जिला कलेक्टर उनकी मांग मानने को मजबूर होते? असल में हुआ यही कि जैसे ही गहलोत व सभी पार्षद पुलिस हिरासत में पहुंचे, पेच फंस गया। गिरफ्तारी कायम रखते तो जनता में आक्रोष फैल सकता था। ऐसे में जिला कलेक्टर पर जनप्रतिनिधियों का दबाव बढ़ गया। उन्होंने मौके की नजाकत को देखते हुए समझदारी का परिचय दिया व पार्षदों की मांग को स्वीकार कर लिया।
असल मुद्दा ये है कि जिला कलेक्टर का स्टैंड बिलकुल ठीक था। जब बीएलओ से सर्वे करवा कर जरूरतमंद परिवार चिन्हित करके उन्हें 15 दिन की सूखी राशन सामग्री पहुंचा दी गई तो भोजन के पैकेट वितरित की जरूरत ही नहीं रह गई। लेकिन पार्षदों का तर्क था कि बीएलओ ने ठीक सर्वे नहीं किया। सर्वे में उन्हें नजरअंदाज किया गया, जब कि जनता के प्रति वे सीधे जिम्मेदार हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से लोग भी हैं जो कि सर्वे के दायरे से बाहर रह गए। अगर उनको भोजन के पैकेट नहीं दिए जाएं तो वे भूखे रह सकते थे।
वस्तुत: प्रशासन इस बात से परेशान था कि पार्षदों के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं की ओर से फूड पैकेट के वितरण के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का उल्लंघन हो रहा था। फोटो व सेल्फी की वजह से भी माहौल बिगड़ रहा था। इसी के मद्देनजर उन्होंने फोटो व सेल्फी पर रोक लगा दी।
कुल जमा मामला जल्द ही सुलझ गया, जिसके लिए जनप्रतिनिधि व प्रशासन साधुवाद के पात्र हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 5 अप्रैल 2020

अजमेर में जैन संस्कृति का गौरवशाली इतिहास

महावीर जयंती पर विशेष
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली
अजमेर के इतिहास में झांक कर देखें तो यहां जैन संस्कृति का इतिहास गौरवशाली रहा है। चौहान काल में जैन आचार्य जिनदत सूरी, आयार्च धर्म घोष सूरी व पंडित गुणचंद्र की साधना स्थली होने का गौरव भी अजमेर को हासिल है। मुगल काल में भी जैनाचार्यों व भट्टारकों को विशेष सम्मान हासिल था।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार बारहवीं सदी में अजमेर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनके देहांत के बाद यहां दादाबाड़ी का निर्माण हुआ, जिसकी बहुत मान्यता है। इतिहास की पुस्तकों में ऐसी भी जानकारी है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां इन्दर कोट बनवाया, जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है। इतिहासविदों का मानना है कि पद्मसेन नामक एक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। उनके समय में अजमेर से खुंडियावास गांव तक 108 मंदिर थे। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि खुदाई के दौरान जो ईंट व स्तम्भ निकले हैं, वे जैन मंदिरों की वास्तुशिल्प से मेल खाते हैं। पद्मावती नगरी बड़ली, किशनपुरा, पुष्कर व नरवर तक फैली हुई थी।
यह सर्वविदित है कि 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ था, जिनकी छतरी आज भी मौजूद है। इसी साल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। तकरीबन 175 साल के बाद एक और पंच कल्याणक आयोजित किया गया। वीरम जी गोधा ने गोधा गवाड़ी में श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण भी कराया। बताया जाता है कि राजा अजयराज चौहान ने पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया था। क्रिश्चियन गंज इलाके में स्थित जैन आचार्यों की छतरियां छठी-सातवीं सदी की हैं। इतना ही नहीं अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) तक के कालखंड में अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के कई शस्त्रार्थ हुए। इस दौरान जैन विद्वानों ने कई नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित  हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई।
यह उल्लेखनीय जानकारी भी पुस्तकों में मौजूद है कि सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी थी। 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की स्मृति में स्तम्भ बनवाया। 1171 ईस्वी में विशाल पंच कल्याणक महोत्सव हुआ।
चौहान काल के बाद लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौरान सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध हुआ। अंग्रेजों के राज के दौरान पुन: जैन संस्कृति का अभ्युदय हुआ व जैन मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। आजादी के बाद निकटवर्ती नारेली गांव में ज्ञानोदय तीर्थ का निर्माण जैन संस्कृति के विकास में एक अहम कदम माना जाता है।
यहां प्रस्तुत है अजमेर के प्रमुख जैन धर्म स्थलों का विवरण, जो अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक से साभार लिया गया है:-
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली 
अजमेर शहर से दस किलोमीटर दूर किशनगढ़-ब्यावर बाईपास पर नारेली गांव के पास तीन सौ बीघा क्षेत्र में बने इस तीर्थ क्षेत्र की स्थापना तीस जून 1995 में जैन मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से की गई। मुनिश्री के सान्निध्य में सिंह द्वार का शिलान्यास 16सितंबर 2000 को किया गया। लाल पत्थर से बना यह द्वार 81 फीट ऊंचा है। तलहटी में बने जिनालय में भगवान ऋषभदेव की 21 फीट की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया। मुनिश्री सान्निध्य में 3 दिसंबर 1997 को त्रिमूर्ति का शिलान्यास किया गया। तीर्थ परिसर में भगवान शांतिनाथ, कुन्थनाथ व अरहनाथ की अष्टधातु की 11-11 फीट मूर्तियां हैं। भगवान बाहुबली की अष्टधातु की प्रतिमा भी स्थापित है। तीर्थ क्षेत्र में एक हजार आठ जिनबिम्ब विराजमान हैं। यहां आठ बड़ी प्रतिमाएं हैं। इसका शिलान्यास 31 जनवरी 1998 को किया गया। पहाड़ी पर भगवान शीतलनाथ, महावीर व आदिनाथ की अष्टधातु की प्रतिमाएं हैं। तीर्थ परिसर में दस दिसंबर 1995 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने गौशाला का उद्घाटन किया। इसी प्रकार 1 मार्च 1998को औषधालय का शिलान्यास किया गया। भोजनशाला का शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया, जिसमें एक साथ दो हजार व्यक्ति बैठ सकते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
महापूत जिनालय
सरावगी मोहल्ले के नुक्कड़ पर ही करौली के लाल पत्थर से बना तीन मंजिला मंदिर है। इसे महापूत जिनालय के अतिरिक्त सेठ साहब का मंदिर भी कहा जाता है। इसमें भट्टारक भवन कीर्तिजी ने सेठ मूलचंद सोनी के आर्थिक सहयोग से भगवान सुपाश्र्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। यदि मंदिर स्थापत्य कला का नायाब नमूना है।
त्रिकाल चौबीसी
गोधा गवाड़ी में स्थित यह मंदिर करीब तीन सौ साल पुराना है। इसमें चौबीसों तीर्थंकरों की 72 प्रतिमाएं हैं। ये सभी अष्टधातु की हैं। महावीर जयंती पर यहां विशेष आयोजन होता है।
मां पदमावती मंदिर
मां पदमावती का यह मंदिर पूरे भारत में एक ही है। यहां भगवान महावीर स्वामी की भी प्रतिमा है। महावीर जयंती के मौके पर भगवान महावीर का कलशाभिषेक कर विधान पढ़ा जाता है। इसके अतिरिक्त मोइनिया इस्लामिया स्कूल में वात्सल्य भोज के बाद जैन समाज के सभी बंधु आरती के लिए यहां आते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
गुफा मंदिर
यह सरावगी मोहल्ले में स्थित है। यहां 1995 में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। स्थापना के वक्त यहां भगवान आदिनाथ का कलाशाभिषेक भी हुआ था।
दादाबाड़ी
बीसलसर झील के किनारे कायम दादाबाड़ी श्वेताम्बर संप्रदाय के जैन संत जिनवल्लभ सूरी के शिष्य श्री जिनदत्त सूरी जी की स्मृति में बनी हुई है। उन्होंने अनेक राजपूतों को जैन धर्म की दीक्षा दी। श्री जिनदत्त दादा के नाम से जाने जाते थे, इसी कारण उनके समाधि स्थल को दादाबाड़ी के नाम से जाना जाता है। यहां भगवान श्री पाश्र्वनाथ का मंदिर भी है। मूर्ति पर विक्रम संवत 1535 (ईस्वी 1478) खुदा हुआ है। यहां आषाढ़ शुक्ला दशमी और एकादशी को दादा जी की स्मृति में मेला आयोजित किया जाता है। यहां बाहर से आने वाले यात्रियों के रहने की भी सुविधा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 26 मार्च 2020

आपदा के मुहाने पर खड़े हैं हम

बेशक हम अजमेरवासी काफी कुछ सुधरे हैं, चाहे पुलिसिया पिटाई के कारण या फिर कोरोना की भयावह खबरें सुन कर, मगर अब भी लापरवाही जारी है, जो नुकसानदेह साबित हो सकती है। गुुरुवार को पुलिस कप्तान ने एक वीडियो संदेश के जरिए सख्ती को जारी रखने का ऐलान कर दिया और सचेत किया कि अगर बहुत जरूरी हुआ तो कफ्र्यू भी लगाया जा सकता है।  अर्थात हम आपका के मुहाने पर खड़े हैं। आम आदमी को इस चेतावनी की गंभीरता से लेना चाहिए।
हकीकत ये है कि लॉक डाउन के पहले दो-तीन दिन तक लोगों को स्थिति की भयावहता का अंदाजा ही नहीं था। मनचले युवक कौतुहलवश शहर का माहौल देखने की चाह में इधर-उधर तफरीह कर रहे थे। बिना अत्यावश्क छोटे-मोटे काम से लोग घरों से बाहर निकल रहे थे। नतीजतन पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाना पड़ा। कुछ सयानों ने पुलिस की पीठ थपथपाई। पिटने वालों को नसीहत देते हुए सोशल मीडिया पर जुमलेबाजी तक होने लगी। यथा ठुकेगा, तभी सुधरेगा अजमेर। दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल को आगाह करना पड़ा कि अगर हमने लापरवाही बरती तो प्रशासन के कदम कफ्र्यू की ओर बढ़ सकते हैं। वह हालात पर सटीक टिप्पणी थी। उसका असर ये हुआ कि लोगों की समझदानी में यह बात बैठी कि लॉक डाउन हमारे ही हित में है।
वस्तुत: हुआ ये कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकट समय में स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस वालों की हौसला अफजाई के लिए शाम पांच बजे अपने-अपने घरों की छतों व बालकॉलियों पर खड़े हो कर थाली, ताली व घंटियां बजाने की अपील की, उसका असर ये हुआ कि जश्न का सा माहौल उत्पन्न हो गया। अंध भक्ति में लोगों ने महान भारतीय संस्कृति के हवाले से इसे ये समझ लिया कि ऐसा करने से कोरोना भाग जाएगा। इसे हवा दी जिम्मेदार ओहदेदारों ने। बेशर्मी की इंतेहा तो तब हो गई, जब लोगों ने कई मोहल्लों में इक_े हो कर थालियां बजाई। जिस सोशल डिस्टेंसिंग की सर्वाधिक जरूरत थी, उसी के साथ खिलवाड़ कर दिया गया। उत्साह से साफ दिख रहा था कि लोगों को कोरोना से तो कोई मतलब ही नहीं था, वे तो मोदी के प्रति भक्ति का इजहार कर रहे थे। जनता कफ्र्यू के दिन हुए इस आयोजन की सफलता पर सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी आई कि थाली व ताली बजाने से कोरोना भागे या न भागे, मगर यह पक्का है कि अगली बार फिर मोदी ही आएंगे।
ऐसे माहौल का परिणाम ये हुआ कि दूसरे ही दिन जब लॉक डाउन शुरू हुआ तो लोग अति उत्साह में घरों से ऐसे निकल पड़े, मानो थाली बजा कर वे कोरोना को खदेड़ चुके हैं। जंग जीत चुके हैं। ड्यूटी पर तैनात पुलिस भौंचक्की रह गई। अति उत्साह में उसने भी जम कर हाथ आजमाए। कई जगह बुरी तरह से पिटाई की सूचनाएं आईं। पुलिस कप्तान को पता लगा तो वे समझ गए कि मामला गड़बड़ है और उन्हें बाकयदा वॉइस मैसेज जारी करना पड़ा। पुलिस कर्मियों को समझाते हुए उन्होंने संयम बरतने की अपील की, साथ ही विस्तार से यह भी बताया कि हालात पर काबू पाने के लिए किस प्रकार नियमों की पालना करवानी है। सख्ती व संजीदगी के बीच संतुलन के इस नायाब संदेश का बड़ा भारी असर हुआ। एक ओर जहां पुलिस के प्रति विश्वास कायम हुआ, वहीं ये भी अक्ल आ गई कि फालतू में इधर-उधर नहीं घूमना है। लोग फिर भी नहीं माने तो वाहनों की सीजिंग व चालान काटने की बड़े पैमाने पर कार्यवाही करनी पड़ी। अब हालात काबू में हैं। लोग बहुत जरूरी होने पर बाहर निकल रहे हैं। सुबह ग्यारह बजे तक राशन, सब्जियां, दूध इत्यादि की दुकानें खुल रही हैं। मगर समस्या ये हो गई है कि समय की सीमितता के कारण दुकानों पर भीड़ उमड़ रही है। सोशल डिस्टेंसिंग की जरूरी सीख तार-तार हो रही है। यही सबसे खतरनाक स्थिति है। कोरोना से करार थोड़े ही हुआ है कि सुबह ग्यारह बजे तक वह हमला नहीं करेगा। पूरे दिन भले ही आप घर पर कैद रहें, मगर ये चंद घंटे बीमारी को आमंत्रण दे सकते हैं।
बेहतर ये है कि दुकानों पर पुलिस की ठीक से तैनाती हो और लोगों को दूर-दूर खड़े हो कर लाइन लगा कर सामान खरीदने की समझाइश की जाए। यह सही है कि प्रशासन कालाबाजारी रोकने की कोशिश करने बात कर रही है, मगर कालाबाजारी जम कर हो रही है। उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि माल की सप्लाई ठप होने के कारण होलसेल पर ही रेटें बढ़ गई हैं। चूंकि छोटे दुकानदार का सीधा वास्ता जनता से हो रहा है, इस कारण सारा गुस्सा उनके प्रति इकट्ठा हो रहा है। चंद दिनों में ही जो हालात हुए हैं, उसे देखते हुए यदि प्रशासन ने ठीक से व्यवस्था नहीं बनाई तो बहुत परेशानी पैदा हो सकती है। अभी तो लॉक डाउन के काफी दिन बाकी हैं। यह ब्लॉग लिखने के दौरान जानकारी आई है कि प्रशासन ने इस दिशा में कुछ कदम उठा लिए हैं।
संकट के इस समय में सिविल सोसायटी के लोग जिस प्रकार गरीबों को फूड पैकेट्स बांट रहे हैं, वह बेहद सराहनीय है, मगर उसमें सोशल डिस्टेंसिंग की ठीक से पालना न होने के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। अच्छा है कि  आप समाज सेवा कर रहे हैं, मगर कहीं ऐसा न हो कि आप मेवे के रूप में कोरोना को न बांट आएं।
ताजा अपडेट है कि प्रशासन ने मित्तल हॉस्पीटल सहित चार अस्पतालों का अधिग्रहण कर लिया है, ताकि आपात स्थिति में मरीजों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाई जा सके। इस निर्णय से आभास होता है कि प्रशासन हालात से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है।

इस लिंक पर क्लिक करके पुलिस कप्तान का वीडियों संदेश देख सकते है
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-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 14 मार्च 2020

ठीकरी के रूप में उपयोग किया जा रहा है लखावत का

मारवाड़ में एक कहावत है, जिसका अर्थ है कि कभी-कभी ठीकरी भी मटका फोड़ देती है। कमोबेश वरिष्ठ भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत का उपयोग भी ठीकरी के रूप में किया जा रहा है। हालांकि वोटों का जो गणित है, उसमें उनके जीतने की संभावना कम है, मगर फिर भी भाजपा ने राज्य में राजनीतिक हालात के मद्देनजर उनको राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करवा कर कांग्रेस में सेंध मारने का दाव खेला है। क्या पता ये दाव कामयाब हो जाए और ठीकरी के मटका फोडऩे वाली कहावत चरितार्थ हो जाए।
शुक्रवार को जैसे ही भाजपा ने जैसे ही राजेन्द्र गहलोत के अतिरिक्त औंकार सिंह लखावत का भी नामांकन दाखिल करवाया तो राजनीतिक आकाश में हलचल हो गई। हालांकि व्हिप के कारण क्रॉस वोटिंग की संभावना कम ही होती है, मगर राजनीति में कई संभावनाएं मौजूद रहती हैं, इसी के मद्देनजर भाजपा ये कदम यह सोच कर उठाया है कि वह कांग्रेस में तनिक असंतोष का फायदा उठा सकती है। वरिष्ठ पत्रकार ओम माथुर ने ताजा स्थिति पर सोशल मीडिया में यह पोस्ट डाल कर कि राजस्थान में राज्यसभा के लिए भाजपा के दो उम्मीदवारों का नामांकन और जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला की रिहाई की घोषणा एक ही दिन होना भाजपा का प्रयोग है या संयोग? सचिन पायलट को चुग्गा तो नहीं डाला गया है, एक कयास को जन्म दिया है।
वरिष्ठ पत्रकार एस पी मित्तल भी अपने ब्लॉग के जरिए कुछ ऐसी ही संभावना तलाश रहे हैं। वे लिखते हैं कि चूंकि केन्द्र सरकार का फारुख अब्दुल्ला परिवार के साथ तालमेल हो रहा है, इसलिए सचिन पायलट की भूमिका के बारे में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि अब्दुल्ला सचिन के ससुर हैं।
खैर, यदि 18 मार्च को नामांकन वापसी के आखिरी दिन लखावत का नाम वापस नहीं लिया जाता तो वोटिंग होगी और क्रॉस वोटिंग से बचने के लिए दोनों ही दलों को बाड़ा बंदी करनी ही होगी। लखावत एक प्रयोग के तहत मैदान में उतारे गए हैं, इसकी पुष्टि खुद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया के इस बयान से होती है कि हमने अपना यह उम्मीदवार इस उम्मीद के साथ उतारा है, क्योंकि कांग्रेस के अलावा दूसरे दल भी हैं जो इस सरकार के कामकाज से नाराज हैं। हम सरकार के खिलाफ असंतोष को आधार बनाकर आगे बढ़ेंगे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं की रेस जो विधानसभा चुनाव से पहले भी थी और आज भी बरकरार है। इसी के चलते जिस तरीके की फूट सरकार में है, वह सदन में और बाहर दिखाई देती है। सरकार कमजोर है, इसलिए बहुत लंबे समय तक चल नहीं सकती। सारी संभावनाएं जिंदा हैं।
राजस्थान में 200 विधायक हैं, ऐसे में जीत के लिए प्रथम वरीयता के 51 वोट चाहिए। कांग्रेस के पास खुद के 106 वोट हैं और 13 निर्दलियों एवं 2 बीटीपी व 2 सीपीएम के विधायकों के साथ है। भाजपा के पास खुद के 72 तथा आरएलपी के 3 विधायक हैं। यदि केवल तीन ही प्रत्याशी मैदान में होते तो चुनाव की जरूरत ही नहीं होती, मगर लखावत की मौजूदगी के बाद वोटिंग अनिवार्य हो जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
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मंगलवार, 10 मार्च 2020

क्यों नहीं हुआ फाल्गुन महोत्सव?

कई वर्षों से हर साल आयोजित होने वाला फाल्गुन महोत्सव इस बार क्यों नहीं हो पाया? आज हर एक की जुबान पर यह सवाल है, मगर जवाब किसी के पास नहीं है। हर जागरूक नागरिक, अधिकारी, व्यापारी, राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार एक दूसरे से यह पता कर रहा है कि आखिर क्या वजह रही कि शहर का मात्र ऐसा शानदार कार्यक्रम, जो शहर की धड़कन था, जिसमें किसी न किसी रूप में सभी वर्गों की भागीदारी थी, जिसकी प्रसिद्धि अन्य शहरों तक फैल चुकी थी, वह बिना किसी चर्चा के गुपचुप ही विलुप्त कैसे हो गया?
असल में यह कार्यक्रम पत्रकारों की पहल पर होता रहा। इसमें राजनीतिक लोग, कलाकार सहित अन्य वर्गों के लोग सक्रिय सहभागिता निभाते थे। नगर निगम, अजमेर विकास प्राधिकरण, अजमेर डेयरी आदि प्रायोजक की भूमिका के लिए तत्पर रहते थे। आम लोग या तो दर्शक के रूप में मौजूद रह कर आनंद उठाते थे, या फिर अखबारों या फेसबुक पर फोटो व वीडियो युक्त कवरेज देख कर अपडेट हो जाते थे।
बेशक हर बार छोटे-मोटे मतभेद होते रहे, जो कि किसी भी समूह में स्वाभाविक भी है, मगर चूंकि आपस में मनमुटाव नहीं है, इस कारण यह दिलकश जलसा हर बार पहले से अधिक रोचकता लिए हुए आयोजित होता रहा। आम लोगों को पता नहीं, मगर इस आयोजन ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। हर बार कार्यक्रम की समीक्षा भी होती रही, ताकि गलतियों से सबक लिया जाए और आगे पहले से बेहतर व सुव्यवस्थित आयोजन हो।  इस बार ऐसा क्या हुआ कि अनौपचारिक आयोजन समिति की एक भी औपचारिक या अनौपचारिक बैठक नहीं हुई? आपस में जरूर एक दूसरे से पूछते रहे, मगर सामूहिक चर्चा कहीं भी नहीं हो पाई। शहर की इस बेहतरीन सांस्कृतिक परंपरा का यूं यकायक नदारद हो जाना बहुत ही पीड़ा दायक है।
मुझे याद आता है आयोजन को लेकर हर बार होने वाली छोटी-मोटी परेशानी के मद्देनजर एक बार दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने दूरदर्शितापूर्ण प्रस्ताव रखा था कि फाल्गुन महोत्सव समिति का रजिस्ट्रेशन करवा लिया जाए, लेकिन कुछ सदस्यों ने इसका यह कह कर विरोध कर दिया कि इसकी जरूरत नहीं है। बिना विधिवत पंजीकृत संस्था के भी इतने साल से सफल आयोजन हो ही रहा है। उनका एक तर्क ये भी था कि इससे संस्था के भीतर राजनीति पैदा हो जाएगी, जिसमें थोड़ा दम भी था। हुआ ये कि जो सदस्य डॉ. अग्रवाल के सुझाव से सहमत थे, वे चुप ही बैठे रहे, उन्होंने कोई दबाव नहीं बनाया, नतीजतन प्रस्ताव आया-गया हो गया। काश, संस्था का रजिस्ट्रेशन हो जाता तो आज जो नौबत आई है, वह नहीं आती। संस्था के किन्हीं एक-दो पदाधिकारियों की रुचि न भी होती तो भी अन्य सदस्य एकजुट हो कर कार्यक्रम की अनिवार्यता के लिए माहौल बना सकते थे। कम से कम निर्वाचित कार्यकारिणी पर तो जिम्मेदारी होती ही, मगर आज स्थिति ये है कि आयोजन न होने को लेकर न तो कोई जिम्मेदार है और न ही कोई जवाबदेह। आयोजन से जुड़े हर सदस्य ने आपसी चर्चा में कार्यक्रम किसी भी सूरत में करने की बात तो कही, मगर पहल किसी ने नहीं की। इसी अराजक स्थिति का परिणाम ये है कि शहर उल्लास के सामूहिक उत्सव से वंचित रह गया।
चूंकि आयोजन करने वालों में पहली पंक्ति में पत्रकार साथी हुआ करते हैं, इस कारण चाहे अनचाहे ये संदेश जा रहा है कि उनमें कोई मतभेद रहे होंगे, जबकि ऐसा है नहीं। सभी पत्रकार साथियों की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे शहर की सांस्कृतिक धारा को अनवरत बहने का मार्ग प्रशस्त करें।
उम्मीद है कि समिति, जिसे फिलहाल समूह कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा, के बेताज कर्ताधर्ता गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, ताकि अगले साल वर्षों पुरानी परंपरा को फिर से जीवित किया जा सके।
-तेजवानी गिरधर
7742067000