मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

अजमेर लेखिका मंच : एक अनूठी पहल

अजमेर में यूं तो कई स्थापित पुरुष साहित्यकार मौजूद हैं, मगर उनमें नई पीढ़ी के लेखक पिछले बीस साल में कम ही उभर पाए हैं। ऐसे में लेखिकाओं का मंच बनना अपने आप में एक अनूठी पहल है। यह मंच न केवल लेखिकाओं को जोडऩे का काम कर रहा है, अपितु लेखन के अतिरिक्त समसामयिक विषयों व घटनाओं में भी सक्रिय रह कर अपनी आवाज बुलंद कर रहा है।
हाल ही मंच ने अजयमेरु प्रेस क्लब में शहादत को सलाम कार्यक्रम आयोजित किया। इसमें स्थापित व नवोदित लेखिकाओं ने बेहतरीन प्रस्तुतियां दीं। इस कार्यक्रम में मुझे भी शिरकत करने का सुअवसर मिला। मैं यह देख कर चकित रह गया कि अजमेर इतनी संख्या में लेखिकाएं मौजूद हैं और बहुत उम्दा लिख रही हैं। मेरा उनको यही सुझाव रहा कि मंच का अपना मुखपत्र होना चाहिए, ताकि नई लेखिकाओं को प्रोत्साहित किया जा सके। इसके अतिरिक्त एक सुझाव ये भी दिया कि सभी लेखिकाएं अपना-अपना ब्लॉग बनाएं ताकि न केवल उनकी रचनाएं एक जगह संग्रिहित हों, अपितु सोशल मीडिया के माध्यम तक उनकी आवाज देश-विदेश तक पहुंच सके।
मंच की संयोजिका मधु खंडेलवाल ने बताया कि मंच से अब तकरीबन 42 लेखिकाएं जुड़ चुकी हैं, जिनमें प्रमुख रूप से कविता अग्रवाल, अरुणा माथुर, डॉक्टर चेतना उपाध्याय, डॉ. राशिका महर्षि, अनीता खुराना, रेनू दत्ता, रंजना माथुर, काजल खत्री, पल्लवी वैद्य, डॉ विनीता जैन, सोनू सिंघल, हेमलता शर्मा, विनीता बाड़मेरा, डॉक्टर छाया शर्मा, ध्वनि मिश्रा, संगीता रेहानी, डॉ सुनीता सियाल, डॉ सुनीता तंवर, सीमा शर्मा, अर्पिता भारद्वाज, गीता चौधरी आदि हैं। इनमें से डॉ. राशिका महर्षि सांगठनिक लिहाज से सर्वाधिक सक्रिय हैं। वे मीडिया जगत में सुपरिचित नाम है। वर्तमान में मीडिया फोरम की महासचिव और अजयमेरू प्रेस क्लब की कार्यकारिणी सदस्य हैं।
तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

शहर भाजपा में अहम किरदार निभाएंगे सोमरत्न आर्य

जानकारों का मानना है कि राजनीति में वही लंबा चलता है, जो कि ठंडा दिमाग रखता है। उग्र स्वभाव वाले कभी ऊंचाई हासिल भी कर लेते हैं, मगर उनकी यात्रा लंबी नहीं होती। अब अजमेर नगर परिषद के पूर्व उप सभापति सोमरत्न आर्य को ही देखिए। पिछले चुनाव में वे पार्षद का चुनाव हार गए। हार क्या गए, हरा दिए गए। अपनों के ही द्वारा। मगर वे शांत रहे। चलते रहे। चलते रहे। ठंडे दिमाग से वक्त का इंतजार करते रहे। और यही वजह है कि सब्र का फल मीठा होता है वाली कहावत को चरितार्थ करके दिखा दिया। अब उन्हें शहर जिला भाजपा की ओर से 24 फरवरी को जवाहर रंगमंच पर होने वाले प्रबुद्ध नागरिक सम्मेलन का संयोजक बना दिया गया है।
जानकारी तो यह तक है कि जैसे ही शहर भाजपा अध्यक्ष शिव शंकर हेडा कार्यकारिणी बनाएंगे, उनका अहम स्थान होगा। अब भी वे अहम भूमिका ही निभा रहे हैं। यदि ये कहा जाए कि अध्यक्ष भले ही हेडा जी हों, मगर उनकी सारी व्यवस्थाओं को एक्जीक्यूट करने में उनकी ही अहम भूमिका रहने वाली है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यानि कि हेडा जी के हनुमान।
वस्तुत: आर्य की खासियत ये है कि वे आम तौर पर स्थानीय भाजपा की तीखी गुटबाजी से दूर रहते हैं। कदाचित किसी गुट में शामिल हों भी तो भी विरोधी गुट के लोगों से मधुर संबंध बनाए रखते हैं। पार्टी में भी वे हार्ड लाइनर नहीं हैं और सदैव कूल व क्रिएटिव रहते हैं। कांग्रेसियों से भी दोस्ताना रखते हैं। यही वजह है कि उनका कोई जातीय आधार नहीं होने पर भी पार्षद का चुनाव जीते और उपसभापति भी बने। शायद ही कोई ऐसा भाजपा नेता हो, जिसके वे करीबी नहीं रहे। 
उनकी एक और खासियत है। वे केवल राजनीति में ही सक्रिय नहीं हैं, अपितु अनेकानेक सामाजिक व स्वयंसेवी संगठनों में महत्वपूर्ण पदों पर हैं। सांस्कृतिक गतिविधियां हों, साहित्यिक कार्यक्रम हों या खेल आयोजन, रेड क्रॉस सोसायटी हो या वृद्धाश्रम, पत्रकार क्लब हो या फागुन महोत्सव, रक्तदान कार्यक्रम हो या कोई ओर सेवा कार्य, हर एक में अग्रणी रहते हैं। इस कारण हर तबके में उनकी घुसपैठ है। सत्ता में हों या विपक्ष में, प्रशासन से भी तालमेल बनाए रखते हैं। इन बहुआयामीय गतिविधियों की वजह से ही राजनीति में भी अहम स्थान बनाए हुए हैं। पिछले चुनाव में पार्षद का चुनाव हारने के बाद लोगों का यही लगा कि कम से कम राजनीति में तो उनका अवसान हो गया, मगर वे धीमे-धीमे चलते रहे। उसी का परिणाम है कि आज एक बार फिर वे की रोल में आ गए हैं। समझा जाता है कि भाजपा की नई कार्यकारिणी एक नए रूप में आने वाली है, जिसमें सभी उपेक्षितों को स्थान मिलने वाला है। इस में भी वे ही रोल प्ले करने वाले हैं।
लगे हाथ हेड़ा जी की भी बात कर लें। हेडा जी भी कूल माइंडेड होने के कारण इतना लंबा चले हैं। कभी संघ की कमान संभाली तो कभी एडीए के चेयरमैन रहे। शहर भाजपा का भार तो दुबारा संभाल रहे हैं। हालांकि पिछली बार वे पूरी तरह से अजमेर शहर के दोनों भाजपा विधायकों से दबे हुए थे। इसी कारण नगर परिषद चुनाव में उनकी एक नहीं चली। मगर उन्होंने कभी आक्रामक रुख नहीं अपनाया। निर्विवाद रहने के कारण एडीए के चेयरमैन पद तक पहुंचे। भाजपा की सरकार चली गई तो विपक्ष में सबको साथ लेकर चलने वाले हेडा जी को फिर मौका मिल गया। उम्मीद ये की जा रही है कि इस बार वे दोनों विधायकों की दबाव की राजनीति से उबर जाएंगे। मगर सवाल सिर्फ ये कि विपक्ष में आक्रामक रहने की जरूरत होती है, और हेडा व आर्य दोनों ठंडे दिमाग के हैं तो पार्टी की धार कमजोर नहीं रह जाए।
तेजवानी गिरधर
7742067000

लोकसभा चुनाव के लिए नित नए दावेदार सामने आ रहे हैं

आगामी लोकसभा चुनाव की चर्चा शुरू होने के साथ पहले से सुपरिचित दावेदार तो सामने आए ही थे, मगर दोनों ही पार्टियों में छायी चुप्पी के बीच कुछ और दावेदार भी उभर कर आ रहे हैं। ये वाकई दावेदार हैं या अपनी दावेदारी सोशल मीडिया के जरिए उछाल रहे हैं, इस बारे में कुछ कहना संभव नहीं, मगर इतना तय है कि ये दावेदार आमतौर पर चर्चित नहीं हैं। हो सकता है कि कुछ वाकई जमीन पर पकड़ रखते हों या फिर ऊपर तक पहुंच रखते हों, मगर संभावना इस बात की भी है कि वे लोकसभा चुनाव के बहाने चर्चा में आना चाहते हैं, भले ही टिकट न मिले।
जितने भी दावेदार हैं, वे कोई न कोई जातीय आधार लेकर चल रहे हैं। चूंकि यह सीट जाट बहुल है, इस कारण दोनों ही दलों में जाट दावेदार अधिक उम्मीद में हैं। जैसे कांग्रेस में अजमेर डेयरी चेयरमेन रामचंद्र चौधरी। वे विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस में लौटे, तो यही एजेंडा था कि लोकसभा चुनाव में दावेदारी करेंगे। उन्होंने विशेष रूप से मसूदा में कांग्रेस के राकेश पारीक को जितवाने में अहम भूमिका निभाई। वे कांग्रेस के लगभग हर कार्यक्रम में शिरकत भी कर रहे हैं। इसी प्रकार पूर्व जिला प्रमुख रामस्वरूप चौधरी भी लाइन में हैं। एक दावेदार पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया हो सकते थे, मगर पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने बगावत कर अपनी दावेदारी खत्म कर ली। अब लगता नहीं कि ऐन चुनाव से पहले उन्हें कांग्रेस में शामिल करने के साथ टिकट भी दे दिया जाएगा।
भाजपा में जाट दावेदारों के तौर पर पूर्व जिला प्रमुख सरिता गैना, पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी का नाम चल रहा है। पिछली बार लोकसभा उपचुनाव में हारे रामस्वरूप लांबा विधानसभा चुनाव में नसीराबाद से जीत कर अपनी मंजिल हासिल कर ही चुके हैं। इस बीच कम चर्चित, मगर प्रभावशाली दीपक भाकर ने जिस प्रकार अपना प्रचार शुरू किया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने टिकट का जुगाड़ बैठा लिया है।
इस बीच एक और दावेदार का नाम सोशल मीडिया पर चल रहा है। वो हैं मालपुरा टोडारायसिंह के विधायक कन्हैयालाल चौधरी। बताया जा रहा है कि उन्होंने ग्राउंड सर्वे में अपना नाम जुड़वा लिया है। उन्होंने लोकसभा उपचुनाव में दूदू-फागी के प्रभारी के रूप में भाजपा का जम कर प्रचार किया था। दावा ये किया जा रहा है कि चूंकि अजमेर सीमा मालपुरा टोड़ा सीमा से जुड़ी हुई है, इस कारण  मालपुरा टोडारायसिंह क्षेत्र में कराए विकास कार्यों की गूंज पड़ोसी क्षेत्र होने के नाते अजमेर लोकसभा क्षेत्रवासियों तक भी गयी है।
करीब सवा लाख राजपूत वोटों के दम पर कांग्रेस में अजमेर उत्तर से विधानसभा चुनाव लड़ चुके महेन्द्र सिंह रलावता, केकड़ी के पूर्व प्रधान भूपेन्द्र सिंह शक्तावत, देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष भूपेन्द्र सिंह राठौड़ आदि दावेदारी कर रहे हैं। एक नाम और नाम सामने आया है। वो केकड़ी ब्लॉक कांग्रेस के अध्यक्ष शैलेन्द्र सिंह शक्तावत का। उनका नाम पिछले दिनों एक बड़े दैनिक ने तीन प्रबल दावेदारों में शुमार किया था। बताया जाता है कि शक्तावत अजमेर के पूर्व सांसद व राज्य के चिकित्सा मंत्री डॉ. रघु शर्मा के करीबी हैं। कहते हैं कि शर्मा के विधानसभा चुनाव न लडऩे की सूरत में शैलेन्द्र सिंह शक्तावत का नाम प्रबल दावेदार के रूप में सामने आया था।
उधर भाजपा में युवा नेता भंवर सिंह पलाड़ा ने भी टिकट हासिल करने के लिए पूरी ताकत झोंक रखी है।
बात अगर वैश्यों की करें तो भाजपा में हाल ही शहर भाजपा अध्यक्ष के पद पर पूर्व एडीए चेयरमैन पद पर शिवशंकर हेड़ा की ताजपोशी के साथ वैश्यों की दावेदारी कमजोर हुई है। इसी प्रकार अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत की दावेदारी भी लोकसभा चुनाव प्रभारी बनने के साथ समाप्त सी हो गई है। ज्ञातव्य है कि खुद हेड़ा के अतिरिक्त पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा व धर्मेश जैन भी दावेदारी कर रहे हैं। कांग्रेस में यूं तो एक मात्र प्रमुख नाम पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का है, मगर सुनने में आया है कि पूर्व सांसद व पूर्व विधायक विष्णु मोदी भी जाजम बिछा रहे हैं। आपको याद होगा कि जब पहली बार सचिन पायलट अजमेर आए थे, उससे ठीक पहले डॉ. बाहेती ही एकमात्र ऐसा नाम था, जिस पर शहर व देहात कांग्रेस एकमत थे।
गूजरों में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट की माताश्री रमा पायलट का नाम चल रहा है तो भाजपा की ओर से पूर्व मंत्री नाथूसिंह गुर्जर भी टिकट की उम्मीद लगाए बैठे हैं।
राजनीति में लगभग हाशिये पर चले गए प्रो. रासासिंह रावत, जो कि पांच बार अजमेर के सांसद रहे हैं, ने भी उम्मीद नहीं छोड़ी है।
भाजपा संगठन में आईटी के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आशीष चतुर्वेदी भी अजमेर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवारी की जंग में कूद पड़े हैं।
तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

गहलोत की दावेदारी को खत्म करने के संकेत

आगामी लोकसभा चुनाव के लिए हाल ही प्रदेश भाजपा के महामंत्री भजन लाल शर्मा की ओर से जारी एक आदेश से संकेत मिलते हैं कि भाजपा हाईकमान ने अजमेर मेयर धर्मेन्द्र गहलोत की अजमेर लोकसभा सीट के लिए हो रही दावेदारी को समाप्त किया जा रहा है। लोकसभा संयोजक, सह संयोजक व प्रभारी पदों के लिए जारी इस संशोधन आदेश में गहलोत को सह संयोजक बनाया गया है। इसी आदेश में संयोजक की जिम्मेदारी पुष्कर विधायक सुरेश रावत को दी गई है और एक अन्य संयोजक निवर्तमान शहर जिला भाजपा अध्यक्ष अरविंद यादव को सह संयोजक बनाया गया है।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों संगठन स्तर पर दावेदारियां पंजीबद्ध की गई तो गहलोत की दावेदारी प्रबल रूप से उभरी थी। हालांकि गहलोत का कोई बहुत सशक्त जातीय दावा नहीं है, लेकिन उनका व्यक्तित्व व कृतित्व उनके दावे को मजबूत बनाए हुए थे। अब जबकि उन्हें संगठन ने लोकसभा चुनाव में काम का जिम्मा दिया है, उससे प्रतीत होता है कि उन्हें साइड लाइन कर दिया गया है।
जहां तक अरविंद यादव का सवाल है तो वे हाल ही शहर जिला भाजपा अध्यक्ष के पद से निवृत्त किए गए थे, इस कारण उनका सम्मान रखने के लिए कहीं न कहीं एडजस्ट किए जाने थे। वैसे उन्हें जिस मौके पर हटाया गया, वह काफी अपमानजनक रहा। उनके अध्यक्ष रहते हुए भाजपा ने अजमेर शहर की दोनों सीटें विधानसभा चुनाव में जीतीं थीं, फिर भी पार्टी ने कड़ा कदम उठाया। हालांकि उन्हें एक साल पहले ही हटाया जाना था, मगर स्थानीय गुटबाजी के चलते तब निर्णय नहीं हो पाया और तब जा कर हटाया, जबकि उनके खाते में जीत दर्ज हो गई। असल में पार्टी की मजबूरी ये थी कि उसे वेश्यों को साधने के लिए अध्यक्ष पद किसी वेश्य को सौंपना था, उसी के तहत पूर्व एडीए चेयरमैन शिवशंकर हेडा को यह जिम्मेदारी दे दी गई। इसी के साथ वेश्यों की लोकसभा चुनाव में दावेदारी को ग्रहण लग गया है। अब खुद हेडा सहित पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन व युवा नेता सुभाष काबरा का दावा कमजोर हो गया है।
ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा इस जाट बहुल सीट पर किसी जाट पर ही दाव खेलना चाहती है। इसके तहत अब तक पूर्व किशनगढ़ विधायक भागीरथ चौधरी, पूर्व जिला प्रमुख सरिता गैना, किशनगढ़ में हाल हारे विकास चौधरी व डॉ. दीपक भाकर की दावेदारी चल रही है।
वैसे जानकारी ये है कि गुर्जरों के करीब डेढ़ लाख वोटों के आधार पर पूर्व मंत्री नाथूसिंह गुर्जर टिकट की जुगाड़ में हैं। उन्होंने अपने कुछ निकटस्थों के जरिए नाम चलाने की कोशिश की है।
तेजवानी गिरधर
७७४२०६७०००

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

भाजपा में होता है नेता को उसकी हैसियत दिखाने काम

लोकसभा चुनाव की तैयारियों के सिलसिले में गत चार फरवरी को संसदीय क्षेत्र के भाजपा कार्यकर्ताओं की बैठक के दौरान हुए एक वाकये ने एक बार फिर से यह साबित कर दिया है कि भाजपा में नेता की निजी कोई हैसियत नहीं होती। होती भी है तो उसे नकार दिया जाता है। असल में उसके पीछे सोच यही है कि नेता अपने आप में कुछ नहीं होता। जो कुछ होता है वह संगठन के दम पर होता है।
हुआ यूं कि जब पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी को मंच पर नहीं बैठाया तो उन्होंने अपनी आपत्ति दर्ज करवाई। उनका तर्क था कि वे तीन लोकसभा क्षेत्रों के प्रभारी हैं और अजमेर में चौथी बार विधानसभा का चुनाव जीते हैं। मगर हाल ही शहर जिला भाजपा के अध्यक्ष बने शिव शंकर हेडा ने उनके तर्क को यह कह कर नकार दिया कि हाईकमान के निर्देशों के तहत उन्हें मंच पर नहीं बैठाया जा सकता। इस बारे में कुछ लोगों का मानना है कि अगर देवनानी को मंच पर बैठाया जाता तो भी कोई पहाड़ नहीं टूटने वाला था, मगर हेडा ने प्रदेश के निर्देशों की आड़ में देवनानी को उनकी हैसियत दिखाने की कोशिश की। दोनों के बीच नाइत्तफाकी सर्वविदित ही है।
खैर, बात भाजपा की रवायत की। इस संगठन में किसी भी नेता की हैसियत संगठन ही तय करता है। लाल कृष्ण आडवाणी के इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। जिसने पूरी जिंदगी संगठन को सौंप दी और संगठन को फर्श से अर्श तक लाए, आज उसे हाशिये पर धकेल दिया गया है। ऐसा ही भूतपूर्व उपराष्ट्रपति व भूतपूर्व मुख्यमंत्री भैरोंसिंह शेखावत के साथ हुआ। कभी राजस्थान के एक ही सिंह कहलाने वाले शेखावत जब उपराष्ट्रपति पद से रिटायर हो कर राजस्थान लौटे तो उनकी जमीन खिसका दी गई। वसुंधरा का खौफ इतना था कि भाजपा नेता उनका औपचारिक स्वागत करते तक से कतराते थे। बात अगर स्थानीय स्तर की करें तो पांच बार सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत, पूर्व विधायक नवलराय बच्चानी, पूर्व विधायक हरीश झामनानी की आज क्या हालत है, किसी से छिपी नहीं है।

विष्णु मोदी होंगे कांग्रेस टिकट के प्रबल दावेदार?

कानाफूसी है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट के लिए पूर्व सांसद विष्णु मोदी कांग्रेस टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। यूं तो अजमेर  लोकसभा क्षेत्र जाट बहुल होने के कारण अजमेर डेयरी चेयरमैन रामचंद्र चौधरी की ही प्रबल दावेदारी मानी जा रही है, मगर वेश्य समाज को राजी करने के लिए मोदी पर भी विचार हो सकता है।
ज्ञातव्य है कि मोदी इससे पूर्व मसूदा से भाजपा के विधायक रह चुके हैं। वे चुनाव मैनेजमेंट में माहिर माने जाते हैं, अर्थात इतने सिद्धहस्त हैं कि हारी हुई बाजी भी जीतने का माद्दा रखते हैं। यद्यपि उन्होंने खुल कर दावेदारी नहीं की है, मगर राजनीति के गलियारे से आ रही हवाएं ये पैगाम ला रही हैं कि वे टिकट के लिए पूरी ताकत लगाने वाले हैं। यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि वे हाल ही संपन्न विधानसभा चुनाव में भी ब्यावर सीट के दावेदार माने जा रहे थे।

शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2019

देवनानी-अनिता को कैसे साधेंगे हेडा?

लोकसभा चुनाव के मद्देनजर शहर भाजपा अध्यक्ष बनाए गए पूर्व एडीए चेयरमैन शिवशंकर हेडा भले ही जातीय समीकरण को साधने में कामयाब हो जाएं, मगर यह सवाल हर भाजपाई के दिमाग में कौंध रहा है कि वे लगातार चार बार विधानसभा चुनाव जीते अजमेर उत्तर के प्रो. वासुदेव देवनानी व अजमेर दक्षिण की श्रीमती अनिता भदेल को कैसे साधेंगे? यह सवाल इस कारण मौजूं बन पड़ा है क्योंकि आम भाजपा कार्यकर्ता इस अनुभव से गुजर चुका है कि चाहे कोई भी तीसमारखां अध्यक्ष आ जाए, इन दोनों के प्रभाव को कम नहीं कर पाया है।
पहले बात जातीय समीकरण की। परंपरागत रूप से भाजपा मानसिकता के बहुसंख्यक सिंधियों पर देवनानी ने पकड़ बना रखी है। अनुसूचित जाति  का प्रतिनिधित्व अनिता भदेल कर रही हैं। रहा भाजपा विचारधारा के करीब रहने वाले वैश्य समुदाय तो उसे लामबंद रखने के लिए किसी वैश्य नेता को मजबूत रखना जरूरी है। इसी को ख्याल में रखते हुए ही तो हेडा को एडीए चेयरमैन बनाया गया था। अब सरकार रही नहीं, तो एक मात्र चारा यही बचा था कि उन्हें संगठन का मुखिया बना दिया जाए। लोकसभा चुनाव का टिकट देने का भी विकल्प है, मगर ऐसा प्रतीत होता है कि अब इसकी संभावना कम हो गई है।
बात अब भाजपा के अंदरूनी समीकरण की। दरअसल देवनानी व भदेल ने पिछले पंद्रह साल में दो बार सत्ता में रहते हुए अपनी-अपनी इतनी फैन फॉलोइंग खड़ी की है कि उसे साधना कत्तई नामुमकिन है। ये दोनों भाजपा के इतने बड़े क्षत्रप हो चुके हैं कि उन पर संगठन का जोर चलता ही नहीं। स्वाभाविक सी बात है कि इन दोनों ने जिन-जिन कार्यकर्ताओं के निजी काम किए हैं, वे उनके परम भक्त बन चुके हैं। इसके विपरीत हेड़ा के पास ऐसी कोई छड़ी नहीं थी, जिसका जादू वे कार्यकर्ताओं पर चला पाते। हां, एडीए चेयरमैन बनने के बाद जरूर उन्होंने जिन चंद कार्यकर्ताओं के निजी काम किए हैं, वे एक लॉबी की शक्ल अख्तियार कर सकते हैं। अर्थात अब भाजपा में दो की बजाय तीन लॉबियां हो सकती हैं, मगर तुलनात्मक रूप से हेड़ा की लॉबी कमजोर ही रहने वाली है। वैसे अंदर की बात ये है कि यदि हेडा को संगठन ठीक से चलाना है तो चतुराई बरतनी होगी। देवनानी से तो उनका छत्तीस का आंकड़ा सर्वविदित है। एडीए के कार्यों व विधायक कोष से हुए कामों के शिलान्यास या उद्घाटन को लेकर आए दिन खींचतान होती रही। यहां तक कि शिकायतें तत्कालीन स्वायत्त शासन राज्यमंत्री श्रीचंद कृपलानी तक भी गईं, मगर वे भी सुलह नहीं करवा पाए। असल में हेडा व देवनानी के बीच झगड़े की जड़ सिंधी-गैर सिंधीवाद रही है। विशेष रूप से एडीए चेयरमैन बनने के बाद भाजपा की गैर सिंधी लॉबी हेडा के इर्दगिर्द जमा होना शुरू हुई थी। उसने देवनानी का टिकट कटवाने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया, मगर न केवल देवनानी टिकट ले कर आए, अपितु जीत कर भी दिखा दिया। रहा सवाल अनिता भदेल का तो उनके साथ जरूर संबंधों में उतनी कड़वाहट नहीं है, जितनी कि देवनानी के साथ है। यानि कि देवनानी को बैलेंस करने के लिए उन्हें अनिता से हाथ मिलाना होगा। जाहिर तौर पर अनिता भी चाहेंगी कि देवनानी पर चैक लगाने के लिए हेडा का साथ दिया जाए। दोनों के हाथ किस हद मिलेंगे, यह भाजपा के भीष्म पितामह रहे औंकार सिंह लखावत की अनुमति पर निर्भर करेगा। वे अजमेर में भाजपाई राजनीति के चाणक्य रहे हैं। चाहे कितने भी नेता उनके रहते उभरे हों, मगर हर समस्या का आखिरी पड़ाव वे ही रहे हैं। इसका मतलब ये कि हेडा को लखावत को भी पटा कर चलना होगा। लखावत की पकड़ केवल अजमेर में ही नहीं है, जयपुर में भी उन ठीयों पर उनकी बैठक है, जहां से प्रदेशभर की कठपुतलियों के तार जुड़े होते हैं।
खैर, हेडा के लिए नई चुनौती है। हो सकता है कि अपने पिछले अध्यक्षीय कार्यकाल के अनुभव तथा एडीए की चेयरमैनी संभाल चुकने के बाद वे कुछ कुशल हुए हों। देखते हैं कि उम्र की ढ़लान पर वे उपचुनाव में ढ़ल चुकी भाजपा को कैसे थाम पाते हैं। विपक्ष में रहते हुए संगठन का काम करना आसान नहीं होता। आए दिन का खर्चा माथे आता है। वैसे, उसकी कोई परवाह नहीं। एडीए चेयरमैन रहते इतने तो मजबूत हुए ही होंगे। दफ्तर की जरूर दिक्कत है, तो उसके लिए कई लंगियां हैं इस शहर में।