
उन्होंने कहा कि जब वे नागौर में कलेक्टर था तो देखा कि जिले में शिक्षकों के वेतन पर ही 110 करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं। इतना पैसा मुझे दे दो तो ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड जैसी पढ़ाई करवा दूंगा।
इसी मौके पर अल्पसंख्यक मामलों के विभाग के प्रमुख सचिव सियाराम मीणा ने कहा कि हम 50 साल से शिक्षा की ही बात कर करते आ रहे हैं, लेकिन हुआ क्या? स्थिति सबके सामने है। शिक्षा निदेशक (माध्यमिक) वीणा प्रधान ने कहा कि शिक्षकों की अनुपस्थिति सबसे चिंता की बात है।
कुल मिला कर इस डिस्कशन से यह पूरी तरह से साफ हो चुका है कि हमारा स्कूली शिक्षा का ढ़ांचा पूरी तरह से सड़ चुका है। हो सकता है कि सरकारी स्कूलों के जाल के पक्ष में भी अनेक तर्क हों, मगर जितना पैसा इस पर खर्च हो रहा है, उसकी तुलना में परिणाम का प्रतिशत काफी कम है। और इसका सबसे बड़ा प्रमाण ये है कि सरकार स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाना पसंद करते हैं।
बहरहाल, डॉ. समित शर्मा के प्रस्ताव पर सरकार को गौर करना चाहिए। कम से कम एक बार उन्हें स्कूली शिक्षा सिस्टम को दुरुस्त करने का जिम्मा सौंप दिया जाना चाहिए। संभव है मुफ्त दवा योजना की तरह इस क्षेत्र में भी उनका फार्मूला कामयाब हो जाए। हालांकि ऐसा करना है कठिन क्योंकि पूरे राज्य में सबसे बड़ा सरकारी ढ़ांचा स्कूली शिक्षा का है, जिससे जुड़े शिक्षक संगठनों के माध्यम से सरकार पर हर वक्त दबाव बनाए रखते हैं। उनसे निपटना आसान काम नहीं है। आपको याद होगा कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री बरकतुल्ला खां उन्हीं की हाय हाय में हार्ट अटैक से शहीद हो गए थे। पिछली अशोक गहलोत सरकार बेहतरीन काम करने के बावजूद शिक्षकों व राज्य कर्मचारियों के कारण निपट गई थी। गहलोत दुबारा शिक्षकों को छेडऩे की हिम्मत दिखा पाएंगे, इसकी संभावना कम ही है, मगर उन्हें पहले प्रयोग के तौर पर सुधार करने के लिए डॉ. समित शर्मा को प्रोजेक्ट बनाने को कहना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर