रविवार, 29 दिसंबर 2013

हार पर कांग्रेस में पिछली बार तो कार्यवाही हुई थी

हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में शहर की दोनों सीटों पर कांग्रेस की पराजय की जिम्मेदारी न तो शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने ली है और न ही उन पर जिम्मेदारी आयद की गई है। असल में यह स्थिति इस कारण है कि कांग्रेस जहां जिले की सभी आठों सीटों पर हारी है, वहीं पूरे प्रदेश में भी मात्र 21 सीटों पर जीत हासिल कर पाई। ऐसे में कौन किसको दोषी ठहराए? खुद प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. चंद्रभान की तो जमानत ही जब्त हो गई। राजस्थान के इतिहास में कांग्रेस की इस हालत के लिए कोई पूर्व मुख्यमंत्री अशोक को जिम्मेदार मानता है तो कोई केन्द्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के प्रति आमजन में उपजे गुस्से को। कोई मोदी नामक सुनामी का नाम लेकर बचना चाहता है। ये सच भी है। चुनाव के दौरान स्थानीय स्तर पर भले ही भितरघात व असहयोग के कुछ मामले हों, मगर सच ये है कि हार की मोटी वजह कांग्रेस विरोध लहर थी, जिसके तले सारे समीकरण उलट-पुलट हो गए।
प्रसंगवश आपको बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में तत्कालीन शहर कांग्रेस अध्यक्ष जसराज जयपाल ने बाकायदा कार्यवाही की थी। उन्होंने  अजमेर पूर्वी ब्लॉक दो के अध्यक्ष अशोक ढ़लवाल व पश्चिमी ब्लॉक तीन के अध्यक्ष युवराज को निष्क्रियता का आरोप लगा कर हटा दिया। उनकी जगह पर क्रमश: आशा तूनवाल व पार्षद सुनील केन को ब्लॉक अध्यक्ष बनाया गया। इसी प्रकार पश्चिम ब्लॉक एक के अध्यक्ष विजय नागौरा और पूर्वी ब्लॉक तीन की अध्यक्ष लक्ष्मी नायक पर लगाम कसने के लिए क्रमश: शैलेन्द्र अग्रवाल व डॉ. जे.एम. बुंदेल को कार्यवाहक अध्यक्ष बना दिया गया। शहर अध्यक्ष ने पश्चिम ब्लॉक दो के अध्यक्ष महमूद मियां चिश्ती के इस्तीफा देने के कारण रिक्त पद पर विजय जैन को नियुक्त किया था।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार की कोई कार्यवाही तो नहीं होगी, मगर नया प्रदेश अध्यक्ष बनने पर पूरी टीम जरूर नए सिरे से गठित की जा सकती है। फिलहाल किसी को समझ में नहीं आ रहा कि आगामी लोकसभा में यहां कौन पार्टी की कमान संभालेगा।

दो धड़ों में बंटी हुई है आम आदमी पार्टी

बजरंगगढ स्थित शहीद स्मारक का नजारा
प्रख्यात समाजसेवी अन्ना हजारे के देशव्यापी आंदोलन के दौरान अन्नावादी दो धड़ों में बंटे हुए थे ही, अन्ना के प्रमुख सहयोगी अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में बनी आम आदमी पार्टी में भी धड़ेबाजी जारी है। दिल्ली में पार्टी की सरकार बनने पर खुशी जाहिर करने के लिए दो अलग-अलग कार्यक्रम होना इसका ताजा उदाहरण है। ज्ञातव्य है कि पार्टी की जिला संयोजक श्रीमती कीर्ति पाठक के नेतृत्व में बजरंगगढ़ स्थित शहीद स्मारक पर हवन किया गया और मिठाई बांट कर खुशी का इजहार किया गया, जिसमें दीपक गुप्ता, सुशील पाल, नील शर्मा, देवेंद्र सक्सेना, योगेश बालम, गिरीश मीणा, सरस्वती चौहान, रमा शर्मा, जयश्री शर्मा, गौरव व उमाशंकर चौहान, ओम स्वरूप माथुर, ललित खत्री, मुकेश और हरीश मौजूद थे। दूसरी ओर इंडिया मोटर सर्किल पर पार्टी कार्यकर्ताओं के एक गुट ने बधाई समारोह का आयोजन किया। इसमें राजेंद्र सिंह हीरा, मुबारक खान, सत्यनारायण भराडिया, केशवराम सिंघल, राजेश राजोरिया, नरेश बाली, भूपेंद्र सिंह सनोद, एडवोकेट जयबीर सिंह, मुकुल शेखावत, डॉ. ए. के. यादव, अक्षय शर्मा, धरूप पचोरी, नितिन, नाजिम हुसैन, गौरव, चंदू, हंसराज, प्रदीप, राहुल, अजय, रमेश आदि मौजूद थे।
इंडिया मोटर सर्किल पर हुए कार्यक्रम का चित्र
दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही आयोजनों में कहा गया कि पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयार है। श्रीमती पाठक ने कहा कि जिस प्रकार दिल्ली में जनता ने आम आदमी पार्टी में विश्वास जताया है, उसी प्रकार आने वाले लोकसभा चुनावों में लोगों का समर्थन मिलेगा। इसी प्रकार दूसरे गुट की विज्ञप्ति में कहा गया कि कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य अजमेर की जनता को ये बताना था कि आम आदमी पार्टी की राजनीतिक क्रांति की शुरुआत दिल्ली के बाद अब राजस्थान के अजमेर में भी हो चुकी है। दोनों ही स्थानों पर सदस्यता अभियान भी चलाया गया। मगर सवाल उठता है कि जो लोग आपस में ही बंटे हुए हैं, वे कौन सी क्रांति की उम्मीद लगाए बैठे हैं। बहरहाल, अपना तो ये कहना है कि स्थापित और कथित रूप से सत्ता की ही राजनीति करने वाली पार्टियों में गुटबाजी तो आम बात है, मगर केवल आम आदमी के लिए ही गठित नई नवेली आम आदमी पार्टी में भी वर्चस्व की लड़ाई चले तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है। और वह भी तब जबकि दिल्ली में सत्ता पर काबिज होने के बाद वह लोकसभा चुनाव में देशभर में हुंकार भरने की तैयारी कर रही हो। राजस्थान में तो सभी 25 सीटों पर चुनाव लडऩे का ऐलान पार्टी के प्रदेश संयोजक अशोक जैन ने कर रखा है। यानि कि अजमेर में भी पार्टी अपना प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतारेगी। और अगर यह गुटबाजी जारी रही तो उसका परफोरमेंस कैसा रहेगा, यह समझा जा सकता है।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2013

क्या पीसीसी चीफ बनने पर भी चुनाव लड़ेंगे सचिन पायलट?

इन दिनों अजमेर के लोगों, विशेष रूप से राजनीति में रुचि रखने वाले नागरिकों व कार्यकर्ताओं-नेताओं में यह सवाल चर्चा में है कि क्या अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद भी अजमेर से चुनाव लड़ेंगे? ज्ञातव्य है कि पिछले कुछ दिन से पायलट को विधानसभा चुनाव में बुरी तरह से पराजित कांग्रेस का पुनरुद्धार करने के लिए प्रदेश अध्यक्ष की जिम्मेदारी दिए जाने की चर्चा जोरों पर है। हालांकि प्रदेश अध्यक्ष पद के कुछ और दावेदारों के नाम भी आए, मगर अधिसंख्य समाचार पत्रों का अनुमान है कि सचिन को ही यह जिम्मेदारी दी जा रही है। ऐसे में यह सवाल भी स्वत: ही उठ रहा है कि ऐसे में क्या वे अजमेर से लोकसभा चुनाव भी लड़ेंगे? सवाल वाजिब भी है। आज कांग्रेस की जैसी स्थिति है, उसे संवारने और प्रदेश की पच्चीसों सीटों पर प्रत्याशियों का चयन और उनके लिए चुनावी रणनीति बनाना ही अपने आप में बहुत बड़ा टास्क है। किसी भी राजनीतिज्ञ के लिए इतने बड़े टास्क के साथ-साथ खुद की सीट पर भी पूरा ध्यान देना असंभव नहीं तो मुश्किल जरूर है। इसकी वजह ये भी है कि हाल ही हुए विधानसभा चुनाव में अजमेर संसदीय क्षेत्र की आठों सीटों पर कांग्रेस के हारने के बाद यहां से चुनाव लडऩा बेहद चुनौतीपूर्ण है। यदि आंकड़ों की बात करें तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व भाजपा को मिले वोटों में तकरीबन दो लाख का फासला है। उसे पाट कर जीत दर्ज करने के लिए कांग्रेस प्रत्याशी को एडी चोटी का जोर लगाना होगा। अन्य संभावित स्थानीय दावेदारों की तुलना में सचिन जैसी सेलिब्रिटी के लिए भले ही यह असंभव न हो, मगर दुष्कर जरूर है। यूं पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के पांच टर्म की तुलना में एक ही टर्म में अच्छा परफोरमेंस देना उनके पक्ष में जाता है और जनता भी मानती है कि  ठहरे हुए शहर व जिले को विकास की ओर उन्मुख किया है, मगर इतना तो तय है कि यहां से जीतने के लिए सचिन को पूरी ताकत लगानी होगी। विशेष रूप से इस वजह से भी कि यहां कांग्रेस संगठन की स्थिति ठीक नहीं है। विधानसभा चुनाव के दौरान भी मनमुटाव बढ़ा है। ऐसे में साथ ही प्रदेश कांग्रेस की जिम्मेदारी का निर्वहन करना कठिन ही है। वैसे भी उन्हें यदि प्रदेश की जिम्मेदारी दी जाती है तो स्वाभाविक रूप से उनसे ये उम्मीद की जाएगी कि वे लोकसभा चुनाव में पार्टी की स्थिति सुधारने के अतिरिक्त आगामी विधानसभा चुनाव तक पार्टी को फिर भाजपा की टक्कर में ला खड़ा करें। अगर वे ऐसा कर पाते हैं तो यह भी स्वाभाविक है कि वे ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे। प्रदेश के कुछ मसलों पर उनकी भी भागीदारी को देखते हुए राजनीतिक पंडित यह अनुमान पहले से लगाते रहे हैं कि उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए तैयार किया जा रहा है।
बहरहाल, अब ये तो कांग्रेस हाईकमान और खुद सचिन को ही निर्णय करना है कि एक साथ दो टास्क हाथ में लेते हैं या नहीं, मगर आम जन में तो यह चर्चा है ही क्या पीसीसी चीफ बनने पर वे अजमेर से चुनाव लड़ेंगे अथवा नहीं?

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

किस के इशारे पर मेयर को तंग कर रहे हैं सीईओ?

प्रदेश में भाजपा की सरकार आते ही अजमेर नगम निगम के मेयर कमल बाकोलिया के प्रति सीईओ हरफूल सिंह यादव के तेवर तीखे हो गए हैं। एक चुने हुए जनप्रतिनिधि को उसकी औकात दिखाने की इससे बड़ी मिसाल क्या होगी कि एक अधिकारी अपने मातहतों को सख्त भाषा में यह आदेश जारी किए कि कोई भी अधिकारी या बाबू मेयर को सीधे कोई फाइल न भेजे। आदेश में कहा गया है कि जानकारी मिली है कि शाखा प्रभारी उनकी जानकारी में लाए बिना ही फाइलें सीधी मेयर के पास भेज देते हैं। पूर्व में वर्ष 13 जनवरी 2001 को तत्कालीन सीईओ ने भी इसी आशय के आदेश जारी किए थे, इसके बावजूद पालना नहीं करना अनुशासनहीनता की श्रेणी में आता है। इतन ही नहीं यादव ने विभिन्न शाखाओं से जो फाइलें मेयर को भिजवाई गई हैं, उनकी सूची भी उनको प्रस्तुत करने को कहा है।
ज्ञातव्य है कि मेयर और सीईओ के बीच काफी समय से टकराव चल रहा है। विशेष रूप से सफाई कर्मियों की भर्ती के दौरान मतभेद खुलकर सामने आए थे। कांग्रेस शासनकाल में यह मनमुटाव दबा रहा, मगर जैसे ही भाजपा की सरकार आई, यादव के तेवर ही बदल गए हैं। इसी से सवाल उठता है कि क्या वे मौके का फायदा उठा कर अपने अधिकारों का सख्ती से इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर उनको किसी ने ऊपर से इशारा किया है कि मेयर को कब्जे में रखो।
जो कुछ भी हो, मेयर बाकोलिया का बाकी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं निकलता दिखाई दे रहा है। कदाचित इसमें उनकी ढि़लाई का भी दोष है। इस सिलसिले में याद आता है कांग्रेस शासनकाल में भाजपा की जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा का कार्यकाल, जिसमें जिला परिषद का सीईओ दुआ-सलाम करके ही रहता था। क्या मजाल कि वह ऊंची आवाज में बात करे अथवा इस प्रकार के आदेश जारी करे।

इसे पलाड़ा का दावा समझा जा सकता है

हाल ही आयोजित पंचायतीराज सशक्तिकरण सम्मेलन में जिस तरह का मंजर था और जैसी भाजपा के युवा नेता भंवर सिंह पलाड़ा की बॉडी लैंग्वेज थी, उसे पलाड़ा की ओर से आगामी लोकसभा चुनाव के लिए दावेदारी भी समझा जा सकता है।
असल में यह समारोह मूलत: निवर्तमान जिला प्रमुख व पलाड़ा की धर्मपत्नी श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के शानदार कार्यकाल के बाद ऐतिहासिक विदाई की शक्ल लिए हुए था, मगर जिस प्रकार पलाड़ा ने कहा कि अभी तो लोकसभा का फाइनल बाकी है, उससे वहां मौजूद सारे नेता व कार्यकर्ता समझ गए कि भाजपा के लिए खाली पड़ी लोकसभा सीट के लिए दावेदारी का आगाज हो गया है। वैसे भी श्रीमती किरण माहेश्वरी के हार कर जाने के बाद यह मैदान खाली ही है। स्थानीय नेताओं में दम था नहीं, इस कारण उन्हें भेजा गया था। बात रही पूर्व सांसद व मौजूदा शहर भाजपा अध्यक्ष रासासिंह रावत की तो, अजमेर संसदीय क्षेत्र से मगरा-ब्यावर का रावत बहुल इलाका परिसीमन के साथ हटा दिए जाने के बाद उनका दावा पहले ही कमजोर हो गया। हालंकि दावा वे अब भी कर सकते हैं, मगर वे आकर्षक चेहरा नहीं रहे और उनका कार्यकाल उपलब्धियों से शून्य होने के कारण संभव है भाजपा उन पर दाव न खेले। बात अगर पलाड़ा करें तो इस बात में कोई दोराय नहीं कि उन्होंने अपनी पत्नी के माध्यम से पूरे जिले में जिस प्रकार विकास कार्य करवाए, उनसे उनकी खूब वाहवाही हुई। यहां तक कि राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित हो कर परफोरमेंस पर ठप्पा भी लगवा लिया।
सम्मेलन की सफलता इसमें मौजूद छह भाजपा विधायकों और प्रमुख नेताओं के साथ भारी भीड़ से आंकी जा सकती है। इसमें संसदीय क्षेत्र में शामिल दूदू के कार्यकर्ता भी थे।
जहां तक सम्मेलन के औचित्य का सवाल है, उसे दैनिक भास्कर के चीफ रिपोर्टर सुरेश कासलीवाल ने कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है:-आने वाले हर व्यक्ति के मन में एक ही सवाल था, जिला प्रमुख सुशील कंवर पलाड़ा को मसूदा क्षेत्र से विधायक बने पंद्रह दिन हो गए हैं, ऐसे में अब पंचायतीराज सशक्तिकरण सम्मेलन आयोजित किए जाने का क्या औचित्य है? सम्मेलन में पंचायतीराज सशक्तिकरण के नाम पर कोई चर्चा भी नहीं हुई और न ही पंचायत राज के प्रतिनिधियों के अधिकार बढ़ाने या वेतन-भत्ते को लेकर ही कोई बात हो पाई। विधायकों ने इसे जिला प्रमुख की ऐतिहासिक विदाई का समारोह जरूर कहा।
यानि कि साफ है कि यह सम्मेलन श्रीमती पलाड़ा की विदाई के साथ ही स्वयं पलाड़ा की दावेदारी का आगाज करता नजर आया। रहा सवाल टिकट मिलने का तो टिकट कैसे लिया जाता है, इसका अंदाजा हाल ही मसूदा में पत्नी के लिए दमदारी से टिकट हासिल किए जाने से लगाया जा सकता है। इतना ही नहीं जिले में सर्वाधिक घमासान वाली सीट, जहां देहात जिला अध्यक्ष तक बागी हो कर खड़े हो गए, उसके बाद भी जिस प्रकार जीत हासिल की, उससे उन्होंने ये भी साबित कर दिया कि उनकी रणनीति कितनी कारगर है। यदि ये माना जाए कि केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट ही अजमेर से चुनाव लडऩे वाले हैं तो उनसे मुकाबले के लिए जैसी साधन संपन्नता चाहिए, वह उनमें है ही। उनके दावे में एक बड़ी बाधा सिर्फ ये आ सकती है कि इस बार किसी जाट नेता का दावा कुछ ज्यादा मजबूत होगा, क्योंकि जाटों की तादात काफी है। यह बात दीगर है कि जाटों में सर्वाधिक दमदार नसीराबाद से जीते मौजूदा जलदाय मंत्री प्रो. सांवर लाल जाट ही हैं, जो कि इस चुनाव में कोई रुचि नहीं लेंगे। उनके जैसा जाना-पहचाना दूसरा जाट चेहरा फिलहाल नजर नहीं आता। जो कुछ भी हो, पलाड़ा ने एक तरह से अपना दावा तो ठोक ही दिया है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 22 दिसंबर 2013

ब्यावर नगर परिषद सभापति ने चहेते पत्रकारों को बांटी रेवडिय़ां

अंधा बांटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को देय। यह कहावत अजमेर जिले की ब्यावर नगर परिषद के सभापति डॉ. मुकेश मौर्य पर सटीक साबित होती है। अपने चहेतों को उपकृत करने के लिए सभापति हमेशा सुर्खियों में रहते हैं। कुछ समय पूर्व सफाई कर्मचारी भर्ती मामला और अवैध कॉम्पलैक्स निर्माण विवादों में रहा था। इस बार तो सभापति ने सारी हदें पार कर दीं। अपना उल्लू साधने के लिए पार्षदों को लड़ाने में माहिर सभापति ने अब पत्रकारों में फूट डाल दी।
कांग्रेस राज में जमकर कथित भ्रष्टाचार करने वाले ब्यावर नगर परिषद सभापति मुकेश मौर्य भाजपा राज आते ही सकते में आ गए हैं। सत्ता बदलते ही भाजपा पार्षदों ने भी भ्रष्टाचार की पोल खोलना शुरू कर दिया है। सभापति की शिकायतें स्वायत्त शासन विभाग और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो में की गई। समाचार पत्रों में यह खबरें प्रकाशित होते ही सभापति की नींद उड़ गई। उन्हें भ्रष्टाचार का खेल एसीबी और मुख्यमंत्री तक पहुंचने का डर सताने लगा। इस मामले को दबाने और गोरखधंधों को छिपाने के लिए सभापति ने चुनिंदा पत्रकारों को भूखण्डों की लॉलीपोप थमा थी। प्रमुख समाचार पत्रों के प्रभारियों और परिषद की बीट देखने वाले संवाददाताओं को भूखंड आवंटित कर दिए। इतना ही नहीं सभापति ने अपने चहेतों को राजी करने के लिए उनसे जुड़े कम्प्यूटर ऑपरेटर और फोटोग्राफर्स के नाम भी भूखंड आवंटित कर दिए। हालांकि दिखावे के लिए भूखण्ड आवंटन की यह प्रक्रिया 20 दिसंबर को पत्रकारों के सामने अंजाम दी गई मगर इस प्रक्रिया में 52 आवेदकों में से सिर्फ 13 आवेदकों को ही लाभ दिया गया। शेष फाइलें मौके पर मौजूद तक नहीं थी। भूखंड से वंचित पत्रकारों द्वारा कारण पूछे जाने पर सभापति ने टालमटोल जवाब दिए। न तो उनकी फाइलें मौके पर मंगवाई गई और न हीं उन्हें बताया गया कि फाइलों में आखिर ऐसी क्या कमी रही, जिनकी वजह से उन्हें इस प्रक्रिया में शामिल नहीं किया गया। पत्रकारों के नाराजगी जाहिर करने पर सभापति कक्ष में भूखण्ड का लाभ पाने वाले पत्रकार भड़क गए और सभापति की हिमायत करने लगे। मॉर्निंग न्यूज के विष्णुदत्त धीमान, ईटीवी के सुमित सारस्वत, केशवधारा के संपादक संदीप बुरड़ ने सभी पत्रकारों की फाइलें मौके पर मंगवाने और फाइलों में कमियां बताने की बात कही। इस पर भूखण्ड का लाभ लेने वाले राजस्थान पत्रिका के भगवत दयाल सिंह और दैनिक नवज्योति के किशनलाल नटराज आगबबूला हो गए। पत्रिका के भगवत दयाल तो इतना भड़के कि संदीप बुरड़ से गाली-गलौच करते हुए मारपीट के लिए दौड़ पड़े। मौके पर मौजूद पत्रकारों और कर्मचारियों ने बीच बचाव किया। 'फूट डालो और राज करोÓ की नीति अपनाने वाले सभापति मुस्कुराते हुए यह सारा नजारा देख रहे थे। उनके चेहरे की कुटिल मुस्कान साफ बयान कर रही थी कि वे अपना उल्लू साधने में सफल रहे। सभापति ने पत्रकार विमल चौहान, राहुल पारीक, हेमंत कुमार साहू, कमल किशोर प्रजापति, संतोष कुमार त्रिपाठी, किशनलाल नटराज, मोमीन रहमान, राजेश कुमार शर्मा, पदम कुमार सोलंकी, कमल कुमार जलवानियां, तरुण दीप दाधीच, भगवत दयाल सिंह, महावीर प्रसाद को पत्रकार कॉलोनी में भूखण्ड आवंटित किए हैं। शेष आवेदकों को सभापति ने झांसा देकर टरका दिया।
सभापति कक्ष से बाहर आकर पत्रकार मनीष चौहान, दिलीप सिंह, बबलू अग्रवाल, संदीप बुरड़, सुमित सारस्वत, विष्णु धीमान, बृजेश शर्मा, विष्णु जलवानियां, यतीन पीपावत ने नाराजगी जाहिर की। पत्रकारों की यह नाराजगी भगवत दयाल को रास नहीं आई और उसने धमकी दे डाली कि 'देखता हूं अब तुम लोग प्लॉट कैसे लेते हो। तुममें दम हो तो सभापति से लेकर दिखाना।Ó उसके इस कथन से मिलीभगत साफ जाहिर होती है।
हमारे सूत्रों ने तो इतना तक बताया कि प्रक्रिया शुरू होने से पहले सूची कुछ और थी, जिसे बाद में बदल दिया गया। इस बीच किशनलाल को सभापति कक्ष में सभी पत्रकारों की फाइलें टटोलते हुए देखा गया। इस बात को लेकर वहां मौजूद कुछ पार्षद भी हैरत में पड़ गए थे कि आखिर सभापति के राज में यह सब क्या हो रहा है।
सभापति द्वारा अंजाम दी गई कि यह पूरी कार्यवाही अवैध थी। इसे पारदर्शी बनाने की बजाय गोपनीय रखा गया। सभापति ने नियमों को दरकिनार कर चहेतों को रेवडिय़ों की तरह भूखण्ड आवंटित कर दिए, ताकि उनके मुंह बंद रहें। यह प्रक्रिया पूरी तरह नियम विरूद्ध थी, जो कई सवाल खड़े करती है। नियमानुसार इस प्रक्रिया का चयन उस कमेटी द्वारा होना चाहिए था, जिसमें सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी एवं संपादकीय टीम से जुड़ा कोई वरिष्ठ पत्रकार सदस्य शामिल हो। जबकि सभापति द्वारा मनमर्जी से गठित की गई पांच सदस्यों की कमेटी में न तो पीआरओ प्रतिनिधि था और न ही कोई संपादकीय सदस्य। सभापति की अध्यक्षता में बनी कमेटी में आयुक्त ओमप्रकाश ढीढवाल, सहायक लेखाधिकारी घनश्याम तंवर, कार्यालय अधीक्षक दुर्गालाल जाग्रत, वरिष्ठ लिपिक भंवरनाथ रावल शामिल थे।
वंचित आवेदकों ने प्रक्रिया पर संदेह जताते हुए भ्रष्टाचार के आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि कुछ आवेदकों को योग्य नहीं होने के बावजूद भूखण्ड दे दिए गए हैं, जबकि योग्यता रखने वाले आवेदकों की अनदेखी की गई। सभापति ने कुछ समय पूर्व पत्रकारिता में कदम रखने वाले अनाडिय़ों को पत्रकार की श्रेणी में शामिल कर लिया, जबकि राज्य सरकार द्वारा अधिस्वीकृत पत्रकारों को दरकिनार कर दिया। सभापति ने जिन मोमीन रहमान को भूखण्ड आवंटित किया है, वे कुछ समय पूर्व नवज्योति में कम्प्यूटर ऑपरेटर के पद पर लगे थे। प्रेस फोटोग्राफर कमल किशोर प्रजापति उर्फ सुमन प्रजापति अशिक्षित हैं। महावीर प्रसाद दैनिक भास्कर के सक्र्युलेशन विभाग में कार्यरत हैं। सुबह उठकर अखबार बेचने वाले को भी सभापति ने न जाने क्यों प्रक्रिया में शामिल कर भूखण्ड का लाभ दे दिया। वर्षों से पत्रकारिता में जीवन झोंक रहे 80 वर्षीय अधिस्वीकृत पत्रकार भंवरलाल शर्मा को योजना का लाभ नहीं दिया गया।
आखिर क्या वजह रही कि चयन कमेटी में संपादकीय सदस्य और पीआरओ को शामिल नहीं किया गया? वर्षों से सिर्फ पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों की अनदेखी क्यों की गई? आखिर ऐसी क्या सांठ-गांठ रही कि किशनलाल को सभापति कक्ष में पत्रकारों की फाइलें टटोलने की परमिशन दी गई? आखिर क्या वजह रही कि राजेश शर्मा, किशनलाल और भगवत दयाल पूरी प्रक्रिया के तहत अगुवाई करते हुए घर-घर जाकर फार्म भरवाते रहे और बाद में घालघुसेड़ कर खुद को भूखण्ड मिलने के बाद चुप्पी साध गए? सात दिवस की निर्धारित अवधि में आवेदन फार्म जमा करवाने के बाद परिषद ने नोटिस थमाकर आपत्तियां पूरी करने के लिए तीन दिवस का समय दिया था। निर्धारित अवधि में पत्रकारों ने कमियों की पूर्ति कर दस्तावेज जमा करवा दिए। इसके बाद फिर कौनसी कमियां रह गई जिनकी वजह से लॉटरी के वक्त फाइलों को मौके पर नहीं मंगवाया गया? आखिर लॉटरी प्रक्रिया के दौरान वंचित आवेदकों को पूछने पर भी फार्म की कमियां क्यों नहीं बताई गई? नियमानुसार सभी फाइलें चैक होने के बाद चयनित फाइलों के आवेदकों की लॉटरी निकालनी थी, जबकि सभापति ने प्लॉट की लॉटरी निकाली। 27 में से 13 प्लॉट आवंटित करने के बाद अब 14 प्लॉट शेष बचे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि शेष 14 प्लॉट बचे हुए 39 आवेदकों को कैसे दिए जाएंगे?
इन सभी सवालों को दरकिनार कर सभापति ने अपने शेष कार्यकाल को राजी-खुशी निकालने के लिए पत्रकारों को मैनेज किया है। वैसे राजनीति में लेन-देन की परंपरा तो वर्षों से चली आ रही है, मगर काले कारनामों को छुपाने के लिए भूखण्ड देकर मुंह बंद करने का यह तरीका नया है जो जनप्रतिनिधियों के साथ शहर में चर्चा का विषय बन गया है। अब देखना है कि संवेदनशील और पारदर्शी सरकार के शासन में लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलाने वाले इन पत्रकारों के साथ क्या न्याय होगा।

शनिवार, 21 दिसंबर 2013

जीत के लिए कांग्रेस को पाटना होगा 1 लाख 91 हजार 943 मतों का अंतर

अजमेर संसदीय क्षेत्र की सभी आठ विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा
अजमेर। पिछले लोकसभा चुनाव में जहां कांग्रेस के सचिन पायलट ने भाजपा की श्रीमती किरण माहेश्वरी को 76 हजार 135 मतों के भारी अंतर से पराजित किया था, वहीं अगर ताजा विधानसभा चुनाव परिणाम के आंकड़ों के हिसाब से देखें तो भाजपा ने न केवल यह अंतर पाट दिया है, अपितु 1 लाख 91 हजार 943 मतों की बढ़त भी हासिल कर ली है। अजमेर संसदीय क्षेत्र के आठों विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस व भाजपा को मिले मतों का यह मोटा मोटा अंतर पाटना कांग्रेस प्रत्याशी के लिए एक मुश्किल टास्क होगा। यदि कांग्रेस व भाजपा के बागियों को मिले वोटों को दोनों दलों के वोटों में जोड़ दिया जाए तो भी भाजपा की बढ़त 1 लाख 60 हजार 916 मतों की रहेगी। पूरे संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस के बागियों को 85 हजार 66 मत मिले, जबकि भाजपा के बागियों ने 54 हजार 39 वोट हासिल किए थे।
यूं हर निर्दलीय ने किसी न किसी को नुकसान पहुंचाया होगा, मगर प्रमुख निर्दलियों या बागियों पर नजर डालें तो अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण व पुष्कर में सीधी टक्कर ही थी। केकड़ी में कांग्रेस के बागी व एनसीपी के प्रत्याशी पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां ने 17 हजार 35 मत झटक लिए। यहां कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा 8 हजार 867 वोटों से हारे। अर्थात यही एक मात्र ऐसी सीट रही, जहां कांग्रेस विरोधी लहर का असर नहीं पड़ा। सिंगारियां नहीं होते तो कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा आसानी से जीत जाते।  किशनगढ़ में एनसीपी के उज्जीर खां ने कांग्रेस को 1763 वोटों का झटका दिया। इसी प्रकार बीएसपी के हिम्मत सिंह ने 2775, निर्दलीय रामसिंह चौधरी ने 2283 व निर्दलीय हुक्म सिंह हरमाड़ा ने 1465 मत लिए और दोनों दलों को नुकसान पहुंचाया। नसीराबाद में निर्दलीय संगीता व बसपा के अशोक खाबिया ने भाजपा को 1131 व 1515 वोटों का झटका दिया। कांग्रेस को निर्दलीय सुवा लाल गुंजल व सलामुद्दीन से क्रमश: 2972 व 1769 वोट का झटका दिया। मसूदा में कांग्रेस के बागी निर्दलीय रामचंद्र चौधरी व वाजिद चीता ने 28 हजार 447 व 20690 वोट का झटका दिया। भाजपा को तीन बागियों देहात जिला अध्यक्ष नवीन शर्मा ने 22 हजार 186, भंवर लाल बूला ने 8433 व शांति लाल गुर्जर ने 10622  वोटों का नुकसान पहुंचाया। यहां बसपा के गोविन्द ने 2098,  भारतीय युवा शक्ति के कमलेश ने 1066, निर्दलीय ओमप्रकाश ने 1078, मांगीलाल जांगिड़ ने 1838 और शान्ति लाल ने 10622 वोट हासिल कर दोनों को नुकसान पहुंचाया।
ज्ञातव्य है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र में शामिल अजमेर जिले की सात सीटों किशनगढ़, पुष्कर, अजमेर उत्तर, अजमेर दक्षिण, मसूदा, नसीराबाद, मसूदा एवं केकड़ी और जयपुर जिले की दूदू विधानसभा सीट पर भाजपा ने कब्जा कर लिया है। उनमें विभिन्न प्रत्याशियों को मिले मतों का विवरण इस प्रकार है:-
किशनगढ़
किशनगढ़ विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के भागीरथ चौधरी विजयी रहे। उन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस के नाथूराम सिनोदिया  को 31 हजार 74 मतों से हराया।  श्री चौधरी को 95 हजार 384 मत मिले जबकि श्री नाथूराम सिनोदिया को 64 हजार 310 मत मिले। एनसीपी के उज्जीर खां को 1763, बीएसपी के हिम्मत सिंह को 2775, एनपीपी के गोपाल माहेश्वरी को 364, निर्दलीय प्रहलाद सिंह को 325, निर्दलीय बंसत कुमार राठी को 328, निर्दलीय रामसिंह चौधरी को 2283, निर्दलीय सत्यनारायण चौसला को 859, निर्दलीय हुक्म सिंह हरमाड़ा  को 1465 मत मिले। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 69 हजार 856 रहे।  जबकि 101 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2540 मत पड़े।
पुष्कर
पुष्कर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के सुरेश सिंह रावत विजयी रहे।  उन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस की नसीम अख्तर इंसाफ को 41 हजार 290 मतों से हराया।  सुरेश सिंह को 90 हजार 13 मत मिले जबकि नसीम अख्तर इंसाफ को 48 हजार 723 मत मिले । बसपा के  दिलीप को 1770, भारतीय युवा शक्ति पार्टी के गोपाल महाराज को 2334, नेशनल पीपुल्स पार्टी के नारायण सिंह को 897, अखिल भारतीय आमजन पार्टी के लतीफ अली को 1287, निर्दलीय पे्रम सिंह राठौड को 2501 मत मिलें। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 47 हजार 525 रहे।  जबकि 77 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2943 मत पड़े।
अजमेर उत्तर
अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के श्री वासुदेव देवनानी विजयी रहे। इन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को 20 हजार 479 मतों से हराया।  देवनानी को 68 हजार 461 मत मिले जबकि डॉ. बाहेती को 47 हजार 982 मत मिले । निर्दलीय कैलाश चन्द्र शर्मा को 666, निर्दलीय नारायण दास सिंधी को 225, निर्दलीय पुखराज को 207, निर्दलीय मिठ्ठू सिंह रावत को 296, निर्दलीय मुन्ना मारवाडी को 240, निर्दलीय सोहन लाल को 984 मत मिले। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 19 हजार 61 रहे।  जबकि 148 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2357 मत पड़े।
अजमेर दक्षिण
अजमेर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की अनिता भदेल विजयी रही।  इन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस के हेमन्त भाटी को 23 हजार 158 मतों से हराया।  अनिता भदेल को 70 हजार 509 मत मिलें जबकि हेमन्त भाटी को 47 हजार 351 मत मिले। बसपा के गणपत लाल को 990, नेशनल पीपुल्स पार्टी के सुरेश को 793, निर्दलीय ओमप्रकाश को 540, निर्दलीय सोहनलाल को 569 मत मिले। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 20 हजार 752 रहे।  जबकि 103 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2342 मत पड़े।
नसीराबाद
नसीराबाद विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के सांवर लाल विजयी रहे।  उन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस के महेन्द्र सिंह गुर्जर को 28 हजार 900 मतों से हराया।  सांवर लाल को 84 हजार 953 मत मिले जबकि महेन्द्र सिंह गुर्जर को 56 हजार 53 मत मिले । निर्दलीय प्रभू को 1305, बसपा के  अशोक को 1515, निर्दलीय भागू सिंह रावत को 248, निर्दलीय राजेश कुमार को 244, निर्दलीय सलामुद्दीन को 1213, निर्दलीय सालम को 1769, निर्दलीय सुवालाल गुंजल को 2972, निर्दलीय संगीता को 1131 मत मिलें। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 51 हजार 403 रहे।  जबकि 131 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 1946 मत पड़े।
मसूदा
मसूदा विधानसभा क्षेत्र  में भाजपा की सुशील कंवर पलाड़ा विजयी रही। पलाडा ने इंडियन नेशनल कांग्रेस के ब्रहमदेव कुमावत को 4475 मतों से पराजित किया।  सुशील कंवर पलाडा को 34 हजार 11  मत मिले जबकि ब्रहमदेव कुमावत को 29 हजार 536 मत मिले। यहा बसपा के गोविन्द को 2098,  भारतीय युवा शक्ति के कमलेश को 1066,  जागो पार्टी के नारायण लाल जोशी को 646,  राष्ट्रीय लोकदल के हीरा सिंह चौधरी को 435, निर्दलीय ओमप्रकाश को 1078, निर्दलीय नवीन शर्मा को 22 हजार 186,  निर्दलीय पुष्कर नारायण त्रिपाठी को 791, निर्दलीय भंवर सिंह को 3390, निर्दलीय भंवर लाल बूला को 8433,  निर्दलीय मांगीलाल जांगिड को 1838, निर्दलीय रामचन्द्र को 28447,  निर्दलीय वाजिद को 20690,  निर्दलीय शान्ति लाल को 10622  मत मिले। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 65 हजार 267 रहे।  जबकि 113 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2676 मत पड़े।
केकड़ी
केकड़ी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा के शत्रुघ्न गौतम विजयी रहे। इन्होनें इंडियन नेशनल कांग्रेस के डांॅ रघु शर्मा को 8 हजार 867 मतो से हराया।  शत्रुघ्न गौतम को 71292 मत मिले जबकि डांॅ रघु शर्मा को 62 हजार 425 मत मिले। एनसीपी के बाबूलाल सिंगारिया को 17 हजार 35, बसपा के सोराम को 1043, लोकदल के कमलेश कुमार माली को 311, बहुजन संघर्ष दल के चन्द्रप्रकाश लोहार को 584, भारतीय युवा शक्ति पार्टी के रामप्रसाद को 466, सपा के बालूराम जाट को 287, एनपीपी के सूरजकरण को 918, निर्दलीय गीता देवी को 1267 एवं महेश कुमार पोपटानी को 1480 मत मिले। यहां विधानसभा के कुल विधि मान्य मत एक लाख 57 हजार 108 रहे।  जबकि 85 मत निरस्त किए गए। नोटा के विकल्प के लिये 2598 मत पड़े।
जयपुर जिले के दूदू विधानसभा क्षेत्र में भाजपा ने कांग्रेस को 33 हजार 720 मतों से पराजित किया। भाजपा के प्रेमचंद को 86 हजार 238 जबकि कांग्रेस के हजारी लाल नागर को 52 हजार 519 वोट प्राप्त हुए।
ज्ञातव्य है कि कांग्रेस ने पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस के दिग्गज प्रत्याशी सचिन पायलट ने भाजपा की महिला मोर्चा अध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को 76 हजार 135 मतों के बड़े अंतर से हरा दिया था। कुल 14 लाख 52 हजार 490 मतदाताओं वाले इस संसदीय क्षेत्र में पड़े 7 लाख 70 हजार 875 मतों में सचिन को 4 लाख 5 हजार 575 और किरण को 3 लाख 29 हजार 440 मत मिले। पिछले छह चुनावों में यहां कुल पांच बार भाजपा के प्रो. रासासिंह रावत जीते थे और यह भाजपा का गढ़ सा बन गया था, जबकि एक बार कांग्रेस की प्रभा ठाकुर ने उन्हें 5772 मतों से हरा कर इसे ध्वस्त किया था। कुल 7 लाख 71 हजार 160 वैध मतों में से बसपा के रोहितास को 9 हजार 180, जागो पार्टी के इन्द्रचन्द पालीवाला को 7 हजार 984 तथा निर्दलीय उम्मीदवार ऊषा किरण वर्मा को 4 हजार 670, नफीसुद्दीन मियां को 3 हजार 134, मुकेश जैन को 2 हजार 601 तथा शांति लाल ढाबरिया को 8 हजार 576 मत मिले। कुल 171 मत अवैध हुए, 34 टेण्डर मत गिरे और कुल मतदान 7 लाख 71 हजार 502 मतों का हुआ । पोस्टल बैलट पेपर 454 में 178 किरण माहेश्वरी को, 104 सचिन पायलट को व एक मत रोहितास को मिला। कुल 171 पोस्टल बैलट पेपर अवैध हुए।
यहां यह बताना भी प्रासंगिक रहेगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में पांच क्षेत्रों पुष्कर, किशनगढ़, नसीराबाद, केकड़ी व दूदू पर कांग्रेस का कब्जा था और मसूदा क्षेत्र में जीते निर्दलीय विधायक ने कांग्रेस को समर्थन दे रखा था, जबकि भाजपा के पास केवल दो सीटें अजमेर उत्तर व अजमेर दक्षिण थीं। पूरे संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस को 3 लाख 72 हजार 332 वोट मिले थे, जबकि भाजपा को 3 लाख 54 हजार 536 वोट मिले। इस प्रकार कांग्रेस की बढ़त 17 हजार 796 बनी हुई थी। इस बढ़त को 76 हजार 135 तक बढ़ा कर कांग्रेस के सचिन पायलट ने जीत दर्ज की थी।
-गिरधर तेजवानी

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

पहले दौर में रह ही गए देवनानी व अनिता भदेल

मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने मंत्रीमंडल गठन के पहले दौर में अजमेर जिले से सर्वाधिक अपेक्षित नसीराबाद विधायक प्रो. सांवरलाल जाट को तो स्थान दिया, मगर अजमेर उत्तर विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी या अजमेर दक्षिण विधायक श्रीमती अनिता भदेल में से किसी एक को मंत्री बनाए जाने के कयासों पर विराम लगा दिया। दोनों के ही समर्थक अपने-अपने तर्क दे कर अपने नेता को मंत्रीमंडल में शामिल किए जाने के दावे कर रहे थे।
ज्ञातव्य है कि दोनों ही लगातार तीसरी बार जीते हैं। देवनानी एक बार राज्य मंत्री रह चुके हैं, इस कारण इस बार उन्हें केबीनेट नहीं तो कम से कम राज्य मंत्री बनाए जाने की संभावना थी। उनके नाम में इस कारण भी दम था कि वे संघ लॉबी के प्रमुख नेताओं में शुमार हैं। ज्ञातव्य है कि वसुंधरा राजे की इस्तीफा राजनीति के दौरान उन्होंने संघ के इशारे पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। दिक्कत है तो ये कि इस बार एक साथ तीन सिंधी विधायक बने हैं। निम्बाहेड़ा से श्रीचंद कृपलानी व राजगढ़ से ज्ञानदेव आहूजा जीते हैं। आहूजा दूसरी बार विधायक बने हैं, जबकि कृपलानी भी वरिष्ठ हैं व वसुंधरा के करीबी माने जाते हैं। इस कारण चर्चा ये भी थी कि वे सिंधी कोटे में कृपलानी को प्राथमिकता दे सकती हैं। मगर साथ ही संघ लॉबी के दबाव में देवनानी का नाम पक्का माना जा रहा था। दूसरी ओर श्रीमती भदेल अनुसूचित जाति की महिला विधायक होने के साथ-साथ लगातार तीसरी बार जीतने के कारण मेरिट पर मानी जा रही थीं, मगर उनके साथ दिक्कत ये रही कि उनकी दमदार पैरवी करने वाले मात्र प्रदेश उपाध्यक्ष औंकार सिंह लखावत हैं। जहां तक इस्तीफा राजनीति का सवाल है, अफवाह यही है कि भदेल ने इस्तीफे पर साइन किए थे, मगर इसकी आज तक पुष्टि नहीं हो पाई।
अब चर्चा ये है कि चूंकि फिलहाल किसी सिंधी को शामिल नहीं किया गया है, इस कारण देवनानी की संभावना बरकरार है, जबकि श्रीमती भदेल इस कारण सब्र रख सकती हैं कि अभी एक भी महिला को मंत्री बनने का मौका नहीं मिला है। वैसे इतना पक्का है कि इन दोनों में से ही मंत्री बनेगा, चूंकि दोनों एक ही शहर से हैं। जहां तक पहले दौर में चांस न मिलने का सवाल है, तो माना जाता है कि चूंकि सर्वाधिक चार मंत्री अजमेर संभाग से हैं और उनको पहले मौका दिया जाना जरूरी था, इस कारण देवनानी व भदेल का नंबर नहीं आ पाया। उल्लेखनीय है कि प्रो. सांवरलाल जाट, यूनुस खान, कैलाश मेघवाल व अजय सिंह किलक अजमेर संभाग से हैं। कुल मिला कर देवनानी व भदेल के समर्थकों को कुछ दिन और इंतजार करना होगा।

मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

जैन साहब, खुलासा तो आपको करना चाहिए

एडीए क्षेत्र के लिए तैयार किए जा रहे मास्टर प्लान 2033 का प्रारूप जारी करने के साथ ही अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व सदर धर्मेश जैन ने  सवाल खड़ा किया है कि जब पूर्व में 2023 तक के लिए मास्टर प्लान बनाया गया था तो अब उसमें बदलाव की जरूरत क्यों पड़ रही है? उन्होंने मांग की है कि इसका खुलासा होना चाहिए। इस सिलसिले में उनका आरोप है कि कांग्रेस शासन में चहेतों के हित साधने के उद्देश्य से मास्टर प्लान में बदलाव किया गया है।
जैन साहब के आरोप में दम हो न हो, मगर भला प्रशासन कैसे यह खुलासा कर सकता है कि कांग्रेसियों को लाभ पहुंचाने के लिए मास्टर प्लान में क्या-क्या बदलाव किया गया है। अगर जैन साहब की जानकारी में है, जैसा कि उनके आरोप से ही लगता है, तो इसका खुलासा तो उनको ही करना चाहिए। यूं भी वे न्यास के सदर रह चुके हैं, इस कारण उन्हें पता है कि कहां क्या बदलाव किए गए हैं। पहले कांग्रेस सरकार के दौरान भी उनकी यही राय थी, मगर उनकी सुनने वाला कोई नहीं था। अब जब कि उनकी पार्टी की सरकार आ गई है तो उन्हें पूरे दम के साथ घालमेल का खुलासा करना चाहिए। वैसे उनकी बात में दम तो है। जब कांग्रेस शासन काल में कांग्रेसियों को लाभ पहुंचाने के लिए बदलाव किए गए तो अब भाजपा शासन काल में भाजपाइयों का हक बनता है।
मजे की बात ये है कि वे ये मांग कर रहे हैं कि सुझावों के लिए वर्तमान व पूर्व जनप्रतिनिधियों, किशनगढ़, पुष्कर के जागरूक नागरिकों को आमंत्रित किया जाना चाहिए, जबकि एडीए चेयरमैन व जिला कलेक्टर वैभव गालरिया पहले ही कह चुके हैं कि जनता व जन प्रतिनिधि अपने विचार, सुझाव व आपत्तियां एक माह में दे सकते हैं। उनके विचार व आपत्तियों को शुमार कर प्लान को अंतिम रूप दिया जाएगा। जो कुछ भी हो भाजपा शासनकाल में इतना घोचा करना तो उनका हक बनता है। वैसे भी भाजपाइयों में वे प्रदेश उपाध्यक्ष वे पूर्व न्यास सदर औंकार सिंह लखावत के बाद इकलौते नेता हैं, जिनकी मास्टर प्लान और एडीए मैटर्स पर पूरी मास्टरी है।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा प्रत्याशी पर चर्चा शुरू

एक ओर जहां यह अफवाह जोरों पर है कि अजमेर जिले की आठों विधानसभा सीटों पर भाजपा के कब्जे के बाद मौजूदा सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट अजमेर से दुबारा चुनाव लडऩे का मानस नहीं बना पाएंगे, वहीं भाजपा खेमे में सचिन को ही सामने रख कर नए दावेदारों पर चर्चा शुरू हो गई है।
वस्तुत: भाजपा के पास कई विकल्प हैं। सबसे दमदार विकल्प है किसी जाट को चुनाव मैदान में उतारना। इसकी एक मात्र वजह ये है कि परिसीमन के बाद इस संसदीय क्षेत्र में जाटों के वोट तकरीबन दो लाख माने जाते हैं। भाजपा खेमा यह मान कर चलता है कि जाट प्रत्याशी सचिन को टक्कर देने की स्थिति में हो सकता है। सोच ये है कि दो लाख जाट, दो लाख वैश्य, सवा लाख रावत, एक लाख सिंधी व एक लाख राजपूत मतदाता जाट प्रत्याशी को जितवा सकते हैं। हालांकि कांग्रेस की जाटों पर भी पकड़ है, मगर यदि भाजपा की ओर से जाट प्रत्याशी खड़ा होता है कि अधिसंख्य जाट मतदाता जाट की बेटी जाट को व जाट का वोट जाट को की कहावत चरितार्थ हो सकती है। यह मार्शल कौम कहलाती हैं, इस कारण इसका मतदान प्रतिशत ज्यादा ही रहता है। बहरहाल, इस संभावना के मद्देनजर कुछ रिटायर्ड जाट अधिकारी भाग्य आजमाने की सोच रहे हैं। इनमें प्रमुख रूप से राजस्थान लोक सेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष सी. आर. चौधरी व अजमेर में कलेक्टर रह चुके महावीर सिंह का नाम सामने आ रहा है। यूं पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना के ससुर सी. बी. गैना का नाम भी चर्चा में है। एक और जाट सज्जन भी बताए जा रहे हैं, जिन्होंने वसुंधरा राजे की सुराज संकल्प यात्रा के दौरान अहम भूमिका निभाई बताई।
भाजपा के पास दूसरा विकल्प है किसी वैश्य पर दाव लगाना। हालांकि पिछली बार वैश्य समुदाय से श्रीमती किरण माहेश्वरी को मैदान में उतारा गया, मगर वे कामयाब नहीं हो पाईं। इस सिलसिले में स्थानीय वैश्य दावेदारों का मानना है कि वे स्थानीयता के नाम पर बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं। वैश्य दावेदारों में पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन व पूर्व शहर भाजपा अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा के नाम शामिल हैं।
यूं अजमेर के पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत भी दावेदारी करने के मूड में नजर आते हैं। वे शहर भाजपा अध्यक्ष रहने की बजाय पुष्कर से विधानसभा चुनाव लडऩा चाहते थे, मगर उन्हें टिकट नहीं दिया गया, शायद लोकसभा चुनाव में विचार करने का आश्वासन दे कर। असल में पिछली बार परिसीमन की वजह से अजमेर संसदीय क्षेत्र का रावत बहुल मगरा इलाका कट जाने पर उन पर पार्टी ने दाव खेलना मुनासिब नहीं समझा। मगर किरण माहेश्वरी के हारने के बाद यह धारणा बनी कि रावत को राजसमंद भेजना गलत निर्णय था। अब भी जिले में सवा लाख रावत माने जाते हैं, जिनके दम पर उन्हें उतारा जा सकता है। वे यहां पांच बार सांसद रहे हैं, इस कारण उनकी पकड़ अच्छी है। इसके अतिरिक्त उन्हें स्थानीयता व सहज उपलब्धता के लिहाज से भी कमजोर नहीं पड़ेंगे।
दावेदारों में एक नाम और भी चर्चा में है। वो है कि मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पुत्रवधू व झालावाड़ के भाजपा सांसद दुष्यंत सिंह की धर्म पत्नी श्रीमती निहारिका राजे। असल में यह चर्चा विधानसभा चुनाव से पूर्व इस कारण शुरू हुई है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र के अनेक भाजपा नेताओं से वसुंधरा राजे की ओर से बाकायदा बूथ वाइज आंकड़े मंगवाए जा रहे थे, इनमें जातीय समीकरण, प्रमुख कार्यकर्ताओं के नाम व उनके मोबाइल नंबर, विभिन्न जातियों के प्रमुख नेताओं व कार्यकर्ताओं के नाम-पते इत्यादि शामिल थे। तर्क ये दिया जा रहा था कि उन्होंने विधानसभा चुनाव के सर्वे के लिए यह फीडबैक लिया, मगर इतना विस्तृत फीडबैक और वह भी केवल अजमेर संसदीय क्षेत्र के विधानसभा क्षेत्रों का तो जरूर कुछ खास बात रही होगी। चर्चा ये थी कि उन्होंने श्रीमती निहारिका राजे के लिए यहां राजनीतिक जमीन की तलाश करवाई थी। इसके पीछे एक तर्क ये भी है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र में तकरीबन डेढ़ लाख गुर्जर मतदाता हैं और श्रीमती निहारिका भी गुर्जर समाज की बेटी हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि अजमेर संसदीय क्षेत्र से निर्वाचित केन्द्रीय कंपनी राज्य मंत्री सचिन पायलट भी गुर्जर समुदाय से हैं। पिछले चुनाव में किरण माहेश्वरी के हार जाने के बाद भाजपा यहां सचिन के सामने एक सशक्त उम्मीदवार की तलाश में हैं और उसमें निहारिका फिट बैठती हैं। जहां तक जातीय समीकरण का सवाल है, कांग्रेस व भाजपा के अपने-अपने जातीय वोट बैंक हैं। उनमें अगर परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ रहने वाले गुर्जर समुदाय में सेंध मार ली जाती है तो एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है।
यूं पिछली बार दावेदार की चुके नगर निगम के पूर्व महापौर धर्मेन्द्र गहलोत, मगरा विकास बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष मदनसिंह रावत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा, अजमेर नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत, पूर्व केकड़ी प्रधान रिंकू कंवर आदि के भी दावा ठोकने के आसार हैं।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

पायलट कैसे हो गए हार के लिए जिम्मेदार?

अजमेर के कुछ कांग्रेसियों का मानना है कि जिले की सभी आठ सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशियों की हार के लिए अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट जिम्मेदार हैं। उनका मानना है कि उनकी रीति-नीति की वजह से ही कांग्रेस की यह हालत हुई है। साथ ही ये भी कि जब हर अच्छे काम का सेहरा उनको बांधा जाता है तो हार की जिम्मेदारी भी उनकी ही बनती है। पूर्व उप मंत्री ललित भाटी तो एक कदम और आगे बढ़ते हुए कहते हैं कि अजमेर में सोनिया व राहुल वाल कांग्रेस तो है नहीं, यहां सचिन पायलट की कांग्रेस है, जिसने पांच साल तक उनकी जिंदाबाद करने के अलावा कुछ भी नहीं किया।
इसमें कोई दोराय नहीं कि अजमेर जिले में कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिलने की वजह से सचिन के लिए लोकसभा चुनाव में दिक्कत आएगी, मगर इसके लिए अकेले उन्हें जिम्मेदार ठहराना तनिक गले नहीं उतरता। सब को पता है कि पूरा मीडिया बार-बार चिल्ला-चिल्ला कर यह कहता रहा कि सचिन की पसंद की मात्र एक सीट अजमेर दक्षिण की थी, जहां से हेमंत भाटी चुनाव लड़े। बाकी की सारी सातों सीटें अशोक गहलोत की मर्जी से ही तय हुईं। जब सचिन की सिफारिश से टिकटें दी ही नहीं गई तो उन पर हार के लिए उन्हें दोषी कैसे ठहराया जा सकता है। उससे भी बड़ी बात ये कि अकेले अजमेर में ही कांग्रेस की यह दुर्गति तो नहीं हुई, पूरे प्रदेश सहित चारों हिंदी भाषी राज्यों में चली कांग्रेस विरोधी लहर के चलते अनेक दिग्गज धराशायी हो गए।
यहां उल्लेखनीय है कि मीडिया बार-बार यह दुहराता रहा कि सचिन अजमेर उत्तर से किसी सिंधी को टिकट दिलवाना चाहते थे, ताकि उसके साथ अजमेर दक्षिण में भी सिंधियों के वोट हासिल किए जा सकें, मगर ऐसा हुआ नहीं। नतीजतन अजमेर उत्तर तो हारे ही अजमेर दक्षिण में ज्यादा बुरी तरह से हारे। हालांकि यहां भी प्रदेश व्यापी लहर का असर रहा, इस कारण हार-जीत का मतांतर बहुत अधिक बढ़ गया, मगर स्थानीय समीकरणों ने भी अपना असर दिखाया। पूरे प्रदेश में एक भी सिंधी को टिकट नहीं दिए जाने व भाजपा की ओर से तीन सिंधियों को टिकट मिलने के कारण अजमेर उत्तर का पूरा सिंधी मतदाता तो भाजपा की झोली में गया ही, अजमेर दक्षिण की सीट भी चपेट में आ गई। चूंकि अजमेर उत्तर की तुलना में दक्षिण में सिंधियों के वोट अधिक हैं, इस कारण वहां भाजपा को अधिक फायदा हुआ। इस स्थिति का आभास सचिन को पहले से था, इस कारण वे किसी सिंधी को अजमेर उत्तर से टिकट दिलवाने के लिए अड़े, मगर उसे दरकिनार कर एक बार फिर डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दे दिया।
इसी प्रकार पुष्कर की बात करें तो वहां सचिन चाहते थे किसी रावत को टिकट दिया जाए, ताकि वह भाजपा के रावत प्रत्याशी से मुकाबला कर सके, मगर वहां श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ को टिकट दे दिया और वहां रावतों के वोट तो एक तरफा भाजपा की झोली में गए, हिंदूवादी भी लामबंद हो गए। इसी प्रकार मसूदा में किसी मुस्लिम को टिकट देने की राय को भी दरकिनार किया गया और वाजिद चीता ने तो समीकरण बिगाड़ा ही, सचिन से नाइत्तफाकी रखने वाले अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी भी मैदान में आ डटे। बात अगर केकड़ी की करें तो वहां अगर कांग्रेस के बागी व एनसीपी उम्मीदवार पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां नहीं होते तो रघु शर्मा आसानी से जीत जाते, मगर हाईकमान मैनेज ही नहीं कर पाया। कुल मिला कर अजमेर जिले में कांग्रेस की हार के लिए अकेले सचिन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। हां, इतना जरूर है कि अब अजमेर संसदीय क्षेत्र में ब्यावर को छोड़ कर अजमेर जिले की सभी सातों सीटों तथा दूदू विधानसभा सीट पर भाजपा के काबिज हो जाने के कारण सचिन को लोकसभा चुनाव में दिक्कत पेश आएगी।
प्रसंगवश यहां पेश है इंडिया न्यूज की वह क्लिपिंग, जिसमें कुछ कांग्रेसियों ने हार के लिए पूरी तरह से सचिन को जिम्मेदार ठहराया है। क्लिपिंग देखने के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए:- http://youtu.be/lGVV1MndWr4

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

यानि कि असली राजनीति अब शुरू करेंगे हेमंत भाटी

कानाफूसी है कि हाल ही संपन्न हुए राज्य विधानसभा चुनाव में अजमेर दक्षिण से कांग्रेस प्रत्याशी रहे प्रमुख समाजसेवी हेमंत भाटी हारने के बाद अब असली राजनीति शुरू करेंगे। कुछ लोग सोच रहे थे कि पहली बार में ही चुनाव हार जाने के बाद संभव है उनका राजनीति से मोह भंग हो गया होगा, क्योंकि समाजसेवा की वजह से उनका रुतबा तो अब भी कायम है, मगर हाल ही उन्होंने अखबारों में एक विज्ञापन दे कर यह जता दिया है कि जिस भाव से वे राजनीति में आए, उसे हारने के बाद भी बरकरार रखते हुए जनसेवा करने को तत्पर हैं। संभवत: वे एक मात्र प्रत्याशी हैं, जिन्होंने हारने के बाद भी मतदाताओं का आभार जताया है, वरना केवल जीते हुए ही आभार व्यक्त किया करते हैं।
उन्होंने लिखा है कि किसी भी दुख व समस्या में  उनसे बेझिझक संपर्क किया जा सकता है और वे सदैव सेवा के लिए तत्पर रहेंगे। उनके इस विज्ञापन से यह आभास होता है कि हारने के बाद अब वे दुगुने जोश के साथ राजनीति में आने वाले हैं। समझा जा सकता है कि इस चुनाव में टिकट दिलवाने के कारण उनकी अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट से करीबी बढ़ी है। कोई पांच माह बाद पायलट को लोकसभा चुनाव लडऩा भी है। ऐसे में जाहिर है कि वे भाटी को मुख्य धारा में बनाए रखना चाहेंगे। इसके लिए संभव है उन्हें पार्टी संगठन में कोई अहम जिम्मदारी दिलवाएं। कुल मिला कर तकरीबन दस साल तक भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल के राजनीतिक उत्प्ररेक रहते हुए भले ही उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लिया, मगर अब चुनाव हारने के बाद इस दिशा में आगे कदम बढ़एंगे। संकेत ये भी मिल रहे हैं कि चुनाव में जिन लोगों ने उनके साथ बेवफाई की, उनसे भी एक एक करके निपटेंगे।

किस मुंह से मांगा जा रहा है शत्रुघ्न गौतम के लिए मंत्री पद

श्रीमती वसुंधरा राजे ने अभी खुद मुख्यमंत्री पद की शपथ भी नहीं ली है कि अपने चहेते विधायकों को मंत्री बनाए जाने की मांग भी शुरू हो गई है। खबर है कि भारतीय जनता पार्टी व्यापार प्रकोष्ठ, केकड़ी के पदाधिकारियों व कार्यकर्ताओं ने भाजपा की विधायक दल की नेता वसुंधरा राजे को पत्र लिख कर मांग की कि केकड़ी विधानसभा क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुए शत्रुघ्र गौतम को मंत्री बनाया जाये।
पत्र में तर्क दिया गया है कि गौतम ने कांग्रेस के कद्दावर नेता, जो न सिर्फ केकड़ी में, बल्कि पूरे राजस्थान की कांग्रेस में अहम स्थान रखते थे तथा पिछली विधानसभा में सरकारी मुख्य सचेतक भी थे, उन्हें केकड़ी विधानसभा क्षेत्र से हराया है, इसलिये उन्हे मंत्री बनाया जाये। इसमें कोई दोराय नहीं कि रघु शर्मा कांग्रेस के एक दिग्गज नेता हैं और वे हारे भी हैं, मगर उन्हें असल में गौतम ने नहीं, बल्कि कांग्रेस के बागी व एनसीपी के चुनाव चिन्ह पर लड़े पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां की वजह से हार का सामना करना पड़ा। अगर सिंगारियां मैदान में नहीं होते तो राज्य भर में चली कांग्रेस विरोधी लहर के बाद भी शर्मा जीत जाते। ज्ञातव्य है कि केकड़ी में हुआ त्रिकोणीय मुकाबला ही कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। सिंगारियां ने कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट बैंक में सेंध मारी, जिसका सीधा नुकसान रघु को हुआ। रघु 8 हजार 867 वोटों से हारे, जबकि सिंगारियां ने 17 हजार 35 मत झटक लिए। ऐसे में यह कहना कि गौतम ने इस दिग्गज को परास्त किया है, वाजिब नहीं लगता। सच तो ये है कि जिले की एक मात्र केकड़ी ही ऐसी सीट है, जहां गौतम कांग्रेस विरोधी लहर को अपने पक्ष में नहीं भुना पाए। सिंगारियां न होते तो वे जीतने का सपना ही देख रहे होते। वैसे माना ये भी जाता है कि गौतम की जीत में मीडिया का भी योगदान रहा। कई पत्रकार रघु शर्मा से किन्हीं कारणों से खफा थे और गौतम के पक्ष में माहौल बना रहे थे।
बेशक, मंत्री बनाने की मांग करने का सभी को हक है, मगर जब पूरे जिले में सभी आठों सीटें भाजपा ने जीती हैं और उनमें दो-दो व तीन-तीन बार जीते विधायक भी हैं, उनका भी सभी का नंबर नहीं आ पाएगा, ऐसे में पहली बार जीते विधायक का मंत्री बनने का हक ही नहीं बनता। खैर, मांगने वालों ने तो मंत्री पद मांग लिया, उसे पूरा करने का अधिकार वसुंधरा के पास है।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

अजमेर से कौन-कौन बनेंगे मंत्री?

sanwar lal jat 1प्रदेश में भाजपा की सरकार के गठन की प्रक्रिया आरंभ होने के साथ यह चर्चा आम है कि मंत्रीमंडल में अजमेर जिले का प्रतिनिधित्व कौन-कौन करेंगे? यह सवाल इस कारण भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि जिले की सभी आठों विधानसभा सीटों पर भाजपा प्रत्याशी विजयी हुए हैं। इनमें दो बार जीते विधायक हैं तो लगातार तीन बार जीते विधायक भी। उनमें से मंत्री के रूप में चयन करना निश्चित ही थोड़ा कठिन है।
समझा जाता है कि पूर्व में जलदाय मंत्री रह चुके नसीराबाद के विधायक प्रो. सांवरलाल जाट का नाम तो पक्का है। वे मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की पहली पसंद हैं। कुछ मसलों में उन्होंने राजे के हनुमान की भूमिका अदा की है। निश्चत ही उन्हें केबिनेट मंत्री पद हासिल होगा। अब सवाल ये उठता है कि उनके बाद किसका नंबर आएगा। लगातार तीन बार जीते प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के बीच रस्साकशी हो सकती है। देवनानी जहां सिंधी विधायक होने के नाते दावेदार माने जाते हैं, वहीं श्रीमती भदेल अनुसूचित जाति की महिला होने के नाते। पहली बार जब दोनों जीते थे तो श्रीमती भदेल केवल इस कारण रह गई थीं क्योंकि देवनानी को एक मात्र सिंधी विधायक होने के नाते मौका दिया गया।
वासुदेव देवनानी
वासुदेव देवनानी
मगर अब स्थिति भिन्न है। एक साथ तीन सिंधी विधायक बने हैं। अलवर जिले के राजगढ़ से ज्ञानदेव आहूजा व चित्तौड़ जिले के निम्बाहेड़ा से श्रीचंद कृपलानी। दोनों दमदार हैं। यानि कि यदि किसी सिंधी को मंत्री बनाना है तो वसुंधरा के पास तीन विकल्प हैं। बताया जाता है कि पिछली बार कुछ नाइत्तफाकियां रहने के कारण देवनानी का नंबर मुश्किल है। दूसरा अजमेर जिले की औंकार सिंह लखावत लॉबी उनके पीछे हाथ धो कर पड़ी है। यह वही लॉबी है, जिसने उनका टिकट कटवाने के लिए एडी चोटी का जोर लगा दिया था। टिकट मिलने के बाद हराने की भी कोशिश हुई, मगर कामयाबी हाथ नहीं लगी। इस सिलसिले में आपको याद दिला दें कि जब वसुंधरा ने हाईकमान पर दबाव बनाने के लिए विधायकों के इस्तीफों का नाटक किया था तो देवनानी ने हस्ताक्षर नहीं किए थे या उनसे करवाए ही नहीं गए, जबकि श्रीमती भदेल के इस्तीफा देने की चर्चा आम थी।
अनिता भदेल
अनिता भदेल
स्वाभाविक रूप से भदेल को वफादारी का इनाम मिल सकता है, मगर देवनानी के लिए संघ का भारी दबाव आ सकता है, जिसे टालना वसुंधरा के लिए कठिन होगा। अब ये तो हो नहीं सकता कि दोनों को ही मंत्री बना दिया जाए, सो इस बार फिर देवनानी बाजी मार सकते हैं। अगर वसुंधरा ने कोई चाल चल कर कृपलानी या आहूजा को मौका दे दिया तो देवनानी रह जाएंगे और ऐसे में भदेल की किस्मत चेत जाएगी। यूं किशनगढ़ के विधायक भागीरथ चौधरी दो बार जीते हैं, मगर चूंकि एक जाट नेता सांवरलाल को मौका दिया जाएगा, इस कारण चौधरी को विधायकी से ही खुश रहना होगा। रहा सवाल ब्यावर से लगातार दो बार जीते शंकर सिंह रावत का तो उनका नंबर रावत कोटे में आ भी सकता है। बाकी पुष्कर, मसूदा व केकड़ी से जीते सुरेश सिंह रावत, श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा व शत्रुघ्न गौतम का नंबर इस कारण नहीं आता दिखता क्योंकि वे पहली बार विधायक बने हैं।
-तेजवानी गिरधर

चुनाव में ललित भाटी ने क्या किया?

राजनीतिक गलियारों में यह कानाफूसी आम है कि इस बार पूर्व उप मंत्री ललित भाटी ने चुनाव में क्या किया? क्या पारिवारिक नाइत्तफाकी के चलते अपने छोटे भाई व अजमेर दक्षिण के कांग्रेस प्रत्याशी हेमंत भाटी को भितरघात कर नुकसान पहुंचाया? या फिर किसी समझौते के तहत चुप्पी साध ली? कहीं उन्हें कांग्रेस हाईकमान की ओर से कोई आश्वासन तो नहीं मिला?
यहां आपको बता दें कि हेमंत भाटी का टिकट तकरीबन एक माह पहले ही फाइनल हो गया था। उन्हें चुनावी तैयारी करने को कह दिया गया था, हालांकि टिकट की घोषणा आखिरी दौर में की गई। इस एक माह के दौरान ललित भाटी ने टिकट हासिल करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगा दिया। एकबारगी तो यह कानाफूसी चल पड़ी कि वे अपने रसूखात के चलते टिकट हासिल करने के करीब पहुंच गए हैं। आखिरकार हेमंत का टिकट पक्का हुआ। इसी के साथ हर किसी की नजर इस पर थी कि अब देखें ललित भाटी क्या करते हैं। भाजपाई तो इस ताक में थे कि ललित भाटी अपने भाई से व्यक्तिगत नाइत्तफाकी के मद्देनजर उनकी गुपचुप मदद कर दें, ताकि उनका जीतना आसान हो जाए। ललित भाटी ने क्या रुख अपनाया, यह आखिर तक किसी को पता नहीं चला। अगर उन्होंने भाजपा प्रत्याशी श्रीमती अनिता भदेल को अंदर ही अंदर मदद की भी हो तो धरातल पर वह कहीं नजर नहीं आई। हालांकि यह आम धारणा है कि उन्होंने कुछ न कुछ तो गड़बड़ की होगी, मगर इसका सबूत किसी के पास नहीं है। यहां तक कि अनिता के करीबियों को भी पता नहीं लग पाया कि ललित भाटी ने कोई मदद की या नहीं। कई लोग ये कहते सुने गए कि वे बहुत शातिर राजनीतिक खिलाड़ी हैं, इस कारण आखिरी दो दिन में कोई खेल करेंगे क्योंकि हेमंत के जीतने पर उनके राजनीतिक कैरियर पर विराम लगने का अंदेशा रहेगा। मगर आखिर तक उनके शांत रहने की ही कानाफूसी रही। यहां तक कि उनके करीबी भी यही बताते हैं कि वे इस बार चुप ही रहे। कदाचित मुख्य धारा में रह कर आगे अपना राजनीतिक भविष्य संवारने की खातिर चुप्पी रखना ही बेहतर समझा हो। हां, उन पर ये आरोप जरूर लगाया जा सकता है कि कांग्रेस नेता होते हुए उन्होंने अपने कांग्रेसी प्रत्याशी भाई की मदद नहीं की, लेकिन इस लिहाज से देखें तो कई कांग्रेसी नेताओं ने हेमंत की मदद नहीं की।

अब रहेगी एडीए चेयरमैन पर नजर

अब जब कि प्रदेश में चुनाव संपन्न हो चुके हैं और भाजपा को प्रचंड बहुमत से सत्ता हासिल हुई है, हर किसी की नजर इस पर रहेगी कि अजमेर विकास प्राधिकरण की अध्यक्ष कौन होगा?
समझा जाता है कि इस पद पर किसी वैश्य का ही नंबर आएगा। इसकी वजह ये है कि अजमेर नगर निगम का मेयर पद फिलहाल अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। प्राधिकरण के अंतर्गत आने वाले अजमेर उत्तर व दक्षिण, किशनगढ़ व पुष्कर में क्रमश: सिंधी, अनुसूचित जाति, जाट व रावत विधायक बने हैं और जिले में किसी भी सीट पर वैश्य को टिकट नहीं दिया गया था, इस कारण वैश्य समुदाय को राजी किया जाएगा। हालांकि कुछ लोग नगर परिषद अजमेर के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत के इस पद पर काबिज होने की संभावना जाहिर करते हैं क्योंकि अजमेर उत्तर में गैर सिंधियों में वे ही सर्वाधिक दमदार तरीके से दावेदारी कर रहे थे और उनकी मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे से नजदीकी भी बताई जाती है, मगर चूंकि जिले में वैश्यों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है, इस कारण उनका नंबर शायद न आए। हां, उन्हें किसी और पद से नवाजा जा सकता है। कुछ लोग न्यास के पूर्व सदर औंकार सिंह लखावत के नाम का भी जिक्र करते हैं, मगर उनका कद अब प्रदेश स्तरीय हो गया है, ऐसे में लगता नहीं कि वे इस और लालायित होंगे।
जहां तक वैश्यों का सवाल है उनमें नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन दावेदारी कर सकते हैं। ज्ञातव्य है कि पिछले भाजपा कार्यकाल में उन पर लगे झूठे आरोप के कारण उनको कार्यकाल पूरा करने का मौका नहीं मिल पाया था और बाद में उनको क्लीन चिट भी मिल गई, इस कारण उनका दावा बनता है। उनको न्यास के कामकाज करने का अनुभव भी है और उन्होंने अपने छोटे से कार्यकाल में उल्लेखनीय काम भी करवाए थे। अजमेर उत्तर सीट से टिकट के एक और प्रबल दावेदार शहर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा को भी मौका मिल सकता है, मगर उनके कुछ समर्थकों द्वारा वैश्यवाद के नाते कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को गुपचुप मदद करने के आरोपों के चलते बाधा आ सकती है। यूं अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी की टीम के सेनापति नगर निगम के पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत भी जोर मार सकते हैं। उन्हें स्वायत्तशासी संस्था के कामकाज का अच्छा अनुभव भी है, मगर इसमें देवनानी विरोधी लॉबी अड़चन डाल सकती है। पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, जो कि एक लंबे अरसे से हाशिये पर हैं, गंभीर प्रयास कर सकते हैं। वैसे उनकी तैयारी अजमेर लोकसभा क्षेत्र से टिकट हासिल करने की भी है। बहरहाल, कुछ लोगों का मानना है कि मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे फिलहाल इस पद को भरने में जल्दबाजी नहीं करेंगी। वे आगामी लोकसभा चुनाव में दावेदारों का परफोरमेंस देख कर ही नियुक्ति करेंगी।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 8 दिसंबर 2013

कांग्रेस विरोधी लहर में जिले की सभी आठों सीटों पर कांग्रेस का सूपड़ा साफ

-तेजवानी गिरधर- अजमेर। राज्य की कांग्रेस सरकार के लोक कल्याणकारी कार्यों के बावजूद महंगाई और भ्रष्टाचार के कारण चली कांग्रेस विरोधी लहर, जिसे कि भाजपा मोदी लहर करार दे रही है, ने अजमेर जिले की सभी सीटों पर स्थानीय समीकरणों को दरकिनार सा करते हुए भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलवा दी है। हालांकि स्थानीय समीकरणों ने भी अपनी भूमिका अदा की है, मगर लहर इतनी तेज रही कि उन सब का महत्व ही समाप्त हो गया है। आइये जरा समझें, विधानसभावार क्या रही स्थिति:-

वैश्यवाद व मुस्लिमों के मतदान प्रतिशत पर भारी रही लहर
अजमेर उत्तर सीट पर आठ प्रत्याशियों में से कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती और भाजपा प्रत्याशी वासुदेव देवनानी के बीच सीधा मुकाबला था। यहां सर्वाधिक प्रभावित करने वाला फैक्टर सिंधी-गैरसिंधीवाद माना जा रहा था। राज्य की दो सौ में से एक भी सीट नहीं देने के कारण सिंधी समुदाय में कांग्रेस के प्रति गुस्सा था। पिछली बार भी इस प्रकार गुस्सा रहा, जिसकी वजह से कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती भाजपा के प्रो. वासुदेव देवनानी से 688 मतों से पराजित हो गए थे। इस बार फिर वही स्थिति बनी, मगर इस बार फर्क ये रहा कि वैश्य समुदाय भी लामबंद हो गया। उसकी बाहेती के प्रति सहानुभूति भी थी। उसने बाहेती के पक्ष में जम कर मतदान किया बताया। इसी प्रकार मुस्लिम समुदाय ने भी जम कर वोट डाले, जिसके चलते यही माना जा रहा था कि इस बार बाहेती का पलड़ा भारी रहेगा, मगर  कांग्रेस विरोधी लहर ऐसी चली कि बाहेती 20 हजार 479 मतों से हार गए। इतनी बड़ी जीत की उम्मीद तो भाजपा के देवनानी को भी नहीं थी। बाहेती की हार की एक वजह ये भी मानी जाती थी कि कांग्रेस संगठन ने ठीक से उनका साथ नहीं दिया, मगर यही स्थिति देवनानी के साथ भी रही। उनके वैश्यवादी विरोधियों ने भी बाहेती का साथ दिया। इन सब के बावजूद लहर इतनी तेज थी कि सारे कयास और समीकरण धरे रह गए। कुल मिला कर देवनानी लगातार तीसरी बार जीतने में कामयाब हो गए, वो भी तगड़े वोटों से। इस परिणाम के बाद माना ये जा रहा है कि शायद कांग्रेस अब सिंधियों को नजरअंदाज करने का साहस न दिखा पाए।

हेमंत भाटी को भी ले बैठी लहर
अजमेर दक्षिण में इस बार खास बात ये रही कि जिन हेमंत भाटी के सहारे भाजपा प्रत्याशी श्रीमती अनिता भदेल चुनावी वैतरणी पार करती रहीं, वे ही उनके सामने कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में आ डटे। कांग्रेस के वोट कटर के रूप में पिछली बार की तरह पूर्व मंत्री ललित भाटी भी मैदान में नहीं थे। पिछली बार उन्होंने करीब 16 हजार वोट काटे थे, बावजूद इसके अनिता ने कांग्रेस के डॉ. राजकुमार जयपाल को 19 हजार से अधिक मतों से हरा दिया था। इस बार भाटी ने मतदान के दिन तक भी बगावत व भितरघात का कोई संकेत नहीं दिया ऐसे में अनिता की राह कुछ कठिन मानी जा रही थी।  भाटी को टिकट दिलवाने में अहम भूमिका अदा करने के कारण यहां अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की प्रतिष्ठा दाव पर रही, इस कारण उन्होंने यहां विशेष निगरानी भी रखी, मगर  कांग्रेस विरोधी लहर इतनी तेज थी कि सारे समीकरण हवा हो गए। बेशक इसमें सिंधीवाद की भी भूमिका रही, जिनके इस इलाके में तकरीबन तीस हजार वोट माने जाते हैं। यद्यपि कुछ सिंधी नेताओं ने इस पर रोक की कोशिश की, मगर लहर के आगे उनकी भी नहीं चली। बात अगर रणनीति की करें तो भाटी की तुलना में अनिता की स्थिति कुछ बेहतर थी। अनिता का टिकट बहुत पहले ही  पक्का हो जाने के कारण उन्होंने कार्यकर्ताओं की सेना को सुव्यवस्थित कर लिया था। साफ-सुथरी छवि ने भी उनकी मदद की। महिला होने का स्वाभाविक लाभ भी मिला। कुल मिला कर अनिता 23 हजार 158 वोटों के भारी अंतर के साथ लगातार तीसरी बार विधानसभा जा रही हैं।

सिंगारिया बने रघु की हार का कारण
केकड़ी में हुआ त्रिकोणीय मुकाबला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। पूरे जिले व राज्य में भले ही कांग्रेस विरोधी लहर का ही ज्यादा असर रहा, मगर आंकड़ों के लिहाज से यहां एनसीपी के बाबूलाल सिंगारियां कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा की हार का कारण बन गए। जाहिर तौर पर सिंगारियां ने कांग्रेस के परंपरागत अनुसूचित जाति वोट बैंक में सेंध मारी, जिसका सीधा नुकसान रघु को हुआ। रघु 8 हजार 867 वोटों से हारे, जबकि सिंगारियां ने 17 हजार 35 मत झटक लिए। पिछली बार निर्दलीय प्रत्याशी के बतौर उन्होंने 22 हजार 123 वोट हासिल किए थे। पिछली बार सिंगारियां की सेंध को रघु इस कारण बर्दाश्त कर गए, क्योंकि भाजपा के बागी भूपेन्द्र सिंह ने भाजपा प्रत्याशी श्रीमती रिंकू कंवर को 17 हजार 801 वोट का झटका दिया था। इस लिहाज से देखा जाए तो कम से कम केकड़ी सीट पर अगर कांग्रेस के मैनेजर सिंगारियां को राजी करने में कामयाब हो जाते तो, रघु को हार का मुंह नहीं देखना पड़ता।
वस्तुत: विकास कार्य करवाने के दम पर कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा को पूरा विश्वास था कि वे कम मतांतर से ही सही, मगर जीत जाएंगे। असल में उन्होंने यहां से विधायक बनने के बाद से ही अगला चुनाव जीतने की रणनीति बनाई और उसी के अनुरूप विकास भी करवाया। केकड़ी को जिला मुख्यालय बनाने की मुहिम इसी का हिस्सा थी। मगर सरवाड़ व केकड़ी में हुई सांप्रदायिक घटनाओं ने वोटों का धु्रवीकरण कर दिया। इसे रघु शर्मा समझ ही नहीं पाए और वे केवल विकास कार्यों के दम पर ही जीत की आशा में रहे। वैसे देखा जाए तो भाजपा प्रत्याशी शत्रुघ्न गौतम नया चेहरा होने के कारण रघु के सामने कोई दमदार प्रत्याशी नहीं थे और भाजपा में दावेदारों की संख्या अधिक होने के कारण एकजुटता पर भी आशंका थी, मगर कांग्रेस विरोधी लहर पर सवार युवा चेहरे गौतम ने उन्हें पटखनी खिला दी। बताते हैं कि रघु शर्मा के कद की वजह से उनके रूखे व्यवहार को लेकर भी कुछ नाराजगी थी, जबकि गौतम की व्यवहार कुशलता काम आ गई। समझा जाता है कि गौतम ने रघु के ब्राह्मण वोटों में भी सेंध मारी है। हालांकि  भाजपा द्वारा जिले की आठ में से किसी भी सीट पर वैश्य को टिकट नहीं देने के कारण उनकी नाराजगी को रघु ने भुनाने की कोशिश की, मगर कांग्रेस विरोधी लहर ने उसे बेअसर कर दिया।

सिनोदिया पर बहुत भारी पड़े चौधरी
जाट बहुल किशनगढ़ में एक बार फिर कांग्रेस के नाथूराम सिनोदिया और भाजपा के भागीरथ चौधरी के बीच सीधा मुकाबला था। हालांकि भाजपा के पूर्व विधायक जगजीत सिंह के पुत्र हिम्मत सिंह बसपा के बैनर पर चुनाव लड़े, मगर वे मात्र 2775 वोट ही हासिल कर पाए। इसी प्रकार एनसीपी के उज्जीर खां ने कांग्रेस को 1763 वोटों का झटका दिया। इन समीकरणों के बावजूद लहर इतनी तेज थी चौधरी ने सिनोदिया को 31 हजार 14 मतों से पटखनी दे दी।  ज्ञातव्य है कि पिछली बार भी दोनों आमने सामने थे और सिनोदिया ने चौधरी को 9724 मतों से पराजित किया था। अर्थात चौधरी ने इन मतों को पाटा ही, 31 हजार 14 वोट अधिक हासिल किए। यानि कि उन्होंने इस बार 40 हजार से भी ज्यादा मतों से सिनोदिया को हराया है। यह मात्र और मात्र कांग्रेस विरोधी लहर का ही कमाल है। इसकी एक वजह कदाचित ये भी हो सकती है कि चौधरी का शहरी मतदाताओं से मेल-मिलाप सिनोदिया के मुकाबले कहीं बेहतर था। कुल मिला कर चौधरी ने सिनोदिया से पिछली हार का बदला ले लिया है और दूसरी बार विधानसभा में जा रहे हैं। यहां आपको बता दें कि 1998 नाथूराम सिनोदिया विधायक बने तो 2003 में भागीरथ चौधरी। इसके बाद 2008 में नाथूराम सिनोदिया ने चौधरी को हराया था।

नसीम की हार इतनी बुरी होगी, अनुमान न था
पुष्कर विधानसभा में मतदान से पहले और मतदान के बाद भी यही माना जा रहा था कि शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ भाजपा के नए चेहरे सुरेश रावत के सामने कमजोर रहेंगी। इसकी एक मात्र वजह ये है कि इस बार मुकाबला त्रिकोणीय नहीं था। कांग्रेस केवल त्रिकोणीय मुकाबले में जीतती रही थी। ज्ञातव्य है कि पिछली बार रावतों की चेतावनी को नजरअंदाज कर जब भाजपा ने भंवर सिंह पलाड़ा को टिकट दिया तो श्रवण सिंह रावत ने बगावत कर ताल ठोक दी, जो कि तकरीबन तीस हजार वोट हासिल कर भाजपा की हार का कारण बन गए। ठीक इसी प्रकार का त्रिकोणीय मुकाबला 2003 के चुनाव में भी हुआ था, जबकि पलाड़ा के निर्दलीय रूप से मैदान उतर कर तीस हजार वोट काटने के कारण भाजपा के रमजान खान कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती के सामने हार गए थे। इस बार भाजपा ने रावतों की चेतावनी को ध्यान में रखते हुए ब्यावर के अतिरिक्त पुष्कर में भी रावत को ही मैदान में उतार दिया। यह रावत कार्ड काम कर गया। श्रीमती नसीम की हार की एक वजह ये भी मानी जा सकती है कि इस सीट पर वोटों का धु्रवीकरण धर्म के आधार पर भी हुआ, जिसकी नींव पलाड़ा निर्दलीय रूप से उतरने के दौरान पड़ गई थी। भाजपा के सुरेश रावत को नया चेहरा होने का लाभ भी मिला। इस सीट पर रावत वाद कितना चला, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि उनके ही भाई कुंदन रावत यहां से कांग्रेस टिकट के दावेदार थे, मगर टिकट न मिलने के बाद भाई के साथ आ गए। कुल मिला कर श्रीमती इंसाफ के इतने ज्यादा वोटों से हारने की संभावना नहीं थी, मगर ने अपना काम किया और सुरेश रावत 41 हजार 290 मतों से विजयी रहे।

नसीराबाद में टूट गया कांग्रेस का गढ़
आरंभ से कांग्रेस के कब्जे वाली नसीराबाद सीट कांग्रेस विरोधी तगड़ी लहर के चलते आखिर पहली बार भाजपा के खाते में चली गई। ज्ञातव्य है कि यहां 1980 से लगातार छह बार कांग्रेस के दिग्गज गुर्जर नेता गोविंद सिंह गुर्जर जीतते रहे और पिछले चुनाव में उनके कब्जे को बरकरार रखते हुए उन्हीं के रिश्तेदार महेन्द्र सिंह गुर्जर ने जीत हासिल की थी। इस बार फिर गुर्जर व भाजपा के पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट आमने-सामने थे। माना ये जा रहा था कि जाट ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है, मगर भाजपा के बागी अशोक खाबिया ने परेशानी पैदा कर रखी थी। इसी कारण राजनीतिक जानकारी असमंजस में थे और हार-जीत का अंतर कम ही रहने का अनुमान था, मगर जाट ने गुर्जर को 28 हजार 900 मतों से हरा दिया। पिछली बार जाट मात्र 71 मतों से हार गए थे। यहां आपको बता दें कि जाट को भाजपा के परंपरागत राजपूत वोट बैंक में निर्दलीय संगीता के सेंध मारने का खतरा था, मगर वे मात्र 1131 वोट ही हासिल कर पाईं। इसी प्रकार बसपा के अशोक खाबिया भी 1515 वोट का ही झटका दे पाए। निर्दलीय भागू सिंह रावत ने भी भाजपा को महज 248 वोट का नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस को निर्दलीय सुवा लाल गुंजल व सलामुद्दीन से कुछ खतरा था और उन्होंने क्रमश: 2972 व 1769 वोट का झटका दिया।
जातीय लिहाज से देखें तो यहां जाटों व गुर्जरों के बीच सीधा मुकाबला था। दोनों ने जमकर मतदान किया। यहां अनुसूचित जाति के मतदाता 45 हजार, गुर्जर 30 हजार, जाट 25 हजार, मुसलमान 15 हजार, वैश्य 15 हजार, रावत 17 हजार हैं। गुर्जर, अनुसूचित जाति और मुसलमान परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ हैं तो जाट, रावत व वैश्य भाजपा का साथ दे रहे थे। चूंकि आंकड़ों के लिहाज से मुकाबला बराबर का और पिछले चुनाव जैसा था, इस कारण इस बार फिर हार-जीत का अंतर ज्यादा होने के आसार नहीं थे, मगर लहर ने सारे समीकरण गड़बड़ा दिए और जाट ने गुर्जर को 28 हजार900 मतों से हरा दिया। इस प्रकार कांग्रेस का यह गढ़ ढ़ह गया। एक महत्वपूर्व बात ये है कि जाट को इस बार फिर केबिनेट मंत्री बनने का मौका मिलेगा।

ब्यावर में त्रिकोण नहीं बना पाए भूतड़ा
ब्यावर विधानसभा क्षेत्र में इस बार भाजपा के बागी देवीशंकर भूतड़ा के मैदान में उतरने से त्रिकोण बनने की संभावना थी, मगर भाजपा के शंकर सिंह रावत ने कांग्रेस के मनोज चौहान को 42 हजार 909 मतों से हरा दिया।  भूतड़ा मात्र 7 हजार 129 वोट ही हासिल कर पाए। दोनों पार्टियों के प्रत्याशियों के रावत होने के कारण यह माना जा रहा था कि भूतड़ा वैश्य व शहरी वोटों को आकर्षित कर भाजपा को तगड़ा नुकसान पहुंचाएंगे। इसी आधार पर उनकी जीत के कयास भी थे। मगर लहर ने सब कुछ धो दिया। यहां कांग्रेस को निर्दलीय पप्पू काठात ने 12 हजार 390 वोटों का झटका दिया है।
यहां आम तौर पर शहरी मतदाताओं का वर्चस्व रहता है, लेकिन परिसीमन के बाद 11 पंचायतें शामिल किए जाने से ग्रामीणों का वर्चस्व बढ़ा है। असल में इस सीट पर आमतौर पर वैश्यों का कब्जा रहा, मगर परिसीमन के बाद रावतों की बहुलता होने के बाद भाजपा का रावत कार्ड कामयाब हो गया और पिछली बार शंकर सिंह रावत रिकार्ड वोटों से जीते। पिछली बार यहां कांग्रेस के बागी पूर्व विधायक के. सी. चौधरी ने वैश्य मतदाताओं के दम पर त्रिकोण बनाया था और वे दूसरे स्थान रहे, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर धकेल दी गई। इस बार भी त्रिकोण की संभावना थी मगर वह खारिज हो गई और रावत लगातार दूसरी बार विधानसभा में जा रहे हैं।

कड़े मुकाबले में जीत ही गईं श्रीमती पलाड़ा
मसूदा में पहली बार हुए बहुकोणीय मुकाबले में कड़े संघर्ष के बाद भाजपा की श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा ने जीत दर्ज कर ही ली। उन्होंने कांग्रेस के ब्रह्मदेव कुमावत को 4475 मतों से पराजित किया। असल में यहां की तस्वीर इतनी धुंधली थी कि कोई भी कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। कयास तो यहां तक थे कि कांग्रेस के बागी निर्दलीय रामचंद्र चौधरी या वाजिद चीता जीत जाएंगे। ये दोनों कितने सशक्त थे, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि चौधरी को 28 हजार 447 तो वाजिद को 20690 वोट हासिल हुए। उधर भाजपा को तीन बागियों से खतरा था, उनमें से देहात जिला अध्यक्ष नवीन शर्मा ने बिजयनगर में अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए 22 हजार 186 हासिल कर लिए। इसी प्रकार भाजपा के ही बागी भंवर लाल बूला को 8433 मत हासिल हुए। श्रीमती पलाड़ा को बागी शांति लाल गुर्जर से भी खतरा रहा, जिन्होंने 10622  मत हासिल किए।  कुल मिला कर बहुकोणीय मुकाबले में इतना घमासान हुआ कि सुशील कंवर पलाड़ा को 34 हजार 11 मत पा कर जीत गई। ब्रह्मदेव कुमावत को 29 हजार 536 मत मिले। यहां बसपा के गोविन्द को 2098,  भारतीय युवा शक्ति के कमलेश को 1066, निर्दलीय ओमप्रकाश को 1078, पुष्कर नारायण त्रिपाठी को 791, भंवर सिंह को 3390, मांगीलाल जांगिड़ को 1838 और शान्ति लाल को 10622  मत मिले। वस्तुत: यह सीट भाजपा के लिए इसलिए प्रतिष्ठापूर्ण थी क्योंकि उसने यहां से जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को राजपूतों के दबाव में उतारा था। कड़े मुकाबले में जीत हासिल कर उन्होंने प्रतिष्ठा बरकरार रख ही ली।

शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

डॉ. बाहेती जीतेंगे या प्रो. देवनानी?

हालांकि मतदान बाद हुए सर्वे ये कह रहे हैं कि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने की संभावना है, मगर अजमेर उत्तर में इस तरह की आम सोच बनी हुई है कि यहां कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ही जीतेंगे, चाहे कम ही मतांतर से। जहां कांग्रेस विचारधारा के लोग मानते हैं कि बाहेती अच्छे वोटों से जीतेंगे, वहीं भाजपाई देवनानी की जीत के प्रति आश्वस्त हैं। दोनों ही पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं।
आपको बता दें कि इस बार अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में 1 लाख 78 हजार 427 में से 1 लाख 20 हजार 186 मतदाताओं यानि 67.36 प्रतिशत मतदाताओं ने मताधिकार का उपयोग किया। यहां 91 हजार 240 पुरुष मतदाताओं में से 62 हजार 631 एवं 87 हजार 187 महिला मतदाताओं में से 57 हजार 555 ने मतदान किया। सन् 2008 में हुए चुनाव में एक लाख 57 हजार 70 मतदाताओं में से 88 हजार 742 मतदाताओं ने मतदान किया। इनमें 48 हजार 107 पुरुष व 40 हजार 635 महिला मतदाता थे। इसका मतलब ये हुआ कि इस बार 31 हजार 544 मतदाता बढ़े। मतदाताओं की संख्या इतनी बढऩे को कांग्रेस व भाजपा अपने-अपने हिसाब अपने पक्ष में मान रहे हैं। कुल मतदाताओं की संख्या में 20 हजार 727 का इजाफा हुआ, जिसे युवा मतदाताओं के रूप में गिना जाता है। भाजपा का तर्क है कि युवा मतदाता इस बार प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी का दीवाना है और बदलाव चाहता है, इस कारण उनका झुकाव भाजपा की ओर था। दूसरी ओर कांग्रेस का मानना है कि चूंकि इस बार मुसलमानों का मतदान प्रतिशत बढ़ा है, साथ ही वैश्यों ने भी बढ़-चढ़ कर बाहेती को वोट दिया है, इस कारण उनकी जीत में कोई भी संदेह नहीं है। उसका आकलन है कि बाहेती तकरीबन दो हजार वोटों से जीत सकते हैं। इसकी काट में भाजपा का कहना है कि अगर मुसलमानों का मतदान बढऩे को मोदी की अजमेर में हुई सभा की प्रतिक्रिया माना जाता है तो कि क्रिया भी तो हुई होगी। यानि कि मोदी के प्रभाव से हिंदू मतदाताओं की संख्या भी तो बढ़ी होगी। भाजपा का तर्क है कि इस बार महंगाई व भ्रष्टाचार के कारण कांग्रेस के प्रति स्वाभाविक गुस्सा था, उसे कैसे नकारा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उसका ये कहना है कि मुसलमानों व वैश्यों के बढ़े वोट अधिक से अधिक 12 से 15 हजार हो सकते हैं। इनको बढ़ी हुई मतदान संख्या 31 हजार 544 में से निकाला जाए तो भी देवनानी तकरीबन दो से ढ़ाई हजार वोटों से जीत सकते हैं। जहां तक सिंधी मतदाताओं का सवाल है, वे अधिसंख्य देवनानी के पक्ष में ही लामबंद रहे। साथ उनका भी मतदान प्रतिशत बढ़ा है।
छवि की अगर बात करें तो कांग्रेसियों का कहना है कि बाहेती की छवि साफ-सुथरी है तो भाजपाई भी कहते हैं कि देवनानी पर भी कोई दाग नहीं है। बात अगर संगठन की करें तो कांग्रेस के कुछ नेताओं ने ठीक से काम नहीं किया, तो भाजपा के कुछ नेता भी निष्क्रिय रहे। दोनों को अपने-अपने निजी संबंधों वाले पार्टी कार्यकर्ताओं के भरोसे काम करना पड़ा। बताते हैं कि वैश्य समुदाय से जुड़े कुछ भाजपा नेताओं ने तो जम कर भितरघात किया। बात अगर रणनीति की करें तो बाहेती ने बसपा के सैयद दानिश को मैदान से हटवा कर जीत की आधारशिला रख ली थी। हालांकि निर्दलीय सोहन चीता फिर भी मैदान में डटे रहे, मगर उनका असर कम ही आंका गया। इसी प्रकार संघ के दबाव में निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत के मैदान में नहीं आने से देवनानी को राहत मिली, मगर इसे जरा बारीकी से समझना होगा। पहले माना जा रहा था कि वे देवनानी को हराने के लिए ही, खड़े जरूर होंगे, मगर यह स्थिति केवल दोनों ही प्रत्याशी सिंधी होने पर कारगर होती। जैसे ही कांग्रेस ने गैर सिंधी को टिकट दिया, वह स्थिति बदल गई। इसकी वजह ये है कि सारस्वत के समर्थकों में जहां देवनानी विशेष के विरोधी थे, तो देवनानी के बहाने सिंधी विरोधियों की संख्या अधिक थी। सारस्वत के संघ के दबाव में खड़े न होने से देवनानी को राहत मिली, मगर  धरातल पर ये हुआ कि देवनानी से व्यक्तिगत रूप से नाराज कार्यकर्ता और भाजपा मानसिकता का मगर वैश्यवाद का समर्थक बाहेती के साथ चला गया। इसमें सारस्वत की क्या भूमिका रही, कुछ कहा नहीं जा सकता।
कुल मिला कर अजमेर उत्तर का मुकाबला काफी दिलचस्प रहा। जीत किसकी होगी, यह तो 8 फरवरी को ही पता लगेगा। कहने की जरूरत नहीं है कि इनमें से जो भी जीतेगा और अगर उसी के दल की सरकार बनी तो उसका मंत्री बनना तय है।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

यानि कि शर्मा, चौधरी व भूतड़ा के जीतने की संभावना है

naveen sharma
नवीन शर्मा
दैनिक भास्कर की खबर के अनुसार सरकार बनाने की खातिर जरूरी आंकड़ा पाने के लिए कांग्रेस व भाजपा अपने बागियों पर भी नजर रखे हुए है और लगातार उनसे संपर्क में है। ऐसे बागियों में मसूदा में भाजपा के बागी नवीन शर्मा व कांग्रेस के बागी रामचंद्र चौधरी और ब्यावर में देवीशंकर भूतड़ा के नाम शामिल हैं। इस रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि इन बागियों के जीतने की संभावना है।
ज्ञातव्य है कि अजमेर जिले का मसूदा विधानसभा क्षेत्र ही ऐसा है, जहां सबसे ज्यादा घमासान है और अनुमान लगाना ही कठिन हो रहा है कि जीतेगा कौन? कांग्रेस ने वहां से संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत को तो भाजपा ने श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा को चुनाव मैदान में उतारा था। मगर देहात जिला भाजपा अध्यक्ष अध्यक्ष नवीन शर्मा स्थानीयता के नाम पर बागी बन बैठे।
रामचंद्र चौधरी
रामचंद्र चौधरी
उधर पूर्व देहात जिला अध्यक्ष व अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी बागी बन कर खड़े हो गए। पिछली बार कांग्रेस से बगावत कर मैदान में उतरे ब्रह्मदेव कुमावत ने कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी रामचंद्र चौधरी को हरवा दिया था, इस कारण इस बार चौधरी अपनी हार का बदला लेना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त दमदार प्रत्याशियों में वाजिद खान को माना जा रहा है, जो चीता समाज के समर्थन से अच्छी स्थिति में बताए जा रहे हैं। मुसलमानों के तकरीबन 32 हजार वोट बताए जाते हैं।
जहां तक नवीन शर्मा का सवाल है, उनकी बिजयनगर में अच्छी पकड़ बताई जा रही है। उनका स्थानीयता का नारा बुलंद करने वालों ने भी साथ दिया बताया। गुर्जर समाज के शांति लाल गुर्जर व जाट समाज के भंवरलाल बूला की बगावत भी भाजपा को झेलनी पड़ रही है। उधर चौधरी को अपने जाट समुदाय का पूरा समर्थन मिला बताया, जो कि तकरीबन 24 हजार हैं। इसके अतिरिक्त डेयरी नेटवर्क के कारण निजी संबंधों वाले गुर्जरों का भी साथ लिए हुए हैं, हालांकि केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री व अजमेर के सांसद के खिलाफ झंडा बुलंद करने के कारण गुर्जरों का साथ मिलना कठिन बताया जाता है। वैसे बसपा के गोविंद गुर्जर भी कांग्रेस के परंपरागत मतों में सेंध मार सकते हैं। ज्ञातव्य है कि यहां गुर्जरों की संख्या करीब 30 हजार बताई जाती है। कुल मिला कर यह कहना बेहद मुश्किल है कि यहां कौन जीतेगा, मगर जैसी कि कांग्रेस व भाजपा की अपने बागियों नवीन शर्मा व रामचंद्र चौधरी पर नजर है, लगता है कि इस घमासान में उनके जीतने की संभावना है।
देवी शंकर भूतडा
देवी शंकर भूतडा
बात अगर ब्यावर की करें तो वहां भाजपा की ओर से मौजूदा विधायक शंकर सिंह रावत फिर मैदान में हैं तो कांग्रेस ने मनोज चौहान, मगर शहरी और वैश्य वोटों के भरोसे भाजपा के दिग्गज देवीशंकर भूतड़ा ने ताल ठोक दी, जो भाजपा के लिए बड़ी परेशानी माने जा रहे हैं। असल में यहां आरंभ से वोटों का धु्रवीकरण शहर व देहात में होता रहा है, उसी का फायदा भूतड़ा उठा सकते हैं। वैसे कांग्रेस को चीता, मेहरात व काठात समाज की नाराजगी भारी पड़ सकती है। निर्दलीय पप्पू काठात कांग्रेस को बड़ा झटका दे सकते हैं। असल में इस सीट पर आमतौर पर वैश्यों का कब्जा रहा, मगर परिसीमन के बाद रावतों की बहुलता होने के बाद भाजपा का रावत कार्ड कामयाब हो गया और शंकर सिंह रावत रिकार्ड वोटों से जीते। पिछली बार यहां कांग्रेस के बागी पूर्व विधायक के. सी. चौधरी ने वैश्य मतदाताओं के दम पर त्रिकोण बनाया था और वे दूसरे स्थान रहे, जबकि कांग्रेस तीसरे स्थान पर धकेल दी गई। इस बार फिर वैश्य के रूप में भूतड़ा ऐसा ही कुछ करने की स्थिति में हैं।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

सिंगारियां का एजेंडा आखिर है क्या?

babu lal singariya 1केकड़ी विधानसभा क्षेत्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के बैनर तले चुनाव मैदान में उतरे पूर्व कांग्रेस विधायक बाबूलाल सिंगारियां का एजेंडा आखिर है क्या, ये किसी के समझ में नहीं आ रहा। पिछली बार जब वे निर्दलीय रूप से चुनाव लड़े थे तो यही कानाफूसी थी कि उन्हें मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सी. पी. जोशी खेमे में चले गए रघु शर्मा को निपटाने की खातिर अनुसूचित जाति से होते हुए भी इस सामान्य सीट पर चुनाव लड़ा। हालांकि तब से शर्मा को हराने में तो कामयाब नहीं हुए, मगर खुद 22 हजार 123 वोट हासिल कर दिखा दिया कि उनमें कितना दम है। ज्ञातव्य है कि रघु शर्मा ने भाजपा की श्रीमती रिंकू कंवर को 12 हजार 659 मतों से पराजित किया था। श्रीमती रिंकू कंवर की हार में भाजपा के बागी भूपेन्द्र सिंह की भूमिका रही, जिन्होंने 17 हजार 801 वोट लिए थे।
आपको याद होगा कि इस चुनाव के चंद माह बाद ही जब लोकसभा के चुनाव हुए और अजमेर संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के सचिन पायलट मैदान में आए तो बागियों को मनाया गया, जिसमें सिंगारियां भी शामिल थे। उन दिनों बड़ी चर्चा थी कि शर्मा ने उनकी कांग्रेस में वापसी पर काफी अड़ंगा लगाया था और व्यक्तिगत रूप से माफी मांगने पर ही राजी हुए। बहरहाल, इसके बाद उन्होंने सचिन के लिए काम किया और पूरे पांच साल वे केकड़ी में सक्रिय रहे। साथ ही उनकी नजर अजमेर दक्षिण पर भी रही। माना ये जा रहा था कि पूर्व उप मंत्री ललित भाटी व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल की खींचतान में उन्हें मौका मिल जाएगा। मगर ऐसा हुआ नहीं। पायलट ने एक नया प्रयोग कर पिछले दो चुनावों में भाजपा की श्रीमती अनिता भदेल को साथ देने वाले हेमंत भाटी को टिकट दिलवा दिया। टिकट वितरण प्रक्रिया के दौरान ही सिंगारियां कह दिया था कि वे केकड़ी से चुनाव लड़ेंगे। यूं पहले भी वे इसी प्रकार की घोषणा करते रहे थे। समझा ये जाता था कि ऐसा वे बार्गेनिंग के लिए कह रहे हैं। आखिर जब उन्हें कहीं से टिकट नहीं मिला तो वे केकड़ी सीट के लिए राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का टिकट ले कर आ गए। उन्होंने पूरी ताकत भी झोंक दी। इस बार चूंकि राष्ट्रीय पार्टी के चुनाव चिन्ह पर लड़े, इस कारण परफोरमेंस बेहतर होने की संभावना जताई जा रही है। कदाचित इस बार जीतने की ही खातिर मैदान में उतरे हों, मगर मीडिया ने उन्हें इस रूप में कभी नहीं लिया। वह रघु के वोट कटर के रूप में ही आंकते रहे हैं। जो कुछ भी हो, मगर अनुसूचित जाति के नेता के एक सामान्य सीट से चुनाव लडऩे को गंभीरता से लिया जाता है। इसकी वजह ये है कि एक तो उनका परफोरमेंस पिछली बार भी निर्दलीय होने के बावजूद अच्छा था, इस बार तो राष्ट्रीय पार्टी का झंडा ले कर आए हैं, दूसरा ये कि इस बार उन्होंने मेहनत कुछ ज्यादा ही की है। अर्थात वे जीतने की उम्मीद के साथ मैदान में आए हैं। खैर, बावजूद इसके माना यही जा रहा है कि वे रघु को हराने के लिए खड़े हुए। सच क्या है, ये तो वही जान सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर

मुसलमानों का वोट प्रतिशत बढ़ा गए मोदी

n modi 1आम तौर पर चुनाव में सुस्त रहने वाला मुसलमान मतदाता इस बार जब बढ़-चढ़ कर मतदान केन्द्र पर पहुंचा तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि ऐसा कैसे हो गया?
असल में कांग्रेस प्रत्याशियों को हर चुनाव में दिक्कत ये आती है कि मुस्लिम चुनाव में कोई खास रुचि नहीं लेते। इस कारण उन्हें जो लाभ मिलना चाहिए, वह मिल नहीं पाता। रही सही कसर एक-दो निर्दलीय मुस्लिम प्रत्याशी पूरी कर देते हैं। इस बार चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में भाजपा ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की अजमेर में सभा करवायी तो यह सोच कर कि यहां भी मोदी की लहर काम कर जाए। तगड़ी भीड़ की वजह से यह पक्का माना जा रहा है कि उसका लाभ भाजपा प्रत्याशियों को होगा ही। यह लाभ आंकड़ों में कितना होता है यह तो पता नहीं, मगर इतना जरूर हुआ कि प्रतिक्रिया में मुस्लिम भी लामबंद हो गया। कोई माने या न माने मगर यह तय है कि मुस्लिमों के मतदान प्रतिशत में जो उछाल आया है, उसकी एक बड़ी वजह मोदी की सभा ही है।
मतदान के आंकड़ों की जुबानी कहती है कि मुस्लिम बहुल अंदरकोट, खादिम मोहल्ला, तारागढ़ आदि में अस्सी फीसदी के आसपास मतदान हुआ है। इसके अतिरिक्त लौंगिया मोहल्ला, देहलीगेट, घोसी मोहल्ला आदि क्षेत्रों में भी मुस्लिम मतदाता हैं। वहां भी मतदान प्रतिशत में इजाफा हुआ है। मुस्लिमों का यह रुझान पहली बार दिखाई दिया है। स्वाभाविक रूप से इसका लाभ कांग्रेस प्रत्याशी डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को होगा।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

वैश्यों के रुख पर निर्भर है अजमेर उत्तर का चुनाव परिणाम

डॉ. श्रीगोपाल बाहेती
अजमेर उत्तर में मतदाताओं के उत्साह के चलते 67.36 प्रतिशत तक मतदान होने की वजह से किस पार्टी को लाभ होगा, इसका आकलन करना राजनीतिक पंडितों व स्वयं राजनीतिज्ञों के लिए मुश्किल हो गया है। हालांकि मोटे तौर पर शहरी क्षेत्र में बढ़े हुए मतदान प्रतिशत का लाभ सीधे तौर पर भाजपा के पक्ष में माना जाता है, मगर इस बार के धरातल के कुछ तथ्य इस धारणा को डिगाते नजर आते हैं।
ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र में एक लाख 57 हजार 70 मतदाताओं में से 88 हजार 742 मतदाताओं ने मतदान किया, जबकि इस बार 1 लाख 78 हजार 427 में से 1 लाख 20 हजार 186 मतदाताओं ने मताधिकार का उपयोग किया।
अब बात करते हैं स्थानीय समीकरणों की। हुआ ये कि कांग्रेस की ओर से इस बार फिर गैर सिंधी का कार्ड खेलते हुए डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को अपना प्रत्याशी घोषित किया। जाहिर तौर पर इससे सिंधियों में गुस्सा उत्पन्न हुआ। हालांकि इस बार सिंधियों ने घोषित रूप से कोई मुहिम नहीं चलाई, मगर पिछली बार जगाई गई जागृति उनमें मौजूद थी। किसी को कुछ करने की जरूरत नहीं महसूस हुई। इसमें आग में घी का काम किया डॉ. बाहेती के नाम से किसी शरारती तत्व की ओर से जारी एक परचे ने। इसकी प्रतिक्रिया भी हुई। चूंकि सिंधी लामबंद होते नजर आए, इस कारण वैश्य भी जाग गए। यूं तो वे पिछली हार के कारण जागे हुए ही थे, मगर जब जाति के नाम पर वोटों के धु्रवीकरण की पूरी आशंका बनी, इस कारण उन्होंने भी कमर कस ली, ये बात दीगर है कि इसका अहसास उन्होंने होने नहीं दिया। हालात में तनिक बदलाव तब महसूस किया गया, जब प्रधानमंत्री पद के भाजपाई उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी की अजमेर में सफल सभा हुई। भाजपा नेताओं को आशा थी कि मोदी के प्रभाव में वैश्यवाद धीमा पड़ जाएगा। कदाचित ऐसा हुआ भी हो। इसमें कोई दोराय नहीं कि मतदान के दौरान वैश्य बहुल नया बाजार, पुरानी मंडी, अहाता मोहल्ला, घी मंडी नहर मोहल्ला, कड़क्का चौक आदि इलाकों वैश्यवाद प्रत्यक्ष रूप से नजर आया, मगर गुत्थी यहीं उलझी हुई है। यह आकलन करना कठिन हो गया है कि वैश्यवाद चला कितना? उस पर मोदी की कथित लहर ने कितना पानी फेरा? भाजपा मानसिकता के वैश्यों ने बाहेती की खातिर अपनी पार्टी की प्रतिबद्धता को ताक पर कितना रखा? कांग्रेसी ये मान कर चल  रहे हैं कि उन्हें वैश्यवाद का फायदा मिलेगा, मगर भाजपाई सोच ये है कि वैश्यवाद का असर उनके प्रतिबद्ध वोटों पर नहीं पड़ा होगा। हां, इतना तय है कि पूरा का पूरा वैश्य समाज जातिवाद की चपेट में मोदी अथवा कांग्रेस से नाराजगी को नहीं भूल गया होगा।
प्रो वासुदेव देवनानी
बात अगर सिंधियों की करें तो यह तो स्पष्ट है कि वह कुछ सिंधी कांग्रेसी नेताओं के बाहेती का साथ देने के बाद भी भाजपा की ओर ही झुके रहे। इसमें गौर करने लायक बात ये है कि सिंधी मतदाता का रुख तो साफ था, मगर उसमें उतना उत्साह नहीं था, जितना वैश्यों में नजर आया। वजह स्पष्ट है। सिंधियों ने योजनाबद्ध तरीके से मतदान में रुचि नहीं दिखाई, जबकि वैश्य पिछली हार का बदला लेने के लिए प्रतिबद्ध थे। ऐसे में यह समझना कठिन हो गया है कि आखिर हुआ क्या?
कुल जमा बात ये है कि मोदी की चुनावी सभा व कांग्रेस सरकार के विरुद्ध स्वाभाविक एंटी इन्कमबेंसी व सिंधीवाद का फायदा जहां देवनानी को मिला होगा, वहीं मुसलमानों के मत प्रतिशत में उछाल और वैश्यवाद के चलते बाहेती जीतने का सपना देख सकते हैं। यह सपना साकार हो भी सकता है, मगर तब जबकि वाकई पूरे के पूरे वैश्य ने अर्जुन की तरह मछली की आंख पर ही नजर रखी होगी।
-तेजवानी गिरधर