शुक्रवार, 31 मई 2013

दबाव बेशक नसीम को होगा, मगर जिम्मेदार तो जिला प्रशासन है

गत दिवस पुष्कर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के हाथों डाक बंगले का शिलान्यास कराए जाने का मामला इन दिनों बहुत गरमाया हुआ है। कहा ये जा रहा है कि पुष्कर की विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ की तिकड़मबाजी से उस जमीन पर शिलान्यास करवा लिया गया, जिसकी स्वीकृति ही नहीं थी। सच तो यह है कि स्वीकृति पूर्व में ही निरस्त हो गई थी। बेशक नसीम ने अपने इलाके में वाहवाही लेने के लिए शिलान्यास करवाने की जुगाड़ बैठाई और मुख्यमंत्री के तयशुदा कार्यक्रम में शिलान्यास कार्यक्रम शामिल न होने के बाद भी उसे अधिकृत कार्यक्रम में शामिल करवा लिया, मगर सवाल ये उठता है जिला कलेक्टर वैभव गालरिया ने तथ्यात्मक जानकारी लिए बिना ही ऐसा होने कैसे दिया?  उससे भी बड़ी बात यह है कि डाक बंगले के लिए जमीन न होने के बावजूद वर्क ऑर्डर जारी कैसे हो गए? क्या अधिकारी इतने दबाव में थे कि उन्होंने आंख मींच कर वह सब कुछ होने दिया, जिसके लिए बाकायदा नीति-निर्देश बने हुए हैं। यहां आपको बता दें कि मुख्यमंत्री कार्यालय ने मुख्यमंत्री द्वारा कराए जाने वाले उद्घाटन और शिलान्यासों के संबंध में कड़े निर्देश जारी किए हुए हैं। इन निर्देश में साफ कहा गया है कि जहां भी किसी भवन या स्थान को लेकर विवाद या संदेह हो उसका उद्घाटन अथवा शिलान्यास मुख्यमंत्री से नहीं कराया जाए। स्पष्ट है कि यहां इस मामले में सीएमओ के इस निर्देश की पालना नहीं की गई। जहां तक पीडब्ल्यूडी का सवाल है, वह कह रहा है कि  उनकी ओर से शिलान्यास के लिए किसी प्रकार का पत्राचार नहीं किया गया। अर्थात शिलान्यास संबंधी कार्यक्रम नसीम अख्तर शिक्षा राज्यमंत्री राजस्थान सरकार एवं जिला प्रशासन अजमेर के निर्देशों से किया गया है। मगर सवाल ये उठता है कि जब डाक बंगले के निर्माण की मंजूरी को पहले ही विभाग के मंत्री डॉ भरत सिंह ने निरस्त कर दिया था तो उसके बाद भी पीडब्ल्यूडी के अफसरों ने यह तथ्य क्यों छुपाए रखा कि उसके द्वारा जमीन उपलब्ध नहीं होने के बावजूद टेंडर जारी करने की कार्रवाई वित्तीय व लेखा नियमों को ताक में रख कर अंजाम दी गई है। विभाग ने एक कदम आगे बढ़ कर वर्क ऑर्डर तक जारी कर दिया।
बहरहाल, ताजा स्थिति ये है कि काम की मंजूरी ही निरस्त हो जाने के बाद शिलान्यास भी स्वत: ही शून्य हो गया है।
ज्ञातव्य है कि यह सारा विवाद हुआ ही इस कारण कि पीडब्ल्यूडी मंत्री ने प्रस्तावित डाक बंगले के काम की पूर्व में जारी स्वीकृति को शिलान्यास कार्यक्रम तय होने के कुछ दिन पहले निरस्त कर दिया। विभाग के प्रमुख शासन सचिव व मुख्य अभियंता ने विभागीय आदेश भी जारी कर दिए। मगर ये पता नहीं लग रहा कि आखिर इस आदेश की जानकारी महकमे के स्थानीय अफसरों को क्यों नहीं मिली?
-तेजवानी गिरधर

जेल में पीसीओ की जरूरत कहां है, मोबाइल जो उपलब्ध है

पूर्व जेल अधीक्षक प्रीता भार्गव के सामने मोबाइल पड़े हैं
राज्य के जेल मंत्री रामकिशोर सैनी ने कहा कि जल्द ही अजमेर, जोधपुर और जयपुर सेंट्रल जेलों की तरह राज्य की सभी जेलों में पीसीओ लगेंगे। उनकी घोषणा पर कानाफूसी है कि जेलों में पीसीओ की जरूरत ही कहां है। जब जेल में कैदियों को आसानी से मोबाइल फोन उपलब्ध हो जाते हैं तो वे काहे को पीसीओ से बात करेंगे। प्रदेश की जेलों में अब तक कई बार की गई आकस्मिक तलाशी में हर बार वहां मोबाइल फोन छुपाए हुए मिले हैं। खुद पुलिस का मानना है कि इन्हीं मोबाइल के जरिए कई खूंखार कैदी अपनी गेंगे चला रहे हैं। मोबाइल तो कुछ भी नहीं है, जेलों में कारतूस, हथियार तक कैदियों के पास पाए गए हैं।
स्वयं जेल राज्य मंत्री रामकिशोर सैनी ने भी एक बार स्वीकार किया थ कि जेल में कैदी मोबाइल का उपयोग कर रहे हैं और उस पर अंकुश के लिए प्रदेश की प्रमुख जेलों में जैमर लगाए जाएंगे, मगर आज तक कोई प्रभावी कार्यवाही नहीं हो पाई है। जेल मंत्री का जेलों में जैमर लगवाए जाने की बात से स्पष्ट है कि वे अपराधियों के पास मोबाइल पहुंचने को रोकने में नाकाम रहने को स्वयं स्वीकार कर रहे थे।
आपको याद होगा कि सजायाफ्ता बंदी के परिजन से रिश्वत लेने के मामले में अजमेर जेल के तत्कालीन जेलर जगमोहन सिंह को सजा सुनाते हुए न्यायाधीश कमल कुमार बागची ने जेल में व्याप्त अनियमितताओं पर टिप्पणी की कि अजमेर सेंट्रल जेल का नाम बदल कर केन्द्रीय अपराध षड्यंत्रालय रख दिया जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। न्यायाधीश ने इस सिलसिले में संदर्भ देते हुए कहा कि समाचार पत्रों में यह तक उल्लेख आया है कि जेल में मोबाइल, कारतूस व हथियार बरामद हुए हैं और हत्या की सजा काट रहे मुल्जिम ने अजमेर जेल से साजिश रच कर जयपुर में व्यापारी पर जानलेवा हमला करवाया। जेल प्रशासन के लिए इससे शर्मनाक टिप्पणी हो नहीं सकती थी। आपको ये भी याद होगा कि जयपुर के टायर व्यवसायी हरमन सिंह पर गोली चलाने की सुपारी अजमेर जेल से ही ली गई। जेल में आरोपी आतिश गर्ग ने मोबाइल से ही पूरी वारदात की मॉनीटरिंग की। जब उसे पता लगा कि उसकी हरकत उजागर हो गई है तो उसने अपना मोबाइल जलाने की कोशिश की, जिसे जेल अधिकारियों ने बरामद भी किया। इससे पहले जेल में कैदियों ने जब मोबाइल के जरिए फेसबुक पर फोटो लगाए तो भी यह मुद्दा उठा था कि लाख दावों के बाद भी जेल में अपराधियों के मोबाइल का उपयोग करने पर कोई रोक नहीं लगाई जा सकी है। सवाल उठता है कि क्या जब भी जांच के दौरान किसी कैदी के पास मोबाइल मिला है तो उस मामले में इस बात की जांच की गई है कि आखिर किस जेल कर्मचारी की लापरवाही या मिलीभगत से मोबाइल कैदी तक पहुंचा है? क्या ऐसे कर्मचारियों को कभी दंडित किया गया है?