शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

बाहेती जी, आपकी तो वैसे ही मान लेते गहलोत साहब

पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने चंबल का पानी अजमेर वासियों को पिलाने के लिए पोस्टकार्ड अभियान शुरू कर दिया है। जब तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से कोई बड़ी जिम्मेदारी नहीं मिले, तब तक तो ये काम काफी अच्छा है।
वैसे जानकारी ये है कि चंबल को बीसलपुर से जोडऩे की तकनीकी कागजी कवायद तो पूरी हो भी चुकी है। कदाचित सरकार का मानस भी हो, इसे अमली जामा पहनाने का। या फिर डॉ. बाहेती को अपने सूत्रों पता लग गया हो कि सरकार इस दिशा में अगला कदम उठाने जा रही है। शायद इसी कारण अभियान छेड़ दिया है, ताकि जैसे ही सरकार निर्णय करे, उसकी सारी के्रडिट उनके खाते में दर्ज हो जाए।
सब जानते हैं कि डॉ. बाहेती अजमेर के प्रमुख कांग्रेसी नेता हैं। सरकार भी कांग्रेस की है। वो भी अपने गहलोत साहब की। बाहेती जी की गहलोत साहब के दरबर में खूब चलती है। इसे यूं भी कह सकते हैं कि गहलोत साहब की वजह से बाहेती जी की चवन्नी अजमेर में रुपए में चलती है। अपुन तो ये मानते हैं कि डॉ. बाहेती को तो ये अभियान चलाने की जरूरत ही नहीं है। अगर वे चाहें तो ये व्यक्तिगत रूप से मिल कर भी मांग कर सकते हैं। उनकी मांग पूरी हो जाएगी। ऐसे में पोस्टकार्ड अभियान कुछ जंचा नहीं। ऐसे अभियान तो विपक्षी दल को ही शोभा देते हैं। मगर बाहेती जी समझदार हैं। जानते हंै कि अगर उन्होंने अपने स्तर पर ही चंबल का पानी अजमेर वासियों को पिला दिया तो कौन मानेगा कि यह उन्हीं के करम का फल है। इस कारण ढि़ंढ़ोरा पीटना जरूरी समझा होगा। जैसे बीसलपुर का पानी भूतपूर्व मंत्री किशन मोटवानी की देन है, वैसे ही चंबल का पानी बाहेती जी की देन माना जाएगा। ऐसे में लोग बाहेती जी को दुआएं देंगे।
बहरहाल, बाहेती जी का यह अभियान अच्छा है, मगर इससे पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को जरूर तकलीफ हुई होगी। उन्होंने तो अपने विधायकत्व काल में ही इस पर कवायद करवाई थी, जो कि सरकार बदलने पर फाइलों में दफन हो गई। अब बाहेती जी के प्रयासों से अगर फाइलों पर जमा गर्द हटा कर कार्यवाही की गई तो के्रडिट भी उनको ही मिलेगी।
खैर, क्रेडिट किसे भी मिले, अपनी तो भगवान से यही प्रार्थना है कि बाहेती जी की ओर से अब शुरू की गई मुहिम कामयाब हो जाए। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से अजमेर वासियों का मिजाज तो बदलेगा। वरना इलायची बाई की गद्दी के लिए विख्यात अजमेरवासी पांच-पांच दिन तक भी पानी नहीं मिलने पर चूं तक नहीं बोलते। विशेष रूप से अजमेर के लिए बनी बीसलपुर परियोजना से अजमेरवासियों की प्यास बुझे न बुझे, जयपुर को पानी का हिस्सा दिए जाने पर भी संतोषी माता की पूजा करते रहते हैं। रेलवे के जोनल मुख्यालय केलिए सर्वाधिक उपयुक्त शहर अजमेर होने पर भी वह जयपुर में खुल जाता है और हम उदार बने रहते हैं। कम से कम चंबल का पानी पीने को मिलने से हमारे खून में भी चंबल के बीहड़ों की बिंदास फितरत उतर आएगी। कोटा वासियों की माफिक हमसे भी लोग खौफ खाएंगे। वैसे बीसलपुर का पानी भी कम नहीं है, बिसलरी की माफिक है। मगर उसने हमारे खून को ठंडा और मीठा कर दिया है। ऐसे में बेहद जरूरी है कि अब चंबल का पानी पीने को मिल जाए, ताकि स्वर्गीय वीरकुमार जैसे नेता भी हमारी जमीन उपजना शुरू कर दे।
या तो संबंध निभा लो, या ठीक से पार्षदी करो
दो पार्षद नगर निगम कर्मियों पर केवल इसी कारण चढ़ बैठे कि उन्होंने अतिक्रमण की शिकायत के मामले में उनके नाम उजागर कर दिए, वो भी अतिक्रमणकारियों को ही। पार्षदों का मानना है कि जब निगम कर्मचारी अतिक्रमण हटाने गए तो उन्होंने अतिक्रमणकारियों को वह शिकायती पत्र दिखा दिया जो उन्होंने लिखा था। यानि कि निगम कर्मियों ने खुद का तो बचाव कर लिया और बला पार्षदों के गले डाल दी। पार्षदों के नाम उजागर होने पर अतिक्रमणकारी उनसे नाराज हो गए। उस नाराजगी को पार्षद बर्दाश्त नहीं कर पाए और नगर निगम कर्मियों पर चढ़ बैठे। असल में पार्षद चाहते थे कि ऊपर से तो वे अतिक्रमणकारियों से मीठे बने रहें और साथ ही उनके खिलाफ कार्यवाही भी करवाना चाहते थे। यानि कि वार तो करना चाहते हैं, लेकिन छुप कर। दूसरी ओर निगम कर्मियों का कहना है कि उन्होंने अपनी ओर से पार्षदों का नाम उजागर नहीं किया है, बल्कि अतिक्रमण के स्थान को लोकेट करने के लिए जब वे पार्षद के लेटरहैड वाला शिकायती पत्र साथ लेकर गए तो किसी ने उसे पढ़ कर अतिक्रमणकारी को बता दिया।
हालांकि यह सही है कि यदि कोई आम आदमी शहर के हित में अतिक्रमण की शिकायत करता है तो उसका नाम गुप्त रखते हुए जांच की जाए और उचित हो तो कार्यवाही भी की जाए, लेकिन यह व्यवस्था पार्षदों पर कैसे लागू की जा सकती है? पार्षद बने हैं, उसका एडवांटेज उठाना चाहते हैं, अच्छे काम की क्रेडिट भी लेना चाहते हैं, लेकिन बुराई नहीं लेना चाहते। अर्थात शिकायत पर कार्यवाही भी चाहते हैं और खुद का नाम भी छिपाना चाहते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है? जहां जरूरत होगी वहां बुरा भी बनना होगा। और शहर के हित में बुरा बनने में हर्ज ही क्या है? कैसी विडंबना है कि अतिक्रमणकारी तो सीना तान कर खड़े हो जाते हैं और शहर का हित चिंतन करने वाले मुंह छिपाना चाहते हैं। सवाल ये भी है कि एक ओर पार्षदों को ये शिकायत रहती है कि उनकी शिकायतों पर कोई कार्यवाही नहीं की जाती और दूसरी ओर कार्यवाही की जाती है तो इस बात से ऐतराज हो जाता है कि उनका नाम क्यों उजागर कर दिया गया।
इन पार्षदों से तो शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ही बेहतर हैं, जिन्होंने बाकायदा 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची जिला कलेक्टर को सौंप कर उनके खिलाफ कार्यवाही करने की मांग की। जाहिर है कॉम्पलैक्स मालिक महेश ओझा से नाराज हो जाएंगे। ऐसे पार्षदों से पिछले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत और कुछ अन्य पार्षद ही अच्छे रहे जो अतिक्रमण तोड़ू दस्ते के साथ हो लेते थे और अतिक्रमणकारी के विरोध करने पर खुद ही उलझ जाते थे। हालांकि ऐसा करने से वे बुरे भी बने, लेकिन इससे उनकी बिंदास छवि भी उजागर हुई। एक बार तो ऐसी स्थिति आ गई कि अतिक्रमणकारियों में खौफ व्याप्त हो गया था। जैसे ही गहलोत और उनकी टीम अतिक्रमण हटवाने को निकलती थी तो अतिक्रमणकारी भागते नजर आते थे। यदि वे भी संबंध निभाने का ध्यान देते तो अतिक्रमण कभी हटवा ही नहीं सकते थे।