रविवार, 19 फ़रवरी 2017

अजमेर बंद ने दिए साफ साफ इशारे

मैं क्लॉक टावर हूूं। मैने आजादी से लेकर अब तक अजमेर के हर उतार चढ़ाव को देखा है। बीते दिन यहां एक ऐसा वाकया हुआ कि अपने मन की बात कहने को जी कर कर गया।
जो संगठन मृतप्राय: माना जा रहा हो, जिसके अध्यक्ष को नियुक्ति के एक साल बाद भी कार्यकारिणी गठित नहीं पाने के कारण कमजोर माना जा रहा हो, जिस संगठन की गुटबाजी के चर्चे हों, अगर उसके आह्वान पर अगर शहर ऐतिहासिक बंद हो जाता हो, तो समझा जाना चाहिए कि उसका आकलन गलत किया जा रहा है। शायद ऐसे ही अनुमान के कारण शहर जिला भाजपा ने शहर जिला कांग्रेस के अजमेर बंद के आह्वान को चुनौती देने की हिमाकत कर ली और मुंह की खायी। कांग्रेस कार्यकर्ता के लिए तो यह घटना संजीवनी के समान है, जो हनुमान जी की भांति अपनी शक्ति विस्मृत कर बैठा था।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों शहर कांग्रेस के अध्यक्ष विजय जैन इस कारण मीडिया के निशाने पर थे कि वे एक साल बाद भी अपनी टीम घोषित नहीं करवा पाए हैं। माना ये जा रहा था कि वे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को एक जाजम पर लाने में नाकामयाब हैं, इस कारण कार्यकारिणी नहीं बन पा रही।  संयोग से चंद दिन बाद ही अजमेर बंद जैसा बड़ा चुनौती भरा प्रसंग आ गया। मीडिया वाले भी यही मान रहे थे कि शायद बंद सफल नहीं हो पाएगा, क्यों कि वे सीधे सादे हैं। मगर हुआ उलटा। अपेक्षाकृत कम बहिर्मुखी व्यक्तिव वाले विजय जैन के नेतृत्व में एक चमत्कारिक घटना घटित हो गई। लगातार तीन बार दोनों विधानसभा चुनाव हारने और वर्तमान में सत्तारूढ़ दल के दो-दो राज्यमंत्रियों के होते हुए भी बंद सफल हो गया। वो भी भाजपा के बंद को विफल करने के ऐलान के बाद।
इस वारदात ने साबित कर दिया है कि भाजपा के इस गढ़ में कांग्रेस का वजूद बरकरार है, बस फर्क उसके संगठनात्मक प्रयास में है। वैसे कांग्रेस खत्म नहीं हुई है, इसका सबूत निगम चुनाव में अजमेर दक्षिण में साफ दिखाई दिया था। पिछला विधानसभा चुनाव हारे हेमंत भाटी ने अपने इलाके में हार का जो बदला लिया, उससे यह आभास हो गया था कि जमीन पर आज भी कांग्रेस जिंदा है। अजमेर उत्तर में चूंकि कमान ठीक से नहीं संभाली गई, इस कारण भाजपा बाजी मार गई।
बहरहाल, अजमेर बंद राजनीति का वह मोड़ है, जहां आ कर भाजपा को यह अहसास हो गया होगा कि जिस मोदी लहर पर सवार हो कर पिछली बार कांग्रेस को पटखनी दी थी, उसकी रफ्तार थम चुकी है। वसुंधरा के जिस चमकदार चेहरे की लोग दुहाई देते थे, वह अब फीका पडऩे लगा। दो मंत्रियों की गुटबाजी से बुरी तरह से त्रस्त भाजपा के कर्ताधर्ता समझें तो उनके लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। दूसरी ओर कांग्रेस को स्पष्ट संदेश है कि वह चाहे तो आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा को टक्कर दे सकती है। बस शर्त सिर्फ इतनी है कि निजी स्वार्थ साइड में रख कर पहले सत्ता पर काबिज होने का लक्ष्य हासिल करने का जज्बा पैदा करना होगा। अब देखना ये है कि इस घटना से दोनों दल क्या सबक लेते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

चलते रस्ते यादव के लिए हो गई मुश्किल

कांग्रेस की ओर से आहूत अजमेर बंद का सड़क पर उतर कर विरोध करने के ऐलान के बाद भी बंद के ऐतिहासिक सफल होने से पूरी शहर भाजपा की तो सिट्टी पिट्टी गुम है ही, शहर अध्यक्ष अरविंद यादव के लिए भी मुश्किल हो गई है। अखबारों की सुर्खियां कांग्रेस की सफलता के गुण कम गा रही हैं, भाजपा का बाजार खुलवाने का गुमान ठंडा पडऩे को ज्यादा उभार रही हैं। वास्तविकता क्या है, क्या बंद को विफल करवाने का दंभ भरने वाले सेनापति यादव खुद मार्केट में आए या नहीं, वे ही जानें, मगर खबरनवीस तो यही रिपोर्ट कर रहे हैं कि वे मैदान में उतरे ही नहीं। उन्हें मोबाइल पर संपर्क करने का भी प्रयास किया गया, लेकिन वे आए ही नहीं। भाजपा पार्षद एवं महामंत्री रमेश सोनी, जयकिशन पारवानी सहित कुछ ही नेता दिखे। इस बात की खासी चर्चा रही कि जब विरोध ही करना था तो खुलकर क्यों नहीं सामने आए। ऐसे में स्वाभाविक रूप से यादव को जवाब देना भारी पड़ जाएगा। विशेष रूप से इसलिए कि क्यों फटे में टांग फंसाई, जिससे भाजपा की किरकिरी हो गई। अकेले यादव ही क्यों, शहर के दोनों राज्य मंत्रियों पर भी जवाबदेही आएगी वे कहां थे, जबकि भाजपा का प्रतिष्ठा दाव पर लगा दी गई थी।
ज्ञातव्य है कि अजमेर शहर भाजपा इकाई के नवीनीकरण की कवायद पाइप लाइन में है। शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी अपनी शरण में आ चुके यादव को रिपीट करने का दबाव बनाए हुए हैं, जबकि महिला व बाल विकास राज्य मंत्री श्रीमती अनिता भदेल की रुचि आनंद सिंह राजावत में है। अब देखना ये है कि ताजा घटनाक्रम के बाद ऊंट किस करवट बैठता है। 

आनासागर को लेकर कोई मास्टर प्लान भी है या नहीं?

अजमेर। ऐतिहासिक आनासागर अजमेर का गौरव है। अगर आज तक इसे ठीक से डवलप किया जाता तो यह अकेला पर्यटकों को आकर्षित में सक्षम होता, मगर अफसोस कि आज तक किसी जनप्रतिनिधि या प्रशासन ने इस दिशा में ठोस प्रयास नहीं किया। हां, बातें बहुत होती रहीं और उसी के अनुरूप छिपपुट प्रयोग भी हुए, मगर आनसागर की हालत जस की तस रही।
सच तो ये है कि लंबे समय तक यह गंदगी और बदबू की समस्या से ग्रसित रहा, इस कारण सारा ध्यान केवल इसी पर था कि कैसे इससे निजात पाई जाए। इस पर बड़ी मुश्किल से काबू पाया जा पाया है। इसके अतिरिक्त डूब क्षेत्र में सैकड़ों मकान व अन्य व्यावसायिक भवन बन जाने के बाद लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद भी अब तक ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि इसका स्वरूप क्या होगा? राजनीतिक कारणों की वजह से लगता नहीं कि डूब क्षेत्र में बने निर्माणों को हटाया जा सकेगा, हालांकि जनहित याचिकाओं के आधार पर हाईकोर्ट सख्त निर्देश जारी कर चुका है। इसे कितना भरा होना चाहिए, इसको लेकर भी खूब माथापच्ची हुई, क्योंकि बारिश के मौसम में अचानक ज्यादा वर्षा होने पर चैनल गेट खोलने पर निचली बस्तियों में पानी भरने की खतरा बना रहता है। हर बारिश में प्रशासन की इसी पर नजर रहती है।
हालांकि अब मौजूदा जिला कलेक्टर गौरव गोयल के प्रयासों से आनासागर का उद्धार करने का काम हो रहा है, मगर वह फाइनल भी होगा या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए कि उनके पहले प्रशासन ने लगातार हो रही आत्महत्याओं के चलते सुरक्षा के मद्देनजर रामप्रसाद घाट और पुरानी चौपाटी पर लोहे की जाली लगवाई गई, वह अब आनासागर का खूबसूरत नजारा पाने के लिए पाथ वे बनाने के लिए तोड़ी जा रही है। अफसोस होता है कि दो साल पहले इस जाली पर लाखों रुपए खर्च किए गए, अब तोडऩे व फिर नए सिरे निर्माण पर लाखों रुपए लगाए जा रहे हैं। यानि कि ठेकेदारों के वारे-न्यारे हैं। इस बात की क्या गारंटी है कि आने वाले समय में प्रशासन में बैठे अफसर इसे कायम रखेंगे? ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर इसके लिए कोई मास्टर प्लान क्यों नहीं बना दिया जाता?

अजमेर में है जिला स्तरीय नेताओं का अभाव

आगामी लोकसभा चुनाव में दोनों दलों को रहेगी सशक्त प्रत्याशी की तलाश
अजमेर। हालांकि इस वक्त अजमेर जिले से दो राज्य मंत्री, दो संसदीय सचिव, एक प्राधिकरण के अध्यक्ष और एक आयोग के अध्यक्ष होने के कारण ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला राजनेताओं से संपन्न है, मगर सच्चाई ये है कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस व भाजपा, दोनों के पास जिला स्तरीय नेताओं का अभाव होने वाला है। इस सोच के पीछे दृष्टिकोण ये है कि अगले चुनाव से पहले कांग्रेस सांसद रहे सचिन पायलट किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे और संभव है भाजपा सांसद रहे प्रो. सांवरलाल जाट चुनाव ही न लड़ें। प्रो. जाट को भी पिछले चुनाव में प्रोजेक्ट किया गया था, उससे पहले के चुनाव में तो हालत ये थी कि दोनों दलों के पास स्थानीय दमदार दावेदार नहीं थे, इस कारण सचिन पायलट व किरण माहेश्वरी को बाहर से ला कर चुनाव लड़ाया गया।
अगर सचिन विधानसभा चुनाव लड़े तो कांग्रेस के पास लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तलाशना कठिन होगा। ज्ञातव्य है कि पूर्व में पूर्व भाजपा सांसद प्रो. रासासिंह रावत के सामने कांग्रेस भूतपूर्व राजस्व मंत्री किशन मोटवानी, पुडुचेरी के उपराज्यपाल बाबा गोविंद सिंह गुर्जर, जगदीप धनखड़ व हाजी हबीबुर्रहमान को लड़ाया गया था, जो कि हार गए। इनमें से मोटवानी व बाबा का निधन हो चुका है, जबकि धनखड़ ने राजनीति छोड़ दी है और हाजी हबीबुर्रहमान भाजपा में जा चुके हैं। कांग्रेस के पास स्थानीय प्रत्याशी का अभाव पूर्व में भी था, तभी तो धनखड़ व हाजी हबीबुर्रहमान को लाना पड़ा। हां, एक बार जरूर राज्यसभा सदस्य रहीं डॉ. प्रभा ठाकुर पर दाव खेला गया, जिसमें एक बार उन्होंने प्रो. रावत को हराया और एक बार हार गईं। कांग्रेस का सचिन को बाहर से ला कर चुनाव लड़ाने का प्रयोग तो एक बार सफल रहा, मगर दूसरी बार मोदी लहर में वे टिक नहीं पाए। अब जब कि सचिन को कांग्रेस मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने का मानस रखती है, तो स्वाभाविक रूप से वे विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे। बताया जा रहा है कि वे अजमेर की पुष्कर, नसीराबाद व मसूदा विधानसभा सीटों में से किसी एक सीट से चुनाव लडऩे का मानस बना रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस के लिए फिर लोकसभा चुनाव का प्रत्याशी तलाशना कठिन होगा। यदि जातीय समीकरण की बात करें तो कांग्रेस के पास सचिन के अतिरिक्त कोई दमदार गुर्जर नेता जिले में नहीं है। चूंकि यह सीट अब जाट बहुल हो गई है, उस लिहाज से सोचा जाए तो कहने को पूर्व जिला प्रमुख रामस्वरूप चौधरी व पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया हैं, मगर वे दमदार नहीं माने जाते।
उधर समझा जाता है कि प्रो. जाट की रुचि अपने बेटे रामस्वरूप लांबा को नसीराबाद विधानसभा सीट से चुनाव लड़वाने की इच्छा है तो भाजपा के पास फिर सशक्त जाट नेता का अभाव हो जाएगा। यूं पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गेना को दावेदार माना जा सकता है, मगर वे पिछला विधानसभा उपचुनाव हार चुकी हैं। हां, अजमेर डेयरी अध्यक्ष व प्रमुख जाट नेता रामचंद्र चौधरी जरूर भाजपा के खेमे में हैं, मगर अभी उन्होंने भाजपा ज्वाइन नहीं की है। वे एक दमदार नेता हैं, क्योंकि डेयरी नेटवर्क के कारण उनकी पूरे जिले पर पकड़ है। शायद ही ऐसा कोई गांव-ढ़ाणी हो, जहां उनकी पहचान न हो। यदि संघ सहमति दे दे तो वे भाजपा के एक अच्छे प्रत्याशी हो सकते हैं। वैसे समझा ये भी जाता है कि कांग्रेस उन्हें फिर अपनी ओर खींचने की कोशिश कर सकती है। हालांकि अभी उनका सचिन से छत्तीस का आंकड़ा है, मगर राजनीति में कुछ भी संभव है। उल्लेखनीय है कि कांग्रेस ने पिछले दिनों छिटके जाट नेताओं की वापसी की मुहिम चलाई थी।
यूं पूर्व जिला प्रमुख व मौजूदा मसूदा विधायक श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के पति युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा प्रयास कर सकते हैं, मगर राजपूत का प्रयोग कितना कारगर होगा, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता।
यदि जाट-गुर्जर से हट कर बात करें तो कांग्रेस के पास बनियों में पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती हैं, जिनका नाम पूर्व में भी उभरा था। भाजपा के पास पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा हैं, हालांकि नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन भी अपने आप को इस योग्य मानते रहे हैं।
कुल मिला कर आगामी लोकसभा चुनाव के संभावित प्रत्याशियों को लेकर दोनों ही दलों में खुसरफुसर शुरू हो चुकी है।
-तेजवानी गिरधर
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