गुरुवार, 26 मार्च 2020

आपदा के मुहाने पर खड़े हैं हम

बेशक हम अजमेरवासी काफी कुछ सुधरे हैं, चाहे पुलिसिया पिटाई के कारण या फिर कोरोना की भयावह खबरें सुन कर, मगर अब भी लापरवाही जारी है, जो नुकसानदेह साबित हो सकती है। गुुरुवार को पुलिस कप्तान ने एक वीडियो संदेश के जरिए सख्ती को जारी रखने का ऐलान कर दिया और सचेत किया कि अगर बहुत जरूरी हुआ तो कफ्र्यू भी लगाया जा सकता है।  अर्थात हम आपका के मुहाने पर खड़े हैं। आम आदमी को इस चेतावनी की गंभीरता से लेना चाहिए।
हकीकत ये है कि लॉक डाउन के पहले दो-तीन दिन तक लोगों को स्थिति की भयावहता का अंदाजा ही नहीं था। मनचले युवक कौतुहलवश शहर का माहौल देखने की चाह में इधर-उधर तफरीह कर रहे थे। बिना अत्यावश्क छोटे-मोटे काम से लोग घरों से बाहर निकल रहे थे। नतीजतन पुलिस को अपना रौद्र रूप दिखाना पड़ा। कुछ सयानों ने पुलिस की पीठ थपथपाई। पिटने वालों को नसीहत देते हुए सोशल मीडिया पर जुमलेबाजी तक होने लगी। यथा ठुकेगा, तभी सुधरेगा अजमेर। दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल को आगाह करना पड़ा कि अगर हमने लापरवाही बरती तो प्रशासन के कदम कफ्र्यू की ओर बढ़ सकते हैं। वह हालात पर सटीक टिप्पणी थी। उसका असर ये हुआ कि लोगों की समझदानी में यह बात बैठी कि लॉक डाउन हमारे ही हित में है।
वस्तुत: हुआ ये कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकट समय में स्वास्थ्य कर्मियों, पुलिस वालों की हौसला अफजाई के लिए शाम पांच बजे अपने-अपने घरों की छतों व बालकॉलियों पर खड़े हो कर थाली, ताली व घंटियां बजाने की अपील की, उसका असर ये हुआ कि जश्न का सा माहौल उत्पन्न हो गया। अंध भक्ति में लोगों ने महान भारतीय संस्कृति के हवाले से इसे ये समझ लिया कि ऐसा करने से कोरोना भाग जाएगा। इसे हवा दी जिम्मेदार ओहदेदारों ने। बेशर्मी की इंतेहा तो तब हो गई, जब लोगों ने कई मोहल्लों में इक_े हो कर थालियां बजाई। जिस सोशल डिस्टेंसिंग की सर्वाधिक जरूरत थी, उसी के साथ खिलवाड़ कर दिया गया। उत्साह से साफ दिख रहा था कि लोगों को कोरोना से तो कोई मतलब ही नहीं था, वे तो मोदी के प्रति भक्ति का इजहार कर रहे थे। जनता कफ्र्यू के दिन हुए इस आयोजन की सफलता पर सोशल मीडिया पर एक टिप्पणी आई कि थाली व ताली बजाने से कोरोना भागे या न भागे, मगर यह पक्का है कि अगली बार फिर मोदी ही आएंगे।
ऐसे माहौल का परिणाम ये हुआ कि दूसरे ही दिन जब लॉक डाउन शुरू हुआ तो लोग अति उत्साह में घरों से ऐसे निकल पड़े, मानो थाली बजा कर वे कोरोना को खदेड़ चुके हैं। जंग जीत चुके हैं। ड्यूटी पर तैनात पुलिस भौंचक्की रह गई। अति उत्साह में उसने भी जम कर हाथ आजमाए। कई जगह बुरी तरह से पिटाई की सूचनाएं आईं। पुलिस कप्तान को पता लगा तो वे समझ गए कि मामला गड़बड़ है और उन्हें बाकयदा वॉइस मैसेज जारी करना पड़ा। पुलिस कर्मियों को समझाते हुए उन्होंने संयम बरतने की अपील की, साथ ही विस्तार से यह भी बताया कि हालात पर काबू पाने के लिए किस प्रकार नियमों की पालना करवानी है। सख्ती व संजीदगी के बीच संतुलन के इस नायाब संदेश का बड़ा भारी असर हुआ। एक ओर जहां पुलिस के प्रति विश्वास कायम हुआ, वहीं ये भी अक्ल आ गई कि फालतू में इधर-उधर नहीं घूमना है। लोग फिर भी नहीं माने तो वाहनों की सीजिंग व चालान काटने की बड़े पैमाने पर कार्यवाही करनी पड़ी। अब हालात काबू में हैं। लोग बहुत जरूरी होने पर बाहर निकल रहे हैं। सुबह ग्यारह बजे तक राशन, सब्जियां, दूध इत्यादि की दुकानें खुल रही हैं। मगर समस्या ये हो गई है कि समय की सीमितता के कारण दुकानों पर भीड़ उमड़ रही है। सोशल डिस्टेंसिंग की जरूरी सीख तार-तार हो रही है। यही सबसे खतरनाक स्थिति है। कोरोना से करार थोड़े ही हुआ है कि सुबह ग्यारह बजे तक वह हमला नहीं करेगा। पूरे दिन भले ही आप घर पर कैद रहें, मगर ये चंद घंटे बीमारी को आमंत्रण दे सकते हैं।
बेहतर ये है कि दुकानों पर पुलिस की ठीक से तैनाती हो और लोगों को दूर-दूर खड़े हो कर लाइन लगा कर सामान खरीदने की समझाइश की जाए। यह सही है कि प्रशासन कालाबाजारी रोकने की कोशिश करने बात कर रही है, मगर कालाबाजारी जम कर हो रही है। उस पर कोई नियंत्रण नहीं है। सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि माल की सप्लाई ठप होने के कारण होलसेल पर ही रेटें बढ़ गई हैं। चूंकि छोटे दुकानदार का सीधा वास्ता जनता से हो रहा है, इस कारण सारा गुस्सा उनके प्रति इकट्ठा हो रहा है। चंद दिनों में ही जो हालात हुए हैं, उसे देखते हुए यदि प्रशासन ने ठीक से व्यवस्था नहीं बनाई तो बहुत परेशानी पैदा हो सकती है। अभी तो लॉक डाउन के काफी दिन बाकी हैं। यह ब्लॉग लिखने के दौरान जानकारी आई है कि प्रशासन ने इस दिशा में कुछ कदम उठा लिए हैं।
संकट के इस समय में सिविल सोसायटी के लोग जिस प्रकार गरीबों को फूड पैकेट्स बांट रहे हैं, वह बेहद सराहनीय है, मगर उसमें सोशल डिस्टेंसिंग की ठीक से पालना न होने के दृश्य दिखाई दे रहे हैं। अच्छा है कि  आप समाज सेवा कर रहे हैं, मगर कहीं ऐसा न हो कि आप मेवे के रूप में कोरोना को न बांट आएं।
ताजा अपडेट है कि प्रशासन ने मित्तल हॉस्पीटल सहित चार अस्पतालों का अधिग्रहण कर लिया है, ताकि आपात स्थिति में मरीजों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाई जा सके। इस निर्णय से आभास होता है कि प्रशासन हालात से निपटने के लिए पूरी तरह से तैयार है।

इस लिंक पर क्लिक करके पुलिस कप्तान का वीडियों संदेश देख सकते है
https://www.facebook.com/01spajmer/videos/206534557320884/

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शनिवार, 14 मार्च 2020

ठीकरी के रूप में उपयोग किया जा रहा है लखावत का

मारवाड़ में एक कहावत है, जिसका अर्थ है कि कभी-कभी ठीकरी भी मटका फोड़ देती है। कमोबेश वरिष्ठ भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत का उपयोग भी ठीकरी के रूप में किया जा रहा है। हालांकि वोटों का जो गणित है, उसमें उनके जीतने की संभावना कम है, मगर फिर भी भाजपा ने राज्य में राजनीतिक हालात के मद्देनजर उनको राज्यसभा चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करवा कर कांग्रेस में सेंध मारने का दाव खेला है। क्या पता ये दाव कामयाब हो जाए और ठीकरी के मटका फोडऩे वाली कहावत चरितार्थ हो जाए।
शुक्रवार को जैसे ही भाजपा ने जैसे ही राजेन्द्र गहलोत के अतिरिक्त औंकार सिंह लखावत का भी नामांकन दाखिल करवाया तो राजनीतिक आकाश में हलचल हो गई। हालांकि व्हिप के कारण क्रॉस वोटिंग की संभावना कम ही होती है, मगर राजनीति में कई संभावनाएं मौजूद रहती हैं, इसी के मद्देनजर भाजपा ये कदम यह सोच कर उठाया है कि वह कांग्रेस में तनिक असंतोष का फायदा उठा सकती है। वरिष्ठ पत्रकार ओम माथुर ने ताजा स्थिति पर सोशल मीडिया में यह पोस्ट डाल कर कि राजस्थान में राज्यसभा के लिए भाजपा के दो उम्मीदवारों का नामांकन और जम्मू कश्मीर के पूर्व सीएम फारुख अब्दुल्ला की रिहाई की घोषणा एक ही दिन होना भाजपा का प्रयोग है या संयोग? सचिन पायलट को चुग्गा तो नहीं डाला गया है, एक कयास को जन्म दिया है।
वरिष्ठ पत्रकार एस पी मित्तल भी अपने ब्लॉग के जरिए कुछ ऐसी ही संभावना तलाश रहे हैं। वे लिखते हैं कि चूंकि केन्द्र सरकार का फारुख अब्दुल्ला परिवार के साथ तालमेल हो रहा है, इसलिए सचिन पायलट की भूमिका के बारे में फिलहाल कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि अब्दुल्ला सचिन के ससुर हैं।
खैर, यदि 18 मार्च को नामांकन वापसी के आखिरी दिन लखावत का नाम वापस नहीं लिया जाता तो वोटिंग होगी और क्रॉस वोटिंग से बचने के लिए दोनों ही दलों को बाड़ा बंदी करनी ही होगी। लखावत एक प्रयोग के तहत मैदान में उतारे गए हैं, इसकी पुष्टि खुद प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया के इस बयान से होती है कि हमने अपना यह उम्मीदवार इस उम्मीद के साथ उतारा है, क्योंकि कांग्रेस के अलावा दूसरे दल भी हैं जो इस सरकार के कामकाज से नाराज हैं। हम सरकार के खिलाफ असंतोष को आधार बनाकर आगे बढ़ेंगे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस में मुख्यमंत्री पद की महत्वाकांक्षाओं की रेस जो विधानसभा चुनाव से पहले भी थी और आज भी बरकरार है। इसी के चलते जिस तरीके की फूट सरकार में है, वह सदन में और बाहर दिखाई देती है। सरकार कमजोर है, इसलिए बहुत लंबे समय तक चल नहीं सकती। सारी संभावनाएं जिंदा हैं।
राजस्थान में 200 विधायक हैं, ऐसे में जीत के लिए प्रथम वरीयता के 51 वोट चाहिए। कांग्रेस के पास खुद के 106 वोट हैं और 13 निर्दलियों एवं 2 बीटीपी व 2 सीपीएम के विधायकों के साथ है। भाजपा के पास खुद के 72 तथा आरएलपी के 3 विधायक हैं। यदि केवल तीन ही प्रत्याशी मैदान में होते तो चुनाव की जरूरत ही नहीं होती, मगर लखावत की मौजूदगी के बाद वोटिंग अनिवार्य हो जाएगी।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 10 मार्च 2020

क्यों नहीं हुआ फाल्गुन महोत्सव?

कई वर्षों से हर साल आयोजित होने वाला फाल्गुन महोत्सव इस बार क्यों नहीं हो पाया? आज हर एक की जुबान पर यह सवाल है, मगर जवाब किसी के पास नहीं है। हर जागरूक नागरिक, अधिकारी, व्यापारी, राजनीतिक नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, कलाकार एक दूसरे से यह पता कर रहा है कि आखिर क्या वजह रही कि शहर का मात्र ऐसा शानदार कार्यक्रम, जो शहर की धड़कन था, जिसमें किसी न किसी रूप में सभी वर्गों की भागीदारी थी, जिसकी प्रसिद्धि अन्य शहरों तक फैल चुकी थी, वह बिना किसी चर्चा के गुपचुप ही विलुप्त कैसे हो गया?
असल में यह कार्यक्रम पत्रकारों की पहल पर होता रहा। इसमें राजनीतिक लोग, कलाकार सहित अन्य वर्गों के लोग सक्रिय सहभागिता निभाते थे। नगर निगम, अजमेर विकास प्राधिकरण, अजमेर डेयरी आदि प्रायोजक की भूमिका के लिए तत्पर रहते थे। आम लोग या तो दर्शक के रूप में मौजूद रह कर आनंद उठाते थे, या फिर अखबारों या फेसबुक पर फोटो व वीडियो युक्त कवरेज देख कर अपडेट हो जाते थे।
बेशक हर बार छोटे-मोटे मतभेद होते रहे, जो कि किसी भी समूह में स्वाभाविक भी है, मगर चूंकि आपस में मनमुटाव नहीं है, इस कारण यह दिलकश जलसा हर बार पहले से अधिक रोचकता लिए हुए आयोजित होता रहा। आम लोगों को पता नहीं, मगर इस आयोजन ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। हर बार कार्यक्रम की समीक्षा भी होती रही, ताकि गलतियों से सबक लिया जाए और आगे पहले से बेहतर व सुव्यवस्थित आयोजन हो।  इस बार ऐसा क्या हुआ कि अनौपचारिक आयोजन समिति की एक भी औपचारिक या अनौपचारिक बैठक नहीं हुई? आपस में जरूर एक दूसरे से पूछते रहे, मगर सामूहिक चर्चा कहीं भी नहीं हो पाई। शहर की इस बेहतरीन सांस्कृतिक परंपरा का यूं यकायक नदारद हो जाना बहुत ही पीड़ा दायक है।
मुझे याद आता है आयोजन को लेकर हर बार होने वाली छोटी-मोटी परेशानी के मद्देनजर एक बार दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक डॉ. रमेश अग्रवाल ने दूरदर्शितापूर्ण प्रस्ताव रखा था कि फाल्गुन महोत्सव समिति का रजिस्ट्रेशन करवा लिया जाए, लेकिन कुछ सदस्यों ने इसका यह कह कर विरोध कर दिया कि इसकी जरूरत नहीं है। बिना विधिवत पंजीकृत संस्था के भी इतने साल से सफल आयोजन हो ही रहा है। उनका एक तर्क ये भी था कि इससे संस्था के भीतर राजनीति पैदा हो जाएगी, जिसमें थोड़ा दम भी था। हुआ ये कि जो सदस्य डॉ. अग्रवाल के सुझाव से सहमत थे, वे चुप ही बैठे रहे, उन्होंने कोई दबाव नहीं बनाया, नतीजतन प्रस्ताव आया-गया हो गया। काश, संस्था का रजिस्ट्रेशन हो जाता तो आज जो नौबत आई है, वह नहीं आती। संस्था के किन्हीं एक-दो पदाधिकारियों की रुचि न भी होती तो भी अन्य सदस्य एकजुट हो कर कार्यक्रम की अनिवार्यता के लिए माहौल बना सकते थे। कम से कम निर्वाचित कार्यकारिणी पर तो जिम्मेदारी होती ही, मगर आज स्थिति ये है कि आयोजन न होने को लेकर न तो कोई जिम्मेदार है और न ही कोई जवाबदेह। आयोजन से जुड़े हर सदस्य ने आपसी चर्चा में कार्यक्रम किसी भी सूरत में करने की बात तो कही, मगर पहल किसी ने नहीं की। इसी अराजक स्थिति का परिणाम ये है कि शहर उल्लास के सामूहिक उत्सव से वंचित रह गया।
चूंकि आयोजन करने वालों में पहली पंक्ति में पत्रकार साथी हुआ करते हैं, इस कारण चाहे अनचाहे ये संदेश जा रहा है कि उनमें कोई मतभेद रहे होंगे, जबकि ऐसा है नहीं। सभी पत्रकार साथियों की यह सामूहिक जिम्मेदारी है कि वे शहर की सांस्कृतिक धारा को अनवरत बहने का मार्ग प्रशस्त करें।
उम्मीद है कि समिति, जिसे फिलहाल समूह कहना ज्यादा उपयुक्त रहेगा, के बेताज कर्ताधर्ता गंभीरतापूर्वक विचार करेंगे, ताकि अगले साल वर्षों पुरानी परंपरा को फिर से जीवित किया जा सके।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

सुरेश सिंधी होंगे एमएलए टिकट के दावेदार?

सिटी मजिस्ट्रेट पद से सेवानिवृत्त हुए अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन भी नहीं हुए हैं कि राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के बीच यह चर्चा होने लगी है कि सुरेश सिंधी आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से एमएलए टिकट के दावेदार होंगे। यह चर्चा कहां से और कैसे उठी, किसने वायरल की, कुछ पता नहीं, क्या खुद उन्होंने कहींं संकेत दिया, ये भी खबर नहीं, मगर है, इसमें कोई दोराय नहीं। हाल ही पूज्य झूलेलाल जयंती समारोह समिति की ओर से आयोजित उनके अभिनंदन समारोह में मैने मंच से इस चर्चा का सवालिया जिक्र किया तो न तो उन्होंने से इसका सिरे से खंडन किया और न ही पुष्टि की। अपने उद्बोधन में वे मेरी जिज्ञासा को हजम ही कर गए।
खैर, यह चर्चा राजनीतिक जमीन पर कैसे प्रस्फुटित हुई, इस की पड़ताल की तो पहली बात ये सामने आई कि हालांकि वे एक जिम्मेदार प्रशासनिक पद पर थे, मगर उनका सहज-सरल स्वभाव और सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण इस अनुमान को बल मिला। वैसे भी अजमेर का ये मिजाज है कि जैसे ही कोई व्यक्ति सामाजिक गतिविधियों में रुचि लेता है तो लोग यकायक यह कयास लगाते हैं कि कहीं उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा तो नहीं है? हालांकि अभी ये कहना मुश्किल है कि वे भाजपा टिकट के दावेदार होंगे या कांग्रेस के, मगर जैसा गणित है, उनके कांग्रेस टिकट का दावेदार होने की संभावना ज्यादा है। वो इसलिए कि भाजपा में तो पहले से लगातार चार बार जीत कर धरतीपकड़ साबित हो चुके प्रो. वासुदेव देवनानी पांचवीं बार भी खम ठोक कर खड़े हो जाएंगे। हों भी क्यों न, आखिर लगातार चार बार जीते हैं। उम्र की कोई बाधा न हो तो टिकट कटने का कोई कारण भी नहीं बनता। लोग तो यहां तक कहते हैं कि अगर उनको टिकट नहीं मिला तो वे अपने पुत्र को टिकट दिलवा देंगे। देवनानी के बाद नंबर वन कंवल प्रकाश किशनानी कौन सा हार मानने वाले हैं। महेन्द्र तीर्थानी खुल कर तो नहीं खेलते, मगर उनकी अंडर ग्राउंड सक्रियता किसी से छिपी नहीं है। इन सबसे बड़ी बात ये है कि भाजपा में यहां का टिकट आरएसएस तय करती है, और लगता नहीं कि वह सुरेश सिंधी पर दाव खेलने के बारे में सोचेगी भी। यानि कि उनकी दावेदारी कांग्रेस टिकट के लिए ही बनेगी। बनेगी इसलिए कि कांग्रेस टिकट के लिए सिंधी समुदाय की ओर से ढ़ंग से दावेदारी बनी ही नहीं। दावेदारी हुई जरूर, मगर दमदार नहीं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट यह प्रयोग करना चाहते थे, मगर वैसा हो न पाया। कुल जमा बात ये है कि कांग्रेस में प्रबल सिंधी दावेदारों का अभाव सा है। यही वजह है कि जैसे ही सुरेश सिंधी रिटायर हुए, तो ऐसा माना गया कि सुरेश सिंधी इस वेक्यूम को भर सकते हैं। दावेदारी में हर लिहाज से फिट भी बैठते हैं। लंबे समय तक भिन्न-भिन्न पदों पर अजमेर में ही रहे हैं, इस कारण सुपरिचित  चेहरा हैं। अजमेर की समस्याओं व जरूरतों से भलीभांति परिचित है। बेदाग हैं। ऊर्जावान हैं। ईमानदार हैं। कूल माइंडेड हैं। दिलेर हैं। एक बार भूतपूर्व केन्द्रीय राज्य मंत्री प्रो. सावंरलाल से भिड़ंत के किस्से पब्लिक डोमेन में हैं। भूतपूर्व विधायक स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय की तरह लो-प्रोफाइल हैं। प्रदेश कांग्रेस हाईकमान तक पहुंच रखते हैं। अगर अगली बार फिर कोई धन्ना सेठ नोटों की बोरियां लेकर नहीं आया तो दावेदारों की अग्रिम पंक्ति में आसानी से खड़े हो सकते हैं। रहा सवाल पैसे का तो लगता नहीं कि जिस तरीके से ईमानदारी से नौकरी की, चुनाव के लायक पैसा जोड पाए होंगे।
अपनी समझ तो यही कहती है कि फिलवक्त तो वे यकायक राजनीति में सक्रिय नहीं होंगे और सरकारी तंत्र से ही जुड़ कर पार्ट टाइम काम करेंगे। और जब लगेगा कि उपयुक्त समय व मौका है तो राजनीतिक महत्वाकांक्षा जागृत हो भी सकती है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000