बुधवार, 23 मार्च 2011

ऐसे अधिकारियों को घर क्यों नहीं भेज दिया जाता?

जनस्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लापरवाही का परिणाम है कि पानी के बिलों में बड़े पैमाने पर गड़बडिय़ों के कारण शहर के हजारों उपभोक्ता परेशान हैं और विभाग के दफ्तरों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं। आम तौर पर शांत रहने वाले इस शहर के नागरिक बेहद उद्वेलित हैं और दुर्भाग्य से समुचित समाधान करने को कोई तैयार नहीं है। जिला प्रशासन भी दो दिन से भीड़ के आक्रोश को देख रहा है, मगर हस्तक्षेप नहीं कर रहा। एहतियात के बतौर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस को जरूर भेजा जा रहा है, लेकिन समस्या के हल में उसकी कोई रुचि नजर नहीं आती।
अफसोसनाक बात है कि एक ओर जनता अत्यधिक परेशान है और विभाग के अधिकारी समस्या को अभी हल्के में ही ले रहे हैं। विभाग के एसीई अनिल भार्गव का ही बयान लीजिए। वे बड़ी आसानी से शांत भाव से कह रहे हैं कि पिछले कुछ अरसे से बिलों को लेकर समस्याएं आ रही हैं। लेजर मेंटेन करवा लिए गए हैं। बिलों में करेक्शन करवाए जा रहे हैं। सवाल ये उठता है कि बिलों को लेकर समस्याएं क्यों आ रही हैं? बिलों में आ रही गड़बड़ी के लिए कौन जिम्मेदार हैं? क्या यह कह कर कि गलती बिल बना कर वितरण करने वाली ठेकदार फर्म की है, खुद बरी होना चाहता है? क्या उपभोक्ता की इसमें कोई गलती है? यदि विभाग को पता था कि बिलों में गड़बड़ी एक ठेकेदार कंपनी के यहां हुई गलती से हुई है तो उसने उनके वितरण पर रोक क्यों नहीं लगाई? ऐसे बिलों का वितरण क्यों होने दिया गया? अव्वल तो विभाग की पोल यहीं पर खुल रही है कि बिल बनाने का काम ठेके पर देने के बाद विभाग ने आंखें मूंद रखी हैं, इसी कारण समस्या इतनी विकराल हो गई है। साफ है कि ठेकेदार फर्म के काम पर निगरानी रखने वाले या तो हैं नहीं और हैं तो वे ठीक से निगरानी नहीं कर रहे। सवाल ये भी है कि अगर विभाग को पता लग चुका था कि बिल बनाने में गड़बड़ी हुई है तो उसने अपनी ओर से पहल कर के उनमें सुधार का उपाय क्यों नहीं किया? होना तो यह चाहिए था कि विभाग को बिलों में तुरंत सुधार कर वितरण करवाना चाहिए था। यदि ऐसा संभव नहीं था तो वह एक विज्ञप्ति जारी कर यह व्यवस्था कर सकता था कि वर्तमान बिल का भुगतान न करने की छूट दे कर उसे आगामी बिल में जोड़ दिए जाने की सूचना जारी कर देता। मगर ऐसा नहीं करके उसने उपभोक्ताओं को बिल सुधरवाने के लिए धक्के खाने को मजबूर कर दिया। भार्गव का कहना है कि नब्बे प्रतिशत बिल दुरुस्त हैं और जो दस प्रतिशत बिल रह गए हैं, उन्हें सुधारा जा रहा है। उनका यह बयान सफेद झूठ नजर आता है। मात्र दस प्रतिशत गलत बिलों पर इतना बवाल नहीं मचता। दूसरा ये कि बिलों में जो सुधार किया जा रहा है, वह तब जा कर हो रहा है, जबकि उपभोक्ता अतिरिक्त समय निकाल कर उनके दफ्तरों में सुधरवाने जा रहा है। विभाग की उसमें उपभोक्ता पर क्या मेहरबानी है?
विभाग में अराजकता का आलम ये है कि अधिकारियों के हाथ पर हाथ धरे बैठने के कारण आखिरकार जलदाय कर्मचारी संघ को अधिकारियों से मांग करनी पड़ी कि उन्हें पब्लिक से पिटने से बचाया जाए और पुलिस का इंतजाम किया जाए। साफ है कि गलती ठेकेदार फर्म की और उसे भुगत रहे हैं आम उपभोक्ता और उपभोक्ता के गुस्से का शिकार हो रहे हैं कर्मचारी। अधिकारी तो अपने चैंबरों में सुरक्षित बैठे हैं। सवाल ये उठता है कि जो अधिकारी पहले तो लापरवाही से समस्या को उत्पन्न करते हैं और बाद में समस्या का ठीक से समाधान नहीं करते, उन्हें नकारा करार दे कर घर क्यों नहीं भेज दिया जाता?