मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

लखावत जी ! आपकी धर्मनिरपेक्षता को सलाम

हाल ही आयकर विभाग के ज्वाइंट कमिश्नर बी. एल. यादव ने राजस्थाल लोक सेवा आयोग में बने हुए मंदिर के मुद्दे पर सूचना के अधिकार के तहत जानकारी चाह कर एक नई बहस को जन्म दिया है कि क्या सरकारी दफ्तरों में बने मंदिर अथवा धर्मस्थल अतिक्रमण और नाजायज हैं? और इस बहस को मंच दिया है दैनिक भास्कर ने।
चूंकि मंदिर की बात ज्यादा भारतीय जनता पार्टी से जुड़े लोग करते हैं, इस कारण संवाददाता ने प्रतिक्रिया क्या होगी, यह जानते हुए भी अजमेर में भाजपा के भीष्म पितामह पूर्व सांसद एवं जाने-माने वकील औंकार सिंह लखावत को कुरेदा है। लखावत ने जिस तरीके से अपना पक्ष रखा है, वह बहुत दिलचस्प है, क्योंकि वह प्रतिक्रिया एक मानसिकता विशेष और पार्टी की प्रतिबद्धता को ध्यान में रखते हुए ही दी गई है। मन ही मन भले ही वे जानते हों कि सरकारी दफ्तरों में एक धर्म विशेष के स्थल बनाना गलत है, मगर मगर चूंकि भाजपा के जिम्मेदार पदाधिकारी हैं, इस कारण उसी का चश्मा पहन कर बयान दे दिया है। अफसोस सिर्फ इतना है कि लखावत शहर के वरिष्ठतम पत्रकारों में से हैं और वरिष्ठ वकील होने के साथ उनकी गिनती प्रखर बुद्धिजीवियों में होती है, फिर भी प्रतिक्रिया कितनी संकीर्णता दर्शा रही है। असल में लखावत जी का सम्मान केवल इसी कारण नहीं होता कि वे पूर्व सांसद हैं, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष और राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण के अध्यक्ष रहे हैं, या फिर भाजपा के बड़े नेता हैं, बल्कि इस कारण होता है कि अजमेर में उनके मुकाबले का दूसरा प्रखर और स्पष्ट वक्ता, विशेष रूप से राजनीति के क्षेत्र में तलाशना नामुमकिन है। कम से कम उनसे तो ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं होती।
कदाचित संभव है कि उनके कथन और लिखित प्रतिक्रिया में शब्दों का कुछ हेरफेर हो गया हो, मगर कुल जमा जो अर्थ निकलता है, उसी पर नजर डाल लेते हैं। उनकी प्रतिक्रिया हिंदूवादी मानसिकता को तो पोषित करती है, मगर उसे संविधान सम्मत तो कत्तई नहीं ठहराया जा सकता।
वे कहते हैं कि मुद्दा ज्यादा बड़ा नहीं है, लेकिन सीधे तौर पर हिंदुत्व से जुड़ा हुआ है। असल बात ये है कि मुद्दा है तो बहुत बड़ा, बस उसे जानबूझ कर नजरअंदाज किया जा रहा है। चूंकि हमारे धर्मनिरपेक्ष देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण अल्पसंख्यक इसे उठाने का साहस नहीं कर पाते और हिंदू इस कारण नहीं उठाते क्योंकि हिंदुओं की नजर में गिर जाएंगे। उनकी सोच यही है कि जो चल रहा है, उसे चलने दो, कौन पंगा मोल ले। वैसे भी यह अपने धर्म के अनुकूल है, कानून सम्मत भले ही हो। लखावत यदि ये कहते कि यह आस्था का मामला है तो बात थोड़ी गले भी उतरती, मगर उन्होंने इसे हिंदुत्व का लेबल लगा दिया। इसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह देश हिंदूवादी है? क्यों कि देश में हिंदू बहुसंख्यक हैं, इस कारण सरकारी परिसरों में मंदिर बनाना हिंदुओं का जन्मसिद्ध अधिकार है? सवाल ये भी है कि किस हिंदू धर्म ग्रंथ में लिखा है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी की अनुमति के मंदिर बना दिए जाने चाहिए। क्या कानून नाम की कोई चीज भी हमारे देश है या नहीं? क्या हिंदुत्व यही सीख दे रहा है कि हिंदुत्व को महान बताते हुए इस धर्मनिरपेक्ष देश में संविधान को धत्ता दिखाते रहा जाए?
लखावत जी कहते हैं कि हमारे देश में धर्म और संस्कृति ही तो बची हुई है। सवाल ये उठता है कि हमारे पास धर्म और संस्कृति के अलावा है भी क्या, जो बच जाता? साइंस, टैक्नोलॉजी, प्रशासनिक ढांचा इत्यादि सब-कुछ तो उधार का है। फिर ये कहते हैं कि मंदिर भी हटा दिए जाएंगे तो बचेगा क्या? यानि कि हमारे पास केवल मंदिर ही हैं, उसके अलावा कुछ है ही नहीं? उनकी नजर उन सैंकड़ों मंदिरों पर नहीं जा रही, जिनके भगवान या तो नियमित पूजा का तरस रहे हैं और या फिर लूट-खसोट का अड्डा बने हुए हैं। वे कहते हैं कि धर्म निरपेक्षता के मायने यह नहीं हैं कि धर्म का आचरण किया जाए। बेशक उनकी बात सही है, मगर उस आचरण का क्या जो दूसरे के धर्म को कमतर आंक रहा है, क्योंकि वह अल्पसंख्यकों का है? धर्म निरपेक्षता के मायने हैं कि आप भले की अपने धर्म का आचरण पूरे मनोयोग से करें, मगर दूसरे धर्म को भी उतना ही सम्मान दें। अर्थात धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए।
फिर वे कहते हैं कि हिंदुस्तान में मंदिर नहीं होंगे तो कहां होंगे? बेशक मंदिर यहीं होंगे, मंदिर होने से रोक भी कौन रहा है, सवाल तो केवल सरकारी परिसरों में अतिक्रमण कर बनाए गए मंदिरों का है। जब हमारे पास गली-मोहल्लों में जगह-जगह मंदिर हैं तो सरकारी परिसरों में और मंदिर बना कर क्या हासिल कर रहे हैं? क्या सरकारी परिसरों में मंदिर बना दिए जाने से हमारे सरकारी कर्मचारी बड़ा धार्मिक आचरण करने लगे हैं? सरकार चाहे कांग्रेस की हो या भाजपा की, मंदिर बनाए जाने के बाद भी सरकारी दफ्तरों में क्या हो रहा है, यह बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं?
लखावत जी ने आखिर में तो हद ही कर दी है। एक जाने-माने कानूनविद् का यह कथन कितना हास्यास्पद है कि अगर सरकारी भूमि पर मंदिर बने हुए भी हैं तो किसी निजी लाभ के लिए नहीं बने हैं। निजी लाभ के लिए सही, मगर निज धर्म के लाभ के लिए तो हैं ही न। सबसे बड़ी बात ये है कि सरकारी जमीन पर बिना किसी व्यवस्था से अनुमति लिए मंदिर बनाना अवैध है, उसमें लाभ-हानि का पैमाना कहां लागू होता है। सरकारी दफ्तरों में मंदिर बनाना गलत है तो गलत है, उसे सही ठहराने के लिए भावनात्मक दलीलें देकर मुद्दे को हवा में उड़ाने को तो सही नहीं ठहराया जा सकता।
असल में यह समस्या अकेले लखावत जी की नहीं है। दुनिया के अधिसंख्य बुद्धिजीवी किसी किसी विचारधारा में बंध कर उसी के अनुरूप बात करने को बाध्य होते हैं, वरना उन्होंने जिस विचारधारा को अपना कर ऊंचे पद हासिल किए हैं, उसके ठेकेदार उन्हें उनसे पदच्तुत कर देंगे।