शनिवार, 4 दिसंबर 2010

आयुक्त चौधरी और पार्षदों के बीच टकराव का राज क्या है?

क्या अवैध निर्माण के लिए अकेले चौधरी जिम्मेदार हैं?
पिछले दिनों कुछ कांग्रेसी पार्षदों और आयुक्त (विकास) जगदीश चौधरी के बीच जबरदस्त टकराव हो गया। पहले तो चंद पार्षदों ने लामबंद हो कर मेयर कमल बाकोलिया को उनकी शिकायत की व फटकार लगवाई और फिर दूसरे दिन उनका मुंह काला करने को पहुंच गए। गनीमत ये रही कि वे अपने कमरे में नहीं थे, इस कारण नेम प्लेट पर ही कालिख पोत कर गुबार निकाला। और फिर उनके खिलाफ कार्यवाही की मांग को लेकर सीआईओ राजनारायण शर्मा के कमरे में धरने पर बैठ गए।
सवाल ये उठता है कि केवल चंद कांग्रेसी पार्षदों के साथ ही चौधरी का टकराव क्यों हुआ? क्या केवल उन्हीं के वार्डों में अवैध निर्माण हो रहे हैं? अपनी ही पार्टी का मेयर होने के बाद भी ऐसी क्या वजह बनी कि उन्हें बाकायदा शिकायत करनी पड़ी, जिसकी एवज में बाकोलिया ने चौधरी को फटकार लगाई? क्या किसी भाजपा पार्षद को उनसे कोई शिकायत नहीं है और वे पूरी तरह से संतुष्ट हैं? क्या अन्य वार्डों में हो रहे अवैध निर्माण के प्रति वहां के पार्षद जागरूक नहीं हैं? और सबसे अहम सवाल ये कि चौधरी ने पार्षद नरेश सत्यावना व श्रवण टोनी पर जवाबी हमला करते हुए खुद उनके अवैध निर्माण में शामिल होने का आरोप क्यों लगाया? क्या चौधरी को ये ख्याल नहीं था कि यदि वे इस प्रकार पार्षदों पर सीधे आरोप लगाएंगे तो और हंगामा होगा? ये सब सवाल इशारा करते हैं कि मामला जितना सीधा नजर आता है, उतना है नहीं। दाल में जरूर कुछ काला है। आरोप, प्रत्यारोप और फिर आरोप, यह सब बेवजह नहीं हो सकता।
यदि सत्यावना व टोनी अवैध निर्माण में शामिल नहीं हैं तो चौधरी को उसे साबित करना कत्तई संभव नहीं होगा। यदि ये समझा जाए कि उन्होंने गुस्से में ऐसा कह दिया होगा, तो भी सीधे जनप्रतिनिधियों पर आरोप लगाना तो निश्चित रूप से गंभीर बात है। असल में ये चुनौती सत्यावना व टोनी को नहीं, बल्कि मेयर बाकोलिया को है, जिन्हें यह देखना होगा कि जिन पार्षदों के कहने पर उन्होंने अधिकारी को फटकार दिया, उन्हें ही कटघरे में खड़ा किया जा रहा है। सच्चाई जो भी हो, मगर इस पूरे प्रकरण से आम जनता में तो यह संदेश गया ही है कि अवैध निर्माण अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों की मिलीभगत से हो रहे हैं। और यदि यह भी सही नहीं तो आखिर अवैध निर्माण हो कैसे रहे हैं? क्या केवल अकेले चौधरी की लापरवाही से, क्यों कि सीधी जिम्मेदारी उनकी ही बनती है? तो फिर इस सवाल का जवाब क्या है कि पहले मेयर व सीईओ नीति बना दें, चौधरी कार्यवाही करने को तैयार हैं? क्या वाकई नीति अस्पष्ट है और राजनीतिक इच्छाशक्ति में भी कुछ गड़बड़ हैं? चलो चौधरी को तो नौकरी करनी है, इसलिए गर्दन झुका कर सब कुछ सुन लिया, मगर सवाल ये उठता है कि क्या शहर में हो रहे अतिक्रमणों के लिए केवल वे ही दोषी हैं? क्या कोई अफसर वाकई पूरी ईमानदारी बरतते हुए अतिक्रमण हटाने को निकलेगा तो उसमें राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होगा? क्या चौधरी को कोई गारंटी देने को तैयार है कि अगर वे सख्ती से अतिक्रमण हटाएंगे तो उनको पूरा राजनीतिक संरक्षण मिलेगा व कहीं और तबादला नहीं किया जाएगा?
असल में अतिक्रमण का सिलसिला कोई नया नहीं है, सनातन है। चाहे स्टील लेडी अदिति मेहता जैसी कडक़ कलेक्टर कितने ही अतिक्रमण हटवा दें, मगर अतिक्रमी भी कुत्ते की पूंछ की तरह हैं, कितना भी सीधा करो, फिर टेढ़े हो जाते हैं। ऐसा भी नहीं कि अतिक्रमणकारी केवल निगम कर्मचारियों या अफसरों से मिलीभगत करके अपने काम को अंजाम देते हैं, वे पूरा राजनीतिक संरक्षण हासिल करने के बाद ही आगे कदम बढ़ाते हैं। ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं, मगर उन्हें साबित करना कत्तई संभव नहीं है। एक तो अतिक्रमण करने वाले को अपने काम से मतलब है, वह भला क्यों शिकायत करेगा कि उसने अमुक जनप्रतिनिधि या अफसर की जेब गर्म की है। दूसरा ये कि जिन इक्का-दुक्का अतिक्रमियों ने मुंह खोला भी है तो उसे साबित नहीं कर पाए हैं। पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत पर चुनावी माहौल में कांग्रेस ने ऐसे भ्रष्टाचार के अनेक आरोप लगाए कि उनके रहते अवैध कॉमर्शियल कॉम्पलैक्स कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं, मगर निगम पर काबिज होने के बाद क्या इस आरोप को साबित किया जा सका है?
चलो एकबारगी यह मान भी लें कि इस बार चुन कर आए जनप्रतिनिधि बड़े ईमानदार हैं और उन्हें वाकई शहर का दर्द है, इस कारण उनको अतिक्रमण सहन नहीं हो रहे, देखते हैं उनकी शिकायत क्या रंग लाती है? मेयर बाकोलिया के लिए भी यह चैलेंज है कि विपक्षी पार्षदों की बजाय खुद उनकी ही पार्टी के पार्षद अतिक्रमणों के खिलाफ लामबंद होने लगे हैं। भाजपा ने ही नहीं, बल्कि उनकी ही पार्टी के पार्षदों ने यह स्थापित कर दिया है कि शहर में अतिक्रमण हो रहे हैं, जिसके लिए भले ही संबंधित अफसर को कटघरे में खड़ा किया जा रहा हो, मगर असल जिम्मेदारी तो निगम के मुखिया बाकोलिया की ही है। वरना धर्मेन्द्र गहलोत पर आरोप लगा कर वोट हासिल करने का क्या अर्थ निकाला जाए? ऐसा तो हो नहीं सकता कि भाजपा के कार्यकाल में जो अतिक्रमण हुए उनके लिए गहलोत जिम्मेदार थे और अब कांग्रेस के राज में जो अतिक्रमण हो रहे हैं, उनके लिए अकेले जगदीश चौधरी ही दोषी हैं। बहरहाल, देखना ये है कि बाकोलिया वाकई दबाव बना कर अतिक्रमण हटवाते हैं या फिर यह केवल गीदड़ भभकी थी?
गहलोत ने दी धरातलीय प्रतिक्रिया
नगर निगम बोर्ड के एक सौ दिन पूरे होने पर समीक्षा के रूप में भले ही मेयर कमल बाकोलिया को जीरो नंबर दिया जा रहा हो, मगर मेयर की सीट को भोग चुके धर्मेन्द्र गहलोत ने पार्टी के नाते आलोचना भर के लिए आलोचना करने की बजाय धरातलीय प्रतिक्रिया जाहिर की है। उन्होंने स्वीकार किया है कि निगम के कामकाज का दायरा इतना व्यापक है कि उसे सौ दिन की अल्पावधि में नहीं झमझा जा सकता। गहलोत का यह बयान बाकोलिया जैसे राजनीति के नौसीखिये के लिए तो और भी अधिक प्रासंगिक है। उन्हें तो एक गैस एजेंसी चलाते-चलाते सीधे पूरे शहर को चलाने का दायित्व मिल गया। गहलोत ने तो मेयर की कुर्सी को कांटों भरा ताज की भी संज्ञा दी है, जिस पर बैठे व्यक्ति को जन अपेक्षाओं पर खरे उतरने के साथ कानूनी प्रावधानों को भी पूरा करना आसान नहीं होता। कदाचित उन्हें यह भी ख्याल में है कि मेयर भले ही कांग्रेस का हो, मगर बोर्ड पर तो भाजपा ही काबिज है। असल में ऐसी प्रतिक्रिया एक अनुभवी ही जाहिर कर सकता है। यही वजह है कि मेयर पद पर नहीं पहुंच पाए भाजपा प्रत्याशी डॉ. प्रियशील हाड़ा ने तो वैसी ही प्रतिक्रिया दी है, जैसी एक विपक्षी को देनी चाहिए। वैसे उनकी प्रतिक्रिया में एक बात समझ में नहीं आई। वे कहते हैं कि मेयर ने लोगों के प्रतिष्ठान बंद करवाए और व्यापारियों को आंख दिखाना शुरू कर दिया। क्या इसे इस रूप में लिया जाए कि जिन व्यापारियों ने भाजपा के शासनकाल में अवैध कॉम्पलैक्स बनाए, उनको छेडऩा हाड़ा को नागवार गुजरा, जब कि नागवार तो गहलोत को गुजरना चाहिए था।