बुधवार, 31 जुलाई 2013

पक्का न मान कर चलिए अनिता भदेल का टिकट

अजमेर उत्तर में भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के विधानसभा टिकट में तो संशय इस कारण है कि भाजपा एक धड़ा उनका जमकर विरोध कर रहा है, मगर बताया जाता है कि अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल के टिकट में भी रगड़ा पड़ सकता है।
हालांकि आम धारणा यही है कि श्रीमती भदेल के टिकट में कोई संकट नहीं है, क्योंकि एक तो प्रत्यक्षत: उनका कोई विरोध नहीं है, दूसरा देवनानी विरोधी लॉबी सपोर्ट कर रही है, तीसरा जिले में एक महिला को तो टिकट देना ही है, जबकि अन्य किसी सीट पर कोई दमदार महिला उभर नहीं पाई है। और चौथा एक विपक्षी विधायक के नाते ओवरऑल परफोरमेंस भी ठीक बताई जाती है। बावजूद इसके अंदरखाने की खबर है कि उनके टिकट को पक्का नहीं माना जाना चाहिए। बताया जाता है कि अजमेर नगर निगम के महापौर पद के प्रत्याशी रहे डॉ. प्रियशील हाड़ा खुल कर तो नहीं, मगर अंदर की अंदर उनका जम कर विरोध कर रहे हैं। इसकी वजह ये बताई जाती है कि श्रीमती भदेल ने उनका सहयोग नहीं किया, इस कारण वे हार गए। वरना केंडीडेट तो वे कांग्रेस के कमल बाकोलिया से बेहतर ही थे। यह बात सबके गले आसानी से उतरती भी है, क्योंकि कोई भी नेता पार्टी में अपनी ही समाज के किसी दूसरे नेता को काहे को जड़ें जमाने देगा। कहने की जरूरत नहीं है कि वे भी उसी कोली समाज से हैं, जिस समाज के नाते श्रीमती भदेल को लगातार दो बार टिकट दिया जाता रहा है। डॉ. हाड़ा का विरोध तो अपनी जगह है ही, बताया जाता है कि संघ में भी उनके प्रति सर्वसम्मति अब नहीं रही है। एक फैक्टर ये भी है कि लगातार दो टर्म तक विधायक रहने वाले नेता के अनेक स्वाभाविक दुश्मन भी बन जाते हैं, जिनके कि निजी अथवा सार्वजनिक काम नहीं हुए होते हैं। ऐसे लोग उनके व्यवहार को लेकर शिकायतें कर रहे हैं। रहा सवाल खुद के दमखम का तो यह साफ है कि श्रीमती भदेल जो कुछ भी हैं, संघ और भाजपा के दम पर हैं। उनका अपना कोई खास वजूद नहीं रहा है। अब भी नहीं है। न सामाजिक, न ही आर्थिक। यह एक सच्चाई भी है कि आमतौर पर संघ और भाजपा में व्यक्ति पार्टी की तुलना में गौण होता है। असली ताकत संगठन की ही होती है। संगठन को अहसास है कि वह चाहे जिसे खड़ा करे, जितवा कर ला सकता है। ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण मौजूद हैं, जो कि केवल संगठन के दम पर ही नेता रहे, जैसे ही संगठन ने मुंह फेरा, वे जमीन पर आ गए। जैसे पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा, पूर्व विधायक नवलराय बच्चानी, पूर्व विधायक हरीश झामनानी। आज उनको कौन पूछता है। ये सब ऐसे नेता हैं, जिन्हें संगठन ने ही नेता बनाया, वरना वे भी आम आदमी ही थे। और हटने के बाद भी आम हो गए। अनिता भदेल भी उनकी श्रेणी की नेता हैं। उन्हें जमीन से आसमान तक लाने में रोल ही संगठन का है। बहरहाल, संघ लॉबी में चर्चा है कि चेहरा बदलने के लिहाज से श्रीमती भदेल का टिकट काटा जा सकता है। हालांकि यह बात आसानी से हजम नहीं होती, मगर संघ कब क्या करता है, पता नहीं चलता। वह कहता कुछ नहीं, और करता सब कुछ है। बड़े-बड़े तीसमारखां भी संघ के आगे नतमस्तक होते हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि अजमेर उत्तर की तरह दक्षिण की सीट भी संघ कोटे की है। अगर वाकई संघ ने उन्हें टिकट न देने की ठानी तो फिर वसुंधरा भी हथेली नहीं लगा सकतीं।

टिकट ले भी आए तो देवनानी को हराने की तैयारी

कानाफूसी है कि अजमेर उत्तर के मौजूदा भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी की विरोधी लॉबी अव्वल तो उनको टिकट नहीं दिए जाने के लिए एडी चोटी का जोर लगा रही है, गर वे जोड़-तोड़ कर टिकट ले आए तो उन्हें जीतने के लाले पड़ सकते हैं।
जानकारी यही है कि भाजपा की ओर से अब तक आए ज्ञात व अज्ञात पर्यवेक्षकों को यह साफ कर दिया गया है कि देवनानी का पार्टी में भारी विरोध है। अगर उसके बाद भी पार्टी ने गलती की तो उसे उसका खामियाजा भुगतना होगा। संभव ये भी है कि देवनानी विरोधी एकजुट हो कर यह कह दें कि भले ही आप देवनानी को टिकट दे दीजिए, मगर जिताने की जिम्मेदारी हमारी नहीं होगी। भाजपा हाईकमान भी अब समझ तो गया है कि देवनानी की भाजपा कार्यकर्ताओं में क्या स्थिति है, मगर उसकी यह सोच भी है कि इस प्रकार का विरोध तो पिछली बार भी था, बावजूद इसके वे जीत कर आ गए। हाईकमान यह आकलन करने में लगा है कि देवनानी का जितना विरोध भाजपा में है, क्या उतना आम कार्यकर्ता व आम जनता में भी है। कहीं यह विरोध प्रोजेक्टेड तो नहीं है। कुल मिला कर लगता यही है कि देवनानी विरोधी उन्हें किसी भी सूरत में टिकट नहीं लेने देंगे। अगर ले भी आए तो निपटा देंगे।
जानकार सूत्रों के अनुसार अजमेर उत्तर के अधिकतर वार्डों में देवनानी की टीम की टक्कर में टीमें गठित हो रखी हैं, जो चुनाव के दौरान देवनानी की जड़ों में म_ा डालने का काम करेंगी। इन टीमों में वे कार्यकर्ता हैं, या तो सीधे देवनानी से खफा हैं या फिर गैर सिंधीवाद की मुहिम में शामिल हैं। उदाहरण के तौर निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत देवनानी के धुर विरोधी हैं। उनका एक मात्र लक्ष्य ही देवनानी को निपटाना है। जाहिर है उन पर देवनानी विरोधी लॉबी ने हाथ रख रखा है। कहा तो यहां तक जाता है कि देवनानी को टिकट मिलने पर वे केवल उन्हें हराने के लिए ही निर्दलीय रूप से खड़े हो जाएंगे। अगर चुनाव न लडऩे का मूड हुआ तो भी वे देवनानी की फिश प्लेटें गायब करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ेंगे। उनकी अपने वार्ड के अतिरिक्त सटे हुए दो वार्डों में जबरदस्त पकड़ है। यानि कि अगर उन्होंने देवनानी की कारसेवा की तो उन्हें तगड़ा झटका लगेगा। देवनानी के पास फिलहाल उनका कोई तोड़ नहीं है। अन्य वार्डों में भी कमोबेश यही स्थिति है, मगर चूंकि वहां अंडरग्राउंड काम चल रहा है, इस कारण उनके नाम उजागर करना फिलहाल उचित नहीं होगा। ऐसा नहीं है कि अपनी कारसेवा होने का देवनानी को पता नहीं है। वे भलीभांति जानते हैं, इस कारण उन्होंने भी अपनी टीमों को तैयार करना शुरू कर दिया है। वे कितने कामयाब हो पाते हैं, ये तो वक्त ही बताएगा।

ऐसा था स्वतंत्र अजमेर राज्य

राजपूताना का 1909 का वह नक्शा, जिसमें अजमेर मेरवाड़ा को दर्शाया गया है
कांग्रेस के पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने एक बार फिर अलग अजमेर राज्य का मुद्दा उठाया है। इस मौके पर यह बताना प्रासंगिक होगा कि स्वतंत्र अजमेर राज्य कैसा था। पेश है मेरी पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस का  एक आलेख:-
नवम्बर, 1956 में राजस्थान में विलय से पहले अजमेर एक स्वतंत्र राज्य था। केन्द्र सरकार की ओर से इसे सी स्टेट के रूप में मान्यता मिली हुई थी। आइये, इससे पहले यहां की सामन्तशाही व्यवस्था पर नजर डाल लें:-
सामन्तशाही व्यवस्था
अजमेर राज्य 2 हजार 417 वर्ग मील क्षेत्र में फैला हुआ था और सन् 1951 में इसकी जनसंख्या 6 लाख 93 हजार 372 थी। केकड़ी को छोड़ कर राज्य का दो तिहाई हिस्सा जागीरदारों व इस्तमुरारदारों (ठिकानेदार) के पास था, जबकि केकड़ी का पूरा इलाका इस्तमुरारदारों के कब्जे में था। सरकारी कब्जे वाली खालसा जमीन नाम मात्र को थी। पूर्व में ये ठिकाने जागीरों के रूप में थी और इन्हें सैनिक सेवाओं के उपलक्ष्य में दिया गया था। इन ठिकानों के कुल 277 गांवों में से 198 गावों से फौज खर्च वसूल किया जाता था। ब्रिटिशकाल से पहले सामन्तशाही के दौरान यहां सत्तर बड़े इस्तमुरारदार और चार छोटे इस्तमुरारदार थे। ये ठिकाने विभिन्न समुदायों में बंटे हुए थे। कुल 64 ठिकाने राठौड़ समुदाय के, 4 चीता समुदायों और 1-1 सिसोदिया व गौड़ के पास थे। इनको भी राजपूत रियासतों के जागीरदारों के बराबर विशेष अधिकार हासिल थे। सन् 1872 में ठिकानेदारों को सनद दी गई और 1877 में अजमेर भू राजस्व भूमि विनियम के तहत इनका नियमन किया गया।
इस्तमुरारदारों को तीन श्रेणी की ताजीरें प्रदान की हुई थीं। जब कभी किसी ठिकाने के इस श्रेणी के निर्धारण संबंधी विवाद होते थे तो चीफ कमिश्रर की रिपोर्ट के आधार पर वायसराय उसका समाधान निकालते थे। ब्रिटिश काल में जब कभी कोई इस्तमुरारदार दरबार में भाग लेता था तो चीफ कमिश्नर की ओर से उसका सम्मान किया जाता था। हालांकि इस्तमुरारदार राजाओं की श्रेणी में नहीं आते थे, लेकिन इन्हें विशेष अधिकार हासिल थे।
अजमेर राज्य में कुल नौ परगने शाहपुरा, खरवा, पीसांगन, मसूदा, सावर, गोविंदगढ़, भिनाय, देवगढ़ व केकड़ी थे। केकड़ी जूनिया का अंग था। जूनिया, भिनाय, सावर, मसूदा व पीसांगन के इस्तमुरारदार मुगल शासकों के मंसबदार थे। भिनाय की सर्वाधिक प्रतिष्ठा थी तथा इसके इस्तमुरारदार राजा जोधा वंश के थे। प्रतिष्ठा की दृष्टि से दूसरे परगने सावर के इस्तमुरारदार ठाकुर सिसोदिया वशीं शक्तावत राजपूत थे। इसी क्रम में तीसरे जूनिया के इस्तमुरारदार राठौड़ वंशी थे। पीसांगन के जोधावत वंशी राठौड़ राजपूत व मसूदा के मेड़तिया वंशी राठौड़ थे। अजमेर राज्य में जागीरदारी व माफीदार व्यवस्था भी थी। धार्मिक व परमार्थ के कार्यों के लिए दी गई जमीन को जागीर कहा जाता था। इसी प्रकार माफी की जमीन भौम के रूप में दी जाती थी। भौम चार तरह के होते थे। पहले वे जिनकी संपत्ति वंश परम्परा के तहत थी और राज्य की ओर से स्वामित्व दिया जाता था। दूसरे वे जिनकी संपत्ति अपराध के कारण दंड स्वरूप राज्य जब्त कर लेता था, तीसरे वे जिनकी संपत्ति जब्त करने के अतिरिक्त राजस्व के अधिकार छीन लिए जाते थे और चौथे वे जिन पर दंड स्वरूप जुर्माना किया जाता था। इस्तमुरारदार ब्रिटिश शासन को भू राजस्व की तय राशि वार्षिक लगान के रूप में देते थे। जागीरदार अपने इलाके का भू राजस्व सरकार को नहीं देते थे। आजादी के बाद शनै: शनै: जागीरदारी व्यवस्था समाप्त की जाती रही। 1 अगस्त, 1955 को अजमेर एबोलिएशन ऑफ इंटरमीडियरी एक्ट के तहत इस्तमुरारदार खत्म किये गये। इसी प्रकार दस अक्टूबर, 1955 में जागीरदार व छोटे ठिकानेदारों को खत्म किया गया। इसके बाद 1958 में भौम व माफीदारी की व्यवस्था को भी खत्म कर दिया गया। राज्य के पुनर्गठन के संबंध में 1 नवंबर, 1956 को राज्य पुनर्गठन अधिनियम प्रभाव में आया और अजमेर एकीकृत हुआ और राजस्थान में शामिल कर लिया गया। 1 दिसम्बर, 1956 को जयपुर जिले का हिस्सा किशनगढ़ अजमेर में शामिल कर दिया गया। किशनगढ़ में उस वक्त चार तहसीलें किशनगढ़, रूपनगढ़, अरांई व सरवाड़ थी। 15 जून, 1958 से राजस्थान का भूमि राजस्व अधिनियम 1950, खातेदारी अधिनियम 1955 अजमेर पर लागू कर दिए गए। 1959-60 में तहसीलों का पुनर्गठन किया गया और अरांई व रूपनगढ़ तहसील समाप्त कर जिले में पांच तहसीलें अजमेर, किशनगढ़, ब्यावर, केकड़ी व सरवाड़ बना दी गई। केकड़ी तहसील का हिस्सा देवली अलग कर टोंक जिले में मिला दिया गया।
ऐसा था स्वतंत्र राज्य का ढांचा
सन् 1946 से 1952 तक अजमेर राज्य के संचालन के लिए चीफ कमिश्नर को राय देने के लिए सलाहकार परिषद् बनी हुई थी। इस में सर्वश्री बालकृष्ण कौल, किशनलाल लामरोर व मिर्जा अब्दुल कादिर बेग, जिला बोर्ड व अजमेर राज्य की नगरपालिकाओं के सदस्यों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि, संसद सदस्य मुकुट बिहारी लाल भार्गव, कृष्णगोपाल गर्ग, मास्टर वजीर सिंह और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधि के रूप में सूर्यमल मौर्य मनोनीत किया गया था।
भारत विभाजन के बाद कादिर बेग पाकिस्तान चले गए व उनके स्थान पर सैयद अब्बास अली को नियुक्त किया गया। चीफ कमिश्नर के रूप में श्री शंकर प्रसाद, सी. बी. नागरकर, के. एल. मेहता, ए. डी. पंडित व एम. के. कृपलानी रहे। सन् 1952 में प्रथम आम चुनाव के साथ ही यहां लोकप्रिय शासन की स्थापना हुई।
अजमेर विधानसभा को धारा सभा के नाम से जाना जाता था। इसके तीस सदस्यों में से इक्कीस कांग्रेस, पांच जनसंघ (दो पुरुषार्थी पंचायत)और चार निर्दलीय सदस्य थे। मुख्यमंत्री के रूप में श्री हरिभाऊ उपाध्याय चुने गए। गृह एवं वित्त मंत्री श्री बालकृष्ण कौल, राजस्व व शिक्षा मंत्री ब्यावर निवासी श्री बृजमोहन लाल शर्मा थे। मंत्रीमंडल ने 24 मार्च, 1952 को शपथ ली।  विधानसभा का उद्घाटन 22 मई, 1952 को केन्द्रीय गृह मंत्री डॉ. कैलाश नाथ नायडू ने किया। विधानसभा के पहले अध्यक्ष श्री भागीरथ सिंह व उपाध्यक्ष श्री रमेशचंद भार्गव चुने गए। बाद में श्री भार्गव को अध्यक्ष बनाया गया और उनके स्थान पर सैयद अब्बास अली को उपाध्यक्ष बनाया गया। विरोधी दल के नेता डॉ. अम्बालाल थे। विधानसभा प्रशासन संचालित करने के लिए 19 कानून बनाए। सरकार के कामकाज में मदद के लिए  विकास कमेटी, विकास सलाहकार बोर्ड, औद्योगिक सलाहकार बोर्ड, आर्थिक जांच बोर्ड, हथकरघा सलाहकार बोर्ड, खादी व ग्रामोद्योग बोर्ड, पाठ्यपुस्तक राष्ट्रीयकरण सलाहकार बोर्ड, पिछड़ी जाति कल्याण बोर्ड, बेकारी कमेटी, खान सलाहकार कमेटी, विक्टोरिया अस्पताल कमेटी, स्वतंत्रता आंदोलन इतिहास कमेटी और नव सुरक्षित वन जांच कमेटी का गठन किया गया, जिनमें सरकारी व गैर सरकारी व्यक्तियों को शामिल किया गया।
राजस्थान में विलय से पहले अजमेर राज्य से लोकसभा के लिए व राज्यसभा के लिए एक सदस्य चुने जाने की व्यवस्था थी। लोकसभा के लिए अजमेर व नसीराबाद क्षेत्र से श्री ज्वाला प्रसाद शर्मा और केकड़ी व ब्यावर क्षेत्र से श्री मुकुट बिहारी लाल भार्गव और राज्यसभा के लिए श्री अब्दुल शकूर चुने गए। सन् 1953 में अजमेर राज्य से राज्यसभा के लिए कोई सदस्य नहीं था, जबकि 1954 में श्री करुम्बया चुने गए। अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के साथ ही मंत्रीमंडल व सभी समितियों का अस्तित्व समाप्त हो गया। राजस्व व शिक्षा मंत्री श्री बृजमोहन लाल शर्मा को राजस्थान मंत्रीमंडल में लिया गया।
यहां उल्लेखनीय है कि गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल के नीतिगत निर्णय के तहत 11 जून 1956 को श्री सत्यनारायण राव की अध्यक्षता में गठित राजस्थान केपिटल इन्क्वायरी कमेटी की सिफारिश पर अजमेर के महत्व को बरकरार रखते हुए 1 नवंबर, 1956 को राजस्थान लोक सेवा आयोग का मुख्यालय अजमेर में खोला गया। 4 दिसम्बर 1957 को पारित शिक्षा अधिनियम के तहत माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय अजमेर रखा गया। 22 जुलाई, 1958 को राजस्व मंडल का अजमेर हस्तांतरण किया गया।
अजमेर राज्य विधानसभा के सदस्य, उनके निर्वाचन क्षेत्र और पार्टी
1. श्री अर्जुनदास अजमेर दक्षिण पश्चिम जनसंघ
2. श्री बालकृष्ण कौल अजमेर पूर्व कांग्रेस
3. श्री परसराम अजमेर (सुरक्षित) जनसंघ
4. श्री हरजी लाल अजमेर (सुरक्षित) कांग्रेस
5. श्री रमेशचंद व्यास अजमेर (कालाबाग) कांग्रेस
6. श्री अम्बालाल अजमेर (नया बाजार) जनसंघ
7. श्री भीमनदास अजमेर (टाउन हाल) कांग्रेस
8. श्री सैयद अब्बास अली (ढ़ाई दिन का झौंपड़ा) कांग्रेस
9. श्री बृजमोहन लाल शर्मा ब्यावर (उत्तर) कांग्रेस
10. श्री जगन्नाथ ब्यावर (दक्षिण) कांग्रेस
11. श्री कल्याण सिंह भिनाय जनसंघ
12. श्री शिवनारायण सिंह पुष्कर (उत्तर) कांग्रेस
13. श्री जयनारायण पुष्कर (दक्षिण) कांग्रेस
14. श्री महेन्द्र सिंह पंवार नसीराबाद निर्दलीय
15. श्री लक्ष्मीनारायण नसीराबाद (सुरक्षित) कांग्रेस
16. श्री जेठमल केकड़ी कांग्रेस
17. श्री सेवादास केकड़ी (सुरक्षित) कांग्रेस
18. श्री छगन लाल देवलिया कलां कांग्रेस
19. श्री हिम्मत अली देराठू कांग्रेस
20. श्री किशनलाल लामरोर गगवाना कांग्रेस
21. श्री चिमन सिंह जवाजा निर्दलीय
22. श्री भागीरथ सिंह जेठाना कांग्रेस
23. श्री नारायण जेठाना (सुरक्षित) कांग्रेस
24. श्री सूर्यमल मौर्य मसूदा (सुरक्षित) कांग्रेस
25. श्री नारायण सिंह मसूदा निर्दलीय
26. श्री गणपत सिंह नया नगर जनसंघ
27. श्री लक्ष्मण सिंह सावर निर्दलीय
28. श्री वली मोहम्मद श्यामगढ़ कांग्रेस
29. श्री हरिभाऊ उपाध्याय श्रीनगर कांग्रेस
30. श्री प्रेमसिंह टाटगढ़ कांग्रेस

-तेजवानी गिरधर
7742067000

डॉ. बाहेती ने उठाया अजमेर राज्य का मुद्दा

अलग तेलंगाना राज्य पर यूपीए और कांग्रेस वर्किंग कमेटी की मुहर लगने के साथ ही 12 और नए राज्यों की मांग तेज होने का अनुमान है। पश्चिम बंगाल को बांट कर अलग गोरखालैंड में तो आंदोलन तेज भी हो गया है, जहां एक युवक ने मंगलवार को आत्मदाह कर लिया। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख बिमल गुरुंग ने चेतावनी दी है कि आने वाले समय में उग्र आंदोलन होगा। वहीं अलग विदर्भ के लिए विलास मुत्तेमवार ने सोनिया गांधी को पत्र लिख दिया है।
 उसी कड़ी में कांग्रेस के पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने भी कमोबेश अलग अजमेर राज्य का मुद्दा उठा दिया है। बुधवार की सुबह जब सारे अखबार अलग तेलंगाना की खबर सुर्खियां पा रही थीं तो दूसरी ओर डॉ. बाहेती की मित्र मंडली के मोबाइलों पर अलग अजमेर राज्य से संबंधित एसएमएस चमक रहा था। उन्होंने सवाल उठाया है कि 1956 में तेलंगाना का विलय आंध्रप्रदेश में हुआ, 1952 में अजमेर का विलय राजस्थान में हुआ, तेलंगाना पुन: स्वतंत्र, अजमेर का क्या? विचारें। इसका सीधा सा अर्थ है कि वे अजमेर राज्य के स्वतंत्र अस्तित्व की बात कह रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि आज जब तेलंगाना चर्चा में है, इस कारण उन्होंने अलग अजमेर राज्य की बात उठाई है, इससे पहले भी वे समय-समय पर यह मुद्दा उठाते रहे हैं। विशेष रूप से तब-तब, जब-जब अजमेर के हितों के साथ खिलवाड़ होता दिखा है। बीसलपुर के पानी के बंटवारे का मसला हो या फिर राजस्व मंडल अथवा राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के विखंडन का, उन्होंने अजमेर के साथ अन्याय होने से दु:खी हो कर यही कहा है कि इससे तो बेहतर है कि हमें अपना अजमेर राज्य अलग से दे दीजिए। इसके पीछे उनका ठोस तर्क भी रहता है कि अजमेर को महत्वपूर्ण राज्य स्तरीय सरकारी विभाग दिए ही इसके राजस्थान में विलय की एवज में गए थे।
आइये, जरा आपको इस मौके पर यह भी बताते चलें कि अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के समय क्या स्थिति थी:-
राजस्थान में विलय से पहले अजमेर राज्य से लोकसभा के लिए व राज्यसभा के लिए एक सदस्य चुने जाने की व्यवस्था थी। लोकसभा के लिए अजमेर व नसीराबाद क्षेत्र से स्वर्गीय श्री ज्वाला प्रसाद शर्मा और केकड़ी व ब्यावर क्षेत्र से स्वर्गीय श्री मुकुट बिहारी लाल भार्गव और राज्यसभा के लिए स्वर्गीय श्री अब्दुल शकूर चुने गए। सन् 1953 में अजमेर राज्य से राज्यसभा के लिए कोई सदस्य नहीं था, जबकि 1954 में श्री करुम्बया चुने गए। अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के साथ ही मंत्रीमंडल व सभी समितियों का अस्तित्व समाप्त हो गया। राजस्व व शिक्षा मंत्री श्री बृजमोहन लाल शर्मा को राजस्थान मंत्रीमंडल में लिया गया। अजमेर राज्य विधानसभा में कुल तीस सीटें हुआ करती थीं।
यहां उल्लेखनीय है कि गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल के नीतिगत निर्णय के तहत 11 जून 1956 को श्री सत्यनारायण राव की अध्यक्षता में गठित राजस्थान केपिटल इन्क्वायरी कमेटी की सिफारिश पर अजमेर के महत्व को बरकरार रखते हुए 1 नवंबर, 1956 को राजस्थान लोक सेवा आयोग का मुख्यालय अजमेर में खोला गया। 4 दिसम्बर 1957 को पारित शिक्षा अधिनियम के तहत माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय अजमेर रखा गया। साथ ही 22 जुलाई, 1958 को राजस्व मंडल का अजमेर हस्तांतरण किया गया।
थोड़ा सा विस्तार में देखिए- आजादी और अजमेर राज्य के राजस्थान में विलय के बाद राज्य के लिए एक ही राजस्व मंडल की स्थापना नवंबर 1949 में की गई। पूर्व के अलग-अलग राजस्व मंडलों को सम्मिलित कर घोषणा की गई कि सभी प्रकार के राजस्व विवादों में राजस्व मंडल का फैसला सर्वोच्च होगा। खंडीय आयुक्त पद की समाप्ति के उपरांत समस्त अधीनस्थ राजस्व विभाग एवं राजस्व न्यायालय की देखरेख एवं संचालन का भार भी राजस्व मंडल पर ही रखा गया। इसका कार्यालय जयपुर के हवा महल के पिछले भाग में जलेबी चौक में स्थित टाउन हाल, जो कि पहले राजस्थान विधानसभा भवन था, में खोला गया। बाद में इसे राजकीय छात्रावास में स्थानांतरित किया गया। इसके बाद एमआई रोड पर अजमेरी गेट के बाहर रामनिवास बाग के एक छोर के सामने यादगार भवन में स्थानांतरित किया गया। इसके बाद इसे जयपुर रेलवे स्टेशन के पास खास कोठी में शिफ्ट किया गया। सन् 1958 में राव कमीशन की सिफारिश पर अजमेर में तोपदड़ा स्कूल के पीछे शिक्षा विभाग के कमरों में स्थानांतरित किया गया। इसके बाद 26 जनवरी 1959 को जवाहर स्कूल के नए भवन में शिफ्ट किया गया। इसका उद्घाटन तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्री मोहनलाल सुखाडिय़ा ने किया।
इसी प्रकार कमेटी की सिफारिश पर अजमेर के महत्व को बरकरार रखते हुए 4 दिसम्बर 1957 को पारित शिक्षा अधिनियम के तहत माध्यमिक शिक्षा बोर्ड का मुख्यालय अजमेर रखा गया। यह प्रदेशभर के सेकंडरी व सीनियर सेकंडरी के छात्रों की परीक्षा आयोजित करता है।
बात अगर लोक सेवा आयोग की करें तो आजादी से पहले देशी रियासतों में प्रशासनिक तथा न्यायिक अधिकारियों के पदों पर रजवाड़ों के अधीन जागीरदार या बड़े पदों पर आसीन अधिकारियों की संतानों को ही लगाने की प्रथा थी। स्वाधीनता प्राप्ति से कुछ ही पहले के सालों में देशी रियासतों में राज्य सेवा में भर्ती के लिए लोक सेवा आयोग अथवा चयन समिति का गठन किया था। सन् 1939 में जोधपुर, 1940 में जयपुर, 1946 में बीकानेर में लोक सेवा आयोग व 1939 में उदयपुर में चयन समिति स्थापित की गई थी। आजादी के बाद देशी रियासतों का एकीकरण किया गया और सभी वर्गों में से स्वतंत्र रूप से योग्य व्यक्तियों के चयन के लिए 16 अगस्त, 1949 को राजस्थान लोक सेवा आयोग का गठन किया गया। तत्कालीन केन्द्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभाई पटेल के नीतिगत निर्णय के तहत राव की अध्यक्षता में गठित राजस्थान केपिटल इन्क्वायरी कमेटी की सिफारिश पर अजमेर के महत्व को बरकरार रखते हुए राजस्थान लोक सेवा अयोग का मुख्यालय अजमेर में रखा गया। अगस्त, 1958 में इसे अजमेर स्थानांतरित कर दिया गया। पूर्व में यह रवीन्द्र नाथ टैगोर मार्ग पर स्थित भवन में संचालित होता था, जबकि अब यह जयपुर रोड पर घूघरा घाटी के पास स्थित है। पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने विधानसभा चुनाव से पहले इसका विखंडन कर अधीनस्थ एवं मंत्रालयिक सेवा चयन बोर्ड गठन कर दिया गया, लेकिन कांग्रेस सरकार ने उसे भंग कर दिया गया।
बहरहाल, बात अगर डॉ. बाहेती की करें तो उनके दिल में भी अलग अजमेर राज्य की आग वर्षों से सुलग रही है। अब देखना ये है कि डॉ. बाहेती अन्य राज्यों की तरह अजमेर को अलग राज्य बनाने की मांग को कहां तक आगे ले जाते हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 30 जुलाई 2013

भगत को फंसाने वाला अजमत खुद फंसता नजर आ रहा है

नरेन शहाणी
लैंड फॉर लैंड प्रकरण में रिश्वत मांगने के आरोप में नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष नरेन शहाणी को फंसाने वाला अजमत खुद फंसता नजर आ रहा है। इस प्रकरण तबादले का दंड भुगत रहे न्यास के पूर्व कैशियर ललित मिश्रा जो शिकायत मुख्यमंत्री से की है, जिसकी जांच शुरू हो गई है, को सही मानें तो अजमत ने खुद भी गोलमाल किया है। मिश्रा की शिकायत है कि अजमत को जिस जमीन के बदले जमीन आवंटित की गई थी, वह जमीन पहले ही बिक चुकी थी।
न्यास अध्यक्ष भगत को शहीद कर चुके इस प्रकरण में यह जो नया मोड़ आया है, वह इस ओर इशारा करता है कि यह आपसी खींचतान का नतीजा है। इसका अंदाजा अजमत के उस बयान से होता है, जिसमें उसने कहा है कि मिश्रा ने उसे शाहनी सहित अन्य के खिलाफ गवाही नहीं देने के लिए धमकी दी है। अजमत ने कहा कि 27 जुलाई को मिश्रा ने फोन कर कहा कि राजीनामा कर लो, तुम्हारी वजह से मेरा तबादला हो गया है।
हालांकि मिश्रा इस आरोप से इंकार करते हैं और कह रहे हैं कि उनका अजमत से कोई लेना-देना नहीं है और शिकायत सीधे मुख्यमंत्री से की गई है, मगर ठीक ऐसे मौके पर जब कि रिश्वत प्रकरण की जांच चल  रही है, अजमत के बारे में शिकायत संदेह पैदा करती है। यदि मिश्रा को अजमत की ओर से किए गए गोलमाल की पहले से जानकारी थी तो उन्होंने तब इसकी शिकायत क्यों नहीं की, यह एक बड़ा सवाल है। मिश्रा ने जिस तरह की शिकायत की है, उससे तो अजमत का चरित्र ही संदेह के घेरे में आता है और साफ नजर आता है कि भगत व अन्य को बाकायदा साजिश रच कर फंसाया गया है। हालांकि इसका अर्थ यह कत्तई नहीं कि भगत व अन्य ने रिश्वत मांगी ही नहीं, मगर इतना तय है कि लेन-देन को लेकर एकमत न होने के कारण भगत को फंसाने की योजना बनाई गई। कुछ सूत्र तो यह तक बताते हैं कि इसमें भी कहीं न कहीं अन्य राजनेताओं के तार जुड़े हुए हैं। जहां तक मिश्रा की शिकायत का सवाल है, उसकी जांच नगरीय विकास विभाग ने पूर्व आईएएस अधिकारी एम के खन्ना को सौंप दी है।
उल्लेखनीय है कि एंटी करप्शन ब्यूरो ने रिश्वत प्रकरण में न्यास अध्यक्ष नरेन शहानी भगत, दो प्रापर्टी डीलर मनोज गिदवानी व महेश अग्रवाल, पूर्व सचिव निशु अग्निहोत्री और उपनगर नियोजक साहिबराम जोशी के खिलाफ 21 जून को तीन अलग- अलग मुकदमे दर्ज किए थे। अब एंटी करप्शन ब्यूरो के एडिशनल एसपी भूपेन्द्र सिंह चूड़ावत मामले की जांच कर रहे हैं।
आइये, अब नजर डालते हैं मिश्रा की ओर से की गई शिकायत में दिए गए तथ्यों पर-
1. अवाप्ति के आठ प्रकरणों में समर्पणकर्ता ने अजमत खां, अमीन खां और रेखा बानो को मुआवजा प्राप्त करने एवं भूखंड के बदले भूखंड प्राप्ति के लिए अधिकृत कर रखा है। प्रकरण में अजमत ने फर्जी समर्पण पत्र दिया है, जो कि न्यास की पत्रावली में मौजूद है।
2. फर्जी समर्पण पत्र के आधार पर भूमि के बदले भूमि देने का प्रस्ताव बना कर कमेटी के सामने रखा गया। प्रस्ताव पर 4812.19 वर्गगज जमीन आवंटित करने का निर्णय किया गया और 15 अक्टूबर 09 को प्रकरण को कमेटी में रखा गया और भूमि के बदले भूमि देने का फैसला करते हुए प्रकरण राज्य सरकार को भेज दिया गया।
3. फर्जी समर्पण पत्र प्रस्तुत होने पर एक खातेदार द्वारा अजमत के खिलाफ सिविल लाइन थाना पुलिस में मुकदमा दर्ज कराया गया। इस खातेदार ने 21 दिसंबर 12 को न्यास में भी आपत्ति पेश की थी। लेकिन इसका आज तक निस्तारण नहीं किया गया है।
4. राज्य सरकार की एम्पॉवर्ड कमेटी ने 6 अगस्त 12 को लैंड फॉर लैंड के आठों मामलों में स्वीकृति प्रदान कर नयास आदेश की प्रति भिजवाई गई थी। सचिव ने सरकार के आदेश की पालना करने के लिए उक्त प्रकरणों में स्वामित्व, अदालती मुकदमों और अब्दुल रहमान बनाम सरकार प्रकरण को ध्यान में रखकर आगे की कार्रवाई के निर्देश दिए थे।
5. अजमत ने आठों प्रकरणों में राज्य सरकार द्वारा बताए गई कार्रवाई से बचने के लिए एसीबी का डर दिखाया और इसके चलते इन प्रकरणों में स्वामित्व की जांच नहीं की गई। न ही राज्य सरकार द्वारा अनुमोदित ले आउट प्लान सक्षम कमेटी से अनुमोदन कराया गया।
6. आठों प्रकरणों में 16 अप्रेल 1991 को अवाप्ति की कार्रवाई शुरू हुई थी, कलेक्टर ने मुआवजा भी न्यायालय में जमा करा दिया था। सरकार के आदेशानुसार 13 दिसंबर 2001 में कहा गया है कि कोई खातेदार न्यास के नाम भूमि 28 फरवरी 2002 तक निशुल्क समर्पित करता है तो अधिकृत व्यक्ति को 15 प्रतिशत विकसित भूखंड आवंटित किए जा सकते हैं, जबकि समर्पण पत्र 13 दिसंबर 2001 के पहले का है।
7. विवादित जमीन खातेदारों ने पहले ही अन्य लोगों को बेच दी। इसके बाद न्यास ने भूमि के बदले भूमि का सरकार से अनुमोदन भी करा लिया, जो कि नियम विरुद्ध है। अजमत खां के पक्ष में समर्पण पत्र किसी भी सक्षम अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया। न्यास में सचिव पद पर रहे अधिकारियों पर मिलीभगत का आरोप लगा है।
कुल मिला कर अब यह पूरा प्रकरण उलझता नजर आ रहा है, जिसकी जद में न्यास के पूर्व अधिकारी भी लपेटे में आ सकते हैं।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 29 जुलाई 2013

ऐसी महिलाएं क्या फैलाएंगी कांग्रेस का संदेश?

एक ओर जहां प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा मौजूदा कांग्रेस सरकार की खामियां गिना कर सत्ता में आना चाहती हैं, वहीं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सरकार की उपलब्धियों के दम पर फिर काबिज होना चाहते हैं। इसी सिलसिले में दोनों अपनी अपनी यात्राओं पर निकले हुए हैं। कांग्रेस सरकार की अपने कार्यकर्ताओं से भी यही उम्मीद है कि वे आम जनता को सरकारी की उपलब्धियों व योजनाओं के बारे में जानकारियां दें। इस मामले में स्थानीय महिला कांग्रेस तो फिसड्डी ही साबित होती नजर आ रही है।
बीते दिनों अखिल भारतीय महिला कांग्रेस कमेटी की सचिव एवं राजस्थान प्रभारी परमिंदर कौर अजमेर आई तो उन्होंने शहर महिला कांग्रेस की पदाधिकारियों से वार्तालाप की। उसमें यह तथ्य उजागर हो गया कि अधिकांश महिला पदाधिकारी पार्टी की रीति-नीति के बारे में नहीं जानती। महिला कांग्रेस की ऐसी दयनीय हालत पर अखबारों में खूब छीछालेदर हुई।  मीडिया ने बाकायदा इस बात को रेखांकित किया कि कुछ पदाधिकारियों को तो इस बात की जानकारी भी नहीं थी कि उन्हें पार्टी में किस पद की जिम्मेदारी दी गई है। एक वार्ड अध्यक्ष का तो अपनी नियुक्ति की अवधि का ही पता नहीं था।
ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस का यह अग्रिम संगठन पार्टी के किस काम आएगा? जिन महिला नेत्रियों को पार्टी की रीति-नीति का पता नहीं वे क्या खा कर जनता को पार्टी का संदेश देंगी। ऐसी हालत देख कर तो यही लगता है कि यह संगठन केवल नाम मात्र का है। जहां तक शहर महिला कांग्रेस अध्यक्ष का सवाल है, बेशक वे सतत सक्रिय नजर आती हैं। गाहे-बगाहे जब बोलने का मौका मिलता है तो सधी हुई भाषा में बोलती हैं। सरकार व कांग्रेस संगठन का शायद ही कोई कार्यक्रम हो जिसमें वे नजर नहीं आती हों। अखबारों में भी इस कारण नजर आ जाती हैं कि उन्हें फोटोग्राफरों के एंगल का अच्छी तरह से पता है। अर्थात फुलटाइम पॉलिटिक्स कर रही हैं। अब तो अजमेर उत्तर सीट के लिए दावेदारी भी कर चुकी हैं, जो यह साबित करता है कि वे काफी महत्वाकांक्षी हैं ओर दूर तक चलने वाली हैं। उनका एक पहलु जरूर तारीफ-ए-काबिल है। वो यह कि वे पिछली अध्यक्षों की तरह हुड़दंग नहीं करतीं। और अध्यक्षों की तरह उन्हें रुतबा गालिब करते हुए भी नहीं देखा गया है। लगातार मुख्य धारा में ही रहती हैं, इसी कारण आम तौर पर विवादों से बची हुई हैं। मगर यदि उनकी टीम इतनी लचर है तो वह किस काम की। न कांग्रेस के लिए और न ही उनकी खुद की दावेदारी के लिए। जाहिर है उनके चयन में कहीं न कहीं गड़बड़ है। वरना उन्हें राजस्थान प्रभारी परमिंदर कौर के सामने शर्मिंदगी नहीं झेलनी पड़ती।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

रविवार, 28 जुलाई 2013

बार अध्यक्ष टंडन की नौटंकी काम कर गई

भले ही अजमेर बार के अध्यक्ष राजेश टंडन की छवि ये बन गई हो कि वे फटे में टांग फंसाते हैं व कई बार कांग्रेस की मुख्य धारा से हट कर काम करते हैं, मगर बीते दिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की जनसुवाई में उनकी नौटंकी काम कर गई।
असल में प्रशासन ने सुरक्षा के लिहाज से जनसुवाई के दौरान वाहनों को सर्किट हाउस जाने से रोक दिया, नतीजतन विशिष्ट जन, बुजुर्गों और बीमार लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा। कई लोग तो बिना गुहार लगाए ही लौट गए। सुरक्षा व्यवस्था इतनी कड़ी थी कि सर्किट हाउस के नीचे ही सभी प्रशासनिक अधिकारी व नेताओं के वाहनों को रोक दिया गया। उन्हें पैदल ही चलकर सर्किट हाउस तक जाना पड़ा। यह स्थिति टंडन को नागवार गुजरी। वैसे भी उन्हें अपने आप को हाईलाइट करने के लिए मौके की तलाश रहती है, वह उन्हें सहज ही मिल गया। हांपते-हांपते जैसे ही ऊपर पहुंचे मुख्यमंत्री व कांग्रेस संगठन की नाराजगी की परवाह न करते हुए उन्होंने हंगामा कर दिया। अजमेर की कांग्रेस में अकेले वे ही हैं, जिनमें इतना माद्दा है। बाद में उन्होंने अव्यवस्था की शिकायत मुख्यमंत्री से भी की। इस पर मुख्यमंत्री ने आईजी, एसपी, अन्य अधिकारियों से इस बारे में चर्चा की। मुख्यमंत्री के निर्देश पर अजमेर प्रशासन ने तय किया कि मुख्यमंत्री या अन्य कोई मंत्री आदि अजमेर प्रवास के दौरान जन सुनवाई करने आते हैं तो वो सर्किट हाउस की बजाय सावित्री कॉलेज के सामने स्थित राजस्थान पर्यटन विभाग के होटल खादिम में होगी।
ज्ञातव्य है टंडन इससे पहले भी कई बार जनहित के मुद्दों पर मुख्य धारा से हट कर कोई न कोई कारनामा करते रहे हैं। एक बार उर्स के दौरान प्रशासन से टकराव को तो लोग वर्षों तक याद रखेंगे। जो कुछ भी हो, इस बार उनकी नौटंकी काम आ गई।
-तेजवानी गिरधर

डॉ. जयपाल ने दिखा दिया असल कांग्रेस कहां है

अपने अध्यक्षीय कार्यकाल में पहली बार शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता को वह दिन देखना पड़ा, जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की होगी। अब तक तो पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल व पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती की लॉबी ही आरोप लगाया करती थी कि रलावता एक गुट विशेष का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और कांग्रेस संगठन का सत्यानाश हो गया है, मगर अब तो मीडिया भी इसी सुर में बोलने लगा है। बीते दिवस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की आजाद पार्क में हुई सभा का पूरा श्रेय मीडिया ने डॉ. राजकुमार जयपाल और पार्षदों को दे दिया गया। और साथ ही लिख दिया कि जो कांग्रेसी मुख्य धारा से अलग नजर आते थे, उन्होंने ही रलावता को आईना दिखा दिया और शहर कांग्रेस पूरी तरह से हाशिये पर चली गई।
असल में रलावता का पोदीना चौड़ा करने की पूरी पटकथा देहात प्रभारी व राजस्थान खाद बीज निगम के अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह राठौड़ ने लिखी।  रलावता ने समय कम होने का तर्क दिया तो राठौड़ ने इसे रूप में लिया कि कांग्रेस संगठन पर काबिज मौजूदा लोगों के भरोसे सभा में भीड़ नहीं जुटाई जा सकती, लिहाजा इनके विरोधियों को ही सारी जिम्मेदारी सौंप दी। बेशक यह एक षड्यंत्र के तहत हुआ, मगर इसको नाकाम करने में रलावता नाकाम हो गए, जबकि उन्हें एक दिन पहले ही इशारा मिल गया था कि उनकी फजीहत की तैयारी कर ली गई है। जहां तक षड्यंत्र का सवाल है, वह इस लिए जायज ठहराया जा सकता है, क्योंकि यह राजनीति है। जो गुट वर्षों तक कांग्रेस पर काबिज रहा और पिछले चार साल से हाशिये पर चल रहा था, वह इसी मौके ही तो तलाश कर रहा था कि कब अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जाए। वह यह भी दिखाना चाहता था कि अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट ने गलत मोहरों पर हाथ रखा है, जिसे के वह साबित करने में भी कामयाब रहा। जाहिर तौर पर इसमें जयपाल के पुराने सिपहसालारों कुलदीप कपूर, रमेश सेनानी व फखरे मोइन समेत पार्षदों ने अपनी भूमिका अदा की।
जहां संगठन को व्यवस्थित तरीके से चलाने का सवाल है, इसमें कोई दो राय नहीं कि रलावता ने कांग्रेस कार्यालय को नियमित खोलने के साथ ही खुद भी वहां समय देने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी। वरना स्वर्गीय श्री माणकचंद सोगानी, डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व जसराज जयपाल के जमाने में तो केवल अवसर विशेष पर ही कार्यकर्ता कार्यालय में नजर आते थे। यानि कि कांग्रेस घरों से ही चला करती थी। अलबत्ता कभी सेवादल तो कभी युवक कांग्रेस ने जरूर समय-समय पर वहां डेरा डाला। पूर्ववर्ती कांग्रेस संगठन इस कारण कामयाब थे कि असल ताकत भी उनके पास ही थी। भले ही गुटबाजी तब भी थी मगर वे मुख्य धारा से नहीं कटा करते थे। किन्हीं गुटों का पूरी तरह से आइसोलेटेड होने का नजारा पहली बार दिखाई दिया। हालत ये हो गई कि मौजूदा काबिज नेताओं की ओर से आयोजित किसी भी कार्यक्रम में कटे हुए गुट शामिल होना ही अपनी तौहीन समझते थे। यानि कि संगठन अध्यक्ष पर रलावता लॉबी जरूर काबिज है, मगर असल ताकत बाहर ही बनी हुई है। वैसे एक बात जरूर है, रलावता की जगह कोई और भी होता तो संगठन का यही हाल होता, क्योंकि असल कांग्रेस तो बाहर ही बनी रही। इसमें रलावता कर भी क्या सकते थे, मगर इसकी जिम्मेदारी भी तो उन पर ही आयद होती है। हालांकि पद संभालते ही उन्होंने वरिष्ठ नेताओं का देवरा ढोका, मगर उन्होंने उन्हें तवज्जो ही नहीं दी। यह गुटबाजी भले ही पायलट के प्रति वरिष्ठ नेताओं की नाइत्तफाकी की वजह से थी, मगर इसे भुगतना रलावता को पड़ा। हालांकि पायलट ने अपने प्रभाव की वजह से यही समझा कि आखिरकार सभी उनकी छतरी के नीचे आ जाएंगे, मगर यह अनुमान गलत निकला। कुछ दिन तो रलावता ने सभी को जोडऩे का प्रयास किया, मगर जब उन्हें नहीं गांठा गया तो वे आगे बढ़ गए और पीछे छूट गए वरिष्ठ नेताओं से जुड़े कार्यकर्ता।
भले ही निष्पत्ति के रूप में यही माना जाए कि रलावता में संगठन को मैनेज करना नहीं आता, मगर सच ये भी है कि उनकी इस असफलता की एक प्रमुख वजह डॉ. बाहेती व डॉ. जयपाल का पायलट से छत्तीस का आंकड़ा है।
सुविज्ञ सूूत्र बताते हैं कि पायलट को अपनी गलती समझ में आ गई और वे आगामी चुनाव का देखते हुए नाराज नेताओं को मैनेज करने पर विचार कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

शनिवार, 27 जुलाई 2013

लोकापर्ण भले ही गहलोत ने किया, क्रेडिट तो भाजपा ले गई

पंचशीलनगर में स्थित झलकारी बाई स्मारक का लोकार्पण भले ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने किया, मगर अखबारों में विज्ञापनों के जरिए इसको बनाने की क्रेडिट भाजपा ले गई।
असल में यह बना ही पिछली भाजपा सरकार के दौरान था, जिसका श्रेय सीधे-सीधे तत्कालीन नगर सुधार न्यास अध्यक्ष के खाते में जाता है। उन्होंने इस पर एक करोड़ आठ लाख रुपए खर्च किए। इसके अतिरिक्त  विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने दस लाख व सांसद रासासिंह रावत ने चार लाख रुपए अपने फंड से दिए। राजस्थान पुरा धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण के तत्कालीन अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत का मार्गदर्शन रहा। संयोग से नई सरकार कांग्रेस की आ गई और इसका लोकार्पण नहीं हो पाया। कांग्रेस राज में यह पूरी तरह से उपेक्षित रहा। न्यास ने भी इसके रखरखाव पर कोई ध्यान नहीं दिया। अब जब कि मौजूदा कांग्रेस सरकार के कार्यकाल के चार माह शेष रह गए हैं तो लोकार्पण का श्रेय मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने ले लिया। जाहिर तौर पर यह भाजपाइयों को कैसे गले उतरता। सो उन्होंने किसी प्रकार का विरोध जताने की बजाय निर्माण करवाने का श्रेय लेने के लिए एक तरीका निकाला। विधायक श्रीमती अनिता भदेल के करीबी और कोली समाज के प्रदेश अध्यक्ष हेमंत भाटी को आगे रख कर समाज की ओर से पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे और भाजपा नेताओं को श्रेय देते हुए अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन दिए गए, ताकि लोगों को ठीक से पता लगे कि यह स्मारक भाजपा शासन की देन है, लोकार्पण भले ही गहलोत कर रहे हों। वैसे एक रोचक बात ये भी है कि इसका औपचारिक लोकार्पण भले ही अब जा कर हो रहा हो, मगर कोली समाज व भाजपा विधायक श्रीमती भदेल की पहल पर यहां पर 2011 में ही झलकारी बाई की जयंती मना ली गई। अर्थात यह स्मारक एक अर्थ में तो लोकार्पित हो ही चुका था।
जो कुछ भी हो, इन विज्ञापनों के जरिए हेमंत भाटी भी छा गए, जिनके प्रयासों से यहां पर कोली समाज के काफी लोग जुटे। ज्ञातव्य है कि हेमंत भाटी पूर्व उप मंत्री ललित भाटी के छोटे भाई हैं, जो कि इस बार अजमेर दक्षिण से कांग्रेस टिकट के दावेदार हैं। भले ही हेमंत भाटी की पहल पर भाजपा को क्रेडिट लेने का लाभ मिला, लेकिन साथ ही इससे उनकी सदाशयता भी उभर कर आई कि कांग्रेसी मुख्यमंत्री के मुख्य आतिथ्य में समारोह होने के बावजूद अपनी समाज की प्रेरणा स्रोत झलकारी बाई के सम्मान में उन्होंने समाज के लोगों को एकत्रित किया। जहां तक भाजपा नेताओं का सवाल है, उन्होंने कार्यक्रम से परहेज ही रखा। श्रीमती भदेल अजमेर नहीं हैं और प्रो. वासुदेव देवनानी ने इस कारण जाने से इंकार कर दिया कि लोकार्पण पट्टिका पर उनका नाम नहीं लिखा गया। न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन को सबसे ज्यादा मलाल रहा कि काम उन्होंने करवाया, मगर लोकार्पण कांग्रेसी मुख्यमंत्री कर रहे हैं। उन्होंने शिलान्यास पट्टिका हटाने पर ऐतराज करते हुए यह शिकायत भी की कि कांग्रेस राज में इस पर कुछ भी खर्च नहीं किया गया। इस शिकायत के बाद भी वे समारोह में केवल इसी कारण गए क्योंकि कोली समाज की ओर से उन्हें समाज को दी इस अप्रतिम भेंट देने के उपलक्ष्य में विशेष रूप से निमंत्रित किया गया था।
रहा सवाल कार्यक्रम के इम्पैक्ट का तो कांग्रेसी भले ही गहलोत के हाथों लोकार्पण का कोली समाज में श्रेय लेने का सपना देख रहे हों, मगर चूंकि समाज के अधिसंख्य लोग हेमंत भाटी के बुलावे पर आए, इस कारण वे अहसान तो भाजपा का ही मानने वाले हैं।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 26 जुलाई 2013

रघु शर्मा के साथ भगत को देख सभी चौंके

लैंड फॉर लैंड मामले में फंसने के कारण अजमेर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे चुके नरेन शहाणी भगत को पहली बार एक सार्वजनिक सरकारी समारोह में देख सभी चौंके। मौका था जवाहर रंगमंच पर आयोजित राजीव गांधी विद्यार्थी डिजीटल योजना के तहत लैपटॉप तथा नव प्रवेशित साईकिल के लिए चैक वितरण समारोह का, जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में सरकारी मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा मौजूद थे। इसमें उनके साथ जब लोगों ने भगत को भी देखा तो चौंकना स्वाभाविक था। शाहनी मंच पर पहुंचे, तो शिक्षा विभाग के अफसरों ने उनका अभिनंदन किया। वे मंच पर रघु शर्मा के साथ बैठे। साथ ही रघु शर्मा के साथ विद्यार्थियों को लेपटॉप भी वितरित किए। अखबारों ने इस घटना को बाकायदा रेखांकित किया। यह घटना यूं भले ही सामान्य लगती हो, मगर राजनीति के जानकार माथापच्ची कर इसके अर्थ निकालने की कोशिश कर रहे हैं।

भगत की बॉडी लैंग्वेज से ऐसा अहसास हो रहा था, मानो पिछले दिनों इस्तीफे के बाद उन पर जो मानसिक दबाव था, उससे वे बाहर आ चुके हैं, तभी तो एक सार्वजनिक समारोह में बिंदास हो कर उपस्थित हुए। सवाल ये उठता है कि क्या उन्हें आयोजक विभाग ने बुलवाया। जाहिर तौर पर नहीं। चूंकि अब वे न्यास अध्यक्ष पद पर नहीं हैं। सरकारी कार्यक्रम में एक कांग्रेसी नेता के नाते भी उन्हें नहीं बुलवाया जा सकता था, जिस पर कि विशेष से फिलवक्त आरोप लगा हुआ है। यह भी पक्का है कि वे बिना बुलाए मेहमान की तरह नहीं पहुंचे होंगे। इतनी निर्लज्जता की उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती। अर्थात उन्हें रघु शर्मा ने ही बुलवाया। और अगर ऐसा है तो इसके राजनीतिक मायने निकलते हैं। सबसे बड़ा तो ये कि  रिश्वत प्रकरण में आरोपी होने के बाद भी सरकारी तौर पर उनसे परहेज नहीं किया जा रहा है। यानि की उनके बारे में सरकार का रुख नरम है। रघु शर्मा दूध पीते बच्चे तो हैं नहीं। जरूर उन्होंने कुछ सोच कर उन्हें बुलवाया होगा। सरकार यानि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का रुख जो भी हो, रघु शर्मा अपने स्तर पर ऐसा कदम उठा रहे हैं तो जरूर उसकी कोई वजह होगी। अब जबकि इस घटना पर लोगों की नजर है और कोई विवाद हो सकता है तो संभव है रघु शर्मा उन्हें बुलवाने की बात से इंकार करें, मगर उनके इस बात का कोई भी जवाब नहीं होगा कि बिन बुलाए भगत के आने पर उन्होंने ऐतराज क्यों नहीं किया। क्या उन्हें पता नहीं था कि भगत के उनके साथ मंच पर होने से कुछ विवाद हो सकता है? अगर ये भी मान लिया जाए कि वे बिन बुलाए ही वहां पहुंच गए, तो क्या रघु शर्मा को इतनी भी अक्ल नहीं कि वे उन्हें मंच पर बुलवाने की रिस्क लेंगे।
कयास ये भी लगाया जा सकता है कि केन्द्रीय मंत्री सी पी जोशी के इशारे पर रघु ने उन पर फंदा डाला होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि विधानसभा चुनाव को लेकर जोशी एक बार फिर लॉबिंग करने में जुट गए हैं। वे इन दिनों दावेदारों पर हाथ रख रहे हैं, ताकि बाद में चुनाव जीतने पर उनके काम आएं। कुल मिला कर यह साफ है कि यह छोटी सी घटना कोई खास अर्थ रखती है। इसे इस रूप में भी लिया जा सकता है कि उन्हें फिर से प्लेटफार्म उपलब्ध करवाया जा रहा है। इसका आधार ये है कि उन पर जो आरोप है, उसकी जांच नौ दिन चले अढ़ाई कोस की रफ्तार से चल रही है। कहने वाले तो यहां तक कहने लगे हैं कि वे इस केस से बाहर आ जाएंगे। सच जो भी हो, भगत का सरकारी कार्यक्रम में सार्वजनिक मंच पर मुख्य सचेतक के साथ मौजूद होना अन्य दावेदारों को पच नहीं रहा।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

मास्साब चौधरी जी को निपटाना आसान नहीं होगा

अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट से खुला पंगा लेने वाले अजमेर देहात जिला कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी को भले ही पायलट के इशारे पर उनके गुट के नेताओं ने चारों से ओर से घेर लिया है, मगर उन्हें निपटाना इतना आसान भी नहीं होगा। हांलाकि कांग्रेस एक समुद्र है और इसमें न जाने कितने रामचंद्र चौधरी आए और गए, साथ ही सचिन के सीधे राहुल गांधी से ताल्लुक भी हैं, मगर जहां तक स्थानीय राजनीति का सवाल है, चौधरी को नजरअंदाज करना हंसी खेल नहीं है। एक तो मदेरणा-मिर्धा लॉबी के आशीर्वाद के कारण उनको बेदखल करने से पहले पार्टी दस बार सोचेगी। दूसरा जाट खेमा पहले से ही पार्टी से नाराज चल रहा है और जिले में तकरीबन ढ़ाई लाख जाट वोट हैं, उनको चलते रस्ते नाराज करना मंहगा पड़ सकता है। मगर यदि भारी दबाव के चलते उन्हें पार्टी से बाहर करने की नौबत आ भी गई तो वे विधानसभा चुनाव और बाद में लोकसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
आपको पता होगा कि चौधरी हसबैंड मेमोरियल स्कूल में फिजिक्स के टीचर रहे हैं और अजमेर डेयरी पर वर्षों से उनका एकछत्र राज है। पुराने लोगों में मास्साब के नाम से जाने जाने वाले चौधरी की को-ऑपरेटिव मूवमेंट पर कितनी पकड़ है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाए जाने के बाद भी और जिले के दिग्गज जाट नेता पूर्व मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट व पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी के एडी चोटी का जोर लगाने के बाद भी उन्हें डेयरी से बेदखल नहीं किया जा सका। हालांकि ऊपर मदेरणा-मिर्धा लॉबी का वरदहस्त है, मगर स्थानीय स्तर पर अकेले अपने दम पर राजनीति करते हैं। बस दिक्कत ये है कि जब उनको रीस यानि गुस्सा आता है तो किसी के बस में नहीं आते। और उनकी यही फितरत उनके लिए कई बार भारी परेशानी का सबब बन जाती है। रीस आने के बाद आगा-पीछा नहीं देखते। एक बार तो दैनिक नवज्योति से सीधा पंगा मोल ले लिया। तब नवज्योति को यहां बोलबाला था। वे सार्वजनिक रूप से नवज्योति को गाली देते थे। इसके चलते कांग्रेस के एक बड़े जलसे का जिला पत्रकार संघ ने बायकाट कर दिया, मगर चौधरी ने कोई परवाह नहीं की। आखिर तक वे झुके नहीं। सचिन के मामले में भी वे रीस पर काबू नहीं रख पाए और आज सचिन समर्थकों से चारों ओर से घिर गए हैं।
सब जानते हैं कि विवादों से उनका चोली-दामन का साथ रहा है और उनकी अब तक की जिंदगी संघर्षों में ही बीती है। ज्ञातव्य है कि मसूदा में निर्दलीय ब्रह्मदेव कुमावत ने चौधरी को हरा दिया था, लेकिन पार्टी को सरकार बनाने के लिए कुमावत की जरूरत थी, इस कारण उन्हें संसदीय सचिव बनाया गया। यह बात चौधरी को इतनी बुरी लगी कि उनके समर्थकों ने बिजयनगर में आयोजित किसान सम्मेलन में ब्रह्मदेव कुमावत के साथ हाथापाई कर दी। यह विवाद काफी दिन तक चलता रहा। मगर इस बार का संघर्ष देख कर यही लगता है कि कहीं उन्होंने रोंग नंबर तो डायल नहीं कर दिया। उन्होंने चैलेंज भी तो ऐसी शख्सियत को दे दिया है, जो इन दिनों चमकता सितारा हैं। सचिन युवा हैं तो उतना जोश भी है। यूं पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल भी उनकी छतरी के नीचे नहीं आए, मगर कम से कम उन्होंने इस तरह खुली बगावत तो नहीं की। उन्होंने चौधरी की तरह कभी सार्वजनिक रूप से पायलट से मुंहजोरी नहीं की है। उनके विरोध की रस्साकस्सी ने कभी सार्वजनिक रूप से नौटंकी का रूप नहीं लिया है। कम से कम अनुशासनहीनता तो नहीं की। मगर चौधरी ने तो खुले आम चुनौती दे कर आलाकमान तक को सकते में डाल दिया है। चौधरी के इस रवैये के कारण पार्टी की काफी थू-थू तो हो रही है, पायलट की भी बड़ी भारी किरकिरी हुई है।
हालांकि पायलट चाहें तो पार्टी हाईकमान में अपनी जबदस्त पेठ के चलते खुद ही चौधरी को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखवा सकते हैं, मगर उनके इशारे पर चौधरी को झटका देने के लिए निचले स्तर पर ही कांग्रेसी नेता लामबंद हो गए हैं। कांग्रेस विधायकों समेत जिले के कई कांग्रेसी नेताओं ने चौधरी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। सभी ने कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष डॉ. चंद्रभान को पत्र भेजकर चौधरी को कांग्रेस से निष्कासित करने की मांग की है। बेशक चौधरी जमीनी नेता हैं, उनकी अजमेर डेयरी अध्यक्ष के नाते जिले पर निजी पकड़ है और उनकी जाति के तकरीबन ढ़ाई लाख वोट जिले में हैं, मगर उन्होंने विरोध का जो तरीका अपनाया है, उसे हाईकमान गंभीर मान सकता है। हाईकमान को डर है कि अगर इस तरह का विरोध छूत की तरह फैला तो यह पार्टी के लिए बहुत घातक होगा।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

मंगलवार, 23 जुलाई 2013

भगत को टिकट नहीं मिलेगा, ये मान कर सक्रिय हो गए कई सिंधी दावेदार


लैंड फॉर लैंड मामले में आरोपी बनाए जाने के कारण इस्तीफा देने को मजबूर हुए नरेन शहाणी भगत का विधानसभा टिकट भी कटा मान कर यूं तो गैर सिंधी दावेदारों के हौंसले बुलंद हैं, मगर यकायक कई सिंधी दावेदारों ने भी मालिश शुरू कर दी है।
जानकारी के अनुसार नौकरी से इस्तीफा दे कर चुनाव का मानस बनाने से अब तक बच रहे सरकारी चिकित्सक डॉ. लाल थदानी की लार खाली मैदान देख कर सबसे ज्यादा टपक रही है। यूं तो वे पूर्व में भी दावेदारों में शुमार रहे हैं, मगर इस बार संभवत: सर्वाधिक मशक्कत कर रहे हैं। उन्होंने लाइजनिंग के लिए जयपुर के चक्कर काटना शुरू कर दिया है। उन्हें उम्मीद है कि भूतपूर्व राजस्व मंत्री स्वर्गीय किशन मोटवानी के आशीर्वाद से राजस्थान सिंधी अकादमी का अध्यक्ष बन कर कद बनाने के कारण उन पर सर्वाधिक गौर किया जाएगा। इसी प्रकार पिछली बार एडी-चोटी का जोर लगाने वाले युवा नेता नरेश राघानी भी हाथ-पैर मार रहे हैं। इसके लिए वे दिल्ली के एक-दो दमदार सूत्रों की मदद ले रहे हैं। वैसे उन्होंने अभी अपने पत्ते खोले नहीं हैं। इसी प्रकार स्वर्गीय मोटवानी जी के जमाने से टिकट मांग रहे पूर्व पार्षद हरीश मोतियानी ने भी अपना दावा छोड़ा नहीं है। उन पर पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का वरदहस्त है, मगर डॉ. बाहेती खुद ही दावेदार हैं, ऐसे में वे उनकी कितनी मदद करेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। रहा सवाल पुराने दावेदार पूर्व पार्षद रमेश सेनानी का तो वे इस बार उन्होंने प्रत्यक्षत: तो दावेदारी नहीं की है। अंदर ही अंदर अपने आका पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के जरिए कुछ कर रहे हों तो पता नहीं। पूर्व विधायक नानकराम जगतराय के उप चुनाव में टिकट मांगने वाले कर्मचारी नेता हरीश हिंगोरानी  ने पिछली बार तो बाकायदा घोषित रूप से भगत को सहयोग करने के कारण दावा नहीं किया था, मगर इस बार मैदान खाली देख कर वे भी कूद पड़े हैं। वे समझते हैं कि इससे बढिय़ा मौका फिर नही आएगा। दावा करने के लिए दावा करना कितना आसान है, इसका उदाहरण पेश करते नजर आ रहे हैं विन्नी जयसिंघानी, जिन्हें कुछ कांग्रेसी नेताओं ने चने के झाड़ पर चढ़ा दिया है, यह कह कर कि उनके रिश्तेदार पूर्व आईएएस अधिकारी एम. डी. कोरानी चाहें तो उन्हें टिकट दिलवा सकते हैं। एक सुगबुगाहट ये भी है कि कांग्रेस किसी सिंधी महिला पर दाव खेल सकती है। इसी के चलते पार्षद रश्मि हिंगोरानी भी तिकड़म भिड़ा रही हैं। हालांकि उन्होंने घोषित रूप से दावा नहीं किया है। इसी प्रकार एक नाम किन्हीं कंचन खटवानी का भी सामने आ रहा है, जो कि इन दिनों सक्रिय हो गई हैं। एक और नाम भी चर्चा में आता नजर आता है, वो है जाने-माने शराब ठेकेदार जांगीराम की पुत्रवधु का। बताया जाता है कि वे पैसे के दम पर टिकट ला सकती हैं। कुल मिला कर स्थिति ये है कि भगत का टिकट कटने की उम्मीद में एक अनार सौ बीमार वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। हो सकता है कि कुछ ऐसे और भी दावेदार भी बाद में सामने आएं। उनमें वासुदेव माधानी का नाम लिया जा सकता है, जो उस चुनाव में काफी सक्रिय हुए थे, जब भगत टिकट लेकर आए थे। एक नाम और भी है, वो है दीपक हासानी का, मगर वह तो पहले ही झटका खा चुके हैं। ज्ञातव्य है कि एक जमीन प्रकरण में उनकी वजह से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का नाम घसीटे जाने पर उनका न्यास अध्यक्ष पद का दावा खारिज हो गया था।
जहां तक भगत का सवाल है, उन्होंने अभी अपना दावा छोड़ा नहीं है। सुनने में तो यहां तक आ रहा है कि वे लैंड फॉर लैंड मामले से बच कर आ सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो उनका दावा उतना ही स्टैंड करेगा, जितना मामले में उलझने से पहले था।
-तेजवानी गिरधर

जाट लॉबी के दम पर सचिन से भिड़े चौधरी

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव और प्रदेश प्रभारी गुरुदास कामत की मौजूदगी में अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट से जिस प्रकार एक बार फिर अजमेर डेयरी अध्यक्ष व पूर्व देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी भिड़े, उससे साफ दिखता है कि उनको जाट लॉबी की पूरी शह है। यहां यह बताने की जरूरत नहीं है कि जाटों का पूर्व विधानसभा अध्यक्ष परसराम मदेरणा लॉबी का तबका पूर्व जलदाय मंत्री महिपाल मदेरणा के भंवरी प्रकरण में फंसने के कारण खफा है। इस वजह से कांग्रेस इन दिनों कुछ दबाव में है। चौधरी भी उसी लॉबी से हैं।
असल में परिसीमन के बाद अजमेर संसदीय क्षेत्र जाट बहुल हो गया है। माना जाता है कि अब यहां दो लाख से ज्यादा जाट मतदाता हैं। परिसीमन से पूर्व जब यहां सवा से डेढ़ लाख जाट वोट थे, तब भी जाट यहां दावेदारी करते थे। विशेष रूप से भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय श्री रामनिवास मिर्धा का नाम चर्चा में आता था। कांग्रेस ने एक बार जाट नेता जगदीप धनखड़ को भी चुनाव मैदान में उतारा था, मगर वे रावतों की बहुलता व उनका मतदान प्रतिशत अधिक होने के अतिरिक्त अपनी कुछ गलतियों की वजह से हार गए। उल्लेखनीय है कि पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत के सामने बदल-बदल कर खेले गए जातीय कार्डों में सबसे बेहतर स्थिति धनखड़ की रही थी। रावत के सामने 1989 में सवा लाख गुर्जरों के दम उतरे बाबा गोविंद सिंह गुर्जर 1 लाख 8 हजार 89 वोटों से, सन् 1991 में डेढ़ लाख जाटों के दम पर उतरे जगदीप धनखड़ 25 हजार 343 वोटों से और सन् 1996 में एक लाख सिंधी मतदाताओं के मद्देनजर उतरे किशन मोटवानी 38 हजार 132 वोटों से पराजित हुए। सन् 1998 के मध्यावधि चुनाव में सोनिया गांधी लहर पर सवार हो कर सियासी शतरंज की नौसिखिया खिलाड़ी प्रभा ठाकुर ने रासासिंह को लगातार चौथी बार लोकसभा  में जाने रोक दिया था, हालांकि इस जीत का अंतर सिर्फ 5 हजार 772 मतों का रहा, लेकिन 1999 में आए बदलाव के साथ रासासिंह ने प्रभा ठाकुर को 87 हजार 674 मतों से पछाड़ कर बदला चुका दिया। इसके बाद 2004 में रासासिंह ने कांग्रेस के बाहरी प्रत्याशी हाजी हबीबुर्रहमान को 1 लाख 27 हजार 976 मतों के भारी अंतर से कुचल दिया। ये आंकड़े इशारा करते हैं कि तुलनात्मक रूप से जाट प्रत्याशी बेहतर रहा। अब जबकि परिसीमन के बाद जाटों की संख्या दो लाख को पार कर गई है, उनका दावा और मजबूत माना जाता है। इस सिलसिले में पिछले चुनाव में भी मांग उठी थी, मगर अपने प्रभाव के कारण करीब सवा लाख गुर्जर मतदाताओं के दम पर सचिन पायलट टिकट लेकर आ गए। इस बार लोकसभा चुनाव से एक साल पहले ही रामचंद्र चौधरी सचिन के खिलाफ झंडा बुलंद करने में लग गए हैं और स्थानीय की मांग पर अड़े हुए हैं। वैसे समझा जाता है कि उनकी रुचि लोकसभा चुनाव से अधिक विधानसभा चुनाव में है। पिछली बार वे मसूदा में निर्दलीय ब्रह्मदेव कुमावत की वजह से हार गए थे। इस बार फिर मसूदा से टिकट मांग रहे हैं। इसके लिए संसदीय क्षेत्र में जाटों की पर्याप्त तादाद को आधार बना कर दबाव डाल रहे हैं। कामत के सामने तो उन्होंने साफ तौर पर कहा कि अगर उन्हें टिकट नहीं दिया गया तो वे लोकसभा चुनाव में सचिन के खिलाफ मैदान में उतर जाएंगे। अर्थात सीधे तौर पर बार्गेनिंग पर उतर आए हैं।
यहां यह बताना भी प्रासंगिक होगा कि जाटों की बहुतलता के आधार पर भाजपा भी इस बार किसी जाट प्रत्याशी को मैदान में उतारने पर विचार कर रही है। भाजपा को यह समझ पिछले चुनाव में भी थी, मगर उसने भी बाहरी प्रत्याशी श्रीमती किरण माहेश्वरी का प्रयोग किया। पिछली बार तत्कालीन जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल दावेदार के रूप में माने जाते थे। ऐसा लगता है कि उनकी रुचि लोकसभा चुनाव में नहीं है। इस बार कुछ जाट दावेदारों ने  टिकट के लिए मशक्कत शुरू कर दी है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 22 जुलाई 2013

सैयद आजम हुसैन : इतिहास के सहेजते-सहेजते वे स्वर्णिम इतिहास हो गए

अजमेर के राजकीय संग्रहालय के अधीक्षक सैयद आजम हुसैन का असमय निधन होने पर पूरा अजमेर सन्न रह गया। बेशक, उनसे पूर्व के अधीक्षकों ने भी संग्रहालय की भलीभांति देखभाल की, मगर सैयद आजम हुसैन ने जो कार्य किए, उनका विशेष उल्लेख अजमेर के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज हो गया है। उन्होंने अपने कार्यकाल में न केवल संग्रहालय में अनेकानेक आयोजन कर इसे लोकप्रिय किया, अपितु लाइट एंड साउंड शो जैसी बहुप्रतीक्षित योजना को भी मूर्त रूप प्रदान करने में अहम भूमिका निभाई। अजमेर के स्थापना दिवस पर आयोजन की शुरुआत भी उनके ही खाते में दर्ज की जाएगी। इसके अतिरिक्त तारागढ़ के जीर्णोद्धार में भी उन्होंने विशेष रुचि ली। चंद शब्दों में कहें तो उन्होंने अकबर के किले को नया जीवन प्रदान किया। ऐसे ऊर्जावान अधिकारी से अजमेर को और भी उम्मीदें थीं, मगर काल के क्रूर हाथों ने उन्हें हमसे छीन लिया। और अजमेर के प्रति विशेष दर्द को अपने दिल में लिए ही वे हमसे विदा हो गए।
उनकी सोच से परिचित करवाने के लिए यहां उनका वह आलेख प्रकाशित किया जा रहा है, जो कि अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक में प्रकाशित हो चुका है। लाइट एंड साउंड शो उनका एक सपना था, जो कि उन्होंने साकार किया, उसका भी इसमें जिक्र है:-
-सैयद आजम हुसैन-
अजमेर में नया बाजार के पास स्थित अकबर के किले में स्थापित राजपूताना म्यूजियम आज स्वस्थ मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा के केन्द्र के रूप में भी अपनी भूमिका निभा रहा है। बाहर से आने वाले जायरीन और पर्यटकों के अतिरिक्त इतिहास के शोधार्थी भी इसको देखने में विशेष रुचि रखते हैं। पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग का प्रयास है कि इस ऐतिहासिक स्थल को और अधिक आकर्षक बनाया जाए। संग्रहालय को देखने के लिए आने वाले दर्शक हमारी कला, संस्कृति, स्थापत्य, शिल्प तथा इतिहास को काल क्रमानुसार आत्मसात कर सकें, इसके लिए पुरा सामग्री को काल क्रमानुसार प्रदर्शित किया जा रहा है। प्रदर्शित की जाने वाली सामग्री के पेडस्टल, शोकेस, अलमीरा, परिचय-पट्ट आदि संग्रहालय विज्ञान के अनुसार तैयार किए जा रहे हैं।
चूंकि अकबर का किला अजमेर के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है, अत: पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग का यह प्रयास है कि पर्यटकों को आकर्षित करने केलिए किले में शीघ्र ही लाइट एंड साउंड शो के माध्यम से अकबरी किले में घटित प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं को दिखाया जायेगा। न केवल पर्यटकों अपितु शहरवासियों के लिए भी यह शो आकर्षण का केन्द्र होगा। शो के माध्यम से दर्शक जान सकेंगे कि हल्दी घाटी युद्ध (1576 ई.) के समय सम्राट अकबर द्वारा मुगल सेना को मेवाड़ की ओर अजमेर से ही रवाना किया था। ब्रिटिश प्रतिनिधि सर टामस रो ने जनवरी, 1616 ईस्वी में मुगल सम्राट जहांगीर से इसी किले में भेंट की थी। शाहजहां के दो शहजादों का जन्म भी इसी किले में हुआ था। इस लिहाज से यह स्थल इतिहास के नजरिये से काफी महत्वपूर्ण है। सरकार की ओर से उपलब्ध कराई गई विशेष राशि से अकबरी किले में जीर्णोद्धार व मरम्मत के कार्य प्रगति पर हैं। इन कार्यों के तहत किले की बायीं बुर्ज के मरम्मत कार्य करवाये जा रहे हैं। इस बुर्ज में संग्रहालय को जीवन्त व आकर्षक बनाने हेतु प्रदर्शनी व सेमीनार आदि का आयोजन किया जायेगा।
ज्ञातव्य है कि राजकीय संग्रहालय, अजमेर की स्थापना अकबरी किले में सन् 1908 ई. में राजपूताना म्यूजियम के नाम से हुई। यहां पुरातात्विक वस्तुओं यथा शिलालेख, प्रतिमाएं, अस्त्र-शस्त्र, लघु रंग चित्र व अन्य सामग्री संग्रहित है, जिन्हें विभिन्न प्रमुख दीर्घाओं में प्रदर्शित किया गया है।
म्यूजियम में में सिन्धु घाटी सभ्यता को प्रदर्शित करने के लिए अलग से कक्ष बनाया हुआ है। सन् 1920 ई. में प्रकाश में आयी सिन्ध सभ्यता के अवशेषों के नमूने यथा मोहरंे, मृद-भांड, आभूषण, मृद प्रतिमाएं व खिलौने आदि इस कक्ष में प्रदर्शित हैं, जिन्हें देख कर दर्शक दांतों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो जाता है।
यह सर्वविदित है कि शिलालेख इतिहास लेखन में महत्वपूर्ण व विश्वसनीय स्रोत हैं। यहां स्थापित शिलालेख कक्ष में ग्राम बरली, अजमेर से प्राप्त शिलालेख दूसरी शताब्दी ईस्वी पूव समय का है। इसी कक्ष में ढ़ाई दिन का झोंपड़ा से प्राप्त महत्वपूर्ण शिलालेख भी दिग्दर्शित हैं। इसी प्रकार म्यूजियत के प्रतिमा कक्ष में 8-9 शताब्दी ईस्वी से 16-17वीं शताब्दी ईस्वी काल की प्रतिमाएं प्रदर्शित हैं। यहां प्रदर्शित प्रतिमाएं शैव, वैष्णव व जैन प्रतिमा शिल्प की उत्कृष्ठ कृतियां हैं, जो साबित करती हैं कि शिल्प कला में प्राचीन काल से हम कितने संपन्न रहे हैं।
राजस्थान की धरा शूर वीरों की धरा रही है। म्यूजियम के अस्त्र-शस्त्र कक्ष में मध्य काल में प्रयुक्त होने वाले अस्त्र-शस्त्र यथा भाले, तलवार, ढाल, कटार, जिरह-बख्तर, बन्दूकें आदि दर्शकों के आकर्षण का प्रमुख केन्द्र हैं। रियासत काल में राजपूताना के राजा-महाराजाओं ने अन्य कलाओं के साथ-साथ चित्रकला को भी आश्रय प्रदान किया। राजाश्रय में बने चित्र तत्कालीन दरबारी व्यवस्था हमारी धार्मिक मान्यताओं तथा रीति रिवाजों का दर्पण है। यहां लघु रंग चित्र-कक्ष में प्रदर्शित मुल्ला दो प्याजा के कथानक पर आधारित लघु रंग चित्र मेवाड़ चित्र शैली के नायाब नमूने हैं।
सरकारी नौकरी की औपचारिता की सीमाओं से बाहर निकल कर अजमेर के लिए कुछ कर गुजरने की उनकी उत्कट इच्छा को सलाम। आने वाले अधीक्षकों के लिए वे सदैव प्रेरणा के स्रोत रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 19 जुलाई 2013

क्या रलावता की शह पर हुई बाकोलिया की आलोचना?

महेन्द्र सिंह रलावता
एक ओर विधानसभा चुनाव सिर पर हैं तो दूसरी ओर एकजुटता की बजाय शहर जिला कांग्रेस में सिर फुटव्वल चल रही है। शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता विरोधी लॉबी उन्हें अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की नजर में गिराने की कोशिश कर रही है। या फिर ये भी हो सकता है कि वह पायलट को वास्तविकता से अवगत करना चाह रही है। इसका ताजा उदाहरण है आम कांग्रेसजन के नाम से मनोनीत पार्षद सैयद गुलाम मुस्तफा व शहर कांग्रेस के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग की ओर से जारी वह बयान, जिसमें शहर जिला कांग्रेस की बैठक में प्रायोजित तरीके से महापौर कमल बाकोलिया की आलोचना करने की भत्सर्ना की गई है।
उनकी विज्ञप्ति से यह साफ जाहिर है कि वे यह कहना चाहते हैं कि बैठक में बाकोलिया की आलोचना रलावता की शह पर ही हुई। इस बात को स्थापित करने के लिए तर्क दिया गया है कि एक ओर तो समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों और कथित बयानबाजी की आड़ लेकर एक पार्षद और कच्ची बस्ती व व्यापारिक महासंघ के वरिष्ठ पदाधिकारी, अर्थात मोहन लाल शर्मा को निलम्बित किया जाता है तो दूसरी संगठन की बैठक में ही बाकोलिया की खिलाफत बर्दाश्त की जाती है, यानि कि यह सब प्रायोजित तरीके से हुआ।
बैठक में हुई इस घटना को भी रेखांकित किया गया है कि कभी तो एक लाइन का प्रस्ताव पारित कर जिले के सारे विधानसभा टिकट पायलट के जिम्मे सौंपे जाते हैं, दूसरी ओर मेयर की खिलाफत की आड़ में पायलट की खिलाफत भी कर रहे हैं। सवाल ये भी उठाया गया कि प्रस्ताव पारित करते वक्त किसी ने टिकट का जिम्मा देने के मामले में राहुल गांधी व अशोक गहलोत का नाम क्यों नहीं लिया गया। मुस्तफा व गर्ग ने इसका अर्थ ये निकाला है कि टिकट की चाह रखने वाले अध्यक्ष तथा अन्य लोग, अर्थात पूर्व उप मंत्री ललित भाटी पायलट के पक्ष में पारित प्रस्ताव से खिन्न हैं। इसका प्रमाण ये है कि एक ओर तो पायलट के प्रति पूर्ण समर्थत जाहिर करते हैं, दूसरी ओर पर्यवेक्षक के सामने अपने समर्थकों के साथ टिकट की दावेदारी भी करते हैं। यानि उनकी नजर में पायलट के बारे में पारित प्रस्ताव का कोई महत्व ही नहीं है।
मुस्तफा व गर्ग ने पार्टी की दयनीय स्थिति पर भी अफसोस जताया है। यह कह कर कि चुनाव को लेकर भाजपा पूरी तरह से सक्रिय है, दूसरी ओर कांग्रेस में कागजों में बूथ लेवल कमेटी मतदाता सूची पुननरीक्षण के बाद बनेगी, जिसका कोई औचित्य नहीं है।
कुल मिला कर इससे यह आभास हो रहा है कि शहर कांग्रेस में संगठन को लेकर कुछ न कुछ पक रहा है।
-तेजवानी गिरधर

चार माह में क्या जादू से करेंगे मगरे का विकास?

सोहन सिंह चौहान
राजस्थान मगरा विकास बोर्ड के नव नियुक्त अध्यक्ष सोहन सिंह चौहान ने अपनी नियुक्ति के बाद पहली बार ब्यावर पहुंचने पर ऐलान किया कि वे मगरा क्षेत्र के विकास में कोई कसर नहीं छोडेंग़े। वे खुद सरपंच व प्रधान के रहे हैं, ऐसे में वे खुद भी मगरा क्षेत्र से वाकिफ हैं। जल्द ही जनता से रूबरू होंगे और क्षेत्र की समस्याओं के लिए सरपंच व प्रधानों से भी मिलेंगे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से मिल कर समस्याओं का समाधान कराएंगे।  बेशक ऐसी सुहावनी बातें किसी भी नवनियुक्त जनप्रतिनिधि करनी ही चाहिए, करते ही हैं, मगर सवाल ये उठता है कि वे मौजूदा सरकार के शेष रहे चार माह में ऐसा क्या वे जादू से करेंगे? क्या जादूगरी में माहिर अशोक गहलोत से नियुक्ति पत्र के साथ कोई जादू भी सीख कर आए हैं? सच तो ये है कि किसी भी जनप्रतिनिधि को चार माह तो संबंधित लोगों से मिलने और समस्याओं को जानने और उनके निराकरण के लिए प्रस्ताव बनाने में ही लग जाता है। उसके बाद आती है बजट राशि की बात। समस्याओं के निवारण के लिए उतनी राशि भी तो होनी चाहिए। असल में यह तभी संभव होता है, जबकि समस्याओं का सतत निवारण किया जाए और समय-समय पर अपेक्षित बजट भी आवंटित किया जाए, जो कि अब इन चार माह में तो संभव नजर नहीं आता।
ज्ञातव्य है कि अरावली पर्वत शृंखला से जुड़ी 14 पंचायत समितियों के एक हजार गांवों के लोगों के उत्थान तथा विकास के मद्देनजर पिछली भाजपा सरकार ने इस बोर्ड का गठन किया था, जो कांग्रेस राज आने के बाद अस्तित्वविहीन हो गया। सरकार ने बोर्ड के लिए न तो किसी प्रकार का बजट आवंटित किया और न ही किसी को अध्यक्ष मनोनीत किया। मात्र वोटों की राजनीति के लिए गठित इस बोर्ड का ख्याल भी भाजपा राज में तब आया, जबकि सरकार के कार्यकाल में मात्र नौ माह शेष बचे थे। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे ने 27 मार्च 2008 को मदन सिंह रावत को बोर्ड का पहला अध्यक्ष मनोनीत किया, मगर उसी साल दिसंबर में चुनाव के बाद भाजपा सरकार रुखसत हो गई। तब से पूरे साढ़े चार साल तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को बोर्ड के पुनर्गठन का ख्याल नहीं आया। इसी से साबित होता है कि सरकारें इस बोर्ड से होने वाले वास्तविक लाभ के प्रति कितनी गंभीर हैं। स्पष्ट है कि वोटों की खातिर वसुंधरा ने भी चुनावी साल में इसका गठन किया और अब गहलोत ने भी चुनाव नजदीक देख कर इसका पुनर्गठन कर दिया है।
जहां तक रावत के नौ माह के कार्यकाल का सवाल है, उनके वक्त विकास के लिए पांच करोड़ रुपए का बजट आवंटित किया, जिससे पानी, बिजली, सड़क के साथ अन्य निर्माण काम भी इस बजट से कराए गए। हालांकि रावत ने मांग रखी थी कि बजट कम से कम बीस करोड़ रुपए का होना चाहिए।
बोर्ड के गठन की पृष्ठभूमि
वस्तुत: नरवर से दिवेर तक अरावली पर्वत शृंखला की तलहटी में पांच जिलों में फैले क्षेत्र में बहुसंख्या ऐसे लोगों की है, जिन्हें चौहान वंश का माना जाता है। इनमें प्रमुख रूप से रावत, चीता, मेहरात तथा काठात वर्ग के हैं। इनके अतिरिक्त भील, मीणा तथा गरासिया जातियां भी इस क्षेत्र में रहती हैं। माना जाता है कि इन जातियों के लोग आर्थिक दृष्टि से कमजोर हैं। क्षेत्र के उत्थान के लिए अंग्रेजी हुकूमत में भील, मीणा, गरासिया, रावत तथा मेहरात जाति के लोगों को आरक्षित जातियों की सूची में शामिल किया गया था। आजादी के बाद इनमें से रावत व मेहरात को हटा दिया गया, जबकि भील, मीणा तथा गरासिया जाति के लोग आज भी शामिल हैं। इन्हीं के विकास के लिए बोर्ड का गठन किया गया था।
बोर्ड के कार्यक्षेत्र में अजमेर, चित्तौडगढ़़, राजसमंद, पाली तथा भीलवाड़ा की 14 पंचायत समितियों को रखा गया। इनमें मसूदा के 137, जवाजा 193, निंबाहेड़ा के 32, आसींद के 65, रायपुर के 23(भीलवाड़ा), मांडल के 74, रायपुर के 41 (पाली), मारवाड़ जंक्शन के 41, भीम के 109, राजसमंद के 103, देवगढ़ के 131, आमेट के 136, कुंभलगढ़ के 161 तथा खमनोर पंचायत समिति के 132 गांव शामिल हैं। जब रावत अध्यक्ष थे तो उन्होंने अजमेर की श्रीनगर, पीसांगन तथा भिनाय पंचायत समितियों को भी शामिल करने के प्रस्ताव भेजा था, जो कि सरकार के जाने के साथ ठंडे बस्ते में चला गया।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 18 जुलाई 2013

बोर्ड अध्यक्ष सच्चाई कह गए तो भाटी को बुरा लग गया

रेलवे बोर्ड अध्यक्ष अरुणेंद्र कुमार ने गत दिवस अजमेर दौरे के दौरान जैसे ही यह बयान दिया कि पुष्कर-मेड़ता तथा नसीराबाद-कोटा रेल लाइन की उपयोगिता नहीं पाई गई है और इन पर रेल लाइन बिछाने से कोई विशेष प्रभाव पडऩे वाला नहीं है, तो पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को बुरा लग गया। उन्होंने बाकायदा बयान जारी कर कहा कि वे अजमेर से जुड़े रेलवे के मसलों पर सर्वोच्च सदन के निर्णय के खिलाफ अनर्गल बयानबाजी कर रहे हैं।
बेशक उनकी इस प्रतिक्रिया में दम है कि रेल बजट की घोषणा क्या देश के सर्वोच्च सदन में बिना किसी ठोस आधार के की जा सकती है, मगर सवाल ये भी तो है न कि उस सर्वोच्च सदन भी तो आखिरकार उसी सरकारी तंत्र की रिपोर्ट पर ही घोषणाएं करता है, जो कि अब ये कह रहा है कि इन रेल लाइनों की उपयोगिता नहीं पाई गई है। संसद को खुद-ब-खुद सपना थोड़े ही आता है। इससे तो ऐसा संदेह होता है कि कहीं रेल बजट में जो घोषणा की गई, उसके पीछे कोरा राजनीतिक दबाव तो नहीं था। सबको पता है कि इन रेल लाइनों के लिए काफी अरसे से मांग की जा रही थी और फौरी तौर पर सर्वे भी हुआ। मगर घोषणा तभी हुई जब अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट ने विशेष प्रयास कर रेलवे बजट में उसे शामिल करवा दिया।
यह भी सर्वविदित तथ्य है कि कई बार राजनीतिक दबाव की वजह से नई योजनाएं लागू कर दी जाती हैं, भले ही उनकी उतनी उपयोगिता हो न हो। ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं। अजमेर-पुष्कर रेल लाइन का मसला ही लीजिए। भारी दबाव के चलते उसे चालू तो कर दिया गया, मगर धरातल पर उसकी उपयोगिता कितनी साबित हो पाई है, किसी से छिपी हुई नहीं है। ताजा मामले में भी ऐसा ही प्रतीत होता है। आम जनता व उसे सपने बेचने वाली नेता नगरी अपने नजरिये से पुष्कर-मेड़ता तथा नसीराबाद-कोटा रेल लाइन की उपयोगिता आंकती है, जबकि रेलवे के तकनीकी जानकारों के आंकने का तरीका कुछ और है। और यही वजह है कि इनकी बजट घोषणा तो हो गई, मगर आज रेलवे के सर्वोच्च अधिकारी ही कह रहे हैं कि इनकी उपयोगिता नहीं पाई गई है। उनकी बात में जरूर कोई दम होगा। यूं ही जुगाली तो नहीं कर गए होंगे। हां, इतना जरूर है कि सच कड़वा होता है, इस कारण भाटी सहित हर अजमेरवासी को बुरा लगा होगा, यह दीगर बात है कि अकेले भाटी ही बोले, बाकी नेताओं की तो जुबान तक नहीं खुली। इस लिहाज भाटी साधुवाद के पात्र हैं कि उन्होंने इतने गंभीर मसले पर प्रतिक्रिया तो जाहिर की।
रहा सवाल भाटी का सर्वोच्च सदन में की गई घोषणा को पत्थर की लकीर की तरह प्रस्तुत करने का तो यह भी सबको पता है कि ऐसी अनेक घोषणाएं होती हैं, जो बाद में पूरी ही नहीं होतीं। इसके प्रति संसद कितनी प्रतिबद्धता रखता है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है। विपक्ष चिल्लता ही रह जाता है और सत्तारूढ़ दल के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती।
भाटी ने सलाह दी है कि बोर्ड अध्यक्ष कार्यवाहक हैं और उन्हें प्रचलित सामान्य व्यवहार के क्रम में ऐसे में निर्णय लेने तथा सार्वजनिक बयानबाजी से परहेज करना चाहिए। सलाह देने का अधिकार सभी को है, मगर बोर्ड अध्यक्ष ने तो वास्तविक तथ्य लोगों के सामने रखा है, कम से कम राजनेताओं की तरह सब्ज बाग तो नहीं दिखाए। इसके अतिरिक्त उनका बयान राजनीतिक बयानबाजी की श्रेणी में नहीं गिना जा सकता, जिससे परहेज की जाए। वे ऐसी जानकारी देने के लिए अधिकृत हैं, और इसके लिए उन्हें किसी की इजाजत लेने की जरूरत नहीं है।
भाटी ने एक बात बड़ी दिलचस्प और काम की कही है, वो यह कि बोर्ड अध्यक्ष ने ऐसा कर अजमेर के सांसद तथा केंद्रीय कंपनी मामलात के राज्यमंत्री सचिन पायलट को संदेह के घेरे मेें लाने का अनपेक्षित कार्य किया है। बात बिलकुल सही है। स्पष्ट है कि पायलट ने ही दोनों रेल लाइनों की घोषणा करवाई है और यदि रेलवे का सर्वोच्च अधिकारी अजमेर में आ कर यहीं पर इन घोषणाओं की धज्जियां उड़ता है तो पायलट पर संदेह होता है कि एक बार घोषणा करवाने के बाद शायद उन्होंने उसके क्रियान्वयन की ओर ध्यान नहीं दिया। खैर, अच्छी बात है कि बोर्ड अध्यक्ष आइना दिखा गए हैं, अब भाटी सहित सभी कांग्रेसी नेताओं को पायलट पर दबाव बनाना चाहिए कि बोर्ड अध्यक्ष आपकी फजीहत कर गए हैं और आप जनता के सामने झूठे पड़ रहे हैं, लिहाजा पीछे पड़ कर इस पर अमल करवाएं। विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुटे भाजपा नेताओं को भी पायलट को घेरना चाहिए कि उनके प्रयासों से घोषणाओं का यह हश्र कैसे हो रहा है?
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

हवाई अड्डा बना नहीं, शुरू हो गई राजनीति

अजमेर जिले के किशनगढ़ के पास प्रस्तावित बहुप्रतीक्षित हवाई अड्डा अभी बना भी नहीं है कि उसके नामकरण को लेकर राजनीति शुरू हो गई है। ठीक उसी तरह जैसे अजमेर रेलवे स्टेशन को लेकर हुई थी।
ज्ञातव्य है कि हाल ही राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी अजमेर आए तो दरगाह जियारत के दौरान खादिमों की संस्था अंजुमन की ओर से मांग की गई कि इसका नाम सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के नाम पर गरीब नवाज एयरपोर्ट रखा जाए। उन्होंने इसके पक्ष में तर्क भी दिए। इस पर हालांकि अन्य संगठन मुखर रूप से सामने नहीं आए हैं, मगर किन्हीं सज्जन ने फेसबुक पर पृथ्वीराज चौहान एयरपोर्ट अजमेर के नाम से अकाउंट बना दिया है। स्पष्ट है कि यह प्रयास अंजुमन की मांग के जवाब में शुरू की जा रही मुहिम का हिस्सा है। इसी मुहिम के तहत अजमेर यूथ क्लब ने तो बाकायदा एक अपील जारी की है, जिसमें हालांकि वर्तनी की अशुद्धियां हैं, मगर आपकी जानकारी के लिए उसे दुरुस्त कर हूबहू दिया जा रहा है:-
भारत के अंतिम हिंदू सम्राट और अजमेर के सम्राट पृथ्वीराज चौहान के नाम पर अजमेर में क्या है? केवल एक भाजपा के राज में बना पृथ्वीराज स्मारक, उसकी भी सरकार ने हालात खराब कर दी है। हमने सरकार के सभी बड़े मंत्रियों को खत लिख कर मांग की है कि अजमेर में निर्माणाधीन एयरपोर्ट का नाम पृथ्वीराज चौहान रखा जाये, जिससे देशभर और विदेशों में उनकी पहचान बनी रहे। अब सरकार के मन में कया है, सरकार जाने, हमने साफ कर दिया है कि पृथ्वीराज का नाम नहीं तो एयरपोर्ट नहीं। हमें आपका थोड़ा सा सहयोग चाहिये। आप हमारे द्वारा बनाई गयी फेसबुक आईडी prithvirajchauhanairportajmer@gmail.com को भी जोड़ें, जिससे सरकार को अजमेर के लोगों के सम्मान के लिए एयरपोर्ट का नाम पृथ्वीराज चौहान के नाम पर रखना पड़े। हमें अजमेर के सभी सामाजिक संगठन और मार्केट एसोशिएयन का भी समर्थन मिला है। हमने करीब 20 हजार पेम्पलेट छपवा कर घर-घर यह संदेश भेजा है। सभी संकुल कॉलेज में भी यह संदेश भेजा है। सब हमारे साथ जुड़ रहे हैं। आपसे फिर निवेदन है कि आप हमारे द्वारा बनायी गयी फेसबुक आईडी और अन्य लोगों को जुडऩे के लिये कहें। हम आपके आभारी होंगे। -विजय कांकाणी माहेश्वरी। आप फेसबुक पर जाकर हमारी आईडी prithvirajchauhanairportajmer@gmail.com को सर्च करें, आपको मिल जायेगा। हमें अपने हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के खातिर सरकार को अपती ताकत दिखानी होगी।
इस अपील से समझा जा सकता है कि हवाई अड्डे के नाम को लेकर आगे चल कर क्या होने वाला है।
ज्ञातव्य है कि इससे पहले अजमेर रेलवे स्टेशन का नाम रेलवे बोर्ड के स्तर पर अजमेर शरीफ करने के प्रस्ताव का खुलासा होने पर किस प्रकार सभी हिंदूवादी संगठन, व्यापारिक संगठन और कई संस्थाएं रातोंरात अजयमेरु संघर्ष मंच के बैनर तले लामबंद हो गई थीं और जिला कलैक्टर तथा मंडल रेल प्रबंधक अजमेर को ज्ञापन देकर अजमेर के रेलवे स्टेशन का नाम परिवर्तन कर अजमेर शरीफ करने के प्रस्ताव को तत्काल निरस्त कराने की मांग करते हुए उन्हें मुख्यमंत्री राजस्थान सरकार तथा रेल मंत्री भारत सरकार के नाम ज्ञापन पत्र सौंपे। सभी संगठनों के प्रतिनिधिगण व कार्यकर्ताओं ने स्थानीय डाक बंगले से मंच के संयोजक सुनील दत्त जैन, जो कि संघ के महानगर संचालक भी हैं, के नेतृत्व में विशाल जुलूस जिला कलैक्टर कार्यालय व डीआरएम कार्यालय भी निकाला।
ज्ञापन में बताया गया था कि अजमेर का अपना एतिहासिक गौरव रहा है। इसका इतिहास करीब 2000 वर्ष पुराना है तथा इसकी पहचान पिछली कई पीढिय़ों से यहां के इतिहास व गौरव के अनुरूप अजयमेरू के नाम से होती चली आई है। इसी आधार पर यात्री परिवहन के दूसरे बड़े केन्द्र रोडवेज ने भी अजमेर आगार को अजयमेरू आगार पिछले कई वर्षों से घोषित किया हुआ है। इस स्थिति में रेलवे स्टेशन का नाम यहां के साम्प्रदायिक सौहार्द के विपरीत परिवर्तन करने का काई औचित्य नहीं है। उक्त नाम परिवर्तन क्षुद्र राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करने के लिये तथा वोटों की राजनीति के लिए केन्द्र सरकार के इशारे पर कराने के प्रयास किये जा रहे हैं। कभी भी अजमेर की जनता व जनप्रतिनिधियों के द्वारा इस प्रकार की कोई मांग नहीं की गई, फिर भी इस प्रकार के षडय़ंत्र करके लोगों की भावनाओं को आहत किया जा रहा है। ज्ञापन में नाम परिवर्तन की उक्त प्रक्रिया को तत्काल समाप्त कराने की मांग करते हुए यह भी मांग की कि अजमेर रेलवे स्टेशन का नाम चूंकि अजमेर की पहचान अजयपाल जी, अगणराज जी व यशस्वी सम्राट पृथ्वीराज चौहान से होती है, अत: यहां की गौरवशाली व ऐतहासिक परम्परा के अनुरूप अजयमेरू रखा जाए। इतना भारी विरोध देख कर मंडल रेल प्रबंधक मनोज सेठ ने आश्वस्त किया था कि रेलवे द्वारा रेलवे स्टेशन के नाम परिवर्तन के संदर्भ में कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी तथा नाम परिवर्तन के इस प्रकरण का पटाक्षेप कर दिया।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 11 जुलाई 2013

कांग्रेस उठा सकती है अजमेर विकास प्राधिकरण का फायदा

अजमेर नगर सुधार न्यास के क्षेत्रांतर्गत अजमेर शहर में पुष्कर व किशनगढ़ को मिला कर अजमेर विकास प्राधिकरण का गठन जल्द होने जा रहा है। राजनीतिक पंडित समझते हैं कि कांग्रेस सरकार इसमें अध्यक्ष की नियुक्ति कर जातीय संतुलन का फायदा उठा सकती है।
ज्ञातव्य है कि पिछली बार अजमेर उत्तर में परंपरागत को तोड़ते हुए गैर सिंधी के रूप में पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दी थी, जिसके परिणामस्वरूप सिंधी-गैर सिंधीवाद उफना और नतीजतन डॉ. बाहेती सशक्त उम्मीदवार होते हुए भी पराजित हो गए। आगामी चुनाव को लेकर भी सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। हर किसी की नजर है कि क्या इस बार कांग्रेस फिर गैर सिंधी का प्रयोग करने का साहस दिखाएगी। हालांकि सूत्र यही बताते हैं कि कांग्रेस पिछली हार के बाद सकते में है, मगर गैर सिंधी दावेदारों के रूप में पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती और शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता दमदार तरीके से दावेदारी कर रहे हैं। विशेष रूप से लैंड फॉर लैंड मामले में उलझने के कारण नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष पद से नरेन शहाणी के इस्तीफे के बाद उनका दावा कमजोर होने और प्रत्यक्षत: दूसरा सशक्त सिंधी दावेदार नहीं उभरने के कारण बाहेती व रलावता अति उत्साहित हैं। ऐसे में कांग्रेस को यह समझ में नहीं आ रहा कि आखिर वह क्या करे। राजनीतिक पंडित समझते हैं कि अजमेर विकास प्राधिकरण का गठन इसी समय होने के कारण कांग्रेस के लिए एक ऐसा मौका है, जिसमें वह जातीय संतुलन बैठा सकती है। वह अजमेर उत्तर की सीट व एडीए अध्यक्ष का पद सिंधी-गैर सिंधी के बीच बांट कर दोनों समुदायों को राजी कर सकती है। हालांकि जैसी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की प्रवृत्ति है, किसी को यह नहीं लग रहा कि वे चंद माह के लिए एडीए में अध्यक्ष की नियुक्ति करेंगे, मगर हाल ही विभिन्न आयोगों व बोर्डों में नियुक्ति किए जाने से अनुमान लगाया जा रहा है कि वे यहां भी नियुक्ति कर सकते हैं।
उधर एडीए के जल्द गठन की प्रक्रिया के बीच इसका अध्यक्ष बनने की कवायद भी तेज हो गई है। हालांकि चंद माह के लिए अध्यक्ष बनना बेमानी सा है, क्योंकि यह जरूरी नहीं कि कांग्रेस की सरकार दुबारा आए ही, मगर बावजूद इसके कांग्रेस के वे नेता जो अजमेर उत्तर या दक्षिण के टिकट के दावेदार हैं, यहां भी भाग्य आजमाना चाहते हैं। विशेष रूप से गैर सिंधी दावेदार पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता, पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल व पूर्व उप मंत्री ललित भाटी का नाम सामने आ रहा है। ज्ञातव्य है कि डॉ. बाहेती पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का वरदहस्त माना जाता है, जबकि रलावता पर केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट व कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह का। हालांकि केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की की डॉ. बाहेती से नाराजगी उनके लिए बाधक हो सकती है, मगर माना जा रहा है कि आगामी चुनाव को देखते हुए सचिन का रुख कुछ नरम पड़ सकता है। ऐसे में अगर डॉ. बाहेती अध्यक्ष बन जाएं तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। जहां तक डॉ. जयपाल का सवाल है, उनके संबंध भी पायलट से अच्छे नहीं हैं, इस कारण उनकी नियुक्ति में संदेह उत्पन्न होता है, मगर संभावित बदले समीकरणों के तहत उनको भी कुछ न कुछ दिया जा सकता है। रहा सवाल भाटी का तो वे हैं तो सचिन के खेमे में, मगर उनका ज्यादा जोर विधानसभा टिकट पर नजर आता है। वैसे अनुसूचित जाति के किसी नेता के अध्यक्ष बनने की संभावना इस कारण कुछ कम है क्योंकि अजमेर दक्षिण सीट व नगर निगम मेयर की सीट अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है और अजमेर उत्तर की सीट अघोषित रूप से सिंधियों के लिए। ऐसे में सामान्य वर्ग के नेताओं को प्राथमिकता देना कांग्रेस की मजबूरी है। अब देखते हैं मुख्यमंत्री गहलोत क्या करते हैं?
राजनीतिक जोड़तोड़ की कवायद करने वालों का कयास है कि गहलोत बाहेती को एडीए का अध्यक्ष, डॉ. जयपाल को शहर कांग्रेस अध्यक्ष, रलावता को देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष, भाटी को अजमेर दक्षिण का टिकट व किसी सिंधी को अजमेर उत्तर का टिकट देकर संतुलन बैठा सकते हैं। ज्ञातव्य है कि किशनगढ़ विधायक नाथूराम सिनोदिया को इस बार फिर टिकट दिया जाना लगभग तय है, इस कारण उन्हें देहात अध्यक्ष पद से मुक्त करने में कोई दिक्कत नहीं आएगी।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 8 जुलाई 2013

गजल को गाली दे गए पत्रकार आलोक श्रीवास्तव

दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक, वरिष्ठ पत्रकार व गजलकार डॉ. रमेश अग्रवाल के गजल संग्रह भीड़ में तनहाइयां के विमोचन समारोह में आए मुख्य अतिथि दैनिक भास्कर की ही पत्रिका अहा जिंदगी के संपादक आलोक श्रीवास्तव ने गजल को ऐसी गाली दी कि उसे अजमेर के प्रबुद्ध नागरिक कभी नहीं भूल पाएंगे। यूं तो उन्होंने डॉ. अग्रवाल के गजल संग्रह की तारीफ की, मगर कार्यक्रम में मौजूद जनसमूह का श्रेय उन्होंने डॉ. अग्रवाल के पत्रकारिता के कद को दे डाला। ऐसा कर के उन्होंने जानबूझ कर डॉ. अग्रवाल की अप्रतिम और लाजवाब गजलों को बौना करने की कोशिश की, जिससे समारोह में मौजूद हर शख्स का जायका बिगड़ गया। उनसे अनजाने में ऐसा हुआ, ऐसा इस कारण नहीं माना जा सकता कि क्योंकि वे भी एक जाने-माने पत्रकार हैं, शब्दों के खिलाड़ी हैं और उन्हें अच्छी तरह से पता था कि वे क्या कह अपनी पत्रकारितागत चतुराई का परिचय दे रहे हैं। साफ दिख रहा था कि अलग से कुछ हट कर सत्य को उद्घाटित करने की कोशिश में ही उन्होंने एक सौहार्द्रपूर्ण मंजर पर राई बघारने की यह हरकत की। अगर वे यह कहते कि भले ही डॉ. अग्रवाल के आभा मंडल की वजह से इतना शानदार समारोह हुआ है, मगर उनकी गजलें उससे भी ज्यादा शानदार हैं, तो बात समझ में भी आती, मगर जिस अंदाज में उन्होंने अपनी बात कही, साफ झलक रहा था पेट में इस बात का बड़ा भारी कष्ट रहा कि एक गजल संग्रह का विमोचन समारोह इतना भव्य कैसे हो रहा है?
बेशक उनकी बात इस अर्थ में ठीक मानी जा सकती है कि किसी भी प्रभावशाली व्यक्ति का कार्यक्रम श्रोताओं की पर्याप्त मौजूदगी और कार्यक्रम की गरिमा की दृष्टि से कामयाब होता है, मगर यह तो एक सार्वभौमिक तथ्य है। इसमें नया कुछ भी नहीं। इसमें कोई दो राय नहीं कि कार्यक्रम में स्तरीय प्रबुद्ध वर्ग की मौजूदगी के पीछे पत्रकारिता के क्षेत्र में डॉ. अग्रवाल की अब तक की साधना, पहचान और लोकप्रियता ही प्रमुख वजह रही। एक अदद गजलकार के नाते तो लोग जुटे नहीं थे। वे अन्य गजलकारों की तरह कोई प्रतिष्ठित गजलकार हैं भी नहीं और न ही ऐसा उनका कोई दावा है। मगर इससे उनकी उम्दा गजलें छोटी नहीं हो जातीं। स्वाभाविक सी बात है कि शहर के प्रबुद्ध लोग यही देखने-सुनने आये थे कि एक प्रतिष्ठित पत्रकार की गजलें कैसी हो सकती हैं। उन्हें सुन कर समारोह में मौजूद शायद ही कोई ऐसा दर्शक रहा हो, जिसके मुंह से अनायास वाह-वाह न निकला हो। अजमेर के जाने-माने और मूर्धन्य गजलकार व गीतकार सुरेन्द्र चतुर्वेदी व गोपाल गर्ग और लॉफ्टर चैलेंज फेम रास बिहारी गौड़ भी डॉ. अग्रवाल की गजलों की बारीक समीक्षा करते हुए शब्दों की कमी महसूस कर रहे थे। वे कोई उनके एक अच्छे पत्रकार होने के नाते थोड़े ही तारीफ कर रहे थे। ऐसे में आलोक श्रीवास्तव का यह कहना कि कोई अन्य गजलकार होता तो इतना भव्य समारोह नहीं होता, बहुत बेहूदा और भद्दी टिप्पणी लगी। हालांकि उन्होंने आड़ गजल की लगातार हो रही दुर्दशा की ली, मगर ऐसे गरिमापूर्ण समारोह में इस प्रकार टिप्पणी करके उन्होंने अपनी खुद की गरिमा गिरा ली। अव्वल तो वे खुद ही अपने मन्तव्य का अतिक्रमण कर रहे थे। खुद उनके पास भी इस सवाल का जवाब नहीं होगा कि क्या डॉ. अग्रवाल की जगह किसी और अदद गजलकार के गजल संग्रह का विमोचन होता तो वे समारोह के मुख्य अतिथी बनना स्वीकार करते? जब वे खुद गजल मात्र को सम्मान नहीं देते तो दुनिया से क्या अपेक्षा कर रहे हैं?
वस्तुत: पूरा समारोह ही एक अच्छे पत्रकार के उम्दा गजलकार भी होने पर आश्चर्यमिश्रित भाव पर ही थिरक रहा था, मानो पत्रकार तो कवि, गजलगो या साहित्यकार हो ही नहीं सकता। बेशक साहित्यकार होने के लिए पत्रकार होना जरूरी नहीं है, चूंकि साहित्य एक स्वतंत्र विधा है, मगर ऐसा अमूमन देखा गया है कि साहित्यकार वर्ग किसी पत्रकार के साहित्य के क्षेत्र में भी दखल देने पर असहज हो जाता है। उसे इस बात की भी पीड़ा होती है कि शब्दों के असली संवाहक तो वे हैं, फिर महज रूखी खबरों में शब्दों का प्रयोग करने वालों को समाज में उनसे अधिक सम्मान क्यों दिया जाता है?
जहां तक मेरी निजी जानकारी, समझ और अनुभव है, डॉ. अग्रवाल मूलत: साहित्यक प्रतिभा हैं, पत्रकारिता उनकी आजीविका का साधन मात्र है, जिसमें भी उन्होंने उत्कृष्टता से प्रतिष्ठा पाई है। उनके भीतर मौजूद साहित्यकार से साक्षात्कार तो लोग उनके दैनिक नवज्योति में काम करने के दौरान चकल्लस कॉलम और दैनिक भास्कर के दो दूनी पांच कॉलम में ही करते रहे हैं, जिनमें वे जीवन दर्शन, व्यंग्यपूर्ण चुटकी और हास्य रस से युक्त पद्य के साथ गद्य के रूप में एक-दो शेर भी पिरोते हैं। हां, उनकी पहचान जरूर एक वरिष्ठ पत्रकार के रूप में स्थापित हुई है। अब जब कि उन्होंने अपनी गजलों के जरिए हिरण के अंतिम आर्तनाद में छिपी छटपटाहट और वेदना को उभारा है, उनकी पहचान एक स्तरीय गजलगो के रूप में भी हो गई है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 7 जुलाई 2013

पहले क्यों नहीं रोका मोइनी को वीआईपी खादिम बनने से?

हर वीआईपी-वीवीआईपी की जियारत कर तरह राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को दरगाह की जियारत कराने को लेकर भी विवाद होता दिखाई दे रहा है। दरगाह के खादिमों की संस्था अंजुमन सैयद जादगान का कहना है कि चूंकि राष्ट्रपति का पहले से कोई खादिम नहीं है और वे पहली बार दरगाह आ रहे हैं, ऐसे में अंजुमन का ही हक है वो राष्ट्रपति को जियारत कराए। अंजुमन ने बाकायदा सदर सैयद हिसामुद्दीन नियाजी की सदारत में बैठक कर निर्णय किया कि प्रशासन किसी खादिम को थोपता है, तो अंजुमन इसका विरोध करेगी। अंजुमन सचिव सैयद वाहिद हुसैन अंगाराशाह  के अनुसार प्रशासन ने जबरदस्ती किसी खादिम को जियारत के लिए थोपा तो अंजुमन के सभी लोग के दौरान आस्ताना से बाहर आ जाएंगे।
सवाल उठता है कि आखिर हर बार वीआईपी-वीवीआईपी की जियारत को लेकर विवाद होता क्यों है? खादिमों के बीच विवाद तो फिर भी समझ में आता है, उसके कई कारण बन जाते हैं, मगर अंजुमन और खादिम के बीच विवाद अनूठा है। स्वाभाविक सी बात है कि राष्ट्रपति भवन की ओर से प्रशासन को पूछा गया होगा कि जियारत कौन करवाएगा तो उन्होंने सैयद मुकद्दस मोइनी का नाम प्रस्तावित किया गया होगा। कारण सिर्फ यही है कि वे अघोषित रूप से वीआईपी खादिम हैं। चाहे जिला प्रशासन का कोई अधिकारी हो या फिर जयपुर-दिल्ली से पहली बार आने वाला वीआईपी, उन्हीं से संपर्क किया जाता है। यह एक परंपरा सी बन गई है। इसी प्रकार की परंपरा खादिम कुतुबुद्दीन सकी को लेकर है। वे भी फिल्म जगत के अघोषित खादिम हैं। कारण ये है कि वे फिल्म जगत के संपर्क में रहते हैं। किसी भी एक्टर-एक्ट्रेस को जियारत के लिए अजमेर आना होता है तो उनके मित्र उन्हीं का नाम सुझा देते हैं। इसी कारण आज वे अघोषित रूप से फिल्मी खादिम हो गए हैं। इसका कभी कोई विरोध नहीं हुआ। विरोध का आधार बनता भी नहीं है। यह ठीक उसी प्रकार है, जैसे आपका कोई मेहमान आप पर दरगाह जियारत कराने की जिम्मेदारी सौंपे तो आप अपनी पसंद के खादिम से संपर्क करते हैं। इसमें किसी को कोई ऐतराज नहीं होता। बात जहां तक मुकद्दस मोइनी की है, वे चूंकि लगातार प्रशासन के संपर्क में रहते हैं, इस कारण वे भी अघोषित रूप से वीआईपी खादिम हो गए हैं। अब चूंकि मामला देश के राष्ट्रपति प्रणब मुकर्जी का है और वे पहली बार अजमेर आ रहे हैं, इस कारण अंजुमन दावा कर रही है।
इस बारे में मोईनी का दावा है कि प्रशासन के पास उनके नाम का फैक्स राष्ट्रपति कार्यालय से पहुंच चुका है, इसलिए वे जियारत कराएंगे। बेशक ऐसा हुआ होगा, मगर राष्ट्रपति भवन के अधिकारियों को क्या पता कि  उन्हें मोइनी का नाम भेजना है, जरूर प्रशासन ने ही उनका नाम सुझाया होगा, इसी कारण उन्हीं के नाम का फैक्स आया होगा।
अब जब विवाद की स्थिति बन रही है तो सवाल उठता है कि अंजुमन ने इससे पहले प्रशासन को यह स्पष्ट क्यों नहीं कह रखा है कि पहली बार आने वाले वीवीआईपी के लिए खादिम का नाम तय करने का जिम्मा कायदे के अनुसार अंजुमन का है, अत: मोइनी का नाम न सुझाया करें और अंजुमन से पूछ कर ही तय करें। प्रशासन को क्या पता कि अंजुमन इस पर विवाद करेगी? खैर, अब देखते हैं क्या होता है? बेहतर तो यही है कि कम से कम मुकर्जी के सामने तो विवाद न हो, उससे पहले ही सुलह हो जाए और आगे के लिए भी तय हो जाए कि पहली बार आने वाले वीवीआईपी के बारे में क्या नीति रहेगी?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 4 जुलाई 2013

किरण माहेश्वरी को तलाश है नई सीट की, नजर अजमेर पर तो नहीं?

अजमेर में एक बैठक को संबोधित करतीं किरण माहेश्वरी
क्या भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष श्रीमती किरण माहेश्वरी को नई विधानसभा सीट की तलाश है, यह सवाल इन दिनों भाजपाइयों में खासा चर्चा का विषय है। असल में यह सवाल इस कारण उठा है कि किरण को अपनी सीट राजसमंद, जहां से कि वे अभी विधायक हैं, अब बहुत मुफीद नजर नहीं आती।
आपको याद होगा कि पिछले दिनों पार्टी वरिष्ठ नेता एवं पूर्व गृह मंत्री गुलाब चंद कटारिया की प्रस्तावित लोक जागरण अभियान यात्रा को लेकर पार्टी में जो आग लगी थी, वह राजसमंद में ही सुलगी थी। कटारिया की यात्रा के सिलसिले में राजसंमद जिला भाजपा की बैठक में जम कर हंगामा हुआ। कटारिया की धुर विरोधी राजसमंद विधायक श्रीमती किरण माहेश्वरी और भीम विधायक हरिसिंह ने यात्रा कड़ा विरोध किया और यात्रा को काले झंडे दिखाने तक की धमकी दी गई। हालात धक्का-मुक्की तक आ गए तो किरण फूट-फूट कर रो पड़ी। इस घटना में यह बात रेखांकित हुई थी कि जिस इलाके की वे विधायक हैं, वहीं की स्थानीय इकाई यदि उनके विरोधी कटारिया का साथ देती है, तो इससे शर्मनाक बात कोई हो ही नहीं सकती। मौके पर खींचतान कितनी थी, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रदेश भाजपा महासचिव सतीश पूनिया तक मूकदर्शक से किंकर्तव्यविमूढ़ बने रह गए। मामला जयपुर और दिल्ली तक पहुंचा तो भाजपा में भूचाल ही आ गया और कटारिया को यात्रा स्थगित करनी पड़ गई। नतीजतन यही समझा गया कि किरण ज्यादा पावरफुल साबित हुई हैं, मगर धरातल पर उनकी कमजोरी भी उजागर हो गई। यद्यपि अब कटारिया को मना लिया गया है और वे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे की सुराज संकल्प यात्रा में पूरा साथ दे रहे हैं, मगर जमीनी हकीकत ये है कि मेवाड़ अंचल में कटारिया व किरण के बीच बंटे कार्यकर्ताओं के मन की खटास कम नहीं हुई है। ऐसे में संभव है किरण राजसमंद से चुनाव लडऩे की रिस्क नहीं लें। इसी कारण यह चर्चा है कि वे कोई और अनुकूल सीट की तलाश में हो सकती हैं।
दिलचस्प बात ये है कि इस चर्चा को इस कारण और बल मिला है, क्योंकि उनका अजमेर में आना-जाना बढ़ गया है। यद्यपि इसके पीछे तर्क ये दिया जा सकता है कि उन्हें पार्टी ने जिम्मेदारी सौंपी है, मगर जितनी बारीकी से वे यहां काम कर रही हैं, उससे स्थानीय भाजपाइयों को संदेह होता है कि कहीं उनकी अजमेर उत्तर की सीट पर तो नजर नहीं है, जहां यूं तो मौजूदा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी की टिकट पक्की मानी जाती है, मगर भाजपा का एक बड़ा धड़ा उनकी टिकट कटवाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाए हुए है।
जहां तक इस सीट पर पकड़ का सवाल है, लोकसभा चुनाव लड़ चुकने के कारण उन्हें अच्छी तरह पता है कि यहां कितनी पोल है। उन्हें यह भी जानकारी है कि कौन सा नेता व कार्यकर्ता काम का है और कौन सा नहीं। इसके अतिरिक्त अजमेर उत्तर में उनकी परफोरमेंस भी ठीक रही। हालांकि लोकसभा चुनाव व विधानसभा चुनाव के समीकरणों में काफी अंतर होता है, फिर भी इनके आंकड़ों पर नजर डालें तो लोकसभा चुनाव में भाजपा की बढ़त में इजाफा हुआ था। विधानसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस से 688 वोट अधिक हासिल किए, जबकि लोकसभा चुनाव में बढ़त का आंकड़ा 2 हजार 948 तक पहुंच गया। विधानसभा चुनाव में भाजपा के प्रो. वासुदेव देवनानी को 41 हजार 905, जबकि कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को 41 हजार 219 वोट हासिल हुए। लोकसभा चुनाव में भाजपा का मत बढ़ा। कांग्रेस के सचिन पायलट को 39 हजार 241, जबकि भाजपा की किरण माहेश्वरी को 42 हजार 189 वोट मिले थे। कुल मिला कर किरण को ये लग सकता है कि अगर उन्हें यह सीट मिल जाए तो वे जीत सकती हैं। हालांकि उन्हें यहां से टिकट मिलना दूर की कौड़ी है, मगर भाजपाइयों में जिस प्रकार की खुसर-पुसर हो रही है, उससे तो इसी बात के संकेत मिल रहे हैं कि वे अजमेर में विशेष रुचि ले रही हैं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 3 जुलाई 2013

जैन साहब, क्या दीप दर्शन व डॉ. गोखरू प्रकरणों के प्रमाण भी जुटाएंगे?

राजस्थान प्रदेश के सह-प्रभारी एवं पूर्व सांसद किरीट सोमैया ने हाल ही अपने अजमेर प्रवास के दौरान अजमेर में हो रहे घोटालों के प्रमाण एवं दस्तावेज जुटाने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है, जिसका संयोजक यूआईटी के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन को बनाया गया है और सदस्य के रूप में यूआईटी के पूर्व ट्रस्टी अरविंद शर्मा गिरधर, अरविंद यादव, शरद गोयल तथा तुलसी सोनी शामिल किए गए हैं।
अव्वल तो अब तक जो भी घोटाले सामने आए हैं, वे सब कानूनी प्रक्रिया से गुजर रहे हैं। विधायक वासुदेव देवनानी ने तो सोमैया की मौजूदगी में हुई भाजपा नेताओं की बैठक में बाकायदा जिला पुलिस मुख्यालय, शिक्षा बोर्ड, न्यायपालिका तथा यूआईटी में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रकरणों पर जानकारी दी। ऐसे में सवाल ये उठता है कि धर्मेश जैन कौन से नए घोटाले सामने लाएंगे? हां, उन्होंने यूआईटी का मामला जरूर पिछले दिनों उठाया था और करोड़ों के घोटाले का आरोप लगाया, मगर उस बारे में आज तक एक की भी तथ्यात्मक जानकारी मीडिया के सामने उजागर नहीं की। यह बात दीगर है कि जैन के आरोप के चंद दिन बाद ही यूआईटी में लैंड फॉर लैंड मामले में रिश्वत मांगे जाने का मामला उजागर हो चुका है और यूआईटी सदर नरेन शहाणी तो इस्तीफा तक देना पड़ा है।
खैर, अपुन तो उससे भी बड़ा सवाल उठा रहे हैं। क्या धर्मेश जैन अजमेर के दीप दर्शन जमीन घोटाले में कुछ भाजपाइयों के शामिल होने के बारे में भी तथ्य जुटा कर पार्टी को बताएंगे? क्या है उनमें इतनी हिम्मत? यहां आपको बता दे कि इस बारे में जब सोमैया से पूछा गया तो वे इसका कोई जवाब नहीं दे पाए और यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि यदि भाजपाइयों ने भ्रष्टाचार किया होता तो, गहलोत उन्हें अब तक कई बार जेल भेज चुके होते। समझा जा सकता है कि इतने चर्चित मामले में, सोमैया की चुप्पी की क्या वजह हो सकती है?
दूसरा सवाल। क्या वे जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के हृदयरोग विभाग के प्रमुख और प्रमुख भाजपा नेत्री व जैन के कार्यकाल में ट्रस्टी रहीं श्रीमती कमला गोखरू के पति डॉ. राजेन्द्र गोखरू द्वारा मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना की धज्जियां उड़ाने और अपने भाई को फायदा पहुंचाने के आरोपों के तथ्य भी जुटाएंगे? कहने की जरूरत नहीं है कि इस प्रकरण में भाजपा ने अब तक पूरी चुप्पी साध रखी है।
बहरहाल, धर्मेश जैन को न्यास अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद संभवत: यह पहली बड़ी जिम्मेदारी पार्टी ने दी है। वरना उनके साथी नेताओं ने तो उन्हें हाशिये पर रखने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। सच तो ये है कि वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की एक मात्र दावेदार श्रीमती वसुंधरा राजे की जल्दबाजी के पीडि़त रहे हैं। पिछले कार्यकाल में उन्होंने सीडी प्रकरण में बिना जांच-पड़ताल किए ही उनसे इस्तीफा ले लिया था। बाद में कांग्रेस राज में जा कर उनको क्लीन चिट मिली। न्यास अध्यक्ष पद का कार्यकाल पूरा न कर पाने का मलाल उन्हें आज तक है। उनकी ओर शुरू किए गए विकास कार्य आज धूल फांक रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर