मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

सेलिब्रिटी बनते जा रहे हैं एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह

यह शीर्षक पढ़ कर आप चौंक गए होंगे। भले ही आप यकीन करें या न करें, मगर यह सच है कि अजमेर के एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह एक सेलिब्रिटी बनने की ओर अग्रसर हैं। आप सोच रहे होंगे कि वे एक दबंग एसपी तो हैं, जो उन्होंने अपने काम करने के तौर-तरीके से साबित किया है, मगर अजमेर से ही उनकी सेलिब्रिटी बनने की यात्रा भी आरंभ हो चुकी है, ऐसा कैसे संभव है?
जी हां, लॉक डाउन के दौरान उन्होंने जो सख्ती बरती, वह तो उनकी दहशत व लोकप्रियता का कारण बनी ही है, मगर तीन सेलिब्रिटीज दुनिया की सबसे छोटी लडकी नागपुर निवासी 29 साल की ज्योति आमगे, कॉमेडियन राजा एंड रेंचो और सारेगामापा 2018-19 की विनर इषिता ने उनके नाम को रेखांकित करके जो वीडियो जारी किए हैं, वे साबित करते हैं कि अब वे भी उसी पंक्ति में शुमार होने जा रहे हैं। यह एक सामान्य बात नहीं है कि बहुत महंगे सेलिब्रिटी किसी एसपी के हवाले से लॉक डाउन में घरों से न निकलने की अपील करें। स्वाभाविक है कि या तो वे उनके सुपरिचित हैं और या फिर वे उनकी कार्यशैली से इतने प्रभावित हुए हैं कि इस प्रकार का वीडियो बनाने से अपने आपको रोक न पाए हों। इन सेलिब्रिटीज के वीडियो संदेश अजमेर पुलिस राजस्थान नामक फेसबुक पर मौजूद हैं। वहां एक वीडियो वह भी नजर आ जाएगा, जिसमें खुद उन्होंने अजमेर वासियों को सीधे संबोधित किया है। अजमेर के एक पत्रकार व एडवोकेट डॉ. मनोज आहुजा ने भी एक वीडियो उनको समर्पित किया है, जो इस बात का प्रमाण है कि वे महज एक एसपी ही नहीं, बल्कि कोरोना वॉरियर्स के हीरो बन चुके हैं। इन चारों वीडियो की लिंक इस आलेख के आखिर में दिए गए हैं, जिन्हें आप क्लिक करके देख सकते हैं।
उनके लोकप्रिय होने का श्रीगणेष तब हुआ, जब उन्होंने अजमेर नगर परिशद के भूतपूर्व सभापति स्वर्गीय वीर कुमार के चेले मेयर धर्मेन्द्र गहलोत सहित लगभग सभी काउंसलर्स को लॉक डाउन तोड कर राजनीति नहीं करने देने के लिए हडकाया। यह एक गुत्थी ही रह जाएगी कि गहलोत अपमान की घूंट क्यों पी गए। खैर, राजस्थान पत्रिका व स्वामी न्यूज फेसबुक लाइव पर एसपी कोषाबाषी देने वालों की झडी लग गई। हालांकि बाद में गहलोत के समर्थकों ने भी आम आदमी की आवाज उठाने के लिए उनकी तारीफ करने में कोई कसर बाकी नहीं छोडी।
मौजूदा समय में इन्फोर्मेशन टैक्नॉलोजी आधारित सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके ने एसपी जता दिया है कि वे पुलिस में नई व त्वरित कार्यशैली में विश्वास रखते हैं। अपने अधीनस्थ पुलिस कर्मियों को संबोधन के साथ-साथ व उसीके बहाने उन्होंने आम जनता को भी आगाह करने के लिए ऑडियो क्लिप्स का इस्तेमाल करने में फुर्ती दिखाई है। हालांकि उन संदेशों की विषय वस्तु के साथ जुड़े कुछ आवृत तथ्य अलग से चर्चा का मुद्दा हो सकते हैं, मगर पूरी पारदर्शिता के साथ सीधे संवाद करना वक्त की महती जरूरत थी, जो एक मिसाल के रूप में स्थापित हो गया। आप गौर से सुनेंगे तो पाएंगे कि उन्होंने सख्त शब्द चित्र की नक्काशी में बड़ी नफासत के साथ संवेदनाओं का रंग बारीक तूलिका से सजाया है, जो उनके नारियल की तरह भीतर से संवेदनशील होने आभास कराता है। ऐसा नहीं है कि उनकी अब तक की रोशनाई से भरी यात्रा में उनकी पद चापों के नीचे अतिरिक्त सख्ती की कहानियां दफन नहीं हैं, मगर तस्वीर का दूसरा रुख ये भी तो है कि लातों के भूत बातों से मानते कहां हैं। विशेष रूप से तब जब कि जरा सी आवारगी खुद की जान पर तो बन ही आए, दूसरों की जान भी आफत में डाल दे। फिर गेहूं के साथ घुन भी तो पिसता ही है।
कोरोना के खतरे के बीच जंगे मैदान में उतरे हुए पत्रकारों की स्वास्थ्य जांच करवाना उनके मीडिया फ्रेंडली होने का सबूत है। इसके लिए ऊर्जावान पत्रकार मनवीर सिंह व अभिजित दवे भी साधुवाद के पात्र हैं, जिन्होंने बखूबी संयोजन किया। जाने-माने फोटोग्राफर दीपक शर्मा व उनके सहयोगियों के जरिए लॉक डाउन के दौरान ड्रॉन के जरिए अजमेर की विहंगम दृश्यावली को केमरे में कैद करके इतिहास की धरोहर बनाना एसपी साहब की सहमति के बिना संभव नहीं था। हाल ही उन्होंने हवाई केमरे के जरिए निगरानी का जो षगल किया है, वह नवाचार की श्रेणी में गिना जा सकता है।
सबसे बड़ी बात ये है कि उनके तेवरों की जमीन पर खुद ब खुद ऐसा नेरेटिव खड़ा हो गया है कि प्रशासनिक शक्तियों से संपन्न जिला कलैक्टर विश्वमोहन शर्मा अपेक्षाकृत कम अलर्ट हैं। और यही वजह है कि शर्मा बहुत अधिक आलोचना के शिकार हो रहे हैं। अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने तो अजमेर के हॉट स्पॉट बनने के लिए सीधे-सीधे उनको ही जिम्मेदार ठहरा दिया। वे अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी सहित अन्य भाजपा व कांग्रेस नेताओं के निशानों को भी झेल रहे हैं। यह दीगर बात है कि उन पर अनेक जटिल व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी है, और इतने संकटापन्न काल में उनमें कमियां रहना स्वाभाविक है। अपेक्षाएं अत्यधिक हैं और संसाधन सीमित। उसी का नतीजा है कि फेसबुक पर इस मत ने भी स्थान पा लिया:- अजमेर को कप्तान साहेब ने बचाए रखा था। जिला कलेक्टर और अधिकारियों ने अपनी जिद्द के आगे किसी की नहीं सुनी।
ये शब्दावली पढ़ कर मुझे यकायक लगा कि एसपी साहब के चेहरे की चमक कहीं कलेक्टर साहब के धुंधले चित्र पर तो नहीं उभर कर आ रही।
बहरहाल, किसी का मत किसी के प्रति कैसा और क्यों है, यह अलग विषय है, मगर कुल जमा बात ये है कि एसपी कुंवर राष्ट्रदीप सिंह सुपर हीरो बनते जा रहे हैं। इसे अगर प्रोजेक्शन की संज्ञा दी जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, क्योंकि बोलने वाले के तो बेर भी बिक जाते हैं और मौन रहने वाले के सेब भी धरे रह जाते हैं। रहा सवाल मेरे मत का तो अपुन इस तरह के नेरेटिव के साथ नहीं हैं, चूंकि दोनों जिम्मेदार अफसरों की वर्क कल्चर्ज सर्वथा भिन्न है। दोनों की कोई तुलना नहीं हो सकती। हां, इतना जरूर है कि किसी भी टास्क की सफल पूर्णाहुति के लिए दोनों के बीच बेहतर तालमेल निहायत ही जरूरी है। यद्यपि मेरे पत्रकारिता के गुरुओं ने जो घुट्टी पिलाई, उसमें महिमामंडन की विधा का अर्क नहीं था, फिर भी मेरा मानना है कि किसी की वास्तविक तारीफ में कोई बुराई नहीं है और निरपेक्ष व सरकारात्मक आलोचना से भी पीछे हटे तो पत्रकारिता धर्म की पालना नहीं हो पाएगी।

-तेजवानी गिरधर
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शनिवार, 25 अप्रैल 2020

लॉक डाउन में नशे के आदी लोग बेहाल

नशे के विरोधी सभी सुधिजन से क्षमायाचना के साथ प्रस्तुत ये पोस्ट तस्वीर के दूसरे रुख की महज प्रस्तुति है। क्षमायाचना की भी वजह है। जमाना ही ऐसा है कि सच बोलने से पहले उसे बर्दाष्त न कर पाने वालों को नमस्ते करना जरूरी है। वस्तुत: यह सुव्यवस्था की ऐसी विसंगति पर रोशनी डालने कोशिश है, जो बुरी होते हुए भी साथ चली आई है। यह सरकार के स्तर पर तय नीति के धरातल पर कहीं न कहीं व्यावहारिक न होने का इशारा मात्र करती है।
सरकार ने लॉक डाउन के तहत ऐसी व्यवस्था की है कि आम आदमी बेहद जरूरी उपभोक्ता वस्तु, विशेष रूप से जीने के लिए आवश्यक खाद्य सामग्री से महरूम न रह जाए। दूध, सब्जी, किराने का सामान, दवाई इत्यादि की उपलब्धता बनी रहे, इस का पूरा ध्यान रखा गया है। तकरीबन एक माह से घरों में ही कैद रह कर सोशल डिस्टेंसिंग का काल व्यतीत करते लोगों के बीच से उठी रही एक गोपनीय मांग पर नजर पड़ी तो मैं अचंभित रह गया। वार्ड में नियमित रूप से खाद्य सामग्री का वितरण कर रहे एक पार्षद के किसी मुरीद ने उनसे कहा कि खाद्य सामग्री तो मिल रही है, पड़ी भी है, मगर थोड़ी दारु का भी इंतजाम कर दो ना। स्वाभाविक सी बात है कि पार्षद निरुत्तर हो गए।
खैर, इस मांग को गोपनीय की उपमा इसलिए दी कि क्यों कि आदमी ये तो सवाल खुलकर कर सकता है कि उसे राशन सामग्री समय पर क्यों नहीं मिल रही, लॉक डाउन को तोड़ कर मु_ियां तान सकता है कि खाद्य सामग्री के वितरण में भेदभाव क्यों हो रहा है, मगर ये मांग नहीं कर सकता कि उसे पीने को शराब चाहिए, खाने को गुटखा चाहिए, दम मारने को सिगरेट-बीड़ी चाहिए। वह ये गुहार नहीं लगा सकता कि नशे की लत पूरी न होने से वह बेहाल हो गया है। चिड़चिड़ा हो गया है। अवसाद में जी रहा है।
सीधी-सीधी सी बात है, सरकार की यह जिम्मेदारी तो है कि वह आपको भूखा न सोने दे, मगर नशे की वस्तुएं भी सुलभ करवाए, ये उसका ठेका नहीं, भले ही सामान्य दिनों में बाजार में बेचने के लिए ठेका या लाइसेंस भी उसी ने दिया हुआ है। वस्तुत: नशे के ये शौक आपके निजी हैं, उसका जिम्मा सरकार नहीं ले सकती। चूंकि नशे के ये उत्पाद स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं, इस कारण इस विषय पर मुंह खोलना ही अपराध बोध कराता है। पैरवी करो कि एक माह से बंद दुकान के दुकानदार की कि उसका सामान चूहे चट कर गए होंगे, मगर इस पर कलम कैसे चलाई जा सकती है कि लोग नशे का सामान न मिलने से त्रस्त हैं या तीन-चार गुना रेट में लेने को मजबूर हैं। यह बात दीगर है कि सोसायटी का एक बड़ा तबका इसका उपभोग करता है। आम आदमी क्या, नशे के हानिकारक होने से भलीभांति परिचित डाक्टर्स में से भी कुछ इनका उपभोग करते हैं।
उदाहण पेश है। कोई बीस साल पहले मेरे छोटे भाई को जब लीवर के पास आंत में केंसर डाइग्नोस हुआ तो उसे मुंबई के टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल में भर्ती करावाया गया। तब केंसर की रोकथाम के लिए इसी अस्पताल की ओर से टीवी पर विज्ञापन आया करता था कि सिगरेट-गुटखा स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। एक दिन मैं भौंचक्क रह गया, जब हास्पिटल के बाहर चाय-कॉफी व नाश्ते के रेस्टोरेंट में दूध लेने गया तो देखा कि एक डॉक्टर सिगरेट के कश लगा रहा है। गौर से देखा तो यह वही शख्स था, जो कि मेरे भाई के कॉटेज वार्ड का रेजीडेंट डाक्टर था। विरोधाभास की कैसी आत्यंतिक मिसाल। एक ओर जो अस्पताल कैंसर से बचाव व इलाज के लिए देश भर में प्रसिद्ध है, उसी का एक चिकित्सक यह परवाह नहीं कर रहा कि सिगरेट पीने से उसे भी कैंसर हो सकता है। ऐसा ही एक उदाहरण और। अजमेर में एक ऐसे सर्जन हयात हैं, जो सरकारी नौकरी में रहते ऑपरेशन की एवज में महंगी शराब की बोतल अपनी कार की डिक्की में रखवाया करते थे।
कहने का तात्पर्य ये कि नशे की वस्तुओं को भले ही त्याज्य कहा जाए, मगर इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि इसने समाज को अपने शिकंजे में कस लिया है। एक तबके के लिए जरूरी उपभोक्ता वस्तु बन गई है। क्या यह सही नहीं है कि हमारी व्यवस्था ने ही उसे पहले नषे का आदी होने के लिए स्वतंत्र कर रखा है, भले ही स्वास्थ्य के हानिकारक होने की चेतावनी के साथ। अब अगर हम रोक लगाएंगे तो वह कोसेगा ही।
नशे से दूर रहने वालों के ये बात गले में ही अटक सकती है, मगर धरातल की सच्चाई ये ही है। इस सच्चाई की कड़वाहट ये है कि नशे के आदी लोग अपनी मानसिक क्षुधा को शांत करने के लिए बड़ी भारी ब्लैक के शिकार हैं। उदाहरण के लिए पांच रुपए का एक गुटखा, जिसकी होलसेट रेट चार रुपए है और फैक्ट्री से तो दो रुपए में ही निकल रहा होगा, वह बीस रुपए में बिक रहा है। मिराज नामक तम्बाकू का दस रुपए का पाउच पचास रुपए में बेचा जा रहा है। ऐसा ही हाल शराब का है। शराब न मिलने से बौराए लोग हथकड़ व घटिया शराब पीने को मजबूर हैं। एक अहम बात ये है कि प्रतिबंध के कारण एक ओर जहां कालाबाजारियों के पौ बारह हैं, वहीं आम आदमी लुटने को मजबूर है। सरकार को राजस्व की हानि हो रही है, वो अलग। इसके लिए सरकारी तंत्र को इसलिए जिम्मेदार नहीं माना जा सकता, क्योंकि सीमित नफरी व संसाधनों में उसकी पूरी ताकत लॉक डाउन की पालना में लगी हुई है। बावजूद इसके जहां-जहां उसकी जानकारी में आया है, उसने पूरी सख्ती से कार्यवाही की भी है।
मेरे एक पत्रकार साथी डॉ. मनोज आहूजा, जो कि वकील भी हैं, ने जमीनी हकीकत पर कलम चलाई है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को खत लिख कर उन्होंने बताया है कि लोग शराब नहीं मिलने से तंग आ चुके हैं। 25 रुपये में मिलने वाला क्वार्टर 200 रुपये में बिक रहा है। जिनके पास दो सौ रुपए नहीं हैं, वे नकली शराब खरीद रहे हैं। हरियाणा ब्रांड की शराब आने लगी है मार्केट में। इनसे मरने वाले कहीं कोरोना के आंकड़ों को पीछे न छोड़ दें। उन्होंने तर्क दिया है कि शराब बंदी लागू होने पर भी सरकार ऐसे लोगों को शराब मुहैया करवाती है, जो एडिक्ट हैं। ऐसे में उन्होंने शराब बंदी के फैसले को अव्यावहारिक बताया है। इस विषय पर चर्चा न कर पाने की विवशता का इजहार करते हुए कहते हैं कि नशा सब छुप कर ही करते हैं। सब जानते हैं कि ये सामाजिक बुराई है, इसलिए बोल नहीं पा रहे।
सुरा के आदी लोगों की पैरवी करते हुए अजमेर जिला कांग्रेस कमेटी सीए प्रकोष्ठ के अध्यक्ष सीए विकास अग्रवाल ने भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व प्रदेश आबकारी विभाग के संयुक्त सचिव ओम राजोतिया को पत्र लिख कर देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को खुलवाने के आदेश जारी करने की मांग की है। अग्रवाल ने सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया है कि पूरे प्रदेश में चोरी-छिपे शराब की सप्लाई मनमाने दामों पर की जा रही है, जिसकी गुणवत्ता पर भी भरोसा नहीं किया जा सकता है। कई जगह पर तो अवैध व हथकड़ शराब बेची जा रही है, जिससे पीने वालों की जान खतरे में पड़ गई है। जो लोग शराब का नियमित सेवन करते हैं, उनको शराब नहीं मिलने से उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हो रहा है। रात में नींद नहीं आने, चिड़चिड़ापन व हाइपर्टेंशन की प्रमुख समस्या हो गयी है। अत: जैसे दैनिक उपयोग की वस्तुओं को छूट दे रखी है, वैसे ही देशी व अंग्रेजी शराब की दुकानों को भी एक समय सीमा के तहत खोलने की इजाजत दी जानी चाहिए।
बहरहाल, कोराना जैसी वैश्विक महामारी में एक ओर जहां लोगों की जान पर बन आई है, सरकार ही पहली प्राथमिकता जान बचाने की है। वही बेहतर समझती है कि वर्तमान में नशीली वस्तुओं पर रोक क्यों व कितनी जरूरी है, मगर तस्वीर का दूसरा पहलु भी संज्ञान में रहना चाहिए।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

गुरुवार, 23 अप्रैल 2020

कोरोना से जंग अभी बाकी है, आपस की जंग फिर कर लेना

अजमेर शहर भर में लगभग एक माह का लॉक डाउन और चार थाना क्षेत्रों में कफ्र्यू भोगने के साथ पांच के अतिरिक्त नए पोजीटिव सामने नहीं आने से उम्मीद जगी थी कि अजमेर भी भीलवाड़ा का तरह मॉडल बनने जा रहा है, मगर वह दिवा स्वप्न एक झटके में रेलवे म्यूजियम ने तोड़ दिया। उसके बाद मुस्लिम मोची मोहल्ले ने तो पूरे सिस्टम की पोल ही खोल कर रख दी। अर्थात जो क्रेडिट हम लेने जा रहे थे, वह भगवान भरोसे थी। जमीन पर  जो होना था, वह किया ही नहीं गया। नतीजा ये निकला कि सुप्त पड़ा कोराना का बम फट गया। बेशक बदइंतजामी की मार खाने के बाद अब हम चाक-चौबंद होने लगे हैं, मगर इस महामारी से निपटने के प्रति एकजुट होने की बजाय हम आरोप-प्रत्यारोपों में उलझ रहे हैं। जमीन पर आम जनता व दुकानदारों को राहत देने की बजाय, राजनीति करने पर उतर आए हैं। कभी एसपी और मेयर टकरा रहे हैं, तो कभी कांग्रेस और भाजपा। कभी फूड पैकेट्स के वितरण में भेदभाव की आवाज बुलंद रही है तो कभी जनप्रतिनिधियों को नहीं गांठने का आक्रोष उबल रहा है।
इस गंभीर मसले का सबसे अहम पहलु ये है कि कफ्र्यू के बाद भी अंदर ही अंदर पक रहे कोरोना मवाद का हमें पता ही नहीं लगा तो इसका मतलब साफ है कि कफ्र्यू पूरी तरह से निरर्थक हो गया। कफ्र्यू के दौरान हमें जो एक्ससाइज करनी थी, कहीं न कहीं वह हमने ठीक से की नहीं। एक भी मरीज सामने न आने पर केवल आत्मविमुग्ध हो कर चैन की बांसुरी बजाते रहे। बेशक... बेशक, कफ्र्यू के दौरान भी लोगों ने सोशल डिस्टेंसिंग की अवहेलना की, वह सोचनीय है, मगर साथ ही केवल उन लोगों को जाहिल ठहराना भी हमारी समझ की त्रुटि कहलाएगी, जो उन तंग गलियों में एक ही कमरे में चार से आठ की संख्या में रहने को मजबूर हैं।
गर हम ये कह कर खुद को बरी किए देते हैं कि हमने तो कफ्र्यू लगा दिया था, लोगों ने ही पालना नहीं की, तो इसका अर्थ ये है कि कफ्र्यू की मूल अवधरणा को समझने में हम चूक कर रहे हैं। अगर हम सभ्य कहलाने वाले लोग इतने ही अनुशासित नागरिक होते तो केवल लाउड स्पीकर पर घर से बाहर न निकलने की मुनादि करवाने से काम चल जाता। साथ में डंडे की फटकार की जरूरत ही क्या होती? अर्थात हमारी व्यवस्था उतनी चाक चौबंद नहीं थी, जितनी एसपी के सख्त चेहरे पर झलकती है।
अगर इस प्रकार मुस्लिम मोची मोहल्ला अचानक हॉट सेंटर बन कर सामने आया है तो 15 लाख लोगों की स्क्रीनिंग के दावे पर खुद ब खुद बड़ा सवालिया निशान लगता है। इलाके का एक मरीज अगर खुद अवतरित नहीं होता तो हम किसी बड़ी आपदा के मुहाने पर बैठ कर खैरियत मना रहे होते। इसी प्रकार रेलवे म्यूजियम शेल्टर होम में भी लापरवाही की चादर ओढ़े बैठे थे। सोशल डिस्टेंसिंग की कामयाबी अगर हम खुले रोड्स और बंद बाजारों में पसरे सन्नाटे को देख कर संतुष्ट हैं, तो हम पूरी तरह से गलत हैं। लॉक डाउन की कामयाबी का पैमाना बड़ी तादाद में वाहनों की जब्ती व चालान को ही मान लिया जाए तो वह भी एक भ्रम है। कितने दुर्भाग्य की बात है कि पूरे उत्तर भारत में संपूर्ण साक्षर घोषित हुए अजमेर के 16 हजार से ज्यादा वाहन चालक आवारा की श्रेणी में दर्ज हो चुके हैं। उसकी अपनी अलग कहानी है। असल जरूरत शेल्टर होम में सोशल डिस्टेंसिंग की थी, जहां एक साथ डेढ़ सौ खानाबदोशों को ठहराया गया था। घटना स्थल का दौरा कर चुके मीडिया कर्मियों का कहना है कि कई दिन तक न नहाने के कारण वे बदबू मार रहे थे।
अजमेर के प्रति दिल में दर्द रख कर दिन-रात दौड़ रही सामाजिक कार्यकर्ता श्रीमती कीर्ति पाठक की फेसबुक पर की गई टिप्पणी काबिले गौर है कि अगर अजमेर को होट स्पॉट बनने के लिए कोई दोषी है, तो वो सिर्फ और सिर्फ हम नागरिक हैं। पुलिस कब तक एक ही दरवाजे के आगे गश्त लगाएगी? हम स्व अनुशासित जीवन नहीं जी रहे। मगर साथ ही स्वीकार करती हैं कि एक ही जगह से ये बीमारी इसी लिए परवान चढ़ रही है, क्योंकि यहां संकड़ी गालियां हैं, एक ही कमरे में कई-कई लोग रहते हैं और फिजिकल डिस्टेंसिंग नहीं हो पाती / नहीं रखते।
इस मंजर के ठीक उलट अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल का सार्वजनिक बयान भी सोचने को विवश करता है। संकट के वक्त प्रशासनिक तौर पर समस्या से निपटने के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार जिला कलेक्टर पर हमला करते हुए पूरी समस्या के लिए उन्हें ही दोषी करार देना सहज है, कुछ लोग उसे दिलेरी की संज्ञा भी दे सकते हैं, आपकी भावना वाजिब भी हो सकती है, मगर ऐसा करके क्या हम अपने ही टीम लीडर का हौसला पस्त नहीं कर रहे। हो सकता है कि आपकी उनसे मतभिन्नता हो अथवा किसी निर्णय से असहमति हो, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं कि पूरा ठीकरा ही उन पर फोड़ दिया जाए। श्रीमती भदेल के आक्रामक रुख से यह साफ झलकता है कि प्रशासन व जनप्रतिनिधियों के बीच तालमेल का अभाव है। उसका नतीजा है कि सरकार की ओर से प्रभारी सचिव भवानी सिंह देथा को मध्यस्थता करनी पड़ी। तालमेल की बात चली तो यह कहते हुए भी अफसोस होता है कि तकरीबन 16-16 साल से लगातार विधायकी करने वाले जनप्रतिनिधि, दो बार मेयर रह चुके शख्स और एक-एक बार विधायक रह चुके नेताओं को इतना दरकिनार करना अच्छे लोकतंत्र की निशानी नहीं है।
जनसहभागिता से खाने के पैकेट व सूखी खाद्य सामग्री बांटने के लिए मुक्तहस्त पास जारी किए जाने का दुरुपयोग भी विचारणीय है, मगर जरूरतमंद लोगों की मदद में उनके योगदान को अजमेर की सद्भावी संस्कृति के रूप में इतिहास में याद किया जाएगा। प्रशासन तो बहुत बाद में चेता, वरना लोग भूखे ही मर जाते।
एक जुट हो कर इस गंभीर समस्या से मुकाबला करने के वक्त कुछ अति समझदार बुद्धिजीवी कलेक्टर व एपी को भिड़ाने से नहीं चूक रहे। सोशल मीडिया पर इस किस्म की पोस्टें पसरी पड़ी हैं। यह साजिशन हो रहा है या अनायास पता नहीं, मगर धु्रवीकरण तो झलक ही रहा है। बतौर बानगी देखिए एक पोस्ट:- अजमेर को कप्तान साहेब ने बचाए रखा था। जिला कलेक्टर और अधिकारियों ने अपनी जिद्द के आगे किसी की नहीं सुनी। कोई सिंघम की जयजयकार कर रहा है तो कोई जिला कलेक्टर को निकम्मा साबित करने में जुटा है। बेशक हमें अभिव्यक्ति की आजादी है, मगर इसका अतिरेक ऐसा आभास देता है, मानो हमें सर्टिफिकेट जारी करने का लाइसेंस मिला हुआ है। सरकार को सब कुछ पता है कि कौन क्या कर रहा है, उसका भी अपना तंत्र है, मगर संकट के वक्त वह पहली प्राथमिकता समस्या से निपटने पर दे रही है। तभी तो चार आईएएस को सहयोग के लिए लगाया है, तभी तो उच्चाधिकारियों को दौरा कर समन्वय बैठाया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

मोदी को जैन ने जरूर बताए होंगे धरातल के हालात

अजमेर वासियों के लिए यह अत्यंत ही सुखद बात है कि देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अजमेर नगर सुधार न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन के पुराने परिचित हैं। इसी कारण मोदी ने चला कर उनको फोन किया। यह कोई छोटी मोदी बात नहीं कि मोदी ने फोन करके जैन से कुशलक्षेम पूछी, लॉक डाउन के तहत किए गए इंतजामात का पता किया व अजमेर वासियों के हाल-चाल जाने।
जानकारी के अनुसार जैन ने मोदी को बताया कि एसपी कुंवर राष्ट्रदीप  ने लॉक डाउन की सख्ती से पालना करवाई है, जो कि सराहनीय है। अजमेर वासियों को उम्मीद है कि उन्होंने लॉक डाउन की सफलता के साथ धरातल पर आम लोगों को हो रही दिक्कतों से भी अवगत कराया होगा। सर्वविदित है कि जैन सदैव अजमेर के दु:ख-दर्द व विकास पर आवाज बुलंद करते रहते हैं। जैन केवल राजनीतिक नेता ही नहीं, बल्कि प्रमुख व्यापारी व सुपरिचित बुद्धिजीवी हैं,  ऐसे में यह उम्मीद वाजिब ही है कि उन्होंने व्यापारियों की समस्याओं का भी जिक्र किया होगा कि वे कितने परेशान हैं। कालाबाजारियों के प्रति प्रशासन के सख्त रवैये के बावजूद जम कर हो रही कालाबाजारी से भी अवगत कराया होगा। संभव है उन्होंने फूड पैकेट्स को लेकर निगम मेयर धर्मेन्द्र गहलोत सहित सभी पार्षदों के जिला प्रशासन से हुए टकराव की भी जानकारी दी होगी। मेयर गहलोत की ओर से कायड़ विश्राम स्थली को क्वारेंटाइन सेंटर बनाए जाने की मांग का भी जिक्र किया होगा। आशा है मोदी अजमेर के हालात जान कर धरातल के हालात सुधारने के निर्देश जारी करेंगे। यह एक संयोग है कि जैन की मोदीजी से बात हुई, उसके बाद ही मुुस्लिम मोची मोहल्ले में एक साथ पैंतीस-पैंतीस मरीज सामने आ गए, अन्यथा उन्हें यह भी मौका मिलता कि लगातार कफ्र्यू के बाद भी हालात बेकाबू कैसे हो गए, उसके लिए कौन जिम्मेदार है?

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

क्या बीमारियां यकायक कम हो गई हैं?

लॉक डाउन की वजह से अजमेर संभाग के सबसे बड़े अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय सहित अन्य सरकारी डिस्पेंसरियों में विभिन्न छोटी-मोदी बीमारियों के मरीजों की संख्या कम हो गई है। इससे ऐसा आभास होता है कि क्या कोराना की वजह से अन्य सामान्य या असामान्य बीमारियों का प्रकोप समाप्त प्राय: हो गया है। यह विषय सोचने को तो मजबूर करता ही ही है, आखिर वजह क्या है?
कहते हैं न, मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। जितनी खोपडिय़ां, उतने ही विचार। इस विषय पर भी लोगों के भिन्न मत हैं। एक बुद्धिजीवी ने इस स्थिति को कुछ इस प्रकार बयां किया है:-
क्या वाकई इंसान बार-बार बीमार होता है?
सभी अस्पतालों की बन्द हैं। आपातकालीन वार्ड में कोई भीड़ नहीं है। कोरोना के मरीजों के अलावा कोई नए मरीज नही आ रहे। सड़कों पर वाहन न होने से दुर्घटनाएं नहीं हैं। हार्ट अटैक, ब्लड प्रेशर, ब्रेन हैमरेज के मामले अचानक बहुत कम हो गए हैं। अचानक ऐसा क्या हुआ है कि बीमारियों के केसेस में इतनी गिरावट आ गई? यहां तक कि श्मशान में आने वाले मृतकों की संख्या भी घट गई है। क्या कोरोना ने सभी अन्य रोगों को नियंत्रित या नष्ट कर दिया है? नहीं, बिल्कुल नहीं। दरअसल अब यह वास्तविकता सामने आ रही है कि जहां गंभीर रोग न हो, वहां पर भी डॉक्टर उसे जानबूझ कर गंभीर स्वरूप दे रहे थे। जब से भारत में कॉर्पोरेट हॉस्पिटल्स, टेस्टिंग लैब्स की बाढ़ आई, तभी से यह संकट गहराने लगा था। मामूली सर्दी, जुकाम और खांसी में भी हजारों रुपये के टैस्ट के लिए लोगों को मजबूर किया जा रहा था। छोटी सी तकलीफ में भी धड़ल्ले से ऑपरेशंस किये जा रहे थे। मरीजों को यूं ही आईसीयू में रखा जा रहा था। अब कोरोना आने के बाद यह सब अचानक कैसे बन्द हो गया? इसके अलावा एक और सकारात्मक बदलाव आया है। लॉक डाउन की वजह से रेस्टोरेंट व ठेले बंद हो गए हैं। केवल घर का ही खाना मिल रहा है। कदाचित इसका भी असर हो कि छोटी बीमारियां नहीं हो रहीं। यह पोस्ट सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रही है, लेकिन साथ ही रिपोर्ट भी हो रही है। मेडिकल से जुड़े लोगों को यह स्वाभाविक रूप से बुरी लगती होगी कि उनकी पोल खुल रही है या उनकी छवि खराब की जा रही है।
इस पोस्ट में मौलिक रूप से कुछ बातें तो सही हैं, लेकिन इसे पूरी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता। इस बारे में मैने एक मेडिकल स्टोर मालिक से बात की तो उन्होंने दो बातें बताईं। एक तो ये कि सिरदर्द, पेट दर्द, फोड़ा-फुंसी जैसे रोगों के मरीजों की संख्या कम हुई है। वजह ये कि घर से दुकान तक आने के फासले में पुलिस की स्क्रीनिंग से बचने के लिए लोग घर पर ही देसी इलाज कर रहे हैं। खासकर सर्दी-जुकाम-बुखार के मरीज अस्पताल जाने से ही घबरा रहे हैं और मेडिकल की दुकान से ही दवाई ले जा रहे हैं। दूसरा ये कि जो लोग पहले हर छोटी-मोटी बीमारी के लिए डॉक्टर के पास जा कर मेडिकल टेस्टिंग से गुजरते थे, वे उससे बचने के लिए मेडिकल की दुकानों से ही दवाई ले कर जा रहे हैं। जिन को कुछ गंभीर बीमारी आरंभ हुई है तो लॉक डाउन खुलने का इंतजार कर रहे हैं, ताकि बाद में ठीक से इलाज करवाया जा सके।
एक डॉक्टर से पूछने पर उन्होंने बताया कि पहले हर छोटी-मोटी बीमारी का मरीज सीधे सरकारी अस्पताल या डिस्पेंसरी का रुख करता था, चूंकि उसे नि:शुल्क दवा योजना का लाभ मिल रहा था। अब अव्वल तो वह घर पर ही नुस्खे आजमा रहा है। ज्यादा तकलीफ है तो अस्पताल तक जाने की परेशानी व साधन के अभाव के कारण आसपास के ही किसी डॉक्टर से दवाई ले रहा है। इससे ऐसा प्रतीत होने लगा है कि बीमारियां कम हो गई हैं।  हां, उन्होंने यह आशंका जरूर जताई कि लॉक डाउन खुलने पर मानसिक अवसाद के बीमारों की संख्या बढ़ सकती है। जो लोग तंबाकू, गुटखा, सिगरेट, शराब आदि के आदी हैं, वे फिलहाल दुगुने-तिगुने दाम को भुगत  कर सीमित नशा कर रहे हैं, लेकिन नशे की सामग्री कम मिलने के कारण कुछ तो सुधर जाएंगे ओर कुछ अवसाद से ग्रस्त हो जाएंगे। उनमें कई विकृतियां उत्पन्न हो सकती हैं।
ये पंक्तियां लिखते समय एक लेखक की राय याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि सरकार को शराब की दुकानें खोलने पर विचार नहीं करना चाहिए। जब लोग 21 दिन लॉक डाउन के कारण बिना शराब पीये जी सकते हैं तो आगे भी जी ही लेंगे। जबकि धरातल का सच ये है कि पीने के आदी लोग कहीं न कहीं से महंगा जुगाड़ करके गला तर कर रहे हैं। पीना किसी ने बंद नहीं किया है। प्रसंगवश, मुझे यह हास्य करने का जी कर रहा है कि जब अस्पतालों के खुले बिना भी आदमी जी सकता है, तो क्यों न उनको बंद हीक कर दिया जाए।
रहा सवाल श्मशानों में अंत्येष्टि की संख्या कम होने का तो बात तो चौंकाने वाली है। शायद मरणासन्न लोग लॉक डाउन खत्म होने का इंतजार कर रहे हैं। वैसे सामान्य रूप से मरने वालों की संख्या कम जरूर हुई है, मगर मरने वाले मर रहे हैं। पता इसलिए नहीं लग रहा क्योंकि उठावने के विज्ञापन कम छप रहे हैं। लॉक डाउन के कारण उठावने किए ही नहीं जा रहे।

-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

सख्त एसपी व गुस्सैल मेयर को सलाम

जरूरतमंदों को भोजन के पैकेट बांटने की व्यवस्था खत्म करने के विरोध में कलेक्ट्रेट पर पार्षदों के प्रदर्शन का फेसबुक लाइव चलने के कारण पूरा शहर इस घटना से सीधे जुड़ा हुआ था। लोग दिल थाम कर सारा नजारा देख रहे थे। खतरा बना हुआ था कि कहीं पार्षदों व पुलिस के बीच तनातनी बढ़ी तो पूरा शहर आंदोलित न हो जाए। इस बीच टीका-टिप्पणियां भी खूब हुईं। कोई एसपी कुंवर राष्ट्रदीप की सख्ती बरतने पर भूरि-भूरि तारीफ कर रहा था तो कोई जनता की खातिर सड़क पर आने के लिए मेयर धर्मेन्द्र गहलोत व कांग्रेस-भाजपा पार्षदों पीठ थपथपा रहा था। बेशक लॉक डाउन के कारण घरों में कैद लोगों में पार्षदों द्वारा लोक डाउन का उल्लंघन करने के लिए आलोचना करने वालों की तादाद ज्यादा थी। यह तो अच्छा हुआ कि एसपी व मेयर ने चतुराई का परिचय दिया, दोनों पक्षों ने संयम बरता व गिरफ्तारी पर सहमति बन गई, वरना हालात बिगडऩे पर पूरे शहर को कफ्र्यू भी भुगतना पड़ सकता था।
घटना का पटाक्षेप होने के बाद भी परस्पर विरोधी टिप्पणियों का सिलसिला जारी रहा। एसपी के पक्ष में आई एक टिप्पणी आपकी नजर पेश है:-अनुशासन की अवेहलना, झुंड बना कर पहुंच गए यार, हद है, शर्मसार हुआ अजमेर, इन लोगों ने तो मर्यादा तोड़ी पर आप मर्यादा में रहे, नमन है। अजमेर सिंघम ने उतारा राजनीति का भूत, इस समय राजनीति नहीं करने दूंगा, सटीक जवाब। यह बिलकुल सही है कि पार्षदों के एक साथ एकजुट हो कर कलेक्ट्रेट पर पहुंचने से लॉक डाउन का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन हुआ।  गनीमत रही कि पार्षदों के समर्थक व दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता वहां नहीं पहुंचे, वरना स्थिति गंभीर हो सकती थी। सुपरिचित गर्म मिजाज के धर्मेन्द्र गहलोत व कड़क एसपी के आमने-सामने होने के कारण कभी भी कुछ भी हो सकता थ। गहलोत आखिरकार स्वर्गीय वीर कुमार के शिष्य रहे हैं। ऐसे मौके पर एसपी का यह कहना बिलकुल वाजिब था कि आप लोग एक-एक करके कलेक्टर से मिल सकते हैं, लेकिन इस तरह झुंड बना कर लॉक डाउन का उल्लंघन नहीं करने दूंगा। कानून सबके लिए बराबर है। उन्होंने सख्त रुख अपनाते हुए पार्षदों को जम कर लताड़ा और चेताया कि वे राजनीति नहीं करने देंगे, मगर साथ ही संयमित भी बने रहे। अचानक उनके मुंह से निकला कि आप सब का कृत्य ऐसा है कि आप गिरफ्तारी के पात्र हैं। इतना कहना था कि गहलोत ने चतुराई बररते हुए तत्क्षण गिरफ्तारी देने की बात कह दी। वे जानते थे कि कौन सा दस-बीस दिन की गिरफ्तारी होनी है। समझौता हुआ नहीं कि सभी बिना किसी मुकदमे के हाथों-हाथ छोड़ दिए जाएंगे। खैर, सभी को पुलिस के वाहन में बैठा कर सिविल लाइंस थाने ले जाया गया। बहसबाजी लंबी नहीं खिंची और तनातनी हॉट स्पॉट से सिविल लाइन थाने में शिफ्ट हो गई। मौके पर तुरंत शांति हो गई। गर एसपी ताव में आ कर बल प्रयोग कर बैठते अथवा गहलोत अपने मिजाज में आस्तीनें चढ़ा लेते तो स्थिति कुछ और ही होती।
सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि जैसे एसपी अपना कर्तव्य पालन कर रहे तो गहलोत व पार्षद भी कोई स्वार्थ की वजह से थोड़े ही लॉक डाउन तोड़ रहे थे। वे भी अपने जनप्रतिधित्व का कर्तव्य निभा रहे थे। वे जनता के हित की खातिर जमा हुए थे। लोकतंत्र में विरोध की गुंजाइश तो होती ही है। विचारणीय ये है कि अगर पार्षद कानून का उल्लंघन नहीं करते तो क्या जिला कलेक्टर उनकी मांग मानने को मजबूर होते? असल में हुआ यही कि जैसे ही गहलोत व सभी पार्षद पुलिस हिरासत में पहुंचे, पेच फंस गया। गिरफ्तारी कायम रखते तो जनता में आक्रोष फैल सकता था। ऐसे में जिला कलेक्टर पर जनप्रतिनिधियों का दबाव बढ़ गया। उन्होंने मौके की नजाकत को देखते हुए समझदारी का परिचय दिया व पार्षदों की मांग को स्वीकार कर लिया।
असल मुद्दा ये है कि जिला कलेक्टर का स्टैंड बिलकुल ठीक था। जब बीएलओ से सर्वे करवा कर जरूरतमंद परिवार चिन्हित करके उन्हें 15 दिन की सूखी राशन सामग्री पहुंचा दी गई तो भोजन के पैकेट वितरित की जरूरत ही नहीं रह गई। लेकिन पार्षदों का तर्क था कि बीएलओ ने ठीक सर्वे नहीं किया। सर्वे में उन्हें नजरअंदाज किया गया, जब कि जनता के प्रति वे सीधे जिम्मेदार हैं। इसके अतिरिक्त ऐसे बहुत से लोग भी हैं जो कि सर्वे के दायरे से बाहर रह गए। अगर उनको भोजन के पैकेट नहीं दिए जाएं तो वे भूखे रह सकते थे।
वस्तुत: प्रशासन इस बात से परेशान था कि पार्षदों के अतिरिक्त अन्य संस्थाओं की ओर से फूड पैकेट के वितरण के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग का उल्लंघन हो रहा था। फोटो व सेल्फी की वजह से भी माहौल बिगड़ रहा था। इसी के मद्देनजर उन्होंने फोटो व सेल्फी पर रोक लगा दी।
कुल जमा मामला जल्द ही सुलझ गया, जिसके लिए जनप्रतिनिधि व प्रशासन साधुवाद के पात्र हैं।
-तेजवानी गिरधर
7742067000
tejwanig@gmail.com

रविवार, 5 अप्रैल 2020

अजमेर में जैन संस्कृति का गौरवशाली इतिहास

महावीर जयंती पर विशेष
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली
अजमेर के इतिहास में झांक कर देखें तो यहां जैन संस्कृति का इतिहास गौरवशाली रहा है। चौहान काल में जैन आचार्य जिनदत सूरी, आयार्च धर्म घोष सूरी व पंडित गुणचंद्र की साधना स्थली होने का गौरव भी अजमेर को हासिल है। मुगल काल में भी जैनाचार्यों व भट्टारकों को विशेष सम्मान हासिल था।
उपलब्ध जानकारी के अनुसार बारहवीं सदी में अजमेर जैन आचार्य जिनदत्त सूरी की कर्मस्थली रहा। उनके देहांत के बाद यहां दादाबाड़ी का निर्माण हुआ, जिसकी बहुत मान्यता है। इतिहास की पुस्तकों में ऐसी भी जानकारी है कि इन्द्रसेन नाम के जैन राजा ने यहां इन्दर कोट बनवाया, जो आज अन्दर कोट के नाम से जाना जाता है। इतिहासविदों का मानना है कि पद्मसेन नामक एक राजा ने यहां पद्मावती नगरी बसाई थी। उनके समय में अजमेर से खुंडियावास गांव तक 108 मंदिर थे। इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि खुदाई के दौरान जो ईंट व स्तम्भ निकले हैं, वे जैन मंदिरों की वास्तुशिल्प से मेल खाते हैं। पद्मावती नगरी बड़ली, किशनपुरा, पुष्कर व नरवर तक फैली हुई थी।
यह सर्वविदित है कि 760 ईस्वी में भट्टारक धर्म कीर्ति के शिष्य आचार्य हेमचन्द्र का यहां निधन हुआ था, जिनकी छतरी आज भी मौजूद है। इसी साल पंच कल्याणक महोत्सव सम्पन्न हुआ। तकरीबन 175 साल के बाद एक और पंच कल्याणक आयोजित किया गया। वीरम जी गोधा ने गोधा गवाड़ी में श्री पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मंदिर का निर्माण भी कराया। बताया जाता है कि राजा अजयराज चौहान ने पाश्र्वनाथ जैन मंदिर में स्वर्ण कलश चढ़ाया था। क्रिश्चियन गंज इलाके में स्थित जैन आचार्यों की छतरियां छठी-सातवीं सदी की हैं। इतना ही नहीं अजयराज से पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) तक के कालखंड में अजमेर, नरायना व पुष्कर में जैन विद्वानों के कई शस्त्रार्थ हुए। इस दौरान जैन विद्वानों ने कई नये ग्रन्थ भी लिखे। ऐसे ग्रन्थ सरावगी मौहल्ला स्थित बड़े मंदिर में सुरक्षित  हैं। यहां भट्टारकों की पीठ भी स्थापित की गई।
यह उल्लेखनीय जानकारी भी पुस्तकों में मौजूद है कि सन् 1160 ईस्वी में राजा विग्रहराज विशालदेव चौहान ने जैन आचार्य धर्मघोष की सलाह पर एकादशी के दिन पशुवध पर रोक लगा दी थी। 1164 ईस्वी में आचार्य जिनचन्द्र सूरी ने अपने गुरु आचार्य जिनदत्त सूरी की स्मृति में स्तम्भ बनवाया। 1171 ईस्वी में विशाल पंच कल्याणक महोत्सव हुआ।
चौहान काल के बाद लगातार राजनीतिक अस्थिरता के दौरान सांस्कृतिक विकास अवरुद्ध हुआ। अंग्रेजों के राज के दौरान पुन: जैन संस्कृति का अभ्युदय हुआ व जैन मंदिरों का निर्माण आरंभ हुआ। आजादी के बाद निकटवर्ती नारेली गांव में ज्ञानोदय तीर्थ का निर्माण जैन संस्कृति के विकास में एक अहम कदम माना जाता है।
यहां प्रस्तुत है अजमेर के प्रमुख जैन धर्म स्थलों का विवरण, जो अजमेर एट ए ग्लांस पुस्तक से साभार लिया गया है:-
ज्ञानोदय तीर्थ क्षेत्र नारेली 
अजमेर शहर से दस किलोमीटर दूर किशनगढ़-ब्यावर बाईपास पर नारेली गांव के पास तीन सौ बीघा क्षेत्र में बने इस तीर्थ क्षेत्र की स्थापना तीस जून 1995 में जैन मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी महाराज की प्रेरणा से की गई। मुनिश्री के सान्निध्य में सिंह द्वार का शिलान्यास 16सितंबर 2000 को किया गया। लाल पत्थर से बना यह द्वार 81 फीट ऊंचा है। तलहटी में बने जिनालय में भगवान ऋषभदेव की 21 फीट की पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसका शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया। मुनिश्री सान्निध्य में 3 दिसंबर 1997 को त्रिमूर्ति का शिलान्यास किया गया। तीर्थ परिसर में भगवान शांतिनाथ, कुन्थनाथ व अरहनाथ की अष्टधातु की 11-11 फीट मूर्तियां हैं। भगवान बाहुबली की अष्टधातु की प्रतिमा भी स्थापित है। तीर्थ क्षेत्र में एक हजार आठ जिनबिम्ब विराजमान हैं। यहां आठ बड़ी प्रतिमाएं हैं। इसका शिलान्यास 31 जनवरी 1998 को किया गया। पहाड़ी पर भगवान शीतलनाथ, महावीर व आदिनाथ की अष्टधातु की प्रतिमाएं हैं। तीर्थ परिसर में दस दिसंबर 1995 को तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री भैरोंसिंह शेखावत ने गौशाला का उद्घाटन किया। इसी प्रकार 1 मार्च 1998को औषधालय का शिलान्यास किया गया। भोजनशाला का शिलान्यास 11 अगस्त 1997 को किया गया, जिसमें एक साथ दो हजार व्यक्ति बैठ सकते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
महापूत जिनालय
सरावगी मोहल्ले के नुक्कड़ पर ही करौली के लाल पत्थर से बना तीन मंजिला मंदिर है। इसे महापूत जिनालय के अतिरिक्त सेठ साहब का मंदिर भी कहा जाता है। इसमें भट्टारक भवन कीर्तिजी ने सेठ मूलचंद सोनी के आर्थिक सहयोग से भगवान सुपाश्र्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित कराई थी। यदि मंदिर स्थापत्य कला का नायाब नमूना है।
त्रिकाल चौबीसी
गोधा गवाड़ी में स्थित यह मंदिर करीब तीन सौ साल पुराना है। इसमें चौबीसों तीर्थंकरों की 72 प्रतिमाएं हैं। ये सभी अष्टधातु की हैं। महावीर जयंती पर यहां विशेष आयोजन होता है।
मां पदमावती मंदिर
मां पदमावती का यह मंदिर पूरे भारत में एक ही है। यहां भगवान महावीर स्वामी की भी प्रतिमा है। महावीर जयंती के मौके पर भगवान महावीर का कलशाभिषेक कर विधान पढ़ा जाता है। इसके अतिरिक्त मोइनिया इस्लामिया स्कूल में वात्सल्य भोज के बाद जैन समाज के सभी बंधु आरती के लिए यहां आते हैं।
जैसवाल जैन मंदिर
केसरगंज स्थित यह मंदिर आगरा व अन्य स्थानों से आए जैसवाल जैन समाज बंधुओं ने बनवाया है। इस मंदिर का शिलान्यास 1948 में हुआ और 1952 में बन कर तैयार हुआ। भगवान श्री पाश्र्वनाथ इसके मूलनायक हैं। इसमें आदिनाथ, पदमप्रभु व शीतलनाथ की भी मूर्तियां हैं। जैसवाल जैन समाज कमेटी की ओर से हर साल महावीर जयंती पर विशाल शोभायात्रा निकाली जाती है।
गुफा मंदिर
यह सरावगी मोहल्ले में स्थित है। यहां 1995 में प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा स्थापित है। स्थापना के वक्त यहां भगवान आदिनाथ का कलाशाभिषेक भी हुआ था।
दादाबाड़ी
बीसलसर झील के किनारे कायम दादाबाड़ी श्वेताम्बर संप्रदाय के जैन संत जिनवल्लभ सूरी के शिष्य श्री जिनदत्त सूरी जी की स्मृति में बनी हुई है। उन्होंने अनेक राजपूतों को जैन धर्म की दीक्षा दी। श्री जिनदत्त दादा के नाम से जाने जाते थे, इसी कारण उनके समाधि स्थल को दादाबाड़ी के नाम से जाना जाता है। यहां भगवान श्री पाश्र्वनाथ का मंदिर भी है। मूर्ति पर विक्रम संवत 1535 (ईस्वी 1478) खुदा हुआ है। यहां आषाढ़ शुक्ला दशमी और एकादशी को दादा जी की स्मृति में मेला आयोजित किया जाता है। यहां बाहर से आने वाले यात्रियों के रहने की भी सुविधा है।
-तेजवानी गिरधर
7742067000