शनिवार, 27 नवंबर 2021

बदलते समीकरणों में सुरेष टाक एडीए चेयरमेन के प्रबल दावेदार


हालांकि जब से एडीए चेयरमेन पर नियुक्ति को लेकर चर्चा चल रही है, तब से किषनगढ के निर्दलीय विधायक सुरेष टाक का नाम भी दावेदारों की फेहरिष्त में षामिल है। हालांकि वे बहुत गंभीर नहीं माने जा रहे थे। लेकिन बदले समीकरणों में उनको प्रबल दावेदार माना जा रहा है। असल में राज्य मंत्रीमंडल विस्तार के साथ यह चर्चा आम है कि वे विधायक जिन्होंने मुख्यमंत्री अषोक गहलोत को सरकार बचाने में मदद की, उन्हें मंत्री पद न दे पाने के बाद किसी और तरीके से उपकत करने पर विचार किया जा रहा है। ऐसे विधायकों को या तो संसदीय सचिव बनाया जाएगा या किसी बोर्ड या आयोग की जिम्मेदारी दी जाएगी। इस लिहाज से टाक को अजमेर विकास प्राधिकरण का सदर बनाए जाने की प्रबल संभावना बताई जा रही है। बताते हैं कि खुद उनकी रुचि भी इस नियुक्ति में है, ताकि अपने विधानसभा क्षेत्र की बेहतर सेवा कर सकें। ज्ञातव्य है कि प्राधिकरण के क्षेत्र में किषनगढ भी षामिल है। उसका एक लाभ ये होगा कि इस माध्यम से वे अपने राजनीतिक भविष्य का ताना बुनने में कामयाब हो सकेंगे।

हालांकि अब तक राजस्थान स्टेट सीडृस कारपोरेषन लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष धर्मेन्द्र राठौड को ही नंबर वन दावेदार माना जाता रहा है लेकिन न जाने यह चर्चा कहां से आई है कि एडीए चेयरमेन का पद उनके कद के अनुरूप नहीं है। वे किसी राज्य स्तरीय आयोग या बोर्ड की जिम्मेदारी चाहते हैं इस कारण एडीए में रुचि नहीं ले रहे। 

यदि मुख्यमंत्री चाहेंगे तो टाक को अध्यक्ष बनाने में कोई दिक्कत नहीं आने वाली है लेकिन मुख्यमंत्री के ही करीबी पूर्व विधायक नाथूराम सिनोदिया को यह नागवार गुजरेगा। अगर एडीए के जरिए टाक मजबूत होते हैं तो उसे भला सिनोदिया व अन्य प्रमुख कांग्रेसी नेता कैसे बर्दाष्त कर सकते हैं। 

एक पहलु ये भी है कि टाक को ऑब्लाइज करने से कांग्रेस को आगे चल कर क्या फायदा होने वाला है। वे मूलतः भाजपा मानसिकता के हैं। इस कारण कांग्रेस में तो षामिल होंगे नहीं। अगले चुनाव में भाजपा का टिकट ही लेना चाहेंगे। वैसे भी उनके निजी समर्थकों में भाजपा मानसिकता के मतदाता अधिक हैं। एक बात ये भी कही जा रही है कि ताजा हालात में उन्हें किसी पद से नवाजने की कोई मजबूरी तो है नहीं। सरकार बहुत मजबूत है। यह ठीक है कि उन्होंने कांग्रेस सरकार का साथ दिया मगर उसी के साथ किषनगढ के विकास में सरकार का साथ भी तो ले लिया।

बेषक सरकार बनाते समय उनकी गरज रही मगर उससे कहीं अधिक उनकी गरज रही क्योंकि निर्दलीय रह कर सरकार से अपेक्षित लाभ नहीं उठा सकते थे।

इस मसले का एक पहलु ये भी है कि पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के साथ समझौते के तहत उनकी पसंद के विधायकों को मंत्री पद मिल चुका है। अन्य राजनीतिक व सांगठनिक नियुक्तियों में भी उनकी हिस्सेदारी होगी। जो जिले उनके हिस्से में होंगे उनमें यदि अजमेर भी षामिल हुआ तो टाक के लिए एडीए अध्यक्ष बनना कुछ कठिन होगा।

रहा सवाल अन्य दावेदारों का तो पूर्व विधायक डॉ श्रीगोपाल बाहेती, पूर्व विधायक डॉ राजकुमार जयपाल, अजमेर दक्षिण चुनाव लड चुके हेमंत भाटी व अजमेर उत्तर से चुनाव लड चुके महेन्द्र सिंह रलावता के नाम प्रमुखता से लिए जा रहे है। पारिवारिक पश्ठभूमि के दम पर जयपाल ने अपनी पूरी ताकत झोंक रखी है। अगर पायलट की चली तो भाटी का नंबर आ सकता है। बताते हैं कि रलावता की ज्यादा रुचि अगले चुनाव में है। ऐसा भी हो सकता है कि बाहेती को अगले चुनाव में टिकट न मिलने की संभावना के चलते गहलोत उन्हें उपकत कर सकते हैं। वैसे भी सभी दावेदारों में व उनके करीबी हैं। सच बात तो ये है कि पिछले पैंतीस साल से वे ही उनके नंबर वन झंडाबरदार हैं।

खैर, इस सब बातों के बावजूद फिलवक्त माना जा रहा है कि राठौड के अतिरिक्त टाक सबसे प्रबल दावेदार बन चुके हैं। कुछ लोगों का मानना है कि जल्द की उनमें से एक की नियुक्ति का ऐलान हो जााएगा।


शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

पेयजल समस्या का समाधान न हो पाना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण


यह बेहद षर्मनाक व अफसोसनाक है कि अजमेर में पेयजल सप्लाई व्यवस्था में सुधार के लिए पूर्व षिक्षा राज्य मंत्री व अजमेर उत्तर के मौजूदा भाजपा विधायक वासुदेव देवनानी को आंदोलन की चेतावनी देनी पड गई। वह भी तब जबकि सत्तारूढ कांग्रेस के पूर्व विधायक डा राजकुमार जयपाल के नेतत्व में इसी मसले पर ज्ञापन दिया जा चुका है। विपक्ष की भूमिका तो सहज समझ में आती है लेकिन सत्तारूढ दल को भी अगर नाराजगी जतानी पड रही है तो इससे समस्या की गंभीरता के साथ उसके प्रति प्रषासनिक अकर्मण्यता व लापरवाही जाहिर होती है। जलदाय महकमा अपने कर्तव्य के प्रति कितना बेपरवाह है, यह स्वयं सिद्ध है। जनता काफी दिन से पेयजल समस्या भोग रही है। ऐसा हो नहीं सकता कि महकमे के अधिकारी इससे अनभिज्ञ हों। बावजूद इसके अगर वे समस्या का समाधान नहीं कर रहें हैं या नहीं कर पा रहे हैं तो यह चिंताजनक है। संभव है कि अधिकारियों को पेयजल सप्लाई दुरुस्त रखने में कोई तकनीकी दिक्कत आ रही हो मगर यदि ऐसा है तो उन्हें सार्वजनिक बयान जारी करना चाहिए। और चुप हैं तो इसका मतलब है कि सिस्टम पर उनका कोई नियंत्रण ही नहीं है। उनकी विफलता का ही नतीजा है कि सत्तारूढ दल कांग्रेस तक को आवाज उठानी पड रही है। स्मार्ट सिटी की दिषा में बढ रहे अजमेर के लिए यह बहुत पीडादायक है कि जनता की मूलभूत समस्या का ही समाधान नहीं हो पा रहा। ऐसे स्मार्ट षहर में रहने से क्या फायदा जिसमें पानी सप्लाई का ना तो कोई दिन निश्चित है और ना ही समय। अनेक क्षेत्रों में तो 72 से 96 घंटे के अंतराल से पानी की सप्लाई की जा रही है। कई क्षेत्रों में जब पानी सप्लाई होता है, तो पहले दस-पन्द्रह मिनट तक तो गंदा पानी आता है। इसके बाद साफ पानी भी कम प्रेशर से बहुत कम समय के लिए सप्लाई किया जाता है, जिससे दैनिक जरूरत की पूर्ति भी नहीं हो पाती है। आजादी के बाद आठवें दषक में भी ऐतिहासिक षहर अजमेर पानी के लिए तरस रहा है तो इसका मतलब ये है कि यहां का कोई धणी धोरी नहीं है। ऐसी व्यवस्था के लिए ही तो पोपा बाई का राज जुमले का इजाद हुआ था। 


रविवार, 14 नवंबर 2021

धर्मेन्द्र सिंह राठौड की मौजूदगी से मची खलबली


देष के प्रथम प्रधानमंत्री स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के अवसर पर नहेरू सर्किल पर आयोजित श्रद्धाजंलि सभा और उसके बाद जनजागरण के तहत महंगाई के विरोध में निकाली पद यात्रा में राजस्थान स्टेट सीडृस कारपोरेषन लिमिटेड के पूर्व अध्यक्ष धर्मेन्द्र राठौड की मौजूदगी से अजमेर के कांग्रेसी गलियारे में खलबली मच गई है। उनके अजमेर आगमन के कई अर्थ निकाले जा रहे हैं। उन्होंने चिकित्सा मंत्री रघु शर्मा जी की अध्यक्षता में आयोजित जेएलएन मेडिकल कॉलेज में नवनिर्मित आईंसीयू के वर्चुअल उद्घाटन कार्यक्रम में भी हिस्सा लिया एवं भवन का अवलोकन किया।

कार्यक्रम के दौरान आम चर्चा थी कि उन्हें अजमेर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनाया जाना लगभग तय हो गया है, इसी कारण स्थानीय कांग्रेसियों के घुलने मिलने के लिए वे यहां आए हैं। कुछ का मानना था कि आगामी विधानसभा चुनाव में वे पुश्कर सीट से लडने का मानस रखते हैं, उसी के तहत सक्रिय हुए हैं। जो कुछ भी हो मगर उनकी मौजूदगी अजमेर में राजनीतिक हचचल तो हुई ही है, इससे कोई इंकार नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि उनके राजनीतिक प्रभाव से अजमेर के कांग्रेसी अनभिज्ञ हैं। पिछले दिनों अजमेर नगर निगम में उनकी पसंद के कुछ नए चेहरे मनोनीत पार्शद बनाए गए हैं। इतना ही नहीं हाल ही हुए उपचुनाव में उनकी भूमिका भी किसी से छिपी हुई नहीं है। इससे उनका कद और बढा है। बताया जाता है कि वे मुख्यमंत्री अषोक गहलोत के बहुत करीबी हैं। इसी कारण उनके अजमेर विकास प्राधिकरण का अध्यक्ष बनने की प्रबल संभावना है। इसके लिए बने पैनल में उनका नाम टॉप पर बताया जाता है। दूसरी ओर कुछ लोगों का तर्क है कि भाजपा मानसिकता के सिंधी व वणिक वोटों को साधने के लिए इन दोनों वर्गों में से किसी को मौका देने का विचार है। उंट किस करवट बैठेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता।

बहरहाल, अगर वे किसी नियोजित एजेंडे के तहत अजमेर में सक्रिय हो रहे हैं तो उसका असर यहां पहले से स्थापित राजपूत नेता महेन्द्र सिंह रलावता पर पड सकता है। ज्ञातव्य है कि रलावता एक बार फिर अजमेर उत्तर से चुनाव लडने की तैयारी कर रहे हैं। अगर धर्मेन्द्र राठौड पुश्कर 

से टिकट लाते हैं तो अजमेर जिले में दूसरे राजपूत नेता को कहीं से टिकट मिलने की संभावना कम होती है। राठौड की एंटी का असर पूर्व षिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ पर भी पड सकता है। कहने की जरूरत नहीं है कि पिछले चुनाव में हारने के बाद भी लगातार सक्रिय हैं और आगामी चुनाव में भी उनकी प्रबल दावेदारी रहेगी।

वैसे, रविवार को कांग्रेसियों की तादाद अपेक्षाकत अधिक थी। इस कारण चर्चाओं का बाजार भी गरम था। कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए पूर्व षहर कांग्रेस अध्यक्ष विजय जैन ने भरपूर कोषिष की थी। उन्होंने अनेक नेताओं व पदाधिकारियों को खुद फोन किया था। कहने की जरूरत नहीं है कि आगामी दिनों में राजनीतिक नियुक्तियां होनी हैं, इस कारण भी संख्या में इजाफा नजर आया।

-तेजवानी गिरधर

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देवनानी की लगातार जीत कोई पहेली नहीं

 


हाल ही जयपुर में अजमेर उत्तर के विधायक व पूर्व षिक्षा राज्य मंत्री वासुदेव देवनानी ने पत्रकारों के साथ आयोजित दीपावली मिलन समारोह में संकेत दिया कि पार्टी चाहेगी तो वे पांचवीं बार भी उनकी जीत की पहेली को हल नहीं करने देंगे। जयपुर के एक पत्रकार की ओर से इस समारोह के कवरेज में इसका जिक्र किया है। उसका षीर्शक इस प्रकार हैः- 

वासुदेव देवनानी एक शिक्षक राजनेता....सीएम गहलोत भी जिनसे जीत का राज पूछते हैं। आगे लिखा है कि देवनानी अजमेर से लगातार चौथी बार विधायक हैं और राज्य के शिक्षा मंत्री भी रहे हैं। वे राजनीति में आने से पहले उदयपुर में कॉलेज शिक्षक थे। एक बार मुंबई जाने वाली एक उड़ान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वे साथ ही थे तो सीएम गहलोत जैसे मंझे हुये राजनेता ने भी उनसे पूछा कि आपकी लगातार जीत का राज तो बताओ। भले ही यह बात गहलोत ने हास्य विनोद में कही हो लेकिन देवनानी वाकई अपने विरोधियों के लिए अबूझ पहेली बने हुए हैं। 

आगे लिखा है कि देवनानी जितने सरल दिखते हैं उतने ही गंभीर राजनेता हैं। वे हर दिन राजनीति करते हैं। उनके विरोधियों को यही बात सीख लेनी चाहिए कि राजनीति पार्ट टाइम काम नहीं है...लगातार विधायक होने पर भी विवादों से दूर रहना और अपने मतदाताओं से निरंतर संपर्क में रहना उनकी दूसरी खूबी है। अपनी संघ निष्ठ विचारधारा के प्रति पूर्णतः समर्पित हैं और बिना लाग लपेट उसका पालन करते हैं...जब शिक्षा मंत्री बने तो विरोधी रोते रहे वे पाठ्यक्रमों को सुधार कर उसमें महाराणा प्रताप को महान करके ही माने....

वे राजस्थान के एकमात्र सिंधी विधायक हैं और 70-71 की आयु में भी शाकाहारी जीवन शैली से पूरी तरह से स्वस्थ हैं। उन्होंने कहा है कि अगली पार्टी सिंधी दाल पकवान की ही देंगे। उनके पुत्र महेश भी उनसे राजनीति सीख रहे हैं और उम्मीद है वे अपने पिता का नाम रोशन करेंगे।

जहां तक देवनानी को विरोधियों के लिए अबूझ पहेली करार दिया गया है, असल में वैसा कुछ है नहीं। स्थानीय राजनीति को ठीक से समझने वाले जानते हैं कि वे लगातार चौथी बार भी कैसे जीत गए। उसमें चमत्कार जैसी कोई बात नहीं है। यह ठीक है कि वे पूर्वकालिक राजनीतिज्ञ हैं, मतदाताओं के निरंतर संपर्क में रहते हैं, जिसकी जीत में अहम भूमिका होती है। लेकिन गहराई में जाएंगे तो समझ में आ जाएगा कि जिसे अबूझ पहेली बताया जा रहा है, वह बुझी बुझाई है। बाकायदा दो और दो चार है। उनके लिए यह अबूझ पहेली हो सकती है, जिन्हें धरातल की जानकारी ही नहीं है। 

उनकी जीत का एक महत्वपूर्ण पहलु ये है कि अजमेर उत्तर की सीट भाजपा के लिए वोट बैंक के लिहाज से अनुकूल है। इसका सबसे बडा प्रमाण ये है कि जब वे पहली बार उदयपुर से आ कर यहां चुनाव लडे तब उन्हें कोई नहीं जानता था। बिलकुल नया चेहरा। स्थानीयवाद के नाम पर बाकायदा उनका विरोध भी हुआ, लेकिन संघ ने विरोध करने वालों को मैनेज कर लिया। यानि कि केवल संघ और भाजपा मानसिकता वाले वोटों ने उन्हें विधायक बनवा दिया। ऐसा जीत का राज जानने की वजह से घटित नहीं हुआ। संघ का यह प्रयोग विफल भी हो सकता था। अगर पूर्व कांग्रेस विधायक स्वर्गीय नानकराम जगतराय कांग्रेस के बागी बन कर निर्दलीय मैदान में न उतरते। उन्होंने तकरीबन छह हजार से ज्यादा वोट हासिल किए, जबकि कांग्रेस के अधिकत प्रत्याषी नरेन षहाणी भगत करीब ढाई हजार वोटों से ही हारे थे। 

दूसरी बार हुआ ये कि कांग्रेस ने नया प्रयोग करते हुए गैर सिंधी के रूप में डॉ श्रीगोपाल बाहेती को चुनाव मैदान में उतारा। वे सषक्त प्रत्याषी थे, मगर सिंधीवाद के नाम पर अधिसंख्य सिंधी मतदाता एकजुट हो गए और देवनानी के पक्ष में चले गए। हालांकि यह सही है कि अधिकतर सिंधी मतदाता भाजपा मानसिकता के ही माने जाते हैं, लेकिन सिंधीवाद के चलते कांग्रेस विचारधारा के सिंधी भी देवनानी को वोट डाल आए। इतना ही नहीं, अजमेर दक्षिण के अधिसंख्य सिंधी मतदाता भी भाजपा के साथ चले गए और श्रीमती अनिता भदेल जीत गईं। गौरतलब बात ये है कि देवनानी मामूली वोटों के अंतर से ही जीत पाए थे।

तीसरी बार कांग्रेस ने फिर डॉ बाहेती में भरोसा जताया चूंकि उनके व देवनानी के बीच जीत का अंतर ज्यादा नहीं था। तीसरी बार फिर सिंधीवाद ने अपना रोल अदा किया और देवनानी जीत गए। उधर अजमेर दक्षिण की सीट भी कांग्रेस के हाथ नहीं आ पाई। चौथी बार वही रिपिटीषन। फिर गैर सिंधी के रूप में महेन्द्र सिंह रलावता को कांग्रेस का टिकट मिला। नतीजतन कांग्रेस के प्रमुख सिंधी दावेदार की पूरी टीम सचिन पायलट का विरोध करते हुए सिंधीवाद के नाम पर देवनानी के साथ हो ली। हालांकि रलावता का परफोरमेंस अच्छा था, लेकिन सिंधी अंडरकरंट देवनानी के काम आ गया। चूंकि रलावता का यह पहला चुनाव था, जबकि देवनानी के पास तीन चुनावों का अनुभव था और टीम भी सधी सधाई थी, इस कारण रणनीतिक रूप वे बेहतर साबित हुए।

यह आम धारणा है कि अगर कांग्रेस किसी सिंधी को टिकट देती तो देवनानी के लिए जीतना कठिन हो सकता था, क्योंकि उनके खिलाफ एंटी इंकंबेंसी काम कर रही थी। निश्कर्श ये है भले ही देवनानी के लगातार चौथी बार जीतने को उनकी लोकप्रियता के रूप में गिना जाए और उनकी जीत को कोई अबूझ पहेली करार दी जाए, मगर उनकी जीत की असल वजह जातीय समीकरण भाजपा के अनुकूल होने के अतिरिक्त सिंधी मतदाताओं का लामबंद होना ही है। 

जरा गौर कीजिए। उन्होंने अपनी जीत का राज खुद ही खोलते हुए कह दिया कि अगली पार्टी सिंधी दाल पकवान की ही देंगे।

अब बात करते हैं आगामी चुनाव की। जो व्यक्ति लगातार चार बार जीता हो उसे पांचवीं बार टिकट से वंचित करने का कोई कारण नजर नहीं आता। हालांकि संघ का एक खेमा देवनानी के तनिक विरोध में है, लेकिन वह उनका टिकट कटवा पाएगा, इसमें संदेह है। यदि कोई स्थिति विषेष बनी तो अपने बेटे महेष को आगे ला सकते हैं। इसका संकेत मीडिया कवरेज में दिया ही गया है कि उनके पुत्र महेश भी उनसे राजनीति सीख रहे हैं और उम्मीद है वे अपने पिता का नाम रोशन करेंगे।

आखिर में मीडिया कवरेज पर एक टिप्पणी करना लाजिमी है। वो ये कि कवरेज में यह माना गया है कि गहलोत ने जीत का राज हास्य विनोद में ही पूछा था, फिर भी टाइटल ये दिया कि वासुदेव देवनानी एक शिक्षक राजनेता....सीएम गहलोत भी जिनसे जीत का राज पूछते हैं। समझा जा सकता है षब्दों का यह खेल देवनानी को महिमा मंडित करने के लिए किया गया है। पूरे कवरेज में भाशा का झुकाव भी जाहिर करता है उसके पीछे मानसिकता विषेश काम कर रही है। 

-तेजवानी गिरधर

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रविवार, 7 नवंबर 2021

नानकराम जगतराय को कैसे मिला था टिकट?


आपको याद होगा कि स्वर्गीय श्री नानकराम जगतराय को अजमेर पष्चिम विधानसभा सीट के उपचुनाव में कांग्रेस का टिकट मिला था और उन्होंने भाजपा के स्वर्गीय श्री लक्ष्मणदास माचिसवाला को हराया था। इस चुनाव में तत्कालीन काबिना मंत्री श्री बी डी कल्ला प्रभारी थे। उनका सहयोग पूर्व विधायक डॉ के सी चौधरी कर रहे थे। राज्य सरकार के अधिसंख्य मंत्रियों ने चुनाव प्रचार के लिए वार्डवार जिम्मेदारी संभाली  थी और कांग्रेस ने यह सीट जीती थी।

असल में यह सीट तत्कालीन काबीना मंत्री स्वर्गीय श्री किषन मोटवानी के निधन से खाली हुई थी। उस वक्त कांग्रेस के लिए समस्या ये थी कि उसके पास षहर स्तर कोई भी सषक्त सिंधी दावेदार नहीं था। जो थे वे वार्ड स्तर के थे। नानकराम का कद भी पार्षद स्तर का ही था, लेकिन वे मिलनसारिता और सहज सुलभता की वजह से लोकप्रिय थे। 

अब बात करते हैं कि टिकट के लिए नानकराम का चयन कैसे हुआ? हालांकि उन्हें टिकट दिलवाने का कई लोग श्रेय ले सकते हैं, लेकिन इस सिलसिले एक राज मेरे दिल में दफन है, जो आपसे साझा कर रहा हूं। मैं यह कत्तई दावा नहीं करता कि उन्हें टिकट दिलवाने में अकेली मेरी ही भूमिका थी। 

स्वाभाविक रूप से कई पैमानों पर जांचने-परखने के बाद उन्हें टिकट दिया गया होगा।

खैर, असल बात पर आते हैं। हुआ यूं कि उन दिनों मैं दैनिक भास्कर में सिटी चीफ के पद पर काम कर रहा था। तत्कालीन अतिरिक्त जिला कलेक्टर, जिनका नाम उजागर करना उचित नहीं होगा, का फोन आया कि मुख्यमंत्री श्री अषोक गहलोत ने तीन सिंधी दावेदारों का पैनल मंगवाया है और अभी तुंरत भेजना है। चूंकि आपकी राजनीति पर अच्छी पकड है, लिहाजा आप बेहतर बता सकते हैं कि कौन कौन सिंधी नेता जीतने के काबिल हैं। यहां ये बताना प्रासंगिक है कि वे मुख्यमंत्री के करीबी थे। 

मैने अपनी समझ के हिसाब से नानकराम के अतिरिक्त दो नाम सुझाये। उन्होंने वह पैनल भिजवा दिया। बेषक मेरी सलाह उस वक्त अत्यंत गोपनीय थी, लेकिन चूंकि अपने आप में यह एक खबर भी थी, इस कारण मैंने वह खबर प्रकाषित कर दी। खबर पढ कर नानकराम तो भौंचक्क ही रह गए। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि उनका नाम पैनल में षामिल किया जाएगा। उनका कोई मानस या तैयारी भी नहीं थी। नानकराम का फोन आया कि ये खबर कहां से आई। क्या ये सच है? मैने पूरा वाकया उनको सुना दिया। उन्होंने अपनी दावेदारी को गंभीरता से लिया और उसी दिन उन्होंने जयपुर की राह पकडी। अपने राजनीतिक संपर्कों का इस्तेमाल किया और टिकट हासिल करने में कामयाब हो गए। जीत भी गए। असल में वे जमीन से जुडे नेता थे, जबकि लक्ष्मणदास माचिसवाला संपन्न थे। हालांकि कांग्रेस की एडी चोटी की मषक्कत की तो नानकराम की जीत में अहम भूमिका रही ही, लेकिन साथ ही उनकी खुद की सरल व ईमानदार नेता की छवि भी काम आई।

प्रसंगवष बता दें कि उन्होंने विधायक के तौर पर पूरी ईमानदारी के साथ काम किया। सरल स्वभाव की स्थिति ये थी कि रोडवेज की बस से जयपुर जाया करते थे। एक बार बस स्टैंड से तांगे में बैठ कर आए तो इस खबर ने सुर्खियां बटोरी। ईमानदारी मिसाल ये कि एक बार बातचीत में मुझसे जिक्र किया कि उनके मोती कटला स्थित छोटे से ऑफिस में लगे टेलीफोन का उपयोग हर कोई करता है और टेलीफोन का बिल इतना आने लगा है कि उसे चुकाना ही भारी पड रहा है। हालांकि विधायक के नाते उन्हें टेलीफोन पेटे राषि मिलती है, मगर वह काफी कम है।

उनकी सबसे खास बात ये थी कि उन्होंने किसी को डिजायर के लिए मना नहीं किया। कई लोगों के काम भी हुए।

एक बात और याद आ गई। एक बार मुख्यमंत्री गहलोन ने कहीं ये बयान दिया कि उन्हें जीतने के लिए एक सौ एक नानकराम चाहिए। इसी बयान ने उनमें दंभ भर दिया। उन्हें ख्याल था कि दूसरी बार भी उन्हें हाईकमान बुला कर टिकट देगा, इस कारण हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और श्री नरेन षहाणी टिकट लाने में कामयाब हो गए। नानकराम को उनके षुभ चिंतकों ने लोकप्रियता के दम पर निर्दलीय लडने की सलाह दी। हालांकि दिल्ली से अजमेर आए कांग्रेस के बडे नेताओं ने सरकार बनने पर यूआईटी का चेयरमैन पद ऑफर किया, मगर वे नहीं माने। उन्हें तकरीबन छह हजार से कुछ अधिक वोट ही मिले और कांग्रेस के नरेन षहाणी भाजपा के टिकट पर पहली बार मैदान में उतरे प्रो वासुदेव देवनानी से मात्र ढाई हजार वोटों से हार गए। इस लिहाज से यह माना जा सकता है कि नरेन षहाणी भगत की हार में नानकराम की ही भूमिका रही। देवनानी एक बार क्या जीते वे तो धरतीपकड की तरह लगातार तीन और चुनाव जीत चुके हैं। हालांकि चुनाव अभी दूर हैं, लेकिन जानकारी है कि वे पांचवीं बार भी ताल ठोकने के मूड में हैं।


-तेजवानी गिरधर

7742067000, 8094767000