रविवार, 30 जून 2013

क्या नाथूराम व भागीरथ में फिर होगी भिड़ंत?

नाथूराम सिनोदिया
पिछले दिनों अजमेर देहात जिला कांग्रेस कमेटी की बैठक में किशनगढ़ में हुई बैठक में हालांकि दावेदारों पर खुल कर कोई चर्चा नहीं हुई और प्रत्याशियों के चयन का अधिकार कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी, राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और सांसद व केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट को दिया गया, मगर यह तो साफ हो गया कि मौजूदा विधायक नाथूराम सिनोदिया ही फिर से टिकट के प्रबल दावेदार होंगे। कारण ये कि अन्य कोई भी दावेदार खुल कर सामने नहीं आया।
दूसरी ओर भाजपा के अंदरखाने की खबर है कि वहां भी पिछले चुनाव में सिनोदिया से भिड़े पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी के अतिरिक्त कोई अन्य दावेदार दमदार तरीके से उभर कर सामने नहीं आ रहा। अलबत्ता पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट का नाम जरूर चर्चा में है, मगर यह खुद उन पर निर्भर करेगा कि वे नसीराबाद सीट छोड़ कर यहां आना चाहते हैं या नहीं। कहने की जरूरत नहीं है कि प्रो. जाट के टिकट में कोई झंझट नहीं है। यानि कि उनका टिकट पक्का ही है। ज्यादा संभावना यही है कि वे फिर से नसीराबाद से ही चुनाव लड़ेंगे, क्योंकि पिछली बार वे मात्र 71 वोटों से ही पराजित हुए थे। उसमें भी धांधली का विवाद उठा था। किशनगढ़ की सीट उनके लिए शायद उतनी मुफीद न हो। ऐसे में राजनीतिक गलियारों में चर्चा यही है कि इस बार फिर से सिनोदिया और भागीरथ ही आमने-सामने होंगे।
भागीरथ चौधरी
जहां तक चौधरी की छवि का सवाल है, उन पर प्रत्यक्ष रूप से कोई बड़ा आरोप नहीं है। किशनगढ़ शहर में व्यापारियों से उनके संपर्क को भी सकारात्मक माना जाता है। दूसरी ओर सिनोदिया का ठेठ देताती अंदाज होने के कारण गांवों में वे काफी लोकप्रिय हैं। आम मतदाताओं को आसानी से मिल जाने के कारण भी उन्हें पसंद किया जाता है। देहात जिला कांग्रेस अध्यक्ष होने के कारण संगठन पर भी पूरी पकड़ है।
ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में सिनोदिया ने अपने निकटतम प्रतिद्वंद्वी भागीरथ चौधरी को 9 हजार 724 मतों से हराया था। सिनोदिया को 65 हजार 42 व भागीरथ चौधरी को 55 हजार 318 मत मिले थे। अन्य उम्मीदवारों में बहुजन समाज पार्टी के अवधेष कुमार को 3 हजार 3, राष्ट्रीय कांग्रेस पार्टी के रामनिवास को 3 हजार 349, राजस्थान विकास पार्टी के नाहर सिंह को 3 हजार 203 तथा निर्दलीय प्रत्याशी धर्मराज रेगर को 366, सरदार को 2 हजार 81, सत्यनारायण सेन को 855, श्योराम को 668 व तेजपाल चौधरी को 689 मत मिले।
जातीय समीकरण
इस इलाके में जाट 43 हजार, अनुसूचित जाति 27 हजार, महाजन 25 हजार, गुर्जर 23 हजार, राजपूत 2० हजार, ब्राह्मण 19 हजार, मुस्लिम 18 हजार, माली 5 हजार, रावत 3 हजार व शेष अन्य माने हैं।
अब तक के विधायक
1952 - चांदमल, कांग्रेस
1952 उपचुनाव-जयनारायण व्यास, कांग्रेस
1957 - पुरुषोत्तम लाल, कांग्रेस
1962 - बालचंद, निर्दलीय
1967 - सुमेर सिंह, निर्दलीय
1972 - प्रतापसिंह, निर्दलीय
1977 - करतार सिंह, जनता पार्टी
1980 - केसरीचंद चौधरी, कांग्रेस
1985 - जगजीत सिंह, भाजपा
1990 - जगजीत सिंह, भाजपा
1993 -जगदीप धनखड़, कांग्रेस
1998 - नाथूराम सिनोदिया, कांगे्रस
2003 - भागीरथ चौधरी, भाजपा
2008 - नाथूराम सिनोदिया

-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 29 जून 2013

रमा पायलट को अजमेर उत्तर से लड़ाने का मानस?

यह शीर्षक पढ़ कर बेशक आप इसे आला दर्जे की गप्प ही मानेंगे। और वह भी निहायत ही वाहियात। मगर यह कानाफूसी इन दिनों अजमेर की चुनावी फिजा में पसरने लगी है। असल में इस किस्म की सुरसुराहट कोई छह माह पहले ही शुरू हो गई थी, मगर ये पंक्तियां लिखने वाला ऐसी गप्प आपसे शेयर करके अपनी खिल्ली उड़वाने से बचना रहा था। मगर इन दिनों जैसे ही यह कानाफूसी ज्यादा पसरी तो इस बाबत चंद पंक्तियां लिखने की इच्छा को नहीं रोक पाया। ताकि सनद रहे।
कांग्रेसियों में कानाफूसी है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्वर्गीय राजेश पायलट की धर्मपत्नी व अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की माताजी श्रीमती रमा पायलट को अजमेर उत्तर से विधानसभा चुनाव लड़वाया जा सकता है, इस बिना पर कि वे सिंधी पृष्ठभूमि से हैं। इस कानाफूसी को तब और बल मिला जब दैनिक भास्कर ने कांग्रेस पर्यवेक्षक राजेश खेरा की ओर से अजमेर में फीड बैक लेने वाले दिन खबर शाया की कि पायलट खेमा किसी सिंधी महिला को चुनाव लड़ाने पर विचार कर रहा है, मगर उसने नाम उजागर नहीं किया है। इसमें दो बातें हो सकती हैं। एक, या तो रिपोर्टर को वाकई पता नहीं था कि वह सिंधी महिला कौन है? दूसरा ये कि उसे उसके सूत्र ने बता तो दिया था कि वह महिला कौन है, मगर नाम उजागर करने से इंकार कर दिया था। जाहिर है कि जब खबर छपी तो लोगों ने कयास लगाना शुरू कर दिया। पहला कयास ये था कि शायद पिछले कुछ दिनों से सक्रिय पार्षद रश्मि हिंगोरानी हों, मगर उन्होंने न जाने क्यों दावा ही पेश नहीं किया। उनके अतिरिक्त राजकुमारी गुलाबानी व मीरा मुखर्जी का नाम भी आया, मगर वे बीते जमाने की बात हो गईं। किसी जमाने की दावेदार कांता खतूरिया का नाम भी आया, मगर वे भी भूली-बिसरी हो गईं हैं। तीर में तुक्के और भी लगाए जा रहे हैं, मगर आखिरकार कांग्रेसियों में ही चर्चा शुरू हो गई है कि वे श्रीमती रमा पायलट हो सकती हैं, जिनके बारे में न जाने क्यों यह चर्चा है कि वे सिंधी परिवार से रही हैं, जबकि इसकी पुष्टि कहीं से नहीं हो रही। हो सकता है ये एक शगूफा ही हो, ताकि उसकी प्रतिक्रिया के आधार पर आगे की रणनीति बनाई जाए। कुछ सिंधी दावेदारों का मानना है कि यह एक साजिश भी हो सकती है, ताकि रमा पायलट का नाम सामने आने पर वे दावा करना ही छोड़ दें और बाद में किसी गैर सिंधी को मैदान में उतार दिया जाए।
खैर, अपना मानना है कि यदि श्रीमती रमा पायलट सिंधी पृष्ठभूमि से नहीं भी हैं तो भी वे ऐसी शख्सियत हैं कि अगर कांग्रेस ने उन्हें प्रोजेक्ट किया तो दमदार प्रत्याशी साबित होंगी। खुद अपनी पहचान के कारण और अपने पुत्र सचिन पायलट की वजह से भी। उसमें सिंधी होने की कोई खास जरूरत नहीं है। अगर सिंधी हैं तो सोने में सुहागा हो जाएगा। कहने की जरूरत नहीं कि पायलट परिवार इलैक्शन मैनेजमेंट में कितना माहिर है। किरण माहेश्वरी उसी मैनेजमेंट का ही तो शिकार हुई थीं।
बहरहाल, यह लेखक आपसे माफी चाहते हुए यह कानाफूसी आपसे शेयर कर रहा है कि इसे गप्पी न माना जाए। इसने तो केवल आपको वह कानाफूसी परोसी है, जो कि इन दिनों चल रही है।
-तेजवानी गिरधर

भगत ने टिकट की जुगत के लिए छोड़ा न्यास सदर का पद

लैंड फोर लैंड मामले में एसीबी की कानूनी कार्यवाही में फंसे नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत ने काफी सोच-विचार के बाद जिस प्रकार 21 दिन बाद नैतिकता के आधार पर पद से इस्तीफा दिया है, उससे लगता है कि इस पद पर रह कर कपड़े फड़वाने की बजाय उन्होंने यही बेहतर समझा बीती को बिसार कर आगे आगे की सुध ली जाए। हालांकि राजनीति के जानकारों का यही मानना है कि न्यास में दाग लगवाने के बाद उनको किसी सूरत में टिकट नहीं मिलेगा, मगर भगत जो भाषा बोल रहे हैं, उससे उन्हें लगता है कि वे इस मामले से साफ बच कर निकल आएंगे और टिकट की दावेदारी बरकरार रह जाएगी।
भगत के इस्तीफे का अज्ञात मगर दिलचस्प पहलु ये है कि उन्होंने इस्तीफा मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को देने की बजाय प्रदेश कांग्रेस डॉ. चंद्रभान को भेजा है। एक सामान्य बुद्धि की अक्लदानी में भी यह सवाल आसानी से उठ सकता है कि जब न्यास सदर की अपोइंटिंग अथोरिटी मुख्यमंत्री हैं तो उन्होंने इस्तीफा चंद्रभान को क्यों दिया? चंद्रभान खुद तो इस्तीफा मंजूर करने की स्थिति में हैं नहीं, सो वे केवल इतना भर करेंगे कि उसे मुख्यमंत्री के पास भिजवा देंगे। तो वाया प्रदेश अध्यक्ष इस्तीफा देने की वजह क्या है, इसका जवाब उनके इस कथन में कहीं छिपा हुआ है कि न्यास अध्यक्ष बनाने में संगठन की महत्वपूर्ण भूमिका थी, इस वजह से चंद्रभान को इस्तीफा दिया है।
वैसे कुछ लोगों को जहां इसमें अब भी पद बचाने की चाल नजर आती है। ऐसे लोगों की सोच है कि वे मामले को कुछ और दिन टालना चाहते हैं। दूसरी ओर कुछ को इसमें कोई और अबूझ समीकरण की गंध आती है, जो भारी माथापच्ची के बाद ही समझ में आएगा। हालांकि इस्तीफे की घोषणा करते वक्त उनकी बॉडी लैंग्वेज तो यही इशारा कर रही थी कि उन्होंने बाकायदा आगे की रणनीति बनाने के लिए पूरा मानस बना कर ही इस्तीफा दिया है। यानि कि वे विवादास्पद पद पर बने रहने की बजाय टिकट मांगने पर ही पूरा ध्यान देंगे। इसका संकेत उनके इस कथन से मिलता है कि आगामी विधानसभा चुनाव में मैंने पार्टी से अजमेर उत्तर से चुनाव लडने की दावेदारी की है, मैं सिंधी समाज का प्रतिष्ठित व्यक्ति हूं। प्रकरण में नाम आने के बाद पार्टी और विपक्ष के कुछ लोग आरोप लगा रहे हैं। इससे पार्टी की छवि खराब हो रही थी। इस वजह से इस्तीफा दिया है। हालांकि उन्होंने पार्टी के उन लोगों का खुलासा नहीं किया, मगर समझा जा सकता है कि उनका इशारा उन दावेदारों की ओर था, जो उनके फंसने के बाद काफी उत्साहित थे, जिनमें सिंधी-गैर सिंधी दोनों शामिल हैं।
जिस प्रकार उन्होंने अपनी दावेदारी का जिक्र किया, उससे यही लगता है कि उन्हें अहसास है कि सिंधी कोटे में वे ही एक मात्र प्रबल दावेदार हैं, तो इसे न्यास सदर की कुर्सी के चक्कर में क्यों गंवाएं। गर ये कुर्सी बच भी गई और सरकार कांग्रेस की नहीं आई तब भी तो इसे छोडऩा पड़ेगा। मीडिया भी यही कयास लगा रहा था कि दागी होने के कारण अगर भगत को टिकट नहीं मिला तो कोई दमदार सिंधी दावेदार न मिलने पर किसी गैर सिंधी को टिकट दिया जा सकता है।
लगातार 21 दिन तक मानसिक तनाव का बोझ उतरने का भाव उनके चेहरे पर साफ नजर आया। साथ ये भी कि वे टिकट के लिए अब भी उतने ही दमदार तरीके से दावा करेंगे, जितना दाग लगने से पहले करने की तैयार कर रहे थे। इससे यह भी इशारा मिलता है कि उन्हें पूरी उम्मीद है कि वे कानूनी मसले से साफ बच कर निकल आएंगे। इस सिलसिले में उनका कहना है कि मेरे नाम से कोई दूसरा व्यक्ति किसी प्रकार की बातचीत करता है, तो उसकी जिम्मेदारी मेरी नहीं है। अर्थात वे अब इस बात से पूरी तरह इंकार कर रहे हैं कि एसीबी के पास मौजूद रिकार्डिंग में उनकी आवाज है।
उनकी भर्राई आवाज में इस बात का दर्द साफ नजर आ रहा था कि वे बड़ी रफ्तार से काम में जुटे हुए थे, ताकि आगे टिकट पक्की हो जाए, मगर एसीबी के चक्कर में सब पर पानी फिर गया। तभी तो बोले कि मैने बीस साल पुराने भूमि के बदले भूमि प्रकरणों का निस्तारण किया, जो कि वाकई बड़ी उपलब्धि है, भले ही वह राज्य सरकार की नई पॉलिसी की वजह से हुआ हो।
जहां तक उनकी उपलब्धियों का सवाल है, रूटीन के काम छोड़ दिए जाएं तो काफी समय से लंबित पड़ी डीडीपुरम योजना को गति देने व एनआरआई कॉलोनी बसाने की कवायद करने के अतिरिक्त बहु प्रतिक्षित एलीवेटेड रोड की दिशा में कुछ कदम बढऩा और स्लम फ्री सिटी के लिए अजमेर का चयन होना उनके कार्यकाल में शुमार है, चाहे इसकी क्रेडिट उन्हें दी जाए या नहीं। इसके अतिरिक्त कम से कम वे पत्रकार, जिनमें यह लेखक शामिल नहीं है, तो उन्हें दुआएं दे ही रहे हैं, जिनके पत्रकार कॉलोनी के भूखंडों के लिए वर्षों पहले भरे गए आवेदन पत्रों का निस्तारण उन्होंने किया। इसकी झलक ताजा एसीबी मामले में हुई रिपोर्टिंग में भी कहीं न कहीं नजर आती है, वरना कोई और होता तो उसके पुरखों के भी बायोडाटा उघड़ कर आ जाते।
इस्तीफा देने वाले दिन उन्होंने पत्रकारों से जो बातचीत की, उसमें यह अहम सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि जिस नैतिकता की दुहाई दे कर वे इस्तीफे की घोषणा कर रहे थे, वह पूरे 21 दिन जेहन में क्यों नहीं आई?
खैर, कुल मिला कर अब देखने वाली बात ये है कि क्या वे एसीबी के मुकदमे से बच पाते हैं अथवा नहीं? और जिस टिकट की आस में पद छोड़ा है, वह हासिल कर पाते हैं या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 27 जून 2013

दरगाह में भीड़ पर काबू के लिए चर्चाओं से कुछ नहीं होगा

हाल ही पुलिस अधिकारियों ने दरगाह और गंज थाना क्षेत्रों के सीएलजी मेंबरों की बैठक में दरगाह में भीड़ के बेकाबू होने से भगदड़ के हालात जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकने के उपायों पर चर्चा गई। ऐसी चर्चाएं न जाने कितनी बार हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर उनमें उपयोगी सुझाव भी आते रहे हैं। मगर होता ये है कि ऐसे सुझाव कहने-सुनने में तो अच्छे लगते हैं, पर जब  उन पर अमल की बात आती है तो दरगाह से जुड़े सभी पक्षों का तालमेल टूट जाता है।
दरअसल जायरीन की आवक लगातार बढ़ रही है। हर माह पडऩे वाली महाना छठी और जुम्मे की नमाज के अलावा आए दिन कोई न कोई रस्म अदायगी होने के कारण यहां जायरीन का तांता लगा ही रहता है। उर्स के दौरान तो फिर भी पूरा बंदोबस्त होता है, मगर छठी को प्रशासन हल्के में लेता है, जबकि हालत ये है कि इस दौरान स्थिति बेकाबू हो जाती है। इसका नजारा पिछली छठी में भी नजर आया। इस कारण एक बार फिर भीड़ पर काबू पाने के उपायों पर चर्चा शुरू हो गई है।
असल में सीधे तौर पर दरगाह के मामलात से जुड़े हैं जायरीन को जियारत कराने व अन्य रस्में अदा करने वाले वाले खादिमों की संस्था अंजुमन, दरगाह के अंदरूनी इंतजामात देखने वाली दरगाह कमेटी और पुलिस व प्रशासन। इन सब के बीच बेहतर तालमेल की सख्त जरूरत है, लेकिन दुर्भाग्य से ये कभी एकराय नहीं हुए, इस कारण आए दिन यहां अनेक समस्याओं से जायरीन को रूबरू होना पड़ता है। उनका समुचित समाधान न होने के कारण देश-विदेश से आने वाले लाखों जायरीन यहां से गलत संदेश ले कर जाते हैं, जिसकी किसी को फिक्र नहीं है। या यूं कहें कि फिक्र तो है लेकिन अपनी-अपनी जिद के कारण उस फिक्र का कोई भी रास्ता नहीं निकाला जा सका है।
हालात तो यहां तक बदतर हैं कि वीआईपी और वीवीआईपी तक यहां आ कर तकलीफ पाते हैं, जब कि वे आते यहां सुकून पाने को हैं। ये तो गनीमत है कि जायरीन का ख्वाजा साहब से रूहानी वास्ता है, इस कारण सभी प्रकार की तकलीफें भोग कर भी वे जियारत करने को चले आते हैं, वरना इंताजामात के हिसाब देखा जाए तो एक बार यहां आने वाला दुबारा आने से तौबा कर जाए। भीड़ की वजह से यहां कई बार भगदड़ भी मच चुकी है। एक बार तो छह जायरीन की मौत तक हो गई। भीड़ में धक्का-मुक्की तो आम बात है ही। भीड़ से निपटने के लिए मेले के दौरान वन वे का उपाय खोजा गया था। उसे एक बार अमल में भी लाया गया। वह काफी कारगर रहा भी। इस पर खादिमों ने ऐतराज किया तो प्रशासन ने हाथ खींच लिए। इस मामले में खादिमों का मानना है कि जो भी जायरीन यहां आता है, वह केवल जियारत के लिए नहीं बल्कि यहां की अनेक रस्मों में भी शिरकत करना चाहता है। उसकी इच्छा होती है कि वह दरगाह के भीतर मौजूद मस्जिदों में नमाज अदा करे और कव्वाली का आनंद ले, लेकिन वन वे करने से वह ऐसा नहीं कर पाता और उसकी इच्छा अधूरी ही रह जाती है। खादिमों के विरोध के कारण वन वे व्यवस्था में ढि़लाई बरती गई, परिणामस्वरूप आज तक धक्का-मुक्की का कोई इलाज नहीं किया जा सका। इसी धक्का-मुक्की के कारण जेब कटना यहां की सबसे बड़ी समस्या है। उसका भी आज तक कोई समाधान नहीं हो पाया है। कई बार तो वीआईपी की जेब भी कट चुकी है। परेशानी ये है कि दरगाह के अंदर जैसे ही पुलिस का बंदोबस्त ज्यादा किया जाता है और उनकी रोका-टोकी होती है तो खादिमों को वह नागवार गुजरती है। इस कारण हर उर्स सहित आम दिनों में भी पुलिस व खादिमों के बीच टकराव होता ही है। कई बार पुलिस वाले पिट भी चुके हैं। बाद में समझौता ही आखिरी रास्ता होता है, लेकिन इसका परिणाम ये होता है कि पुलिस वाले जितने उत्साह के साथ लगने चाहिए वे नहीं लगते।
अंजुमन, दरगाह कमेटी और प्रशासन को चाहिए कि पिछली छठी के दौरान भगदड़ जैसी स्थिति से सबक लेते हुए सख्त कदम उठाने की संयुक्त पहल करें, वरना किसी दिन बड़ा हादसा हो जाएगा और हम आह-ओह करते रह जाएंगे।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 25 जून 2013

अजमेर दक्षिण में कांग्रेस के पास हैं सीमित विकल्प

एक ओर जहां अजमेर उत्तर सीट पर टिकट के लिए घमासान मचा हुआ है, वहीं कांग्रेस के पास अजमेर दक्षिण विधानसभा क्षेत्र में सीमित विकल्प हैं। इसकी एक वजह ये है कि अजमेर दक्षिण सुरक्षित सीट है, जबकि अजमेर उत्तर सामान्य, जहां अनेक समाजों के नेता दावेदार हैं। सिंधी-गैर सिंधी का झगड़ा अलग है।
आइये, जरा बात करें अजमेर दक्षिण के दावेदारों की। पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल इस बार फिर दावेदारी कर रहे हैं, जो कि पिछली बार पूर्व उप मंत्री ललित भाटी की बगावत के कारण हार गए थे। उन्हें कुछ नुकसान सिंधी-गैरसिंधी वाद का भी हुआ। उनकी टिकट में सबसे बड़ा रोड़ा होंगे अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्यमंत्री सचिन पायलट, जिनसे उनका छत्तीस का आंकड़ा है। बात अगर पूर्व उप मंत्री ललित भाटी की करें तो वे चूंकि उन्होंने पायलट को जितवाने में अहम भूमिका निभाई थी इस कारण कुछ उम्मीद बनती है वे उन्हें इनाम देंगे, मगर कांग्रेस इस आशंका में उन पर शायद हाथ नहीं रखे कि इस बार अगर उन्हें टिकट दिया गया तो डॉ. बदला चुकाएंगे।
हालांकि केकड़ी के पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां का दावा सामने नहीं आया है, मगर लगता है कि अंदर ही अंदर वे पुरजोर कोशिश में लगे हुए हैं। दावा तो पूर्व पार्षद प्रताप यादव ने भी किया है, मगर स्थानीय गुटबाजी के चलते उसे कितना वजन मिलेगा कुछ कहा नहीं जा सकता। वैसे वे हैं काफी पुराने नेता और पिछले चार चुनावों से टिकट की मांग कर रहे हैं।
जिला लघु उद्योग केन्द्र में रोजगार अधिकारी के पद से वीआरएस ले चुके छीतर मल टेपण के बारे में तो अपुन ने इसी कॉलम में लिख दिया था कि वे इस बार विधानसभा चुनाव में टिकट की दावेदारी खुल कर करेंगे। वे लंबे अरसे से दावेदारी करते रहे हैं, मगर तब सरकारी नौकरी की मर्यादा आड़े आती थी। टेपण अखिल भारतवर्षीय खटीक महासभा, पुष्कर के अध्यक्ष हैं। उनका दावा है कि इस विधानसभा क्षेत्र में उनकी खटीक समाज के लगभग दस हजार वोट हैं, जिन पर उनकी गहरी पकड़ है। दावा पार्षद विजय नागौरा का भी बताया जाता है, मगर उन्होंने फिलहाल चुप्पी साध ली है। टिकट की लाइन में अरविंद धौलखेडिय़ा, राकेश सवासिया, सुनील लारा, श्रवण टोनी, चेतराम आदि भी शामिल हो गए हैं।
इस सीट के बारे में एक बात आपकी में जानकारी में रहे कि पिछले दिनों रेगर समाज के सामूहिक विवाह सम्मेलन में अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट की मौजूदगी में समाज के पंचों की ओर से अजमेर दक्षिण सीट पर जिस प्रकार अपना हक जताया, उससे कोलियों में खुसरफुसर शुरू हो गई थी। हालांकि रेगर समाज की ओर से यह स्पष्ट नहीं किया गया था, उनकी ओर से दावेदार कौन होगा, मगर जिस ढंग से अजमेर के मेयर कमल बाकोलिया मुखर हुए, उससे लगा कि कहीं इस सीट पर उनकी तो लार नहीं टपक रही। वैसे उनके एक बयान से स्वत: ही रेगर समाज का दावा कमजोर हो रहा था, वो यह कि सचिन पायलट ने अजमेर के मेयर बाकोलिया, ब्यावर नगर परिषद के सभापति मुकेश मौर्य व पुष्कर नगर पालिका की अध्यक्ष श्रीमती मंजू कुर्डिया पर भरोसा जताया और तीनों ने सीटें जीत कर दिखाई। ऐसे में सवाल ये उठता है कि यदि अधिसंख्य महत्वपूर्ण सीटें रेगर समाज ही ले जाएगा तो कोली बहुल अजमेर दक्षिण इलाके के कोलियों का क्या होगा?
यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि इस इलाके में सर्वाधिक वोट कोलियों के माने जाते हैं। उनके अतिरिक्त मेघवाल, भांभी, बलाई व बैरवा हैं। इस सभी जातियों का रुझान कांग्रेस की ओर ही रहता है, हालांकि श्रीमती भदेल के विधायक बनने के बाद कोलियों में विभाजन हुआ है। पिछले चुनाव में तो उन्हें पूर्व विधायक ललित भाटी के भाई हेमंत भाटी का भी सहयोग था। करीब 13 हजार मुस्लिमों का झुकाव भी कांग्रेस की ओर ही माना जाता है। यहां भाजपा के वोट बैंक सिंधी, माली व वैश्य माने जाते हैं। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के कारण कुछ माली जरूर कांगे्रस में हैं।
अब तक के विधायक
1957-महेन्द्र सिंह निर्दलीय
1962-बालकिशन कांगे्रस
1967-अम्बालाल जनसंघ
1972-माणकचंद सोगानी कांग्रेस
1977-कल्याण सिंह जनतापार्टी
1980-कैलाशचंद भाजपा
1985-राजकुमार जयपाल कांग्रेस
1990-श्रीकिशन सोनगरा भाजपा
1993-श्रीकिशन सोनगरा भाजपा
1998-ललित भाटी कांग्रेस
2003-श्रीमती अनिता भदेल भाजपा
2008-श्रीमती अनिता भदेल भाजपा
-तेजवानी गिरधर

क्या वजह है कांग्रेस पार्षद बैरवा की अचानक गिरफ्तारी की?

रविवार को कोटड़ा के सावन पब्लिक स्कूल में वार्ड संख्या एक के पार्षद कमल बैरवा व पर्यवेक्षक राजेश खेरा के बीच नोक-झोंक होती है और सोमवार को राजकाज में बाधा के पुराने मामले में बैरवा की गिरफ्तारी हो जाती है। क्या इन दोनों घटनाओं के बीच कोई संबंध है? संबंध न भी हो तो भी राजनीति में रुचि रखने वालों में चर्चा यही है कि बैरवा को झटका देने की खातिर ही उनकी गिरफ्तारी हुई है।
ज्ञातव्य है कि ब्लॉक की बैठक में न बुलाने पर बैरवा ने बैठक में पहुंच कर नाराजगी जताई कि उनके क्षेत्र में बैठक होने के बावजूद उन्हें दरकिनार किया गया। इस पर पर्यवेक्षक ने कहा कि बैठक में केवल ब्लॉक के पदाधिकारियों व सदस्यों को ही बुलाया गया है, आप सदस्य नहीं हो, इस कारण नहीं बुलाया गया। बात आई गई हो गई। मगर दूसरे ही दिन राजकार्य में बाधा पहुंचाने और पुलिस दल पर पथराव करने के मामले में पुलिस ने पार्षद कमल बैरवा सहित तीन जनों को गिरफ्तार कर कोर्ट के आदेश से जेल भेज दिया। मामला ये था कि कोटड़ा क्षेत्र में मकानों के ऊपर से निकल रही विद्युत लाइन का इलाके के लोग विरोध कर रहे थे। विद्युत वितरण निगम के एक्सईएन सहित अन्य अधिकारी व कर्मचारी मौके पर पहुंचे थे। जहां कस्बेवासियों ने पार्षद के नेतृत्व में जमकर विरोध प्रदर्शन किया था। गुस्साए लोगों ने विद्युत विभाग के कर्मचारियों व अधिकारियों के साथ मारपीट कर पथराव किया और उनके सामान छीनकर उन्हें भगा दिया था। विद्युत विभाग के अधिकारियों की शिकायत पर पुलिस ने मामला दर्ज किया था। फरवरी 2012 में पार्षद सहित अन्य आरोपियों को गिरफ्तार करने पहुंचे पुलिस दल पर कस्बेवासियों ने पथराव किया और पुलिस की जीप को क्षतिग्रस्त कर दिया था। पुलिस ने पार्षद सहित अन्य आरोपियों के खिलाफ राजकार्य में बाधा पहुंचाने का मामला दर्ज किया।  बैरवा ने अग्रिम जमानत के लिये डीजे कोर्ट में प्रार्थना पत्र पेश किया था, जहां से अग्रिम जमानत की अर्जी खारिज हो गई थी।
असल में इस वारदात के बाद जन अभियोग एवं सतर्कता समिति के प्रयासों से समझौता भी हुआ। बावजूद इसके डेढ़ साल पुराने इस मामले में अचानक गिरफ्तारियां हुईं तो इसका संबंध लोगों ने एक दिन पहले हुई घटना से जोड़ दिया। जनअभियोग एवं सर्तकता समिति अजमेर के सदस्य नरेश राघानी ने तो बाकायदा पुलिस की इस कार्यवाही को दमनात्मक बताया है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को लिखे पत्र में कहा गया है कि समिति की पहल पर विद्युत विभाग कर्मियों व ग्राम वासियों के बीच बड़े ही सौहार्दपूर्ण माहौल में समझौता हुआ और विद्युत लाइन का काम सुचारू रूप से पूरा कराया गया था। मुख्यमंत्री को मुकदमे राजकीय अनुशंसा से वापिस लेने का आग्रह किया गया था, जिस पर मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा पुलिस प्रशासन से इस मामले की तत्थात्मक रिपोर्ट भी मंगवाई गई थी। जिसका जवाब पुलिस अधिक्षक अजमेर द्वारा प्रेषित किया गया था। इन सब बातों से साफ है की सरकार उक्त प्रकरण को समझौते के बाद समाप्त करने की दिशा में प्रभावी कदम ले रही है, बावजूद इसके पुलिस ने दमनात्मक कार्यवाही कर दी। इससे आमजन में सरकार का गलत संदेश जा रहा है।
बहरहाल, समझौते के बाद भी पुलिस ने अचानक गिरफ्तारियां की तो स्वाभाविक रूप से लोगों ने इसे कांग्रेस पर्यवेक्षक से माथा लगाने के मामले से जोड़ कर देखना शुरू कर दिया।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 24 जून 2013

चतुर्वेदी ने देशभर में किया अजमेर का नाम रोशन

अजमेर के जाने-माने साहित्यकार व पत्रकार सुरेन्द्र चतुर्वेदी को राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के तत्वावधान में आयोजित मीरा पुरस्कार समारोह, 2013 में हिन्दी गजलों को देशभर में लोकप्रिय बनाने के लिए विशिष्ट साहित्यकार सम्मान प्रदान किया गया है। उदयपुर में अकादमी अध्यक्ष वेद व्यास की अध्यक्षता और केंद्रीय साहित्य अकादमी के पूर्व अध्यक्ष एवं लेखक प्रभाकर स्तोत्री व बाल कवि बैरागी के विशिष्ट आतिथ्य में उन्हें 51 हजार रुपए का चैक भी दिया गया।
ज्ञातव्य है कि चतुर्वेदी देश के ऐसे गजलकार हैं, जिन्होंने उर्दू की तर्ज पर हिंदी की गजलों की रचना का विशिष्ट काम किया है। उनकी अब तक 25 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और वे पांच फिल्मों से भी जुड़े रहे हैं।
आइये, जरा उनके जीवन में बारे में जानें:-
साहित्यकार, सूफी शायर, फिल्म लेखक और व्यंग्यकार सुरेन्द्र चतुर्वेदी पूरे देश में एक जाना-पहचाना नाम है। उनका जन्म 16 मई, 1955 को श्री माणकचंद चतुर्वेदी के घर हुआ। उन्होंने हिंदी, अंग्रेजी व मनोविज्ञान में एम.ए. की है। पेशे से वे शिक्षा विभाग में लाइब्रेरियन रहे हैं, लेकिन वे प्रारंभ से ही रचनाधर्मिता की ऊर्जा से लबरेज रहे हैं। उनकी रचनाएं देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन और दूरदर्शन व अन्य टीवी चैनलों पर प्रसारण होता है। वे अनेक मुशायरों व कवि सम्मेलनों में हिस्सा ले चुके हैं, जहां अपनी अलग ही पहचान बनाए रखते हैं। उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, यथा शवयात्रा स्वीकृतियों की-कविता, दर्द-बे-अंदाज-गजल, पीठ पर टंगा सूरज-उपन्यास, कैक्टस के फूल-कविता, वक्त के खिलाफ-गजल, कभी नहीं सूखता सागर-वेद मंत्रों का काव्य अनुवाद, मैं से तुम तक-कविता संग्रह, पुलिस और मानव व्यवहार-मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, अंदाजे-बयां और-गजल संग्रह, आसमां मेरा भी था-गजल संग्रह, अंजाम खुदा जाने-गजल संग्रह, कोई अहसास बच्चे की तरह-गजल संग्रह, कोई कच्चा मकान हूं जैसे-गजल संग्रह, एज इफ ए मड हाउस आई एम-अंग्रेजी में गजलें। उन्होंने अनेक फिल्मों की कहानियां भी लिखी हैं, यथा अनवर, लाहौर, तेरा क्या होगा जॉनी। हर बात में व्यंग्य और हास्य तलाशने में माहिर चतुर्वेदी अपने भीतर दर्द का कितना बड़ा समंदर लिए घूमते हैं, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक पुस्तक में उन्होंने अपने परिचय में लिखा है- पुरस्कार-एक भी नहीं, अपमान-कदम-कदम पर।
उनका संपर्क सूत्र:-
गजल, कुंदन नगर, अजमेर मोबाइल : 98292-71388
Web : surendrachaturvediajmer.webs.com
E-mail : ghazal1681@yahoo.co.in

अजमेर उत्तर में अचानक पैदा हो गए कई दावेदार

अजमेर उत्तर की प्रतिष्ठापूर्ण सीट, जहां पर कि प्रमुख दावेदारों यथा नरेन शहाणी भगत, डॉ. श्रीगोपाल बाहेती, महेन्द्र सिंह रलावता सरीखों में से किसे टिकट मिलेगा, इसका कोई अता-पता नहीं है, वहां यकायक ऐसे दावेदार पैदा हो गए, जिनके बारे में न तो आज तक सुना गया था और न ही उनको टिकट मिलने का कोई आधार नजर आता है। ऐसे दावेदार भले ही अपने आपको बहुत बड़ा दावेदार महसूस करते हों, मगर आम जनता में यही चर्चा है कि वे केवल अपना नाम चलाने मात्र के लिए दावेदारी कर रहे हैं। दावेदारों की सूची देख कर आप खुद ही अनुमान लगा लेंगे कि वे कौन-कौन हैं।
खैर, बात करें मुद्दे की। हालांकि न्यास सदर नरेन शहाणी के खिलाफ एसीबी की ओर से एफआईआर दर्ज होने के बाद वे कुछ संकट में नजर आते हैं और पता नहीं कब उन पर इस्तीफे का दबाव आ जाए, मगर उन्होंने अपना दावा नहीं छोड़ा है। उधर शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता एक ओर तो अजमेर की दोनों सीटों का जिम्मा अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट को देने का प्रस्ताव पारित करवाते हैं तो दूसरी ओर उनके समर्थक उनको ही टिकट देने की पैरवी कर आते हैं।  जाहिर सी बात है कि पायलट को सिर माथे बैठना उनकी मजबूरी है, जिन्होंने वरिष्ठ कांग्रेसजन के माथे उनको बैठा रखा है। बात अगर पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती की करें तो हालांकि वे पिछली बार हार का मुंह देख चुके हैं, मगर दावा करने से नहीं चूके। वजह ये कि पिछली बार वे मात्र 688 मतों के अंतर से हारे थे, जो कि कुछ खास नहीं है। पीछा अभी शहर कांगे्रस के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ.सुरेश गर्ग ने भी नहीं छोड़ा है। उन्होंने पिछले चुनाव में तो टिकट नहीं मिलने निर्दलीय रूप में परचा तक भर दिया था और मान-मनौव्वल के बाद मैदान से हटे थे। उन्होंने तो अपनी जीत का समीकरण भी पर्यवेक्षक को बता दिया। वह पर्यवेक्षक को वह समझ में आया या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। शहर कांग्रेस महामंत्री सुकेश कांकरिया ने यह तर्क दे कर टिकट मांगा कि माणक चंद सोगानी के बाद जैन समाज को प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाया है। टिकट के लिए छात्र नेता सुनील लारा ने तो शक्ति प्रदर्शन भी किया। इसी प्रकार महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह के खादिम शेखजादा जुल्फिकार चिश्ती ने यह कह कर टिकट मांगा कि पहली बार कोई खादिम टिकट मांग रहा है, मानो जीत के आधार के कोई मायने ही नहीं हैं, समुदायों को रोटेशन के आधार पर टिकट दिया जाना चाहिए। बात करें अगर अजमेर बार एसोसिशन के अध्यक्ष राजेश टंडन की तो उन्होंने भी बिना किसी जातीय समीकरण के अपनी आदत के मुताबिक इस बार फिर टिकट मांग लिया, कदाचित यह सोच कर कि सिंधी-पंजाबी भाई-भाई होते हैं। पीछे पूर्व पार्षद हरीश मोतियानी भी नहीं रहे, जो कि पूर्व राजस्व मंत्री स्वर्गीय किशन मोटवानी के जमाने से दावेदार माने जाते हैं। पूर्व पार्षद रमेश सेनानी का दावा फिलहाल तो सामने नहीं आया है, जो कि काफी पुराने दावेदार रहे हैं। माली समाज के दम पर महेन्द्र तंवर और महेश चौहान भी दावेदारी के मैदान में आ खड़े हुए। राजस्थान सिंधी अकादमी के पूर्व अध्यक्ष डॉ. लाल थदानी का दावा इस बार कुछ और मजबूत हुआ नजर आता है कि भगत इन दिनों थोड़ी परेशानी में हैं। सिंधी समाज से नवगठित सिंधु सेना के संस्थापक नरेश राघानी हालांकि रीढ़ की हड्डी में दर्द की वजह से घर के बाहर नहीं निकले, मगर समझा जाता है कि वे बंकर में से बाद में निकल कर आएंगे। शहर महिला कांग्रेस की अध्यक्ष शबा खान ने पिछले दिनों की सक्रियता को बरकरार रखते हुए टिकट मांग लिया है। जब दावे फोकट में ही मांगे जा रहे हों तो सोनल मौर्य, जितेंद्र खेतावत, नरेंद्र सिंह शेखावत, रुस्तम चीता, सैयद अहसान यासीर चिश्ती आदि भी पीछे क्यों रहते? एक नाम और चर्चा में है, पार्षद रश्मि हिंगोरानी का, जो सिंधी और महिला होने के नाते टिकट की दावेदार हैं, मगर वे भी खुल कर सामने नहीं आईं। कुल कर अजमेर उत्तर में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। देखना ये है कि किस्मत किसकी बुलंद साबित होती है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 23 जून 2013

सचिन के जिम्मे छोड़ें या नहीं, दखल तो उन्हीं का रहेगा

शहर जिला कांग्रेस कमेटी व ब्लॉक कांग्रेस कमेटी ने विधानसभा चुनावों के लिए कांग्रेस प्रत्याशियों के चयन का फैसला सांसद व केंद्रीय कंपनी मामलात राज्यमंत्री सचिन पायलट पर छोड़ देने का भले ही पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती और डॉ. राजकुमार जयपाल की लॉबी ने विरोध किया हो, मगर सच ये है कि अजमेर जिले की विधानसभा टिकटों के फैसले में उनका ही दखल रहने वाला है।
ज्ञातव्य है कि शहर जिला कांग्रेस कमेटी की बैठक में शहर अध्यक्ष महेंद्र सिंह रलावता ने विधानसभा चुनाव में टिकट देने का फैसला सचिन पायलट पर छोडऩे का प्रस्ताव रखा, जिसे सर्वसम्मति से पारित कर दिया। इस पर पीसीसी सचिव ललित भाटी, मेयर कमल बाकोलिया, नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहनी, शहर कांग्रेस के उपाध्यक्ष कैलाश झालीवाल, प्रमिला कौशिक, प्रताप यादव, महामंत्री सुकेश काकरिया, राजनारायण आसोपा, राजेंद्र नरचल व प्रवक्ता राजेंद्र कुमार वर्मा समेत अन्य पदाधिकारियों ने प्रस्ताव पर अपने हस्ताक्षर किए। इससे पहले कांग्रेस के चारों ब्लॉक की बैठकों में भी अध्यक्ष विजय जैन, अशोक बिंदल, आरिफ हुसैन समेत अन्य पदाधिकारियों ने प्रत्याशी के चयन का फैसला सांसद सचिन पायलट पर ही छोड़ते हुए इसके समर्थन में एक लाइन का प्रस्ताव पारित किया।
इस पर कुलदीप कपूर का यह कहना तर्कसंगत लगता है कि टिकट का फैसला सचिन पायलट पर छोडऩा है तो पर्यवेक्षक यहां आए ही क्यों हैं। शायद उनकी भावना की कद्र करते हुए ही पर्यवेक्षक राजेश खेरा ने सभी दावेदारों से मिलना बेहतर समझा। मगर खुद वे भी जानते हैं वे तो मात्र एक दूत हैं, ऊपर तो सचिन की चलने वाली है।
भले ही पिछले दिनों जयपुर में फीडबैक के दौरान कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने यह कह कर सचिन के जिम्मे टिकट निर्धारण का दायित्व डालने से इंकार कर दिया कि एक सांसद के भरोसे टिकट वितरण नहीं किया जाएगा, मगर सब समझते हैं कि यह एक औपाचारिक बयान था। टिकट वितरण में तो सचिन की चलेगी। इसका इशारा इसी बात से लगता है कि उन्होंने यह भी कहा था कि आपके पास तो सचिन जैसा डायनेमिक लीडर है। टिकट वितरण में सचिन की इस कारण भी चलेगी कि आज वे जिस ऊंचे स्थान पर काबिज हैं, उसे कायम रखने के लिए उन्हें अपना प्रभाव अजमेर जिले में साबित भी करना होगा। विशेष रूप से अजमेर की उत्तर व दक्षिण सीट जितवाना उनके लिए बेहद जरूरी है, जिस पर पिछले दस साल से भाजपा का कब्जा है।
यदि सचिन के कहने से ही टिकट दी गई तो स्वाभाविक है कि वे अजमेर दक्षिण में डॉ. राजकुमार जयपाल को कत्तई टिकट नहीं लेने देंगे। संभव है वे अजमेर दक्षिण में पूर्व उपमंत्री ललित भाटी पर हाथ रखें, जिन्होंने उन्हें लोकसभा चुनाव में जीतने में मदद की थी। अजमेर उत्तर की बात करें तो वे डॉ. श्रीगोपाल बाहेती की राह में सबसे बड़ा रोड़ा होंगे। देखने वाली बात ये होगी कि वे शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता पर हाथ रखते हैं या फिर किसी सिंधी को प्राथमिकता देते हैं। सिंधियों में एसीबी की जाल में फंसे नरेन शहाणी भगत का दावा कमजोर होने के बाद वे किस सिंधी पर हाथ रखते हैं, ये तो वक्त ही बताएगा।
यहां यह बताना प्रासंगिक ही रहेगा कि पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में कांग्रेस व भाजपा की स्थिति क्या थी?
अजमेर उत्तर में भाजपा के प्रो. वासुदेव देवनानी ने कांग्रेस के डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को 688 मतों से हराया था, जबकि लोकसभा चुनाव में यहां भाजपा ने अपनी बढ़त बढ़ाई और किरण माहेश्वरी को सचिन की तुलना में 2 हजार 948 वोट ज्यादा मिले थे। वजह ये रही कि विधानसभा चुनाव में सिंधी मतदाता देवनानी के पक्ष में लामबंद हो गया था, जबकि लोकसभा चुनाव में वह फैक्टर समाप्त हो गया। अजमेर दक्षिण में भाजपा की श्रीमती अनिता भदेल ने कांग्रेस के डॉ. राजकुमार जयपाल को 19 हजार 306 मतों से पराजित किया। लोकसभा चुनाव में भाजपा की तो बढ़त सिमटी ही,  सचिन ने किरण से 2 हजार 157 वोट ज्यादा लिए। इसकी वजह ये रही कि विधानसभा चुनाव में बागी बन कर खड़े हुए पूर्व उप मंत्री ने कांग्रेस को 15 हजार 610 वोटों का झटका दिया था, जबकि वे लोकसभा चुनाव में सचिन के कहने से पार्टी में लौट आए। विधानसभा चुनाव में चले सिंधीवाद के लोकसभा चुनाव में गायब होने को भी एक वजह माना जाता है।
बहरहाल, अजमेर की दोनों टिकटें सचिन की सहमति से दी गईं तो उन पर कांग्रेस प्रत्याशियों को जिताने की जिम्मेदारी भी उन्हें ही वहन करनी होगी।
-तेजवानी गिरधर

भगत के उलझने से गैर सिंधी दावेदारों का रहेगा दबाव

एसीबी द्वारा लैंड फॉर लैंड मामले में मुकदमा दर्ज करने के बाद यूआईटी अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत का अजमेर उत्तर विधानसभा क्षेत्र का दावा कमजोर हो सकता है और इसी कारण गैर सिंधी दावेदारों का दबाव बढ़ जाएगा।
पिछली बार कांग्रेस ने गैर सिंधी का प्रयोग करते हुए पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को टिकट दिया, मगर सिंधी-गैर सिंधीवाद भड़कने के कारण वे हार गए। हालांकि हार का अंतर लगभग छह सौ वोट का ही रहा, मगर इससे लगने लगा कि कांग्रेस आगामी चुनाव में दुबारा गैर सिंधी को टिकट देने का खतरा शायद ही मोल ले। मगर भगत का दावा कमजोर होने की स्थिति में समीकरण कुछ बदल गए हैं। वे सिंधी दावेदारों से सबसे ज्यादा मजबूत माने जाते हैं। पार्टी उन्हें एक बार टिकट दे चुकी है, मगर वे पूर्व विधायक नानकराम जगतराय के बागी हो कर खड़े हो जाने के कारण हार गए। हार का अंतर चूंकि मात्र 2 हजार 240 था, इस कारण उनका दावा पिछली बार भी मजबूत था। इस बार उन्होंने अपनी तैयारी टिकट लेने के हिसाब से करना शुरू की, मगर एसीबी की चपेट में आ गए। उनके बाद यूं तो दावेदार कई हैं, मगर कांग्रेस उन पर विचार करने से पहले ये भी आंकेगी कि वे जीताऊ भी हैं या नहीं। सिंधी दावेदारों में डिप्टी सीएमएचओ डॉ. लाल थदानी, युवा नेता नरेश राघानी, पूर्व पार्षद रमेश सेनानी, हरीश हिंगोरानी, पूर्व पार्षद हरीश मोतियानी आदि की गिनती होती है। कांग्रेस पार्षद रश्मि हिंगोरानी भी दावेदारों में शुमार हो सकती हैं, जो कि सिंधी होने के साथ-साथ महिला कोटे का लाभ लेना चाहेंगी। उनके अतिरिक्त पूर्व आईएएस अधिकारी एम. डी. कोरानी के पुत्र शशांक कोरानी दमदार हो सकते हैं और वे चाहें टिकट ला भी सकते हैं। इसकी वजह ये है कि जहां एम. डी. कोरानी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के करीबी हैं, वहीं शशांक कोरानी अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट के दोस्त हैं। मगर अभी उनका मानस स्पष्ट नहीं है।
यदि कांग्रेस को कोई उपयुक्त सिंधी दावेदार नहीं मिला तो फिर गैर सिंधी को आजमाया जा सकता है। उनमें सबसे प्रबल दावेदार मुख्यमंत्री के करीबी माने जाने वाले डॉ. बाहेती को माना जाता है। चूंकि उनकी हार का अंतर कोई खास नहीं रहा था, इस कारण वे फिर से दावेदारी करने की स्थिति में हैं। हालांकि पिछली हार के कारण काफी हतोत्साहित थे, मगर बदले हालात में उन्होंने जमीन पर अपने आप को मजबूत करना शुरू कर दिया है। पिछली बार हार की एक वजह उनका ओवर कॉन्फीडेंस था। इस बार वे संभल कर रहेंगे। वैसे उनको टिकट देने के लिए पायलट सहमत होंगे, इसमें थोड़ा संशय है। उनके अतिरिक्त शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता भी मजबूत दावेदार हैं। उनकी सीधी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह तक पकड़ है। वे पायलट खेमे के भी हैं। वे संगठन के अध्यक्ष पद पर काबिज तो हैं, मगर संगठन दो फाड़ की स्थिति में है, इस कारण उनका दावा कमजोर होता है। वैसे भी उनकी समाज के वोट इतने नहीं कि कांग्रेस उन पर जातीय समीकरण के तहत दाव खेल सके। शहर कांगे्रस के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग भी दावा कर सकते हैं। पिछली बार उन्होंने टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में परचा भरा था, मगर कांग्रेस आलाकमान के आग्रह पर परचा वापस ले लिया। इस बार फिर वे दावेदारी कर सकते हैं। उन्होंने भी जयपुर-दिल्ली तक अपने संपर्क सूत्र बना रखे हैं, मगर उनका खुलासा कम ही करते हैं। शहर जिला कांग्रेस कमेटी के महामंत्री सुकेश काकरिया व महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सबा खान भी दावेदारों में शुमार हैं।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 22 जून 2013

मसूदा में कुमावत के दावे को नजरअंदाज करना आसान नहीं

राज्य सरकार में संसदीय सचिव ब्रह्मदेव कुमावत के विधानसभा क्षेत्र में इस बार भी कांग्रेस टिकट के लिए भारी खींचतान रहेगी। इस विधानसभा सीट के दावेदारी करने वालों में मौजूदा विधायक ब्रह्मदेव कुमावत, अजमेर डेयरी अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी, पूर्व विधायक हाजी कयूम खान, पूर्व मंत्री सोहन सिंह, चांपानेरी के पूर्व सरपंच राकेश शर्मा, बडग़ांव के पूर्व सरपंच वंश प्रदीप सिंह, सिंगावल सरपंच सहदेव गुर्जर, मसूदा विधानसभा यूथ कांग्रेस अध्यक्ष ओम प्रकाश तेली, वाजिद खान चीता, राजन कुमावत व गोविंद भड़क, सुवा लाल चाड, पंचायत समिति सदस्या प्रमिला, प्रवीण सिंह, पूर्व पंचायत समिति सदस्य विक्रमादित्य सिंह, अजीज चीता, दीपू काठात आदि शामिल हैं, मगर मुख्य खींचतान कुमावत, चौधरी और कयूम के बीच होती नजर आ रही है।
जहां तक कुमावत का सवाल है, वे स्वाभाविक रूप से मौजूदा विधायक होने के अतिरिक्त निर्दलीय रूप से जीत कर आने के बाद भी कांगे्रस सरकार बनाने में मदद करने की एवज में टिकट मांगेंगे। हालांकि उन्हें रामचंद्र चौधरी के कड़े विरोध के बाद भी संसदीय सचिव बना कर अहसान चुकाया जा चुका है। उन्हें निर्दलीय होने के बाद भी उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी अजमेर डेयरी अध्यक्ष चौधरी को 7 हजार 655 मतों से पराजित किया। उस चुनाव में कुमावत को 41973 व चौधरी को 34318 मत मिले थे। अर्थात वे इलाके में अपना व्यक्तिगत प्रभाव तो साबित कर ही चुके हैं। ऐसे में उनका टिकट काटना थोड़ा कठिन ही रहेगा। यहां यह बताना प्रासंगिक रहेगा कि कुमावत की जीत की एक वजह भाजपा में बगावत रही। तीसरे स्थान पर रहे भाजपा के नवीन शर्मा को 31080 वोट मिले, जबकि बागी ग्यारसीलाल ने 12 हजार 916 वोट काट दिए। अगर बागी को राजी करने में भाजपा सफल हो जाती तो शर्मा जीत सकते थे।
रहा सवाल चौधरी का तो पिछली बार हार जाने के कारण उनका दावा कमजोर हुआ है, मगर उन्हें पूर्व मंत्री हरेन्द्र मिर्धा लॉबी पूरा सपोर्ट करेगी।  इसके अतिरिक्त डेयरी अध्यक्ष होने के नाते उनका ग्राउंड पर अच्छा नेटवर्क है। वे पूर्व में देहात जिला कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं, इस कारण कार्यकर्ताओं से उनका सीधा संपर्क रहा है। बात करें अगर पूर्व विधायक हाजी कयूम खान की तो वे पहले विधायक काल के दौरान और बाद में भ्ी लगातार दस साल तक इलाके के संपर्क में रहे हैं। पिछले चुनाव में उन्हें पुष्कर से लडऩे का ऑफर था, मगर उन्होंने यह कह कर कि वे लड़ेंगे तो मसूदा से ही, उसे ठुकरा दिया था। बताते हैं कि उनके पास दिल्ली में तुरप का एक पत्ता है, वह उनकी काफी मदद कर सकता है।
बात अगर करें पर्यवेक्षक राजेश खेरा के सामने दावेदारी की तो ब्लॉक अध्यक्ष सरदारा काठात की सदारत में हालांकि अधिसंख्य सदस्यों ने यह प्रस्ताव रखा कि प्रत्याशी चयन के निर्णय का अधिकार अजमेर के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट को दिया जाए, मगर कुछ सदस्यों ने उसका विरोध किया। कहने की जरूरत नहीं है कि चौधरी तो खुले आम पायलट के विरोधी हैं और वे तो लोकसभा चुनाव में उनकी बजाय किसी स्थानीय को टिकट देने की मांग कर चुके हैं।
इस इलाके के जातीय समीकरण पर भी नजर डाल लेते हैं। यहां तकरीबन दो लाख मतदाताओं में से मुसलमान 32 हजार, गूजर 30 हजार, जाट 24 हजार, अनुसूचित जाति 26 हजार, रावत 20 हजार, राजपूत 14 हजार, महाजन 15 हजार, ब्राह्मण 11 हजार व कुमावत 5 हजार हैं।
अब तक के विधायक
1957- नारायण सिंह, कांग्रेस
1962- नारायण सिंह, कांग्रेस
1967- नारायण सिंह, कांग्रेस
1972- नारायण सिंह, कांग्रेस
1977- नूरा काठात, सीपीआई
1980- सैयद मो. अय्याज, कांग्रेस
1985- सोहनसिंह, कांग्रेस
1990- किशन गोपाल कोगटा, भाजपा
1993- किशन गोपाल कोगटा, भाजपा
1998- हाजी कयूम खान, कांग्रेस
2003- विष्णु मोदी, भाजपा
2008- ब्रह्मदेव कुमावत

-तेजवानी गिरधर

दावेदार भले ही और भी हों, मगर टिकट तो रघु को ही मिलेगा

आगामी विधानसभा चुनाव में केकड़ी से टिकट लेने के लिए हालांकि मौजूदा विधायक व सरकार के मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा के अतिरिक्त तीन और की दावेदारी पेश हुई है, मगर समझा जाता है कि रघु शर्मा का टिकट पक्का है। ज्ञातव्य है कि हाल ही कांग्रेस पर्यवेक्षक राजेश खैरा के सामने जिला परिषद सदस्य व पूर्व प्रधान सीमा चौधरी, अजमेर जिला देहात कमेटी अन्य पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष गोकुल चन्द साहू तथा राकेश पारीक ने खुली दावेदारी पेश की। फीडबैक के दौरान ही रघु का पलड़ा काफी भारी नजर आया। अन्य दावेदारों के समर्थकों की मौजूदगी के बाद भी उपप्रधान छोटूराम गुजराल ने उपस्थित कार्यकर्ताओं से अपने हाथ उठा कर वर्तमान विधायक रघु शर्मा को ही टिकट देने के पक्ष में समर्थन मांगने की हिमाकत की। वो तो अन्य दावेदारों के समर्थकों ने इस पर ऐतराज किया, तब जा कर पर्यवेक्षक ने एक कमरे में बैठ कर सभी कार्यकर्ताओं से अलग-अलग रायशुमारी की।
दरअसल रघु शर्मा का टिकट पक्का होने के कई आधार हैं। एक तो वे प्रदेश स्तर पर काफी प्रभावशाली नेता हैं, इस कारण उनका टिकट काटना आसान काम नहीं है। अगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत व कांग्रेस के मौजूदा राष्ट्रीय सचिव सी. पी. जोशी की खटपट नहीं होती तो वे शुरू में ही काबीना मंत्री बन जाते। इसके बावजूद उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और लगातार दबाव बना कर मुख्य सचेतक का पद हासिल कर ही लिया। असल में अपने कद के अनुरूप पद हासिल करने में उन्हें दिक्कत आई ही इसलिए कि उन्होंने पाला बदल कर जोशी खेमा ज्वाइन कर लिया था, वरना कभी वे गहलोत के खास सिपहसालार हुआ करते थे। उन्हीं का वरदहस्त होने के कारण भिनाय से हारने के बाद भी जयपुर लोकसभा सीट की टिकट हासिल कर ली थी। यह बात अलग है कि यहां भी उन्हें हार का ही मुंह देखना पड़ा। मगर वे कितने प्रभावशाली हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लग जाता है कि फिर भी वे केकड़ी का टिकट ले ही आए। उनकी गिनती भाजपाइयों से खुल कर भिड़ंत लेने वाले नेताओं में भी होती है। इसी के चलते एक बार प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा राजे से भी टकरा गए थे। खुद अपनी सरकार को भी कभी-कभी घेरने की वजह से भी कई बार विवादित हो जाते हैं।
रघु की मजबूती का दूसरा आधार ये है कि उन्होंने अपने विधानसभा क्षेत्र में जम कर काम करवाए हैं और इसी आधार पर ये तक माना जाता है कि वे इस बार भी आसानी से चुनाव जीत जाएंगे। वे पहले विधायक हैं, जिन्होंने केकड़ी को जिला बनाने की पैरवी की। इसके अतिरिक्त बड़े सरकारी अस्पताल की स्थापना में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। हालांकि सिक्के का दूसरा पहलु ये है कि पूरे साढ़े चार साल तक उन्हें हिंदूवादी संगठनों की सक्रियता से परेशानी का सामना करना पड़ा। सरवाड़ प्रकरण में तो उनकी नाकामी साफ नजर आई। लेकिन साथ ही इससे उन्होंने अल्पसंख्यकों के वोट तो पक्के कर लिए। सच ये भी है कि उन्होंने केकड़ी सीट पर कब्जा बरकरार रखने के प्रयास शुरू से ही आरंभ कर दिए, क्योंकि इससे पहले वे भिनाय विधानसभा सीट और जयपुर लोकसभा सीट पर हार चुके थे।
इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पिछले चुनाव में उनका परफोरमेंस काफी अच्छा रहा था। उल्लेखनीय है कि   उन्होंने अपनी निकटतम प्रतिद्वंद्वी भाजपा की रिंकू कंवर को 12 हजार 659 मतों से हराया था। रघु को 47 हजार 173 व रिंकू कंवर को 34 हजार 514 मत मिले । अगर कांगे्रस के बागी पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां, जिन्होंने कि 22 हजार 123 वोट हासिल किए, मैदान नहीं होते तो रघु की जीत और अधिक मतों से होती। हालांकि इसमें एक फैक्टर ये भी है कि भाजपा में दो फाड़ हो रखी थी। भाजपा के बागी भूपेन्द्र सिंह 17 हजार 801 वोटों का झटका दिया था। यदि कांग्रेस व भाजपा के अधिकृत प्रत्याशियों के वोटों में बागियों के भी वोट जोड़ दिए जाएं, तब भी रघु काफी बेहतर स्थिति में होते।
-तेजवानी गिरधर

जाट की जान को जर्मन बना कर भेजे गए सुरेश सिंधी

हाल ही राज्य सरकार ने अनेक आरएएस अधिकारियों को इधर से उधर कर दिया तो माना यही गया कि आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर ही नई जाजम बिछाई गई है। इसकी पुष्टि करना हालांकि संभव नहीं है कि ऐसा सरकार ने चुनाव की वजह से ही ऐसा किया है, मगर एक तबादले से तो यहीं संकेत मिलता है कि सरकार ने मोर्चा संभाल लिया है। एमडीएस यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार सुरेश कुमार सिंधी को नसीराबाद एसडीएम बनाए जाने के साथ ही यह स्पष्ट हो गया है कि उन्हें वहां के संभावित भाजपा प्रत्याशी व पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को नाथने के लिए ही वहां तैनात किया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि सुरेश सिंधी को निहायत ईमानदार अफसर माना जाता है। प्रो. जाट के कथित गैर वाजिब आदेशों को मानने से इंकार करने पर उनका उनसे टकराव भी हुआ था, उन्हें परेशान भी किया गया, मगर सिंधी झुके नहीं। पिछले चुनाव में जब प्रो. जाट मात्र 71 वोटों से हारे तो उन्होंने धांधली का आरोप लगाते हुए मतों की पुनर्गणना की मांग उठाई थी। उन्होंने सिंधी पर गड़बड़ी करने का आरोप तक लगाया था। यह विवाद काफी लंबा चला, मगर सिंधी घबराए नहीं। उनकी इस दृढ़ता को देखते हुए ही शायद उन्हें फिर से नसीराबाद लगाया गया है, ताकि वे प्रो. जाट पर अंकुश लगा सकें। सिंधी को नसीराबाद लगाए जाने को मजह एक इत्तेफाक तो नहीं माना जा सकता।
-तेजवानी गिरधर

विनीता को हटाने के साथ खत्म हुई जंग

अजमेर नगर निगम के मेयर कमल बाकोलिया व पार्षदों और सीईओ विनीता श्रीवास्तव के बीच चल रही जंग आखिर विनीता के तबादले पर जा कर समाप्त हुई। अपुन ने पहले ही लिख दिया था कि अगर सरकार बाकोलिया पर अंकुश लगाने का मानस रखती होगी तो विनीता को यहीं पर तैनात रखेगी, वरना कहीं और रुखसत कर देगी। विनीता को हटाने का सीधा सा अर्थ है कि सरकार चुनावी साल में अपने जनप्रतिनिधियों को नाराज नहीं करना चाहती। यूं विनीता भी ताजा विवाद के बाद यहां नहीं रहना चाहती थीं और आरएएस तबादलों के लिए बन रही सूची में अपना नाम शुमार करवा लिया। बाकोलिया भी राजी, विनीता भी राजी। अगर सरकार विनीता से नाराज होती तो कहीं दूर फैंकती, मगर उन्हें अजमेर में ही नगर सुधार न्यास का सचिव बना दिया गया है। ये बात अलग है कि यूआईटी भी नगर निगम की तरह काजल की कोठरी है। निगम में तो फिर भी मेयर सहित सारे पार्षदों से तालमेल बैठाना पड़ता था, जबकि न्यास में केवल अध्यक्ष को ही पटा कर रखना होगा। ज्ञातव्य है न्यास में विवादित होने के बाद सचिव पुष्पा सत्यानी को हटा दिया गया था और तभी से कार्यवाहक सचिव के तौर पर निशु अग्निहोत्री काम कर रहे थे, जो लैंड फोर लैंड प्रकरण में आरोपों के चलते हाल ही में प्रतापगढ़ स्थानांतरित कर दिए गए हैं।
आपको याद होगा कि हाल ही विनीता का बाकोलिया से टकराव हो गया था। वजह ये थी कि बाकोलिया ने सीईओ को धारा 49 का हवाला देते हुए निगम में आयुक्तों के कार्य के बंटवारे के आदेश को निरस्त करने के निर्देश दिये थे, इस पर सीईओ ने इस निर्देश को मानने से साफ इंकार करते हुए अपने फैसले को यथावत रखा। सीईओ ने साफ कह दिया कि मेयर ने बंटवारे को निरस्त करने के लिए कहा था, लेकिन आदेश नियमानुसार जारी किए गए हैं। इस वजह से निरस्त नहीं किए गए। एक्ट के अनुसार प्रशासनिक अधिकार सीईओ के पास हैं। जाहिर सी बात है कि इससे बाकोलिया की बड़ी फजीहत हुई। उन्होंने सवाल खड़ा किया स्वायत्तशासी संस्था में अधिकारी अगर जनप्रतिनिधियों की शिकायतों का निवारण नहीं करेंगे, तो जनता को जवाब कौन देगा? निगम में नेता प्रतिपक्ष नरेश सत्यावना ने तो खुल कर हमला ही बोल दिया। उन्होंने निगम प्रशासन के कुछ अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और कहा कि महज रिश्वत के कारण अवैध भवनों का नियमन किया जा रहा है, जबकि जनप्रतिनिधियों की क्षेत्रीय समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा, जिससे नागरिकों में जनप्रनिधियों के खिलाफ  आक्रोश बढ़ गया है। समझा जा सकता है कि उन्होंने यह आरोप किस के इशारे पर लगाया है। यानि कि निगम में अधिकारियों और पार्षदों व मेयर के बीच जंग और तेज होने वाली थी, मगर सरकार ने मौके की नजाकत तो देखते हुए विनीता को ही हटा दिया।
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 20 जून 2013

प्रशासन की जिद पड़ गई उसके गले, खतरा अब भी टला नहीं है

आनासागर का पानी कुछ खाली न करने की जिद प्रशासन को भारी पड़ गई। सिर्फ दो झमाझम बारिशों ने ही उसे आनन-फानन में आनासागर को खाली करने का निर्णय करना पड़ा, नतीजतन सराधना में भी खेतों में पानी भर गया है और खानपुरा में फसलें डूब गई हैं। प्रशासन को अब उनके रोष का सामना करना पड़ रहा है। ये तो गनीमत रही कि पिछले तीन दिन से बारिश नहीं आई, अन्यथा उसकी जिद उसके गले ही आग गई होती। हालांकि खतरा अब भी टला नहीं है। मौसम विभाग ने आगामी दिनों में भारी वर्षा की चेतावनी दे रखी है।
वस्तुत: ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती के उर्स के दौरान आनासागर का पानी कुछ खाली करके विश्राम स्थली को जायरीन के ठहराने के लायक बनाने की मांग को उसने जिद करके खारिज कर दिया। असल में वह समझ तो रहा था कि इस बार के मानसून में उसे पानी खाली करना पड़ेगा, मगर यह सोच कर कि ऐसा अभी से करने पर विश्राम स्थली का दुरुस्त करना होगा, सो उसने उस वक्त कई छोटे-मोटे कारण गिनाते हुए अडिय़ल रुख अपना लिया। इसमें एक-दो मीडिया संस्थानों ने उसे सहयोग भी किया और ऐसा माहौल बनाया कि विश्राम स्थली का पानी तो कत्तई खाली नहीं किया जा सकेगा। उसकी जिद के आगे मांग करने वाले झुक भी गए। दरअसल मांग थी तो पूरी तरह जायज, मगर जन-दबाव ठीक से बना भी नहीं। खादिमों ने औपचारिकता भर निभाई। कुछ मुस्लिम संगठनों और कुछ कांग्रेसियों ने भी आवाज उठाई, मगर वह नक्कारखाने में तूती के समान थी। रहा सवाल भाजपा को तो उसे तो मानों दरगाह इलाके से कोई लेना-देना ही नहीं है, क्योंकि उसे वहां से वोट मिलेत ही नहीं। बहरहाल, अपने निर्णय को सही ठहराने के लिए प्रशासन ने बाकायदा योजनाबद्ध तरीके से यह साबित करने की कोशिश भी कि उसका निर्णय सही था और उसकी कायड़ विश्राम स्थली पर जायरीन को ठहराने की योजना कामयाब हो गई। मगर एक हफ्ता भी नहीं बीता कि मानसून नजदीक देख कर मीडिया ने आगाह करना शुरू कर दिया कि आज के हालात में चूंकि आनासागर लबालब है, ऐसे में बारिश शुरू होते ही हालात बेकाबू हो जाएंगे तो प्रशासन को सोचने को मजबूर होना पड़ा। उसने सभी संबंधित विभागों की आपात बैठक भी बुलाई, मगर इसी बीच मौसम विभाग ने चेतावनी दी कि अजमेर संभाग में अत्यधिक बारिश होने की संभावना है तो जिला कलेक्टर वैभव गालरिया को बैठक से पहले ही तत्काल निर्णय लेकर आनासागर के चैनल गेट खोलने का निर्णय लेना पड़ा। नतीजा ये हुआ कि आनासागर के पानी से खानपुरा तालाब का जलस्तर बढ़कर साढ़े 4 फीट पर पहुंच गया और 400 बीघा में फसलें चौपट हो गईं। ऐसे में प्रशासन को खोले गए तीन चैनल गेटों को नौ इंच की बजाय तीन इंच करना पड़ा। उधर एक और तेज बारिश आ गई, जिससे पानी की निकासी फिर बराबर हो गई और प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए। उसके पास खानपुरा व सराधना के निवासियों के रोष का कोई जवाब नहीं रहा। इधर कुआं उधर खाई की स्थिति हो गई। इस पर ग्रामीणों ने कहा कि पूर्व का जलस्तर अच्छा होने व इस बार मानसून के जल्दी आने से कुछ दिन पहले ही महंगे बीज खरीदकर बुवाई की थी। पानी आगे कहां तक जाएगा और इसके क्या दुष्परिणाम होंगे, इसको लेकर न तो सिंचाई महकमे के किसी अधिकारी ने ध्यान दिया और न ही जिला कलेक्टर ने। इसका परिणाम ये रहा कि खानपुरा तालाब में पानी का फैलाव भी बढ़ गया। तालाब क्षेत्र में इस समय करेला, भिंडी, ककड़ी, खीरा, ग्वार फली तथा रिजका की फसलों की बुवाई की हुई है। किसानों का आरोप है कि प्रशासन ने झील से पानी छोडने के पहले उन्हें किसी प्रकार अवगत नहीं कराया। पानी की निकासी के पहले तालाब में मौजूद तीनों मोरियों की सफाई तक नहीं कराई गई, जिससे उनकी फसलें डूब गई हैं।
अचानक चैनल गेट खोले जाने के बाद एस्केप चैनल का जल स्तर भी बढ़ गया। पानी की निकासी तेज होने पर अलवर गेट, लुहार कॉलोनी, गुर्जर धरती इलाके में पानी निकासी वाले नाले का जलस्तर बढ़ गया। आनासागर एस्केप चैनल का कई इलाकों में जलस्तर जोखिम भरा नजर आया। गेट खुलते ही खुली सफाई की पोल भी खुल गई। कारण साफ है कि मामूली पानी से ही इन इलाकों में एस्केप चैनल का चल स्तर इतना बढ़ जाता है कि इलाकों का पानी वहीं पर जमा होने लग जाता है। मामूली बारिश में इन इलाकों में जल-भराव का यही प्रमुख है। अलवर गेट, लुहार कॉलोनी, गुर्जर धरती इलाके में पानी निकासी वाले नाले का जल स्तर बढऩे से पानी नालियों के जरिए बाहर आने लगता है।
कुल मिला कर प्रशासन को अब समझ में आ गया है कि उसकी आनसागर को कुछ खाली किए जाने की उसकी जिद ही अब उसे भारी पड़ रही है। एक माह पहले यदि कुछ पानी खाली कर लिया जाता तो आपात स्थिति में ये हालात नहीं होते।
-तेजवानी गिरधर

नसीराबाद में है बाबा के परिवार का वर्चस्व

बाबा गोविंद सिंह गुर्जर
अजमेर जिले की नसीराबाद विधानसभा सीट पर लगातार छह बार काबिज रहे पांडिचेरी के भूतपूर्व उपराज्यपाल स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के निधन के बाद पिछले विधानससभा चुनाव में तो उनके ही भतीजे व श्रीनगर पंचायत समिति के पूर्व प्रधान महेन्द्र सिंह गुर्जर ने कब्जा किया ही, आगामी विधानसभा चुनाव में भी टिकट की दावेदारी की दृष्टि से उनके ही परिवार का कब्जा रहने वाला है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही जब कांग्रेस पर्यवेक्षक रोजश खेरा वहां फीडबैक लेने गए तो जिन छह दावेदारों ने अपना दावा पेश किया, उनमें से तीन बाबा के ही परिवार के थे। हालांकि लगता यही है कि इस बार भी मौजूदा विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर को ही टिकट मिलेगा, लेकिन यहां बाबा के परिवार का ही वर्चस्व जताने के लिए योजनाबद्ध तरीके से बाबा के भाई जिला परिषद सदस्य रामनारायण गुर्जर व बाबा के दत्तक पुत्र सुनील गुर्जर ने भी दावा कर दिया। उनके अतिरिक्त जिन तीन अन्य ने दावा पेश किया, उनमें से भी दो गुर्जर समाज से ही हैं, जबकि शेष एक मुस्लिम समुदाय से है। इनके नाम अजमेर नगर निगम के कांग्रेसी पार्षद नौरत गुर्जर व सुआलाल गुर्जर और नसीराबाद विधानसभा यूथ कांग्रेस अध्यक्ष गुल मोहम्मद खान हैं। समझा जा सकता है कि बाबा परिवार की पुश्तैनी सीट होने के कारण शेष दोनों गुर्जर दावेदारों का दावा कितना मजबूत है। इसी प्रकार मुस्लिम दावेदार गुल मोहम्मद खान के दावेदार का आधार इस विधानसभा क्षेत्र में मुस्लिमों के तकरीबन 20 हजार वोट हैं। इस सीट पर कांग्रेस की लगातार जीत का आधार गुर्जरों और अनुसूचित जाति के करीब 24-24 हजार वोट और मुसलमानों के 20 हजार वोट हैं।
महेन्द्र सिंह गुर्जर
दरअसल यहां पूर्व में लगातार गुर्जर व रावतों के बीच मुकाबला होता था। बाबा के सामने लगातार तीन बार रावत समाज के मदन सिंह रावत खड़े किए गए, मगर जीत उनकी किस्मत में थी ही नहीं। पिछली बार परिसीमन के तहत पुष्कर व भिनाय विधानसभा क्षेत्र के कुछ हिस्सों को शामिल किए जाने के कारण यहां का जातीय समीकरण बदल गया। तकरीबन 25 हजार जाटों के मद्देनजर पूर्व जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट को उतारा गया। लगातार तीन बार हारे रावत को चुनाव से ठीक पहले मगरा विकास बोर्ड का अध्यक्ष बना कर साइड कर दिया गया था। भाजपा का यह प्रयोग हालांकि जातीय समीकरण के लिहाज से उचित ही था, मगर प्रो. जाट भी महज 71 वोटों से हार गए। इस अंतर को नगण्य ही माना जाएगा। इस बार भी यहां भाजपा टिकट के लिए उनका ही दावा मजबूत है। वे खुद ही सीट बदलना चाहें, ये बात अलग है। वे प्रदेश भाजपा अध्यक्ष श्रीमती वसुंधरा के हनुमान कहलाते हैं, इस कारण उनकी टिकट पक्की है। उनके पास विकल्प के रूप में किशनगढ़ अथवा केकड़ी सीट है।
अब तक के विधायक
1957 - ज्वाला प्रसाद शर्मा-कांग्रेस
1962 - ज्वाला प्रसाद शर्मा-कांग्रेस
1967 - विजयसिंह-निर्दलीय
1970 - शंकर सिंह-कांग्रेस
1972 उपचुनाव- शंकर सिंह-कांग्रेस
1977 - भंवरलाल-जनता पार्टी
1980 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
1985 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
1990 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
1993 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
1998 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
2003 - गोविंद सिंह गुर्जर-कांग्रेस
2008 - महेन्द्र सिंह गुर्जर-कांग्रेस

-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 19 जून 2013

नसीम को मिलने लगी चुनौती, मगर होगा क्या?

विधानसभा चुनाव की आहट के साथ शुरू हुई राजनीतिक सरगर्मी के बीच पुष्कर की कांग्रेस विधायक व शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ को चुनौती मिलने लगी है, मगर जिस जातीय समीकरण के तहत मुस्लिम होने के नाते उन्हें पिछली बार पुष्कर से टिकट मिला था, उसे देखते हुए यह सवाल तो खड़ा होता ही है कि क्या अन्य जातियों के दावे ठहर भी पाएंगे भी या नहीं?
हाल ही अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पर्यवेक्षक राजेश खेरा ने पुष्कर में जब नेताओं व कार्यकर्ताओं से मुलाकात कर मौजूदा विधायक की परफोरमेंस और संभावित उम्मीदवारों के बारे में चर्चा की तो जहां अनेक जनप्रतिनिधियों ने मौजूदा विधायक नसीम को ही फिर से टिकट देने की मांग उठाई तो दूसरी ओर रावत व गुर्जर समाज सहित कई अन्य लोगों ने भी टिकट की दावेदारी ठोक दी। फीडबैक से पता लगा कि अधिसंख्य नेता नसीम के ही पक्ष में हैं। यथा पुष्कर ब्लॉक कांग्रेस अध्यक्ष ओम प्रकाश गुर्जर, नगर कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष भागचंद गंगवाल, पालिकाध्यक्ष मंजू कुर्डिया, पीसांगन पंचायत समिति की प्रधान कमलेश कंवर पोखरणा, श्रीनगर पंचायत समिति के प्रधान रामनारायण गुर्जर, देवनगर की सरपंच मिथलेश शर्मा, कडै़ल की सरपंच संपत कंवर, नांद सरपंच कुमकुम कंवर, जिला देहात कांग्रेस महामंत्री दामोदर शर्मा आदि। मगर कुछ नेता ऐसे भी थे, जिन्होंने अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर दी। इनमें रावत महासभा राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष ज्ञान सिंह रावत व कुंदन सिंह रावत और गुर्जर समाज एडवोकेट हरीसिंह गुर्जर व लतपत राम गुर्जर शामिल हैं। इसी प्रकार अल्पसंख्यकों की ओर से शरीफ मोहम्मद, अजमेर शहर जिला कांग्रेस कमेटी के महामंत्री फिरोज खान, चीता मेहरात समाज के भंवर बहादुर चीता एवं सोमलपुर के सरपंच कालू खां ने भी दावेदारी की।
सवाल ये उठता है कि नसीम अख्तर का अच्छा परफोरमेंस होने के बाद भी ये दावे कैसे हो गए? क्या वाकई इस क्षेत्र में नसीम को चुनौती देने वाले पैदा हो गए हैं या फिर अपनी इंपोर्टेंस बनाने के लिए अन्य दावेदार सामने आए हैं। असल में इसकी एक मात्र वजह ये है कि अजमेर जिले में मसूदा सीट भी अल्पसंख्यकों के लिए मुफीद है और वहां भी किसी मुस्लिम को टिकट दिया जा सकता है। पिछली बार वहां पूर्व विधायक हाजी कयूम खान का दावा काफी मजबूत था, मगर जाट लॉबी के दम पर रामचंद्र चौधरी टिकट ले आए। ऐसे में कयूम को पुष्कर से लडऩे को कहा गया, मगर उन्होंने यह कह कर टिकट लेने से इंकार कर दिया कि वे लड़ेंगे तो मसूदा से ही, क्योंकि वहां उन्होंने पिछले पांच साल काम किया है। पुष्कर के तत्कालीन विधायक ने अजमेर उत्तर की राह पकड़ी तो पुष्कर खाली रह गया और ऐसे में जिले में किसी एक मुस्लिम को टिकट देने के चक्कर में नसीम का नसीब खुल गया। खैर, यदि जातीय समीकरणों के तहत कुछ सीटों पर कांग्रेस हेरफेर करती है तो संभव है मसूदा से किसी मुस्लिम पर विचार किया जाए। ऐसे में एक संभावना ये बनती है कि नसीम को वहां भेजा जाए या फिर कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमेद पटेल से करीबी के चलते पूर्व विधायक कयूम खान भी टिकट लाने में कामयाब हो सकते हैं। रहा सवाल पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती का तो वे फिर से अजमेर उत्तर में ही रुचि दिखा रहे हैं, ऐसे में पुष्कर सीट खाली हो जाएगी। तब यहां रावतों व गुर्जरों का दावा बन सकता है। इनमें कुंदन सिंह रावत का दावा काफी मजबूत माना जा रहा है। हालांकि पर्यवेक्षक खेरा ने इस मौके पर कहा कि रावत, गुर्जर सहित विभिन्न समाज के लोग भले ही अपनी जाति के एकमुश्त वोट के दम पर टिकट मांग रहे हैं, बावजूद इसके कांग्रेस पार्टी जातिगत आधार पर टिकट नहीं देगी, मगर सब जानते हैं कि टिकट वितरण का आधार जातिगत ही होता है।
-तेजवानी गिरधर

मेयर-सीईओ की ये जंग कहां तक जाएगी?

अजमेर नगर निगम में अधिकारियों व जनप्रतिनिधियों के बीच एक बार फिर टकराव की नौबत आ गई है। पहले जिन सीईओ सी. आर. मीणा को खुद मेयर कमल बाकोलिया ले कर आए, उन्हीं से नहीं पटी। आखिरकार मीणा का तबादला जिला परिषद में किया गया। अब उनकी मौजूदा सीईओ विनीता श्रीवास्तव से भी नहीं पट रही है। दोनों के बीच टकराव अब खुली जंग का रूप ले चुका है। एक ओर जहां विनीता ने बाकोलिया के निर्देश को नियमों का हवाला दे कर मानने से इंकार कर दिया तो दूसरी ओर बाकोलिया ने भी जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा किए जाने का आरोप लगाया है।
असल में मेयर बाकोलिया ने सीईओ को धारा 49 का हवाला देते हुए निगम में आयुक्तों के कार्य के बंटवारे के आदेश को निरस्त करने के निर्देश दिये थे, इस पर सीईओ ने इस निर्देश को मानने से साफ इंकार करते हुए अपने फैसले को यथावत रखा। सीईओ ने साफ कह दिया कि मेयर ने बंटवारे को निरस्त करने के लिए कहा था, लेकिन आदेश नियमानुसार जारी किए गए हैं। इस वजह से निरस्त नहीं किए गए। एक्ट के अनुसार प्रशासनिक अधिकार सीईओ के पास हैं। इस मसले पर पहले तो बाकोलिया ने बाहर होने का बहाना बना कर कोई प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया, लेकिन दूसरे ही दिन कुछ पार्षदों ने उनमें हवा भर दी। इस पर उन्होंने कहा कि जनप्रतिनिधियों ने अधिकारियों की शिकायत की है, जो चिंता का विषय है। उन्होंने सवाल खड़ा किया कि स्वायत्तशासी संस्था में अधिकारी अगर जनप्रतिनिधियों की शिकायतों का निवारण नहीं करेंगे, तो जनता को जवाब कौन देगा? उनकी बात में दम तो है, मगर जनप्रतिनिधियों की अपेक्षाएं कितनी वाजिब हैं, ये तो सरकारी प्रतिनिधि ही तय करेंगे, जो कि सीधे तौर पर नियमों की पालना करवाने के लिए जिम्मेदार होते हैं। इसका ताजा तरीन मामला सबको पता है कि नो कंस्ट्रक्शन जोन वाले मामले में निगम के प्रस्ताव पारित करने के बावजूद सीईओ ने अपना स्टैंड साफ रखा, जिसे कि स्वायत्त शासन विभाग ने पूरा समर्थन किया। नतीजतन मेयर को यह कह कर खीज मिटानी पड़ी कि सरकार का निर्णय शिरोधार्य है।
खैर, बाकोलिया ताजा मामले में जनप्रतिनिधियों की उपेक्षा को लेकर  कुछ संयत भाषा में बोल कर रह गए, मगर निगम में नेता प्रतिपक्ष नरेश सत्यावना ने तो खुल कर हमला ही बोल दिया। उन्होंने निगम प्रशासन के कुछ अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए और कहा कि महज रिश्वत के कारण अवैध भवनों का नियमन किया जा रहा है, जबकि जनप्रतिनिधियों की क्षेत्रीय समस्याओं की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा, जिससे नागरिकों में जनप्रनिधियों के खिलाफ  आक्रोश बढ़ गया है। समझा जा सकता है कि उन्होंने यह आरोप किस के इशारे पर लगाया है। यानि कि अब स्पष्ट है कि निगम में अधिकारियों और पार्षदों व मेयर के बीच जंग और तेज हो जाएगी। ये जंग कहां तक जाएगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। अगर सरकार बाकोलिया पर अंकुश लगाने का मानस रखती होगी तो विनीता को यहीं पर तैनात रखेगी, वरना कहीं और रुखसत कर देगी।

मंगलवार, 18 जून 2013

केईएम लौटाने इच्छा नहीं है जिला प्रशासन की?

मूलत: नगर निगम की संपत्ति किंग एडवर्ड मेमोरियल को निगम को लौटाने की इच्छा नहीं दिखती है जिला प्रशासन की। इसी कारण उसमें जानबूझ कर अडंगेबाजी की जा रही है। कैसी विडंबना है कि जिला प्रशासन के अधिकारियों को अच्छी तरह से पता है कि मेमोरियल निगम की ही संपत्ति है, मगर उसे लौटाने में उन्हें जोर आ रहा है और वे किसी न किसी बहाने उस पर कब्जा किए बैठे हैं।
ताजा अडंगा है मेमोरियल की लीज डीड का, जो कि निगम के रिकार्ड से गायब है। आखिर एक सौ दो साल पहले का मामला है, जब तत्कालीन नगर पालिका की 25 मार्च 1911 को हुई साधारण सभा में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को स्मारक के लिए जमीन देने का फैसला किया था। अब उसका रिकार्ड तलाशना निगम कर्मियों के लिए बेहद मुश्किल है। हालांकि उससे संबंधित अन्य कागजाद मौजूद हैं। इस बारे में निगम प्रशासन का कहना है कि भवन का कब्जा सौंपने में लीज डीड की आवश्यकता ही नहीं है। निगम ने रिकार्ड में पड़े अन्य दस्तावेज कमेटी को उपलब्ध करा दिए, जिससे उसका मालिकाना हक साबित होता है। इस आधार पर निगम का कहना है कि इस संबंध में संभागीय आयुक्त निगम के पक्ष में फैसला दे चुके हैं, अत: अब लीज डीड के कागजात का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
निगम के इन तर्कों से साफ है कि प्रशासनिक अधिकारी जानबूझ कर अंडग़ा डाल रहे हैं। हालांकि इस बारे में निगम मेयर कमल बाकोलिया ने जिला कलेक्टर वैभव गालरिया को पूरी स्थिति से अवगत कराया है और उन्होंने उचित कार्यवाही का आश्वासन दिया है, मगर जैसा कि अन्य अधिकारियों के रवैये का सवाल है, वे आसानी से मानते नहीं दिखाई देते।
ज्ञातव्य है कि निगम ने वर्ष 2011 में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को कब्जा सौंपने के लिए नोटिस भी दिया था। इसके बाद निगम ने संभागीय आयुक्त न्यायालय में अपील की थी। संभागीय आयुक्त ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद निगम को कमेटी का पक्ष सुनने के बाद कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। इसके बाद निगम ने कमेटी के आवेदन पर पुन: सुनवाई की थी। निगम ने कमेटी के एतराज को खारिज कर दिया था। कलेक्टर ने केईएम भवन हस्तांतरित करने के लिए अतिरिक्त कलेक्टर शहर जे के पुरोहित की अगुवाई में कमेटी बनाई थी। भवन को लेकर कमेटी की तीन चार बार बैठक हो चुकी है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
वह शिलापट्ट, जो केईएम के निर्माण के बारे में जानकारी देता है
जानकारी के अनुसार मेमोरियल का कब्जा प्रशासन के पास होने के कारण प्रशासनिक अधिकारी उसका उपयोग करते हैं और वे नहीं चाहते कि यह सुविधा उनसे छिन जाए।
इस सिलसिले में पूर्व में निगम पार्षद अपना रोष जाहिर कर चुके हैं, मगर प्रशासनिक अधिकारी मामले को लगातार टालते जा रहे हैं। हाल ही नगर निगम के मनोनीत पार्षद सैय्यद गुलाम मुस्तफा चिश्ती ने मेयर को पत्र लिख कर रोष जाहिर किया है और कहा है कि इस विषय में त्वरित कार्यवाही करने के लिए पार्षदों की बैठक बुलाकर तुरंत निर्णय किया जाए।
ज्ञातव्य है कि 25 मार्च 1911 को तत्कालीन नगर पालिका की साधारण सभा में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को स्मारक के लिए जमीन देने का फैसला किया था। निगम ने कमेटी को पहले ब्यावर रोड पर जमीन आवंटित की थी, लेकिन 6 सितंबर 1911 को फिर हुई साधारण सभा की बैठक में स्टेशन रोड पर जमीन आवंटित करने का फैसला किया। निगम ने कमेटी को 17 हजार 511 वर्ग गज भूमि पांच रुपए प्रति वर्ग गज के हिसाब से आवंटित की थी।
-तेजवानी गिरधर

भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की गोपनीयता पर उठ रहे सवाल

मनोज गिदवानी
अजमेर जिले के पुलिस कप्तान राजेश मीणा सहित अन्य पुलिस अधिकारियों पर सफलतापूर्वक हाथ डालने के अतिरिक्त लगातार बड़े-बड़े मामले पकडऩे वाला एंटी करप्शन ब्यूरो जब पहली बार अजमेर नगर सुधार न्यास के मामले में विफल हुआ तो सभी को अचरज हुआ। अन्य मामलों में तो फिर भी सरकारी अधिकारी लिप्त थे, मगर न्यास के मामले में तो सीधे-सीधे कांग्रेस सरकार की ओर से राजनीतिक आधार पर नियुक्त किए गए अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत पर आरोप था, जिन पर कि हाथ डालने से पहले पूरी सावधानी बरती गई होगी और संभव है कि ऊपर से परमीशन भी ली गई हो। इसके बावजूद एसीबी के जाल से न्यास अधिकारी व कथित दलाल मनोज गिदवानी तक भी फिसल गए। एक अर्थ में देखा जाए तो यह बेहद महत्वपूर्व मामला था, जिसमें कि एंटी करप्शन ब्यूरो के जांच अधिकारी भीम सिंह बीका की विफलता ने ब्यूरो की कार्यप्रणाली और गोपनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस वजह से सीधे-सीधे बीका को उच्चाधिकारियों के सामने नीचा देखना पड़ा होगा, भले ही उनकी टीम के किसी सदस्य ने लापरवाही बरती हो।
चूंकि यह राजनीतिक मामला है, इस कारण भगत की नियुक्ति के साथ ही इस बाते के कयास लगाए जा रहे थे कि उन पर न केवल प्रतिद्वंद्वी कांग्रेसी, बल्कि विपक्षी भाजपाई भी नजर गडा कर रखेंगे। न्यास में जो गोरखधंधा होता है, उसका सबको पता है। काजल की इस कोठरी से साफ-सुथरा निकल कर आना बहुत मुश्किल होता है। कितना भी सावधानी से काम करो, मगर कहीं न कहीं न चूक की गुंजाइश रहती ही है। भले ही इन सब आधारों की वजह से ही, मगर यह चर्चा तो थी कि ब्यूरो की नजर न्यास पर है। यह आम चर्चा थी कि ब्यूरो न्यास के मामले में सक्रिय है। यहां तक संबंधित लोगों तक को अनुमान था, बताया कि न्यास उन पर नजर रख रहा है, तभी तो वे ब्यूरो की ट्रेप की कार्यवाही के चक्कर में नहीं आए। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर ट्रेप की कार्यवाही विफल करने में किसका हाथ है। हालांकि ब्यूरो का कहना है कि न्यास के उप नगर नियोजक साहिब राम जोशी को स्वतंत्र गवाह बनाने का उनका फैसला गलत था, मगर लगता है कि अकेली यही वजह नहीं है कार्यवाही लीक होने की। चर्चा तो यह भी थी कि ब्यूरो विशेष रूप से जोशी पर ही शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है, जिन्हें कि उसने बाद में सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की।
खाली हाथ लौटती एसीबी की टीम
लगता ये है कि चूंकि इस मामले में लंबे समय से जांच प्रक्रिया चल रही थी, इस कारण संबंधित लोगों को पहले से शक हो गया, बस उनसे चूक ये हुई कि वे अपने मोबाइल फोन सर्विलांस पर होने के बाद भी लेन-देन की बातें कर बैठे। चर्चा ये भी है कि यह साजिशन हुआ, जैसा कि भगत भी कह रहे हैं, इससे लगता है कि भले ही इसमें किसी ने साजिश न भी रची हो, मगर उसकी ब्यूरो की कार्यवाही में रुचि थी। ब्यूरो का यह भी देखना होगा कि जिस शिकायतकर्ता की शिकायत पर वह जांच कार्यवाही आगे चला रही थी, कहीं उसके रिश्ते ऐसे लोगों से तो नहीं थे, जो कि न्यास के मामलों में रुचि रखते हों और उसके मुंह से कुछ हिंट निकल हो गया हो। जो भी हो, जितना न्यास में भ्रष्टाचार का मामला गंभीर है, उससे भी ज्यादा गंभीर है ब्यूरो का फेल हो जाना। ब्यूरो को इस मामले में छानबीन करनी ही चाहिए कि उससे कहां चूक हुई। वो इस कारण कि पुलिस कप्तान राजेश मीणा तक को शिकंजे में लेने का तमगा लगाने वाली एसीबी के लिए ताजा प्रकरण शर्मनाक है और अकेले इस मामले ने ब्यूरो की गोपनीयता व कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 16 जून 2013

यातायात का सर्वे तो हुआ, मगर लागू नहीं हुआ, दोषी कौन?

हाल ही पुलिस अधिकारियों की एक बैठक में एडीजी मनोज भट्ट ने कहा कि अजमेर के ट्रेफिक सिस्टम में सुधार का प्रयास जरूरी है। शहर संकरा है और पुरानी बसावट के कारण ट्रेफिक व्यवस्था गड़बड़ाई हुई है। उन्होंने खुलासा किया कि जिला प्रशासन के अनुसार वर्ष 2005-06 में आरयूआइडीपी की ओर से अजमेर की ट्रेफिक व्यवस्था को लेकर एक सर्वे किया गया था, जिसमें व्यवस्था सुधारने के लिए रास्तों की चौड़ाई, अतिक्रमण हटाने और वैकल्पिक मार्ग के कई उपाय सुझाए गए थे, लेकिन इस पर कार्रवाई नहीं हुई। ऐसे में सवाल ये उठता है कि कार्यवाही आखिर क्यों नहीं हुई? इसका सीधा सा जवाब है कि न तो अफसरशाही में कोई इच्छा शक्ति है और न ही स्थानीय राजनीतिकों को कोई रुचि। आम जनता भी सोयी हुई है। उसमें सिविक सेंस का तो नितांत अभाव ही है। रहा सवाल अतिक्रमण का तो वह तो हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है। जैसे कुत्ते की पूंछ लाख सीधी करने की कोशिश करो, टेढ़ी की टेढ़ी रहती है, वैसे ही चाहे जितनी बार अतिक्रमण हटाओ, हम उतनी ही बार फिर करने के आदतन शिकार हैं।
वस्तुत: एक ओर जहां अजमेर शहर के मुख्य मार्ग सीमित और पहले से ही कम चौड़े हैं, ऐसे में लगातार बढ़ती आबादी और प्रतिदिन सड़कों पर उतरते वाहनों ने यातायात व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट कर दिया है। हालांकि यूं तो पूर्व जिला कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता के कार्यकाल में ही प्रशासन ने समझ लिया था कि यातयात व्यवस्था को सुधारना है तो मुख्य मार्गों से अतिक्रमण हटाने होंगे और इस दिशा में बड़े पैमाने पर काम भी हुआ। सख्ती के साथ अतिक्रमण हटाए जाने के कारण श्रीमती मेहता को स्टील लेडी की उपमा तक दी गई। उनके कदमों से एकबारगी यातायात काफी सुगम हो गया था, लेकिन बाद में प्रशासन चौड़े मार्गों को कायम नहीं रख पाया। दुकानदारों ने फिर से अतिक्रमण कर लिए। परिणामस्वरूप स्थिति जस की तस हो गई। इसी बीच सड़कों पर लगातार आ रहे नए वाहनों ने हालात और भी बेकाबू कर दिए हैं।
निवर्तमान संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा ने भी बिगड़ती यातायात व्यवस्था को सुधारने के भरपूर कोशिश की, मगर कभी राजनीति आड़े आ गई तो कभी जनता का अहसहयोग।
हालांकि यह बात सही है कि पिछले बीस साल में आबादी बढऩे के साथ ही अजमेर शहर का काफी विस्तार भी हुआ है और शहर में रहने वालों का रुझान भी बाहरी कॉलोनियों की ओर बढ़ा है। इसके बावजूद मुख्य शहर में आवाजाही लगातार बढ़ती ही जा रही है। रोजाना बढ़ते जा रहे वाहनों ने शहर के इतनी रेलमपेल कर दी है, कि मुख्य मार्गों से गुजरना दूभर हो गया है। जयपुर रोड, कचहरी रोड, पृथ्वीराज मार्ग, नला बाजार, नया बाजार, दरगाह बाजार, केसरगंज और स्टेशन रोड की हालत तो बेहद खराब हो चुकी है। कहीं पर भी वाहनों की पार्किंग के लिए पर्याप्त जगह नहीं है। इसका परिणाम ये है कि रोड और संकड़े हो गए हैं और छोटी-मोटी दुर्घटनाओं में भी भारी इजाफा हुआ है।
ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि यातायात व्यवस्थित करने केलिए समग्र मास्टर प्लान बनाया जाए। उसके लिए छोटे-मोटे सुधारात्मक कदमों से आगे बढ़ कर बड़े कदम उठाने की दरकार है। मौजूदा हालात में स्टेशन रोड से जीसीए तक ओवर ब्रिज और मार्टिंडल ब्रिज से जयपुर रोड तक एलिवेटेड रोड जल्द नहीं बनाया गया तो आने वाले दिनों में स्टेशन रोड को एकतरफा मार्ग करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। रेलवे स्टेशन के बाहर तो हालत बेहद खराब है। हालांकि जल्द ही ओवर ब्रिज शुरू होने से कुछ राहत मिली है, लेकिन रेलवे स्टेशन का प्लेट फार्म तोपदड़ा की ओर भी बना दिया जाए तो काफी लाभ हो सकता है।
इसी प्रकार कचहरी रोड पर खादी बोर्ड के पास रेलवे के बंगलों के स्थान पर, गांधी भवन के सामने, नया बाजार में पशु चिकित्सालय भवन और मोइनिया इस्लामिया स्कूल के पास मल्टीलेवल पार्किंग प्लेस बनाने की जरूरत है। इसी प्रकार आनासागर चौपाटी से विश्राम स्थली या सिने वल्र्ड तक फ्लाई ओवर का निर्माण किया जाना चाहिए, जो कि न केवल झील की सुंदरता में चार चांद लगा देगा, अपितु यातायात भी सुगम हो जाएगा।
कुल मिला कर जब तक बड़े कदम नहीं उठाए जाते सुधार के लिए उठाए जा रहे कदम ऊंट के मुंह में जीरे के समान ही रहेंगे।
-तेजवानी गिरधर

शुक्रवार, 14 जून 2013

क्या तकनीकी पेच में उलझ जाएगा डॉ. गोखरू का मामला?

dr. r k gokharuअजमेर संभाग के सबसे बड़े अस्पताल जवाहर लाल नेहरू चिकित्सालय के कार्डियोलॉजी विभाग में हुए दवाओं के गोरखधंधे के मामले में विभाग के प्रमुख डॉ आर के गोखरू पर लगे आरोप तकनीकी पेच में उलझते दिखाई दे रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि निशुल्क दवा योजना के लिए जो नियम बने हुए हैं, उसमें और इस योजना का संचालन व निगरानी करने वाले राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन को दिए गए अधिकारों में कुछ अस्पष्टता है।
हालांकि इस सिलसिले में गठित हाईपावर कमेटी ने जांच कर रिपोर्ट राजस्थान मेडिकल सर्विसेज कार्पोरेशन के एमडी डॉ. समित शर्मा को भेज दी है, जिस पर कार्यवाही होना बाकी है, मगर इस मामले में डॉ. गोखरू को जो रवैया रहा है, उससे अहसास होता है कि कहीं न कहीं उनके बचने का ग्राउंड है। तभी तो उन्होंने जेएलएन मेडिकल कॉलेज के प्राचार्य एवं नियंत्रक डॉ पी के सारस्वत की ओर से दिए गए कारण बताओ नोटिस का जवाब देना जरूरी नहीं समझा। इतना ही नहीं उन्होंने प्राचार्य डॉ. सारस्वत पर ही विभिन्न आरोप लगाते हुए इन्हें जांच कमेटी से ही बेदखल करने की मांग कर दी। उनका कहना था कि डॉ. सारस्वत उनके व्यक्तिगत द्वेष रखते हैं, क्योंकि उन्होंने प्राचार्य पद के आवेदन कर रखा है। अत: डॉ. सारस्वत के स्थान पर किसी अन्य मेडिकल कॉलेज प्राचार्य के नेतृत्व में हृदयरोगियों के विशेषज्ञों को जांच कमेटी में शामिल किया जाए, ताकि निष्पक्ष और न्यायपूर्ण जांच संपादित हो सके। ऐसा प्रतीत होता है कि डॉ. गोखरू अपने कदम के प्रति इतने आश्वस्त हैं कि उन्होंने अनुशासनात्मक कार्यवाही तक की परवाह किए बिना नोटिस का जवाब देने से इंकार कर दिया। उन्होंने एक और पेच भी फंसाया, वो यह कि उनके खिलाफ जिस मामले में जांच की जा रही है, उसमें एक सामान्य फिजीशियन सही निर्णय नहीं कर सकता। इसके लिए हृदयरोग का विशेषज्ञ होना जरूरी है। अर्थात उन्हें इस बात का अंदाजा है कि यदि कमेटी में हृदयरोग विशेषज्ञ होंगे तो वे डॉ. गोखरू की ओर से सुझाए गए इंजेक्शन की अहमियत को स्वीकार करेंगे। इससे यह भी आभास होता है कि डॉ. गोखरू के पास अपनी ओर से सुझाये हुए इंजैक्शन को ही लगाने के दमदार तकनीकी आधार हैं, जिसके बारे में कार्पोरेशन के पास स्पष्ट नीति-निर्देश नहीं बनाए हुए होंगे। उनका यह तर्क तो कम से कम बेहद तकनीकी है ही कि सरकार की ओर से निर्धारित इंजैक्शन की सक्सैस रेट कम है और देर से असर करता है, जबकि वे जो इंजैक्शन लिखते हैं, वही कारगर है। अर्थात वे यह कहना चाहते हैं कि एक विशेषज्ञ ही यह बेहतर निर्णय कर सकता है कि मरीज की जान बचाने के लिए तुरत-फुरत में कौन सा इंजैक्शन लगाया जाना चाहिए।
एक बात और। जिन पुष्कर नगर पालिका के पूर्व अध्यक्ष सूरजनारायण शर्मा की पर्ची पर तीस हजार रुपए का इंजैक्शन लिखा पकड़ा गया, वे जांच कमेटी के सामने उपस्थित ही नहीं हुए। कदाचित वे इस मामले को आगे बढ़ाना ही नहीं चाहते हों। ऐसे में डॉ. गोखरू के खिलाफ बनाया गया मामला कुछ तो कमजोर हुआ ही है।
अब बात करते हैं डॉ. गोखरू पर खड़े किए गए सवालों की, जो कि काफी गंभीर हैं। प्राचार्य एवं नियंत्रक डॉ सारस्वत ने कारण बताओ नोटिस इन सवालों के जवाब मांगे गए थे:-
इंजेक्शन टीपीए इलेक्सिम-40 जो एमआई के मरीजों में थ्रॉम्बोलाइसिस के लिए लगाया जाता है, का विकल्प इंजेक्शन स्ट्रेप्टोकिनेस मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना के तहत ईडीएल में उपलब्ध होने के बाद भी महंगा इंजेक्शन टीपीए इलेक्सिम-40 क्यों मंगवाया गया?
पूर्व में दी गई चेतावनी के बावजूद महंगे इंजेक्शन लिखने के कृत्य की पुनरावृत्ति इस बात को प्रमाणित करती है कि वे जनहित से जुड़ी मुख्यमंत्री निशुल्क दवा योजना के सफल क्रियान्वयन में सहयोग नहीं कर रहे हैं।
सीएच मेडी फार्मा के मालिक आपके भाई हैं, जिनका नाम परम चंद गोखरू हैं।
किसी भी रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर का किसी भी फर्म/ फार्मास्युटिकल से जुड़ा होना अनैतिक कृत्य की श्रेणी में आता है, जबकि सीएच मेडी फार्मा स्वयं आपके सगे भाई की होना बताई गई है। यह फर्म को अनुचित लाभ पहुंचाने की श्रेणी में आता है।
हार्ट सेंटर से भी आप संबद्ध रहे हैं। इस सेंटर के संचालन से संबंधित एक शिकायत प्राप्त हुई थी। इस कार्यालय द्वारा 17 सितंबर 2012 के द्वारा एक शपथ पत्र मांगा गया था। इसके बाद भी 4 अक्टूबर 2012 और 20 अप्रेल 13 को स्मरण पत्र प्रेषित किए गए। लेकिन आज तक आप द्वारा कोई शपथ पत्र नहीं दिया गया, जो इस तथ्य को सत्यापित करता है कि आप प्राइवेट हार्ट सेंटर इंदिरा कॉम्पलेक्स से नि:संदेह जुड़े हैं।
राज्य सेवा में रहते हुए निजी संस्थान हार्ट सेंटर से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जुड़े होना भी राज्य सेवा नियमों का उल्लंघन है।
स्टॉकिस्ट सीएच मेडी फार्मा का इंजेक्शन टी पीए इलेक्सिम-40 कब से एवं किसके आदेशों से कार्डियोलोजी विभाग के लाइफ लाइन स्टोर पर रखवाया गया।
स्टेंट सीधे ही कैथलैब से मरीजों को लगाया जाता है तथा इन्हें लाइफ लाइन स्टोर में फर्म द्वारा सप्लाई नहीं किया जाता। ऐसा कब से एवं किसके आदेश पर किया जा रहा है।
इन आरोपों से साफ है कि वे हैं तो गंभीर मगर उनसे निकलने की कई गलियां हो सकती हैं, जैसा कि आम तौर पर सरकारी जांचों में होता है।
कुल मिला कर अब यह देखना होगा कि डॉ. गोखरू के खिलाफ क्या कार्यवाही होती है? होती भी है या नहीं?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 13 जून 2013

वक्त-वक्त का फेर है, इसी का नाम अजमेर है

हालांकि यह कहावत आम तौर पर अनेक शहरों में उनके शहरों के नाम के साथ प्रचलित हो सकती है, मगर अजमेर में तो खास तौर पर कही जाती है। निहितार्थ सिर्फ इतना कि आदमी कुछ नहीं होता, सब कुछ वक्त ही होता है। वक्त उसी आदमी को राजा तो उसी को रंक भी बना देता है। घड़ी की सुइयां अगर बारह बजाएं तो आदमी अर्श पर पहुंच जाता है और साढ़े छह बजें तो फर्श पर आ टिकता है। हालांकि कहावत इसके ठीक विपरीत बनी हुई है, वो यह कि जब किसी का बहुत बुरा हो जाता है तो कहते हैं उसकी तो बारह बज ही गई। अपुन को पता नहीं इस कहावत को कैसे गढ़ा गया।
खैर, बात मुद्दे की करें। चित्र में देख ही रहे हैं कि अजमेर के निलंबित एसपी राजेश मीणा और एएसपी लोकेश सोनवाल कैसी मुद्रा में खड़े हैं। कभी इन दोनों की इस शहर में तूती बोलती थी। अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी। मगर जब वक्त बुरा आया तो इसी शहर में कोर्ट में ऐसी हालत में नजर आने लगे। यह फोटो शहर के जाने-माने फोटो जर्नलिस्ट महेश नटराज ने अपनी फेसबुक वाल पर लगाया है। ज्ञातव्य है कि थानों से मंथली वसूली के मामले में भ्रष्टाचार निरोधक मामले की विशेष अदालत में दोनों को पेश किया गया था।

भगत के मामले में भाजपा की चुप्पी के मायने?

लैंड फोर लैंड के मामले में रिश्वतखोरी की साजिश के मामले में एडीबी की जांच अभी लंबित है, मगर पहले ही दिन इस मामले में नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत से इस्तीफा मांगने वाली भाजपा की अब कायम चुप्पी पर हर किसी को अचरज हो रहा है। लोगों का मानना है कि भाजपा ने इस प्रकरण में महज औपचारिकता निभाई है, इसे भुनाने की कोशिश नहीं की। हालांकि सच ये भी है कि अगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भगत को हटाना ही होगा तो वे गुण-दोष, लाभ-हानि को देख कर ही कार्यवाही करवाएंगे, भाजपा के कहने से तो हटाने से रहे।
असल में भले ही एसीबी के अधिकारी भले ही ये कहें कि उसके पास साजिश के पर्याप्त सबूत हैं, मगर ट्रैप की कार्यवाही में विफल होने के बाद उसका मनोबल गिरा हुआ है। रही सही कसर जांच प्रक्रिया आगे बढऩे में हो रही देरी की वजह से पूरी हो गई और कई सवाल खड़े हो रहे हैं। चर्चाएं तो यहां तक हैं कि सरकार मामले को लंबा खींच कर ठंडा करना चाहती है, इसी कारण ब्यूरो के महानिदेशक अजीत सिंह छुट्टी पर चले गए, ताकि इसका कोई तोड़ निकाला जा सके। कहने वाले यह कहने से भी नहीं चूक रहे कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भगत के खिलाफ कार्यवाही की हरी झंडी देकर चुनावी साल में सिंधी मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते। यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि पिछले विधानसभा चुनाव में नाराज हुए सिंधी मतदाताओं को राजी करने की खातिर ही भगत को न्यास अध्यक्ष बनाया गया था। अगर अब हटाया जाता है सिंधी मतदाता फिर नाराज हो सकते हैं, जिन्हें फिर कैसे राजी किया जाएगा, यह उनकी समझ से परे है।
खैर, बात भाजपा की। सरकार तो भले ही निहित हितों की वजह से ऐसा रवैया अपना सकती है, मगर भाजपा की चुप्पी दर्शाती है कि दाल में कुछ काला है। वरना भला कोई इतने हॉट कैक को यूं ही ठंडा क्यों होने देगा? जहां तक संगठनात्मक दृष्टि का सवाल है, शहर भाजपा के वरिष्ठ उपाध्यक्ष व प्रवक्ता अरविंद यादव पर चूंकि अखबारबाजी का जिम्मा है, इस कारण उन्होंने तुरंत विरोध जताते हुए विज्ञप्ति जारी कर दी, मगर इसमें पूरी पार्टी व अध्यक्ष रासासिंह रावत ने कोई खास रुचि ली हो, ऐसा कहीं से लगता नहीं है। इसकी एक प्रमुख वजह ये भी रही हो सकती है कि पिछले दिनों हुए नियमनों का लाभ भाजपा से जुड़े लोगों ने भी उठाए हैं। अगर वे ज्यादा हांगामा करते हैं तो गढ़े मुर्दे उखड़ सकते हैं। रहा सवाल अजमेर उत्तर के विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी का तो उन्होंने भी पहले दिन औपचारिक रूप से लंबी विज्ञप्ति जारी कर दी। समझा जाता है कि वे सीधे भगत पर हमला बोल कर अजमेर उत्तर के सिंधी मतदाताओं को नाराज नहीं करना चाहते। कहने की जरूरत नहीं है कि भगत की सिंधी समाज के खासी प्रतिष्ठा है और अगर उन पर व्यक्तिगत हमला अधिक होता है तो इसका खामियाजा देवनानी को चुनाव में उठाना पड़ सकता है, अगर पार्टी उन्हें अपना प्रत्याशी बनाती है तो। न्यास के मामलों में बढ़-चढ़ कर हमले बोलने वाली अजमेर दक्षिण की विधायक श्रीमती अनिता भदेल की चुप्पी के पीछे भी यही वजह समझ में आती है। अगर उन्हें पार्टी फिर प्रत्याशी बनाती है तो जीतने के लिए सिंधी वोटों की जरूरत होगी और उन्हें वे भगत पर व्यक्तिगत हमला कर नहीं खोना चाहेंगी। इस मामले में सर्वाधिक रुचि लेने वाले न्यास के पूर्व सदर और वरिष्ठ भाजपा नेता धर्मेश जैन ने भी पहले दिन दमदार तरीके से इस्तीफे की मांग की, क्योंकि चंद दिन पहले ही उन्होंने न्यास में व्याप्त भ्रष्टाचार पर संवाददाता सम्मेलन बुलाया था और बिना सबूत के ही भगत पर आरोपों की अतिरंजना की थी। हालांकि बाद में जब एसीबी की कार्यवाही हुई तो उनके आरोपों को संबल मिला। मगर बाद में वे भी चुप हो गए। उनकी चुप्पी की वजह समझ में नहीं आती। ये खबर लिखे जाने पर प्रतिष्ठा की खातिर मुंह खोलें तो बात अलग है।
चलते-चलते आपको ये भी बता दें कि चर्चा ये भी है कि एसीबी के पास मौजूद रिकार्डिंग में चंद पत्रकारों की आवाज भी है, भले ही वे इस मामले में न हो। चूंकि भगत का मोबाइल सतत सर्विलांस पर था, इस कारण बीट रिपोर्टर्स की आवाज तो होनी ही है, मगर बताते हैं कि नियमन के कुछ मामलों में भी उनकी आवाज रिकार्डिंग पर आ गई है। कुछ नेताओं व अफसरों की आवाजें भी होनी संभावित हैं, क्योंकि काम तो उनसे संबंधित लोगों के भी हुए ही हैं। यह बात दीगर है कि एसीबी को मतलब केवल ताजा मामले से है, ऐसे में वह इन आवाजों को कांट-छांट कर अलग कर देगी। वे तभी काम आएंगी, अगर ताजा प्रकरण के अतिरिक्त अन्य मामलों की भी जांच की जरूरत महसूस की जाती है।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 11 जून 2013

सचिन से परहेज, पिताश्री स्व. राजेश पायलट के गुणगान?

सबको पता है कि किसी जमाने में जसराज जयपाल व ललित भाटी खेमे में बंटी रहने वाली अजमेर शहर कांग्रेस अब यहां के सांसद व केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्य मंत्री सचिन पायलट के पक्ष और विपक्ष में बंटी हुई है। जहां शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता, निगम मेयर कमल बाकोलिया व न्यास अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत को सचिन के खेमे में गिना जाता है तो वहीं पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल व डॉ. श्रीगोपाल बाहेती सहित मनोनीत पार्षद सैयद गुलाम मुस्तफा, पूर्व शहर उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग आदि विरोधी खेमे में। इस विरोधी खेमे ने विभिन्न जयंतियों व पुण्यतिथियों पर आम कांग्रेसजन के बैनर पर आयोजन भी शुरू कर दिए हैं। अर्थात लगभग समानांतर कांग्रेस चल रही है। पूर्व केन्द्रीय मंत्री व किसान नेता स्वर्गीय राजेश पायलट की पुण्यतिथी पर भी ऐसा ही हुआ। शहर कांग्रेस ने अलग श्रद्धांजलि सभा की तो आम कांग्रेसजन से अलग से संगोष्ठी। यहां यह बताना प्रासंगिक ही होगा कि स्वर्गीय राजेश पायलट कांग्रेस के दिग्गज नेता थे, मगर अजमेर के कांग्रेसियों ने सचिन के यहां से सांसद बनने के बाद ही उनकी जयंती व पुण्यतिथी मनाना शुरू किया है।
खैर, आम कांग्रेसजन के कार्यक्रम ने सभी को चौंका दिया। भले ही इसके नेता यह कह कि स्व. राजेश पायलट कांग्रेस के बड़े नेता थे, इस कारण उन्होंने पुण्यतिथी मनाई, अपना बचाव करें, मगर हैं तो वे सचिन के पिताश्री ही। यानि कि सचिन से परहेज और उनके पिताश्री का गुणगान। अगर उनमेें राजेश पायलट के प्रति इतनी ही श्रद्धा थी तो शहर कांग्रेस की ओर से आयोजित कार्यक्रम में शरीक क्यों नहीं हुए? कहीं ऐसा तो नहीं कि ऐसा करके वे ये जताना चाहते हैं कि उन्हें असल में सचिन नहीं, बल्कि उनके शागिर्द शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता से परेशानी है। यानि कि वे अब भी सचिन के साथ आने को तैयार हो सकते हैं, बशर्ते वे रलावता को दूर कर दें। यह कार्यक्रम इस बात का भी संकेत है कि कहीं न कहीं कथित रूप से विरोधी नेता भी सचिन से नजदीक हासिल करना चाहते हैं।
आखिर में ये बताते चलें कि आम कांग्रेसजन के कार्यक्रम में वे ही नेता शामिल हुए, जो कि शहर कांग्रेस से दूरी बनाए हुए हैं। यथा पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल, मनोनीत पार्षद गुलाम मुस्तफा, डॉ. सुरेश गर्ग, श्रीमती तरा मीणा, इन्टक अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह शेखावत, प्रकाश गदिया, छात्र नेता सुनील लारा, विजय यादव, यासिर चिश्ती, शक्तिप्रताप सिंह, दीपक पराशर, लोकेश शर्मा, रूपसिंह नायक, अजीत सिंह छाबड़ा, काजी अनवर अली, रमेश सेनानी, फखरे मोइन आदि।
डॉ. सुरेश गर्ग ने तो बाकायदा फेसबुक पर भी स्व. राजेश पायलट को श्रद्धांजलि दी है।
-तेजवानी गिरधर

भगत हटे नहीं कि शुरू हो गई जोड़-बाकी-गुणा-भाग

लैंड फोर लैंड के मामले में रिश्वतखोरी की साजिश के मामले में एडीबी की जांच अभी सिरे चढ़ी नहीं है, नगर सुधार न्यास के सदर नरेन शहाणी भगत का इस्तीफा अभी हुआ नहीं है कि अभी से उनके आगामी विधानसभा चुनाव में अजमेर उत्तर से कांग्रेस का दावेदार न होने पर शहर की राजनीति क्या होगी, इसका गणित शुरू हो गया है। एक ओर जहां भगत के धुर विरोधी और सिंधी समाज के अन्य दावेदारों के चेहरे खिले हुए हैं, वहीं गैर कांग्रेसी दावेदारों के मुंह में भी पानी आने लगा है। जाहिर सी बात है कि भाजपाई खेमे में भी संभावित राजनीतिक समीकरण के तहत माथापच्ची आरंभ हो गई है।
आइये, अपुन भी उस संभावित स्थिति पर एक नजर डाल लें, जिसमें भगत को इस्तीफा देना पड़ेगा व उनका दावा समाप्त सा हो जाएगा। यह बात सही है कि भगत ही अकेले सबसे दमदार दावेदार थे, इस कारण अगर कांग्रेस को पिछली हार से सबक लेते हुए किसी सिंधी को ही टिकट देने का फार्मूला बनाना पड़ा तो उसे बड़ी मशक्कत करनी होगी। फिर से कोई नानकराम खोजना होगा। वजह ये कि सिंधी समाज में एक अनार सौ बीमार की स्थिति हो जाने वाली है। डॉ. लाल थदानी, नरेश राघानी, हरीश हिंगोरानी, रमेश सेनानी, हरीश मोतियानी, राजकुमारी गुलबानी, रश्मि हिंगोरानी इत्यादि-इत्यादि की लंबी फेहरिश्त है। फिलहाल जयपुर रह रहे शशांक कोरानी, जो कि वरिष्ठ आईएएस अधिकारी एम. डी. कोरानी के पुत्र हैं, वे भी मन कर सकते हैं। जो वर्षों तक टिकट मांगते-मांगते थक-हार कर बैठ गए, वे भी अब फिर से जाग जाएंगे। इतना ही नहीं संभव है, कुछ नए नवेले भी खादी का कुर्ता-पायजामा पहन कर लाइन में लग जाएं। रहा सवाल गैर सिंधियों का तो उनमें प्रमुख रूप से पुष्कर के पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती व शहर कांग्रेस के अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता अब पहले से ज्यादा दमदार तरीके से दावा ठोकेंगे।
राजनीतिक ठल्लेबाजी करने वालों ने एक नए समीकरण का भी जोड़-बाकी-गुणा-भाग शुरू कर दिया है। वो ये कि बिखरी हुई कांग्रेस को नए सिरे से फोरमेट किया जाएगा। यानि कि ताश नए सिरे फैंटी जाएगी। भगत की जगह रलावता को दी जाएगी, रलावता की जगह पर जसराज जयपाल या डॉ. राजकुमार जयपाल को काबिज करवाया जाएगा और टिकट बड़ी आसानी से डॉ. बाहेती को दे दिया जाएगा। यानि की सब राजी। मगर उसमें समस्या ये आएगी कि सिंधी नेतृत्व का क्या किया जाए? क्या सिंधी मतदाताओं को एन ब्लॉक भाजपा की थाली में परोस दिया जाए? या फिर कोई और तोड़ निकाला जाए?
चलो, अब बात करें भाजपा की। मोटे तौर पर यही माना जाता है कि भाजपा कांग्रेस के पिछली बार की तरह गैर सिंधी के प्रयोग को करने का साहस शायद ही दिखाए, क्योंकि इससे उसकी दक्षिण की सीट भी खतरे में पड़ सकती है। यदि कांग्रेस ने भगत के अतिरिक्त किसी और सिंधी को टिकट दे दिया तो उसे भाजपा के संभावित सिंधी प्रत्याशी से कड़ी टक्कर लेनी होगी।  और कांग्रेस ने अगर गैर सिंधी उतरा तो संभव है पिछली बार ही तरह फिर सिंधी-वैश्यवाद सिर चढ़ कर बोले।
जो कुछ भी हो, भगत के खतरे में आते ही अजमेर में राजनीतिक चर्चाएं जोर पकडऩे लगी हैं।
-तेजवानी गिरधर