रविवार, 23 सितंबर 2012

लगी कांग्रेस पर कालिख में एनर्जी, बच गया भाजयुमो सम्मेलन

भारतीय जनता युवा मोर्चा के चलाए जा रहे कांग्रेस हटाओ, देश बचाओ आंदोलन के तहत जवाहर रंगमंच पर आयोजित शहर जिला इकाई का सम्मेलन अभूतपूर्व कामयाब रहा। बताते हैं कि कार्यकर्ताओं की इतनी संख्या तो कभी भाजपा के सम्मेलन में भी नजर नहीं आई। तभी तो भा.ज.पा. के राष्ट्रीय महामंत्री और प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी ने कहा कि यहां सभी आयु वर्ग के लोग हैं, ऐसा लग रहा है कि मानो यह कार्यक्रम युवा मोर्चा का न हो कर संगठन का है। वे सच ही कह गए। वाकई शहर भाजपा जिला इकाई ने भी अपनी ताकत झोंकी थी। सम्मेलन पर प्रत्यक्ष रूप से शहर भाजपा इकाई का आशीर्वाद रहा तो परोक्ष रूप से लाला बन्ना सुरेन्द्र सिंह शेखावत का।
बेशक सम्मेलन की कामयाबी का पूरा श्रेय इकाई अध्यक्ष देवेन्द्र सिंह शेखावत को जाता है। यह सम्मेलन उनके कैरियर में एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में जुड़ गया है। नियुक्ति से लेकर अब तक उन पर दबाव था कि एक बार अपनी ताकत दिखा दें, वह उन्होंने पूरी कर दी। उल्लेखनीय बात यही रही कि सभी आशंकाएं निराधार साबित हो गईं और किसी भी प्रकार का व्यवधान नहीं आया। न तो युवा कांग्रेसियों ने उधर झांका और न ही असंतुष्ट भाजयुमो कार्यकर्ताओं ने।
हुआ असल में ये कि इस सम्मेलन में पंगा होने की आशंका को लेकर कप्तान सिंह सोलंकी को बार-बार रिपोर्टिंग की जा रही थी कि वे नहीं आएं तो ही बेहतर रहेगा। हालांकि इस प्रकार की रिपोर्टिंग करने वाले सम्मेलन के फेल हो जाने तक की दुहाई दे रहे थे, मगर गड़बड़ की आशंका बेबुनियाद भी नहीं थी। विधायक वासुदेव देवनानी से जुड़ा नितेश आत्रेय गुट गड़बड़ कर सकता था। मगर संयोग से दो दिन पहले ही अजमेर बंद के दौरान इस गुट ने अति उत्साह में कांग्रेस कार्यालय के बोर्ड पर कालिख पोत दी और उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हो गया। जाहिर सी बात है कि वे पहले अपने को बचाएं या जवाहर रंगमंच पर जा कर हंगामा करें। यानि यह देवेन्द्र सिंह शेखावत की खुशकिस्मत ही रही कि दो दिन पहले इस प्रकार का वाकया हो गया।
इस सम्मेलन से देवनानी गुट का नदारद रहना भी रेखांकित हो गया है। हालांकि देवनानी वैष्णोदेवी यात्रा पर हैं, मगर विरोधियों का मानना है कि वे जानबूझ कर यहां से चले गए। इसी प्रकार नगर निगम के पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत और मोर्चा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नीरज जैन की गैर मौजूदगी भी काउंट की जा रही है। कुल मिला का यह स्पष्ट है कि भाजपा के दिग्गजों के अजमेर आने पर भी वे मोर्चा को लेकर चल रही गुटबाजी को खत्म नहीं करवा पाए।
यहां यह भी गौरतलब है कि कांग्रेस कार्यालय में भाजपा युवा मोर्चा पदाधिकारियों एवं कार्यकर्ताओं द्वारा कालिख पोतने की घटना के बाद कांग्रेस के लोक सभा क्षेत्र के यूथ कांग्रेस उपाध्यक्ष मोहम्मद शब्बीर खान ने धमकी दी थी कि भाजयुमो के 23 सितंबर को प्रस्तावित संकल्प दिवस कार्यक्रम में यूथ कांग्रेस विरोध प्रदर्शन व धरना आयोजन करेगी। मगर कालिख पोतले को लेकर कांग्रेस के अंदर ही सिर फुटव्वल चल रही है। पार्टी से निष्कासित पार्षद मोहन लाल शर्मा तो यह आरोप लगा चुके हैं कि इसमें शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता व मेयर कमल बाकोलिया का हाथ है।
खैर, राजनीतिक दलों में उपजे इस तनाव को देखते हुए पुलिस प्रशासन ने सुरक्षा के पुख्ता बंदोबस्त किए। कार्यक्रम शुरू होने से पहले समारोह स्थल के बाहर आरएसी के जवानों और पुलिस लाइन से अतिरिक्त जाब्ता तैनात किया गया। जवाहर रंगमंच की ओर आने वाले प्रमुख चौराहों पर आने जाने वालों पर विशेष नजर रखी जा रही थी। शहर के सभी थाना प्रभारियों एवं दक्षिण, दरगाह व यातायात उप अधीक्षक को किसी भी अप्रिय घटना से निपटने के लिए तैनात किया गया था। इसी तरह समारोह स्थल के बाहर व अंदर सादा वर्दी में पुलिसकर्मी तैनात किए गए थे। यहां तक कि स्थानीय प्रमुख भाजपा नेताओं के साथ कांग्रेसी कोई हरकत न करें, इसलिए उन्हें पुलिस संरक्षण में घर से जवाहर रंगमंच लाया गया था।
कुल मिला कर सारी आशंकाएं टल गईं और सम्मेलन ऐतिहासिक रूप से कामयाब हो गया। 
-तेजवानी गिरधर

रलावता ने दिखाए पहली बार कड़े तेवर

शहर जिला कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता ने पद संभालने के बाद पहली बार कड़े तेवर दिखाए हैं। उन्होंने अनुशासनहीनता के मामले में पार्षद मोहन लाल शर्मा को पार्टी से छह साल के लिए निष्कासित कर कांग्रेस कार्यकर्ताओं, विशेषकर आए दिन पार्टी विरोधी अथवा रलावता विरोधी बयान जारी करने वालों को यह संदेश दिया है कि उन्हें कमजोर न समझा जाए।
वस्तुत: पार्टी के वरिष्ठ नेता शर्मा ने हरकत ही ऐसी की थी, जिसके कारण पार्टी की थू थू हो रही थी और अनुशासन तो तार तार ही होने लगा था। खुद रलावता का कहना है कि मोहनलाल शर्मा ने नरेश सत्यावना को नगर निगम में नेता प्रतिपक्ष मानने से इनकार करते हुए खुद को नेता प्रतिपक्ष घोषित कर दिया था। माला पहने हुए उनके फोटो अखबारों में छपे भी हैं। उन्हें 8 सितंबर को नोटिस देकर जवाब मांगा गया था। इस पर उन्होंने 13 सितंबर को अपना जवाब दिया जिसमें अखबारों में छपे अपने बयानों को गलत बताया था, लेकिन उनके फोटो सच्चाई बयान कर रहे थे। उनके जवाब, समाचार पत्रों की कटिंग्स आदि प्रदेशाध्यक्ष को भेज दिए गए थे। शर्मा अपनी गलती मानने को तैयार नहीं थे, लिहाजा उन्हें अनुशासनहीनता का दोषी मानते हुए पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। रलावता ने बताया कि मोहनलाल शर्मा के साथ जो अन्य पार्षद तस्वीरों में थे, उनके जवाब पार्टी को लिखित-मौखिक मिल गए हैं, जिसमें उन्होंने खेद जताया है, लिहाजा उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं हो रही है।
असल में केवल शर्मा ही नहीं, अन्य कई नेता व कार्यकर्ता पिछले दिनों लगातार अनुशासन तोडऩे लगे थे। शर्मा की तरह अन्य भी उसी राह पर चल कर आए दिन सार्वजनिक बयान जारी कर रहे थे। कई बार उनकी कार्यकारिणी को लेकर सार्वजनिक बयानबाजी हो चुकी थी। ऐसे में लगने यह लगा था कि रलावता से संगठन संभल नहीं रहा है। इस धारणा के साथ उनके आका केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट की छवि पर आंच आ रही थी। लोग इसी सीधे तौर पर पायलट की खिलाफत के रूप में ले रहे थे। जाहिर ऐसे में जैसे ही उन्हें मौका मिला अपने अधिकारों का इस्तेमाल कर लिया। हालांकि उनके इस कदम से आने वाले दिनों में उन्हें कुछ कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि शर्मा कांग्रेस के खांटी नेता हैं, मगर कम से कम इतना तो हुआ कि रलावता ढ़ीलेपन के आरोप से मुक्त तो हुए।
जैसे ही शर्मा के खिलाफ कार्यवाही की गई, वे बौखला गए। असल में उन्हें उम्मीद नहीं थी कि इस प्रकार एक झटके में ही उन्हें पाटी से बाहर कर दिया जाएगा। बौखलाहट में उन्होंने रलावता पर पलटवार करते हुए कहा कि अजमेर बंद के दौरान कांग्रेस कार्यालय पर भाजपा कार्यकर्ताओं ने जो घटना की उसके पीछे रलावता का ही हाथ है। स्वर्गीय राजेश पायलट की तस्वीर पर कालिख पोते जाने की घटना रलावता की सदारत में ही हुई। उनके आरोप में दम कम और बौखलाहट ज्यादा नजर आती है। शर्मा ने इस आरोप का खंडन किया कि भारतीय जनता युवा मोर्चा के कोटा संभाग प्रभारी नीतेश आत्रेय के जरिए उन्होंने कांग्रेस कार्यालय पर वारदात करवाई। ज्ञातव्य है कि आत्रेय मोहनलाल शर्मा के रिश्ते में दामाद लगते हैं।
शर्मा के आरोप को सिरे से नकारते हुए रलावता ने कहा कि आत्रेय शर्मा के दामाद हैं। वे अलग राजनीतिक दल के हैं। ऐसे में मेरे कहने पर कोई काम क्यों करेंगे। यदि शर्मा का रिश्तेदार मेरे कहने पर कोई काम कर रहा है तो इसका एक ही अर्थ है कि शर्मा के रिश्तेदार उनके कहने में नहीं हैं।
जहां तक शर्मा को पार्टी से निकालने पर होने वाले प्रभाव का सवाल है, सीधे तौर पर नगर निगम में पार्टी को इससे कोई नुकसान होने वाला नहीं है, मगर पार्टी में माहौल खराब होने की शुरुआत तो हो ही गई है। देखना केवल ये है कि रलावता की इस सख्ती से संगठन सुधरता है या बगावत और नया रूप लेती है।
-तेजवानी गिरधर

कुछ इस तरह देखा दरगाह व पुष्कर को एक पत्रकार ने


दयानंद पांडेय

दिन के कोई ११-३० बजे अजमेर पहुंचा। स्टेशन पर आटो और रिक्शा वालों ने वही अफ़रा-तफ़री दिखाई जो सभी शहरों में टूरिस्टों के साथ वह दिखाते हैं। होटल ले जाने की उन्हें बडी़ जल्दी होती है। किराए से ज़्यादा उन्हें होटल से मिलने वा्ले कमीशन की परवाह होती है। प्रदीप जी ने यहां भास्कर के संपादक जय रमेश अग्रवाल से बात कर ली थी। अग्रवाल जी ने रिपोर्टर निर्मल जी से कह कर डाक बंगला में एक कमरा दिलवा दिया। जैसे डाक बंगले होते हैं, वैसा ही था यह भी। अव्यवस्था और बदमगजी के शिकार। कदम-कदम पर लापरवाही। शिकायत करने पर चौकीदार और बाबू ने तज़वीज़ दी की फिर तो मैं सर्किट हाऊस ही चला जाऊं। वहां साफ-सफाई भी है और सारी सहूलियत भी। खैर एक्सीयन से फ़ोन पर कह कर साफ-सुथरा ए.सी. कमरा किसी तरह मिल गया। सामान रख कर, एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर मैं पुष्कर के लिए निकल पडा़। अजमेर से थोडी़ देर का सफ़र है पुष्कर। बिलकुल सुहाना सफ़र। पहाड़ियों को चीरती हुई बस ने अपनी ऊंचाई से पूरे अजमेर शहर को दिखाना शुरु कर दिया। आना सरोवर की सुंदरता और निखर गई। बस ने जल्दी ही पुष्कर पहुंचा दिया।
पुष्कर में मनमोहक सरोवर पर
पुष्कर ने पुश-पाश की तरह बांध लिया। जैसे किसी बागीचे के सुंदर फूल आप को बांध लें। पहाड़ियों से घिरे सरोवर की सुंदरता और सफाई ने मन मोह लिया। विदेशी जोड़ों को देख कर अपने बनारस की याद आ गई। पंडों की कपट भरी बातों ने, उन की पैसा खींचने की अदा ने वृंदावन और विंध्याचल की याद दिला दी। हालां कि सीज़न न होने के चलते बहुत भीड़-भाड़ नहीं थी तो भी पंडा लोगों ने कोई कोर-कसर छोडी़ नहीं। पूजन की दक्षिणा के बाद ज़बरिया रसीद कटवाने की बात भी आई। हां यह बदलाव भी ज़रुर था कि जींस पहने भी कुछ पंडा लोग मिले। नहाने की तैयारी से मैं गया भी नहीं था सो आचमन कर के ब्रह्मा जी के मंदिर दर्शन के लिए चल पडा़। सड़क पर छुट्टा गाय और सांड़, जगह-जगह गोबर और सजी धजी दुकानें किसी गांव के से मेले का भान करा रही थीं। पर यह कोई गांव तो नहीं था। पुष्कर था। ज़्यादातर कपडों की दुकानें। और झोले आदि की। राजस्थानी महक कम, चीनी महक ज़्यादा। मतलब चीनी स्टाइल के कपडे़ ज़्यादा। क्या जेंट्स, क्या लेडीज़ सभी कपड़ों पर चीनी तलवार लटकी हुई थी। हां, वैसे यहां राजस्थानी पगड़ी, राजस्थानी तलवार और ढाल भी कुछ जगह बिकती देखी। मंदिर और धार्मिक स्थल पर तलवार और ढाल की भला क्या ज़रुरत? पर सोच कर ही चुप रह गया। किस से और भला क्या पूछता? वैसे भी सीज़न न होने के कारण दुकानों पर गहमागहमी की जगह सन्नाटा सा था। एक नींद सी तारी थी भरी दोपहर में पूरे पुष्कर में। बनारस में काशी विश्वनाथ मंदिर सा नज़ारा यहां भी था मंदिर के बाहर का। कि अगर जूता-चप्पल, मोबाइल आदि सुरक्षित रखना है तो प्रसाद और फूल संबंधित दुकान से लेना अनिवार्य है। प्रसाद दस रुपए से लगायत पचास रुपए तक के थे। खैर विश्वनाथ मंदिर की तरह न तो यहां भारी भीड़ थी न अफरा-तफरी। न ही पुलिस की ज़्यादतियां, बेवकूफियां और न बूटों की तानाशाही। आराम से दर्शन हुए। मंदिर की तमाम सीढ़ियों पर तमाम नाम दर्ज़ थे। उन नामों को कुचलते हुए सीढ़ियों पर से गुज़रना तकलीफ़देह था। इन सीढ़ियों के पत्थरों पर अपना या अपने परिजनों का नाम लिखवाने वालों ने क्या कभी यह भी सोचा होगा कि उन के नामों पर लोगों के अनगिनत पैर पड़ेंगे? या कि ताजमहल फ़िल्म के लिए साहिर के लिखे गीत की याद रही होगी कि पांव छू लेने दो, फूलों को इनायत हो्गी/ हम को डर है कि ये तौहीने मोहब्बत होगी। क्या पता? खैर, ज़्यादातर श्रद्धालु हर जगह की तरह यहां भी निम्न वर्ग के ही लोग थे। कुछ मध्यम वर्ग के भी। पर पूरी श्रद्धा में नत। मंदिर परिसर में फ़ोटो खींचने पर एक सुरक्षाकर्मी आया और बडे़ प्यार से बोला, ‘आप का कैमरा जमा करवा लिया जाएगा। फ़ोटो मत खींचिए।’ कैमरा हम ने अपनी ज़ेब में रख लिया। फिर बाहर आ कर फ़ोटो खिंची।
पुष्कर के एक और मंदिर पर
मंदिर परिसर से बाहर आते समय सीढ़ियों से सटी एक दुकान के लोग अपनी दुकान में आने का विनयवत निमंत्रण दे रहे थे। इस दुकान में किसिम-किसिम की मूर्तियां थीं। छोटी-बड़ी सभी आकार की। विभिन्न धातुओं की। राजस्थानी कला से जुड़ी और तमाम चीज़ें। कपड़े, जयपुरिया रजाई आदि। पर इतने मंहगे कि बस पूछिए मत। तीन हज़ार से शुरु पचास हज़ार, लाख तक की मूर्तियां। छोटी-बड़ी। हर तरह की। खैर आगे बढे़। कहा जाता है कि पूरी दुनिया में ब्रह्मा और गायत्री का यही इकलौता मंदिर है। खैर यहां भगवान नरसिंह का भी मंदिर है खूब ऊंचा। पर जाने क्यों यहां लोग बहुत नहीं जाते। मैं जब गया इस मंदिर में तो जाते-आते अकेला ही रहा। पुष्कर की समूची सड़क लगभग बाज़ार है। सड़क भी बड़ी है और बाज़ार भी। बनारस की तरह तमाम घाट भी हैं यहां। वृद्ध लोग सीढ़ियां चढ़ते उतरते थक जाते हैं। यही हाल बाज़ार का भी है। समूचा बाज़ार घूमना वृद्धों के वश का है नहीं। और तीर्थ, मंदिर ज़्यादातर वृद्धों और स्त्रियों से ही गुलज़ार रहते हैं। उन की मिज़ाज़पुर्सी में ही युवा उन के साथ होते हैं। सो वृद्ध लोग बाज़ार के बाहर वाले रास्ते से आटो से आते-जाते हैं, जिन की सामर्थ्य होती है। यहां मैं ने देखा कि फूलों की खेती भी अच्छी है। एक दुकान पर देखा कि एक व्यक्ति अपने साथ की स्त्रियों के साथ साड़ियां खरीदने में लगा था। वह ठेंठ गंवई राजस्थानी ही था। मोल-तोल कर ढाई-ढाई सौ की कुछ साड़ियां खरीदने के बाद वह दुकानदार से पक्की रसीद मांगने लगा। तो दुकानदार ने उसे समझाया कि रसीद लोगो तो पैसा बढ़ जाएगा। टैक्स लग जाएगा। तो वह खरीददार बोला कि मैं जानता हूं कि टैक्स एक साथ जहां से सामान आता है, वहीं लग जाता है। तो दुकानदार भी एक घाघ था। बोला कि टैक्स तो लग जाता है पर वैट और सर्विस टैक्स यहीं लगता है। बोलो दोगे? दूं रसीद? वह बिना रसीद के चला गया। ज़ाहिर है कि साड़ियों में शिकायत की गुंज़ाइश थी और वह आदमी लोकल लग रहा था, वापस आ सकता था शिकायत ले कर। बाहरी तो था नहीं कि वापस नहीं आ सकता था। सो रसीद होती तो विवाद बढ़ सकता था। सो उस ने रसीद नहीं दी। आखिर ढाई सौ में चमकीली साड़ी निकलेगी भी कैसी? आसानी से जाना जा सकता है। बनारस की तरह यहां भी दुकानदारों द्वारा विदेशी जोड़ों को भरमाने की कवायद बदस्तूर दिखी। यहां एक हलवाई की दुकान पर रबड़ी का मालपुआ देशी घी में लिखा देख मुह में पानी आ गया। पर उस का सब कुछ खुला-खुला देख कर हिम्मत नहीं हुई। बीमार पड़ने का खतरा था। मन को काबू करना पड़ा।
शाम हो चली थी। एक और मंदिर दिखा। यहां भी भीड़ मिली। यहां भगवान जी को घुमाया जा रहा था। बाकायदा पुजारी लोग पालकी में ले कर घुमा रहे थे। आरती का दिया भी घूम रहा था। चढ़ावा लेने के लिए। आरती ली, फ़ोटो खिंची और चल दिए। बस स्टैंड के ठीक पहले एक जगह एक स्त्री घास बेचती मिली। वहीं कुछ गाय झुंड में घास खा रही थी। वह स्त्री आते-जाते लोगों से गुहार लगाती रहती थी कि गाय को घास खिलाते जाइए। पांच रुपए में, दस रुपए में। कुछ लोग उस स्त्री की सुन लेते थे, कुछ नहीं। इसी तरह पुष्कर झील के किनारे भी एक जगह गऊ घाट भी दिखा था। वहां शायद गऊ दान होता हो। मैं देखते हुए ही चला आया था। गया नहीं। वापसी के लिए बस स्टैंड पर आ गया। एक बस सवारियों से भर चुकी थी। दूसरी के इंतज़ार में बैठ गया। थोड़ी देर में दूसरी बस भी आ गई। और तुरंत भर गई। पर अभी चली भी नहीं थी कि पता चला कि पंक्चर हो गई। हार कर उस पहली ही बस में आना पड़ा।
ब्रह्मा-गायत्री मंदिर पर
जब अजमेर शहर करीब आ गया तो कंडक्टर से मैं ने कहा कि, ‘ दरगाह जाना है सो वहां जाने के लिए जो करीब का स्टापेज़ हो बता दीजिएगा उतरने के लिए।’ उस ने बता दिया कि, ‘आगरा गेट पर उतर जाइएगा।’ मैं ने कहा कि, ‘यह भी आप को बताना पड़ेगा कि आगरा गेट कहां है?’ कंडक्टर शरीफ़ आदमी था। उस ने हामी भर दी। पर मेरी सीट के पीछे बैठे एक दो लोग मेरी पड़ताल में लग गए। यह कहते हुए कि, ‘आ रहे हो पुष्कर से और जा रहे हो दरगाह?’ उन्हों ने नाम पूछा। और बोले, ‘पंडत हो कर भी दरगाह?’ मैं ने कहा कि, ‘हां।’ फिर, ‘कहां से आए हो?’ पूछा। मैं ने बताया कि, ‘लखनऊ से। ‘ तो वह बोले, ‘तब तो तुम्हें जाना ही है। यह तुम्हारा दोष नहीं लखनऊ का है। पर क्यों पुष्कर का सारा पुण्य दरगाह में जा कर भस्म कर देना चाहते हो?’ इस के बाद वह और उस का एक साथी नान स्टाप फ़ुल वाल्यूम में जितना और जैसा भी ऊल-जलूल बक सकते थे बकते रहे। पहले तो मैं ने टाला। पर जब ज़्यादा हो गया तो मैं कुछ प्रतिवाद करने के लिए मुंह खोल ही रहा था कि बगल में बैठे व्यक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया और कुछ न बोलने का संकेत किया। मुझे भी लगा कि प्रतिवाद में बात बढ़ सकती है सो चुप लगा गया। बस में उस व्यक्ति की बात के समर्थन में कुछ और लोग भी बोलने लगे। अंट-शंट। आपत्तिजनक। खैर तभी आना सरोवर के पास से बस गुज़री तो मुझे गौहाटी में ब्रह्मपुत्र की याद आ गई। पर बात को बदलने की गरज़ से मैं ने उस लगातार बोलते जा रहे आदमी से पूछा कि, ‘यह आना सरोवर है ना !’
‘हां है तो।’ वह ज़रा रुका और बोला, ‘नहाओगे क्या?’ वह ज़रा देर रुका और बोला, ‘अरे शहर का सारा लीवर-सीवर यहीं गिरता है।’ फिर वह एक श्मशान घाट की प्रशंसा में लग गया और कहने लगा कि कुछ मांगने जाना ही है तो वहां जाओ। कोई निराश नहीं लौटता। आदि-आदि। और वह फिर मुझे समझाने में लग गया कि, ‘पंडत पुष्कर का पुण्य दरगाह में जा कर मत नष्ट करो ।’ कि तभी कंडक्टर ने बताया कि, ‘आगरा गेट आने वाला है, गेट पर चले जाइए।’
मैं आगरा गेट पर उतर गया।
अजमेर में ख्वाज़ा साहब की दरगाह पर
चला पैदल ही दरगाह की ओर। लोगों से रास्ता पूछते हुए। पहले दिल्ली गेट और फिर थोडी़ देर में दरगाह की मुख्य सड़क पर आ गया। एक मौलाना से पूछ भर लिया। कि, ‘क्या यही दरगाह है?’
‘जी जनाब !’ कह कर वह भी शुरु हो गए। नान स्टाप। वहा की बदइंतज़ामी पर, सड़कों में जगह-जगह गड्ढे दिखाते हुए। गंदगी दिखाते हुए। कहने लगे कि, ‘लूट मचा रखी है !’
‘किस ने?’ मैं ने पूछा।
‘अफ़सरान ने !’ वह बोले, ‘कलक्टर से लगायत सब के सब। नहीं कितना पैसा गवर्नमेंट देती है, बाहर से फ़ंड आता है, पर सब लूट कर खा जाते हैं यह सब ! आप जाइए पुष्कर ! फिर देखिए कि वहां क्या चमाचम सड़कें है। क्या इंतजामात हैं, सफाई है। पर यहां तो अंधेरगर्दी है लूट है।’ मौलाना जैसे फटे पड़ रहे थे। उन की शिकायतों का कोई अंत नहीं था।
थोडी देर बाद मैं ने बात बदलने के लिहाज़ से कहा कि, ‘यहां सवारी नहीं आती?’
‘बादशाह अकबर यहां पैदल आए थे !’ वह बड़े नाज़ से बोले, ‘चलिए पैदल ! हर्ज़ क्या है?’ और वह फिर शुरु हो गए। जल्दी ही हम दरगाह के मुख्य दरवाज़े पर आ गए। यहां भी काशी में विश्वनाथ मंदिर की तरह और पुष्कर में ब्रह्मा-गायत्री मंदिर की तरह जूते-चप्पल रखने के लिए फूल, प्रसाद, चढ़ाने के लिए चद्दर आदि लेना अनिवार्य था। लेकिन चढ़ाने के लिए चद्दर, अगरबत्ती और प्रसाद मैं पहले ही ले चुका था। अब यहां सिर्फ़ फूल लेना बाकी था। खैर मुख्य दरवाज़े के बगल में जूता-चप्पल जमा करने की एक जगह थी। पांच रुपए जोड़ा की दर से। मैं ने वहीं जमा किया। अंदर भी जा कर सब सामान मिल रहे थे। तो मैं ने फिर एक टोकरी फूल लिया। और चला मत्था टेकने ख्वाज़ा साहब की दर पर। पर भीतर जाते ही गुमान यहां भी टूटा। पंडे यहां भी थे, खादिम के रुप में। रसीद कटवाने के लिए फ़रेब और दादागिरी यहां भी थी। पैसे चढ़ाने की पुकार यहां भी थी और लाज़िम तौर पर। चिल्ला-चिल्ला कर। एक खादिम तो बाकायदा चिल्लाते हुए कह रहे थे गल्ले का पैसा यहां जमा करो। और हाथ से चादर, फूल सब झपट कर खुद पीछे की तरफ़ फेंक देते थे। और लोगों को भेड़-बकरी की मानिंद हांक देते थे कि, ‘उधर चलो !’ ज़बरदस्ती। हमारे लखनऊ में खम्मन पीर बाबा की मज़ार पर तो ऐसा कुछ भी नहीं होता। भीड़ वहां भी खूब होती है। खैर यहां मैं ने ऐतराज़ किया और कहा भी उन से कि, ‘ पुलिस वालों जैसा सुलूक तो मत करिए।’ और ज़रा तेज़ आवाज़ में ऐतराज़ दर्ज़ करवाया। तो वह थोडे़ नरम पड़े। और जब मैं ने कहा कि, ‘देखिए उस तरफ़ तो लोग खुद फूल और चादर चढ़ा रहे हैं। और यहां आप ने हम जैसों को खुद फूल और चादर चढ़ाने नहीं दिया।’ तो वह हिकारत से बोले, ‘ध्यान से देखो, वह भी खादिम लोग ही हैं।’ कह कर वह फिर भेंड़-बकरी की तरह सब को हांकने में लग गए। भीड़ हालां कि ज़्यादा नहीं थी आफ़ सीज़न के चलते। पर कम भी नहीं थी। कोई आधा घंटा से ज़्यादा लग गया दो कदम की दूरी चल कर मत्था टेकने में। वी. आई.पी. ट्रीटमेंट होता है हर जगह । हर मंदिर, हर दरगाह में। यहां भी था। उसी दिन पूर्व मंत्री और भाजपा नेता शाहनवाज़ भी चादर चढ़ाने गए थे। और भी बहुतों की फ़ोटो देखी थी मैं ने वहां चादर चढा़ते हुए। पर हमारी चादर और फूल चढाई नहीं गई बस पीछे फेंक दी गई खादिम के द्वारा। और सब की ही तरह। पर मत्था टेकने और सिर झुकाने का सुख मिला, सवाब मिला, इसी से संतोष किया। बाहर आ कर फ़ोटो भी खिंची। फ़ोटो खींचने पर किसी को ऐतराज़ भी नहीं हुआ। बस एक आदमी ने सलाह दी और ज़रा डपट कर दी कि पीठ ख्वाज़ा साहब की तरफ़ कर के खडे़ हो कर फ़ोटो मत खिंचवाइए। यह खादिम नहीं, हमारी तरह श्रद्धालु थे। तो भी मुझे हंसी आई और वह शेर याद आ गया कि:
जाहिद शराब पीने दे मस्ज़िद में बैठ कर
या वो जगह बता जहां खुदा न हो !
पूरे परिसर में खूब रोशनी और चहल-पहल है। लोग-बाग भी खूब हैं। औरत-मर्द, बूढे-बच्चे सभी। श्रद्धा में नत और तर-बतर। कोई नमाज़ पढ़ता, कोई आराम करता और परिवारीजनों से बतियाता हुआ। हाथ पैर धोता सुस्ताता हुआरास्ते में एक रेस्टोरेंट में खाना खा कर लौट रहा हूं बरास्ता दिल्ली गेट, आगरा गेट डाकबंगला। आ कर सो जाता हूं। सवाब और सुख से भरा-भरा। सुबह ११ बजे लखनऊ वापसी की ट्रेन है। गरीब-नवाज़ है। कूपे में अजमेर से अकेला हूं। अजमेर छूट रहा है। जयपुर से बाटनी के प्रोफ़ेसर स्वर्णकार श्रीमती स्वर्णकार के साथ आ गए हैं हैं। इधर-उधर की बातचीत है। बबूल की चुभन की उन से बात करता हूं। वह कहते हैं कि हां बहुत सारा डेज़र्ट है तो। बात जयपुर के गुलाबीपन की होती है। बात ही बात में वह बताते हैं कि राजस्थान के बाकी हिस्से तो कंगाल हैं। खास कर मेवाड़ वगैरह। लड़-भिंड़ कर खजाना खाली कर दिया। वह जैसे तंज़ पर आ जाते हैं और कहते हैं कि पर जयपुर के राजा लोग लड़ने-भिड़ने में कभी यकीन नहीं किए। चाहे जय सिंह रहे हों या मान सिंह। मुगल पीरियड रहा हो या ब्रिटिश पीरियड। सो खज़ाना हमेशा भरा रहा। वह हंसते हैं। उन के बच्चे सेटिल्ड हो गए हैं और वह हरिद्वार जा रहे हैं। शाम को हरकी पैड़ी पर आरती का आनंद लेने की योजना बना रहे हैं। राजस्थान छूट रहा है धीरे-धीरे। हरियाणा आ रहा है। हरियाणा छूट रहा है। दिल्ली आ रहा है। प्रोफ़ेसर स्वर्णकार को दिल्ली में ट्रेन बदलनी है। वह उतर जाते हैं। एक जैन साहब आ जाते हैं। व्यापारी हैं। खाना हम दोनों खा रहे हैं। वह घर का लाया खाना खा रहे हैं। बता रहे हैं कि बाहर का खाना नहीं खाते वह। लहसुन प्याज वाली दिक्कत है। अमरीका तक में वह महीने भर रहे पर बचा गए। देशी घी वाला खाना है, बताना नहीं भूलते वह। अब दिल्ली छूट रही है। जाते वक्त ट्रेन आगरा के रास्ते राजस्थान ले गई थी, भरतपुर, बांदीकुई वगैरह होती हुई जयपुर, अजमेर, भीलवाड़ा। अब की राजस्थान छूटा अलवर होते हुए, हरियाणा, दिल्ली के रास्ते। सोते हुए। गए थे जागते हुए। भरतपुर में तब नींद टूटी थी। अब की वापसी में शाहजहांपुर में टूटी है। कुछ परिवार हैं जो अजमेर से लौटे हैं सबाब ले कर। उतरते वक्त खामोशी के बजाय हलचल मचाते हुए उतर रहे हैं। भोर के पौने तीन बजे हैं। लोग उतर रहे हैं। सोए हुए बच्चों और सामान को हाथ में लिए हुए। सवाब का सुकुन चेहरे पर है ज़रुर पर बोल रहे हैं कि अपना मुल्क ही अपना मुल्क होता है। अपने मुल्क की बात ही कुछ और है। तो क्या अजमेर उन का दूसरा मुल्क था? क्या रघुवीर सहाय इसी लिए, इसी तलाश और तनाव में लिख गए हैं दिल्ली मेरा परदेस ! याद आता है कि साक्षी के कार्यक्रम में रोमिला ने स्त्रियों के संदर्भ में एक वाकया सुनाया था। कि एक कुम्हार घड़ा बना रहा था। घडा़ बनाते-बनाते वह किन्हीं खयालों में खो गया। कि तभी मिट्टी बोली कुम्हार-कुम्हार यह क्या कर रहे हो? घड़े की जगह मुझे सुराही क्यों बना रहे हो? कुम्हार ने कहा कि माफ़ करना मेरा विचार बदल गया। मिट्टी तकलीफ़ से भर कर बोली तुम्हारा तो सिर्फ़ विचार बदला, पर मेरी तो दुनिया बदल गई।
तो यहां अजमेर से शाहजहांपुर की यात्रा में इन लोगों का मुल्क बदल गया। अपने मुल्क आने की खुशी में वह लोग भूल गए कि हमारे जैसे लोगों की नींद भी टूट गई है। बशीर बद्र याद आ गए हैं :
वही ताज है, वही तख़्त है, वही ज़हर है, वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है, ये वही बुतों का निज़ाम है

दयानंद पांडेय ,लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. अपनी कहानियों और उपन्यासों के मार्फ़त लगातार चर्चा में रहने वाले दयानंद पांडेय का जन्म 30 जनवरी, 1958 को गोरखपुर ज़िले के एक गांव बैदौली में हुआ। हिंदी में एम.ए. करने के पहले ही से वह पत्रकारिता में आ गए। 33 साल हो गए
हैं पत्रकारिता करते हुए। उन के उपन्यास और कहानियों आदि की कोई डेढ़ दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। लोक कवि अब गाते नही पर प्रेमचंद सम्मान तथा कहानी संग्रह ‘एक जीनियस की विवादास्पद मौत’ पर यशपाल सम्मान। बांसगांव की मुनमुन, वे जो हारे हुए, हारमोनियम के हजार टुकड़े, लोक कवि अब गाते नहीं, अपने-अपने युद्ध, दरकते दरवाज़े, जाने-अनजाने पुल (उपन्यास), प्रतिनिधि कहानियां, बर्फ में फंसी मछली, सुमि का स्पेस, एक जीनियस की विवादास्पद मौत, सुंदर लड़कियों वाला शहर, बड़की दी का यक्ष प्रश्न, संवाद (कहानी संग्रह), हमन इश्क मस्ताना बहुतेरे (संस्मरण), सूरज का शिकारी (बच्चों की कहानियां), प्रेमचंद व्यक्तित्व और रचना दृष्टि (संपादित) तथा सुनील गावस्कर की प्रसिद्ध किताब ‘माई आइडल्स’ का हिंदी अनुवाद ‘मेरे प्रिय खिलाड़ी’ नाम से प्रकाशित। उनका ब्लाग है- सरोकारनामा