रविवार, 27 जनवरी 2019

किशनगढ़ के निर्दलीय विधायक टाक के सामने है धर्मसंकट

हाल ही संपन्न हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा से बगावत करके निर्दलीय रूप में जीते किशनगढ़ के विधायक सुरेश टाक, भले ही खुश हो लें कि उनकी विधायक बनने की इच्छा पूरी हो गई, मगर सरकार कांग्रेस की बनने के कारण वे धर्मसंकट में हैं। अगर आगामी लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ देते हैं तो किशनगढ़ के विकास के लिए सरकार का अपेक्षित सहयोग नहीं ले पाएंगे और अगर कांग्रेस का साथ देते हैं तो उनका खुद का भाजपाई जनाधार ही खो जाएगा।
भले ही वे निर्दलीय रूप से चुने गए हैं, मगर यह सच है कि उन्हें अधिसंख्य वोट भाजपा मानसिकता के ही मिले होंगे। जीत इस कारण गए क्योंकि पूरा शहर लगभग एकजुट सा हो गया। कांग्रेस विचारधारा के शहरी वोटर ने भी उनका साथ दिया ही होगा। किशनगढ़ वासियों की लंबे समय से यह इच्छा रही कि कोई गैर जाट जीत कर आए, मगर दोनों ही दल जातीय समीकरण के तहत जाट को ही प्रत्याशी बनाते रहे। ऐसे में हर बार जाट ही जीत कर आता, कभी कांग्रेस का तो कभी भाजपा का। चूंकि विधायक देहात पृष्ठभूमि के होते थे, इस कारण उनकी उतनी रुचि शहर में नहीं होती थी, जितना कि शहर वासी अपेक्षा करते थे।
इस बार कांग्रेस व भाजपा, दोनों ने जाट को ही टिकट दिया तो टाक को निर्दलीय रूप में मैदान में उतर कर त्रिकोण बनाने का मौका मिल गया।  संयोग ऐसा हुआ कि पूर्व कांग्रेस विधायक नाथूराम सिनोदिया भी बागी बन गए और मुकाबला चतुष्कोणीय हो गया। टाक ने 17452 मतों से जीत दर्ज की। टाक को 82678, भाजपा के विकास चौधरी को 65226, निर्दलीय नाथूराम सिनोदिया को 22851, कांग्रेस के नन्दाराम को 15157 वोट मिले।  यदि सिनोदिया व नंदाराम के वोटों को जोड़ लिया जाए तो भी आंकड़ा टाक व चौधरी को मिले वोटों से कम बैठता है। उसकी वजह साफ है कि शहर की हवा के साथ बहे कांग्रेसी वोट भाजपा मानसिकता के टाक की झोली में पड़ गए।
खैर, अब टाक के सामने धर्मसंकट ये है कि वे करें क्या? एक ओर विधानसभा क्षेत्र के विकास की समस्या है तो दूसरी ओर भाजपा मानसिकता के मतदाताओं की नाराजगी का खतरा। हालांकि होना ये है कि लोकसभा चुनाव में वे जो कुछ करें, मगर वोटों का बंटवारा विशुद्ध रूप से पार्टी के आधार पर हो जाएगा। जिन शहरी कांग्रेसी मतदाताओं ने टाक को वोट दिए, वे अब वापस कांग्रेस का रुख करेंगे। वो तो शहर के नाम पर टाक के साथ हुए थे, मगर अब वे स्वतंत्र हैं।
हालांकि जब टाक जीते तो मतगणना के तुरंत बाद उनसे पूछा गया कि वे किसका साथ देंगे तो उन्होंने डिप्लोमेटिक जवाब दिया कि परिस्थिति के अनुसार देखा जाएगा। परिस्थिति ऐसी बनी कि कांग्रेस को सरकार बनाने के लिए निर्दलियों की उतनी जरूरत नहीं रही। अगर आंकड़ा कुछ कम होता तो कदाचित कांग्रेस का साथ दे कर कुछ हासिल कर सकते थे, जैसे पिछली बार ब्रह्मदेव कुमावत ने किया और संसदीय सचिव बन गए। उनके लिए तो फिर भी आसान रहा क्योंकि वे कांग्रेस पृष्ठभूमि से थे और सरकार भी कांग्रेस की ही बनी। लेकिन टाक के लिए यह आसान नहीं, क्योंकि उन्हें तो ऐसा करने के लिए पाला ही बदलना पड़ेगा। पिछले दिनों अन्य निर्दलियों के साथ जब वे सरकार से मिले तो सवाल उठा कि क्या वे कांग्रेस की ओर झुकाव रखने जा रहे हैं, इस पर उन्हें साफ करना पड़ा कि उनकी रुचि क्षेत्र के विकास में है और चूंकि सरकार कांग्रेस की है तो उनसे तो मिलना ही पड़ेगा।
बहरहाल, जब सरकार बनाने वाली पार्टी के पास बहुमत का आंकड़ा कम होता है तो निर्दलियों की बल्ले-बल्ले हो जाती है, मगर यदि ज्यादा गरज नहीं हो तो निर्दलियों का हाल वैसा ही हो जाता है, जैसा कि सुरेश टाक का।

भाजपा में बाहरी प्रत्याशी लाए जाने की चर्चा

राजनीतिक हलके में खुसर-फुसर है कि आगामी लोकसभा चुनाव में अजमेर सीट के लिए टिकट की दावेदारी कर रहे नेता भले ही अपने आपको मजबूत प्रत्याशी मान और बता रहे हैं, मगर उनमें से किसी पर भी इतना भरोसा नहीं किया जा पा रहा है कि वे जिताऊ हैं।
फिलहाल चर्चा में सबसे प्रबल नाम देहात जिला भाजपा अध्यक्ष प्रो. बी. पी. सारस्वत का नाम है। उनके अतिरिक्त अजमेर नगर निगम के मेयर धर्मेन्द्र गहलोत, युवा भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा, पूर्व यूआईटी चेयरमैन धर्मेश जैन, पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा, पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना, पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी आदि की भी दावेदारी सामने आई है। अजमेर लोकसभा सीट से पांच बार जीते प्रो. रासासिंह रावत भी दावा ठोक रहे हैं। हालांकि भाजपा हाईकमान जानता है कि इस संसदीय क्षेत्र में तकरीबन ढ़ाई लाख जाट मतदाता हैं, इस कारण जाट प्रत्याशी ही सबसे मजबूत रहेगा, मगर उसके पास दमदार जाट नेता नहीं है, जिसे जिताऊ मान लिया जाए।
ज्ञातव्य है कि भूतपूर्व मंत्री स्वर्गीय प्रो. सांवर लाल जाट ने पिछले चुनाव में कांग्रेस के सेलिब्रिटी केंडीडेट सचिन पायलट को हरा दिया था। इसमें उस वक्त चली मोदी लहर के साथ उनका जाट होना प्रमुख कारक माना जाता है। उनके निधन के बाद हुुए उपचुनाव में हालांकि भाजपा ने प्रो. जाट के निधन से उपजी सहानुभूति व जाट फैक्टर को ख्याल में रखते हुए उनके ही पुत्र रामस्वरूप लांबा पर दाव खेला, मगर वे कांग्रेस के डॉ. रघु शर्मा से हार गए। हार के कारणों में एंटी इन्कंबेंसी, लांबा की कमजोर प्रस्तुति, भाजपा संगठन में एकजुटता का अभाव आदि को प्रमुख कारणों में गिना गया। बावजूद इसके यह तथ्य स्थापित हो गया कि ब्राह्मण प्रत्याशी भी जीत सकता है। इसी कारण प्रो. सारस्वत सबसे प्रबल दावेदार बन कर उभरे हैं। इसके पीछे उनकी जिले भर में अब तक की मेहनत और संगठन पर मजबूत पकड़ को गिना जा रहा है। फिर भी समझा जा रहा है कि सारस्वत पूरी तरह से जीत का घोड़ा नहीं है। रघु शर्मा की जीत के समीकरण अलग थे। उनको उदाहरण मान कर सारस्वत को टिकट देना गलत कदम भी हो सकता है। तत्कालीन परिस्थितियों में कदाचित ब्राह्मण वोट लामबंद हो गया हो, मगर इस बार भी ऐसा ही होगा, यह पक्के तौर पर नहीं माना जा सकता। रघु शर्मा को एंटी इन्कंबेंसी का लाभ मिला था, जबकि सारस्वत को एंटी इन्कंबेंसी का सामना करना होगा। अगर उन्हें टिकट दिया जाता है तो जाट वोट बैंक का क्या किया जाएगा, यह भी सबसे बड़ा विचारणीय बिंदु है। सारस्वत के अतिरिक्त अन्य दावेदारों की बात करें तो जाटों में भागीरथ चौधरी व श्रीमती सरिता गैना को जिला स्तर पर सर्वमान्य जाट नेता नहीं माना जा रहा। गैर जाट दावेदारों में पलाड़ा, गहलोत, जैन व पहाडिय़ा हैं तो अच्छे दावेदार, मगर उन्हें पक्के तौर पर जिताऊ नहीं माना जा रहा। आज जब कि भाजपा का ग्राफ गिरा है तो यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी जानते हैं कि इस बार पूरी पच्चीस की पच्चीस सीटें तो मिलनी हैं नहीं। ताजा माहौल में भाजपा तकरीबन दस से पंद्रह सीटें खो सकती है। ऐसे में मोदी की पूरी कोशिश रहेगी कि एक-एक सीट पर ठोक बजा कर प्रत्याशी उतारे जाएं। स्थानीय दबाव की वजह से किसी भी सशंकित दावेदार पर दाव नहीं खेला जा सकता है। यदि नागौर के मौजूदा सांसद सी. आर. चौधरी का नाम चर्चा में है तो इसी कारण कि उन्हें अन्य सभी स्थानीय दावेदारों की तुलना में अपेक्षाकृत मजबूत माना जा रहा है। नाथूसिंह गूजर का नाम भी चर्चा में है, मगर गूजर नेता के रूप में प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के रहते वे कितने गूजरों को अपनी ओर खींच पाएंगे, इसका अनुमान नहीं लगाया जा पा रहा। हालांकि हाल ही संपन्न विधासभा चुनाव में भाजपा ने आठ में से पांच पर जीत दर्ज की है, मगर लोकसभा चुनाव के समीकरणों को ध्यान में रखते हुए किसी सेलिब्रिटी को आयातित किए जाने की भी चर्चा है।