गुरुवार, 31 मार्च 2011

जयपाल यूआईटी अध्यक्ष, भाटी शहर कांग्रेस अध्यक्ष होंगे

डा. बाहेती, रलावता व भगत ने जताया रोष
अजमेर। तकरीबन सवा दो साल बाद आखिरकार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपना पिटारा खोल ही दिया। गुरुवार को अजमेर प्रवास के दौरान उन्होंने मौजूदा शहर अध्यक्ष वरिष्ठ वकील जसराज जयपाल को नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनाए जाने के संकेत दे दिए। साथ ही पूर्व उप मंत्री ललित भाटी को शहर कांग्रेस की कमान संभालने को तैयार रहने को कहा है।
सर्किट हाउस में गहलोत से मिलने गए कांग्रेसियों के प्रतिनिधिमंडल से वार्ता के दौरान उन्होंने कहा कि जयपाल ने लंबे समय से पार्टी की सेवा की है, अत: सरकार ने उन्हें इनाम के बतौर नगर सुधार न्यास का अध्यक्ष बनाने का निश्चय किया है। इस पर वहां मौजूद जयपाल समर्थकों में खुशी की लहर दौड़ गई। इसी अवसर पर वहां उपस्थित पूर्व उपमंत्री ललित भाटी की ओर मुखातिब होते हुए उन्होंने कहा कि जयपाल की गैर मौजूदगी में उन्हें शहर कांग्रेस का संचालन करना है। हालांकि भाटी ने कोई प्रतिक्रिया तो जाहिर नहीं की मगर वहां उपस्थित कांग्रेसजन में इस बात की खुशी थी कि बड़े दिन बाद संगठन का जयपाल से पिंड छूटा है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि भाटी को फिलहाल पार्टी की ही सेवा करने का मौका दिया गया है, ताकि वे पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी से की गई बगावत का प्रायश्चित कर सकें। उसी के बाद उन्हें कोई सरकारी राजनीतिक पद देने पर विचार किया जाएगा।
गहलोत की ओर से किए गए इस खुलासे से सर्वाधिक निराशा पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को हुई है। मुख्यमंत्री के सर्वाधिक करीब होने के कारण उन्हें पूरी उम्मीद थी कि उनके पिछले सफल कार्यकाल के मद्देनजर उन्हें फिर से न्यास अध्यक्ष बनाया जाएगा। हालांकि उन्होंने अपने रोष का इजहार गहलोत के सामने तो नहीं किया, लेकिन जैसे ही गहलोत ने जयपाल व भाटी को नई नियुक्तियां देने के संकेत दिए वे पैर पटकते हुए वहां से रवाना हो गए और जाते-जाते गहलोत के पीए के पास अपना एतराज दर्ज करवा गए कि इतने वर्षों तक गहलोत की सेवा करने के बाद अब वे किस मुंह से शहर वासियों के सामने जाएंगे। उन्होंने कहा कि लोग उन्हें गहलोत का खास होने के कारण ही तवज्जो देते थे, लेकिन अब उन्हें कौन पूछेगा। उन्होंने विरोध में बीस सूत्री कार्यक्रम क्रियान्वयन समिति से भी इस्तीफा देने की चेतावनी दी, जिस पद का सरकारी बैठकों में चाय-नाश्ते के अलावा कोई फायदा नहीं है।
न्यास सदर बनने को सर्वाधिक आतुर महेन्द्र सिंह रलावता ने तो मुख्यमंत्री के सामने ही अपना विरोध दर्ज करवाया कि पहले उनका अजमेर उत्तर का टिकट यह कह कर काटा गया कि बाद में सरकार आने पर उन्हें कोई पद दे दिया जाएगा, लेकिन मौका आने पर ऐसे व्यक्ति को अध्यक्ष बनाया जा रहा है, जो कि वर्षों से सत्ता का सुख भोग रहे हैं। उन्होंने वहीं मौजूद केन्द्रीय संचार राज्य मंत्री सचिन पायलट को भी उलाहना दिया कि पूरा शहर उन्हें पायलट का खास होने के कारण यही मान रहा था कि वे ही न्यास सदर बनेंगे, मगर अब लोग यह कहने से नहीं चूकेंगे कि पायलट से उनकी नजदीकी अफवाह मात्र थी। रलावता ने कहा कि एक तो अजमेर की एक सीट पहले से ही एससी केलिए रिजर्व है, दूसरी पर सिंधियों ने कब्जा जमा रखा है। नगर निगम महापौर भी एससी के लिए रिजर्व हो गया। बाकी बचा न्यास सदर का पद, वह भी एससी को ही देंगे तो ऐसे में वे क्या झक मारने के लिए राजनीति कर रहे हैं। उन्होंने अपने आका मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के जरिए हाईकमान को शिकायत दर्ज करवाने की भी चेतावनी दी।
इसी प्रकार पिछले चुनाव में टिकट कटने के बाद खफा चल रहे नरेन शहाणी भगत ने भी रोष जताया कि उन्हें लगातार बेवकूफ बनाया जा रहा है। पहले टिकट काट कर डॉ. बाहेती को दे दिया गया और अब न्यास सदर पद से भी वंचित किया जा रहा है। उन्होंने दु:ख भरे लहजे में कहा कि वे वर्षों से पार्टी के लिए पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं, मगर पार्टी ने आखिरकार ठेंगा दिखा दिया। ऐसे में वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे और अपने बे्रड-बिस्किट का धंधा संभालेंगे। बाद में मीडिया कर्मियों से चर्चा करते हुए उन्होंने आशंका जाहिर की कि पार्टी की बगावत कर चुके एडवोकेट अशोक मटाई की झूठी शिकायतों की वजह से ही उनका नाम काटा गया है। वे इसकी शिकायत अपने आका पूर्व सांसद सुरेश केसवानी के जरिए सोनिया गांधी से करेंगे। उन्होंने कहा कि यदि पार्टी ने इसी प्रकार सिंधियों को नजरअंदाज करना जारी रखा तो उसे उसका खामियाजा भुगतना होगा।
पत्रकारों ने न्यास सदर पद के लिए एडी-चोटी का जोर लगा रहे अन्य दावेदारों से उनकी प्रतिक्रिया जानने की कोशिश की तो उनमें से दीपक हासानी ने कहा कि उन्हें गहलोत के पुत्र वैभव से दोस्ती का खामियाजा भुगतना पड़ गया। न जाने किस नासपिटे ने झूठा पर्चा छपवा कर बंटवा दिया और गहलोत ने खुद पर आंच न आने की खातिर उनको वंचित रख दिया। इसी प्रकार शहर कांग्रेस उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग ने कहा कि वे तो केवल इसी कारण न्यास सदर पद की दावेदारी कर रहे थे, ताकि नेगोसिएशन में उन्हें कोई और पद मिल जाए। वैसे उन्होंने उम्मीद जाहिर की कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री शशि थरूर मित्रता के नाते उन्हें जरूर कोई न कोई पद दिलवा ही देंगे। अप्रैल फूल

केवल मंजू राजपाल के झाडू लगाने से कुछ नहीं होगा

अजमेर की जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल की पहल पर जिला प्रशासन ने राजस्थान दिवस पर सफाई का एक अनूठे तरीके से संदेश दिया। न केवल मंजू राजपाल ने झाडू लगाई, अपितु उनके साथी अफसरों, नगर निगम के महापौर कमल बाकोलिया ने भी उनका साथ दिया। जाहिर तौर पर इस अनूठी पहल की खबरें सुर्खियों में छपीं, मगर यह संदेश आमजन ने कितना आत्मसात किया, वह इसी आइटम के साथ छपे फोटो से पता लग रहा है, जिसमें मंजू राजपाल तो झाडू लगा रही हैं, जबकि उनके ठीक ऊपर दुकान को आगे बढ़ा कर अस्थाई अतिक्रमण किए दुकानदार बेशर्मी से बैठे हुएं हैं। उन्हें तनिक भी अहसास नहीं कि जिले की हाकिम खुद झाडू हाथ में लेकर खड़ी हैं, और वे आराम से हाथ पर हाथ धरे बैठे ताक रहे हैं, मानो कोई सफाई कर्मचारी सफाई कर्मचारी सफाई करने को आई है। उन्हें ये भी ख्याल नहीं कि झाडू लगाना कलेक्टर का काम नहीं है। वे तो संदेश दे रही हैं। आज अजमेर में हैं, कल कहीं और चली जाएंगी। वे तो इसी शहर में रहने वाले हैं। अव्वल तो दुकानदारों को खुद को उतर कर हाथ बंटाना चाहिए था। यदि इसमें उन्हें शर्म आ रही थी तो कम से कम दुकान से उतर कर एक महिला अफसर का आदर तो कर ही सकते थे। असल में यह अकेला फोटो ही काफी है, यह बताने को कि मंजू राजपाल का संदेश आम नागरिक तक कितना पहुंचा होगा।
वस्तुत: हमारी मानसिकता यही है कि हमने सफाई के काम को नगर निगम के जिम्मे, सफाई कर्मियों के जिम्मे छोड़ रखा है। माना कि सफाई करना आम आदमी का काम नहीं है, मगर शहर साफ-सुथरा रहे, इसमें मदद करना तो हमारा फर्ज है ही। यह सही है कि निगम में संसाधनों की कमी अथवा चंद निकम्मों के कारण शहर साफ-सुथरा नहीं रहता, मगर इसे इतना गंदा भी तो हम ही कर रहे हैं। अगर हम कूड़ा-कचरा सड़क पर अथवा नाली में न डालें तो कदाचित सफाई का आधे से ज्यादा काम खुद-ब-खुद हो जाए।
आम नागरिक ही क्यों, हमारे जनप्रतिनिधि भी सफाई के प्रति कितने जागरूक हैं, यह इसी से साबित हो जाता है कि जिला कलेक्टर ने नगर निगम के सभी पार्षदों को भी इस अभियान की शुरुआत में साथ देने का न्यौता दिया था, मगर शहर वासियों की सेवा करने के नाम पर वोट मांगने वाले अधिसंख्य पार्षद इसमें शरीक नहीं हुए। क्या कांग्रेस के, क्या भाजपा के। इसी से साबित हो रहा है कि महापौर बाकोलिया की पार्षदों पर कितनी पकड़ है। अरे, कम से कम अपनी पार्टी के पार्षदों को तो पाबंद कर ही सकते थे। उधर शहर के विकास में कंधे से कंधा मिला कर चलने की वादा करने वाले उप महापौर अजित सिंह राठौड़ भी नदारद रहे। ऐसे में एक क्या हजार मंजू राजपालें आ जाएं, हमें कोई नहीं सुधार सकता।
बहरहाल, जिला प्रशासन ने तो निगम के हिस्से का काम अपने हाथ में लेकर निगम की नाकामी को लानत दी है, ताकि उसे थोड़ी तो शर्म आए, मगर इस कार्यक्रम में शरीक न होने वालों ने तो सरासर आम जनता की अपेक्षाओं पर ही थप्पड़ जड़ दिया है। जब वे सफाई जैसा संदेश देने मात्र के कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले सकते तो उनसे इस अभागे शहर के विकास की क्या उम्मीद की जा सकती है? शेम, शेम, शेम।

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

क्या अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान को मदद करना जायज है?


महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह में तकरीबन आठ सौ साल से खिदमत करने की खुशकिस्मती हासिल खादिमों की दोनों अंजुमनों ने सवाई माधोपुर के सूरवाल थाना इलाके में जला कर मारे गए थानेदार फूल मोहम्मद के खानदान को पचास हजार रुपए की माली इमदाद करने का फैसला किया है। इस फैसले की खबर पढ़ कर यकायक एक सवाल मेरे जेहन में उभर आया। हो सकता है ये सवाल चूंकि एक खास जमात को लेकर है, इस वजह से उन्हें तो उनके मामले में नाजायज दखल सा लग सकता है, मगर उस जमात का हर जमात के लोगों में एक खास दर्जा है, खास इज्जत है, खास यकीन है, इस वजह से जायज न सही, सोचने लायक तो लगता ही है। सवाल आप सुर्खी को देख कर ही चौंके होंगे। इस पर मेरे जेहन में आए कुछ ख्याल तफसील से रख रहा हूं। इसे बुरा न मानते हुए न लेकर खुले दिल और दिमाग से सोचेंगे, ऐसी मेरी गुजारिश है।
दरअसल आज के जमाने में हमारा पूरा समाज धर्म, संप्रदाय और जातिवाद बंट चुका है। हर जाति वर्ग के लोग अपने जाति वर्ग की बहबूदी के लिए काम कर रहे हैं। इसे बुरा नहीं माना जाता। मोटे तौर पर इस लिहाज से अंजुमनों का फूल मोहम्मद के खानदान वालों के लिए हमदर्दी रखना जायज ही माना जाएगा। उस पर ऐतराज की गुंजाइश नहीं लगती। वजह साफ है। फूल मोहम्मद इस्लाम को मानने वाले थे और खादिम भी इस्लाम को मानते हैं। इस लिहाज से हमदर्दी में मदद करने में कुछ भी गलत नजर नहीं आता। मगर सवाल ये है कि खादिम भले ही जाति तौर पर इस्लाम को मानने वाले हों, मगर वे उस कदीमी आस्ताने के खिदमतगार हैं, जहां से पूरी दुनिया में इत्तेहादुल मजाहिब और मजहबों में भाईचारे का पैगाम जाता है। यह उस महान सूफी दरवेश की बारगाह है, जिसमें केवल इस्लाम को मानने वालों का ही नहीं, बल्कि दुनियाभर के हर मजहब और जाति के करोड़ों लोगों का अकीदा है। अगर ये कहा जाए कि इस मुकद्दस स्थान पर मुसलमानों से ज्यादा हिंदू और दीगर मजहबों के लोग सिर झुकाते हैं, गलत नहीं होगा। वे सब ख्वाजा साहब को एक मुस्लिम संत नहीं, बल्कि सूफी संत मान कर दौड़े चले आते हैं, क्योंकि उन्होंने इंसानियत का संदेश दिया, जो कि हर मजहब के मानने वाले के दिल को छूता है। और यही वजह है कि इस दरगाह की खिदमत करने वालों को भी एक खास दर्जा हासिल है। हर मजहब के लोग आस्ताने में उनका हाथ और चादर अपने सिर पर रखवाने को अपनी खुशनसीबी मानते हैं। बड़ी अकीदत के साथ उनके हाथ चूमते हैं। किसी आम मुसलमान का तो हाथ नहीं चूमते। ऐसी खास जमात के लोग जाति तौर पर भले ही इस्लाम को मानते हैं, मगर सभी मजहबों के लोगों को बराबरी का दर्जा दे कर ही जियारत करवाते हैं। ऐसे में उनकी अंजुमन का इस्लाम को मानने वाले के खानदान के लिए खास हमदर्दी कुछ अटपटी सी लगती है। खासतौर पर यह मामला तो पहले से ही मजहब परस्ती का रुख अख्तियार कर रहा है, इस कारण और भी ज्यादा होशियार रहने की जरूरत है। ख्वाजा साहब के आस्ताने से तो इसे खत्म किए जाने का पैगाम जाना चाहिए। यह भी एक सच है कि अंजुमन ने कई बार सभी मजहबों के लोगों के बीच भाईचारे के जलसे किए हैं। यहां तक कि जब कभी मुल्क में कोई कुदरती आफत आई है तो बढ़-चढ़ कर प्रधानमंत्री कोष और मुख्यमंत्री कोष में मदद की है। यही वजह है कि अंजुमन को नजराना देने वालों में हर मजहब के लोग शुमार हैं। उसी नजराने से इकट्ठा हुई रकम में से एक खास मजहब के परिवार वालों को देना कुछ अटपटा सा लगता है। इसे थोड़ा और खुलासा किए देता हूं। गर कोई मीणा संगठन किसी मीणा को इमदाद देता है तो उस पर कोई ऐतराज नहीं। कोई सिंधी संगठन किसी सिंधी की मदद करता है तो कोई ऐतराज नहीं। ऐसे ही कोई इस्लामिक संगठन किसी मुसलमान की मदद करता है तो भी कोई ऐतराज नहीं। मगर खादिम जमात उन सब से अलहदा है। ऐसा भी नहीं कि इस पचास हजार रुपए की रकम से उस खानदान को बहुत बड़ी राहत मिल जाएगी, जबकि सरकार ने पहले से ही पुलिस का फर्ज निभाते हुए शहीद होने की वजह से काफी मदद कर दी है। ऐसे में महज पचास हजार रुपए की इमदाद की खातिर अपने खास दर्जे से हटना नाजायज नहीं तो सोचने लायक तो है ही।
मेरा मकसद किसी जमात के अंदरूनी मामलात में न तो दखल करने का है और न ही किसी की हमदर्दी पर ऐतराज करने का। असल में मकसद कुछ है नहीं। बस एक ख्याल है, जिसे मैने जाहिर किया है। उम्मीद है इसे बुरा न मानते हुए थोड़ा सा गौर फरमाएंगे। मेरा ख्याल गर दिल को छूता हो तो उसे दाद बेशक न दीजिए, मगर उस पर ख्याल तो कर लीजिए। ताकि एक खास दर्जे की जमात की ओर से ऐसी मिसाल पेश न कर दी जाए, जिसे तंगदिली या तंग जेहनियत माना जाए।

वाकई मीणा बुरे फंसे सीईओ बन कर

होली के मौके पर बुरा न मानने की गुजारिश करते हुए नगर निगम सीईओ को दिया गया शीर्षक च्बुरे फंसे सीईओ बन करज् खरा होता दिखाई दे रहा है। असल में देखा जाए तो वे चारों से ओर से घिर गए हैं, इसी कारण तंग आ कर उनके मुंह से निकल ही गया कि यदि मेरा भी तबादला हुआ तो मैं भी एक घंटे से ज्यादा समय रिलीव होने में नहीं लगाऊंगा।
हालांकि जब मेयर कमल बाकोलिया उन्हें ससम्मान सीईओ बनवा कर लाए तो लगा था कि दोनों के बीच अच्छी ट्यूनिंग रहेगी और इसका फायदा दोनों को मिलेगा। राजनीति के नए खिलाड़ी बाकोलिया को सीईओ की समझदारी काम आएगी और मीणा को भी राजनीतिक संरक्षण मिलने पर काम करने में सुविधा रहेगी। मगर हुआ ठीक इसका उलटा। च्नई नवेली दुल्हन नौ दिन की, खींचतान करके तेरह दिन कीज् वाली कहावत चरितार्थ हो गई। जल्द ही दोनों के बीच ट्यूनिंग बिगड़ गई। यहां तक भी ठीक था, लेकिन शहर के सौभाग्य से अथवा मीणा के दुर्भाग्य से कुछ पार्षद भी ऐसे जागरूक चुन कर आए, जो फुल टाइम पार्षदी कर रहे हैं। ऐसे में पार्षदों व कर्मचारियों के बीच तनातनी की घटनाएं एक के बाद एक होती जा रही हैं। विवाद अमूमन अतिक्रमण हटाने को लेकर हुए हैं। कर्मचारी जहां तेज-तर्रार माने जाने वाले आरएएस मीणा के आदेश पर बेखौफ हो कर कार्यवाही करते हैं तो जनता के वोटों से चुने हुए जनप्रतिनिधियों की भी अपनी प्रतिबद्धताएं हैं। ऐसे में टकराव तो होना ही है। हालात गाली-गलौच तक पहुंचने लगी है। किसी दिन मारपीट हो जाए तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। मीणा की परेशानी ये है कि वे जिला प्रशासन के कहने पर अतिक्रमण के खिलाफ सख्ती से पेश आते हैं तो एक ओर पार्षदों से खींचतान होती है और दूसरी ओर कर्मचारी अपने काम में बाधा आने की वजह से लामबंद हो जाते हैं। लगातार दो बार ऐसा मौका आ चुका है कि कर्मचारियों ने पार्षदों की सीधी दखलंदाजी के कारण काम करने में असमर्थता जता दी है। यानि एक ओर कर्मचारियों का दबाव है तो दूसरी ओर पार्षदों का। जिला प्रशासन का तो है ही। कुल मिला कर मीणा चारों ओर से घिर गए हैं। उन्हें समझ में ही नहीं आ रहा कि करें तो क्या करें। मेयर से राजनीतिक संरक्षण की जो उम्मीद थी, वह बेकार गई, ऐसे में रोजमर्रा के काम की जगह माथाफोड़ी को कितने दिन तक झेल पाते हैं, यह तो वक्त ही बताएगा। मगर इतना जरूर है कि मीणा ज्यादा दिन तक यहां रहना पसंद नहीं करेंगे। या तो मेयर व कांग्रेसी पार्षद उनके तबादले की गुजारिश करेंगे या फिर खुद मीणा ही हाथ खड़े कर देंगे। यह स्थिति शहर के लिए तो अच्छी नहीं कही जा सकती। जब मीणा जैसे सुलझे हुए अधिकारी की ही पार नहीं पड़ रही तो निगम का भगवान ही मालिक है। यहां उल्लेखनीय है कि जब बाकोलिया मेयर बन कर आए तो सभी ने सोचा था कि राजीव गांधी की तरह नए होने के कारण कुछ नया कर दिखाएंगे और सोने में सुहागा ये माना गया कि वे मीणा को सीईओ के रूप में ले आए। मगर वह सपना चूर होता दिखाई दे रहा है। इसकी एक अहम वजह ये भी है कि बाकोलिया के कब्जे में अपनी पार्टी के ही पार्षद नहीं आ रहे। अधिकारियों या कर्मचारियों से कोई परेशानी होने पर बाकोलिया को शिकायत करने की बजाय पार्षद खुद की मौके पर निपट लेते हैं। और विवाद बढऩे पर उनके पास शिकायत ले कर आ जाते हैं। जाहिर तौर पर कर्मचारी वर्ग भी लामबंद हो जाता है। अब बताइये, मेयर या सीईओ रोजाना के इन झगड़ों से निपटें या शहर के विकास की सोचें। ऐसे में हो लिया शहर का कल्याण।

गुरुवार, 24 मार्च 2011

बाबा रामदेव के शिष्यों का धरना हो गया फ्लॉप


भारतीय संस्कृति के पुरातन योग को पुन: प्रतिष्ठापित करने वाले प्रख्यात योग गुरू बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार के खिलाफ और विदेशों में जमा कालाधन भारत लाने के लिए छेड़े गए अभियान का देशभर में चाहे जितना हल्ला हो, अजमेर में तो उसे कोई सफलता मिलती दिखाई दे नहीं रही। बाबा रामदेव की प्रेरणा से गठित पतंजली योग समिति एवं भारत स्वाभिमान की ओर से हाल ही इस सिलसिले में धरना देने की तैयारी करने के लिए आयोजित एक बैठक केवल इसी कारण असफल हो गई क्यों कि उसमें बुलाए गए शहर के प्रतिष्ठित नागरिक आए ही नहीं। पूत के पग पालने में ही दिख गए थे। दो दिन बाद कलेक्ट्रेट पर आयोजित धरना भी पूरी तरह से फ्लॉप हो गया। जितना बड़ा बाबा रामदेव का नाम है, जितनी बड़ी वे आंधी नजर आ रहे हैं और जितना उनको समर्थन मिलता दिखाई देता है, उसके मुकाबले तो धरना वाकई फ्लॉप था। कुल मिला कर वर्तमान काल में सर्वाधिक दैदीप्यमान सूर्य की भांति चमक रहे बाबा रामदेव का नाम अजमेर में तो डूबो ही दिया गया, फिर भले ही उसके चाहे जो कारण हों।
दरअसल पतंजली योग समिति एवं भारत स्वाभिमान की स्थानीय इकाई की जिम्मेदारी जिन लोगों के हाथों में है, उनकी शहर पर कोई पकड़ नहीं है। वे सज्जन तो बहुत हैं, मगर उनकी यही सज्जनता अभियान में बाधक बन रही है। ऐसे धरने-प्रदर्शनों का मैनेजमेंट करने के लिए चतुर लोगों की जरूरत होती है, जो कि उनके पास हैं नहीं। चूंकि बाबा रामदेव का उद्भव आर्य समाज से हुआ है, इस कारण कुछ आर्य समाजी जरूर उनके साथ हैं, लेकिन समान विचारधारा के हिंदूवादी संगठन और कम से कम भ्रष्टाचार के मुद्दे पर सर्वाधिक हल्ला मचाने वाली भाजपा उनको कोई सहयोग नहीं कर रही। इक्का-दुक्का भाजपाई जरूर नजर आ रहे थे। हालांकि अब तो शहर भाजपा की कमान प्रमुख आर्य समाजी पूर्व सांसद प्रो. रासासिंह रावत के हाथ में है, इसके बावजूद उन्होंने पार्टी की लक्ष्मण रेखा को पार करना मुनासिब नहीं समझा। हालांकि पिछले दिनों जब राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत अजमेर थे, तब मीडिया से बातचीत में संघ के एक पदाधिकारी ने कहा था कि संघ बाबा रामदेव के अभियान का समर्थन करता है, इसके बावजूद संघ व भाजपा के कार्यकर्ताओं ने धरने में कोई रुचि नहीं ली। संघ व भाजपा का यह रवैया साफ दर्शाता है कि ऊपर से भले ही भ्रष्टाचार के खिलाफ वे बाबा रामदेव के अभियान का समर्थन कर रहे हैं, लेकिन भीतर ही भीतर उस अभियान के जोर पकडऩे पर बाबा रामदेव के मजबूत होने पर आने वाली दिक्कत के प्रति भी सतर्क हैं। वे जानते हैं कि अगर बाबा रामदेव ने अपने ऐलान के मुताबिक अलग राजनीतिक दल बनाया तो सबसे ज्यादा नुकसान भाजपा को ही होगा, क्यों कि बाबा रामदेव के साथ जाने वाले अधिसंख्य मतदाता हिंदूवादी मानसिकता के होंगे। वैसे भी सीधी-सीधी बात है, अगर भाजपा को भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलना होगा तो वह अपने बैनर का ही इस्तेमाल करेगी न, बाबा रामदेव के शिष्यों को अनुसरण क्यों करेगी। उनका अनुसरण करने पर क्रेडिट उनके खाते में ही जाएगी, भाजपा को क्या मिलेगा-कद्दू? भाजपा के पास खुद अपनी तगड़ी ताकत है। वह जिस दिन चाहेगी, मुखर हो जाएगी और उसका राजनीतिक लाभ भी खुद ही उठाएगी। बहरहाल, धरने की असफलता से बाबा रामदेव के अनुयाइयों को संभव है आइना दिखाई दे गया होगा। भविष्य में ऐसा आयोजन करने से पहले उन्हें बड़ी भारी मशक्कत करनी होगी।

जब मंजू राजपाल लगाएंगी झाडू तो आप भी लगाएंगे न !


ऐसा लगता है कि अजमेर की जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल बेहद सफाई पसंद हैं। उनके दो बड़े कदमों से तो यही प्रतीत होता है कि वे वर्षों से गंदगी की समस्या से जूझ रहे अजमेर को साफ-सुथरा करके ही मानेंगी। चाहे इसके लिए उन्हें ही हाथ में झाडू क्यों न लेनी पड़े।
पहले उन्होंने सफाई के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नगर निगम के विफल होने पर निगरानी के लिए अपने प्रशासनिक अमले को तैनात किया। हालांकि मंजू राजपाल का यह कदम कुछ कांग्रेसी पार्षदों को निगम की स्वायत्तता में दखल प्रतीत हुआ, लेकिन मंजू राजपाल ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। उलटा उन्हें लगा कि केवल इतना भर करने से सफाई नहीं होगी। कोई और बड़ा कदम उठाना होगा। केवल प्रशासन को ही नहीं बल्कि आमजन को भी भागीदारी के लिए प्रेरित करना होगा। इस पर उन्होंने सफाई के प्रति जनता में जागृति लाने के लिए एक दूसरा बड़ा कदम उठाते हुए राजस्थान दिवस के मौके पर अनूठा प्रयोग करने का मन बनाया है। वे स्वयं तो झाडू हाथ में लेंगी ही, प्रशासन में ऊंचे ओहदे पर बैठे अधिकारियों को भी झाडू हाथ में थमाएंगी। स्वयंसेवी संस्थाओं को भी इसमें भागीदारी निभाने का आग्रह किया गया है। ये सभी मिल कर तीर्थराज पुष्कर व दरगाह शरीफ में झाडू लगा कर सफाई का आगाज करेंगे। जाहिर है जब स्वयं मंजू राजपाल ने ही पहल कर झाडू लगाने का प्रस्ताव रख दिया तो अन्य बड़े अधिकारियों को तो उनका समर्थन करना ही था। कार्यक्रम के मुताबिक 29 मार्च की रात्रि को 9 से 11 बजे तक पुष्कर और 30 मार्च को रात्रि 9 से 11 बजे तक दरगाह के निजाम गेट से सफाई करने की शुरुआत की जाएगी। दिलचस्प बात ये है कि इसके लिए राज्य सरकार द्वारा राजस्थान दिवस के आयोजन हेतु प्रत्येक जिले को आवंटित एक लाख रुपये की राशि भी इसी सफाई अभियान के लिए काम में ली जायेगी और आवश्यकतानुसार डस्ट बीन रखवाने, सफाई के लिए झाडू आदि उपलब्ध करवाने पर यह राशि व्यय की जायेगी। उससे भी उल्लेखनीय बात ये है कि यह अनूठा प्रयोग करने के लिए कार्यालय समय से हट कर समय तय किया गया है, ताकि रोजमर्रा का सरकारी काम प्रभावित न हो। अर्थात अधिकारी पहले अपने-अपने दफ्तरों में काम करेंगे ओर फिर रात को तैयार हो कर सफाई का कार्य करने निकलेंगे, जिसका कि उन्हें कोई अतिरिक्त वेतन नहीं मिलेगा। है न दिलचस्प अभियान और उससे भी ज्यादा दिलचस्प मंजू राजपाल की फितरत।

बुधवार, 23 मार्च 2011

ऐसे अधिकारियों को घर क्यों नहीं भेज दिया जाता?

जनस्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की लापरवाही का परिणाम है कि पानी के बिलों में बड़े पैमाने पर गड़बडिय़ों के कारण शहर के हजारों उपभोक्ता परेशान हैं और विभाग के दफ्तरों के चक्कर लगाने को मजबूर हैं। आम तौर पर शांत रहने वाले इस शहर के नागरिक बेहद उद्वेलित हैं और दुर्भाग्य से समुचित समाधान करने को कोई तैयार नहीं है। जिला प्रशासन भी दो दिन से भीड़ के आक्रोश को देख रहा है, मगर हस्तक्षेप नहीं कर रहा। एहतियात के बतौर कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस को जरूर भेजा जा रहा है, लेकिन समस्या के हल में उसकी कोई रुचि नजर नहीं आती।
अफसोसनाक बात है कि एक ओर जनता अत्यधिक परेशान है और विभाग के अधिकारी समस्या को अभी हल्के में ही ले रहे हैं। विभाग के एसीई अनिल भार्गव का ही बयान लीजिए। वे बड़ी आसानी से शांत भाव से कह रहे हैं कि पिछले कुछ अरसे से बिलों को लेकर समस्याएं आ रही हैं। लेजर मेंटेन करवा लिए गए हैं। बिलों में करेक्शन करवाए जा रहे हैं। सवाल ये उठता है कि बिलों को लेकर समस्याएं क्यों आ रही हैं? बिलों में आ रही गड़बड़ी के लिए कौन जिम्मेदार हैं? क्या यह कह कर कि गलती बिल बना कर वितरण करने वाली ठेकदार फर्म की है, खुद बरी होना चाहता है? क्या उपभोक्ता की इसमें कोई गलती है? यदि विभाग को पता था कि बिलों में गड़बड़ी एक ठेकेदार कंपनी के यहां हुई गलती से हुई है तो उसने उनके वितरण पर रोक क्यों नहीं लगाई? ऐसे बिलों का वितरण क्यों होने दिया गया? अव्वल तो विभाग की पोल यहीं पर खुल रही है कि बिल बनाने का काम ठेके पर देने के बाद विभाग ने आंखें मूंद रखी हैं, इसी कारण समस्या इतनी विकराल हो गई है। साफ है कि ठेकेदार फर्म के काम पर निगरानी रखने वाले या तो हैं नहीं और हैं तो वे ठीक से निगरानी नहीं कर रहे। सवाल ये भी है कि अगर विभाग को पता लग चुका था कि बिल बनाने में गड़बड़ी हुई है तो उसने अपनी ओर से पहल कर के उनमें सुधार का उपाय क्यों नहीं किया? होना तो यह चाहिए था कि विभाग को बिलों में तुरंत सुधार कर वितरण करवाना चाहिए था। यदि ऐसा संभव नहीं था तो वह एक विज्ञप्ति जारी कर यह व्यवस्था कर सकता था कि वर्तमान बिल का भुगतान न करने की छूट दे कर उसे आगामी बिल में जोड़ दिए जाने की सूचना जारी कर देता। मगर ऐसा नहीं करके उसने उपभोक्ताओं को बिल सुधरवाने के लिए धक्के खाने को मजबूर कर दिया। भार्गव का कहना है कि नब्बे प्रतिशत बिल दुरुस्त हैं और जो दस प्रतिशत बिल रह गए हैं, उन्हें सुधारा जा रहा है। उनका यह बयान सफेद झूठ नजर आता है। मात्र दस प्रतिशत गलत बिलों पर इतना बवाल नहीं मचता। दूसरा ये कि बिलों में जो सुधार किया जा रहा है, वह तब जा कर हो रहा है, जबकि उपभोक्ता अतिरिक्त समय निकाल कर उनके दफ्तरों में सुधरवाने जा रहा है। विभाग की उसमें उपभोक्ता पर क्या मेहरबानी है?
विभाग में अराजकता का आलम ये है कि अधिकारियों के हाथ पर हाथ धरे बैठने के कारण आखिरकार जलदाय कर्मचारी संघ को अधिकारियों से मांग करनी पड़ी कि उन्हें पब्लिक से पिटने से बचाया जाए और पुलिस का इंतजाम किया जाए। साफ है कि गलती ठेकेदार फर्म की और उसे भुगत रहे हैं आम उपभोक्ता और उपभोक्ता के गुस्से का शिकार हो रहे हैं कर्मचारी। अधिकारी तो अपने चैंबरों में सुरक्षित बैठे हैं। सवाल ये उठता है कि जो अधिकारी पहले तो लापरवाही से समस्या को उत्पन्न करते हैं और बाद में समस्या का ठीक से समाधान नहीं करते, उन्हें नकारा करार दे कर घर क्यों नहीं भेज दिया जाता?

मंगलवार, 22 मार्च 2011

अब दिखाना शुरू किया है बाकोलिया ने अपना वजूद


अजमेर नगर निगम के महापौर कमल बाकोलिया ने भाजपा पार्षद दल, खुद अपनी पार्टी के पार्षदों और प्रशासन के कुछ झटके खाने के बाद अब अपना वजूद दिखाना शुरू कर दिया है। पहले उन्होंने सीईओ सी. आर. मीणा के आदेश पर सीज किए गए पार्वती उद्यान के ताले मीणा के छुट्टी पर होने के दौरान खुलवा दिए। अब उन्होंने बादशाह की सवारी नहीं निकालने का फैसला करके जता दिया है कि वे केवल नाम मात्र के मेयर नहीं हैं, बल्कि अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करना भी जानते हैं।
उल्लेखनीय है कि पार्वती उद्यान के मामले में बाकोलिया की बड़ी किरकिरी हुई थी। उनकी इच्छा के विपरीत और उनसे राय लिए बिना ही सीईओ मीणा ने पार्वती उद्यान को सीज करने को निगम का दल भेज दिया। और तो और जब बाकोलिया ने सीधे ही दल को ताले नहीं लगाने के निर्देश दिए तो उसने उन्हें यह कह कर ठेंगा दिखा दिया कि वे तो सीईओ के आदेश को ही मानेंगे। हालांकि यह मामला ज्यादा गंभीर नहीं था और बाकोलिया व मीणा की आपसी बातचीत से हल हो सकता था, लेकिन जैसे ही बाकोलिया ने पत्र लिखने का सिलसिला शुरू किया तो वह गंभीर हो गया। अधिकारी तो अधिकारी होता है, कम से कम पत्र व्यवहार में तो वह ज्यादा माहिर होता है, सो मीणा ने भी अपने अधिकारों का लिखित में ही उपयोग कर दिया। जैसे ही दूसरे दिन अखबारों में बाकोलिया की दयनीय हालत का खुलासा हुआ तो उन्हें होश आ गया और किसी सलाहकार के जोश दिलाने पर मीणा की अनुपस्थिति का फायदा उठाते हुए जनहित का बहाना बना कर उद्यान के ताले खुलवा दिए। चूंकि उन्होंने यह कदम मीणा की गैर मौजूदगी में किया है, इस कारण यह कितना मजबूत है, यह तो मीणा के वापस आने पर ही पता लगेगा।
बाकोलिया ने अपने अस्तित्व का अहसास बादशाह की सवारी नहीं निकालने का फैसला करके करवा दिया है। जैसे कि उप महापौर अजीत सिंह राठौड़ के बयान हैं, जिसमें उन्होंने इस कदम को निरंकुशता की संज्ञा दी है, यह साफ जाहिर हो गया है कि बाकोलिया ने यह निर्णय चैंबर में बैठे-बैठे ही लिया है। हालांकि यह एक बहस का विषय हो सकता है कि बादशाह की सवारी कितनी सही है और कितनी गलत, मगर बहुमत वाले दल भाजपा को नजरअंदाज करने के साथ कांग्रेस के पार्षदों को भी पूरी तरह से विश्वास में न ले कर उन्होंने जो कदम उठाया है, उससे यह अहसास तो होता कि बाकोलिया के भीतर का हनुमान जाग गया है। उस हनुमान को जगाया किसने है, यह जरूर सोचने का विषय हो सकता है।

शुक्रवार, 18 मार्च 2011

बुरा न मानो होली है

लालफीताशाह
मीनाक्षी हूजा-अभी तो मैं जवान हू
अतुल शर्मा-सचिन के आगे बोलती बंद
राजेश निर्वाण-टाइम पास
मंजू राजपाल-पत्ते धीरे-धीरे खोलूंगी
बिपिन कुमार पांडे-सिर्फ वर्दी, खौफ गायब
वीरभान अजवानी-सिर्फ नौकरी की फिक्र
सुरेन्द्र सिंह भाटी-बदमाशों के बीच एक शरीफ
समीर कुमार सिंह-काम से काम
प्रीता भार्गव-काश पेरोल च्मंजूरज् नहीं करती
मोहम्मद हनीफ -दिन ढ़ले, अपुन तो चले
किशोर कुमार-तू भी राजी, मैं भी राजी
जगदीश पुरोहित-फिर भी टिका हुआ हूं
सी.आर. मीणा-बुरा फंसा सीईओ बन कर
हेमंत माथुर-कॉलेजिएट
राजनारायण शर्मा-बाल भी बांका नहीं
जगदीश चौधरी-सोलह दूनी आठ
अश्फाक हुसैन-सांप तो निकल गया...
मेघना चौधरी-पियक्कड़ों की दुश्मन
डॉॅ. सुभाष गर्ग-छुपा रुस्तम
मिरजूराम शर्मा-अल्लाह की गाय
प्यारे मोहन त्रिपाठी-नारद मुनि
हरिशंकर गोयल-नागर का रिप्रजेंटेटिव

राजनीति के अनाड़ी
सचिन पायलट-हवाई दौरा
डॉ. प्रभा ठाकुर-ईद का चांद
सुशील कंवर पलाड़ा-सौभाग्यवती
कमल बाकोलिया-साला मैं तो साब बन गया
औंकार सिंह लखावत-मीठी छुर्री
वासुदेव देवनानी-कलई उतर रही है
अनिता भदेल-देवनानी का सिरदर्द
नसीम अख्तर-फिर मौका नहीं मिलेगा
महेन्द्र सिंह गुर्जर-बाबा की विरासत
रासासिंह रावत-भाजपा की मजबूरी
जसराज जयपाल-बेटे के दम पर
डॉ. श्रीगोपाल बाहेती-लोकल सीएम
इंसाफ अली-तिहरा विधायक
भंवर सिंह पलाड़ा-गरीबों का मसीहा
धर्मेन्द्र गहलोत-अब मेरा क्या होगा
सोमरत्न आर्य-नचैया
अजीत सिंह राठौड़-ऊंचे रसूखात
ललित भाटी-वक्त का मारा
सुरेन्द्र सिंह शेखावत-नेता बनाम व्यापारी
राजकुमार जयपाल-बल नहीं गया
रामचंद्र चौधरी-बेताज बादशाह
नरेन शाहनी-कब तक करूं इंतजार
डॉ. सुरेश गर्ग-पीछा नहीं छोडूंगा
राजेश टंडन-खो गई पहचान
धर्मेश जैन-दूध का जला
महेश ओझा-काईं
महेन्द्र सिंह रलावता-हवाई पायलट
कैलाश झालीवाल-मुझ से बड़ा कौन
कमल शर्मा-वक्त वक्त की बात
दीपक हासानी-सिर मुंडाते ही ओले

छपासियों के डॉक्टर
डी.बी.चौधरी-आजीवन महासचिव
जे.पी. गुप्ता-एक जमाना था
रमेश अग्रवाल-अजमेरी लाल
नरेन्द्र चौहान-कलम अभी जिंदा है
राजेन्द्र शर्मा-गुमनाम
ओम माथुर-धरती पकड़
वीरेन्द्र आर्य-जमीन से आसमान तक
कंवल प्रकाश किशनानी-इस बार नहीं छोडूंगा
सुरेन्द्र चतुर्वेदी-दिल तो जवान है
एस.पी. मित्तल-चमक अभी बाकी है
राजेन्द्र गुंजल-खुरापाती
अशोक शर्मा-अलमस्त
नरेन्द्र राजगुरू-कीचड़ में कमल
संतोष गुप्ता-ये कहां आ गए हम
प्रेम आनंदकर-हेकड़ी छोड़ दी
विक्रम चौधरी-चाल बड़ी मस्तानी
सुमन शर्मा-मास्टरनी
प्रताप सनकत-ऑफ द रिकार्ड इंजार्च
अमित वाजपेयी-यस बॉस
राजेन्द्र याज्ञिक-पोंगा पंडित
दिलीप मोरवाल-दाई
मुकेश खंडेलवाल-हाशिये पर
तीरथदास गोरानी-कई थपेड़े खाए हैं
देनेन्द्र सिंह-आखिर इच्छा पूरी हो गई
सुरेश कासलीवाल-हम चौड़े गली संकड़ी
अरविंद गर्ग-लाइलाज
संजय माथुर-केवल मीन मेख
सचिन मुद्गल-बटेर हाथ लग गई
सुरेश लालवानी-दिल बचपन का
शिव कुमार जांगीड़-किस्मत का धनी
भानुप्रताप गुर्जर-मंजिल की तलाश
मधुलिका सिंह-सदाबहार
बलजीत सिंह-नींव की ईंट
संतोष खाचरियावास-संतुष्ट
तरुण कश्यप-जीवन सुधर गया
दिलीप शर्मा-खुशमिजाज
सचिन मुद्गल-देखन में छोटे लगैं
यशवंत भटनागर-नया अखबार आ रहा है
निर्मल मिश्रा-रंगीला रतन
गिरीश दाधीच-पर लग गए
आरिफ कुरैशी-अजमेर शरीफ रास आ गया
योगेश सारस्वत-अब मिला ठिकाना
अनिल दुबे-महागुरू
रजनीश रोहिल्ला-भटकती आत्मा
अजय गुप्ता-तीन लोक से मथुरा न्यारी
रामनिवास कुमावत-छैला बाबू
रहमान खान-मुखबिर
मोईन कादरी-मास्टर पीस
रूपेन्द्र शर्मा-जैन मुनि
मनोज शर्मा-डायरेक्टर
अभिजीत दवे-लंबे हाथ
जाकिर हुसैन-चैनल बंद
राजकुमार वर्मा-घाट-घाट का पानी
रईस खान-शक्ल से भी रईस
राकेश भट्ट-खिलाड़ी
प्रियांक शर्मा-हीरो
नवाब हिदायतुल्ला-असली पत्रकार
संग्राम सिंह-सपनों का सौदागर
अमर सिंह-मौकू कोई ठोर नहीं
बालकिशन-बालक
माधवी स्टीफन-बिंदास
हर्षिता शर्मा-दिल बचपन का, दिमाग 55 का
अंतिमा व्यास-कोई विकल्प नहीं
कौशल जैन-दो नावों में पैर
मनवीर सिंह-मैंने कुछ नहीं किया
आशु-जमानेभर का दुख
नरेश शर्मा-पार्टी
आशुतोष-काम से मतलब
सीताराम पाराशर-पुष्कर नरेश
मुजफ्फर अली-तीन फीत कायम है
अनुराग जैन-नंबर वन तो मैं हूं
मधुसूदन चौहान-पीए टू डीबी
संतोष सोनी-सेटिंग मास्टर
इन्द्र नटराज-इमारत कभी बुलंद थी
महेश नटराज-फोटो चाहिए क्या?
मुकेश परिहार-एडीटर की चाबी
सत्यनारायण झाला-गड़बड़झाला
दीपक शर्मा-हाईफाई
मोहन कुमावत-नौकरी जिंदाबाद
जय माखीजा-खेचलबाज
मोहम्मद अली-हरफनमौला
बालकिशन झा-वक्त का इंतजार
अनिल-प्रेम रोग
नवीन सोनवाल-प्रभुदेवा
-हुड़दंगी

एसपी पांडे को किया जाएगा लाइन हाजिर


बिहार कैडर के आईपीएस जिले पुलिस कप्तान बिपिन कुमार पांडे ने अजमेर में ज्वाइन करते ही बड़ी शेखी बघारी थी कि वे सबसे पहले पुराने कांडों का खुलासा करेंगे। उनका खुलासा होना तो दूर उनके आने के बाद अनेक नए कांड पुलिस की वर्दी पर काले धब्बे की तरह चस्पा हो गए हैं। ताजा भंवर सिनोदिया हत्याकांड ने तो पुलिस की मुस्तैदी की पूरी पोल खोल दी है। सरकार भी जानती थी कि मौजूदा आईजी व एसपी के बस की बात नहीं, इस कारण तुरंत मामला एसओजी को सौंप दिया। ये दीगर बात है कि एसओजी भी अभी तो हवा में ही हाथ-पैर मार रही है। उसकी नाकायाबी का सबसे बड़ा सबूत ये है कि हत्यारों का सुराग बताने वालों को पचास-पचास हजार रुपए का इनाम देने की घोषणा की गई है। बहरहाल, बात चल रही थी पांडे साहब की। पुलिस महकमे में चर्चा है कि चूंकि अभी होली का माहौल है और पांडे का हटा कर यकायक किसी नए को एसपी बना दिया तो दिक्कत आएगी, इस कारण होली के तुरंत बाद पांडे को लाइन हाजिर कर दिया जाएगा।बुरा न मानो होली है

अदिति मेहता की याद ताजा करेंगी मंजू राजपाल


हालांकि अजमेर की जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल का भीलवाड़ा का कार्यकाल लुंजपुुंज ही रहा, मगर सुना है कि अजमेर में आते ही उन्होंने अपना मिजाज बदल लिया है। जैसे ही उन्होंने अजमेर की पूर्व कलेक्टर श्रीमती अदिति मेहता के किस्से सुने हैं, उनके मन में भी उनके जैसा ही कुछ कर गुजरने की रणचंडी जाग उठी है।
हाल ही उन्होंने नगर निगम के नौसीखिये मेयर कमल बाकोलिया का डुलमुल रवैया देख कर फटेहाल निगम के कामकाज में टांग फंसाने का साहस कर दिखाया है। हालांकि इससे कुछ घाघ कांग्रेसी पार्षदों को बड़ी तकलीफ हुई और वे इसे निगम की स्वायत्तता पर हमला बता रहे हैं, लेकिन मंजू राजपाल ने भी तय कर लिया है कि शहर की यातायात व्यवस्था और अतिक्रमणकारी दुकानदारों को दुरुस्त करके ही रहेंगी। बताते हैं कि उन्होंने सीईओ सी. आर. मीणा को भी इशारा कर दिया है कि वे निगम की चरमराते ढांचे की ढ़ेबरी टाइट कर दें।
जहां शहर के विधायकों का सवाल है, वे दोनों ही विपक्षी दल के हैं, इस कारण उन्हें इस बात का डर भी नहीं कि वे सरकार को उनके खिलाफ रिपोर्ट देने की जुर्रत करेंगे। करेंगे भी तो सुनने वाला कौन है? दिलचस्प बात ये है कि राजनीतिक संगठनों की हालत भी इलायची बाई की याद दिलाती है। कांग्रेस के अध्यक्ष जसराज वैसे भी रिटायर्ड पीरियड काट रहे हैं, भाजपा ने भी राजनीति से लगभग रिटायर हो चुके रासासिंह को अध्यक्ष बना दिया है। ऐसे में मंजू राजपाल के सामने एक भी दबंग नहीं है और उन्हें अपना बिंदास कलेक्टर दिखाने का स्वर्णिम मौका मिला हुआ है। अजमेर वासी होने के नाते संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा भी उनकी मदद कर रहे हैं। उम्मीद की जा रही है कि वे स्टील लेडी अदिति मेहता को भी पीछे छोड़ देंगी। वैसे भी यह एक सार्वभौमिक सत्य है कि महिला अधिकारी के साथ एक्स फैक्टर जुड़ा हुआ होता है। यदि विश्वास न हो तो जिला परिषद की सीईओ शिल्पा का उदाहरण काफी है, जिन्होंने जिले के सर्वाधिक दबंग नेता भंवर सिंह पलाड़ा से छत्तीस का आंकड़ा बना कर एक नया रिकार्ड बनाया है। बुरा न मानो होली है

गुरुवार, 17 मार्च 2011

कहां अटक गई रासासिंह जी की कार्यकारिणी?


हालांकि शहर जिला भाजपा के नए अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत ने इस बार पार्टी संविधान के मुताबिक कार्यकारिणी में बढ़ाए गए पदों के मुताबिक सभी गुटों के अधिकतर नेताओं को संतुष्ट करने का फार्मूला तैयार कर लिया है, लेकिन उसके बावजूद वे कार्यकारणी की घोषणा नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे संकेत हैं कि विधायकद्वय प्रो. वासुदेव देवनानी व अनिता भदेल की खींचतान के चलते रावत को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। उन्हें डर है कि कहीं कार्यकारिणी की घोषणा के साथ ही विरोध के स्वर न फूट पड़ें।
अव्वल तो पार्टी हाईकमान ने छांट कर ऐसे नेता को अध्यक्ष बनाया है, जिसका अपना कोई गुट नहीं, बल्कि वे दूसरे गुटों पर निर्भर हैं। हालांकि पांच बार सांसद रहने के कारण उनकी वरिष्ठता और निर्गुट होने से उनकी तटस्थता तो साबित हो रही है, लेकिन साथ ही उनकी कमजोरी भी उजागर हो रही है। वरना भला पांच बार सांसद रहे शख्स अदद अध्यक्ष पद के लिए कैसे राजी हो जाते। वे तो प्रदेश भाजपा के महामंत्री पद के योग्य हैं। मगर चूंकि इतनी वरिष्ठता के बाद भी राजनीति पर अपनी पकड़ नहीं बनाई, इस कारण इतने छोटे पद के लिए राजी होना पड़ा, वरना भूले-बिसरे गीत हो जाते। सच तो ये है कि यह पद भी उन्हें उनकी दमदार दावेदारी की वजह से नहीं बल्कि, दो की लड़ाई में तीसरे को लाभ वाले फार्मूले की वजह से मिला है। उनकी कमजोरी तो इसी से जाहिर हो गई थी। बावजूद इसके यह उम्मीद की गई कि सबको साथ लेकर चलने की योग्यता रखने, लंबे राजनीतिक अनुभव और कुशल वक्ता होने के कारण एक मजबूत संगठन देने में कामयाब होंगे। इस दिशा में उन्होंने कवायद शुरू भी कर दी थी और सभी की राय से कार्यकारिणी के अधिसंख्य नाम तय कर दिए थे, लेकिन बताया जा रहा है कि पार्टी को लंबे समय से दो धाराओं में चला रहे देवनानी व अनिता अभी पूरी तरह से संतुष्ट नहीं हो पाए हैं। इसी कारण कार्यकारिणी की घोषणा में देरी हो रही है। इस देरी से संगठन को कुछ नुकसान हो या न हो, मगर इससे रावत के कमजोर अध्यक्ष होने की बात तो उजागर हो ही रही है। हां, इतना जरूर है कि जब भी उनकी कार्यकारिणी घोषित होगी, वह जरूर मजबूत होगी, क्योंकि उसमें सारे दबंग नेता शामिल किए जाने की कवायद चल रही है।

सिनोदिया हत्याकांड को लेकर अफवाहों का बाजार गर्म

किशनगढ़ के कांगे्रस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया की हत्या को लेकर राज्य सरकार के भारी दबाव पर एसओजी के पूरी ताकत के साथ अनेक स्थानों पर दबिश दिए जाने के बाद भी मुख्य आरोपी बलवाराम व शहजाद का पता न लग पाने से अफवाहों का बाजार गर्म होने लगा है। इतने हाईप्रोफाइल मर्डर केस, जिसमें कि एसओजी व गुप्तचर पुलिस ने पूरी ताकत लगा रखी है और हर संभावित ठिकाने की गहन छानबीन की जा रही है, उसके बाद भी आरोपियों का कोई सुराग नहीं मिल रहा है, ऐसे में अफवाह है कि यह कहीं किसी अनहोनी की ओर तो इशारा नहीं है। कयास है कि बलवाराम के लिंक शराब तस्करों और शहजाद के लिंग हथियार सप्लायरों से होने की कथित संभावना के मद्देनजर कहीं किसी बड़े समूह ने कुछ ऐसा तो नहीं कर दिया है कि वे पुलिस के हाथ आए ही नहीं, क्योंकि इससे उनके भी लपेटे में आने के चांसेज हैं। दूसरी ओर चर्चा ये भी है कि अगर एसओजी को दोनों आरोपियों के बारे में कुछ सूत्र मिल भी गए हैं तो वह उन्हें उजागर नहीं कर रहा। अर्थात जब तक दोनों आरोपियों के संपर्कों की संलिप्तता पूरी तरह से पुख्ता नहीं हो जाती, वह पूरी एक्सरसाइज कर लेना चाहती है। इसकी वजह ये है कि थोड़ी सी भी चूक सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकती है। कुछ सूत्रों का कहना है कि दोनों आरोपी हत्या के बाद होने वाली सख्ती से भलीभांति वाकिफ थे, इस कारण इतना दूर चले गए हैं कि एसओजी के हाथों में एकाएक आने वाले नहीं है। कुल मिला कर जैसे-जैसे विलंब हो रहा है, आशंकाएं तेज होने लगी हैं। ऐसे में यह मामला एसओजी के लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गया है, जिसे कि विशेष तवज्जो देते हुए सरकार ने पुलिस के हाथ से मामला लेकर उसे सौंपा है।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

आधे-अधूरे उपायों से और ज्यादा बिगड़ी यातायात व्यवस्था

हाल ही जिला प्रशासन की पहल पर यातयात व्यवस्था को सुधारने और वाहन चालकों की सुविधा के लिए जो तात्कालिक उपाय किए हैं, उससे वाहन चालकों को सुविधा मिलने की बजाय असुविधा ज्यादा हो रही है। इन आधे-अधूरे उपायों से विशेष रूप से गांधी भवन चौराहा, आगरा गेट व सूचना केन्द्र चौराहे पर यातायात व्यवस्था और ज्यादा बिगड़ गई है। एकतरफा यातायात व्यवस्था से दिखता भर है कि यातायात व्यवस्थित हो गया है, लेकिन असल बात ये है कि उससे वाहन चालकों की परेशानी बहुत ज्यादा बढ़ गई है। एकतरफा यातायात के समयांतराल के दौरान कचहरी रोड से जुड़ी छोटी-छोटी गलियों की हालत खराब हो गई है, क्यों कि सारा दबाव उन पर आ पड़ा है। इससे गलियों में हर आधे घंटे बाद यातायात जाम हो रहा है और उनमें रहने वाले लोगों का जीना हराम हो गया है। इसी प्रकार आगरा गेट व सूचना केन्द्र चौराहों पर यातायात को पूरी तरह से नियंत्रित कर दिए जाने से बार-बार जाम लग रहा है।
इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रशासन ने बेहतरी के लिए ही प्रयास किए हैं, क्योंकि उसकी जानकारी में हैं कि अजमेर शहर में एक तो मुख्य माग सीमित हैं, दूसरा वे काफी संकड़े है, तीसरा उन पर अतिक्रमण हो रखा है और चौथा ये कि पार्किंग स्थल न होने की वजह से सड़के दोनों ओर वाहनों की कतारें लगने से मार्ग और संकड़े हो गए हैं। आबादी भी लगातार बढ़ रही है और प्रतिदिन सड़कों पर उतरते वाहनों की संख्या यातायात व्यवस्था को पूरी तरह से चौपट कर रही है। इसी के मद्देनजर प्रशासन ने यातायात व्यवस्था के स्थाई समाधान पर भी विचार किया है और उसके अनुरूप कुछ उपायों की कवायद शुरू भी की है, लेकिन यातायात पुलिस कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गई है। उसने बिना सर्वे के ऐसे उपाय कर दिये हैं, जो पहले से बिगड़ी यातायात व्यवस्था में कोढ़ में खाज वाली स्थिति उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसा नहीं कि यातायात पुलिस ने अभी जो उपाय किए हैं, वे पहली बार हो रहे हों। इससे पहले भी उसने यही उपाय किए थे, लेकिन जब देखा की धरातल पर इससे परेशानी और बढ़ जाती है, तो उन्हें मजबूरन स्थगित कर दिया था। हाल ही जब जिला प्रशासन का दबाव बढ़ा तो उसने वे ही उपाय फिर से लागू कर दिए। अफसोसनाक बात ये है कि यातायात पुलिस ने जिला प्रशासन को यह जानकारी नहीं दी कि पूर्व में किए गए इसी प्रकार के प्रयास निरर्थक रहे हैं। हालांकि यह सही है कि यातायात पुलिस ने जो उपाय किए हैं, अकेले वे ही उपाय उसके हाथ में हैं। इसके अतिरिक्त वह कुछ कर भी नहीं सकता। मगर यह भी सच है कि उसके ये उपाय आधे-अधूरे ही हैं। आधे-अधूरे इस वजह से कि कचहरी रोड, पृथ्वीराज मार्ग व जयपुर रोड इतने संकड़े हैं कि जैसे ही उनका यातायात नियंत्रित किया जाता है, जाम लगना शुरू हो जाता है। और जाम भी ऐसा लगता है, उसे समाप्त करने के लिए भारी मशक्कत करनी पड़ती है। ऐसे में स्पष्ट है कि जब तक स्थाई समाधान के लिए ओवर ब्रिज और पार्किंग प्लेस विकसित नहीं किए जाएंगे, ऐसे उपायों से केवल परेशानी ही बढ़ेगी। यातायात पुलिस के वे कर्मचारी, जो कि व्यवस्था को जमीन पर अंजाम देते हैं, वे रोजाना हो रही दिक्कत को अपनी आंखों से देख रहे हैं, लेकिन वे कुछ बोलने की बजाय हुकम का पालन करने में लगे हैं। वे बढ़ी हुई परेशानी से अच्छी तरह से वाकिफ हैं, इसका सबसे बड़ा सबूत है कि कई बार वे सूचना केन्द्र व आगरा गेट चौराहे पर यातायात को खुला छोड़ देते हैं, ताकि लोग आसानी से आ जा सकें, लेकिन अधिकारियों के डर से फिर नियंत्रण करने लग जाते हैं। अफसोसनाक बात है कि यातायात पुलिस के अधिकारियों ने जानते-बूझते हुए भी प्रशासन को धरातल की हकीकत से अवगत कराने के नाम पर हाथ खड़े करने की बजाय खुद को मुस्तैद जताने के लिए वही उपाय कर दिए, जिनसे परेशानी बढ़ती है। सर्वाधिक अफसोसनाक बात ये है कि यातायात पुलिस की कवायद से हो रही परेशानी को मीडिया द्वारा उजागर किए जाने के बाद भी वह कान में तेल डाले बैठी है।

सोमवार, 14 मार्च 2011

कहीं यह भाजपा नेता पलाड़ा को फंसाने की साजिश तो नहीं?

आखिर आशंका सही निकली। धूम-फिर कर किशनगढ़ के कांगे्रस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया की हत्या के मुख्य आरोपी बलवाराम को भाजपा का कार्यकर्ता बताए जाने के बाद भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा को फंसाये जाने की कोशिश के संकेत मिलने शुरू हो गए हैं। हत्या किसने करवाई और असली आरोपी कौन है, यह तो निश्चित रूप से कोर्ट तय करेगा। यहां तक कि पुलिस ने अभी तक जिन को आरोपी माना है, उनका आरोप भी कोर्ट में सिद्ध किया जाना है, लेकिन एकबारगी भाजपा नेता भंवर सिंह पलाड़ा का नाम उछाले जाने के बाद यह मामला अब व्यक्तिगत रंजिश की बजाय राजनीतिक रंजिश का रूप लेता दिखाई दे रहा है। ऐसे में यह मामला न केवल कांग्रेस वर्सेज भाजपा और बल्कि जाट वर्सेज राजपूत होता जा रहा है। राजपूत समाज के अनेक नेताओं ने तो बाकायदा आरोप को झूठा बता कर पलाड़ा को फंसाए जाने को बर्दाश्त न किए जाने की चेतावनी तक दे दी है।
हत्या के मामले की जांच कर रही एसओजी के लिए सबसे गुत्थी ये है कि हालांकि अंत्येष्टि के दिन राज्य के वन मंत्री रामलाल जाट ने पलाड़ा की ओर इशारा किया और तीसरे दिन मृतक भंवर सिनोदिया की पत्नी ने भी पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के सामने उन्हीं का नाम लिया, लेकिन अहम सवाल ये है कि यदि मृतक के परिजन को आशंका थी कि इस हत्या में पलाड़ा का हाथ है तो उन्होंने त्वरित दर्ज एफआईआर में उनके नाम पर आशंका जाहिर क्यों नहीं की? जहां तक जाट के बयान का सवाल है, उसकी अहमियत इसलिए ज्यादा नहीं है, क्योंकि एक तो वे कांग्रेस सरकार के प्रतिनिधि होते हुए भाजपा नेता पर आरोप लगा रहे हैं। दूसरा ये कि वे जाट समाज के हैं और आरोप राजपूत नेता पर लगाया जा रहा है। इसके अतिरिक्त वे आरोपी पक्ष के परिजन नहीं हैं। सरकार के मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद होते हुए इस हाईप्रोफाइल मर्डर के बारे में अपने सूत्रों से अगर उनकी जानकारी में पलाड़ा के शामिल होने की बात आ चुकी थी तो उन्होंने एफआईआर दर्ज होते समय पलाड़ा का नाम भी दर्ज करवाने का सुझाव क्यों नहीं दिया? कदाचित इसी वजह से मीडिया ने उनके बयान को कोई महत्व नहीं दिया। रहा सवाल मृतक की पत्नी के बयान का तो वह यूं तो बहुत महत्व रखता है, उसे हल्का नहीं माना जा सकता, लेकिन उन्होंने वह घटना के तीसरे दिन विपक्ष की नेता श्रीमती वसुंधरा के सामने दिया। इससे पहले मृतक भंवर सिनोदिया व उनकी पत्नी ने अगर पलाड़ा द्वारा धमकी दिए जाने की जानकारी दे दी गई होती तो कदाचित यह वारदात होती ही नहीं। अगर हो भी गई तो मृतक की पत्नी कम से कम अपने ससुर विधायक नाथूराम सिनोदिया को तो धमकी वाली बात शेयर कर देतीं, ताकि वे उसे एफआईआर में दर्ज करवा देते। जाहिर तौर पर एसओजी उनके बयान को भी जांच का आधार बनाएगी, लेकिन बयान दिए जाने के अंतराल पर भी गौर किया जाएगा। बहरहाल, अगर मृतक की पत्नी का आरोप सही भी है तो वह धमकी दिए जाने के समय की काल डिटेल से साफ हो जाएगा।
किसके दबाव में पेरोल दिया प्रीता भार्गव ने?
जहां तक जेल अधीक्षक प्रीता भार्गव के इस मामले में निलंबन का सवाल है तो यह साफ है कि इस मामले के एक आरोपी सुपारी किलर शहजाद के पेरोल आवेदन को जब निचली अदालत और हाईकोर्ट खारिज कर चुके थे तो जेल उन्होंने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए उसका पेरोल मंजूर करने के कारण हुआ है। सरकार ने भले ही प्रीता भार्गव को निलंबित कर कड़ी कार्यवाही किए जाने का संदेश दिया है, लेकिन इससे केवल यही तो सिद्ध हो रहा है कि उन्हें ऐसे अपराधी के प्रति अतिरिक्त सहानुभूति रखने की गलती क्यों की? इससे यह तो सिद्ध नहीं हो रहा कि उन्होंने भंवर सिनोदिया की हत्या करने के लिए शहजाद को पेरोल पर छोड़ा। वैसे चर्चा ये है कि शहजाद को पेरोल पर छोडऩे की सिफारिश किसी कांग्रेस नेता ने की थी। एसओजी के लिए यह जांच का गहन विषय है। अगर जांच में यह तथ्य सामने आ जाता है कि पेरोल दिलवाने में किसी कांग्रेसी नेता का हाथ था तो यह मामला कुछ और रंग ले आएगा।
भाजपाइयों की सिट्टी-पिट्टी गुम
जैसे ही पलाड़ा का नाम हत्या के मामले में उछला है, भाजपाइयों की तो सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई है। सबसे ज्यादा ऑक्वर्ड पोजीशन तो पूर्व मुख्यमंत्री वसुुधरा राजे की हुई, जिनके मुंह पर ही मृतक की पत्नी ने पलाड़ा पर आरोप लगा दिया। वो तो गनीमत है कि विधानसभा में भाजपा विधायकों ने इस मामले को लेकर पुलिस की नाकामी पर हंगामा कर दिया था, इस कारण उन्हें यह कहने का मौका मिल गया कि वे तो शुरू से उनके साथ हैं। रहा सवाल स्थानीय भाजपाइयों का, उन्होंने भी एकजुट हो कर हत्यारों को गिरफ्तार करने की मांग कर डाली, लेकिन जैसे ही तस्वीर का रुख थोड़ा बदलता दिखा, वे चुप्पी साध गए हैं। वैसे भी स्थानीय भाजपा नेता पलाड़ा का कितना साथ दे रहे हैं, यह सबको पता है। प्रदेश में कांग्रेस सरकार व ब्यूरोक्रेसी के बोलबाले से काफी लंबे समय से पलाड़ा अकेले भिड़ रहे हैं, बाकी सारे भाजपाई तो अजमेरीलाल ही बने बैठे हैं। सभी भाजपाई मिट्टी के माधो बन कर ऐसे तमाशा देखते रहे हैं, मानो उनका पलाड़ा और जिला प्रमुख सुशील कंवर पलाड़ा से कोई लेना-देना ही नहीं है। वे शिक्षा मंत्री व जिला परिषद की सीईओ शिल्पा से चल रही खींचतान को एक तमाशे के रूप में देखते रहे हैं। हर छोटे-मोटे मुद्दे पर अखबारों में विज्ञप्तियां छपवाने वाले शहर व देहात जिला इकाई के पदाधिकारियों के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला कि प्रदेश की कांगे्रस सरकार राजनीतिक द्वेषता की वजह से जिला प्रमुख के कामकाज में टांग अड़ा रही है। ऐसे में भला पलाड़ा यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि भाजपाई साथ देंगे।

... यानि सरकार को पता लग चुका है कि हत्या राज कुछ और है

किशनगढ़ के कांगे्रस विधायक नाथूराम सिनोदिया के पुत्र भंवर सिनोदिया की हत्या में मोटे तौर पर भले ही यह स्पष्ट हो चुका है कि मामला जमीन के सौदे से जुड़ा है और विवाद होने से लेकर अपहरण, हत्या व शव बरामदगी की पूरी कहानी साफ है, लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, वन मंत्री रामलाल जाट व अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अपराध प्रदीप व्यास ने जिस प्रकार के बयान दिए हैं, उससे अहसास होता है कि मामला गंभीर और इन आरोपियों से इतर है।
ज्ञातव्य है कि विधायक सिनोदिया की ओर से दर्ज नामजद मुकदमे व पुलिस की स्वयं की छानबीन के आधार पर हत्या के आरोप में विवादित जमीन पर काबिज कैलाश थाकण व आपराधिक पृष्ठभूमि के सिकंदर को गिरफ्तार कर लिया गया है, जबकि मुख्य आरोपी हिस्ट्रीशीटर बलवाराम उर्फ वल्लभराम जाट व कथित रूप से गोली चलाने वाले शहजाद की तलाश की जा रही है, बावजूद इसके सरकार जिस ढंग से बोल रही है, उससे ऐसा संदेश चला गया है कि मामला कुछ और है।
जरा गौर कीजिए मुख्यमंत्री के बयान पर। वे कह रहे हैं कि अपराधी कितना भी ताकतवर व प्रभावशाली क्यों न हो, कानून के शिकंजे से नहीं बच पाएगा। जांच का जिम्मा एसओजी को सौंपा गया है। इसी प्रकार वन मंत्री रामलाल जाट का कहना है कि तस्वीर साफ है, बस औपचारिकताओं की देरी है। हत्यारों को किसी भी कीमत पर नहीं बक्शा जाएगा। एक-दो दिन में हत्यारे पकड़ लिए जाएंगे। उन्होंने हत्यारों के पकड़े जाने से पहले शव न उठाने की जिद कर रहे सिनोदिया समर्थकों से कहा कि सब कुछ मीडिया के सामने मत पूछो, वरना पूरी जानकारी सामने आने पर अपराधियों को पकडऩे में समस्या आ सकती है। जांच एसओजी कर रही है, अब पुलिस का कोई लेना-देना नहीं है। अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अपराध प्रदीप व्यास ने भी मीडिया से कहा कि कुछ बिंदु तफ्तीश के चलते उजागर नहीं किए जा सकते।
सवाल ये उठता है कि जब पुलिस ने पूरा मामला खोल दिया है, पूरी कहानी साफ है और आरोपियों के नाम भी उजागर हो चुके हैं, तो ऐसी कौन सी वजह है कि सरकार को जांच पुलिस से छीन कर एसओजी को सौंपनी पड़ी। जब आरोपियों को पूरा पता लग चुका है तो इस बात पर जोर देने की जरूरत क्यों महसूस की जा रही है कि अपराधी कितना भी प्रभावशाली क्यों न हो उसे बक्शा नहीं जाएगा। सवाल ये भी है कि ऐसी कौन सी जानकारी रामलाल जाट के पास है, जिसे वे मीडिया के सामने उजागर नहीं करना चाहते थे और मीडिया को पता लग जाने पर बाकी बचे दो आरोपियों को पकडऩे में समस्या आ सकती है। जांच अधिकारी व्यास भी तफ्तीश जारी रहने का बहाना बना कर कुछ छिपा रहे हैं। उधर गृह मंत्री शांति धारीवाल ने तो विधानसभा में अपने स्पष्टीकरण में एक आरोपी बलवाराम को भाजपा का कार्यकर्ता बता दिया, हालांकि विपक्ष की नेता वसुंधरा राजे ने इसका यह कह कर विरोध किया कि अपराधी तो अपराधी होता है, इस मामले को दलगत राजनीति से दूर रख कर चर्चा की जाए। इन सब बयानों से ऐसा संदेश जा रहा है कि अब तक जो कहानी सामने आई है, उससे इतर भी कुछ और है, जिसका सरकार को पता है और वह एसओजी जांच के बहाने उसे फिलहाल छिपाने की कोशिश कर रही है। कहीं उसे स्थानीय पुलिस पर दबाव में आ जाने का खतरा है, इस कारण मामले को सीधे अपने हाथ में रखने के लिए ही एसओजी को तो जांच नहीं सौंपी गई है? कहीं ऐसा तो नहीं कि कोई ऐसा सूत्र हाथ लगा है, जिसकी वजह से एक आरोपी के भाजपा कार्यकर्ता होने को आधार बना कर सरकार इसे राजनीतिक रूप देने का मानस रखती है? या फिर भाजपा कार्यकर्ता के बहाने किसी और को फंसाने के चक्कर में है? एक अखबार ने तो बाकायदा किसी भाजपा नेता की ओर इशारा ही कर दिया है। सच्चाई जो भी हो, अब तक सामने आये चारों आरोपियों के बयानों पर ही निर्भर करेगा कि असल कहानी क्या है, उससे पहले जितने मुंह उतनी बातें।

गुरुवार, 10 मार्च 2011

अब तक सो क्यों रहा था न्यास कर्मचारी संघ?



अजमेर नगर सुधार न्यास में इन दिनों चर्चित जमीन घोटाले के सिलसिले में जैसे ही सरकार ने दो कर्मचारियों को जैसलमेर व आबूरोड फैंका है, नगर सुधार न्यास कर्मचारी संघ को यहायक याद आ गया है कि न्यास में भारी भ्रष्टाचार व अनियमितता है तथा अधिकारियों ने जमकर बंदरबांट की है। इस सिलसिले में कथित रूप से जिन अधिकारियों को यहां से हटाया गया है, वे जब यहां थे, तब तक उन्हें यह नहीं दिखाई दे रहा था कि वे जम कर लूट मचाए हुए हैं। सवाल उठता है कि अगर अधिकारियों ने घोटाले किए हैं तो वे भला कर्मचारियों की जानकारी के बिना वह कैसे संभव हो सकते हैं? फाइलों पर हस्ताक्षर भले ही अधिकारी करते हैं, मगर उन्हें तैयार तो कर्मचारी ही करते हैं। बेहतर तो यह होता कि वे अधिकारियों की मनमानी शुरू होते ही बोलते, मगर अफसोस कि सत्तारूढ़ दल कांग्रेस के नेताओं ने ध्यान आकर्षित किया तब भी संघ चुप ही बैठा रहा। अब जबकि तत्कालीन न्यास अध्यक्ष व जिला कलेक्टर राजेश यादव, न्यास सचिव अश्फाक हुसैन व विषेशाधिकारी अनुराग भार्गव यहां से हटाए जा चुके हैं, तब जा कर कर्मचारी संघ कह रहा है कि उनके कार्यकाल में हुई भारी वित्तीय अनियमितताओं और भ्रष्टाचार से जनमानस में न्यास की ही नहीं बल्कि राज्य सरकार की भी छवि खराब हुई है। संघ ने मांग की है कि इन अफसरों द्वारा की गई न्यास बैठक, भूमि के बदले भूमि बैठक, भू उपयोग बैठक, वैकल्पिक भूखण्ड व लेआउट बैठक सहित आज तक नियमन किये गये प्रकरणों की जांच किसी निष्पक्ष एजेंसी से करवा कर न्यास को हुए नुकसान की भरपाई की जाए और दोषी अधिकारियों को दंडित किया जाए।
सवाल ये उठता है कि सांप के निकल जाने के बाद लकीर क्यों पीटी जा रही है। समझा जाता है कि जब तक केवल अधिकारियों पर ही आंच आई तो संघ को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन जैसे ही इसी सिलसिले में दो कर्मचारियों नवाब अली व अनिल ऐरन को भी दूर फैंका गया है, संघ को तकलीफ हो गई है। जाहिर तौर जब कर्मचारियों पर भी आंच आएगी तो संघ को ही भूमिका अदा करनी होगी। उसी उत्तरदायित्व को निभाते हुए उसने कर्मचारियों का सीधे बचाव करने की बजाय अधिकारियों पर हमला बोल दिया है क्यों इन्हीं अधिकारियों के दबाव में कर्मचारियों को काला-धोला करना पड़ा। अपुन ने तो कल ही कह दिया था कि नवाब अली व अनिल ऐरन की इतनी बिसात नहीं है कि इतना बड़ा जमीन घोटाले को अंजाम दे सकें। उन्होंने जो कुछ किया होगा, वह अधिकारियों के दबाव में किया होगा।
बहरहाल, कर्मचारी संघ को यह समझ लेना चाहिए कि यदि वे केवल अधिकारियों को ही निशाने पर रख रहे हैं तो अधिकारी कितने चतुर होते हैं। घूम-फिर कर वे अपने अधीनस्थ कर्मचारियों पर ही ठीकरा फोडऩे की कोशिश करेंगे।

बुधवार, 9 मार्च 2011

क्या इतने बड़े अपराध की सजा तबादला मात्र है?

पिछले कुछ दिन से खासा चर्चा में रहे जमीन घोटाले के मामले में पहले नगर सुधार न्यास के दो अधिकारियों को अजमेर से रुखसत किया गया और अब समझा जाता है, जिन दो कर्मचारियों नवाब अली व अनिल ऐरन को भी दूर फैंका गया है, उसकी वजह भी यही है। सवाल ये उठता है कि करोड़ों रुपए की जिस जमीन का बहुत कम दर पर आवंटन किया गया, उसकी सजा तबादला मात्र है। जिस जमीन घोटाले ने सरकार की किरकिरी करवाई और जिसको रैक्टिफाई करने के लिए न्यास प्रशासन की काफी शक्ति जाया हो रही है, उसकी सजा के बतौर महज तबादला करना पर्याप्त है? माना कि उनके जाने के बाद भ्रष्ट व्यवस्था में कुछ सुधार होगा, मगर जो लापरवाही वे कर गए हैं, उसकी सजा क्या केवल जैसलमेर व आबूरोड भेजना है?
यहां उल्लेखनीय है कि नवाब अली उस शख्स का नाम है, जिसे अजमेर का बच्चा-बच्चा जानता है। इसे यदि थोड़ा संशोधित करें तो यूं कह सकते हैं कि शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति हो, जिसका न्यास में काम पड़ा हो और नवाब अली की टेबल के नीचे से न गुजरा हो। असल में नवाब अली को यदि न्यास की दाई कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। उन्हें वह सब कुछ पता है, जो न्यास सचिव व अन्य अधिकारियों तक को पता नहीं होता। जनाब वर्षों से यहां जमे हुए थे। अनिल ऐरन की स्थिति भी कमोबेश ऐसी ही रही है।
एक सवाल ये भी उठता है कि क्या नवाब अली व अनिल ऐरन की इतनी बिसात है कि इतना बड़ा जमीन घोटाला अंजाम दे सकें। जरूर उन्होंने जो कुछ किया होगा, वह अधिकारियों के दबाव में किया होगा। छोटे-मोटे मामले जरूर खुद ही निपटा लेते थे, मगर इतना बड़ा कारनामा तो अधिकारियों के इशारे पर ही हो सकता है।
अब जब कि जमीन का आवंटन सरकार ने रद्द कर दिया है और साथ ही जांच भी चल रही है, प्रश्र ये उठता है कि क्या जांच पूरी होने पर इन कथित दोषी अधिकारियों व कर्मचारियों के खिलाफ भी कोई कार्यवाही होगी? देखिए, जिन लोगों ने मिलीभगत कर जमीन आवंटन करवाया, उनको तो एक तरह से सजा मिल ही चुकी है, क्यों कि उनका तो माल भी गया और माजना भी गया, लेकिन जिन लोगों ने साथ में हाथ धोये, वे केवल तबादले का दंड भोगेंगे? उनका माजना जरूर गया है, लेकिन माल तो उन्हें मिला ही होगा। बिना माल खाए इतना बड़ा कारनामा यूं ही तो अंजाम नहीं दिया होगा?

मंगलवार, 8 मार्च 2011

तीन के नंबर से अजमेर का काफी पुराना नाता रहा है

शुरू से ही तीन के आंकड़े का अजमेर से काफी पुराना रिश्ता-नाता रहा है। आइएं इसको देखते हैं:-पृथ्वीराज चौहान के नाना महाराजा अजयपाल द्वारा बसाई गई और भोगौलिक रूप से राजस्थान की हृदयस्थली अजमेर, ऐतिहासिक धार्मिक एवं पर्यटन, तीनों ही दृष्टियों से बहुत ही अहम है। मुगलों के समय से ही यहां तीन के अंक का बड़ा महत्व रहा है। उस समय यहां तीन प्रसिद्ध स्थान थे, 1. ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह, 2. ढ़ाई दिन का झौंपड़ा और 3. अकबर का किला, जिसे आजकल मेगजीन के नाम से जाना जाता है। यही वह ऐतिहासिक स्थान है जहां ईस्ट इंडिया कम्पनी के सर टॉमस रो ने मुगल सम्राट जहांगीर को अपने प्रमाण-पत्र सौंप कर हिन्दुस्तान में व्यापार करने की इजाजत मांगी थी।
अजमेर की भौगोलिक बसावट तिकोनी है, जो तीन तरफ पहाड़ों 1. नाग पहाड़, 2. मदार पहाड़ और 3. तारागढ से घिरा हुआ है। यहां तीन ही झीलें हैं- 1. आनासागर, 2. फॉयसागर और पुष्कर। जहांगीर-शाहजहां के समय ही यहां आनासागर के किनारे बारहदरी एवं खामखा के तीन दरवाजों का निर्माण हुआ। यह तीन दरवाजे ख्वामख्वाह ही बनाये गये हैं या किसी खामेखां नामक मुगल सरदार के नाम पर बने हैं, यह खोज का विषय है, परन्तु दरवाजे तीन ही हैं, कोई भी देख सकता है। जिले के ब्यावर के पास ही खरवा नामक जगह है। वहां के ठाकुर गोपाल सिंहजी प्रसिद्ध क्रंातिकारी थे। उन्ही के राज में मोरसिंह नामक डाकू हुआ, जिनके लिए प्रसिद्ध था कि वह भी सिर्फ तीन कौमों 1. बनिया, 2.सुनार और 3.कलाल को ही लूटता था।
अजमेर को इस बात का गौरव है कि ब्रिटिश समय में यहां तीन प्रसिद्ध क्रंातिकारी 1.स्वामी कुमारानन्द 2.विजयसिंह पथिक, बिजौलिया किसान आन्दोलन के नेता एवं 3.अर्जुनलाल सेठी हुए, जिन्होंने अंग्रेज सरकार की नाक में दम कर दिया था।
यूं तो हिंदी पत्रकारिता के लिए अजमेर राजस्थान का अग्रणी स्थान है, लेकिन शुरू में मुख्य रूप से तीन साप्ताहिक थे, 1. पं. विश्वदेव शर्मा का न्याय 2. कैलाश वर्णवाल का राष्ट्रवाणी और गोपाल भैया का भभक। बाद में न्याय दैनिक हो गया और साप्ताहिक में घीसूलाल जी का आजाद जुड़ गया। उस समय यहां हिन्दी के तीन ही प्रमुख दैनिक पढे जाते थे, 1. कप्तान दुर्गाप्रसाद चौधरीजी का दैनिक नवज्योति 2. न्याय और 3. हजारीलाल शर्मा, जयपुर का राष्ट्दूत।
आजादी के बाद पहले राजपुताना एवं फिर राजस्थान के निर्माण के समय अजमेर को सी स्टेट यानि तीसरी श्रेणी का राज्य बनाया गया, जिसके प्रथम कमिश्नर ए.डी. पंडित थे। प्रथम आम चुनाव, 1952 के समय यहां तीन प्रमुख राजनीतिक दल 1. कांग्रेस, 2. हिन्दू महासभा और 3. साम्यवादी थे। चुनाव के बाद इस राज्य के प्रथम कांग्रेसी मंत्रीमंडल में तीन ही मंत्री थे, 1. मुख्यमंत्री श्री हरीभाऊ उपाध्याय 2. गृहमंत्री श्री बालकृष्ण कौल एवं 3. शिक्षा मंत्री बृजमोहन लाल शर्मा। उस समय इस राज्य में तीन ही मुख्य शहर थे, 1. अजमेर 2. ब्यावर एवं 3. किशनगढ। नसीराबाद तो छावनी, बिजयनगर कस्बा और पुष्कर धार्मिक स्थल के रूप में जाना जाता था। नवम्बर 1956 में राजस्थान में विलय के समय ऐतिहासिक, धार्मिक एवं राजनीतिक तीनों की महत्वता थी, लेकिन फिर भी इसे राजस्थान की राजधानी नहीं बनाया गया और मजे की बात देखिये कि उस समय भी इसे तीन संस्थान 1.रेवन्यू बोर्ड, 2.राजस्थान लोक सेवा आयोग एवं 3. शिक्षा बोर्ड देकर बहला दिया गया। यहां से तीन तरफ रेलवे लाइनें जाती थीं, जो पहले बीबी एंड सीआई एवं बाद में पश्चिम रेलवे के अंर्तगत होती थी। यहां रेलवे के तीन बड़े कारखाने 1. लोको 2. कैरिज तथा 3. सिगनल्स हुआ करते थे। दिलचस्प बात यह है कि उस समय यहां से तीन ओर ही मुख्य मुख्य सडक़ें जाती थी, 1.जयपुर-दिल्ली, 2.ब्यावर-अहमदाबाद और 3.नसीराबाद-रतलाम-इंदौर। उस समय अजमेर में तीन मुख्य कॉलेज थे, 1. मेयो कॉलेज 2. गर्वनमेंट कॉलेज और 3. डीएवी कॉलेज। शहर में मुख्य रूप से तीन व्यापारिक स्थल थे, 1. नयाबाजार 2. मदारगेट और 3. केसरगंज और नगर में तीन जगहों से पानी आता था, 1. गनाहेड़ा 2. फॉयसागर और 3. भांवता। मजे की बात देखिये कि शहर में तीन ही सिनेमा हॉल थे, 1. न्यू मैजिस्टिक 2. प्लाजा और 3. प्रभात और तीन ही नाटक-थियेटर इत्यादि के स्थल थे, 1. रेलवे बिसिट 2. रेलवे का ही कैरिज स्पोर्ट्स क्लब और 3. डिग्गी बाजार में रामायण मंडल। अजमेर शहर धार्मिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहां हिन्दुओं, मुसलमानों एवं जैनियों के पूजनीय स्थल तो हैं ही इसके अतिरिक्त पारसियों, सिक्खों एवं ईसाइयों के पूजा स्थल भी हैं। हिन्दुओं के देवी- देवताओं के पहाडिय़ों पर तीन प्रमुख मन्दिर 1. चामुन्डा माता, 2. बजरंगगढ एवं 3. बाबूगढ हैं। उस जमाने में यहां तीन ही चिकित्सालय, 1. विक्टोरिया अस्पताल, 2. कस्तूरबा अस्पताल और 3. लौंगिया अस्पताल थे। तीन ही सब्जी मंडियां, 1. ईदगाह 2. रामगंज और 3. आगरागेट थीं। अजमेर शहर का दिलचस्प इतिहास सबसे पहले हमें उर्दू में लिखित मीर मुश्ताक अली की डायरी, जिसे फुलेरा के मनसब ने हिन्दी में अनुवाद किया और जिसका कुछ अंश राजस्थान पत्रिका ने छापा था, में मिलता है। लेकिन अजमेर पर ही एक ऐतिहासिक पुस्तक कर्नल टॉड ने लिखी, दूसरी श्री हरविलास शारदा ने और अब तीसरी पुस्तक ‘अजमेर एट ए ग्लांस’ नाम से अजमेर के ही तीन व्यक्तियों, प्रसिद्ध पत्रकार श्री गिरधर तेजवानी एवं अन्य दो विद्वानों डा. सुरेश गर्ग एवं कंवल प्रकाश ने लिखी है। इससे स्पष्ट है कि राजस्थान की राजधानी का मामला हो, कमजोर राजनीतिक नेतृत्व का मसला हो या रेलवे का इतना महत्वपूर्ण कार्यस्थल होने के बावजूद उसको पीछे ढकेल दिया गया हो, यहां जनता का कोई वर्ग तीन तेरह नहीं करता और जैसा मिला, जितना मिला है, सन्तुष्ट रहता है।
यह लेख जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग के सेवानिवृत्त अधिशाषी अभियंता ई. शिव शंकर गोयल ने लिखा है। वे मूलत: व्यंग्य लेखक हैं, लेकिन हाल ही उन्होंने यह लेख लिख कर मुझे भेजा है। आशा है आपको पसंद आएगा।
वे आजकल दिल्ली में रहते हैं। उनका संपर्क सूत्र है:- फ्लैट न. 1201, आई आई टी इंजीनियर्स सोसायटी, प्लाट न. 12, सैक्टर न.10, द्वारका, दिल्ली-75.
मो. 9873706333

रविवार, 6 मार्च 2011

अजमेर को बार-बार क्यों याद कर रही हैं वसुंधरा


पूर्व मुख्यमंत्री व विधानसभा में विपक्ष की नेता श्रीमती वसुंधरा राजे जब से विधिवत फॉर्म में आई हैं, बार-बार अजमेर का नाम लेकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर निशाना साध रही हैं। उनका कहना है कि अजमेर में हुए भूमि घोटालों में कुछ और नाम सामने आएंगे। ऐसा प्रतीत होता है कि उनको किसी बम की बत्ती हाथ लग गई है, जिसको माचिस की तिल्ली दिखा कर विस्फोट करेंगी। हालांकि छोटे गहलोत का तो जिक्र कर ही चुकी हैं, मगर और नामों की ओर भी इशारा कर रही हैं, उससे ऐसा लगता है कि उनके हाथ कोई बड़ा रहस्य लग गया है, जिसका उद्घाटन समय पर करेंगी। वैसे यह तो तय है कि अजमेर के दोनों भाजपा विधायकों प्रो. वासुदेव देवनानी व श्रीमती अनिता भदेल के पास तो बारूद का कोई सामान नहीं है, वरना वे कभी का ब्लास्ट कर देते। देवनानी के पास तो महज एक पर्चा था, जिसमें अशोक गहलोत के बेटे वैभव का नाम था, उसे वे विधानसभा के पटल पर रख चुके हैं और उस पर गृहमंत्री शांति धारीवाल जांच करवा रहे हैं। इसके अतिरिक्त वे कुछ भी नहीं कर पाए। दोनों विधायकों को तो क्या पूरी शहर भाजपा के पास भी कोई मसाला नजर नहीं आता है, वरना जब कांग्रेस की तर्ज पर न्यास के खिलाफ उसने ज्ञापन दिया तो उसमें भी कुछ खास इशारा नहीं कर पाए। केवल भाजपा राज में शुरू हुए कामों के ठप होने का हवाला था। न्यास पर हमला किया भी है तो कांग्रेस ने। पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल, रमेश सेनानी और शहर उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग ने। उन्हीं की शिकायतों पर कार्यवाही हुई है।
रही बात पर्चे की तो लगता है जिसने उसे बनाया, उसी ने वसुंधरा राजे का मसाला प्रोवाइट करवाया है, तभी वे बार-बार अजमेर का नाम ले रही हैं। यूं वसुंधरा खुद के ही हाथ काफी लंबे हैं। जमीनों के बारे में उनकी जानकारी भी तगड़ी रहती है। उन्होंने ही अपने सूत्रों के जरिए मसाला जुटा लिया होगा। अब देखते हैं कि वे क्या गुल खिलाती हैं?

कांग्रेस ने खुद ही तो प्रशासन से कहा था-आ बैल मुझे मार !

जैसे ही जिला प्रशासन ने सफाई, अतिक्रमण और यातायात व्यवस्था पर शिकंजा कसना शुरू किया है तो कांग्रेसी पार्षदों को उसका दखल खलने लगा है। असल में प्रशासन का दखल तो तभी नजर आने लगा था, जब उसने नगर निगम को नकारा मानते हुए शहर की सफाई व्यवस्था को सुचारू बनाने तथा उस पर पूरी निगरानी रखने के साथ-साथ सडक़ों के रख-रखाव के बारे में पूरी नजर रखने हेतु 9 अतिरिक्त प्रशासनिक अधिकारियों को जिम्मेदारी दी थी। अपुन ने तो तभी इशारा कर दिया था कि सफाई और अतिक्रमण सीधे तौर पर निगम की ही जिम्मेदारी है, जिला प्रशासन को तो कोई मतलब ही नहीं। लेकिन जब नगर निगम खुद के काम करने में विफल साबित हो रहा था तो जिला प्रशासन को शहर की सुध लेनी ही पड़ी।
निगम अपने काम के प्रति कितना लापरवाह है, इसके लिए क्या सबूत कम है कि कांग्रेस को ही खुद के मेयर पर भरोसा नहीं। तभी तो शहर कांग्रेस के प्रवक्ता महेश ओझा ने मेयर को कहने की बजाय जिला कलेक्टर को पत्र लिख कर 15 अवैध कॉम्पलैक्सों की सूची देते हुए कार्यवाही की मांग करनी पड़ी। जिला कलेक्टर को दखल देने को कहना पड़ा। इसी से साफ हो गया था कि उसे निगम पर से भरोसा उठ गया है। कितने अफसोस की बात है कि कांग्रेस ने ही भाजपा के बीस साल के शासन को उखाड़ फैंकने के लिए उस पर कॉम्पलैक्सों की फसल उगाने का आरोप लगा कर जनता से वोट हासिल किए, और आज वह अपना मेयर होते हुए भी अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ कार्यवाही करने में उसको को नकारा मानते हुए जिला कलेक्टर से अनुरोध कर रहा है। जब आप खुद ही अपने मेयर को नकारा मानते हैं तो अगर प्रशासन ने भी उसे नकारा मान लिया तो क्या गलत कर दिया। आज प्रशासन के दखल पर ऐतराज करने वाले कांगे्रसी पार्षदों ने अपनी ही पार्टी के प्रवक्ता पर सवाल नहीं उठाये कि वे क्यों प्रशासन को दखल देने का न्यौता दे रहे हैं? क्यों प्रशासन से कह रहे हैं कि आ बैल मुझे मार।
निगम के कामों में प्रशासन के दखल पर सवाल उठाने वाले कांग्रेसी पार्षद नीतिगत दृष्टि से भले ही सही हों, क्यों कि निगम एक स्वायत्तशासी संस्था है, मगर क्या उनके पास इस बात का कोई जवाब है कि एक ओर तो पार्षद इस बात की शिकायत करते हैं कि अतिक्रमण के खिलाफ उनकी शिकायत पर कार्यवाही नहीं होती और दूसरी ओर निगम के अधिकारी कार्यवाही करते हैं तो वे कार्यवाही को रुकवाने को पहुंच जाते हैं। ये कैसी स्वायत्तता है, इस पर पार्षदों को ही विचार करना होगा। क्या हाल ही घटित वह किस्सा याद नहीं है कि जब दो पार्षद नगर निगम कर्मियों पर केवल इसी कारण चढ़ बैठे कि उन्होंने अतिक्रमण की शिकायत के मामले में उनके नाम उजागर कर दिए। यानि कि कार्यवाही करवाना भी चाहते हैं और बुरे भी नहीं बनना चाहते। ऐसा कैसे हो सकता है? पार्षद होने का एडवांटेज भी उठाना चाहते हैं, अच्छे काम की क्रेडिट भी लेना चाहते हैं, लेकिन बुराई नहीं लेना चाहते। पार्षदों की इसी फितरत को जान कर जब प्रशासन ने निगम का काम अपने हाथ में ले लिया है तो उन्हें बुरा लग रहा है। आज पार्षद कह रहे हैं कि वे पार्किंग सहित अन्य सभी व्यवस्थाओं से वे सहमत हैं, लेकिन प्रशासन अपने स्तर पर निर्णय करने की बजाय निगम को सुझाव भेजे, निगम अपने हित व शहर के हित के अनुरूप कार्यवाही कर लेगा। अव्वल तो निगम को खुद ही कार्यवाही करने से रोका किसने था? सवाल ये भी है कि अगर निगम खुद ही निर्णय कर लेना शुरू करता तो प्रशासन को दखल क्यों देना पड़ता?
रहा सवाल मेयर बाकोलिया की नाकामी का तो ये उन्हें ही विचार करना होगा कि उनके पद की गरिमा क्या है? वे कितने अधिकार संपन्न हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि वे हनुमान की फितरत में हैं। उन्हें उनकी शक्तियों के बारे में जगाने वाला कोई जाम्वंत होना चाहिए। वैसे मेयर के नकारा सिद्ध होने के पीछे भी अपने अलग कारण हैं। ऐसा नहीं कि उन्होंने पहल नहीं की। उन्होंने भी अवैध कॉम्पलैक्सों के खिलाफ अभियान छेड़ा था, लेकिन भाजपा के विरोध, समाज विशेष की नाराजगी और कांग्रेस के असहयोग के कारण सहम गए और राजनीति में नए-नए होने के कारण चुप करके बैठ गए। उन्होंने भी संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा की प्रेरणा से आवारा जानवरों को पकडऩे का अभियान छेड़ा था, मगर पशुपालकों के सचिन पायलट तक पहुंच जाने के कारण मन मसोस कर रह जाना पड़ा।
बहरहाल, सब जानते हैं कि इस मामले में विशेष रुचि ले रहे संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा अजमेर के ही रहने वाले हैं और जिला कलेक्टर श्रीमती मंजू राजपाल के भी अजमेर से संबंध हैं, इस कारण उनमें अजमेर के प्रति विशेष दर्द है। इसी दर्द की वजह से वे शहर पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। उनकी इस कारण तारीफ भी हो रही है। इस पर अपना तो सिर्फ इतना कहना है कि उन्हें तात्कालिक और अस्थाई समाधान निकालने की बजाय स्थाई व्यवस्था पर भी ध्यान देना चाहिए। अगर निगम के पास संसाधनों का अभाव है तो पहल करके राज्य सरकार से दिलवाने चाहिए। यह तो स्पष्ट ही है कि जिला प्रशासन के पास और भी महत्वपूर्ण काम हैं। वह बारहों महीने तो नगर निगम के काम पर ध्यान दे नहीं सकता। ताजा अभियान भी एक अस्थाई अभियान है। अभियान समाप्त होने पर हालात के जस के तस हो जाने वाले हैं। ऐसे में बेहतर यही है कि वह नगर निगम को अपने पैरों पर खड़ा होने में मदद करे। आखिर वह कब तक प्रशासन की बैसाखियों के सहारे चलेगा? वैसे भी यदि प्रशासनिक अधिकारियों ने सारा ध्यान निगम के कामों पर दिया तो आम जनता को उन कार्यों से वंचित होना पड़ेगा, जो कि प्रशासन के खाते में आते हैं। शहर तो साफ हो जाएगा, सुंदर हो जाएगा, मगर और किस्म की परेशानियां भुगतने लगेगा।

शुक्रवार, 4 मार्च 2011

साबित हो गई राजेश यादव की मुख्यमंत्री से नजदीकी


पिछले दिनों जब अजमेर के तत्कालीन जिला कलेक्टर राजेश यादव को सीएमओ में मुख्यमंत्री के विशिष्ट सचिव के रूप में तैनात किया गया था, तभी यह तथ्य स्थापित हो गया था कि वे मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खासमखास हैं। कुछ लोग इसे अजमेर यूआईटी के घपले से जोड़ कर सजा के रूप में गिना रहे थे, जब कि अपुन ने तभी कह दिया था कि उनका कद इससे बढ़ गया है। उस वक्त मीडिया ने भी इस बात पर आश्चर्य जताया था कि सीएमओ में पहले से दो आईएएस होने के बावजूद यादव सहित दो युवा आईएएस क्यों लगाए गए हैं। कुछ लोगों का मानना था कि सीएमओ का अफसर एक बड़े बाबू जैसा होता है, क्योंकि उसके पास स्वयं में कोई अधिकार निहित नहीं होता और केवल मुख्यमंत्री व उच्चाधिकारियों के आदेश का पालन करना मात्र होता है। यादव को सीएमओ में लगाने के राजनीतिक हलकों में जो भी अर्थ लगाए गए, मगर इससे अजमेर में कांग्रेस के उन नेताओं के सीने पर सांप लौटने लगे थे, जिनको यादव ने अपने कार्यकाल में कभी नहीं गांठा। वे कई बार इसकी शिकायत मौखिक रूप से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से करते रहे, मगर यादव का बाल भी बांका नहीं हुआ। बाल बांका होना तो दूर, उलटे यादव का कद और बढ़ गया।
हाल ही जब जयपुर नगर निगम की महापौर ज्योति खंडेलवाल और निगम में तैनात चार आरएएस के बीच टकराव हुआ तो सरकार सकते में आ गई। ज्योति खंडेलवाल ने सार्वजनिक रूप से आरएएस अफसरों को अतिक्रमण किंग करार दिया तो अफसरों ने भी लामबंद हो कर विरोध जता दिया। नगरीय विकास मंत्री शांति धारीवाल तक भौंचक्के रह गए। गुत्थी इतनी उलझ गई कि मुख्यमंत्री को संकटमोचक के रूप में राजेश यादव ही याद आए और गुरुवार की देर रात उन्हें निगम का सीईओ बनाने के आदेश जारी कर दिए। जयपुर नगर निगम का सीईओ होना कोई छोटी-मोटी बात नहीं। एक तो जयपुर नगर निगम प्रदेश के मुख्यालय का स्थानीय निकाय है, जिस पर पूरे प्रदेश की नजर रहती है। दूसरा वहां मेयर तो कांगे्रस की ज्योति खंडेलवाल तो सदन में भाजपा का बहुमत होने के कारण आए दिन सिर फुटव्वल होती है। फिर यदि मेयर व आरएएस अफसरों में सीध टकराव हो जाए तो समझा जा सकता है कि वह जंग का कैसा मैदान बना हुआ है। ऐसे में उसमें सरकार के प्रतिनिधि के तहत सीईओ के पद पर काम करने वाला कितना महत्वपूर्ण हो जाता है, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। बहरहाल, अब तो यह पूरी तरह साफ हो गया है कि यादव मुख्यमंत्री के खासमखास हैं।
नगर सुधार न्यास को लगा हुआ है ग्रहण
अजमेर नगर सुधार न्यास विवादों और भ्रष्टाचार का अड्डा बनता जा रहा है। वहां आए दिन कोई न कोई फफूंद होती ही है। कांग्रेस के पिछले शासनकाल में डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को तो अध्यक्ष बना दिया गया, लेकिन सरकार न्यासियों की नियुक्ति करने का साहस नहीं जुटा पाई। भाजपा शासनकाल में धर्मेश जैन को सीडी कांड के कारण इस्तीफा देना पड़ गया, हालांकि बाद में पता लगा कि सीडी फर्जी थी। कुछ माह पूर्व संभागीय आयुक्त अतुल शर्मा व सचिव अश्फाक हुसैन के बीच टकराव चर्चा का विषय रहा, जो हुसैन के तबादले के बाद जा कर थमा। मजे की बात है कि विपक्षी दल भाजपा तो दूर सत्तारूढ़ दल कांग्रेस तक वहां व्याप्त अनियमितता के लेकर पिछले दिनों हमले कर चुका है। न्यास सचिव हुसैन व पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के बीच हुई खींचतान किसी से छिपी नहीं है। इसी के चलते कांग्रेस की युवा सेना ने न्यास पर हमला बोल दिया था। इसके चलते पंचशील नगर योजना में दीपदर्शन सोसायटी को जमीन आवंटन के रद्द कर दिया गया। चंद वरदायी नगर योजना की जमीन और खेल मैदान आरसीए को देने के मामले भी अभी गर्म हैं। आरसीए के प्रकरण में अंडर द टेबल हुई सौदेबाजी को आज तक मीडिया वाले सूंघ रहे हैं। इसी बीच सूचना के अधिकार के एक मामले में भी न्यास प्रशासन की किरकिरी हुई। अब ठेकेदारों व एक्सईएन के बीच टकराव उभर कर आया है। ठेकेदार प्रकाश रांका ने तो एक्सईएन महावीर सिंह मेहता पर बिल भुगतान के एवज में चार लाख रुपए मांगने का आरोप खुले आम लगा दिया है। ऐसा प्रतीत होता है कि न्यास को ग्रहण लग चुका है। प्रशासन को चाहिए कि वह न्यास की कुंडली चैक करवाए कि कहीं उसमें काल सर्प योग तो नहीं है और उसका निवारण करने के लिए कोई शांति अनुष्ठान करवाए।
बोर्ड अध्यक्ष संघ के हाथ में गई तराजू
राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में कर्मचारी संघ को हाशिये पर रख कर समता मंच की ओर से कामय दबाव की वजह से अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग ने पदावनत कर्मचारियों को पुन: पुरानी सीटों पर तो भेज दिया, लेकिन परिणाम में बोर्ड कर्मचारी खुल कर दो खेमों में बंट गए हैं। एक वर्ग समता मंच से जुड़े कर्मचारियों के उपसचिव छगनलाल के साथ की गई कथित बदसलूकी के कारण लामबंद हो गया है। छगनलाल ने भी बदसूलकी करने वाले कर्मचारियों के खिलाफ एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करवा दिया है। ऐसे में अपनी मांग मनवा लेने के बाद भी समता मंच के कर्मचारी रक्षात्मक मुद्रा में आ गए हैं। जाहिर तौर पर ऐसे में अब एक बार फिर ट्यूनिंग बैठा कर चल रहे बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ के हाथ में तराजू आ गई है।
यहां उल्लेखनीय है कि समता मंच के कर्मचारियों ने बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ की ट्यूनिंग के कारण संघ पर अविश्वास रखते हुए उसकी मध्यस्थता को नकार कर बोर्ड प्रशासन पर सीधे दबाव बनाया। बोर्ड सचिव मिरजूराम शर्मा के आग्रह के बावजूद कर्मचारियों ने यह कह कर संघ की मध्यस्थता से इंकार कर दिया कि संघ की ही माननी होती तो वे सीधे क्यों आते। उन्होंने बोर्ड अध्यक्ष डॉ. गर्ग को भी घेर लिया। चूंकि समता मंच की मांग सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुरूप थी, इस कारण डॉ. गर्ग को झुकना पड़ा। मगर बोर्ड सचिव मिरजूराम शर्मा के घेराव के दौरान अप्रत्याशित रूप से मौके पर आए उप सचिव छगनलाल के साथ कथित तौर पर आई गाली-गलौच की नौबत समता मंच पर भारी पड़ गई है। सच्चाई क्या है, ये तो घटनास्थल पर मौजूद कर्मचारी व अधिकारी ही जानें, मगर अब वे अपना बचाव करते हुए कह रहे हैं कि छगनलाल ने अनाप-शनाप बकते हुए एससी एसटी एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज करवाने की धमकी दी थी। उनका ये भी कहना है कि इसके बारे में एसपी को ज्ञापन देने के बाद छगनलाल ने मुकदमा दर्ज करवाया है, अत: पुलिस के जांच अधिकारी को समता मंच के खिलाफ दर्ज मुकदमे की निष्पक्षता का ध्यान रखना चाहिए। साफ है कि वे ये कह कर मुकदमे की हवा निकालना चाहते हैं कि वह झूठा है और एससी एसटी एक्ट का दुरुपयोग करने का षड्यंत्र रचा जा रहा है। कुल मिला कर बोर्ड कर्मचारी समता मंच व आरक्षण मंच के बैनरों पर आमने-सामने आ गए हैं। यह स्थिति पूरे देश में अपनी विशिष्ट पहचान रखने वाले शिक्षा बोर्ड के लिए शर्मनाक हो गई है।
दूसरी ओर समता मंच के दबाव में मजबूरी में कर्मचारी संघ को एक तरफ रखने की परेशानी में आए बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग बोर्ड कर्मचारियों में उभरी नई गुटबाजी के कारण राहत में आ गए हैं। समता मंच के जिन कर्मचारियों के आगे उन्हें झुकना पड़ा था, उनका ही कानूनी पेंच में उलझना डॉ. गर्ग के लिए सुकून भरा माना जा सकता है। जाहिर तौर पर उन्हें अब दोनों गुटों के बीच तराजू रखने का मौका मिल गया है। इतना ही नहीं जिस कर्मचारी संघ को ताजा मसले पर उपेक्षा सहनी पड़ी थी वह भी अब मध्यस्थता करने की स्थिति में आ गया है। लब्बोलुआब एक बार फिर कूटनीति में माहिर डॉ. गर्ग को किस्मत से कूटनीतिक सफलता हाथ लगने जा रही है। इसके अतिरिक्त समता मंच के दबाव की वजह से डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ की ट्यूनिंग पर जो खतरा था, वह भी फिलहाल टलता नजर आ रहा है।

गुरुवार, 3 मार्च 2011

मजीद साहब, इतना आसान भी नहीं है नाजिम का पद

दरगाह की अंदरूनी व्यवस्थाओं को अंजाम देने वाली दरगाह कमेटी के नए नाजिम जनाब अब्दुल मजीद खान साहब ने गुरुवार को कुर्सी संभालने से पहले एक बयान में कहा कि चुनौतियों के बिना कार्य करने का उन्हें मजा ही नहीं आता। जाहिर है उनको पदभार संभालने से पहले ही दरगाह में मौजूद कुछ चुनौतियों की जानकारी दी गई होगी, तभी प्रतिक्रिया में उन्होंने यह दिलेरी दिखाई है। ऐसे शेर बहादुर की ही जरूरत है, जो दरगाह में व्याप्त समस्याओं का बहादुरी से मुकाबला कर सके। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि नए नाजिम साहब को वास्तविक चुनौतियों के बारे में जानकारी हुई नहीं होगी।
असल में दरगाह शरीफ में काम की चुनौतियां तो हैं ही, जो कि हर जगह पर स्वाभाविक रूप से होती हैं, मगर यहां कुछ बिना काम की चुनौतियां भी हैं। सरकार की ओर से तय की गई नाजिम की ड्यूटी से जुड़े काम तो हैं ही, बिना तय किए हुए काम भी करने होते हैं। जैसे सबसे बड़ी चुनौती है दरगाह में धार्मिक रस्में अदा करवाने के हकदार खुद्दाम हजरात और सुप्रीम कोर्ट की ओर से माने गए ख्वाजा साहब के निकटतम उत्तराधिकारी दरगाह दीवान के बीच तालमेल रखना। अमूमन इन्हीं के बीच तालमेल बैठाने के चक्कर में नाजिम उलझ जाते हैं। अब तक नियुक्त लगभग सभी नाजिम विवाद की चपेट में आए ही हैं। कुछ नाजिम तो पिट भी चुके हैं। पिछले नाजिम भी पिटे थे। यह एक बड़ी चुनौती है। थोड़ी सी चूक हुई नहीं कि पिटने की नौबत आ जाती है। थोड़ी गलती हुई नहीं कि विवाद उठ खड़ा होता है। और विवाद पैदा करने वाले भी मौके की तलाश में ही रहते हैं। कुछ तत्त्व तो ऐसे भी हैं, जो नाजिमों के साथ भिड़ंत कर-कर के इलाके में छाये हुए हैं। अकेले आरएएस अफसर अश्फाक हुसैन ही ऐसे थे, जो सर्वाधिक कामयाब रहे और अमूमन सभी को साथ लेकर चलते रहे। असल में उन्होंने आदतन हंगामा करने वालों से ही दोस्ती कर ली, इस कारण उनके कार्यकाल में हंगामे कम ही हुए।
दूसरी सबसे बड़ी चुनौती कुछ अलग किस्म की है। हालांकि सरकार की ओर से दरगाह के अंदर की व्यवस्थाएं करने की जिम्मेदारी नाजिम को दी हुई है, लेकिन उन सभी व्यवस्थाओं में कहीं न कहीं खादिमों से टकराव की नौबत आ ही जाती है। असल बात तो ये है कि यदि नाजिम नियमानुसार ही चले तो कदम-कदम पर टकराव हो जाए और वह काम ही नहीं कर पाए। अधिसंख्य नियम खादिमों के सर्वाधिकार में बाधा बनते हैं। वस्तुत: नाजिम तो नियुक्त किए हुए हैं और कुछ समय के लिए आते हैं, जबकि खादिमों को खिदमत का जन्मसिद्ध अधिकार है। नाजिम साहब को खिदमत का कितना मौका मिलेगा, पता नहीं, लेकिन खादिमों को खिदमत का अधिकार तो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आ रहा है और कायनात रहने तक चलता रहेगा। इस कारण दरगाह के भीतर उनका रुतबा लाजवाब है। इतना लाजवाब कि वर्दी का रुतबा गालिब करते ही कानून के रखवाले पुलिस वाले तक पिट जाते हैं। पुलिस अफसर तक अपने मातहतों के पिटने पर समझौता करने में ही अपनी भलाई समझते हैं। असल में धार्मिक लिहाज से खादिमों की दरगाह में अहम भूमिका है ही, वे संपन्न होने के साथ-साथ ऊंचे रसूखात वाले हैं। बड़े-बड़े राजनीतिकों व वीवीआईपी से उनके संबंध हैं। इस कारण जो नाजिम चतुराई से उनकी मिजाजपुर्सी करके चलता है वह तो शांति से समय काट लेता है और अगर थोड़ी भी अड़ाअड़ी करता है तो लपेटे में आ जाता है।
इन दो चुनौतियों के अतिरिक्त भी अनेक चुनौतियां हैं, मगर उनसे पार पाया जा सकता है। जैसे कि दरगाह के अंदर अतिक्रमण है। उसे हटाने की हर नाजिम कोशिश करता है, मगर आज तक कोई भी सफल नहीं हो पाया है। ऐसे में उनके बेहतर ये ही होता है कि अपनी आंखें ही मूंद लें। बस इसी प्रकार जगह-जगह पर आंख मूंद लीजिए, मजीद साहब, आपको कोई दिक्कत नहीं आएगी।

मंगलवार, 1 मार्च 2011

बिगड़ सकती है बोर्ड अध्यक्ष व कर्मचारी संघ की ट्यूनिंग


सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत पदावनत कर्मचारियों को व्यवस्थार्थ उच्च पदों पर ही लगाए रखने को लेकर इन दिनों राजस्थान माध्यमिक शिक्षा बोर्ड में तूफान मचा हुआ है। कर्मचारियों का एक गुट बोर्ड प्रशासन से सीधे भिड़ंत ले रहा है। उसे कर्मचारी संघ की मध्यस्थता तक पसंद नहीं है। नतीजतन बोर्ड अध्यक्ष और कर्मचारी संघ के बीच चल रही ट्यूनिंग बिगडऩे का खतरा उत्पन्न हो गया है।
वस्तुत: बोर्ड के इतिहास में यह पहला मौका है कि बोर्ड अध्यक्ष डॉ. सुभाष गर्ग की कूटनीतिक सफलता के चलते कर्मचारी संघ संतुष्ट नजर आता है। डॉ. गर्ग कोई भी निर्णय करने से पहले बड़ी चतुराई से कर्मचारी संघ के नेताओं से तालमेल बैठा लेते हैं, इसी कारण उनका हर निर्णय बड़ी ही शांति से लागू हो जाता है, भले ही कुछ कर्मचारियों में असंतोष हो। पिछले दिनों बोर्ड का एक भवन जयपुर में बनाए जाने का निर्णय विखंडन का ही एक रूप था, इसके बावजूद कर्मचारी संघ से ट्यूनिंग के कारण भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी के कड़े विरोध के बाद भी कोई विवाद नहीं हुआ। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ कर्मचारियों को बोर्ड अध्यक्ष व कर्मचारी नेताओं की यह ट्यूनिंग रास नहीं आ रही। वे कोई मौका तलाश ही रहे थे। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आया और उसके अनुरूप पदोन्नत हुए कर्मचारियों को पदावनत किया गया, लेकिन व्यवस्थार्थ उच्च पदों पर ही बनाए रखा गया, असंतुष्ट कर्मचारियों को विरोध करने का मौका मिल गया। वे जानते थे कि अगर कर्मचारी संघ के पास मसला ले गए तो बोर्ड अध्यक्ष से ट्यूनिंग के कारण टांय-टांय फिस्स हो जाएगा, इस कारण उन्होंने मौका ताड़ कर बोर्ड अध्यक्ष के बाहर जाते ही बोर्ड सचिव मिरजूराम शर्मा को घेर लिया। बेचारे शर्माजी क्या करते, वे तो खुद ही डॉ. गर्ग से तालमेल बैठा कर काम करते हैं और उनकी गैर मौजूदगी में कोई निर्णय नहीं करना चाहते। कर्मचारियों ने उन्हें उकसाया भी कि आप भी जिम्मेदार अधिकारी हैं, लेकिन वे उनके चक्कर में नहीं आए। उन्होंने डॉ. गर्ग के आने का इंतजार करने को कहा, लेकिन कर्मचारी नहीं माने। जब शर्मा ने कर्मचारी संघ के माध्यम से बात करने प्रस्ताव रखा तो उसे भी कर्मचारियों ने नकार दिया। इस प्रस्ताव पर तो वे लगभग उखड़ ही गए कि कर्मचारी संघ की ही माननी थी तो उनके पास सीधे क्यों आते। इस सिलसिले में जब मीडिया ने डॉ. गर्ग से फोन पर बात की तो वे भी यही बोले कि कुछ कर्मचारी माहौल खराब कर रहे हैं। इसका सीधा सा अर्थ है कि उन्हें कर्मचारी संघ पर तो पूरा भरोसा है कि वह कोई गड़बड़ नहीं करेगा। ताजा हालात में ऐसा प्रतीत होता है कि कर्मचारियों का एक वर्ग काफी ताकतवर हो गया है और वह डॉ. गर्ग व कर्मचारी संघ के बीच कुल्हड़ी में फोड़े जा रहे गुड़ को बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। यानि कि ट्यूनिंग की एक्सपायरी डेट नजदीक आने वाली है। वैसे डॉ. गर्ग राजनीति के कुशल खिलाड़ी हैं, संभव है वे आने पर कोई ऐसी गोटी चलें कि कर्मचारी संघ से अलग चल रहा गुट चारों खाने चित्त हो जाए।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश की आड़ में मची लूट

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने चंद दिन पहले ही 1 मार्च से प्लास्टिक पाउच में गुटकों की बिक्री पर रोक के आदेश जारी कर दिए थे, लेकिन न तो निगम प्रशासन जागा और न ही गुटके बनाने वाली कंपनियों ने परवाह की। इसका परिणाम ये हुआ है कि करीब एक हफ्ते से जम कर ब्लैक मार्केटिंग हो रही है। जो गुटका मार्केट में ज्यादा चलता रहा है, उसके दाम तो आसमान छू रहे हैं। यदि गुटका बनाने वाली कंपनियों ने जल्द ही कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं निकाला तो आने वाले दिनों में लूट और भी बढ़ जाएगी। इसका फायदा नकली माल बनाने वाली कंपनियां भी उठाएंगी।
असल में जैसे ही सुप्रीम कोर्ट का आदेश उजागर हुआ, मार्केट में एक ओर तो गुटकों की मांग यकायक बढ़ गई और दूसरा कालाबाजारियों ने माल को दबा लिया। गुटका खाने वालों ने यह सोच कर कि 1 मार्च से रोक लग जाएगी, इस वजह से अतिरिक्त गुटके खरीदना शुरू कर दिया। इस पर खुदरा विक्रेताओं ने उनका मूल्य बढ़ा दिया। मार्केट में एक रुपए का गुटका डेढ़ रुपये में बिकने लग गया। हालांकि होना तो यह चाहिए था कि प्लास्टिक के पाउच में पहले से पैक गुटकों का स्टॉक निकालने के लिए फैक्ट्री वाले ज्यादा से ज्यादा माल बाहर निकालते, लेकिन वे जानते थे कि इससे कंपीटीशन के मार्केट में माल की कीमत गिर जाएगी। वे यह भी जानते थे किसी और पैकिंग में गुटखा बनाने से उनका पुराना माल डंप हो जाएगा, इस कारण नई पैकिंग में गुटका बनाने की बजाय उन्होंने पुराने माल पर राशनिंग शुरू कर दी। परिणाम ये हुआ कि माल की कीमत बढ़ गई और स्टॉकिस्टों ने माल अधिक कीमत में धीरे-धीरे निकालना शुरू कर दिया। इसका फायदा खुदरा दुकानदारों ने भी उठाया और यह कह कर कि आगे न जाने किस पैकिंग में गुटका आएगा, इस कारण माल ही कम आ रहा है और उसकी कीमत बढ़ गई है। इस प्रकार जम कर ब्लैकमार्केटिंग होना शुरू हो गई। जाहिर है कि आम आदमी गुटके का आदी हो चुका है और उसे किसी भी कीमत में गुटका चाहिए, इस कारण वे एक रुपए का गुटका डेढ़ रुपए में खरीद रहा है।
हालांकि नगर निगम को भी जानकारी थी कि 1 मार्च से प्लास्टिक में पैक गुटकों पर रोक लग जाएगी, लेकिन उसने भी कोई ध्यान नहीं दिया। मेयर कमल बाकोलिया का बयान ही यह जाहिर करता है कि निगम सुप्रीम कोर्ट के आदेश के प्रति कितना गंभीर है। उनका कहना है कि पहले चरण में जागरूकता अभियान चला कर समझाइश की जाएगी। यानि जो दिन जागरूकता के लिए मिले थे, उसमें तो लूट की छूट दे दी और जिस दिन से रोक लगी है, उस दिन से जागरूकता की बात की जा रही है। साफ दिख रहा है कि अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देकर निगम के अधिकारी भी लूट में शामिल हो जाएंगे। वे सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवला दे कर दुकानदारों को लूटने की कोशिश करेंगे। दुकानदार भी नगर निगम का डर दिखा कर छुप-छुप कर ज्यादा कीमन वसूलेंगे।
आश्चर्य की बात है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश और धरातल की स्थिति में सामंजस्य बैठाने की जिम्मेदारी सरकार की होने के बाद भी वह मौन बनी रहती है। न तो ये पता किया जाता है कि अमुक दिन से रोक लगने पर मार्केट में स्टॉक की स्थिति क्या होगी और न ही ये ध्यान रखा जाता है कि संबंधित कंपनियां एक निश्चित दिन तक अपना पुराना माल खपा लें और नया माल मार्केट में भेजें। इसी का परिणाम होता है कि कोर्ट के आदेश की धज्जियां उड़ती हैं, साथ ही कोर्ट के आदेश का डर दिखा कर ब्लैकमार्केटिंग होती है।