मंगलवार, 18 जून 2013

केईएम लौटाने इच्छा नहीं है जिला प्रशासन की?

मूलत: नगर निगम की संपत्ति किंग एडवर्ड मेमोरियल को निगम को लौटाने की इच्छा नहीं दिखती है जिला प्रशासन की। इसी कारण उसमें जानबूझ कर अडंगेबाजी की जा रही है। कैसी विडंबना है कि जिला प्रशासन के अधिकारियों को अच्छी तरह से पता है कि मेमोरियल निगम की ही संपत्ति है, मगर उसे लौटाने में उन्हें जोर आ रहा है और वे किसी न किसी बहाने उस पर कब्जा किए बैठे हैं।
ताजा अडंगा है मेमोरियल की लीज डीड का, जो कि निगम के रिकार्ड से गायब है। आखिर एक सौ दो साल पहले का मामला है, जब तत्कालीन नगर पालिका की 25 मार्च 1911 को हुई साधारण सभा में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को स्मारक के लिए जमीन देने का फैसला किया था। अब उसका रिकार्ड तलाशना निगम कर्मियों के लिए बेहद मुश्किल है। हालांकि उससे संबंधित अन्य कागजाद मौजूद हैं। इस बारे में निगम प्रशासन का कहना है कि भवन का कब्जा सौंपने में लीज डीड की आवश्यकता ही नहीं है। निगम ने रिकार्ड में पड़े अन्य दस्तावेज कमेटी को उपलब्ध करा दिए, जिससे उसका मालिकाना हक साबित होता है। इस आधार पर निगम का कहना है कि इस संबंध में संभागीय आयुक्त निगम के पक्ष में फैसला दे चुके हैं, अत: अब लीज डीड के कागजात का कोई महत्व नहीं रह जाता है।
निगम के इन तर्कों से साफ है कि प्रशासनिक अधिकारी जानबूझ कर अंडग़ा डाल रहे हैं। हालांकि इस बारे में निगम मेयर कमल बाकोलिया ने जिला कलेक्टर वैभव गालरिया को पूरी स्थिति से अवगत कराया है और उन्होंने उचित कार्यवाही का आश्वासन दिया है, मगर जैसा कि अन्य अधिकारियों के रवैये का सवाल है, वे आसानी से मानते नहीं दिखाई देते।
ज्ञातव्य है कि निगम ने वर्ष 2011 में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को कब्जा सौंपने के लिए नोटिस भी दिया था। इसके बाद निगम ने संभागीय आयुक्त न्यायालय में अपील की थी। संभागीय आयुक्त ने दोनों पक्षों की बहस सुनने के बाद निगम को कमेटी का पक्ष सुनने के बाद कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। इसके बाद निगम ने कमेटी के आवेदन पर पुन: सुनवाई की थी। निगम ने कमेटी के एतराज को खारिज कर दिया था। कलेक्टर ने केईएम भवन हस्तांतरित करने के लिए अतिरिक्त कलेक्टर शहर जे के पुरोहित की अगुवाई में कमेटी बनाई थी। भवन को लेकर कमेटी की तीन चार बार बैठक हो चुकी है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।
वह शिलापट्ट, जो केईएम के निर्माण के बारे में जानकारी देता है
जानकारी के अनुसार मेमोरियल का कब्जा प्रशासन के पास होने के कारण प्रशासनिक अधिकारी उसका उपयोग करते हैं और वे नहीं चाहते कि यह सुविधा उनसे छिन जाए।
इस सिलसिले में पूर्व में निगम पार्षद अपना रोष जाहिर कर चुके हैं, मगर प्रशासनिक अधिकारी मामले को लगातार टालते जा रहे हैं। हाल ही नगर निगम के मनोनीत पार्षद सैय्यद गुलाम मुस्तफा चिश्ती ने मेयर को पत्र लिख कर रोष जाहिर किया है और कहा है कि इस विषय में त्वरित कार्यवाही करने के लिए पार्षदों की बैठक बुलाकर तुरंत निर्णय किया जाए।
ज्ञातव्य है कि 25 मार्च 1911 को तत्कालीन नगर पालिका की साधारण सभा में किंग एडवर्ड मेमोरियल कमेटी को स्मारक के लिए जमीन देने का फैसला किया था। निगम ने कमेटी को पहले ब्यावर रोड पर जमीन आवंटित की थी, लेकिन 6 सितंबर 1911 को फिर हुई साधारण सभा की बैठक में स्टेशन रोड पर जमीन आवंटित करने का फैसला किया। निगम ने कमेटी को 17 हजार 511 वर्ग गज भूमि पांच रुपए प्रति वर्ग गज के हिसाब से आवंटित की थी।
-तेजवानी गिरधर

भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की गोपनीयता पर उठ रहे सवाल

मनोज गिदवानी
अजमेर जिले के पुलिस कप्तान राजेश मीणा सहित अन्य पुलिस अधिकारियों पर सफलतापूर्वक हाथ डालने के अतिरिक्त लगातार बड़े-बड़े मामले पकडऩे वाला एंटी करप्शन ब्यूरो जब पहली बार अजमेर नगर सुधार न्यास के मामले में विफल हुआ तो सभी को अचरज हुआ। अन्य मामलों में तो फिर भी सरकारी अधिकारी लिप्त थे, मगर न्यास के मामले में तो सीधे-सीधे कांग्रेस सरकार की ओर से राजनीतिक आधार पर नियुक्त किए गए अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत पर आरोप था, जिन पर कि हाथ डालने से पहले पूरी सावधानी बरती गई होगी और संभव है कि ऊपर से परमीशन भी ली गई हो। इसके बावजूद एसीबी के जाल से न्यास अधिकारी व कथित दलाल मनोज गिदवानी तक भी फिसल गए। एक अर्थ में देखा जाए तो यह बेहद महत्वपूर्व मामला था, जिसमें कि एंटी करप्शन ब्यूरो के जांच अधिकारी भीम सिंह बीका की विफलता ने ब्यूरो की कार्यप्रणाली और गोपनीयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस वजह से सीधे-सीधे बीका को उच्चाधिकारियों के सामने नीचा देखना पड़ा होगा, भले ही उनकी टीम के किसी सदस्य ने लापरवाही बरती हो।
चूंकि यह राजनीतिक मामला है, इस कारण भगत की नियुक्ति के साथ ही इस बाते के कयास लगाए जा रहे थे कि उन पर न केवल प्रतिद्वंद्वी कांग्रेसी, बल्कि विपक्षी भाजपाई भी नजर गडा कर रखेंगे। न्यास में जो गोरखधंधा होता है, उसका सबको पता है। काजल की इस कोठरी से साफ-सुथरा निकल कर आना बहुत मुश्किल होता है। कितना भी सावधानी से काम करो, मगर कहीं न कहीं न चूक की गुंजाइश रहती ही है। भले ही इन सब आधारों की वजह से ही, मगर यह चर्चा तो थी कि ब्यूरो की नजर न्यास पर है। यह आम चर्चा थी कि ब्यूरो न्यास के मामले में सक्रिय है। यहां तक संबंधित लोगों तक को अनुमान था, बताया कि न्यास उन पर नजर रख रहा है, तभी तो वे ब्यूरो की ट्रेप की कार्यवाही के चक्कर में नहीं आए। ऐसे में सवाल ये उठता है कि आखिर ट्रेप की कार्यवाही विफल करने में किसका हाथ है। हालांकि ब्यूरो का कहना है कि न्यास के उप नगर नियोजक साहिब राम जोशी को स्वतंत्र गवाह बनाने का उनका फैसला गलत था, मगर लगता है कि अकेली यही वजह नहीं है कार्यवाही लीक होने की। चर्चा तो यह भी थी कि ब्यूरो विशेष रूप से जोशी पर ही शिकंजा कसने की तैयारी कर रही है, जिन्हें कि उसने बाद में सरकारी गवाह बनाने की कोशिश की।
खाली हाथ लौटती एसीबी की टीम
लगता ये है कि चूंकि इस मामले में लंबे समय से जांच प्रक्रिया चल रही थी, इस कारण संबंधित लोगों को पहले से शक हो गया, बस उनसे चूक ये हुई कि वे अपने मोबाइल फोन सर्विलांस पर होने के बाद भी लेन-देन की बातें कर बैठे। चर्चा ये भी है कि यह साजिशन हुआ, जैसा कि भगत भी कह रहे हैं, इससे लगता है कि भले ही इसमें किसी ने साजिश न भी रची हो, मगर उसकी ब्यूरो की कार्यवाही में रुचि थी। ब्यूरो का यह भी देखना होगा कि जिस शिकायतकर्ता की शिकायत पर वह जांच कार्यवाही आगे चला रही थी, कहीं उसके रिश्ते ऐसे लोगों से तो नहीं थे, जो कि न्यास के मामलों में रुचि रखते हों और उसके मुंह से कुछ हिंट निकल हो गया हो। जो भी हो, जितना न्यास में भ्रष्टाचार का मामला गंभीर है, उससे भी ज्यादा गंभीर है ब्यूरो का फेल हो जाना। ब्यूरो को इस मामले में छानबीन करनी ही चाहिए कि उससे कहां चूक हुई। वो इस कारण कि पुलिस कप्तान राजेश मीणा तक को शिकंजे में लेने का तमगा लगाने वाली एसीबी के लिए ताजा प्रकरण शर्मनाक है और अकेले इस मामले ने ब्यूरो की गोपनीयता व कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर दिए हैं।
-तेजवानी गिरधर