रविवार, 6 जुलाई 2014

कांग्रेसियों को विरोध करना नहीं आता और भाजपाइयों को सत्ता चलाना

अजमेर जिला परिषद के बोर्ड पर भाजपा काबिज है, बावजूद इसके यदि उसकी साधारण सभा में भाजपाई प्रशासनिक शिथिलता पर उग्र होंगे और विपक्ष में बैठे कांग्रेसी मस्ती में चुप बैठे रहेंगे तो यह सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि आखिर वे अपनी नई भूमिका में आ क्यों नहीं रहे हैं। यह सवाल दैनिक भास्कर के चीफ सिटी रिपोर्टर सुरेश कासलीवाल ने अपनी रिपोर्ट में उठाया है। नई भूमिका के अनुरूप राजनेताओं के रवैये में परिवर्तन न आने पर मीडिया का इस प्रकार चौंकना वाजिब है।
असल में अपुन को लगता ये है कि दोनों ही दलों के नेता अपनी-अपनी आदत से मजबूर हैं। वर्षों तक एक ही प्रकार की भूमिका निभाने के कारण वे उसके इतने आदी हो गए हैं कि नई भूमिका मिलने पर भी उसके अनुरूप आचरण करना उन्हें आता ही नहीं है। जहां तक भाजपाइयों का सवाल है, वर्षों से वे केवल विरोध ही करते रहें हैं, इस कारण उन्हें इसमें महारत हासिल हो गई है। यही महारत पर उन पर हावी भी हो गई है। वह भी इतनी कि छूटती ही नहीं। जहां भी समस्या देखते हैं, तुरंत विरोध करने पर आमादा हो जाते हैं। विरोध करते-करते सत्ता में आने के बाद भी उन्हें ये अहसास नहीं हो पा रहा कि अब वे सत्ता में हैं और उनका विरोध अपनी ही सत्ता के खिलाफ काउंट होगा।
एक अर्थ में उनका विरोध करना जरूर वाजिब है। वो ये कि यदि कहीं कोई समस्या है तो सुधार के लिए विरोध करना ही चाहिए। वे विरोध न करते हुए भला चुप कैसे बैठ सकते हैं? आखिर वे जनप्रतिनिधि बने ही क्यों हैं?  मगर इसका ये भी मतलब निकलता है कि प्रशासन उनकी मंशा को समझ ही नहीं पा रहा। या फिर वह समझना ही नहीं चाहता। या फिर वह भी आदी हो गया है कि भाजपाई तो चिल्लाएंगे ही, चिल्लाते रहें। उन्हें जो करना है, करेंगे। प्रशासन जानता है कि कितना भी काम करेंगे, मगर भाजपाई तो आदत के मुताबिक विरोध करेंगे ही। वरना होना चह चाहिए कि सत्तारूढ़ दल के लोगों को तो चिल्लाने की जरूरत ही नहीं पडऩी चाहिए। कम से कम उनसे संबंधित काम तो बिना चिल्लाए ही होने चाहिए। लेकिन ऐसा हो नहीं रहा। इस स्थिति से ऐसा लगता है कि सत्ता में आने के बाद भी भाजपाइयों ने अपनी आदत को सुरक्षित रखने के लिए प्रशासन को सामने रख लिया है। यानि कि सत्ता तो प्रशासन में निहित है और भाजपाई उसके विरोध में। यह मानसिकता इस वजह से भी है कि सरकार चाहे किसी दल की हो, नेताओं का पाला सीधे प्रशासन से पड़ता है। यानि कि उनके लिए प्रशासनिक अधिकारी ही सत्ता हैं। इस कारण उसको निशाने पर रखते हैं। उनकी कोफ्त की एक वजह ये भी हो सकती है कि कांग्रेस सरकार के रहते जिन मुद्दों पर उन्होंने प्रशासन को घेरा, उनका निराकरण उनके सत्ता में आने के बाद भी नहीं हो रहा तो वे जनता को क्या जवाब देंगे।
रहा सवाल प्रशासन को तो वह इतना असंवेदनशील भी नहीं हो सकता कि व्यर्थ ही भाजपाइयों के गुस्से का शिकार बनना चाहेगा। भाजपाइयों की घुड़की सुन कर भी अनसुना करने की एक वजह ये भी हो सकती है कि जो मांग की जा रही है, वह या तो नियमों अथवा संसाधनों की कमी के कारण पूरी नहीं की जा सकती, या फिर व्यावहारिक धरातल पर संभव नहीं है।
मसले के एक अनछुआ पहलू भी है, जरा उस पर गौर करें। वस्तुत: प्रशासन भी यह जानता है कि असल सत्ता तो उसमें ही निहित है, जो कि सच भी है। कायदे-कानूनों की बारीक जानकारी उनके पास ही होती है, इस कारण असल में सरकार तो वे ही चलाते हैं। वे इसके प्रति जवाबदेह भी होते हैं। इसे इस प्रकार समझा जा सकता है कि कोई ऐसा काम जो कि नियमों के तहत असंभव है, उसके लिए चाहे सत्तारूढ़ दल के नेता कितना ही दबाव बनाएं, वह किसी भी सूरत में करने वाला नहीं है। कारण ये है कि राजनेता तो मौखिक आदेश दे कर बच जाते हैं और कागजी कार्यवाही पर प्रशासनिक तंत्र के ही हस्ताक्षर होते हैं। यदि बाद में कभी गड़बड़ का मामला उजागर होता है तो राजनेता तो बच जाते हैं, जबकि अफसर व बाबू फंस जाते हैं।
ऐसा एक प्रकरण मुझे खयाल में आता है। तत्कालीन मुख्यमंत्री भैरों सिंह शेखावत व सार्वजनिक निर्माण मंत्री ललित किशोर चतुर्वेदी ने मुख्य सड़क से नारेली स्थित ज्ञानोदय तीर्थ के भीतर तक संपर्क सड़क बनाने को कह दिया। भला सार्वजनिक निर्माण विभाग के अधिकारियों की क्या बिसात कि उसकी अवहेलना करें। उन्होंने सड़क बनवा दी। तत्कालीन विधायक गोविंद सिंह गुर्जर यह मामला विधानसभा में उठाया। जांच हुई तो पता लगा कि नियमों के तहत सड़क गलत बनाई गई है। इस पर शेखावत जी व चतुर्वेदी जी का तो कुछ नहीं बिगड़ा, जिन्होंने कि मौखिक आदेश दिया था, मगर बेचारे विभाग के अभियंता नियम विरुद्ध काम के लिए नोटिस झेलते रहे और वर्षों तक वेतन वृद्धि को रोके जाने का दंड भोगते रहे।
इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि वास्तविक जवाबदेह कौन है और सच में सत्ता किसमें निहित है।
बात अगर कांग्रेसी नेताओं की करें तो यही समझ में आता है कि वे सत्ता भोगते-भोगते इतना सुस्त व आरामतलब हो चुके हैं कि जब विरोध करने की जरूरत है तो उसे करने को तैयार ही नहीं हैं। जनता जाए भाड़ में। और फिर जब उसकी भूमिका भाजपाई ही अदा कर रहे हैं तो वे काहे को अपने शरीर को तकलीफ दें।
लब्बोलुआब, यह आम धारणा सही ही प्रतीत होती है कि कांग्रेसियों को केवल सत्ता चलाना आता है, विरोध करना नहीं, जब कि भाजपाइयों को केवल विरोध करना आता है, सत्ता चलाना नहीं। कांग्रेसियों को पता है कि अफसरों से कैसे काम करवाया जाता है, जबकि भाजपाइयों को केवल हल्ला मचा कर ही अफसरों से काम करवाने की आदत पड़ चुकी है।
-तेजवानी गिरधर