गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

विधायक देवनानी ने खेला तुरुप का पत्ता


अजमेर उत्तर के भाजपा विधायक प्रो. वासुदेव देवनानी ने तुरुप का पत्ता खेल दिया है। वे पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाब चंद कटारिया की मेवाड़ यात्रा के समर्थन में खुल कर मैदान में आ गए हैं। उन्होंने कहा है कि प्रवास पर जाना भाजपा नेताओं की कार्य संस्कृति का हिस्सा है। भाजपा के कार्यकर्ता, पदाधिकारी और जनप्रतिनिधि प्रवास करते रहते हैं। उनकी इस चाल पर अजमेर सहित प्रदेशभर के भाजपा नेता चकित हैं। संभव ये भी है कि उन्होंने सामान्य तौर पर कटारिया की यात्रा को जायज बताया हो, मगर चूंकि यह विषय भाजपा के लिए काफी संवेदनशील है, इस कारण उनके समर्थन को विशेष रणनीति व अर्थ में लिया जा रहा हो।
ज्ञातव्य है कि कटारिया की पूर्व में प्रस्तावित मेवाड़ यात्रा, जो कि उस वक्त स्थगित हो गई, को लेकर भाजपा में बड़ा घमासान हो चुका है। हालत ये हो गई थी कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को हाईकमान पर दबाव बनाने के लिए विधायकों व पदाधिकारियों के सामूहिक इस्तीफे की राजनीति करनी पड़ी थी। बवाल बढ़ता देख कटारिया ने खुद ही पार्टी हित में कदम पीछे खींच लिए और यात्रा स्थगित कर दी थी। तब से लेकर वसुंधरा व संघ खेमे में तलवारें खिंची हुई हैं और अब तक सुलह का कोई रास्ता नहीं निकल पाया है। इसी बीच जैसे ही कटारिया ने जैसे ही दुबारा यात्रा आरंभ कर दी तो सभी भौंचक्के रह गए। राजनीतिक पंडित शतरंज की इस चाल को समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि इसी बीच देवनानी ने खुल कर उनका समर्थन कर दिया। यहां यह बताना प्रासंगिक होगा कि पिछली बार जब वसुंधरा ने विधायकों के इस्तीफे एकत्रित किए थे तो जानकारी यही उभर कर आई थी कि देवनानी ने इस्तीफे पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, हालांकि उन्होंने चुप्पी साधते हुए कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दी थी। इसके बावजूद समझा यही गया कि चूंकि वे संघ लॉबी से हैं, इस कारण वसुंधरा को उनसे इस्तीफा देने की उम्मीद भी नहीं रही होगी।
बहरहाल, अब जबकि देवनानी खुल कर कटारिया के साथ आ गए हैं, इसका अर्थ यही लगाया जा रहा है कि वे इस बार वसुंधरा के मानसिक दबाव से पूरी तरह से मुक्त होना चाहते हैं। साथ ही संघ लॉबी के साथ खुल कर खड़े हो कर अपना स्टैंड साफ कर देना चाहते हैं।
वैसे देवनानी ने एक चतुराई भी दिखाई। जब उनसे पूछा गया कि भाजपा नेता रामदास अग्रवाल के वी से वी तक के बयान पर उनका क्या कहना है तो वे बोले कि वी से वी का असली मतलब विकास से विजय तक की यात्रा होता है। प्रदेश में भाजपा शासन में जो विकास हुआ, अब आगामी विधानसभा चुनावों में पार्टी को उसी आधार पर विजय मिलेगी। अग्रवाल ने यह बात किस संदर्भ में बोली इसका जवाब तो वे ही दे सकते हैं। समझा जा सकता है कि अग्रवाल का बयान संकेतों में सीधे-सीधे वसुंधरा पर ही था, मगर देवनानी ने उसका दूसरा ही अर्थ निकाल कर अपने आप को साफ बचा लिया।
ज्ञातव्य है कि वे मूलत: संघ लॉबी से ही हैं, मगर जब संघ के कोटे से उन्हें मंत्री बनाया गया था तो बाद में संघ के लोग ही उन पर संदेह करने लगे थे। इस पर वे पलट कर संघ खेमे में आ गए। और उसी की बदोलत उन्हें फिर से टिकट मिला  व जितवाने में भी संघ की बड़ी भूमिका थी। तब से वे संघ लॉबी में ही बने हुए हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों से सामान्य शिष्टाचार के नाते वसुंधरा के संपर्क में भी रहे। कदाचित संघ उन पर फिर से संदेह कर रहा हो और उन्हें दो घोड़ों पर सवार माना जा रहा हो, सो उन्होंने खुल कर मैदान में आना ही उचित समझा। इससे जाहिर तौर पर संघ की मुहिम को बल मिलेगा। इसका बड़ा फायदा ये हो सकता है कि संघ लॉबी उनके टिकट की खातिर फिर अड़ सकती है। अब ये तो वक्त ही बताएगा कि उनकी तुरुप यह पत्ता कामयाब होता है या पिट जाता है।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 17 दिसंबर 2012

बारूद के ढ़ेर पर बैठा है अजमेर शरीफ


समझौता एक्सप्रेस में ब्लास्ट के आरोपी दशरथ चौहान की एनआईए दिल्ली की टीम की ओर से की गई गिरफ्तारी के बाद उसका यह खुलासा अजमेर सहित पूरे देशवासियों के लिए सनसनीखेज और चिंताजनक है कि उसका और उसके साथियों का इरादा इसी साल अजमेर में बड़ा बम ब्लास्ट करने का था, लेकिन किसी कारण षड्यंत्र सफल नहीं हो पाया। इस साल उसकी जयपुर में दीपावली मनाने की योजना बनाई थी। वह कितना खूंखार है, इसका अनुमान इसी बात ये लगाया जा सकता है कि पूछताछ के दौरान एनआईए की टीम के समक्ष दिए गए बयान में दशरथ को अपराध का कोई मलाल नहीं था। उसने कहा कि पाकिस्तान के आतंकवादी जब चाहें भारत में हत्या कर चले जाते हैं। हमने जो किया उसका कोई मलाल नहीं। मैंने अपना फर्ज निभाया, पुलिस अपना फर्ज निभाए। ज्ञातव्य है कि नागदा से गिरफ्तार दशरथ पर 5 लाख रु. का इनाम था। दशरथ पर मई 2007 में हैदराबाद की मक्का-मदीना मस्जिद में विस्फोट का भी आरोप है।
दशरथ सिंह के खुलासे के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि भले ही अपने आंचल में दरगाह ख्वाजा गरीब नवाज और तीर्थराज पुष्कर को समेटे अजमेर को सांप्रदायिक सौहार्द्र के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता हो, मगर हकीकत ये है कि यह आज बारूद के ढ़ेर पर बैठा है। इतना ही नहीं दशरथ सिंह की गिरफ्तारी के बाद जिस प्रकार दरगाह शरीफ के मेन गेट पर खादिमों की संस्था अंजुमन के पूर्व सदर सैयद किबरिया चिश्ती व पूर्व सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने जिस तल्ख अंदाज में प्रतिक्रिया दी, उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह शहर किसी भी वक्त अशांति के आगोश में समा सकता है।
असल में अजमेर पिछले लंबे अरसे से आपराधिक गतिविधियों का केन्द्र बनता जा रहा है। प्रसंगवश बताना लाजिमी है कि पिछले दिनों अजमेर पुलिस को उदयपुर पुलिस के माध्यम से यह जानकारी मिली थी कि मुम्बई के तीन शार्प शूटर मोहम्मद आजम, तानिश शाह और अयूब एक इंडिगो कार में सवार हो कर नाथद्वारा से अजमेर दरगाह जियारत करने आए हुए हैं। वे किसी गम्भीर वारदात को भी अंजाम दे सकते हैं। पुलिस रात भर उनकी तलाश करती रही पर कुछ हाथ नहीं आया। दूसरे दिन सूचना मिली कि शार्प शूटर इंडिगो कार में सवार होकर रेलवे स्टेशन की और जा रहे हैं। पुलिस ने स्टेशन पर नाकाबंदी की, मगर शार्प शूटर सचेत हो गए और कार छोड़ कर भाग गए। पुलिस ने लाख कोशिश की मगर वे हाथ नहीं आए। केवल कार का ड्राइवर श्यामलाल ही पकड़ में आ पाया।
इससे ठीक एक दिन पहले आनासागर झील की चौपाटी के नजदीक एस्केप चैनल की सफाई के दौरान बरामद हुए बम, एक खुखरी और चाकू ने भी शांत नजर आने वाले अजमेर को यकायक किसी बड़ी आशंका से भयभीत कर दिया था। आयुध विशेषज्ञों का मानना है कि ये हथगोले 300 मीटर तक मार कर सकते थे और 150 मीटर के दायरे में भारी तबाही मचा सकते थे। चौंकाने वाला तथ्य ये है कि इन बमों को एक सप्ताह के भीतर ही रखा गया था।
उल्लेखनीय है कि शहर में जिंदा हथगोला मिलने का यह पहला मामला नहीं है। इससे पूर्व वर्ष 2009 में सितंबर के अंतिम सप्ताह में हाथीखेड़ा गांव के पहाड़ी क्षेत्र में भी 4 जिंदा हैंड ग्रेनेड मिले थे। लोहाखान क्षेत्र में एक खंडहर से मशीनगन की बुलेट भी बरामद हो चुकी हैं।
असल में पिछले कुछ समय से हो रही इस प्रकार की आपराधिक घटनाओं से अजमेर यकायक अति संवेदनशील शहरों की गिनती में आ गया है। यूं तो मादक पदार्थों का ट्रांजिट सेंटर बने दरगाह इलाके व पुष्कर में अंडरवल्र्ड के लोगों की आवाजाही की वजह से इस सरजमीं के नीचे सुलग रही आग का इशारा समय-समय पर मिलता रहा है, मगर दरगाह में बम फटने के बाद तो यह साबित ही हो गया कि आतंकवाद के राक्षस ने यहां भी दस्तक दे दी है।
जहां तक अंडरवल्र्ड की गतिविधियों का सवाल है, अनेक बार यह प्रमाणित हो चुका है कि अजमेर मादक पदार्थों की तस्करी कर ट्रांजिट सेंटर बन चुका है। जोधपुर के सरदारपुरा इलाके में एक साइबर कैफे से पकड़ा गया आईएसआई एजेंट ऋषि महेन्द्र बिना पासपोर्ट व वीजा के बांग्लादेश सीमा से भारत में घुसा और अजमेर के दरगाह इलाके में रहने लगा। बाद में पता लगा कि उसे आईएसआई ने भारतीय सेना के पूना से लेकर पश्चिमी सीमा पर स्थित ठिकानों का पता लगाने के लिए भेजा था। वह यहां लंगरखाना गली में होटलों में नौकरी करता रहा। वह कुछ वक्त जयपुर के रामगंज इलाके में रह चुका था।
इसी प्रकार निकटवर्ती किशनगढ़ की मार्बलमंडी में हिजबुल मुजाहिद्दीन का खुंखार आतंकवादी शब्बीर हथियारों सहित पकड़ा गया तो पुलिस और खुफिया तंत्र सकते में आ गया था। तब जा कर इस बात का खुलासा हुआ कि दरगाह इलाके की ही तरह किशनगढ़ की मार्बलमंडी में भी देशभर से लोगों की आवाजाही के कारण संदिग्ध लोग आसानी से घुसपैठ कर जाते हैं। इसी प्रकार दरगाह इलाके में पाक जासूस मुनीर अहमद और सलीम काफी दिन तक रह कर अपनी गतिविधियां संचालित कीं, लेकिन खुफिया तंत्र तो भनक तक नहीं लगी। शब्बीर की निशानदेही पर हैदराबाद में पकड़े गए मुजीब अहमद के तार आईएसआई से जुड़े होने के पुख्ता प्रमाण मिले।
अपराधियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे जेल से ही आपनी गेंगों का संचालन कर रहे हैं। इस सिलसिले में अनेक बार मोबाइल सहित अन्य आपत्तिजनक चीजें भी बरामद हो चुकी हैं।
खुफिया पुलिस बीच-बीच में आसानी से आ-जा रहे बांग्लादेशी घुसपैठियों को पकड़ कर भले ही अपनी पीठ थपथपाती रही है, मगर वह इसके लायक नहीं, यह तब साबित हो गया, जब मुंबई बम ब्लास्ट का मास्टर माइंड हेडली पुष्कर हो कर चला गया। तब ही इशारा हो गया था कि पुष्कर में स्थित इजरायलियों का धर्म स्थल बेद खबाद आतंकियों के निशाने पर है। इसी प्रकार ब्रह्मा मंदिर को खतरे की सूचनाएं भी समय समय पर मिलती रही हैं। हाल ही दो पाकिस्तानियों के पुष्कर में आ कर लौट जाने व पुलिस तंत्र को इसकी जानकारी बाद में मिलने से अंदाजा लगाया जा सकता है, यह अति संवेदनशील शहर आज बारूद के ढ़ेर पर बैठा है और पुलिस तंत्र नीरो की तरह चैन की बंसी बजा रहा है।
-तेजवानी गिरधर

अब जा कर चेते, की बैलों की सार-संभाल

देर आयद, दुरुस्त आयद। देर से ही सही अजमेर की सामाजिक व धार्मिक संस्थाओं ने रेलवे स्टेशन से पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैलों को ऋषि उद्यान गोशाला में चारे-पानी और अन्य भोजन की व्यवस्था के लिए हाथ आगे बढ़ाए हैं। बेशक यह मीडिया का ही प्रयास है कि सामाजिक संगठनों के साथ बैलों को छुड़ाने वाले हिंदूवादी संगठनों के कार्यकर्ताओं को भी लगा कि केवल पशुओं को कत्लखाने जाने से रोकने अथवा छुड़वाना ही पर्याप्त नहीं है। उनकी सार संभाल भी की जानी चाहिए। सरकार की तो जिम्मेदारी है ही, मगर ऐसे काम में जनसहभागिता भी होनी ही चाहिए।
यहां ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैल ऋषि उद्यान गोशाला के लिए बोझ बन गए तो गोशाला संचालक यतीन्द्र शास्त्री ने मुंह खोला। उधर जीआरपी सुपुर्दगीनामे पर बैलों को सुपुर्द करने के बाद उनकी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं थी। यह खबर जब दैनिक भास्कर व राजस्थान पत्रिका में छपी तो हलचल हुई। प्रशासन भी जागा तो सामाजिक संगठनों को भी ख्याल आया। अपुन ने भी इस कॉलम में सवाल उठाया कि क्या पशुओं को छुड़वा देने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? जिन्होंने धर्म के नाम पर बैलों को कत्लखाने जाने से रोक कर वाहवाही ली, उन्होंने पलट कर यह भी नहीं देखा कि उन बैलों का क्या हुआ और बैल शास्त्री के गले पड़ गए। यदि ऐसा होता रहा तो भविष्य में कोई काहे को इस प्रकार सुपुर्दगी लेगा? गाय-बैलों को मुक्त करवाने वाले धर्म और नैतिकता के नाते उनके चारे-पानी की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेते? जब धर्म के नाम पर अन्य कार्यों पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च होते हैं तो जानवरों की परवरिश क्यों नहीं की जाती? इस खबर पर एक फेसबुक मित्र को बहुत बुरा लगा कि हम तो रातें जाग कर पशुओं को बचाते हैं और आप घर बैठ कर रजाई में घुसे हुए सवाल उठा देते हैं। उन्हें अपुन ने यही जवाब दिया कि महाशय जिस प्रकार हिंदूवादी संगठन पशुओं को बचाने का काम करते हैं, ठीक इसी तरह मीडिया भी उनकी सार संभाल के लिए जनता व सरकार को जगाने का काम करती है। खैर, अब मीडिया की मुहिम रंग लाई है। जैन मिलन, अजमेर माहेश्वरी प्रगति संस्था और पार्षद ज्ञान सारस्वत के प्रयासों से चारे और गुड़ की व्यवस्था की गई है। बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना के कार्यकर्ता भी बैलों की मदद के लिए पहुंचे। कुल मिला कर यह सुखद बात है कि अजमेर की संस्थाओं में सेवा का भाव है, बशर्ते कि उन्हें पता लगे कि कहां सेवा करने की जरूरत है। अंत भला, सो भला।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 16 दिसंबर 2012

महान सूफी संत के दर से फूटा आक्रोश


पांच साल पहले हुए समझौता एक्सप्रेस बम ब्लास्ट के आरोपी दशरथ सिंह को एनआईए और दिल्ली-नागदा पुलिस द्वारा गिरफ्तार किए जाने के बाद जो प्रतिक्रिया पूरे विश्व में सांप्रदायिक सौहार्द्र की मिसाल महान सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की दरगाह के दर से आई, वह अजमेरवासियों के लिए चिंता का विषय है। ज्ञातव्य है कि अंजुमन सैयद जादगान के पूर्व अध्यक्ष सैयद गुलाम किबरिया चिश्ती व पूर्व सचिव सैयद सरवर चिश्ती ने दशरथ को कड़ी से कड़ी सजा दिए जाने की मांग करते हुए दरगाह शरीफ के गेट पर जोरदार प्रदर्शन किया। अगर दशरथ दोषी है तो उसे वही सजा मिलेगी, जो कि कानून के मुताबिक संबंधित न्यायालय देगा और देना भी चाहिए, मगर जिस प्रकार उसकी तुलना कसाब प्रकरण से की गई और बेहद तल्ख भाषा का इस्तेमाल किया गया, वह अजमेर के शांत माहौल के लिए कत्तई ठीक नहीं माना जा सकता।
यूं इन दोनों खादिम नेताओं की ओर से निजी तौर पर की गई प्रतिक्रिया को अंजुमन या पूरी खादिम कौम की प्रतिक्रिया नहीं माना जा सकता, मगर जिस प्रकार सार्वजनिक रूप से गरमागरम बयानबाजी हुई, उसे अगर दरगाह शरीफ के पाक और कदीमी मुकाम से जोड़ कर देखा जाए तो वह काफी गंभीर है। बेशक दरगाह शरीफ सभी धर्मावलंबियों की आस्था का केन्द्र है और उस पर अगर हमला किया जाता है तो वह सभी की आस्था पर हमला है, अकेले किसी एक जमात पर नहीं। अगर ऐसा होता तो अकेली एक ही जमात यहां सुकून पाने को आती। दरगाह में पूर्व में हुए बम विस्फोट पर सभी जमातों को उतना ही गुस्सा आया, जितना एक जमात को आया। किसी भी जमात ने उसकी तरफदारी नहीं की। अगर चंद लोग उस हमले के पीछे थे, जो कि साबित होना बाकी है, तो उन्हें पूरी कौम या संगठन से जोड़ कर नहीं देखा जा सकता। जनाब किबरिया साहब ने जरूर कुछ संयत भाषा का इस्तेमाल किया, मगर जनाब सरवर साहब तो भावावेश में आ गए। उन्होंने साफ तौर पर बम विस्फोट करने की मंशा रखने वाले तत्वों को चुनौती दे कर उन्हें उत्तेजित करने का ही काम किया है। उनकी भावना को समझा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है, मगर जिन शब्दों का इस्तेमाल उन्होंने किया, जिन्हें कि यहां लिखना उचित नहीं है, वे कम से कम उन जैसे जिम्मेदार शख्स को शोभा नहीं देते।
उल्लेखनीय है कि करीब एक माह पहले भी उन्होंने एक विवादास्पद बयान दिया था, जिस पर मंगलूर शहर की पांडेश्वर पुलिस ने मामला दर्ज किया। उन्होंने कहा था कि नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बन गए तो कोई ताज्जुब नहीं कि सारे मुसलमान आतंकवादी बन जाएं। गत दो नवंबर को पॉपूलर फ्रंट ऑफ इंडिया की सार्वजनिक बैठक में दिए गए इस बयान पर वहां के नागरिक सुनील कुमार ने शिकायत दर्ज करवाई है कि यह भड़काऊ भाषण लोंगों को दंगे उकसाने प्रयास है। तब भी चिश्ती को निजी तौर पर जानने वालों को अचरज हुआ था कि एक प्रगतिशील खादिम और खादिमों में नई सोच लाने की की कोशिश करने वाला ऐसा कैसे कह सकता है। वैसे कुछ लोगों का मानना है कि वे अंजुमन पर दुबारा काबिज होने के लिए इस प्रकार की बयानबाजी कर रहे हैं।
-तेजवानी गिरधर

जनाब सरवर चिश्ती के पूर्व प्रकरण से संबंधित न्यूज आइटम पढऩे के लिए यहां क्लिक कीजिए:-
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अजमेर की आशा ने पाया चंडीगढ़ में सम्मान


अजमेर की आशा मनवानी को भले ही अजमेर की जनता ने न ठीक से पहचाना हो और न ही कभी कोई सम्मान दिया हो, मगर उनकी बिंदास पर्सनल्टी की महक चंडीगढ़ पहुंच गई और उन्हें वहां नीरजा भनोट अवार्ड से नवाजा गया है।
जरा अपनी स्मृति में टटोलिए। ये आशा मनवानी वही महिला हैं, जो अमूमन अजमेर में महिलाओं के लिए काम करने वाली स्वयंसेवी स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यक्रमों में नजर आती रही हैं। इकहरे बदल व नाटे कद की इस महिला को समाजसेवा के क्षेत्र में काम करने वाले लोग उन्हें भलीभांति पहचानते हैं। महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ लडऩे वाले यह लड़ाकू महिला दिखने में तो सामान्य सी लगती है, इसी कारण उनके व्यक्तित्व पर किसी ने गौर नहीं किया। मगर इस महिला की प्रतिभा को चंडीगढ़ में न केवल पहचाना गया, अपितु नवाजा भी गया।
चंडीगढ़ के यूटी गेस्ट हाउस में उनको  नीरजा भनोट अवार्ड से सम्मानित किया गया है। उन्हें यह अवार्ड पूर्व थलसेना अध्यक्ष रिटायर्ड जनरल वी पी मलिक के हाथों दिलवाया गया। उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो कर दैनिक भास्कर के सिटी लाइफ ने उनका विशेष कवरेज दिया है। आइये, देखते हैं कि उसमें क्या लिखा है:-
पत्नी को सताने वाले को थप्पड़ मारने से नहीं कतराती ये महिला
चंडीगढ़। अजमेर में लोग इन्हें लड़ाकू के नाम से जानते हैं। हो भी क्यों न। पत्नी को सताने वाले हर पति को यह थप्पड़ मारने से कभी भी नहीं कतरातीं। जरूरत पड़े तो पुलिस की तरह भी पेश आती हैं। यह हैं अजमेर की 55 वर्षीय आशा मनवानी। आशा ने सिटी लाइफ से शेयर किया लड़ाकू बनने का सफर।
किसी ने सच ही कहा कि हालात इंसान को मजबूत बना देते हैं। आशा के साथ भी ऐसा ही हुआ। वह मजबूत बनीं। खुद के लिए भी और अपने जैसी दूसरी औरतों के लिए भी। इसके पीछे उनकी जिंदगी की दर्दनाक दास्तान है। आशा ने बताया कि छोटे कद के कारण उनके पति ने उन्हें शादी के बाद से कोसना शुरू किया। उन्हें अलसर की बीमारी हुई तो उन्हें इलाज के लिए माइके जाने को कहा और पीछे से दूसरी शादी कर ली। इस लाचार बेटी का साथ माइके वालों ने भी दिया। पर आशा ने हार नहीं मानी और हालातों के साथ लड़ती चली गईं। एक फैक्ट्री में काम मिला तो खुद का और बच्चों का गुजारा किया।
हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, हमारी कश्ती वहां डूबी, जहां पानी कम था। यह कहावत बोलने के बाद आशा ने दो किस्से सुनाए, जिन्हें सुन कर किसी की आंख में भी आंसू आ जाएं। आशा ने बताया कि फैमिली कोर्ट के आदेश के बावजूद उनके व्यापारी पति ने मुआवजा नहीं दिया। फैसला हुआ भी तो मुआवजे के रूप में उन्हें महीने के मात्र 1000 रुपये मिलते थे, जो बढ़ कर अब 2200 हो गए हैं। यह राशि भी उन्हें कोर्ट के कई चक्कर लगाने के बाद मिलती हैं। अपनी 32 साल की बेटी की शादी के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। दहेज न देना भी बेटी की शादी न होने का कारण है। इस पर आशा ने कहा कि बुजुर्गों और रीति-रिवाजों के नाम पर आज भी लड़की के पेरेंट्स से ससुराल वाले बहुत कुछ वसूलते हैं। इसलिए बेटी की शादी में पेरेंट्स को सिर्फ बेटी के नाम की एफडी, गोल्ड और प्लॉट देना चाहिए ताकि जरूरत के समय पर वह किसी की मोहताज न हों। दूसरा किस्सा सुनाते हुए आशा ने कहा कि पाई-पाई जोड़ कर जो मकान बनाया, उसकी रजिस्ट्री भी भाईयों ने धोखे से अपने नाम करा ली। मगर अवॉर्ड में मिलने वाले डेढ़ लाख रुपये पाकर वह बेहद खुश हैं।
सब कानून मालूम हैं
मनवानी छठी क्लास तक पढ़ी हैं, मगर अब सभी कानूनी कार्यवाइयों से भलीभांति अवगत हो चुकी हंै । वे असहाय महिलाओं की मदद करती हैं। महिलाओं को स्त्रीधन, कोर्ट के बाहर परिवारों को मिलाने, महिलाओं को तलाक ओर महिलाओं व उनके बच्चों को आश्रय दिलाने में मदद की है। फैमली कोर्ट अब कई मामलों में उनकी मदद लेता है। आशा महिलाओं के अधिकारों के लिए लडने वाली लक्षता महिला संस्थान की सचिव हैं।

क्या केवल पशुओं को छुड़ाने की जिम्मेदारी है?


गायों व अन्य पशुओं को कत्लखाने से जाने से रोकना बेशक महान काम है, मगर सवाल ये है कि क्या पशुओं को छुड़वा देने से ही कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है? यह सवाल इस कारण उठा है और मौजूं है कि रेलवे स्टेशन से पिछले दिनों झारखंड के लिए ले जाते छुड़ाए गए 64 बैल ऋषि उद्यान गोशाला के लिए बोझ बन गए। जीआरपी ने बैलों को मुक्त कराने के बाद ऋषि उद्यान गोशाला को सौंपा था, लेकिन गोशाला संचालकों के लिए बैलों की देखरेख और खर्च वहन करना भारी पड़ गया।
गोरक्षा दल के अध्यक्ष और ऋषि उद्यान गोशाला के संचालक यतीन्द्र शास्त्री का कहना है कि रेलवे पुलिस और जिला प्रशासन के अधिकारियों ने जब्त किए गए बैलों को यह कहते हुए दो दिन के लिए उन्हें सौंपा था कि दो दिन बाद इनकी व्यवस्था कर दी जाएगी, लेकिन पुलिस जांच अभी तक पूरी नहीं हुई है। नतीजतन बैलों को रखना उन पर भारी पड़ रहा है। बैलों पर प्रतिदिन 8 से 10 हजार रुपए का खर्च किया जा रहा है। उनका कहना है कि रेलवे पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर बैलों को जब्त किया था। इसलिए इनके रखरखाव की जिम्मेदारी भी पुलिस की है। दूसरी ओर रेलवे पुलिस का तर्क है कि बैलों को गोशाला संचालकों के सहमति से ही सुपुर्दगीनामे पर सौंपे जाने पर सुपुर्दगी लेने वाले पर ही इनकी देखरेख की जिम्मेदारी है। इसका मतलब तो ये हुआ कि शास्त्री ने चाहे इंसानियत के नाते, चाहे वाहवाही के लिए, अनजाने में बैलों की सुपुर्दगी ले ली, मगर वह उनके गले पड़ गई।

खैर, जब इसका कोई हल नहीं निकला तो गोशाला संचालकों की मांग पर जिला प्रशासन को बैलों को पीसांगन और अन्य दूसरी गोशाला में शिफ्ट करने के आदेश जारी करने पड़े। ऐसे में बैलों को अन्य गोशालाओं तक पहुंचाने के खर्च का सवाल भी खड़ा हो गया है।
पर अहम सवाल ये है कि वे लोग, जिन्होंने धर्म के नाम पर बैलों को कत्लखाने जाने से रोक कर वाहवाही ली, उन्होंने पलट कर यह भी नहीं देखा कि उन बैलों का क्या हुआ और बैल शास्त्री के गले पड़ गए। यदि ऐसा होता रहा तो भविष्य में कोई काहे को इस प्रकार सुपुर्दगी लेगा?
बेशक कानूनन इस प्रकार छुड़वाए गए पशुओं की जिम्मेदारी प्रशासन और सरकार की ही है, मगर मुद्दा ये है कि गाय-बैलों को मुक्त करवाने वाले धर्म और नैतिकता के नाते उनके चारे-पानी की जिम्मेदारी क्यों नहीं लेते? जब धर्म के नाम पर अन्य कार्यों पर लाखों-करोड़ों रुपए खर्च होते हैं तो जानवरों की परवरिश क्यों नहीं की जाती?
-तेजवानी गिरधर

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

यानि कि एलीवेटेड रोड तो गया खड्डे में

एलीवेटेड रोड का काल्पनिक चित्र

अजमेर की प्रभारी मंत्री श्रीमती बीना काक ने जिस सख्ती से दो टूक शब्दों में प्रशासन को चेताया है कि वह एलीवेटेड बनाने के चक्कर में किसी भी सूरत में अजमेर के ऐतिहासिक भवनों की खूबसूरती को नष्ट नहीं होने दे, लगता है कि अजमेर की सर्वाधिक महत्वपूर्ण मांग खड्डे में चली जाएगी।
एक ओर उन्होंने कहा कि शहर की यातायात व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी सरकार की नहीं, बल्कि स्थानीय प्रशासन व बुद्धिजीवियों की है तो दूसरी ओर जिस शहर में उनको रहना नहीं है, उसके बारे में प्रशासन को चेता कर एलीवेटेड रोड के सपने की भ्रूण हत्या करने पर तुली हुई हैं। तर्क उनका ये है कि अगर रेलवे स्टेशन के आगे से होते हुए एलीवेटेड रोड बनाया जाता है तो अजमेर की खूबसूरती नष्ट होगी, मगर धरातल का सच ये है कि यही रेलवे स्टेशन आज यातायात व्यवस्था की दृष्टि से कोढ़ में खाज पैदा कर रहा है।
 उन्होंने सुझाव दिया है कि यातायात व्यवस्था बेहतर बनाने के लिए एक कमेटी का गठन किया जाना चाहिए, जो कि आपसी तालमेल के साथ अच्छे निर्णय ले सके, मगर सवाल ये है कि आखिर कब इस प्रकार की कमेटियां गठित करते रहेंगे और संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता में गठित कमेटी की सिफारिशों व निर्णयों पर कौन सा ठीक से अमल हो पाया है। यानि कि कमेटी दर कमेटी गठित करते जाओ और अजमेर की जनता को बेवकूफ बनाते रहो।
यह बेहद अफसोसनाक बात है कि एक ओर जनता की मांग पर सरकार ने पुराने आरपीएससी भवन से मार्टिंडल ब्रिज तक एलीवेटेड रोड की संभावना को तलाशने के लिए नगर सुधार न्यास से कंसल्टेंट नियुक्त करने को कहा है तो दूसरी ओर बीना काक ने बिना मांगे खुद ही कंसल्टेंसी दे दी है। सवाल ये है कि जब मंत्री महोदया ने ही निर्णय सुना दिया है तो फिर न्यास को कंसल्टेंट नियुक्त करने की कवायद करने की जरूरत क्या है? हां, अगर कंसल्टेंट सर्वे करने के बाद नेगेटिव रिपोर्ट देता तो बात समझ में आती, मगर श्रीमती काक ने प्रभारी मंत्री होने के नाते अपने अधिकारों का बेजा इस्तेमाल कर जो हिदायत दी है, वह किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। जाहिर सी बात है कि यदि प्रभारी मंत्री ही एलीवेटेड रोड के खिलाफ हैं तो कंसल्टेंट पर भी उसका दबाव रहेगा ही।
श्रीमती बीना काक

आपको याद होगा कि एलीवेटेड रोड की जरूरत पिछले काफी समय से महसूस की जाती रही है। पिछले दो साल से तो इस मांग ने काफी जोर भी पकड़ लिया था। विभिन्न समाचार पत्रों के समय-समय पर इस मुद्दे को उठाने के साथ जनजागरण व सरकार पर दबाव के लिए दैनिक नवज्योति ने तो बाकायदा अभियान ही छेड़ दिया था। अजमेर उत्तर ब्लाक-बी कांग्रेस कमेटी के सचिव व जागरूक युवा लेखक व ब्लॉगर साकेत गर्ग ने तो इस अभियान को बल प्रदान करने के लिए फेसबुक पर एलीवेटेड रोड फोर अजमेर नामक पेज तक बनाया और उससे अनेक अजमेर वासियों को जोड़ा। अजमेर के इतिहास, वर्तमान व भविष्य पर दो वर्ष पहले प्रकाशित पुस्तक अजमेर एट ए ग्लांस के विजन अजमेर पार्ट में तो एलीवेटेड रोड का काल्पनिक चित्र तक प्रकाशित किया। अजमेर की बहबूदी के लिए काम कर रहे अजमेर फोरम ने भी इसके लिए गंभीर प्रयास किए हैं।
आखिरकार मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का इस अहम जरूरत पर ध्यान गया तो उनके निर्देश पर ही नगरीय विकास विभाग के प्रमुख शासन सचिव जी.एस. संधु ने दौरा कर न्यास अधिकारियों को रोड बनाने की संभावना तलाशने के निर्देश दिए। वर्षों से यातायात की विकट समस्या से जूझते अजमेर के लिए यह एक सुखद खबर थी। आशा की किरण नजर आने पर इसी कॉलम में अपुन ने जिक्र किया था कि अब जरूरत है नगर सुधार अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत सहित सभी राजनेताओं, सामाजिक संगठनों, पूरे प्रशासनिक अमले व मीडिया इसके लिए पूरा दबाव बनाए। साथ ही अजमेर वासी इसमें किसी प्रकार का रोड़ा न अटकाएं। तभी यह महत्वाकांक्षी योजना जल्द से जल्द पूरी हो सकती है। मगर बीना काक की मंशा से तो दिखता है कि एलीवेटेड रोड की प्रस्तावित योजना तो गई खड्डे में।
-तेजवानी गिरधर

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

बेटी हो तो अनिता भदेल जैसी

अजमेर शहर में यह आम चर्चा है कि एक साधारण से परिवार में जन्मी अजमेर दक्षिण की भाजपा विधायक श्रीमती अनिता भदेल ने न केवल राजनीति में ऊंचाई छू कर, अपितु बेटी हो कर भी पिता के लिए बेटे की भूमिका अदा कर अपना जीवन सफल कर लिया। उन्होंने अपनी तीन बहनों की एक साथ शादी करवा कर अपने पिता की जिम्मेदारी का बोझ उठाया, यह दीगर बात है कि दुर्भाग्य से उनके पिता ये शादियां देखने से दो दिन पहले ही इस फानी दुनिया से विदा हो गए।
ऐसे समय में जब कि तीन बहनों की शादी की तैयारियां चरम पर हों और यकायक पिता का साया उठ जाए तो वह कितना दुखद होता है, इस अहसास का बयां केवल श्रीमती भदेल ही कर सकती हैं। पिता अपनी बेटियों की शादी न देख पाए, यह पीड़ा भी कितनी हृदय विदारक होगी, इसकी महज कल्पना ही की जा सकती है। उन्होंने न केवल इस अत्यंत पीड़ादायक अहसास को दिल की गहराइयों में जज्ब कर लिया, अपितु पूरी हिम्मत के साथ जिम्मेदारी कर निर्वहन भी किया। कोई सगा भाई न होने के कारण बेटे के रूप में कंधा तक दे कर उन्होंने यह साबित कर दिया कि बेटी व बेटे में फर्क करने वाले मूढ़ व दकियानूसी हैं। जिसके सिर से दो दिन पहले ही पिता का हाथ उठ गया हो, वह बहनों की शादी में आए मेहमानों का मजबूरन चेहरे पर लाई गई मुस्कराहट से स्वागत करे, तो समझा जा सकता है वीरांगना झलकारी बाई की जमात में जन्मी श्रीमती भदेल भावावेग के किस झंझावात से गुजर रही होंगी। आशीर्वाद समारोह में आए मेहमानों के दिल भी इतने द्रवित थे कि वे अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते वक्त हल्की मुस्कान के साथ उनकी नम आंखों में झांकने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। पिता के देहावसान का दु:ख, बहनों की शादी करवाने की संतुष्टि और एक विधायक के रूप में सार्वजनिक जीवन की जिम्मेदारी के भावों को एक साथ अपने में समेटे हुए चेहरे की रेखाओं का ऐसा सामंजस्य देखना आसान था भी नहीं। ऐसे में हर एक के मुंह से बसबस यही निकल रहा था कि श्रीमती भदेल ने अपना जीवन सफल कर लिया। अगर ये कहें कि बेटा भले न हो, अनिता भदेल जैसी बेटी हो जाए, बहन हो जाए तो इससे बड़ा कोई सुख नहीं हो सकता, कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बेशक उनके दिवंगत पिता की आत्मा भी यही अहसास लिए हुए उनको स्वर्ग से आशीर्वाद दे रही होगी।
ज्ञातव्य है कि श्रीमती भदेल का नाम बिना किसी सशक्त राजनीतिक पृष्ठभूमि के केवल व्यक्तिगत योग्यता और सौभाग्य से राजनीति में सफलता के पायदान पार करने के रूप में लिया जाता है। अनुसूचित जाति के एक आम परिवार में जन्म लेने वाली इस महिला ने पहले पार्षद, फिर सभापति और फिर लगातार दो बार विधायक के पद पर पहुंच कर अपनी छाप छोड़ी है।
23 दिसम्बर 1972 को श्री रोहिताश्व भदेल के घर जन्मी श्रीमती भदेल ने बी.ए., बी.एड., एम.ए. समाज शास्त्र, एम.ए. इतिहास व एम.एड. की डिग्री हासिल की है। एक शिक्षक के रूप में अपना कैरियर शुरू करने वाली श्रीमती भदेल को प्रारंभ से ही समाज सेवा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में रुचि थी। उन्होंने कला अंकुर, उत्सव मंच, सुर शृंगार, लायंस क्लब इत्यादि से जुड़ कर अनेक गतिविधियों में भाग लिया। विशेष रूप से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की संस्था सेवा भारती से जुड़ कर बाल सेवा सदन व सिलाई केन्द्र का संचालन किया। उन्होंने अनाथों, असहायों के शैक्षिक व आर्थिक उन्नयन के लिए दस्तकारी आदि के प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित कर महिलाओं को रोजगार मुहैया करवाया। अनाथ बालक-बालिकाओं को समाज की मुख्य धारा में शामिल करने के लिए विशेष प्रयत्न किए। सन् 2002 के नगर परिषद चुनाव में पार्षद बन कर उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। उन्हें नगर परिषद सभापति के रूप में नगर की प्रथम नागरिक बनने का भी सौभाग्य मिला। सभापति का कार्यकाल पूरा हुआ भी नहीं था कि 2004 में भाजपा ने उनको विधानसभा चुनाव में अजमेर पूर्व से आजमाया भारी मतों से विजयी हुईं। उन्होंने विधायक रहते हुए शहर में एक सुरम्य पर्यटन स्थल विकसित करने के मकसद से झलकारी बाई स्मारक बनाने में अहम भूमिका अदा की। अपने सफल कार्यकाल की वजह से ही उन्हें पार्टी ने दुबारा मौका दिया और तेरहवीं विधानसभा के चुनाव में अजमेर दक्षिण क्षेत्र से भारी मतों से विजयी रहीं। और अब स्वाभाविक रूप से आगामी विधानसभा चुनाव में भाजपा टिकट की सर्वाधिक सशक्त दावेदार हैं। इस बार अगर वे जीतीं और सरकार भी भाजपा की बनी तो उनका मंत्री बनना तय है।
-तेजवानी गिरधर

रन तो बनाए, चौका-छक्का नहीं लगा पाए भगत

अपना एक साल का कार्यकाल पूरा होने पर नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शाहनी भगत ने दावा किया कि उन्होंने अजमेर में करोड़ों रुपए की लागत के विकास कार्य कराए हैं, मगर वे कोई बड़ी उपलब्धि नहीं गिनवा पाए। यानि कि उन्होंने न्यास के मैदान पर रन तो बनाए हैं, मगर उल्लेखनीय उपलब्धि के नाम पर चौके-छक्के नहीं लगा पाए।
इसमें कोई दोराय नहीं कि भगत के अध्यक्ष बनने के बाद लगभग सो रही न्यास जागी और रुके हुए काम व विकास को गति मिली है। जिन फाइलों पर धूल जमा हो गई थी, उन पर से धूल झाड़ कर उन्हें आगे की टेबिलों पर सरका कर अंजाम तक पहुंचाने में कामयाबी हासिल की है। एक साल पूरा होने पर उन्होंने विकास कार्यों की एक लंबी फहरिश्त गिनाई है, जो आंकड़ों के लिहाज से तो बड़ी सुहानी लगती है, मगर खुद अपने खाते में दर्ज एक भी बड़ी उपलब्धि नहीं गिनवा पाए। हां, पत्रकारों को उन्होंने जरूर खुश कर दिया है। ज्ञातव्य है कि कोटड़ा आवासीय योजना में स्थित पत्रकार कॉलोनी के मसले में कई पत्रकार लंबे अरसे से इस इंतजार में थे कि उनके प्लाट की लॉटरी निकाली जाए, मगर पूर्व कलैक्टर राजेश यादव व मंजू राजपाल ने जानबूझ कर उसे अटकाए रखा। हालांकि यादव ने रिलीव होने वाले दिन आवेदन पत्रों की छंटनी तो करवाई, मगर लॉटरी नहीं निकलवाई। छंटनी हुई तो विवाद भी हुए, नतीजतन मंजू राजपाल तो उन पर कुंडली मार कर ही बैठ गईं। उनकी जिद थी कि कम से कम उनके कार्यकाल में तो पत्रकारों को प्लॉट नहीं देंगी। जाहिर सी बात है कि जैसे ही भगत अध्यक्ष बने तो उन पर शुरू से ही दबाव बना और उन्होंने बड़ी चतुराई से उन प्लाटों का तो आबंटन कर ही दिया, जिन पर कोई विवाद नहीं था। कुल मिला कर भगत ने पत्रकारों को तो खुश कर ही दिया। इसका अहसास अखबारों के तेवर से लगाया जा सकता है।
भगत के लिए यह भी सुखद रहा कि उन्हीं के कार्यकाल के दौरान प्रशासन शहरों की ओर शिविर शुरू हुए है। हालांकि इसमें भगत की स्वयं की कोई उपलब्धि नहीं है, यह राज्य सरकार की योजना है, मगर जिन लोगों के नियमन हुए हैं, वे तो भगत को ही दुआ देंगे। मगर इसका एक नुकसान ये भी माना जा सकता है कि शिविरों की तैयारी व उनके क्रियान्वयन में न्यास अधिकारियों व कर्मचारियों के व्यस्त होने के कारण भगत खुद की सोच का कोई बड़ा काम हाथ में नहीं ले पाए हैं।
उनकी एक बड़ी उपलब्धि ये भी रही है कि काजल की कोठरी में रहते हुए फिलवक्त तक तो उन पर कोई दाग नहीं लगा है। तभी तो वे स्वयं यह कहने में सक्षम हो पाए कि भ्रष्टाचार का कोई भी व्यक्ति आरोप लगा सकता है, लेकिन साबित करना अलग बात है। न्यास के पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने भी न्यास में भ्रष्टाचार की बात तो खूब कही, मगर सीधा-सीधा भगत को निशाना करता एक भी बड़ा आरोप नहीं लगाया है। उन्होंने ये तो कहा कि वर्तमान अध्यक्ष के कार्यकाल में दलालों को लाभ पहुंचाने का काम किया जा रहा है, मगर गिनाया एक भी नहीं। हां, उनकी इस बात में जरूर दम है कि भगत कोई भी सकारात्मक एवं ठोस योजना शुरू नहीं कर पाए हैं। सच्चाई यही है कि जब तक भगत कोई बड़ी उपलब्धि दर्ज नहीं करवाएंगे, केवल सामान्य विकास कार्यों की बिना पर उन्हें उतने नंबर नहीं दिए जा पाएंगे, जितने कि जैन व पूर्व अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत को मिल चुके हैं। हां, अगर उन्होंने एलीवेटेड रोड पर ध्यान दिया और अपने कार्यकाल में उसका निर्माण शुरू भी करवा पाए तो यह एक बड़ी उपलब्धि हो सकती है, जिसे कि लोग वर्षों तक याद रखेंगे।
-तेजवानी गिरधर

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

भगत पर धर्मेश जैन के हमले के क्या हैं मायने?

एक ओर जहां अजमेर नगर सुधार न्यास के मौजूदा अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत ने अपने कार्यकाल का एक साल पूरा होने पर अपनी उपलब्धियों का बखान किया, वहीं पूर्व अध्यक्ष धर्मेश जैन ने भगत और सरकार पर जम कर निशाने साधे। जैन की ओर से आयोजित संवाददाता सम्मेलन में हालांकि शहर भाजपा का प्रतिनिधित्व करते हुए वरिष्ठ उपाध्यक्ष अरविंद यादव मौजूद थे, मगर इसका आयोजन विशुद्ध रूप से जैन ने ही किया था। जाहिर ऐसे में यह सवाल तो बनता ही है कि जैन की इस गतिविधि के मायने क्या हैं?
पूरे संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने जिस प्रकार अपने कार्यकाल का बखान किया और अधूरे कार्य मौजूदा न्यास अध्यक्ष भगत द्वारा आगे न बढ़ाने पर अफसोस जताया, उससे साफ नजर आया कि उन्हें इस बात की बड़ी पीड़ा है कि वे अपने सपनों का अजमेर नहीं बना पाए। काश फर्जी सीडी का प्रकरण सामने नहीं आता तो अपना कार्यकाल पूरा कर पाते और उन्होंने जो-जो विकास योजनाएं आरंभ कीं, वे पूरी करके पूर्व न्यास अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत की तरह ही इतिहास में अपना नाम दर्ज करवा पाते। ज्ञातव्य है कि एक फर्जी सीडी की वजह से जैन को इस्तीफा देना पड़ा, जिसकी जांच पर यह साफ हो गया कि किसी ने षड्यंत्रपूर्वक वह सीडी बनाई और जैन को क्लीन चिट मिल गई। उल्लेखनीय बात ये है कि यह क्लीन चिट कांग्रेस राज में आ कर मिली।
ऐसा नहीं है कि जैन कुछ कर ही नहीं पाए, उन्होंने अनेक उपलब्धियां हासिल कीं, मगर अधूरे कार्यकाल की वजह से उनका जो क्रेडिट मिलना चाहिए था, उस पर तो असर पड़ा ही है। जो मजा आना चाहिए था, वह नहीं आ पाया।
संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने जिस प्रकार बिंदुवार समस्याओं व विकास की संभावनाओं का जिक्र किया, उससे यह तो परिलक्षित हुआ ही कि न्यास के मामलों पर उनकी गहरी पकड़ है। इतनी ही पकड़ पूर्व अध्यक्ष औंकार सिंह लखावत को भी है, मगर उन्होंने अपनी ओर से प्रतिक्रिया देने की जरूरत नहीं समझी। असल में उन्हें प्रदेश की राजनीति से ही फुर्सत नहीं है। भाजपा के दो गुटों में कैसे तालमेल हो, किसका टिकट कटवाना है और किसे दिलाना है, वे अभी उसी में व्यस्त हैं। ऐसे में विपक्ष की भूमिका जैन ने निभाई, मगर उसमें उनका व्यक्तिगत एजेंडा ज्यादा नजर आया। और वो यह कि वे राजनीति में लगातार सक्रिय बने रहना चाहते हैं, ताकि फिर मौका मिले तो कुछ कर पाएं। यूं अजमेर उत्तर के टिकट दावेदारों में उनकी भी गिनती होती है, मगर वे स्वयं में लोकसभा चुनाव लडऩे का माद्दा रखने का अहसास पाले हुए हैं। यद्यपि वे स्वयं यही कहते हैं कि वे अपनी ओर से टिकट नहीं मांगेंगे, मगर समझा जाता है कि मौका आने पर हाथ-पैर जरूर मारेंगे। यूं अगर अगली सरकार भाजपा की हुई तो दुबारा न्यास अध्यक्ष बनने का उनका दावा कमजोर नहीं होगा।
जहां तक भगत के कार्यकाल पर टिप्पणी करने का सवाल है, उनकी इस बात में तो दम है ही कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक तो तीन साल बाद जा कर न्यास अध्यक्ष की नियुक्ति की और न्यासियों की नियुक्ति के मामले में चुप्पी साध गए। इससे पूर्व भी जब डॉ. श्रीगोपाल बाहेती को अध्यक्ष बनाया था, तब भी न्यासियों की नियुक्ति नहीं की थी। जाहिर सी बात है कि ऐसी स्थिति में जनप्रतिनिधियों की पूरी भागीदारी से शहर का जो विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पाता। जैन को ज्यादा तकलीफ ये है कि उन्होंने जो कार्य आरंभ किए, उनको कांग्रेस के कार्यकाल में ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। उनका आरोप है कि न्यास खजाने में आने वाला करोड़ों रुपये का राजस्व भूमि दलालों को उपकृत करने में जा रहा है। अगर ये सच है तो यह वाकई चिंताजनक है। जैन ने भगत को तो नकारा बताया ही, राज्य सरकार पर भी गंभीर आरोप लगाया कि भ्रष्टाचार करने की खातिर भू उपयोग परिवर्तन में राज्य एम्पावर्ड कमेटी का उपयोग किया जा रहा है।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 9 दिसंबर 2012

बेशर्मी बेपर्दा हो गई अजमेर वासियों की


एक ओर जहां डेरा सच्चा सौदा के सेवादारों ने अपने गुरू गुरमीत संत राम रहीम सिंह इंसा के आदेश पर शहर के कोने-कोने को एक ही दिन में साफ कर अजमेर के इतिहास में यादगार व प्रेरणास्पद पन्ना जोड़ दिया, वहीं दूसरी ओर कथित रूप से टायर्ड व रिटायर्ड लोगों के शहर अजमेर के शहवासियों की बेशर्मी भी बेपर्दा हो गई। एक ओर सेवादार शहर की गंदी नालियों में हाथ डाल कर कीचड़ व कचरा ऐसे निकाल रहे थे, जैसे कोई अपने घर की नाली को भी साफ न करे, तो दूसरी ओर कई लोग तमाशबीन बन कर उन्हें देखभर रहे थे। वाहनों से गुजर रहे लोग एक पल को रुक कर सेवा के जज्बे की मन ही मन तारीफ तो कर रहे थे, मगर किसी के मन में यह ख्याल न आया कि वे भी इस काम में अपनी थोड़ी सी हिस्सेदारी निभाए। बेशक हर एक की जुबान पर इन सेवादारों के जज्बे की तारीफ थी, मगर न तो अजमेर के किसी नागरिक ने इस महाअभियान में हाथ बंटाया और न ही इस प्रकार का प्रस्ताव रखा। कई लोग तो ऐसे थे जो सेवादारों को गंदगी वाले स्थान ऐसे बता रहे थे, मानों सरकार ने उनके यहां सफाई करने के लिए सफाई कर्मचारी भेजे हों। दैनिक भास्कर ने आमजन की इस मानसिकता को कुछ इन शब्दों में पिरोया है- यह सब कुछ वैसा ही था, जैसे हमारे घर आया परदेसी मेहमान हमारी आंखों के सामने हमारे रसोई घर से लेकर शौचालय तक को साफ करता रहे और हम उठ कर झूठे मुंह उसे यह तक न कहें, आप रहने दीजिए, हम कर लेंगे।
अजमेर के बेशर्म नागरिकों में सफाई के प्रति कितनी जागरूकता है, इसका इजहार फेसबुक पर एक मित्र नरेन्द्र सिंह शेखावत ने कुछ इस प्रकार किया है:-पटेल मेदान के सामने से एक बारात जा रही थी। बारातियों को नाश्ता दिया था। एक ओर सेवादार सड़क को साफ कर चुके थे तो दूसरी और सभी बारातियों ने प्लेटें सड़क पर ऐसे फैंक दी मानों किसी कूड़ेदान का इस्तेमाल कर रहे हों। कुछ सेवादार यह सब देख कर मायूस हो गए। इस पर पास ही खड़े मित्र ने पूछा, यह देख कर कैसा लगा, उन्होंने कहा बहुत बुरा लगा। मित्र ने कहा यह तो आपने केवल यहां पर ही देखा है, अगर आप पूरे शहर में जाकर देखोगे, जहां आपने सफाई की है तो वहां पर भी ऐसा ही मिलेगा। इस पर सेवादार बोले कि हम क्या करें सर, हम तो हमारे गुरू के आदेश का पालन करते हैं।
क्या आप इस तरह अपने घर की नाली भी साफ कर सकते हैं?
आम जनता को भीड़ की संज्ञा देकर नजरअंदाज भी कर दिया जाए, मगर नगर निगम की कार्यप्रणाली तो कत्तई माफ करने लायक नहीं है। सफाई के लिए डेरा सच्चा सौदा की ओर से जो सहयोग की अपेक्षा थी, उस पर निगम खरा नहीं उतरा। हाल यह है कि सेवादारों के अजमेर से कूच करने के बाद अनेक जगहों पर कचरा ढ़ेर के रूप में पड़ा है। नगर निगम प्रशासन की उदासीनता के चलते नालों में उतरे सेवादारों को बिना गम बूट और बिना फावड़ों के गीला कचरा निकालना पड़ा। कचरा परिवहन के लिए लगाये गये ट्रेक्टर भी नदारद रहे। मात्र एक दिन के लिए आए सेवादारों ने उस सच को भी उघाड़ कर रख दिया है कि नगर निगम के सात सौ स्थाई व बारह सौ अस्थाई सफाई कर्मचारियों की फौज से काम लेने का जिम्मा जिन लोगों पर है, वे कितने कर्तव्यपरायण हैं।
असल में होना यह चाहिए था कि जब डेरा सच्चा सौदा का प्रस्ताव आया था तो जिला प्रशासन व निगम मेयर कमल बाकोलिया का इस स्वर्णिम मौके का फायदा उठाते हुए सफाई महाअभियान में अजमेर के नागरिकों की भागीदारी का सुझाव देना चाहिए था। अगर ऐसा होता तो इसमें कोई शक नहीं है कि अजमेर की अनेक स्वयंसेवी संस्थाएं आगे बढ़ कर सहयोग देने को तैयार हो जातीं। अब जब कि सांप निकल गया है तो यह सांप पीटने के समान ही है कि ये नहीं हुआ, वो नहीं हुआ, मगर इसका अर्थ ये भी नहीं है कि अजमेर की पूरी जनता बिलकुल ही बेशर्म है। अच्छे नागरिक भी हैं, पढ़-लिखे समझदार भी हैं, मगर उन्हें दिशा देने की न तो प्रशासन को सूझी और न ही निगम को। सच तो ये है कि उन्होंने एक शानदार मौका गंवा दिया। राजनीतिक दल भी अपने आप को अलग किए रहे। भाजपा ने सेवादारों का आभार जरूरत जताया, मगर हाथ बंटाने की बात वहां भी नहीं उपजी। अगर इस अभियान में स्थानीय जनता की भागीदारी भी होती तो इससे उसमें भी जागृति आती। मगर, अफसोस कि किसी की इस पर नजर नहीं गई।
 ऐसा नहीं है कि अजमेर वासियों का ठंडा खून पहली बार उजागर हुआ है, इससे पहले भी इसका नजारा देखा जा चुका है। आपको याद होगा कि पूर्व जिला कलेक्टर मंजू राजपाल ने भी पहल करके सफाई अभियान की शुरुआत की थी, जिसका हश्र क्या हुआ, सब को पता है। देखिये यह चित्र, जो यह कड़वे सच से रूबरू करवा रहा है कि मंजू राजपाल तो झाडू हाथ में लेकर सफाई अभियान की शुुरुआत कर रही हैं, जबकि ऊपर दुकानदार हाथ पर हाथ धर कर बैठे हैं, जिन्हें इतनी भी शर्म नहीं कि अदब में नीचे उतर कर खड़े हो जाएं।

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-तेजवानी गिरधर, अजमेर

गुरुवार, 6 दिसंबर 2012

लो फिर मैदान में आ गए महेन्द्र चौधरी

अजमेर शहर युवक कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष महेन्द्र चौधरी लंबे समय की चुप्पी के बाद फिर सक्रिय हो गए हैं। हाल ही जब अखिल भारत किसान खेत मजदूर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष शमशेर सिंह सुरजेवाला अजमेर आए तो चौधरी को अजमेर का जिलाध्यक्ष नियुक्त कर गए। समझा जा सकता है कि जिस प्रकार सुरजेवाला का पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल के यहां उनके गुट के कांग्रेसियों बीच मजमा लगा, उसी दौरान चौधरी को नई जिम्मेदारी दे कर फिर से सक्रिय करने का निर्णय हुआ होगा। कहने की जरूरत नहीं है कि यह डॉ. जयपाल के वजूद बरकरार होने और फिर से ताल ठोकने का आगाज भी है। इसे यूं भी समझा जा सकता है कि डॉ. जयपाल ने अपने तरकश में फिर से तीर संजोने का काम शुरू कर दिया है। नियुक्ति की घोषणा संबंधी प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जिस प्रकार खुद डॉ. जयपाल व उनके समर्थक मौजूद थे, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि चौधरी की पुन: वापसी हल्के में नहीं ली जा सकती।
आपको याद होगा कि चौधरी युवक कांग्रेस के अब तक के सर्वाधिक सक्रिय अध्यक्षों में शुमार रहे हैं। उनके कार्यकाल के दौरान युवक कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कांग्रेस कार्यालय में जमावड़ा लगा ही रहता था। दुर्योग से कतिपय प्रकरणों की वजह से विवादित हुए, जिसकी वजह से उन्हें बैकफुट पर आना पड़ा। उनके ऊपर के तार इतने मजबूत थे कि अन्य दावेदारों की भरसक कोशिश के बाद भी उन्हें तभी हटाया जा सका, जब खुद उन्होंने चाहा। अब जब कि सारी बातें नैपथ्य में चली गई हैं, वे एक बार फिर से सक्रिय हो गए हैं। कहने की जरूरत नहीं है कि उनके पास कार्यकर्ताओं की कोई कमी नहीं है। अगर जज्बा रहा तो इस बैनर के तले ही फिर से अपना जलवा बिखेर सकते हैं। डॉ. जयपाल का आशीर्वाद तो है ही।
जानकारों को पता है कि जब वे शहर युवक कांग्रेस के अध्यक्ष बन कर आए थे तो उनका मकसद कांग्रेस के लिए कुछ करने के बाद विधानसभा चुनाव की जमीन तलाशना था। वे किशनगढ़ की जाट बहुल सीट सहित नागौर जिले की किसी सीट से भाग्य आजमाना चाहते थे। फिलहाल जबकि कांग्रेस की मुख्य धारा वाले पदों पर अन्य गुटों के लोग काबिज हैं, उन्होंने कांग्रेस के इस सहयोगी संगठन के जरिए ही अपने आपको फिर से तराशने का निर्णय किया है। यूं इस बैनर तले भी किसानों व ग्रामीणों के लिए काफी कुछ करने की गुंजाइश है। एकाध भी ढ़ंग का किसान सम्मेलन कर लिया तो फिर से लाइम लाइट में आ सकते हैं। बशर्ते कि इस बार पूरा ध्यान केवल अपने राजनीतिक कैरियर पर ही रखें।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 5 दिसंबर 2012

इंदिरा गांधी की मूर्ति से होगा मास्टर प्लान का उल्लंघन?


हालांकि संभागीय आयुक्त श्रीमती किरण सोनी गुप्ता की अध्यक्षता में गठित समिति ने पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी की मूर्ति मोइनिया इस्लामिया स्कूल के समीप इन्दिरा स्मारक स्थल पर लगाने के प्रस्ताव को स्वीकृत कर दिया है, लेकिन इसके साथ ही यह सवाल खड़ा हो गया है कि क्या इससे सन् 2005-2023 के मास्टर प्लान का उल्लंघन नहीं होगा? मास्टर प्लान के मुताबिक स्टेशन रोड 120 फीट चौड़ा होना चाहिए। सरकार व प्रशासन उसकी अनुपालना तो कर नहीं पा रहे, उलटा मूर्ति लगा कर भविष्य के लिए समस्या खड़ी कर रहे हैं। एक ओर तो सुप्रिम कोर्ट मार्गाधिकार की अनुपालना के लिए मंदिर इत्यादि तक को हटाने के निर्देश देता है तो दूसरी ओर स्मारक बनाने के लिए नियमों की अवहेलना की जा रही है। आश्चर्य तो इस बात है कि इस मूर्ति को लगाने वाला नगर सुधार न्यास स्वयं मास्टर प्लान का कस्टोडियन है, अगर वही मार्गाधिकार का उल्लंघन करता है तो आम आदमी से क्या अपेक्षा की जा सकती है? इसके अतिरिक्त नगर नियोजन विभाग व यातायात पुलिस की जिस प्रकार तुरत-फुरत में हरी झंडी मिली है, उससे से जाहिर है कि अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी करने वाले विभागों पर पूरा राजनीतिक दबाव रहा है।
धर्मेश जैन
इस सिलसिले में नगर सुधार न्यास के पूर्व सदर धर्मेश जैन का मानना है कि मौजूदा स्थान पर मूर्ति लगाने से मार्गाधिकार तो उल्लंघन तो होगा ही, यातायात भी प्रभावित होगा। उनका कहना है कि किसी महापुरुष का स्मारक बनाने पर भले ही ऐतराज नहीं किया जाना चाहिए, मगर इतना तो ध्यान रखा ही जाना चाहिए कि उससे आम जनता को कोई परेशानी न हो। जाहिर सी बात है कि मूर्ति लगने के बाद उसके सामने कार्यक्रम इत्यादि भी होंगे, ऐसे में यातायात बुरी तरह से प्रभावित होगा। इसके अतिरिक्त मेन रोड पर होने के कारण मूर्ति की सुरक्षा का भी सवाल खड़ा होगा। उनका सुझाव है कि कांग्रेस के जिम्मेदार नेताओं को मौजूदा की बजाय कोई और स्थान चुनना चाहिए। एक तरीका ये भी हो सकता है कि मार्गाधिकार कायम रखने के लिए मौजूदा जगह से कुछ और पीछे मूर्ति स्थापित की जाए।
नरेन शहाणी
बहरहाल, दूसरी ओर न्यास के मौजूदा सदर नरेन शहाणी भगत ने कांग्रेसियों के लिहाज से एक उपलब्धि हासिल की है। उन्होंने संभागीय आयुक्त के सभी संबंधित विभागों से दुबारा स्वीकृति लेने के निर्देश की पालना करवाने के लिए अधिशासी अभियंता अनूप टंडन को व्यक्तिगत रूप से विभागों के अधिकारियों से मिलने भेजा और स्वीकृतियां हासिल कीं। इसी के साथ संभागीय आयुक्त की अध्यक्षता वाली कमेटी ने मूर्ति लगाने को हरी झंडी दे दी है।
आइये, जरा आपको जरा पीछे ले चलें। आज भले ही इसका श्रेय भगत के खाते में दर्ज हो मगर असल में यह स्मारक केकड़ी के पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारिया की राजनीति में धमाकेदार शुरुआत का आगाज रही है। तकरीबन पच्चीस साल पहले जिन दिनों सिंगारिया कांग्रेस में सक्रिय हुए ही थे तो उन्होंने अपनी एंट्री धमाकेदार तरीके से करने के लिए स्टेशन रोड पर मोइनिया
बाबूलाल सिंगारिया
इस्लामिया स्कूल की दीवार पर इंदिरा गांधी के फोटो के साथ उनके लोकप्रिय बीस सूत्र का एक भित्ति चित्र लगवाया था। इस पर विवाद हुआ और बाद में विवाद तब ज्यादा बढ़ गया, जबकि उसके ऊपर कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ भी लगा दिया गया। बाद में जब टैम्पो स्टैंड के लिए स्कूल के मैदान की जमीन ली गई तो दीवार तोड़े जाने के सबब इसे हटाने की नौबत आ गई। मगर कांग्रेसी अड़ गए। उन दिनों सिंगारिया, पूर्व विधायक हाजी कयूम खान, महेन्द्र सिंह रलावता, महेश ओझा, कैलाश झालीवाल वाली सशक्त लॉबी ने इसे प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया था। बड़ी जद्दोजहद हुई। आखिर भित्ति चित्र वाली दीवार के हिस्से को छोड़ते हुए दोनों तरफ मार्ग निकालना पड़ा। बाद में पुराने भित्ति चित्र के ठीक पीछे नया भित्ति चित्र व्यवस्थित तरीके से बनवाया गया और तब से यह स्थान इंदिरा गांधी के स्मारक के रूप में स्थापित हो गया, जहां पर कांग्रेस का एक गुट जयंती व पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करने आया करता था।
यहां पर मूर्ति की स्थापना करने की बात तो बहुत बाद में आई। नगर सुधार न्यास ने वर्ष 2002 में मोइनिया इस्लामिया स्कूल के बाहर प्रतिमा लगाने के आवेदन किया था। इस पर संभागीय आयुक्त कार्यालय ने नगर सुधार न्यास को 16 अक्टूबर 2003, 6 जुलाई 2004, 6 सितंबर 2004, 7 अक्टूबर 2004 और फरवरी 2005 को पत्र लिखकर निगम की एनओसी पेश करने के निर्देश दिए थे, लेकिन प्रदेश में भाजपा का शासन होने की वजह से न्यास ने केवल 7 अप्रैल 2004 को पत्र लिखकर निगम से एनओसी देने का आग्रह कर इतिश्री कर ली। निगम में भाजपा का बोर्ड होने की वजह से मामला लटका रहा।
ज्ञातव्य है कि पिछले दिनों गांधी जयंती पर कांग्रेस की एक सभा में मूर्ति स्थापना के मुद्दे को मुख्य रूप से वरिष्ठ कांग्रेसी नेता प्रताप यादव ने उठाया था। इससे पहले भी वे अनेक बार इस मुद्दे पर राज्य सरकार से पत्र व्यवहार करते रहे हैं। उनका मुद्दा था कि जब केन्द्र व राज्य में कांग्रेस की सरकार है और नगर निगम में मेयर व न्यास में सदर कांग्रेस के हैं, तब भी क्या इंदिरा गांधी की प्रतिमा नियत स्थान पर लगने के इंतजार में न्यास में ही पड़ी रहेगी। इस हलचल का परिणाम ये रहा कि मेयर कमल बाकोलिया ने दस साल से लंबित मामले का निबटारा कर दिया। इसके बाद भगत ने भी त्वरित कार्यवाही करवाई।
-तेजवानी गिरधर

रविवार, 2 दिसंबर 2012

जयपाल का भला क्यों साथ देने लगे रलावता?

भगवंत विश्वविद्यालय के चेयरमेन अनिल सिंह द्वारा छात्रा के साथ की गई कथित छेड़छाड़ के मामले में युवक कांग्रेस के कार्यकर्ता भले ही इस बात से खफा हों कि शहर कांग्रेस ने उनके आंदोलन का साथ नहीं दिया, मगर असल बात ये है कि भला जिस मामले को पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल ने उठाया हो, उसमें भला शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता क्यों साथ देने लगे?
यह जगजाहिर है कि जब से शहर कांगे्रस अध्यक्ष की कुर्सी पर रलावता काबिज हुए हैं, डॉ. जयपाल का गुट स्थानीय संगठन की मुख्य धारा से अलग हो गया है। सच तो ये है कि उनके गुट ने मन से अब तक भी रलावता को अध्यक्ष के रूप में स्वीकार ही नहीं किया है। ऐसे में जब डॉ. जयपाल ने छात्रा का मुद्दा उठाया तो अपने दमखम पर। उन्होंने रलावता से सलाह मश्विरे की जरूरत ही नहीं समझी। इतना ही नहीं, उन्होंने इसके लिए कांग्रेस के बैनर का भी इस्तेमाल नहीं किया। शुरू से वे अपने दम की राजनीति करते आए हैं और उनके पास अपने समर्थकों की अच्छी खासी फौज है। बहरहाल, जब जयपाल ने अपने स्तर पर मुद्दा उठाया तो रलावता ने उस ओर झांका भी नहीं। उनके तर्क में दम भी है कि युवक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आंदोलन की उनसे इजाजत ही नहीं ली थी, तो भला वे क्यों साथ देते। मगर इसके साथ ही उनकी कमजोरी भी उजागर हो गई कि जिस संगठन के वे अध्यक्ष कहलाते हैं, उसके अग्रिम संगठन ही उनके कहने में नहीं हैं। होना तो यह चाहिए था, चूंकि मामला छात्रा से संबंधित था, इस कारण शहर अध्यक्ष की इजाजत से एनएसयूआई को आंदोलन के लिए आगे आती, मगर इस पर विचार ही नहीं किया गया।
जो कुछ भी हो, लेकिन जब आंदोलन शुरू हो ही गया था तो जाहिर तौर पर कांग्रेस के नाम का इस्तेमाल हो रहा था। यहां तक कि लाठीचार्ज में कांग्रेस कार्यकर्ता घायल भी हुए। भद्द तो कांग्रेस की ही पिटी। तब तो उन्हें अध्यक्ष होने के नाते मामले में आगे आना ही चाहिए था। मगर समस्या ये थी कि जयपाल के मामले में टांग कैसे अड़ाएं, सो तमाशबीन बने रहे। और यही वजह है कि युवक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में उनके प्रति रोष उत्पन्न हो गया है। जिस संगठन के नाम पर वे आंदोलन कर रहे थे, उसी के बड़े नेता चुपचाप देखते रहेंगे तो गुस्सा आना ही है। गुस्सा भी इतना कि उन्होंने न केवल स्थानीय किसी नेता की मदद की बजाय नसीराबाद विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर का साथ लिया, अपितु रलावता की शिकायत मुख्यमंत्री से करने का ऐलान कर दिया। इतना ही नहीं युवक कांग्रेस से इस्तीफे तक की चेतावनी दी दी। अब जब कि विधानसभा चुनाव को एक साल बाकी रह गया है, संगठन का यह बिखराव कांग्रेस के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

क्या है भगवंत विवि विवाद की सच्ची कहानी?


डा. जयपाल व उनके साथी
भगवंत विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रा से छेड़छाड़ के मामले में कांग्रेसी नेताओं को कठघरे में खड़ा कर के छात्रा के साथ विवि चेयरमेन अनिल सिंह के साथ की गई कथित छेड़छाड के मामले ने नया मोड़ ले लिया है। हालांकि पीडि़त छात्रा की शिकायत पर दर्ज मुकदमा अपनी जगह है और जाहिर तौर पर उसी के अनुरूप कार्यवाही होगी, मगर विवि प्रशासन ने जो पत्ता फैंका है, उससे यह साफ झलकता है कि वह सिंह व विवि के खिलाफ बन रहे मामले को डाइल्यूट करना चाहता है।
विवि कुलपति डॉ. वी. के. शर्मा ने बाकायदा प्रेस वार्ता आयोजित कर कहा कि पिछले दिनों कांग्रेस नेता व पूर्व विधायक डॉ.राजकुमार जयपाल, कुलदीप सिंह और फखरे मोइन आरोप लगाने वाली छात्रा के साथ आए थे। उन्होंने अधिकारियों पर छात्रा की फीस माफ करने के लिए दबाव डाला था। फीस माफ नहीं होने पर इस तरह की हरकत करते हुए झूठे मुकदमे में फंसाया जा रहा है। इतना ही नहीं उन्होंने जयपाल व सिंह के बीच किसी जमीन विवाद की ओर भी इशारा किया। यदि उनके बयान पर यकीन किया जाए तो लगता है कि निजी विवाद बढऩे के बाद सिंह के खिलाफ षड्यंत्र रचा गया।
उधर, पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल का बयान भी गौर करने के काबिल है कि वे छात्रा को लेकर भगवंत यूनिवर्सिटी गए थे। उन्होंने महज छात्रा की फीस माफ के लिए आग्रह किया था। किसी तरह का दबाव नहीं बनाया। मानवीयता के नाते उन्होंने छात्रा की मदद ही की है। उनके इस बयान से यह तो साफ हो ही गया कि छेड़छाड़ वाला प्रकरण अचानक सामने नहीं आया है। इससे पहले छात्रा को लेकर कोई न कोई बात हुई है। और यही वजह है कि दोनों मामले आपस में जुड़े हुए प्रतीत होते हैं। और इसी का विवि प्रशासन लाभ लेने की कोशिश कर रहा है। मगर संभव ये भी है कि दोनों प्रकरण अलग-अलग हों। वजह ये है कि कोई भी छात्रा केवल फीस माफ न करने अथवा उस पर विवाद होने पर छेड़छाड़ होने का आरोप लगा कर खुद को भी बदनाम करने की सीमा तक नहीं ले जाएगी। यह बात आसानी से गले उतरने वाली नहीं है कि वह जयपाल एंड कंपनी से इतनी प्रभावित थी कि फीस के मामले में मदद करने की एवज में उनके कहने पर वह षड्यंत्र में शामिल हो गई। जरूर दाल में कुछ काला है। इसकी पुष्टि इसी बात से होती है कि हॉस्टल की केयरटेकर वसुधा ने रविवार को अवकाश वाले दिन छात्रा को अनिल सिंह के आवास पर छोडना पुलिस जांच में स्वीकार कर लिया है। इसका उल्लेख फकरे मोईन ने भी किया है। इसके अतिरिक्त पुलिस जांच में कॉल डिटेल से भी घटना वाले दिन अनिल सिंह का अजमेर में होना साबित हो गया है। अर्थात ये तो पक्का है कि छात्रा अनिल सिंह के घर तो गई ही थी। उसके साथ क्या हुआ, यह जांच का विषय है।
कुल मिला कर विवि प्रशासन की ओर से यह कह कर कि जयपाल व सिंह के बीच विवाद था, इस कारण मामला इस रूप में आया है, संदेह उत्पन्न करता है। मान लिया कोई विवाद था, मगर छात्रा सिंह के घर क्यों गई? और उससे भी बड़ी बात ये है कि वह खुल कर सिंह पर आरोप भी लगा रही है। स्पष्ट है कि कानूनी रूप से मामला सिंह के विपरीत पड़ रहा है, भले ही उनके मातहत अधिकारी मामले को जयपाल से पूर्व के विवाद से जोड़ कर बताएं। रहा सवाल छात्रों का तो स्वाभाविक रूप से वे तो छात्रा के साथ हुई छेड़छाड़ को आंदोलित होने थे और उनका आंदोलित होना जायज है।
इस बीच अनिल सिंह के पक्ष में श्रीवीर तेजा महासभा के सामने आ जाने से मामला और गरमा गया है। महासभा के प्रदेश महासचिव श्रवणलाल चौधरी ने बताया कि सिंह को राजनीतिक षड्यंत्र के तहत फंसाया जा रहा है। कुछ राजनीतिक लोग गलत आरोप लगाकर निजी स्वार्थों को सिद्ध कर रहे हैं। इस नई घटना से यह तो पक्का है कि सिंह कोई छोटी मोटी चीज नहीं हैं। तभी तो कहीं दूर बैठे होने पर भी विवि प्रशासन व श्रीतेजा महासभा पूरी दृढ़ता के साथ भिड़ंत ले रहे हैं। सिंह के हाथ लंबे होने का संकेत इस बात से भी मिलता है कि मामला मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की जानकारी में आने बाद भी अब तक पुलिस की पकड़ से बाहर हैं। यानि कि जयपाल ने रोंग नंबर डायर कर लिया है। मानवता के नाते मदद करने की एवज में बैठे-ठाले विवाद का आरोप झेल बैठे। हां, इतना जरूर है कि सिंह चाहे जितनी बड़ी चीज हों, मगर फिलवक्त तो जयपाल से टक्कर लेने के कारण संकट में पड़ गए हैं।
-तेजवानी गिरधर

बुधवार, 28 नवंबर 2012

कुछ और दावेदारों के नाम भी आए सामने


भारती श्रीवास्तव
जैसे ही अजमेर जिले में विधानसभा चुनाव का टिकट हासिल करने के लिए सक्रिय नेताओं से संबंधित न्यूज आइटम इस कॉलम में प्रकाशित हुआ, कुछ छुपे रुस्तम भी सामने आ गए। जाहिर सी बात है कि समीक्षा रिपोर्ट में ऐसे दावेदारों के नाम नहीं आएंगे तो उनमें कसमसाहट तो होगी ही कि कॉलमिस्ट को उनके बारे में जानकारी कैसे नहीं मिली। ऐसे में वे खुद तो कुछ नहीं बोले, मगर उनके समर्थकों ने फोन करके बताया कि वे भी चुनावी टिकट की दावेदारी कर रहे हैं।
जानकारी ये है कि अजमेर उत्तर से मौजूदा भाजपा पार्षद भारती श्रीवास्तव भी दावेदारी करने के मूड में बताई जा रही हैं। उनकी गिनती सर्वाधिक सक्रिय पार्षदों में होती है। चाहे नगर निगम में कोई मसला हो या फिर अपने वार्ड का मामला, वे हर कहीं नजर आ ही जाती हैं। बिंदास स्वभाव के कारण वे जल्द की शहर के लिए सुपरिचित हो गई हैं। केसरगंज इलाके में उन्हें भाभीजी के नाम भी जाना जाता है। समझा जाता है कि निगम की राजनीति करते-करते उन्हें अजमेर की राजनीति भी पल्ले पडऩे लगी है।
बीना सिंगारियां
कुछ इसी प्रकार भाजपा पार्षद श्रीमती बीना सिंगारियां भी इस दिशा में सक्रिय हैं। उन्हें अजमेर दक्षिण में अपनी जाति के पर्याप्त वोट होने का गुमान है। वे भी अमूमन सक्रिय नजर आती हैं। भाजपा के हर धरने-प्रदर्शन में बढ़-चढ़ कर भाग लेती हैं। कदाचित उनका ये भी विचार हो कि यदि राजनीति में निपट कोरी रही अनिता भदेल पार्षद बनने के बाद सभापति और उसके बाद विधायक बन सकती हैं तो वे क्यों नहीं बन सकतीं।
जानकारी ये भी मिली है कि भाजपा की सर्वाधिक सक्रिय महिला नेत्रियों में शामिल वनिता जैमन का भी मन हो रहा है, पुष्कर से भाजपा का टिकट मांगने का।
वनिता जैमन
उनकी गिनती भाजपा में अच्छी पढ़ी-लिखी व संजीदा नेत्रियां में होती है। राजनीति के जानकार मानते हैं कि इन उभरती नेत्रियों को टिकट मिले न मिले, मगर दावेदारी से उनका कद तो बढ़ेगा ही। और कुछ नहीं तो जिसको भी टिकट मिलेगा, वह उनसे लाइजनिंग करके चलेगा। अभी दावेदारी करने पर भविष्य में कोई राजनीतिक पद भी हासिल हो सकता है।
पता ये भी लगा है आईएनजी लाइफ इंश्योरेंस कंपनी में ग्रुप सेल्स मैनेजर जनाब मुंसिफ अली भी पुष्कर विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय हैं। वे गांवों में आम लोगों की समस्याओं पर ध्यान दे रहे हैं और जरूरतमंदों की मदद भी कर रहे हैं।
मुंसिफ अली
उनकी जाति देशवाली के काफी वोट इस क्षेत्र में हैं। बताया जाता है उनके ताल्लुकात पुष्कर से ही भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार सलावत खां से हैं। समझा जाता है कि वे सलावत खां के डमी हो सकते हैं। अगर सलावत को बाहरी होने के कारण टिकट लेेने में कठिनाई आई तो वे मुंसिफ अली पर हाथ रख सकते हैं।
एक जानकारी ये भी आई है कि कांग्रेस पार्षद रश्मि हिंगोरानी का भी अजमेर उत्तर से टिकट की दावेदारी करने का मन हो सकता है। अपनी सक्रियता कायम रखने के लिए वे निगम के सभी कार्यक्रमों अतिरिक्त सिंधी समाज के हर कार्यक्रम में शरीक होती हैं।
ज्ञान सारस्वत
पिछले न्यूज आइटम में अरविंद केजरीवाल की नई पार्टी आप के बारे में कोई जिक्र न होने पर एक प्रबुद्ध पाठक ने सवाल किया उसके बारे में कुछ क्यों नहीं लिखा। असल में यह पार्टी अभी गठन के दौर से गुजर रही है। इस कारण अभी दावेदारों का ठीक-ठीक पता नहीं है। जाहिर है चुनाव नजदीक आने पर अन्य पार्टियों का टिकट न मिलने पर चुनाव लडऩे को आतुर कुछ दावेदार उभर कर आएंगे। कुछ किसी को निपटाने की खातिर ही आम आदमी पार्टी का टिकट लेने की कोशिश करेंगे। वैसे जानकारी है कि निर्दलीय पार्षद ज्ञान सारस्वत पर इस नई पार्टी की नजर है। उन्हें तो केजरीवाल से मिलने तक का न्यौता मिल चुका है। उनमें वे सब गुण हैं, जो कि इस पार्टी की प्राथमिकताओं में हैं। वे साफ सुथरी छवि के हैं और पकड़ भी अच्छी है। उनके पास कार्यकर्ताओं की भी फौज है। देखने वाली बात ये होगी कि मूलत: भाजपा विधारधारा वाले इस नेता का मन डौलता है या नहीं। कोई आश्चर्य नहीं कि नए दल की अजमेर प्रभारी श्रीमती कीर्ति पाठक पर भी ऐन वक्त पर पार्टी का दबाव बने कि वे चुनाव मैदान में उतरें।
बहरहाल, जैसे ही और दावेदारों की जानकारी मिलेगी, आपके साथ जरूर शेयर की जाएगी।
-तेजवानी गिरधर

शनिवार, 24 नवंबर 2012

मालिश कर रहे हैं चुनावी टिकट के दावेदार


बेशक राजस्थान विधानसभा चुनाव में करीब एक साल बाकी है, बावजूद इसके अजमेर जिले में चुनावी टिकट की दावेदारों ने दंगल में उतरने की खातिर मालिश शुरू कर दी है। जिन को टिकट की ज्यादा ही उम्मीद है, वे तो जमीन पर भी तैयारी कर रहे हैं, जब कि तीर में तुक्का लगने की उम्मीद में कुछ कुछ दावेदारों ने अजमेर से जयपुर व दिल्ली तक तार जोडऩे की कवायद शुरू कर दी है।
आइये, सबसे पहले बात करते हैं अजमेर उत्तर सीट की। यहां से लगातार दो बार जीते पूर्व शिक्षा राज्य मंत्री प्रो. वासुदेव देवनानी अपना टिकट पक्का मान कर अभी से चुनावी रण की बिसात बिछाने में व्यस्त हैं। दूसरी ओर देवनानी से नाराज भाजपा का एक बड़ा धड़ा शहर जिला भाजपा के प्रचार मंत्री व स्वामी समूह के एमडी कंवल प्रकाश किशनानी का समर्थन करता दिखाई दे रहा है। सिंधी दावेदारों में वरिष्ठ भाजपा नेता तुलसी सोनी, भामसं नेता महेन्द्र तीर्थानी, संघ पृष्ठभूमि निरंजन आदि के नाम गाहे बगाहे चर्चा में उठ रहे हैं। गैर सिंधी दावेदारों में नगर परिषद के पूर्व सभापति सुरेन्द्र सिंह शेखावत की दावेदारी काफी मजबूत मानी जा रही है। उनके बारे में तो चर्चा यहां तक है कि अगर पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो निर्दलीय ही मैदान में उतर जाएंगे। यूं दावेदारी करने को तो ऐन वक्त पर पूर्व न्यास अध्यक्ष धर्मेश जैन, पूर्व मेयर धर्मेन्द्र गहलोत, पूर्व शहर जिला भाजपा अध्यक्ष शिवशंकर हेड़ा व पूर्णाशंकर दशोरा भी आगे आ सकते हैं।
रहा सवाल कांग्रेस का तो नगर सुधार न्यास के अध्यक्ष नरेन शहाणी भगत को मुख्य दावेदार माना जाता है, मगर उभरते कांग्रेस नेता नरेश राघानी व कर्मचारी नेता हरीश हिंगोरानी भी दावेदारी के प्रति गंभीर नजर आते हैं। विशेष परिस्थिति में पूर्व वरिष्ठ आईएएस एम. डी. कोरानी के पुत्र शशांक कोरानी भी मैदान में आ सकते हैं। वे केन्द्रीय मंत्री सचिन पायलट के दोस्त भी हैं। गैर सिंधीवाद के नाते पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती ने फिर से तैयारी शुरू कर दी है। वे पिछली बार कुछ खास अंतर से नहीं हारे थे, इस कारण मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के दम पर दावा ठोक सकते हैं। इसी प्रकार शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता की दावेदारी कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह से संबंधों के कारण गंभीर मानी जाती है। पिछली बार चुनाव मैदान से हटे शहर कांग्रेस के पूर्व उपाध्यक्ष डॉ. सुरेश गर्ग फिर दावेदारी कर सकते हैं।
अजमेर दक्षिण की बात करते तो लगातार दो बार जीतीं श्रीमती अनिता भदेल का दावा सबसे मजबूत माना जाता है। उसकी वजह ये है कि एक तो वे मौजूदा विधायक हैं, दूसरा भाजपा के पास पूरे जिले में फिलहाल कोई मजबूत महिला दावेदार नजर नहीं आ रही। यूं भाजपा का एक बड़ा गुट उनके साथ है, मगर नगर निगम चुनाव में महापौर का चुनाव लड़ चुके डॉ. प्रियशील हाड़ा दावा ठोकने की तैयारी में हैं। एक सरकारी डॉक्टर की भी चर्चा है। संभव है पूर्व राज्य मंत्री श्रीकिशन सोनगरा भी कोशिश करें। कांग्रेस में इस बार पूर्व उप मंत्री ललित भाटी का दावा मजबूत माना जा रहा है। वे सचिन पायलट खेमे में शामिल हैं व शहर कांग्रेस अध्यक्ष महेन्द्र सिंह रलावता से ठीक ट्यूनिंग है। भाटी के धुर विरोधी पूर्व विधायक डॉ. राजकुमार जयपाल भी दावेदारी तो कर सकते हैं, मगर समझा जाता है केन्द्रीय कंपनी मामलात राज्यमंत्री सचिन पायलट उनकी राह में रोड़ा अटकाएंगे। केकड़ी के पूर्व विधायक बाबूलाल सिंगारियां भी अंदर ही अंदर तैयारी कर रहे हैं। हर बार की तरह वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रताप यादव भी दावा करने से नहीं चूकेंगे। ऐन वक्त पर पार्षद विजय नागौरा भी दावेदारी ठोक सकते हैं।
तीर्थराज पुष्कर की अगर बात करें तो वहां मूल दावा युवा भाजपा नेता व सरेराह समूह के एमडी भंवर सिंह पलाड़ा का ही है। पिछली बार भाजपा में बगावत होने के कारण उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। उनके अतिरिक्त शहर भाजपा अध्यक्ष प्रो. रासासिंह रावत भी रुचि दिखा रहे हैं, मगर सवाल ये है कि ब्यावर में विधायक शंकर सिंह रावत का टिकट पक्का माना जाने के कारण क्या एक और रावत नेता को जिले में दूसरा टिकट दिया जाएगा? नगर निगम के पूर्व उप महापौर सोमरत्न आर्य भी इन दिनों पुष्कर के खूब चक्कर काट रहे हैं। उनके अतिरिक्त सलावत खां व खादिम सैयद इब्राहिम फखर भी दावेदारी के मूड में हैं।
कांग्रेस में मौजूदा शिक्षा राज्य मंत्री श्रीमती नसीम अख्तर इंसाफ की टिकट पक्की मानी जा रही है। फिलहाल वहां कोई और दावेदार उभर कर सामने भी नहीं आया है, मगर ऐन वक्त पर अजमेर उत्तर से टिकट न मिलने पर यहीं के पूर्व विधायक डॉ. श्रीगोपाल बाहेती यहां का रुख कर सकते हैं। वैसे श्रीमती इंसाफ का टिकट उसी स्थिति में कटेगा, जबकि जिले में किसी और सीट पर किसी मुस्लिम को टिकट दे दिया जाए।
लंबे अरसे तक स्वर्गीय बाबा गोविंद सिंह गुर्जर के कब्जे में रही नसीराबाद सीट पर भाजपा की ओर से यूं तो पूर्व मंत्री सांवर लाल जाट का ही दावा मजबूत है, हालांकि पिछले चुनाव में वे चंद वोटों से हार गए थे। वे स्थान बदल कर किशनगढ़ भी जा सकते हैं। वैसे उनका टिकट पक्का है, चाहे कहीं से लें, क्योंकि वे पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे सिंधिया के हनुमान माने जाते हैं। नसीराबाद में पिछली बार जाट के अचानक टपकने की वजह मन मसोस कर रह जाने वाले पूर्व जिला प्रमुख पुखराज पहाडिय़ा भी इस बार दावा कर सकते हैं। कांग्रेस में मौजूदा विधायक महेन्द्र सिंह गुर्जर का टिकट कटने की कोई संभावना नहीं है, इस कारण किसी और की दावेदारी उभर कर सामने नहीं आई है।
पिछले चुनाव से सामान्य हुई केकड़ी सीट पर भाजपा टिकट के प्रमुख दावेदारों में पिछली बार हार चुकीं श्रीमती रिंकू कंवर व भूपेन्द्र सिंह के नाम ही सामने हैं, मगर बताते हैं कि इस बार युवा भाजपा नेता व सरेराह ग्रुप के एमडी भंवर सिंह पलाड़ा वहां से चुनाव लडऩे का विचार बना सकते हैं। उधर कांग्रेस में सरकार मुख्य सचेतक डॉ. रघु शर्मा का टिकट पक्का माना जा रहा है।
मसूदा में भाजपा की ओर से पूर्व विधायक किशन गोपाल कोगटा व प्रहलाद शर्मा में से किसी एक को टिकट मिलने की उम्मीद है। ऐन वक्त पर महिला नेत्री डा. कमला गोखरू भी मैदान में आ सकती हैं। देहात जिला भाजपा अध्यक्ष नवीन शर्मा फिर दावेदारी के मूड में हैं। पिछली बार वे तीसरे नंबर पर रहे थे। कांग्रेस में संसदीय सचिव ब्रह्मदेव की दावेदारी को कहीं से भी कमजोर नहीं माना जा रहा। वे पिछली बार कांग्रेस के बागी रामचंद्र चौधरी को हरा कर जीते और कांग्रेस सरकार को समर्थन दिया। इस बार चौधरी की दावेदारी का तो पता नहीं, मगर पूर्व विधायक हाजी कयूम खान जरूर पूरी ताकत लगाए हुए हैं।
मार्बल मंडी के रूप में विकसित किशनगढ़ में भाजपा से पूर्व विधायक भागीरथ चौधरी इस बार फिर दावेदारी करेंगे, मगर नसीराबाद से हार चुके पूर्व मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट भी इस बार दावेदारी कर सकते हैं। कांग्रेस के मौजूदा विधायक नाथूराम सिनोदिया का टिकट पक्का ही है। वे सब गुटों को साथ ले कर चल रहे हैं।
मगरा इलाके की ब्यावर सीट पर रावत वोटों की बहुलता के चलते भाजपा के मौजूदा विधायक शंकर सिंह रावत का टिकट कटने की कोई संभावना नहीं है, मगर फिर भी देहात भाजपा अध्यक्ष देवीशंकर भूतड़ा दावेदारी कर सकते हैं। कांग्रेस से पूर्व विधायक डॉ. के. सी. चौधरी फिर दावेदारी कर सकते हैं। वे पिछली बार कांग्रेस के बागी हो कर निर्दलीय चुनाव लड़े थे और भाजपा के शंकर सिंह रावत से 37 हजार वोटों से हार कर निकटतम प्रतिद्वंद्वी रहे थे। कांग्रेस के मूल सिंह रावत तीसरे स्थान रहे। यहां सुदर्शन रावत उभरते कांग्रेसी नेता के रूप में माने जा रहे हैं। ब्यावर में वोटों का धु्रवीकरण शहर व गांव के बीच होता है।
कुल मिला कर जिले में चुनावी टिकट की दावेदारी की चर्चाएं शुरू हो चुकी हैं और चुनाव के नजदीक आते आते समीकरणों में बदलाव हो सकता है।
-तेजवानी गिरधर