बुधवार, 17 सितंबर 2014

सुशील कंवर पलाड़ा की बराबरी नहीं कर पाईं सरिता

केन्द्र व राज्य में प्रचंड बहुमत से बनी भाजपा सरकारें और राज्य की मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे की पूरी फौज के नसीराबाद विधानसभा उपचुनाव में लगने के कारण यही लग रहा था कि पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सरिता गैना जीत कर पूर्व जिला प्रमुख श्रीमती सुशील कंवर पलाड़ा के बराबर आ जाएंगी, मगर बदकिस्मती से ऐसा हो नहीं पाया। उन्होंने एक बारगी यह तथ्य फिर साबित कर दिया कि जो भी एक बार जिला प्रमुख बन जाता है, उसका राजनीतिक कैरियर खत्म सा हो जाता है।
ज्ञातव्य है कि इससे पहले जिला प्रमुख हनुवंत सिंह रावत, सत्यकिशोर सक्सैना, पुखराज पहाडिय़ा, रामस्वरूप चौधरी की किस्मत पर बाद में लगभग फुल स्टॉप ही लग चुका है। रावत का तो निधन हो गया, जबकि सक्सैना अब केवल वकालत करते हैं। कांग्रेस तक में सक्रिय नहीं हैं। पहाडिय़ा की बात करें तो वे हालांकि अब भी संगठन के कामों में सक्रिय हैं, मगर एक बार भी विधानसभा का टिकट हासिल नहीं कर पाए हैं। पहले वे पुष्कर से टिकट मांगते रहे, बाद परिसीमन होने पर नसीराबाद में जोर लगाया, मगर हर बार कोई न कोई रोड़ा आ गया। चौधरी भी फिलहाल ठंडे बस्ते में हैं। इस लिहाज से सुशील कंवर पलाड़ा किस्मत की धनी नहीं। जिला प्रमुख रहने के बाद पिछले विधानसभा चुनाव में मसूदा से ऐन वक्त पर टिकट ले कर आईं और बहुकोणीय मुकाबले में जीत कर दिखाया। इसमें कोई दोराय नहीं कि इस जीत में उनकी किस्मत ने तो साथ दिया ही, उनकी जिला प्रमुख रहने के दौरान की गई सेवाओं का भी खासा प्रभाव था।

यानि कि रामचंद्र चौधरी भी हथेली नहीं लगा पाए

अजमेर डेयरी के अध्यक्ष रामचंद्र चौधरी ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट से जाति दुश्मनी के चलते नसीराबाद उपचुनाव में भाजपा का भरपूर साथ दिया, मगर वे भी हथेली नहीं लगा पाए, जबकि उनके पास तो इलाके की सारी दूध डेयरियां थीं और दूधियों पर उनका जबरदस्त प्रभाव माना जाता है। बताते हैं कि उन्होंने पूरी ईमानदारी से मेहनत कर धुंआधार प्रचार किया, चाहे निजी संतुष्टि के लिए ही सही, मगर सरिता को नहीं जितवा पाए। मीडिया में इस तरह की खबरें आ रही हैं कि उनका दावा सरिता के 15 हजार वोटों से जीत का था। अगर वे मेहनत नहीं करते तो सरिता की हार का आंकड़ा हजारों में होता। अगर यह बात सही मान ली जाए तो इससे यह अर्थ निकलता है कि जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट ने तो कुछ किया ही नहीं। जाट के लिए यह विडंबना ही है कि सरिता की हार का आंकड़ा सैंकड़ों में रहने का श्रेय चौधरी का दिया जा रहा है, जबकि यह वह सीट है, जिसे उन्होंने हजारों से वोटों से जीतने के बाद छोड़ा था। जो कुछ भी हो, चौधरी का श्रेय मिलना उनका मीडिया फ्रेंडली होना है। कम से कम इससे वसुंधरा के पास ये मैसेज जाएगा कि चौधरी ने तो खूब मेहनत की थी, जाट ने ही ठीक से काम नहीं किया। वैसे ये बात पक्की है कि इस हार की सीधी जिम्मेदारी जाट पर ही आयद होती है क्योंकि यह सीट उनकी थी, भले ही इसके लिए बाहर से आए मंत्रियों व विधायकों ने भी कमान संभाली हो।

अब मान रहे हैं कि सरिता गैना गलत कैंडिडेट थीं

नसीराबाद विधानसभा उप चुनाव में मतदान के दिन तक श्रीमती सरिता गैना की हजारों वोटों से जीत के दावे करने वाले भाजपाई ही अब हार के बाद दबे सुर में कहने लगे हैं कि वे गलत कैंडिडेट थीं। अगर इसी जगह जलदाय मंत्री प्रो. सांवरलाल जाट के बेटे को टिकट दिया जाता तो वे किसी भी सूरत में जीत कर आते।
असल में नसीराबाद के ग्रामीण इलाकों में चुनाव प्रचार करने गए शहरी नेताओं को तभी पता लग गया कि कि सरिता गैना की छवि उतनी ठीक नहीं है, जितनी नजर आ रही है। उनके प्रति जिला प्रमुख के कार्यकाल के दौरान की कुछ नाराजगियां लोगों में है। मगर अब क्या हो सकता था। उन्हें तो प्रचार करना था, तो करते रहे। मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे हालांकि भरपूर ताकत लगा रखी थी, इस कारण उन्हें उम्मीद थी कि सरिता जीत जाएंगी, मगर मन ही मन धुकधुकी थी। अब जब कि वे हार गई हैं तो हर कोई एक दूसरे के कान में फुसफुसा रहा है कि वे गलत कैंडिडेट थीं। अगर  प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के परिवारवाद को बढ़ावा न देने की नीति नहीं होती व प्रो. जाट के बेटे को टिकट दे दिया जाता तो वे येन-केन-प्रकारेण उसे जितवा कर ही आते। सरिता के लिए उन्होंने भले ही मेहनत की हो, मगर खुद का बेटा होता तो जाहिर तौर पर एडी चोटी का जोर लगा देते। हालांकि ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि जाट ने मेहनत नहीं की, मगर परिणाम यही बता रहे हैं कि जरूर कहीं न कहीं लापरवाही या अनदेखी हुई है। हार के लिए जाट को जिम्मेदार मानने वाले तर्क देते हैं कि वे काहे को सरिता के लिए जी जान लगाते। यदि सरिता जीत जातीं तो यह सीट उनके बेटे के लिए भविष्य में खाली नहीं रहती। वैसे भी उनके साथ जितनी बड़ी चोट हुई है, वो तो उनका मन ही जानता होगा। वसुंधरा की जिद के कारण सांसद का चुनाव लड़ा, मगर केन्द्र में मंत्री नहीं बन पाए। चाहते थे कि कम से कम अपने बेटे को राजनीति में स्थापित कर दें, मगर वह भी नहीं हो पाया।
जहां तक खुद सरिता का सवाल है, हालांकि उन्होंने खुद कैंडिडेट होने के नाते पूरे दौरे किए, मगर उन्हें ज्यादा भरोसा इस बात का था कि चूंकि सरकार की पूरी ताकत लगी हुई है, इस कारण आसानी से जीत जाएंगी। बाकी उनके चेहरे से कहीं से नहीं लग रहा था कि वे एक योद्धा की तरह से मैदान में हैं।