बुधवार, 4 जुलाई 2012

रलावता की जुबान क्या फिसली, टंडन ने पकड़ ली

कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के नवनियुक्त शहर जिला अध्यक्ष मुबारक अली के सम्मान में कांग्रेस दफ्तर में आयोजित सम्मेलन के दौरान कांग्रेस शहर अध्यक्ष महेन्द्रसिंह रलावता की जुबान क्या फिसली, जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष राजेश टंडन ने पकड़ ली। आइये, जरा देखते हैं कि रलावता ने ऐसा क्या कह दिया, जिससे टंडन का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया।
रलावता ने कहा था कि कांग्रेसी विचारधारा के वकील विधि सलाहकार आदि पदों पर काबिज होने के लिए पार्टी का उपयोग करते हैं और जरूरत पडऩे पर कांग्रेस के वकील के नाते पैरवी नहीं करते। उन्होंने बाकायदा इसका उदाहरण भी दिया कि जिस तरह से दरगाह बम कांड के आरोपियों की वकालत भाजपा और आरएसएस विचारधारा के वकील कर रहे हैं, उस तरह से कांग्रेसी वकीलों को भी उनके खिलाफ पैरवी करनी चाहिए। आप समझ गए ना। टंडन को रलावता की सीख पसंद नहीं आई। वकीलों को किस की पैरवी करनी चाहिए अथवा किसकी नहीं, यह भला यदि शहर कांग्रेस अध्यक्ष तय करेगा तो कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है। और चूंकि टंडन बार के अध्यक्ष हैं, इस कारण उन्हें तुरंत प्रतिक्रिया देनी पड़ी। उनके लिये यह जरूरी इस कारण भी हो गया कि वे स्वयं कांग्रेस के एक जिम्मेदारी नेता भी हैं। अगर चुप रहते तो उन पर पक्षपात का आरोप लगता। वैसे भी वकालत ऐसा पेशा है, जिसमें पार्टीबाजी नहीं होती। ऐसे अनेक मामले मिल जाएंगे, जिसमें एक पार्टी से जुड़े वकील ने दूसरी पार्टी के मुवक्किल की पैरवी की होगी। ऐसे मामले भी हैं, जिनमें किसी पार्टी से जुड़े किसी प्रकरण में पीडि़त ने दूसरी पार्टी से जुड़े वकील से इसलिए संपर्क साधा होगा कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता का लाभ मिलेगा, मगर वकील ने पैरवी करने से इंकार कर दिया होगा। सीधी सी बात है, यह वकील की मर्जी है कि वह किस की पैरवी करे और किसी की नहीं। इस सिलसिले में एक पुराना किस्सा याद आता है। बताया जाता है कि कांग्रेस के पूर्व विधायक डा. राजकुमार जयपाल पर जब स्वामी लोढ़ा बलात्कार कांड की पैरवी के लिए चंद पत्रकारों ने स्वाती को भाजपा नेता औंकार सिंह लखावत के पास भेजा तो उन्होंने पैरवी करने से इंकार कर दिया। वे चाहते तो मौके का फायदा उठा सकते थे, मगर उन्हें यह शायद ठीक नहीं लगा। यह किस्सा तब बहुत चर्चित हुआ था। किस्सा अक्षरश: सही है या नहीं, मगर इसकी चर्चा उन दिनों खूब थी।
यानि कि पार्टी अलग है और वकालत का पेशा अलग। अगर रलावता की मान ली जाए तो कई वकीलों को मुवक्किलों से हाथ धोना पड़ेगा। माना कि विचारधारा से जुड़े वकील विधि सलाहकार जैसे पदों पर काबिज होने के लिए पार्टी का ही सहारा लेते हैं क्योंकि अमूमन ऐसी नियुक्तियां पार्टी के आधार पर ही होती देखी गई हैं। मगर इसका मतलब ये तो नहीं कि उसके एवज में वह पार्टी से जुड़े मामलों की फोकट में पैरवी करें। घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या? रहा उल्लेखित बम कांड का तो ये भाजपा व संघ से जुड़े नेताओं की मर्जी है कि वे क्या करते हैं, वह फार्मूला कांग्रेस पर थोड़े ही लागू हो जाता है। ऐसा तो है नहीं कि बम कांड में पार्टी स्तर पर कोई प्रस्ताव पारित हुआ अथवा भाजपा की ऐसी कोई नीति है। वह तो पैरवी करने वालों की मर्जी है। हो सकता है वे इस मामले की पैरवी फ्री में इसलिए कर रहे हों ताकि बाद में उसका कोई राजनीतिक लाभ मिल जाए।
बहरहाल, ऐसा लगता है कि रलावता की जुबान फिसल गई। पार्टी प्रेम के अतिरेक में ऐसा कह गए। ये उनके निजी विचार ही थे, पार्टी संविधान में तो ऐसा कहीं नहीं लिखा है। मगर चूंकि वे शहर अध्यक्ष के जिम्मेदार पद पर हैं, इस कारण उनकी निजी राय भी फरमान जैसी लगी। जाहिर सी बात है कि वकील समुदाय को रलावता की राय नागवार गुजरी होगी।
ताजा स्थिति ये कि टंडन ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर रलावता पर सात दिन में कार्यवाही करने और ऐसा नहीं होने पर कांग्रेस कार्यालय पर एक दिन का उपवास रखकर रलावता को सदबुद्धि देने की प्रार्थना करने की बात कह रखी है।
मामले से जरा हट कर देखें तो राजनीतिक रूप में टंडन के इस कदम को पार्टी के विपरीत माना जा सकता है, मगर टंडन किसी की परवाह करते हैं। इससे पहले भी वे उर्स के दौरान इंतजामात के लिए प्रशासन से टकराव ले चुके हैं, जिसे कि पार्टी व सरकार के विपरीत माना जा गया था।
अपुन को तो यही समझ में आता है कि टंडन साहब को चर्चाओं में रहने में महारत हासिल है। कदाचित उनकी नजर आगामी विधानसभा चुनाव पर हो। वे पहले भी दावेदार के रूप में गिने जाते रहे हैं। वो तो उनका जातीय जनाधार नहीं है, वरना उनमें एक एमएलए बनने के लिए जरूरी एक भी गुण गैर मौजूद नहीं है।
चलते-चलते एक पुछल्ला झेलिए। हाल की गुरु पूर्णिमा के मौके पर टंडन ने अपने कुछ पे्रमियों को जो शुभकामना के जो एसएमएस भेजे, उनमें आखिर में लिखा था कि आप मेरे गुरू हो, मेरा चरण स्पर्श स्वीकार करें। पाने वाले तो चकित रह गए। अपुन को जब पता लगा तो यही समझ में आया कि शायद टंडन साहब को लोकप्रिय सांसद रहे प्रो. रासासिंह रावत का गुर दिमाग में बैठ गया है, जिसे कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में टिकट मिलने पर आजमा सकते हैं। यह कहने की जरूरत नहीं है कि रावत साहब जब प्रचार पर निकलते हैं तो दरवाजा खटखटाते ही सबसे पहले दरवाजा खोलने वाले को धोक देते हैं, फिर वह चाहे उनका शिष्य ही क्यों न रहा हो।


-तेजवानी गिरधर
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